पुस्तक समीक्षा
राम
कौन ? : चिंतन के वर्तमान का नया आयाम
इक्ष्वाकु कुलभूषण, सूर्यवंशी,
लोकरक्षक, मर्यादापुरुषोत्तम, विष्णु अवतार राम के स्वरूप और उनके गुणों के प्रति
जिज्ञासा का भाव ऐसी युगान्तकारी घटना है, जो काल की परिधि में और भौगोलिक विस्तार
की सीमाओं में कभी नहीं बँधी है। रामकथा के सर्वप्रथम रचयिता आदिकवि वाल्मीकि की
जिज्ञासा, राम के प्रति दास्य भक्ति-भावना से ओतप्रोत गोस्वामी तुलसीदास की
जिज्ञासा और इनके अतिरिक्त दुनिया की अनेक भाषाओं में रामकथाएँ रचने वाले कवियों,
भक्तकवियों की जिज्ञासा ने राम को कभी अवतार के रूप में देखा और कभी सामान्य मानव
के रूप में देखा। रामकथा में आने वाली अनेक अलौकिक, चमत्कारिक घटनाओं के पीछे छिपे
सत्य का अन्वेषण, राम के दैवीय और सहज मानवीय व्यक्तित्व के बीच संतुलन का चिंतन
विविध युगों की विविध चिंतनधाराओं के सापेक्ष नवीन कलेवर के साथ विकसित होता रहा है।
उत्तर आधुनिकता के विज्ञान और तकनीकी
से सम्पृक्त वर्तमान युग में, जब भारतीय चिंतनधारा पाश्चात्य चिंतन के उपनिवेशवादी
बंधनों और पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर विकसित हुई, तब भारतीय चिंतनधारा ने अपनी
संस्कृति के प्रतीकों को भी अपना प्रतिपाद्य बनाया। नैतिक मूल्यों के संक्रमण के
कारण टूटती-बिखरती सामाजिक इकाइयों और दिशाहीन होकर भटकते मानव-समाज के लिए उन
प्रतीकों को चिंतन का विषय बनाना अनिवार्य हो गया, जो संक्रमण के विषम कालखण्ड में
समाज को नए तरीके से नई दिशा देने की सामर्थ्य रखते हों। इस क्रम में राम को जानना
सर्वाधिक प्रासंगिक और समीचीन बना। इस कारण राम को जानने की जिज्ञासा अनेक
साहित्यिकों की लेखनी का माध्यम पाकर पुस्तकों के आकार में सामने आई। गद्य का
विन्यास यथार्थ के अधिक निकट का होता है और विज्ञान व तर्कसम्मत होता है, इस कारण
राम के चरित्र पर गद्यात्मक पुस्तकें वर्तमान युगीन परिदृश्य के सापेक्ष अधिक
समृद्ध-सक्षम हुईं। यद्यपि ऐसी पुस्तकों की संख्या कम है। ऐसा ही एक प्रयास
श्रीराम मेहरोत्रा की सद्यः प्रकाशित कृति राम कौन? है।
श्रीराम मेहरोत्रा हिंदी के विद्यार्थी
अवश्य रहे हैं, किंतु बैंकिंग उद्योग में प्रबंधकीय पदों पर उन्होने अपनी सेवाएँ
दी हैं। प्रबंधकीय/प्रशासनिक पदों की व्यस्तताओं के बावजूद साहित्य में उनकी गहन
अभिरुचि रही है। इसी कारण वाल्मीकि रामायण से लेकर हिंदी और अन्य भाषाओं की
रामकथाओं का सम्यक्, सर्वांगपूर्ण अध्ययन करके और इसके साथ ही तथ्यों का तर्कपूर्ण,
विज्ञानसम्मत और व्यावहारिक विश्लेषण करके उन्होने राम के कृतित्व और व्यक्तित्व
का वर्तमान युग के सापेक्ष मूल्यांकन किया है।
वे पुस्तक के प्राक्कथन में लिखते
हैं कि, मानव जीवन के विभिन्न संबंधों में राम के द्वारा स्थापित आदर्शों को हर
व्यक्ति आज खोज रहा है। आज्ञाकारी पुत्र, उत्सर्गशील भ्राता भरत-लक्ष्मण, राजसुख
त्यागकर वन जाने वाली भार्या सीता, एक-पत्नीव्रती राम, कर्तव्य परायण प्रजापालक
राजा, शत्रु पर विजय के बाद वैर भाव भुलाकर भाई से रुष्ट विभीषण को रावण की विधिवत
अंतिम क्रिया की आज्ञा देने वाले उदार राम को सभी आज अपने बीच खोजने का प्रयास कर
रहे हैं। आज जब परिवार-समाज-राज्य चारों ओर से टूट और बिखर रहे हैं तब यह राम अधिक
प्रासंगिक और काम्य हो गए हैं। (पृष्ठ- 11)
इसी प्रासंगिकता के कारण मूल्यों की ऊहापोह वाले आज के जीवन में अकेला पड़ा
व्यक्ति राम के मानदण्ड में अपना वांछित आत्मिक सुख खोज रहा है। किंतु उसे यह सुख
राम के दैवीय स्वरूप की अपेक्षा सहज मानवीय स्वरूप से पाना है। इस कारण पुस्तक राम
के साथ जुड़े अन्य पात्रों की प्रासंगिकता का, उनके व्यक्तित्व का और उनके
गुणों-दुर्गुणों का विवेचन भी करती है। रामकथा में आई पारलौकिक घटनाओं का
सत्यान्वेषण और वैज्ञानिक मूल्यांकन भी पुस्तक में मिलता है। लेखक ने राम के साथ
ही सीता, कैकैयी, रावण और हनुमान के व्यक्तित्व की भी पड़ताल की है। वर्तमान में
चर्चित सेतुबंध का वैज्ञानिक पक्ष और हमेशा से मानव-जिज्ञासा का केंद्र रहे पुष्पक
विमान की वैमानिक तकनीकी को पुस्तक के अलग-अलग खंडों में विभाजित किया गया है।
पुस्तक के पहले खंड राम कौन? में रामकथा और राम के मिथकीय होने या नहीं होने
के प्रश्न का समुचित समाधान दिया गया है। लेखक ने वाल्मीकि रामायण का संदर्भ लेते
हुए बताया है कि, वैज्ञानिकों को आज से तीन शती पूर्व तक चार दाँत वाले हाथियों
का ज्ञान नहीं था। जीव वैज्ञानिकों के अनुसार ये चार दाँत वाले हाथी आज से ढाई
करोड़ वर्ष पहले से लेकर पचपन लाख वर्ष पूर्व तक अफ्रीका, एशिया के जंगलों में पाए
जाते थे। रामायण श्रीराम का समकालीन इतिहास है। महर्षि वाल्मीकि चार दाँत वाले
हाथियों से परिचित थे। हनुमान ने लंका में सीता की खोज करते हुए नाना प्रकार के
विमान, सुंदर हाथी, घोड़े, श्वेत बादल की घटा के समान दिखाई देने वाले चार दाँतों
से युक्त सजे-सजाए मतवाले हाथी तथा पशु, पक्षियों से सुशोभित राजमहल देखा था।
(पृष्ठ- 23) इस स्थापना के माध्यम से
राम की एतिहासिकता को प्रमाणित किया गया है।
सीता की अग्नि परीक्षा, शम्बूक वध और
सीता के निर्वासन की घटनाओं को लेकर राम के व्यक्तित्व की आलोचना की जाती रही है
और वर्तमान में भी की जाती है। प्रस्तुत पुस्तक बताती है कि वाल्मीकि रामायण में
ऐसे प्रसंग नहीं हैं। चूँकि रामकथा वाल्मीकि के पहले भी श्रुति के माध्यम से
लोककंठों में जीवित रही और कथावाचकों ने अपने अनुरूप इसमें क्षेपकों को भी जोड़ा
है, इस कारण ये तीनों प्रसंग भी क्षेपकों की भाँति रामकथा में जुड़ गए। संस्कृत के
कवि वाल्मीकि और आमजन की भाषा के कवि तुलसीदास रामकथा के दो ऐसे बिंदु हैं, जिनके
अंतराल के बीच राम के विषय में इतना कुछ लिखा गया जिसकी गणना अथवा संकलन अपने आप
में बहुत कठिन कार्य है। मूल प्रतिपाद्य राम इस लंबी यात्रा में मानवता के जिस उस
उच्च आदर्श के रूप में पुरुषोत्तम हुए उसे जनमानस में उत्तरोत्तर ऊँचा उठाने की
होड़ लगी रही। इस होड़ का परिणाम यह हुआ कि स्वयं वाल्मीकि ने मूलतः सरल और
पराक्रमी राम का जो स्वरूप ज्ञान से प्राप्त कर प्रस्तुत किया था उसकी लोकमान्यता
का लाभ उठाते हुए अनेक आत्मतोषियों ने अपनी ओर से बहुत कुछ ऐसा जोड़ा और विशुद्ध
वर्णन में इतना कुछ असंगत प्रविष्ट हो गया कि उपकार के स्थान पर अपकार ही हुआ। वाल्मीकि
तो मूल लेखक थे किन्तु संस्कृत में ही नहीं, रामचरित की लोकप्रियता के कारण
पुराणों से लेकर भारत की सभी भाषाओं में स्वतंत्र ग्रन्थों के रूप में उनके विषय
में इतना कुछ लिखा गया कि यदि इन सब लेखन और जैन-बौद्ध लेखनों को साथ में पढ़ा जाए
तो जो अराजक स्थिति बन जाएगी, उसकी कल्पना भी कठिन है। आम आदमी वास्तव में
सत्य-असत्य के नाम से पूरी तरह दिग्भ्रमित ही हो जाता है। बौद्ध, हिंदू जैन धर्मों
ने अपने-अपने मतों के प्रचार के लिए राम-सीता-हनुमान और रावण के चरित्रों का
शताब्दियों से खूब दोहन किया। इसका परिणाम यह हुआ कि सत्य राख की ढेर में दबकर रह
गया। (पृष्ठ- 110) परवर्ती क्षेपकों
का ज्ञान तुलसीदास को भी रहा होगा और उनकी दास्य भक्ति भावना ने उसी अनुरूप इन घटनाओं
को देखा होगा, यद्यपि तुलसीदास को इस बात का भी अनुमान रहा होगा कि इन घटनाओं का
वर्णन राम के चरित्र को धूमिल करने वाला है, इस कारण उन्होने मानस में ऐसे
प्रसंगों का बहुत कम वर्णन किया है। सीता का अग्निप्रवेश मात्र वाचिक परम्परा
है, न तो यह प्रकृतिगत सत्य है, न परिस्थितिजन्य और न ही राम के आचरणीय चरित्र के
अनुकूल है। यदि राम आज्ञाकारी पुत्र, प्रिय भ्राता, आदर्श पति और न्यायप्रिय राजा
थे तो देव नदी गंगा और परम सती अनुसुइया से आशीष पाई विदेहपुत्री भूमिजा सीता कैसी
जिन पर राम ने संदेह किया? (पृष्ठ-88) निष्ठुर संवाद के माध्यम से निर्दोष सत्य का
ज्ञान कराने हेतु पुस्तक ऐसे क्षेपकों का तार्किक परीक्षण करती है और निष्कर्ष भी
देती है कि सायंकाल स्वर्ण सिंहासन पर बैठने के सुखद समाचार ने राम को जिस तरह
उद्वेलित नहीं किया था, वैसे ही प्रातःकाल पैदा हो गई विपरीत स्थितियाँ भी उन्हें
विचलित नहीं कर पाईं थीं। स्थिर चित्त, शालीन और उच्चतर जीवन-मूल्यों के लिए
समर्पित राम के चरित्र को इन क्षेपकों के कारण आलोचना का विषय नहीं बनाया जाना
चाहिए। ऐसा किए जाने पर राम को उनके वास्तविक स्वरूप में जान पाना कठिन ही नहीं,
बल्कि असंभव हो जाएगा।
पुस्तक में कैकेयी के व्यक्तित्व की
भी पड़ताल की गई है। पुस्तक बताती है कि कैकेयी का राम से कोई वैर नहीं था। राम के
वनवास के बाद की घटनाओं ने राक्षसों के संहार की पृष्ठभूमि तैयार की और इसकी
परिणति रावण सहित अन्य आततायी राक्षसों के अंत के साथ हुई। राम को वन भेजने में
कैकेयी की भूमिका थी। वस्तुतः इतिहास में यह राम और कैकेय-सुता की वह महान विजय
थी जिसके कारण ‘राम’ नाम के भास्कर का कभी अस्त नहीं हुआ। यह सब देखने के बाद राम
की कीर्ति और भगवत्ता तक की पहुँच के पीछे कैकेयी असंदिग्ध रूप से नेपथ्य में खड़ी
महान् सूत्रधार थी जिसे किसी ने देखा नहीं किंतु सम्पूर्ण संचालन उसी के अनुसार
हुआ। कैकेयी ने परोक्ष में रहकर ऐसा बलिदान किया जिसे समाज ने आज भी अनदेखा कर रखा
है। (पृष्ठ-161) यह रामकथा के
नकारात्मक पात्रों को देखने का आधुनिकताबोधी नजरिया है, जो कैकेयी के रणकौशल को
दशरथ की प्राणरक्षा में और उसकी दूरदर्शी दृष्टि को राम के दण्डकवन भेजने की माँग
में कैकेयी के व्यक्तित्व की नए सिरे से पड़ताल करता है।
इसी तरह रावण का चरित्र भी अनेक
विशिष्टताओं के साथ पुस्तक में प्रकट होता है। रावण के पुत्र मेघनाद को ‘मेटामैटेरियलिस्म’
के माध्यम से प्रत्यावर्तित होने वाली प्रकाश तरंगों को नियंत्रित करके और अंधकार
को अपने वश में करके परावर्तन द्वारा अदृश्य होने के विज्ञान का पता था। रावण को
भी विज्ञान का ऐसा ज्ञान था कि वह रणक्षेत्र में अपने दस सिर और बीस भुजाओं का
छद्म रूप दिखाकर विपक्षी को भ्रमित कर देता था। रावण को वेदों का प्रखर ज्ञान था।
उसने वेदों में निहित वैज्ञानिक रहस्यों को जान लिया था और दस सिर, बीस भुजा के
छद्म निर्माण का कायिक विज्ञान प्रयोग करके उसने मृत्यु को अपने वश में कर रखा था।
यह भी कह सकते हैं कि वह रणकौशल में इतना पारंगत था कि दशों दिशाओं में एकसाथ
युद्ध कर सकता था। रावण उस रक्ष संस्कृति का संवाहक था, जो दैत्य, असुर, नाग आदि
विभिन्न जातियों को विजित करके उनकी रक्षा का भार अपने ऊपर लिए हुए थी और सम्पूर्ण
विश्व को जीतकर अपनी संस्कृति का अंग बनाना चाहती थी। इक्ष्वाकु कुल के साथ इसी
वैचारिक मतभेद के परिणामस्वरूप राम-रावण युद्ध हुआ। अकेले राम-रावण का
महासंग्राम चैत्र शुक्ल द्वादशी से लेकर कृष्ण चतुर्दशी तक 18 दिनों तक चला जिसमें
अन्ततः रावण मारा गया। (पृष्ठ- 86)
भारतीय आस्था में नारी को ‘शक्ति’ और
पत्नी को जिस ‘अर्धांगिनी’ अलंकरण से विभूषित किया गया है वह शब्द और अर्थ, दोनों
ही कसौटियों पर यदि कहीं सार्थकता प्राप्त करता है तो वह सीता में ही है।(पृष्ठ-
89) कुम्भजा
सीता का जन्म ऐसे कुम्भ से हुआ था, जिसमें रावण ने अनेक ऋषियों का रक्त भरा था और
उसे जमीन में गाड़ दिया था। सीता के अपहरण ने इस पाप के दण्ड को सुनिश्चित कर दिया
था। दूसरी ओर सीता का अनुकरणीय व्यक्तित्व है, जो आज के समय में अधिक प्रासंगिक बन
गया है।
दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में ‘मूल्य’ के व्याख्याता अर्बन ने
प्रत्येक मानवीय मूल्य को साधक और तात्विक मूल्य के स्तर पर, स्थाई और अस्थाई
मूल्य के तौर पर तथा उत्पादक और अनुत्पादक मूल्य के तौर पर व्याख्यायित किया है।
इसके अतिरिक्त लोक परंपरा सदैव उन मूल्यों को साथ लेकर चलती है, जिन मूल्यों से
लोक के कल्याण की भावना के आग्रह को तृप्त किया जाना संभव होता है। तर्कबुद्धिवादी
दार्शनिक नीत्शे ने मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन की बात कही है। उसने समस्त मूल्यों
के मूल्यांकन पर बल दिया है। उनमें यदि प्राचीन मूल्य शक्ति उपार्जन की कसौटी पर
खरे उतरें तो उन्हें वर्तमान समय के लिए भी मूल्यवान माना जा सकता है। यह मानव
मूल्यों का परीक्षण है। रामकथा के साथ और रामकथा के महानायक राम के साथ ही उनके
साथ जुड़े अन्य पात्रों का मूल्य आधारित मूल्यांकन और उनका युगीन परिवेश के अनुरूप
परीक्षण वर्तमान की आवश्यकता है। प्रस्तुत पुस्तक इस कार्य में भी अपनी सार्थकता
सिद्ध करती है।
राम कौन? में राम का ही नहीं, बल्कि रामकथा के अन्य
पात्रों का परीक्षण इतनी बारीकी के साथ किया गया है कि कोई भी तथ्य, कोई भी घटना
अछूती नहीं रह गई है। राम के वनगमन का पथ, राम-रावण युद्ध की कालावधि, राम की
सहयोगी बनीं अनेक जातियों, समूहों व चरित्रों का इतिहास; रामकथा काल के पर्वतीय
परिवेश के निवासी वानर जाति और हिंद महासागर के हजारों द्वीपों में फैले
दैत्य-दानव-असुर जातीय समूहों का नृतत्वशास्त्रीय अध्ययन पुस्तक की प्रासंगिकता को
स्थापित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। रामकथा में निहित मूल्यों की
स्थापना और नीति तत्त्वों का विवेचन अनेक पुस्तकों का प्रतिपाद्य रहा है, किंतु
प्रस्तुत पुस्तक की विशिष्टता मूल्यों और नीति तत्त्वों को समग्रता, तार्किकता,
वैज्ञानिकता और सार्थकता के साथ स्पष्ट करने के कारण है।
राम के नैतिक मूल्यों के विवेचन के
साथ ही पुस्तक दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष रामायण काल के उन्नत ज्ञान-विज्ञान को
जानने और उसे प्रकाश में लाने से जुड़ा है। रावण और मेघनाद के वैज्ञानिक ज्ञान के
अतिरिक्त सेतुसमुद्रम् की वास्तविकता और पुष्पक विमान की तकनीक की पड़ताल पुस्तक
की रोचकता को बढ़ा देती है। पुस्तक बताती है कि पत्थर जल में डूबने के अपने प्रकृत
तत्त्व को नहीं छोड़ सकता है। यह तो वास्तुशिल्पी नल और नील का ज्ञान था; जिससे
उन्होने समुद्र की तलहटी में लम्बे वृक्षों के तनों को गाड़कर, उनमें पत्थरों की
शिलाओं को रोककर, गारा-मिट्टी और घास की रस्सी के प्रयोग से सेतु का निर्माण किया।
अमरीकी वैज्ञानिक संस्था नासा ने सेतुसमुद्रम को मानव निर्मित माना है और इसे लगभग
1750 लाख वर्ष पुराना माना है। इसी तरह ‘पुष्पक’ विमान और ‘गरुड़’ विमान की तकनीकी का विशद विवेचन
पुस्तक में होता है। राम के समय में
विज्ञान की समृद्धि के उपरोक्त दो प्रतीकों के अतिरिक्त अंतरिक्ष विज्ञान,
भूविज्ञान, शिल्प विज्ञान, जीव विज्ञान और नक्षत्र विज्ञान आदि की अनेक बातें बड़े
ही रोचक ढंग से पुस्तक में प्रस्तुत की गईं हैं।
प्रस्तुत कृति आज की युवा पीढ़ी को
उसके सांस्कृतिक इतिहास और उसके नायकों की सही पहचान कराने; अपर्याप्त,
पूर्वाग्रहयुक्त और भ्रमित जानकारी को प्रक्षालित करके सही व सकारात्मक ज्ञान
उपलब्ध कराने तथा संक्रमित मानव-मूल्यों, नैतिक आदर्शों को पुनर्स्थापित कराने का
प्रयास करती है। शोध कार्य में संलग्न छात्रों, युवाओं, अध्येताओं, वैज्ञानिकों और
सामान्य पाठकों के बीच कृति एक नहीं, बल्कि अनेक ऐसे प्रश्न उठाती है, चिंतन के
ऐसे नवीन आयामों का सृजन करती है, जो वर्तमान वैज्ञानिक युग के सापेक्ष
महत्त्वपूर्ण भी हैं, विचारणीय भी हैं और नवीन शोधों-आविष्कारों की पृष्ठभूमि भी
हैं। इस कारण समीक्ष्य कृति साहित्य के साथ ही ज्ञान की अन्यान्य शाखाओं में अपना
महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। यह पठनीय भी है और संग्रहणीय भी है।
समीक्ष्य कृति- राम कौन?
लेखक- श्रीराम मेहरोत्रा
प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई
दिल्ली-02
प्रकाशन वर्ष- 2011
मूल्य- 195/-
डॉ. राहुल मिश्र
(नूतनवाग्धारा,
बाँदा, संयुक्तांक- 12 से 15, सितंबर, 2013,
संपादक- डॉ. अश्विनीकुमार शुक्ल (ISSN 097-092X)।)
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