Wednesday, 26 February 2020

पंच-धकारी एक शहर की कथा-यात्रा


पंच-धकारी एक शहर की कथा-यात्रा

संस्कृत विद्वानों के खर्राटे लय-ताल बाँधकर चल रहे थे। एक घंटे बाद अतर्रा स्टेशन आया। अमित दम साधे बैठा रहा। यह क्षेत्र बदमाशी के लिए बदनाम है। अतर्रा, बाँदा, मऊ आदि स्टेशनों के पास लूटपाट की घटनाएँ होती रहती हैं। बदमाश डिब्बों में घुसकर वारदात कर जाते हैं। गाड़ी चलने पर अमित ने राहत की साँस ली। (कामरूपा, रमानाथ त्रिपाठी)
हिंदी के जाने-माने विद्वान रमानाथ त्रिपाठी की पुस्तक कामरूपा में लिखी इन पंक्तियों को ज्यों-का-त्यों जब अपने मित्र राकेश गौतम को बताया, तो वह एकदम उखड़ गया। गुस्सा तो अर्जुन के चेहरे पर भी दिख रहा था, मगर गुस्से को शब्द मिले, राकेश की जुबान से। ‘या अत्रि ऋषि कै भूमि आय, तबहीं यही अतर्रा कहा जात है। कउनौ अइसनै बदनाम करी, तौ हम थोई मान ल्याब। वईं कउन दूध के धोए गौरा बाबा हुइहैं। हमहूँ दुनिया देखे हन, हियाँ बुंदेलखंड का मड़ई जेतना प्रेम से मिलत है, कउनौ दुसरी जाघा अइस प्रेम-ब्यौहार ना मिली।’ इस कथन ने मेरे अंदर छिपकर बैठे बुंदेलखंड-प्रेम को जगा दिया। सच में, इतना बुरा तो नहीं है अतर्रा, कि उसे दस्तावेजों में दर्ज कर दिया जाए। आखिर हमारे भी दस-बारह बरस अतर्रा में ही गुजरे हैं। कई बार हमें यह महसूस करके बहुत गर्व भी हुआ है, कि अतर्रा ने हमें बहुत-कुछ दिया है। मासूमियत से भरे चेहरे पर भीगती मसों के साथ एक युवा को जो कुछ चाहिए, वह सब हमें अतर्रा से ही तो मिला है। कुछ ऐसे सुंदर-सुखभरे सपने, जो तरुणाई में ही देखे जाते हैं, उन्हें हमने अतर्रा की धरती पर ही देखा है। उमंग-उल्लास से भरे पल, जो एक खास आयुवर्ग के होते हैं, वे भी अतर्रा की खुशनुमा आबो-हवा के बीच पले और बढ़े हैं। बाकी के सारे जीवन के लिए मीठे-मीठे सपनों और सुनहरी यादों को तैयार करने वाली अतर्रा की उर्वर भूमि इतनी बुरी तो कतई नहीं है। हमें भी लगने लगा, कि अतर्रा की पहचान कराने का यह तरीका सही नहीं है। अंग्रेजी में कहें, तो ‘यूथ-एज एफेक्शन’ की इस उदय-भूमि का अपने लिए एक अनूठे आकर्षण से भरा हुआ हसूस करना हमें बहुत सुखकर लग रहा था।
अतीत की सुंदर स्मृतियों में लगते गोतों के बीच अर्जुन ने व्यवधान पैदा कर दिया। भाई मिश्र जी! यह पंच-धकारी शहर है। पाँच ‘ध’ इसकी पहचान को बताते हैं, मगर सबसे बड़ी बात तो यह है, कि यह नगर हमेशा से तप-स्वाध्याय का केंद्र रहा है। आज भी अतर्रा को बड़े शिक्षा-केंद्र के रूप में जाना जाता है। यहाँ से लगभग तीस-चालीस किलोमीटर की परिधि में चित्रकूट, भरतकूप, कालंजर, मड़फा जैसे अतीत के केंद्र आ जाते हैं। अर्जुन ने बताया, कि कालंजर और मड़फा का गौरवपूर्ण अतीत किसी को बताने की जरूरत नहीं है। अगर कालंजर राजनीति का बड़ा केंद्र रहा है, तो मड़फा धर्म-दर्शन-अध्यात्म-साहित्य-संस्कृति का बड़ा केंद्र रहा है। इन दोनों प्रमुख केंद्रों के साथ चित्रकूट भी जुड़ा हुआ है। चित्रकूट के वैशिष्ट्य को जानकर ही राम अपने वनवास के काल में यहाँ आए थे। बाद में यहीं से उन्होंने दक्षिण की यात्रा शुरू की। दक्षिण की ओर राम के आगे-आगे चलने वाले अगस्त्य ऋषि और उनकी पत्नी लोपामुद्रा का आश्रम भी चित्रकूट में था। पैल, जैमिनी, शरभंग, माण्डव्य, कण्व, महाअर्थर्वण, सुतीक्ष्ण, चरक, च्यवन और ऐसे अनेक ऋषियों-महर्षियों के आश्रम इस परिक्षेत्र में रहे हैं। ऐसे में अतर्रा को अत्रि ऋषि का आश्रम बताना किसी हद तक सही लगता है। सप्तर्षियों में से एक अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में भी है, मगर उस आश्रम की पहचान अत्रि ऋषि से ज्यादा उनकी पत्नी अनुसूया के नाम से है। सती अनुसूया ने माता सीता को वनवास के समय अनेक शिक्षाएँ दी थीं, और सुंदर पुष्पों-शाखाओं से बनने वाले वनवासियों के आभूषणों को उपहार के तौर पर भेंट में दिया था। हो सकता है, कि अत्रि ऋषि का आश्रम अतर्रा में भी रहा हो।
अर्जुन के द्वारा उठाए गए इस प्रसंग से मुझे बरबस ही कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की पुस्तक ‘कृष्ण द्वैपायन व्यास’ का एक प्रसंग याद आ गया और मैं अपनी राय रखने से खुद को रोक नहीं सका। वे इस पुस्तक में उल्लेख करते हैं कि एक बार महर्षि वेदव्यास अपनी माता सत्यवती से मिलने के लिए हस्तिनापुर (वर्तमान- ग्राम हस्तम, जनपद- बाँदा) जा रहे थे। रास्ते में वाग्मती नदी (वर्तमान- बागे नदी, बदौसा, बाँदा) के पास कुछ अज्ञात लोगों ने उन्हें पकड़कर मारपीट शुरू कर दी, जिस कारण वेदव्यास बेहोश हो गए। वहाँ से गुजरते हुए महाअर्थर्वण के शिष्यों ने महर्षि व्यास की दयनीय दशा को देखा और उन्हें उठाकर महाअर्थर्वण के आश्रम में ले आए। महाअर्थर्वण की पुत्री वाटिका ने बड़ी लगन के साथ महर्षि व्यास की सेवा-सुश्रुषा की। बाद में महर्षि व्यास ने वाटिका से विवाह कर लिया, और उनसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे व्यासपुत्र सुखदेव के नाम से जाना जाता है। इस प्रसंग के साथ अतर्रा का जो क्रम जुड़ा, वह और ज्यादा रोचक हो गया।
अतर्रा से पश्चिम की ओर लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर हस्तम गाँव है, और अतर्रा से लगभग इतनी ही दूरी पर पूरब दिशा की ओर बदौसा है। बदौसा बागे नदी, यानि वाग्मती नदी के किनारे बसा है। बदौसा शब्द वेदव्यास से विकृत होकर बना हुआ प्रतीत होता है। अतर्रा के जोशीले युवाओं को आज भी बड़े जोश में यह कहते सुना जाता है, कि ‘वा जानै ना पई, कि को आय मारो हइस। हम वही बोरा ओढ़ाय कै मारब।’ शायद इसी तरह महाअर्थर्वण के इलाके में घुस आए अजनबी वेदव्यास को कुछ शरारती चेलों ने पीट दिया होगा। बाद में मामले को रफा-दफा करने के इरादे से घायल वेदव्यास को उपचार के लिए महाअर्थर्वण के आश्रम में ले जाया गया होगा। इसके बाद की कहानी दूसरी दिशा में चली गई, जिसकी परिणति वेदव्यास द्वारा अपनी ससुराल के पास ही अपना ठिकाना बना लेने के रूप में हुई होगी। शायद वह ठिकाना बदौसा ही होगा।
तब क्या अतर्रा महाअर्थर्वण का है? मेरी बात पूरी हो पाती, इससे पहले ही राकेश और अर्जुन, दोनों ही एकसाथ बोल पड़े। मैंने कहा- शायद यही सच है। ‘वा कइसै?’ सबसे पहले सवाल राकेश की तरफ से आया। सवालिया निशान तो अर्जुन के चेहरे पर भी दिख रहा था, और दोनों में से कोई भी ज्यादा देर तक जिज्ञासा को दबाने के लिए तैयार नहीं दिख रहा था। लिहाजा हमने भी बताना उचित समझा, कि- भाई! महाअर्थर्वण को अर्थर्वण या अथर्वा के रूप में भी जाना जाता है। इन नामों से भी उनका उल्लेख मिलता है। अथर्वा से अतर्रा बनना जितना प्रासंगिक प्रतीत होता है, उतना अत्रि से अतर्रा बनना नहीं। घटनाओं, स्थानों और पात्रों को जोड़कर देखने पर तो ऐसा ही लगता है।
अत्रि हों, या अथर्वा; आज के अतर्रा में नैमिषारण्य से जुड़े संबंधों को छोटा डेरा में देखा जा सकता है। पुराने अतर्रा की आबादी का बाउर बाजार वाला इलाका नैमिष के मूल निवासियों के हिस्से में था। जमींदारी में इनकी हिस्सेदारी लगभग तीन प्रतिशत की थी, शायद इसी कारण इसे छोटा डेरा कहा जाता था। वैसे ‘डेरा’ शब्द स्वयं में साधु-संन्यासियों जैसे भाव को छिपाए हुए है। चित्रकूट, कालंजर और मड़फा केंद्रों के कारण अतर्रा भी तीर्थक्षेत्र की परिधि में रहा होगा, जहाँ बाहर से आने वाले साधु-संतों, भक्तों को स्थानीय राजे-रजवाड़ों से जमीनें मिली होंगी। कालांतर में उनके परिवार यहाँ काबिज हो गए होंगे। छोटा डेरा के त्रिवेदियों का अतीत कुछ ऐसा ही है। इसी तरह कालाकाँकर (प्रतापगढ़, उत्तरप्रदेश) के बिसेन उपनामधारी क्षत्रियों के पूर्वज भी यहाँ आकर बसे थे। मन्नूलाल अवस्थी के मालिकाना हक वाला इलाका बड़ा डेरा कहलाता था। वस्तुतः इनके पूर्वज इस क्षेत्र के राजा और बाद में जमींदार हुए। बड़ा डेरा की जीती-जागती पहचान हिंदू कालेज के सामने बनी भव्य इमारतें हैं। किसी जमाने में गुलज़ार रहने वाली ये इमारतें आज वीरानियों की ज़िंदग़ी बसर कर रही हैं।
‘दूध के धोए गौरा बाबा’, यह कथन लगभग तकिया-कलाम की तरह अतर्रा के लोगों के मुँह से सुना जाता था। आखिर ऐसे कौन गौरा बाबा थे, जो प्रतीकात्मक रूप से दूध के समान निर्मल, स्पष्टवादी और साफ-सुथरे व्यक्तित्व वाले थे। इस चर्चा के पहले अकसर दिमाग में ये प्रश्न चला करते थे, मगर उत्तर पाने का कोई उचित अवसर मेरे लिए अब तक नहीं आ पाया था। पंच-धकारी अतर्रा की चर्चा ने उस ‘स्कोप’ को स्वतः ही बना दिया था, कि आज गौरा बाबा की चर्चा हुए बिना बात पूरी होने वाली नहीं थी। वैसे मुझे कुछ कहना नहीं पड़ा, अर्जुन ने खुद ही अतर्रा में आकर बसे बिसेन ठाकुरों की गाथा बतानी शुरू कर दी। उसने जो बताया, उससे लोक-परंपरा के ऐसे सूत्र खुले, जिन्हें बुंदेलखंड के अप्रतिम महानायक- हरदौल से जोड़ सकते हैं। अर्जुन ने बताना शुरू किया, कि बिसेन क्षत्रियों के साथ आने वाले सात्विक-धार्मिक प्रवृत्ति के पाँच भाइयों में से एक गौरा बाबा हैं। गौरा बाबा के बाद सबसे ज्यादा ख्यातिप्राप्त हीबर बाबा और फिर बरम बाबा हैं। गौरा बाबा को बिसेन क्षत्रियों में कुलदेवता की प्रतिष्ठा प्राप्त है, और सारे अतर्रा बुजुर्ग के लिए एक समय वे ग्रामदेवता के रूप में पूज्यनीय थे, आज नगरदेवता कहे जा सकते हैं।
भारतीय लोक-परंपरा, विशेषकर बुंदेलखंड की अपनी यह विशेषता रही है, कि समाज में उच्च आदर्शों, मानवीय मूल्यों, संस्कारों और नीति-नैतिकताओं को स्थापित करने वाले महानायक लोक की आस्था और लोक में संचरित नेह-प्रेम को प्राप्त करके लोकदेवता के रूप में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। समाज युगों-युगों तक उनसे अपने जीवन को संचालित करने के लिए सहारा लेता रहता है। किसी बड़े कानून से ज्यादा मर्यादा ऐसे लोकदेवताओं की समाज में होती है। गौरा बाबा का व्यक्तित्व निश्चित ही सरल, सहज, मर्यादित और आदर्शपरक रहा होगा। इसी कारण आज भी इन महान गुणों के लिए गौरा बाबा का स्मरण ठीक उसी प्रकार इस क्षेत्र में किया जाता है, जैसे- दतिया, ओरछा की तरफ हरदौल का। ऐसा नहीं है, कि यहाँ हरदौल नहीं पूजे जाते। आज भी शादी-ब्याह और शुभ कार्यों में बाकायदा हरदौल का स्मरण यहाँ किया जाता है। आज भी गौरा बाबा के प्रति समाज की आस्थाएँ जीवित और जीवंत हैं। रामनाम संकीर्तन के साथ ही गौरा बाबा मंदिर की व्यवस्था आदि के लिए आसपास के कई गाँव जुड़े हुए हैं। इन गाँवों के लोग बारी-बारी से मंदिर में सेवाएँ देते हैं। जब कभी सच-झूठ का निर्णय करना होता है, तो सबसे पहले गौरा बाबा की कसमें ही खिलाई जाती हैं। ये बातें भले ही आज के समय में दकियानूसी लगें, मगर लोक-व्यवहार में इतनी सशक्त हैं, कि बड़े-बड़े कानूनों से ज्यादा कारगर सिद्ध हो जाती हैं।
वैसे अतर्रा के आसपास का क्षेत्र धान का कटोरा भी कहा जाता है। पहले यहाँ के किसान एक से बढ़कर एक, बेहतरीन किस्म का चावल उगाते थे। अतर्रा के पहचान की बात होते-होते राकेश ने चावलों में लाकर पटक दिया था। इतना ही नहीं, एक साँस में उसने परसन बादशाह, छोटी चिन्नावर, बड़ी चिन्नावर, शरबती, भैंसलोट और न जाने कितने प्रकार की चावल की किस्में गिना दीं। किसान चावल पैदा करते, और उन्हें बाजार में बेच देते। पंच-धकार का दूसरा ‘ध’ यहाँ के किसानों के साथ घटा था, ऐसा बातों से सिद्ध होने वाला था। यह महसूस करते ही मैंने जब धान की खरीद करने वाले व्यापारियों की बात उठाई, तो किसानों के माल की खरीद के बाद जमा रकम को हजम कर जाने वाले व्यापारियों की करतूतें खुलने लगीं। ये व्यापारी दुर्व्यसनों में किसानों की जमा पूँजी उड़ा देते, फिर अपनी फर्म बदलकर नए सिरे से काम शुरू कर देते। व्यापारियों के द्वारा किसानों के साथ किया जाने वाला धोखा तब जाकर कुछ कम हुआ, जब देश की आजादी के बाद विस्थापित सिंधियों के परिवार यहाँ पहुँचे। अर्जुन ने इस प्रसंग को रोचक बना दिया। उसने बताया, कि उन दिनों झाँसी से एक पैसेंजर गाड़ी इलाहाबाद के लिए चलती थी। देश के विभाजन से विस्थापित हुए सिंधियों को अतर्रा का पता नहीं था। उन्हें तो इलाहाबाद जाना था, ताकि वहाँ जाकर अपना रोजगार चला सकें, अपने परिवार को व्यवस्थित कर सकें। जब वे खुरहंड से आगे निकले, तो चारों तरफ धान की लहलहाती फसल को देखा। उन्होंने यह भी अंदाज लगा लिया, कि यहाँ पर धान तो बहुत पैदा होता है, मगर धान की दराई के लिए शायद कोई बड़ी मिल नहीं है। अतर्रा आते-आते सिंधियों ने यहीं उतर जाने का फैसला कर लिया, कि इलाहाबाद में व्यवसाय की कड़ी प्रतिस्पर्धा में फँसने के बजाय यहीं पर कुछ किया जाए।
अतर्रा में सिंधियों के परिवारों का बसना अतर्रा के लिए एक नए रास्ते के खुलने जैसा हुआ। बरैला सिंधी ने सबसे पहले अपनी राइस मिल शुरू की। इसके बाद कई मिलें यहाँ स्थापित हुईं। बड़े पैमाने पर अरुआ (कच्चा चावल) और उसना (वाष्पित चावल) बंगाल, बिहार तक जाने लगा। पहले यह चावल मालगाड़ियों में लदकर जाता था। अतर्रा के स्टेशन में बना बड़ा-सा मालगोदाम इसकी गवाही आज भी देता है। धीमे-धीमे लाई (जिसे कई लोग मूढ़ी के नाम से भी जानते हैं।) की बड़ी मंडी के रूप में अतर्रा अपनी पहचान बनाता गया। बाद में ट्रकों में लदकर लाई (मूढ़ी) चित्रकूट और आसपास के इलाकों में जाने लगी। अतर्रा में घुसते ही भरभूँजों की भट्ठियाँ, और उनमें काम करते-करते काले-कलूटे बन जाने वाले लोग दिखाई पड़ने लगते। छतों और सड़कों पर धान की भूसी को सुखाकर भार में झोंकने लायक बनाते लोग भी नजर आ जाते। बाँस के बने फावड़ेनुमा औजार से भूसी को दिन-भर इधर से उधर घसीटते इन कामगारों के बीच भुने हुए चावलों के साथ जली हुई भूसी की मिश्रित सुगंध अतर्रा की एक अलग पहचान गढ़ती थी। दूर-दूर तक दिखाई पड़ने वाले पहाड़नुमा राख के ढेर दोमंजिला मकानों से टक्कर लेते नजर आते थे। तेज हवा के चलने पर राख धूल का गुबार जैसा बनकर सारे आसमान को घेर लेने की तर्ज पर उड़ चलती थी। धान के साथ धूल और भरभूँजों की भट्ठियों से निकलता धुआँ पंच-धकारी शहर की पहचान होता था। अगर सफेद कपड़े पहनकर घर से निकले, तो उनका एक घंटे के अंदर रंग बदल देना तय होता था। दिन-भर में श्वासछिद्र इतनी कालिख इकट्ठी कर लेते थे, मानो लाई वहीं भूँजी गई हो। इतने के बावजूद अतर्रा के ‘एलीट’ और रौबदार परिधान में चौड़ी मोहरी वाला खादी का झक सफेद पायजामा और प्रायः सफेद कुर्ता ही होता था। सफेदी और कालिख का एक मौन युद्ध नील और टीनोपाल के बूते लड़ा जाता था।
पंच-धकार का आखिरी ‘ध’ कुछ मतभेदों से भरा हुआ है। वैसे इसे जानना हो, तो सब्जी मंडी चले जाइए, आवारा घूमते साँड़ों से आपको मिल जाएगा। हमने अपनी इन्हीं आँखों से देखा है, कि अतर्रा में माल ढुलाई के लिए दो पहियों वाली ठिलिया होती थी। उसमें आगे की तरफ लंबे पाइप होते थे, जिसमें गोल छल्ला जैसा बना होता था। इसे ठिलिया कहना तार्किक रूप से गलत होगा, क्योंकि इसमें ठेलने की नहीं, घसीटने की तकनीक थी। पाइप वाले छल्ले को दोनों हाथों से पीछे की तरफ पकड़कर भारवाहक आगे की ओर चलता था। इसमें मेहनत भी ज्यादा लगती होगी, और घसीटना भी कठिन ही होता होगा। शायद इसी कारण भारवाहक अपनी गति बिगड़ जाने पर, चढ़ाई पड़ जाने पर, या फिर ज्यादा वजन हो जाने पर बिना झिझके हुए बगल से चल रहे किसी भी व्यक्ति को ‘थोई धक्का लगाय दीन्ह्या’ कहकर मदद के लिए आमंत्रित कर लेता था। जब से चार पहिये की ठिलियाँ और दूसरे साधन सुलभ हो गए, तब से यह धक्का वाला ‘कांसेप्ट’ अतर्रा से मानो उठ ही गया। इसकी जगह मच्छरों ने ले ली। अब लोग मच्छरों को जोड़कर ‘ध ध ध धम’ वाली पहचान को जानते हैं। वैसे राकेश का कहना था, कि- धक्का तौ अबहुनौ लागत है। ब्यापारी सब छोड़-छाड़ के चले गे, अउर कउनो काम धंधा न बचो। अब द्याखा धक्का लागत है, तो बंबई और दिल्ली की गाड़िन मा लद-लद के मड़ई सब कमाएँ चए जात हे।
अतर्रा की पहचान का एक और हिस्सा है, और वह है- गणेश वाहन। काफी हद तक धक्के से वह भी जुड़ा है। पीछे दो पहिए, और आगे एक पहिए पर चलने वाली इस सवारीगाड़ी को गणेश वाहन आखिर क्यों कहा जाता था, यह तब समझ में आया था, जब काफी देर उसकी आकृति को दूर से बैठे देखते रहे थे। जब कोई चूहा दुबककर बैठ जाता है, तो इसी सवारी गाड़ी की तरह का नजर आता है। कमी केवल पूँछ की होती है। दूसरा कारण इसकी क्षमता से जुड़ा है। जिस तरह गणेश जैसी भारी सवारी को चूहा उठा लेता है, वैसे ही यह गणेश वाहन भी असीमित बोझ लादकर चलने की सामर्थ्य रखता था। इसमें पीछे की तरफ लटकी हुई सवारियाँ इसीलिए कम किराए में सफर कर पाती थीं, क्योंकि कभी पुलिस को देखकर, तो कभी गड्ढे में फँस गए या चढ़ाई में अटक गए गणेश वाहन को संकट से उबरने के लिए तत्परता दिखा देती थीं। इसमें गियर का ‘मैकेनिज्म’ भी गजब का था। चालक के सामने एक मुड़ी हुई मोटे लोहे की रॉड गियर डालने के काम आती थी। उसे आगे-पीछे करके गियर बदले जाते थे। जब कभी गियर फँस जाता था तो चालक गाड़ी को रोककर पहले गियर सुधारता, और फिर आगे की यात्रा शुरू करता। इसे स्टार्ट करने के लिए चूहे के छोटे-से मुँह को खोलकर एक चक्के में रस्सी फँसाकर, और फिर दो लोगों के द्वारा रस्सी को खींचकर स्टार्ट किया जाता था। अतर्रा के आसपास की ‘कनेक्टिविटी’ के लिए ये गणेश वाहन बड़े माध्यम के रूप में प्रयुक्त होते थे। मजे की बात तो यह है, कि आगे वाली सीट पर बैठकर हमने भी देवानंद वाली फीलिंग को अकसर महसूस किया है। इसी गणेश वाहन में बैठकर ही देवानंद ने ‘चूड़ी नहीं ये मेरा दिल है...’ वाला गाना गाया था। ऐसे महान गणेश वाहन अपनी एक अलग और रोचक कहानी लिए आज भी मन के किसी कोने में दुबके बैठे रहते हैं, एकदम चूहे की तरह।
कुछ भी कहा जाए, अतर्रा में आई चावल-क्रांति और यहाँ बसे सिंधी व्यापारियों ने अपने सामाजिक दायित्व को भी बखूबी निभाया। धान क्रय-विक्रय में शिक्षा के विकास के लिए कुछ संचित करने की अनूठी परंपरा अतर्रा में चली, और उसने कालांतर में हिंदू कॉलेज, अतर्रा महाविद्यालय और राजकीय आयुर्वेदिक चिकित्सालय के रूप में ऐसे शिक्षण संस्थान दिए, जिन्होंने देश की आजादी के पहले से लगाकर पिछले कुछ दशकों तक चित्रकूट मंडल के चारों जिलों समेत लगभग समूचे बुंदेलखंड और तत्कालीन यूनाइटेड प्राविएंसेज़ में शिक्षा-केंद्र के रूप में ख्याति अर्जित की। हिंदू कॉलेज सबसे पुराना था, और यहाँ पर सभी संकाय संचालित थे। छात्रावास ही नहीं, शिक्षकों के लिए भी आवास उपलब्ध कराने वाला यह क्षेत्र का पहला कॉलेज था। मेरा विशेष लगाव इस संस्था से इसलिए भी रहा, क्योंकि कामतानाथ उपाध्याय के जमाने में, जब हिंदू कॉलेज उत्कृष्ट शिक्षा केंद्र के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए था, उस समय मेरे पिता अंग्रेजी के प्राध्यापक के रूप में आए थे। इसका भव्य भवन आज भी अपने गौरवपूर्ण अतीत की दुहाई देता खड़ा है, शेष राजनीति की भेंट चढ़ चुका है।
बसअड्डे में सुदामा की दुकान के दूधवाले पेड़े और उसके आगे रामटहलू की दुकान के छोटे वाले समोसों के स्वाद का स्मरण करते-करते आज के अतर्रा की एकदम बदली हुई तस्वीर कब हमारे सामने आ जाती है, पता ही नहीं चलता। जिस शहर में रेलवे स्टेशन हो, वहाँ शहर का सारा आकर्षण स्टेशन के पास ही सिमट आता है। मगर अतर्रा के लिए यह सामान्य धारणा कभी लागू नहीं हुई। पुरानी अंग्रेजों के जमाने की इमारत के दोनों ओर विशालकाय वट-पीपल में बसेरा करने वाले बक्कों द्वारा निःसृत पदार्थों की गंध से भरे अतर्रा स्टेशन में राकेश को हमेशा पुत्तूलाल की चाय-मूँगफली की ठेलिया लुभाती रही है। जब कभी हमलोगों को झाँसी या लखनऊ जाना होता था, तो गाड़ी का इंतजार पुत्तू की ठेलिया के सहारे ही पूरा करना पड़ता। इस संस्मरण की साझेदारी पर राकेश के चेहरे में जितनी खुशी दिखी थी, उससे कहीं ज्यादा नजर आई, चूड़ीवाली गली का नाम लेने पर। राकेश ही क्या, चूड़ीवाली गली के नाम पर ऐसा कोई नहीं होगा, जिसके मन में खुशी की तरंग न दौड़ जाती हो। नाम चूड़ीवाली गली है, तो काम भी वैसा ही है और बनावट भी कमोबेश वैसी ही। कोई काम नहीं है, तब भी एक तरफ से चूड़ीवाली गली में घुसिये और दूसरी तरफ शरीफों की तरह तेलवाली गली से निकलकर आ जाइए। अतर्रा में आज बहुत-कुछ बदला है। भरभूँजे, राख के पहाड़, घसीटाछाप ठेलिया और चौड़ी मोहरी के खादी के सफेद पायजामे-कुर्ते से लगाकर कंधे में टँगे खादीआश्रम के झोले तक विस्थापित हो चुके हैं, मगर अतर्रा नगर की सबसे चमकदार और गुलज़ार रहने वाली चूड़ीवाली गली आज भी अपना वजूद कायम किये हुए है।
चूड़ीवाली गली का प्रसंग आते ही हम तीनों अतीत की स्मृतियों में गोते लगाने लगे। इसके बाद कोई कुछ कहना नहीं चाहता था। पंच-धकारी शहर रमानाथ त्रिपाठी की कामरूपा के पात्रों को भले ही डराने वाला लगा हो, मगर हमने इसके ठीक विपरीत अनुभूति को अभी-अभी पाया था। धोखा वेदव्यास ने खाया, यहाँ के किसानों-व्यापारियों ने भी खाया, और धोखा तो हमने भी खाया है, मगर कुछ धोखे बड़े प्यारे लगते हैं, गूँगे के गुड़ की तरह। 
राहुल मिश्र
(हिंदी प्रचार-प्रसार सोसायटी, अमृतसर, पंजाब द्वारा प्रकाशित साहित्यिक त्रैमासिकी- बरोह के मार्च-जून, 2018 अंक में प्रकाशित / संपादक- डॉ. शुभदर्शन)

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