Sunday, 10 April 2016


तुलसीदास के उपास्य का वैशिष्ट्य और विन्यास
राम  नाम  मनि  दीप धरु  जीह देहरीं द्वार ।
तुलसी भीतर बाहरहुँ जो चाहत उजिआर ।।1
गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं कि अगर अंतरिक और बाह्य जगत् में उजाला चाहते हो तो अपनी जीभ रूपी देहरी के द्वार पर राम नाम रूपी मणि को रखो। राम के नाम और उनके गुणों के प्रभाव को आत्मसात करके मन के अंदर की उमंग को पाया जा सकता है और बाहर भी जीवन को सुखमय बनाया जा सकता है। तुलसी के राम इन विशिष्टताओं के प्रतीक हैं। अपने उपास्य के माध्यम से अपनी समन्वयात्मक दृष्टि को भक्ति-भावना के साथ जोड़कर लोकमंगल की साधना करने वाले गोस्वामी तुलसीदास की स्थिति लोकनायक से कम नहीं आँकी जा सकती है, क्योंकि उन्होंने अत्यंत विषम सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों के बीच अपने उपास्य की लोककल्याणकारी छवि का सृजन किया है। तुलसीदास को रामभक्त कवि के रूप में जाना जाता है। तुलसीदास की कीर्ति का अक्षय स्रोत श्रीरामचरितमानस है। बाबा तुलसी ने राम के चरित-गान के माध्यम से, श्रीरामचरितमानस के माध्यम से जिस व्यापक विश्वधर्म की स्थापना की, जिस वैश्विक स्वीकार्यता की स्थापना की, उसने भारतीय ही नहीं, विदेशी विद्वानों को भी अभिभूत किया है। रूस के प्रसिद्ध विद्वान वरान्निकोव ने श्रीरामचरितमानस का रूसी भाषा में पद्यबद्ध अनुवाद किया। रेवरेण्ड एटकिन्स ने अंग्रेजी में मानस का अनुवाद किया। ऐसे ही तमाम अध्ययन-अनुसंधान कार्य तुलसीदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विदेशों में हुए हैं या विदेशी विद्वानों द्वारा हुए हैं। ये तथ्य, ये कथन उस विश्वधर्म की व्यापकता और वैश्विक स्वीकार्यता को इंगित करते हैं। भारतवर्ष के धुर देहातों में बहुत से ऐसे लोगों को तुलसी का मानस कंठस्थ है, जिन्हें अक्षरज्ञान भी नहीं है, जो लिख-पढ़ भी नहीं सकते हैं।
तुलसी के उपास्य राम युगों-युगों से जिज्ञासा के केंद्र में रहे हैं। वाल्मीकि रामायण में आदिकवि वाल्मीकि की जिज्ञासा रामकथा के प्रणयन का माध्यम बनती है। अब्दुल हलीम ‘शरर’ लिखते हैं कि- पुराने चंद्रवंशी परिवार विशेषकर राजा रामचंद्र जी के महान और बेमिसाल कारनामे इतने अधिक हैं कि इतिहास उन्हें अपने अंदर समोने में असमर्थ है और यही कारण है कि उन्होंने इतिहास की सीमाएँ लाँघ कर धार्मिक पवित्रता का रूप धारण कर लिया है। आज हिंदुस्तान का शायद ही कोई ऐसा अभागा गाँव होगा जहाँ उनकी याद हर साल रामलीला के धार्मिक नाटक के माध्यम से ताज़ा न कर ली जाती हो।2 तुलसीदास के आराध्य राम के जीवन-चरित के मंचन की परंपरा की शुरुआत तुलसीदास ने की थी, मगर रामकथा के प्रणयन का प्रारंभ वाल्मीकि के समय में ही हो गया था। वाल्मीकि ने राम के जीवन-चरित को अद्भुत काव्य-कौशल के साथ रचा और उनके परवर्ती कवि, भक्तकवि राम के चरित्र का गान करते रहे। आदिकवि वाल्मीकि और उनके परवर्ती कवियों ने राम के विविध स्वरूपों का सृजन किया। राम कभी मानव तो कभी देवत्व के गुण से विभूषित होकर भारतीय संस्कृति के प्राण के रूप में स्थापित होते गए। वाल्मीकि के बाद राम और रामकथा के नए आयाम का सृजन बाबा तुलसी के हाथों हुआ। बाबा तुलसी के राम का विस्तार देश ही नहीं, दुनिया में हुआ। आधुनिक संदर्भ में देखें, तो विदेशों के विद्वानों के साथ ही देश के विविध विद्वानों और लोकनायकों के लिए राम जिज्ञासा के केंद्र में रहे हैं और वर्तमान में भी हैं। महात्मा गांधी रामराज्य की बात कहते हैं, जहाँ तुलसी के राम ही गांधी के रामराज्य के केंद्र में हैं। इस तरह राम के जीवन-चरित का वर्तमान संदर्भ से संबंध रामकथा के उपरोक्त दोनों कालखंडों की स्थिति के साथ जुड़ जाता है और रामकथा के तीन युगों को देखा जा सकता है। वाल्मीकि युग, तुलसी युग और तुलसी का परवर्ती कालखंड या आधुनिक परिदृश्य। 
वाल्मीकि के राम और तुलसी के राम के मध्य विभेद सामयिक अनिवार्यताओं और संक्रमण की स्थितियों के कारण है। बाबा तुलसी का युग ऐसे लोकनायक की प्रतीक्षा में था, जो विषमताओं से जूझ रहे समाज को दिशा दे सके, नीति और मर्यादा का पाठ पढ़ाकर जीवन की दशा और दिशा को कल्याणकारी बना सके। महान् मुगल सम्राट अकबर जब आगरे में बैठकर भारत की छिन्न-भिन्न राजनीति के सूत जोड़ रहे थे, और ढहे हुए साम्राज्य की फिर से नींव रख रहे थे, तब हिंदुओं की धर्मपुरी काशी में वह तुलसीदास साधु एक कुटिया में गंगातीर पर बैठकर छिन्न-भिन्न और अस्त-व्यस्त हिंदू-धर्म को संगठित करने के लिए रामसूत्र रच रहा था। जिसमें गहन चरित्र, असाधारण धैर्य और असह्य तेज था। उसका यह रामसूत्र करोड़ों मुमूर्ष हिंदू जनों के लिए जीवन-पथ का दिव्य आलोक प्रमाणित हुआ।3 बाबा तुलसी ने यह कार्य वाल्मीकि के राम की पुनर्सर्जना करके किया। श्रीरामचरितमानस ग्रंथ इसी कारण तुलसी की असाधारण सर्जना के केंद्र में स्थापित होता है। ‘मानस’ की रचना में कवि ने संस्कृत, प्राकृत आदि के विभिन्न पौराणिक एवं साहित्यिक ग्रंथों का उपयोग सम्यक् रूप में किया है। कथा का मूल आधार वाल्मीकीय रामायण है, किंतु उसमें अनेक स्थानों में परिवर्तन एवं परिवर्द्धन भी पर्याप्त मात्रा में किया गया है, जिसमें कवि की मौलिक दृष्टि का उन्मेष मिलता है।4 तुलसीदास की मौलिक दृष्टि उनकी धार्मिक भावनाओं की प्रबलता के पोषण के साथ ही काव्यात्मकता के प्रति सचेत दृष्टि और काव्य-कला की सौंदर्यात्मक उत्कृष्टता के साथ लोक के प्रति कल्याण के भाव से, हित के भाव से संपृक्त है। बाबा तुलसी की यह मौलिक दृष्टि मानस में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। इसी कारण भूगोल के बंधनों से, काल के बंधनों से मुक्त बाबा तुलसी का ‘मानस’ एक ग्रंथ मात्र नहीं है, बल्कि भारतीय संस्कृति के बौद्धिक, कलात्मक और भावुक ग्रंथों का समन्वित रूप है। यह जीवनोपयोगी भी है, गंभीर भी है और बौद्धिक-दार्शनिक तत्त्वों से युक्त भी है। राम की गूढ़ कथा एक ओर निर्गुण, निराकार परमात्मा को हमारे अपने समाज का व्यक्ति बना देती है तो दूसरी ओर परिवार, समाज और राष्ट्र के स्तर पर सत्य और प्रेम की रक्षा की, मर्यादा के पालन की ऐसी सीख दे जाती है, जो अनपढ़ के लिए भी सहज और सुग्राह्य हो जाती है। तत्कालीन समाज में धर्मों और पंथों को लेकर खिंची विभेद की दीवारों को तोडने का पहला प्रयास बाबा तुलसी करते हैं। वे मानस में लिखते हैं-
बंदऊँ  राम  नाम रघुबर को । हेतु  कृसानु   भानु हिमकर को ।।
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो । अगुन अनूपम गुन निधान सो ।।5
तुलसीदास अपने उपास्य राम की वंदना करते हुए कहते हैं कि अग्नि (र बीज मंत्र रूप), सूर्य (आ बीज मंत्र रूप) तथा चंद्र (म बीज मंत्र रूप) के बीज मंत्र रूप में ‘राम’ का नाम है। ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव का स्वरूप है। ‘राम’ नाम निर्गुण होकर भी अनुपम गुणों का भंडार है। इस प्रकार तुलसी के राम समन्वय के अद्भुत स्वरूप हैं, जिनमें सगुण और निर्गुण को देखा जा सकता है, जिनमें विविध संप्रदायों के समन्वय को भी देखा जा सकता है। ‘राम’ का नाम अनुपम गुणों का भंडार इस कारण भी है, क्योंकि उनमें भगवत्ता और मानवता का अनुपम संयोग भी होता है। तुलसीदास लिखते हैं कि-
जगु पेखन तुम्ह  देखनिहारे । बिधि  हरि  संभु   नचावनिहारे ।।
तेऊ न जानहिं मरमु तुम्हारा । औरु तुम्हहिं को जाननिहारा ।।6   
जब वनवासी राम वाल्मीकि के आश्रम में जाकर उनसे अपने रहने के लिए स्थान के बारे में पूछते हैं, तब राम के प्रश्न के उत्तर के रूप में वाल्मीकि के मुख से तुलसीदास राम को ब्रह्मा, विष्णु और महेश को नचानेवाला कहकर राम को देवत्व से ऊपर प्रतिष्ठापित करवाते हैं। आधुनिक संदर्भ में इसे राम के मानवीय स्वरूप की स्थापना के रूप में देखा जा सकता है, जहाँ मानव अपने गुणों के माध्यम से देवत्व की स्थिति से ऊपर पहुँच जाता है। वाल्मीकि कहते हैं कि देवगण भी राम के रहस्य को नहीं जानते हैं। वाल्मीकि का यह कथन राम में विकसित उदात्त मानवीय गुणों को व्याख्यायित करता है, जिनके माध्यम से राम देवों से ऊपर हैं। तुलसीदास द्वारा मानस में स्थापित देवत्व के ऊपर मानवता का स्थान, तुलसी की यह स्थापना सामयिक अनिवार्यता भी थी, जिसके माध्यम से तुलसी ने समाज को नीति और मर्यादा की सीख देने का प्रयास किया।
तुलसी के उपास्य राम में शक्ति, शील और सौंदर्य का संयोग देखने को मिलता है। चरित्र की दृष्टि से वे सर्वश्रेष्ठ मानव और मर्यादापुरुषोत्तम बन जाते हैं। राम की विनयशीलता और उनकी करुणा उनके शील को आलोकित करती है। उनकी शक्ति कभी भी उन्हें अपने पथ से विचलित नहीं करती, बल्कि उदात्त मानवीय गुणों के विकास में सहायक बनती है। उनकी दयालुता, शरणागतवत्सलता, उदारता, सौहार्दभाव और परदुःखकातरता का परिचय तुलसीदास के माध्यम से अनेक स्थानों में प्राप्त होता है। सभी को साथ लेकर चलने का भाव राम की विशेषता है, इसी कारण कोल, भील, निषाद और वानर आदि विविध आदिवासी जाति-समूह बिना किसी भेद के राम के सहयोगी बन जाते हैं। शबरी और अहल्या के उद्धार के प्रसंगों के माध्यम से तुलसीदास ने अपने उपास्य के सर्वसमावेशी स्वरूप को प्रकट किया है। इसके अतिरिक्त मानस में अनेक प्रसंगों के माध्यम से तुलसीदास ने अपने उपास्य के उदात्त मानवीय गुणों को प्रकाशित करने का प्रयास किया है।
राम और रावण के व्यक्तित्वों का विशद विवेचन तुलसी ने किया है और इसके माध्यम से उन्होंने मानवीय गुणों की स्थापना की है। राम और रावण मानवता और दानवता के प्रतिनिधि हैं, क्योंकि राम में इन वृत्तियों के उदात्त रूप के दर्शन होते हैं तथा रावण में यही वृत्तियाँ निकृष्ट रूप में व्यक्त हुईं हैं। काम एक रागात्मक वृत्ति है, किंतु वह उत्कृष्ट रूप को पाकर वैभव से निर्लिप्त हो जाता है तथा निःस्वार्थ मैत्रीभाव तथा लोकोपकार ही उसका लक्ष्य हो जाता है। राम उत्कृष्ट काम से अभिप्रेरित थे, इसीलिए उन्होंने रावण और बालि के राजकीय वैभव का परित्याग कर विभीषण तथा सुग्रीव का परित्राण किया। शूर्पणखा जैसी मायावी नारी के लावण्य-जाल में उनका मन नहीं उलझा। वे धर्म संस्थापन तथा सज्जन-संरक्षण के कार्य में ही रत रहे।7 दूसरी ओर रावण की दानवता उसके अहम् के कारण है, जिसमें वह आत्मकेंद्रित होकर वैयक्तिक स्वार्थ की साधना करता रहा, अपने विरोधियों को परास्त करने के प्रयासों में ही संलग्न रहा। इसके लिए उसने निर्दोषों की नृशंस हत्या भी की, अनीति को प्रोत्साहन भी दिया और अत्याचार-अन्याय की पराकाष्ठा को प्राप्त भी किया। तुलसी के रावण व्यक्तित्व वाले दैत्य रामभक्त एवं वीर योद्धा हैं। राम के द्वारा मारा जाना ही रावण का आध्यात्मिक लक्ष्य तथा अपने तमोगुण युक्त शरीर से मोक्ष प्राप्त करने का उपाय था। इसके लिए उनको इसके अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं दिखाई दिया था। आत्मीय जनों का उपदेश सुनने पर भी सीता को न छोड़ने का कारण उनकी रामभक्ति मात्र थी।8 मानस के विवेचन में विद्वान भले ही तुलसी की रामभक्त लेखनी की उपज के रूप में इस प्रकार रावण को रामभक्त दिखाने का प्रयास मानते हों, किंतु आधुनिकताबोध इस तथ्य का विश्लेषण दूसरे अर्थों में करता है। इसके लिए विनयपत्रिका में रावण और उसके साम्राज्य के संबंध में तुलसी के मत को देखना होगा। वे विनयपत्रिका के 58वें पद में लिखते हैं कि- मन रूपी मय दावन द्वारा रचित सुप्रवृत्तियों के समान लंकादुर्ग का निर्माण किया गया है। इसमें महामोह रूपी रावण, अहंकार रूपी कुंभकर्ण और अशांति उत्पन्न करने वाले काम रूपी मेघनाद का निवास हो गया है। यहाँ पर लोभ रूपी अतिकार्य, मत्सर रूपी महोदर, क्रोध रूपी देवांतक, द्वेष रूपी दुर्मुख, दंभ रूपी खर, कपट रूपी अकम्पन, दर्प रूपी मनुजाद और मद रूपी शूलपाणि राक्षस निवास करते हैं। इस लंका दुर्ग में राम के गुणों का पालनकर्ता, राम के चरणों का सेवक जीव रूपी विभीषण दुष्टों के वन के मध्य चिंताग्रस्त होकर निवास करता है।तुलसीदास के हृदयकमल में निवास करने वाले राम अपने सत्कर्म रूपी सेतु का निर्माण करके दानवी प्रवृत्तियों का विनाश करके सारे संसार का कल्याण करते हैं।9 इस प्रकार रावण मन के भावों का परिचायक है। किसी व्यक्ति में सत् और असत् वृत्तियों की समान रूप से उपस्थिति होती है, मगर उनमें जिस वृत्ति का पलड़ा भारी होता है, मानवीय कार्य-व्यवहार भी उसी के अनुरूप होते हैं। इतना अवश्य है कि सत् वृत्तियों के प्रति अंतरात्मा का आकर्षण होता है और उन्हें प्राप्त करने की चेष्टा भी निरंतर चलती रहती है। राम सत् वृत्तियों के प्रतीक हैं, इस कारण रावण की राम के प्रति भक्ति सहज प्रतीत होती है। नरेंद्र कोहली ने आधुनिकताबोध से संपृक्त रामकथा (अभ्युदय) में इस तथ्य को प्रतिरावण के माध्यम से स्पष्ट किया है।
तुलसीदास के उपास्य राम का विशिष्ट गुण है- मर्यादा। तुलसी राम का चरित्र चुनते हैं अपने लिए जो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और हर तरह से आदर्श के प्रतिरूप हैं: आदर्श पुत्र, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र, आदर्श भ्राता, सबसे अधिक आदर्श पति, और फिर आदर्श शासक।10 तुलसी के राम अपने जीवन में, अनेक प्रसंगों में मर्यादा का निर्वहन करते हैं। मानस में विविध प्रसंग राम की मर्यादा को व्याख्यायित करते हैं। सीता स्वयंवर के प्रसंग में तुलसीदास लिखते हैं कि-
रघुबंसिन्ह  कर सहज सुभाऊ । मनु कुपंथ पगु  धरै  न काऊ ।।
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी । जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी ।।11
राम के मन में अमिट विश्वास है कि रघुकुल की परंपरा को वे समग्र दृढ़ता के साथ निभा रहे हैं। वे कभी गलत रास्ते पर नहीं चले हैं और न ही सपने में भी कभी दूसरे की पत्नी पर कुदृष्टि डाली है। पारिवारिक जीवन की मर्यादा के सम्यक् निर्वहन को राम में देखा जा सकता है। राजा दशरथ द्वारा राम को वनवास दिये जाने पर व्यथित सीता को राम अपने साथ नहीं ले जाना चाहते हैं। वे कहते हैं कि-
हंसगमनि  तुम  नहिं बन  जोगू । सुनि  अपजस  देहहिं मोहि लोगू ।।12
इसके उत्तर में सीता कहती हैं कि-
मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू । तुम्हहि उचित तप मो कहुँ भोगू ।।13
मैं सुकुमार हूँ, इसलिए मैं वन को नहीं जा सकती, मगर मैं महलों में रहकर सुखों का भोग करूँ और आप वन में तापस-जीवन व्यतीत करें, यह भी तो उचित नहीं है, इसलिए मैं आपके साथ वन को चलूँगी। पारिवारिक जीवन में इस प्रकार का समर्पण और नेह-प्रेम पुरातन भारतीय परंपरा की आदर्श स्थिति को प्रकट करता है। राम और सीता के मध्य का यह संवाद पवित्र सामाजिक आदर्श की स्थापना भी करता है।
पारिवारिक जीवन के साथ ही आदर्श भ्राता, आदर्श शिष्य, आदर्श पुत्र और आदर्श शासक के रूप में राम की विशिष्टताएँ प्रेरणापरक बन जाती हैं। तुलसीदास ने अपने भक्त-भाव के विकास के साथ ही अपने सामाजिक दायित्व के बोध का निर्वहन भी किया। उन्होंने तत्कालीन समाज के विघटन की भयावह स्थितियों को न केवल देखा था, वरन् गहराई के साथ उसके दुष्प्रभावों को अनुभूत भी किया था। इसी कारण तुलसीदास ने व्यक्तिगत-पारिवारिक जीवन की विसंगतियों को, धार्मिक मर्यादाओं की उपेक्षा की विषम स्थितियों को और राजनीतिक विकृतियों को समाधान देने का प्रयास किया। इस तरह तुलसी के उपास्य राम उनकी भक्ति-भावना की पुष्टि के साथ ही उनके सामाजिक दायित्व-बोध के निर्वहन का माध्यम भी बन जाते हैं। तुलसी अपने उपास्य के माध्यम से समाज को मर्यादित जीवन जीने की सीख देते हैं, तमाम समस्याओं के समाधान भी देते हैं। तुलसीदास को रामभक्त कवि और अनन्य रामभक्त कहकर अनेक विद्वान उनका मूल्यांकन करते हैं, किंतु उनकी रामभक्त लेखनी धार्मिक संकीर्णताओं में बँधी हुई नहीं थी, वरन् तत्कालीन स्थितियों के अनुरूप तुलसी ने भक्ति-भाव की धारा के प्रवाह के माध्यम सामान्य-जन तक अपनी बात पहुँचाने का प्रयास किया था। उनकी बात सामान्य-जन तक सरलता के साथ पहुँच सके, इसलिए उन्होंने ‘मानस’ का प्रणयन भी आम-जन की बोली-बानी में किया। जो लोग उस पर भी न समझ सकें, उनके लिए रामलीला के मंचन का प्रारंभ उन्होंने किया। फलतः संपूर्ण मध्यभारत में रामलीलाओं के माध्यम से तुलसी के उपास्य की विशिष्टताओं का विस्तार हुआ।
 वाल्मीकि के कालखंड की तुलना में तुलसी का समय अनेक विषमताओं से, चुनौतियों से भरा हुआ था। वाल्मीकि की तुलना में तुलसी के समक्ष बड़ी जिम्मेदारी भी थी, समाज को एक सूत्र में बाँधे रखने की, विघटन से बचाने की, पुरातन नीतियों-मर्यादाओं-आदर्शों को बचाए रखने की। तुलसीदास ने अपनी जिम्मेदारी का सम्यक्, सर्वांग निर्वहन किया, जिसके लिए युगों-युगों से जिज्ञासा के केंद्र में रहे राम का व्यक्तित्व और कृतित्व माध्यम बना। तुलसीदास तत्कालीन परिस्थितियों की विभीषक स्थितियों को अनुभूत करते हुए उसे कलियुग का नाम देते हैं और कहते हैं कि राम का नाम ही कलियुग के लिए कल्पतरु है और कलियुग में कल्याण करने वाला है। राम नाम का स्मरण करके ही भाँग-सा निकृष्ट पौधा भी तुलसी के पौधे की तरह उत्कृष्ट हो गया है-
नाम राम को कलप तरु कलि कल्यान निवासु ।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु ।।14
तुलसी के परवर्ती कालखंड में, वर्तमान में भी चुनौतियाँ कम नहीं हुईं, फलतः राम का नाम सहारा बना और तुलसी के उपास्य ने एक बार फिर से समाज में मानवीय गुणों को पुष्पित-पल्लवित करने में योगदान दिया। भारत में बर्तानिया हुकूमत के समय अनेक मजदूर बंधक बनाकर बर्तानिया उपनिवेशों में ले जाए गये। अपने देश से दूर उन मजदूरों के लिए तुलसी का ‘मानस’ और तुलसी के उपास्य ही सहारा बने। फीजी, सूरीनाम, मॉरीशस और त्रिनिदाद-टोबैगो सहित दुनिया के तमाम देशों में तुलसी का मानस पहुँचा। इन देशों में आज भी भारतवंशियों के लिए तुलसी के राम, उनका ‘मानस’ और उनकी रामलीला जीवंत-जागृत है।
वर्तमान जीवन-शैली में तुलसी के राम की प्रासंगिकता नए अर्थों के साथ स्थापित हुई है। महात्मा गांधी ने आजाद भारतदेश के लिए रामराज्य का स्वप्न देखा था, जिसमें राजा और प्रजा मर्यादित बनें, परिवारों में मर्यादा की स्थापना हो, ताकि रामराज्य की स्थापना के माध्यम से भारतदेश की सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टता पुनः स्थापित हो सके। बापू राम के साथ, या यों कहें कि तुलसीदास के राम के साथ, बहुत दूर तक एकाकार हो गये थे। दक्षिणी अफ्रीका में ही बापू ने अपने चिंतन को एक दिशा दे दी थी और उसका एक नाम भी रखा गया था- सर्वोदय। यह शब्द जैन दर्शन से लिया गया था, तथापि इसके पीछे मूल कल्पना तुलसी की कल्पना के रामराज्य की थी।
बापू ने सर्वोदय दर्शन को पाश्चात्य उपयोगितावादी दर्शन के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया। बेंथम, मिल और लॉक ने लोकतंत्र की परिभाषा करते हुए उसके सामने लक्ष्य रखा- अधिकतम लोगों का अधिकतम हित। बापू ने कहा कि यह आदर्श सही नहीं है। सही आदर्श यह है कि समाज के सब लोगों का संपूर्ण हित साधने के लिए समाज, राज्य और व्यक्ति को मिलकर कार्य करना चाहिए। इस आदर्श की पुष्टि के लिए उन्होंने पश्चिमी विचारकों और पाश्चात्य जनता को संतुष्ट करने के लिए सुकरात, लियो तॉलस्तॉय, जॉन रस्किन, डेवि थोरों और इमर्सन जैसे विचारकों का चिंतन सर्वोदय के पक्ष में प्रस्तुत किया, परंतु सत्य यह है कि उनके मन की पृष्ठभूमि में तुलसी की कल्पना का रामराज्य घर किये बैठा था। रामराज्य उनके लिए महज दैवी राज्य नहीं था, वरन् वह एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था का प्रतीक था, जिसमें-
 बयरु  न कर काहू सन  कोई ।  राम प्रताप  विषमता खोई ।।
दैहिक दैविक भौतिक तापा । राम राज नहिं काहुहि ब्यापा ।।
राम भगति नर अरु नारी । सकल परमगति के अधिकारी ।।15  
गांधी जी का स्वप्न भले ही साकार न हो पाया हो, मगर आदर्श भारत के लिए इसकी अपेक्षा वर्तमान में भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है। नया संकट पाश्चात्य प्रभावों से आज नए रूप में देखा जा सकता है। पाश्चात्य जीवन-शैली के ‘माइक्रो-फैमिली कल्चर’ और टूटती-बिखरती ‘फैमिली वैल्यूज़’ के घातक दुष्परिणामों से बचने के लिए श्रीरामचरितमानस के रूप में हमारे पास ऐसा अमोघ अस्त्र है, जिसकी प्रासंगिकता वर्तमान जीवन में उत्तरोत्तर बढ़ रही है। रामकथा को आधार बनाकर अनेक भक्त कवियों ने उत्कृष्ट रचनाएँ की हैं, किंतु रामकथा को लोक-व्यवहार से, लोक-जीवन की मान्यताओं-मर्यादाओं और समाज की मानवीय अपेक्षाओं के अनुरूप बनाने का काम बाबा तुलसी ने ही किया है। बाबा तुलसी ने मानस के माध्यम से, अपने उपास्य राम के माध्यम से समूचे परिवार के मर्यादित आचरण को समग्रता के साथ प्रस्तुत किया है। परिवार के व्यापक अर्थों में समाज और राष्ट्र के लिए राम की प्रासंगिकता को अनुभूत किया जा सकता है। तुलसी के उपास्य राम का चरित्र, उनके गुण, उनका व्यक्तित्व अपरिमित है, अतुलनीय है और उनके व्यक्तित्व का, उनके चरित्र का एक अंश ही अनेक विषमताओं के निराकरण की सामर्थ्य रखता है।
जल सीकर महि रज गनि जाहीं । रघुपति चरित न बरनि सिराहीं ।।16
संदर्भ-
1.  1.     गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, लोकभारती टीका, योगेंद्रप्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1999, 1/ 21, पृ. 78
2.     पुराना लखनऊ (गुज़िश्ता लखनऊ), अब्दुल हलीम शरर, अनुवाद- नूर नबी अब्बासी, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, नई दिल्ली-70, प्रथम सं. 1971, पृ. 01
3.     धर्मध्वज तुलसीदास, हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास, आचार्य चतुरसेन, गौतम बुक डिपो, देहली, प्रथम सं. 1949, पृ. 251
4.     पौराणिक प्रबन्ध-काव्य-परम्परा (तथाकथित राम-भक्ति शाखा), हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, गणपति चन्द्र गुप्त, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, नवम् सं. 2010, पृ. 222
5.     गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, लोकभारती टीका, योगेंद्रप्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1999, 1/ 1-2/19, पृ. 76-77
6.     वही, 2/1-2/127, पृ. 444
7.     कथानक पर आधृत मानवतावाद, तुलसी का मानवतावादी दृष्टिकोण, डॉ. रामाप्रसाद मिश्र, नीरज बुक सेंटर, दिल्ली-92, प्रथम सं. 2005, पृ. 46
8.     हिंदी का भक्ति-साहित्य, भक्ति-आंदोलन और साहित्य, डॉ. एम. जॉर्ज, प्रगति प्रकाशन, आगरा, प्रथम सं. 1978, पृ. 369-370
9.    गोस्वामी तुलसीदास कृत विनयपत्रिका (सटीक), योगेंद्र प्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1998, पद सं. 58, पृ. 96-98
10. हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, सं. 2002, पृ. 49
11.  गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, लोकभारती टीका, योगेंद्रप्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1999, 1/5-6/231, पृ. 241
12.   वही, 2/5/63, पृ. 396
13.   वही, 2/8/67, पृ. 399
14.   वही, 1/26, पृ. 82
15.   बापू के राम, नेमिशरण मित्तल, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, नई दिल्ली-01, वर्ष- 39, अंक- 17, 05 फरवरी-1989, पृ. 27 
डॉ. राहुल मिश्र
(डॉ. अशोक मर्डे द्वारा संपादित पुस्तक- लोकनायक तुलसीदास : विविध आयाम, प्रकाशक- शिल्पा प्रकाशन, शिव-कांची, बिदर रोड, उदगीर- 413 517, महाराष्ट्र में प्रकाशित)

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