कही-अनकही-बतकही:
सोमनाथ मंदिर : अतीत कीयात्रा का सुंदर, रोचक, दुखद...: सोमनाथ मंदिर : अतीत की यात्रा का सुंदर, रोचक, दुखद प्रसंग य ह बात तेरह दिसंबर, 201 0 की है। मैं अपने अभिन्न मित्र राकेश कुमार गौतम ...
Sunday 25 September 2011
अज्ञेय जन्मशती
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन का हिंदी साहित्य में योगदान
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन का जन्म 07 मार्च, 1911 को उत्तर प्रदेश के
देवरिया जनपद के ऐतिहासिक स्थान कुशीनगर में हुआ था। अंग्रेजों के खिलाफ
क्रांतिकारी जीवन जीते हुए इन्होने श्रीवत्स, कुट्टिचातन, समाजद्रोही नं.1, डॉ.
अब्दुल लतीफ और अज्ञेय आदि छद्म नामों से रचनाएं कीं। इनमें से अज्ञेय उपनाम को
इतनी प्रसिद्धि मिली कि हिंदी साहित्य में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन को
अज्ञेय उपनाम से ही जाना जाने लगा। बीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्यकारों में
अज्ञेय ऐसे साहित्यकार हैं, जिन्होने सबसे अधिक विधाओं में उत्कृष्ट साहित्य लिखा
है।
भग्नदूत और चिंता नामक काव्य-संग्रहों से अपनी काव्य-यात्रा शुरू करने वाले
अज्ञेय ने सन् 1943 में तारसप्तक का संपादन करके आधुनिक हिंदी काव्य में एक नए
अध्याय की शुरुआत की, जिसे प्रयोगवाद के रूप में जाना जाता है। प्रयोगवाद
मध्यमवर्गीय व्यक्ति के जीवन की जटिलताओं, संघर्षों, निराशा, दुखों और कष्टों को
कविता के माध्यम से प्रकट करने की भावना पर केंद्रित था। इस प्रकार अज्ञेय द्वारा
चलाए गए प्रयोगवाद ने कविता में उन नवीन प्रयोगों की स्थापना की, जिनसे आधुनिक
कविता अछूती थी।
इत्यलम्, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, अरी ओ करुणामय प्रभा, आँगन के पार
द्वार, कितनी नावों में कितनी बार और सन्नाट बुनता हूँ आदि अज्ञेय के चर्चित
काव्य-संग्रह हैं। इन काव्य-संग्रहों में अज्ञेय ने शहरी और ग्रामीण जीवन की
अनुभूतियों को, व्यक्ति एवं समाज की संवेदना को तथा बौद्धिकता एवं दार्शनिकता को
सटीक अभिव्यक्ति दी है। अज्ञेय ने एक ओर औद्योगिक नगरों-महानगरों की जटिलता भरी
दौड़ती-भागती, लुटती-पिटती जिंदगी को पूरी तीव्रता के साथ अपनी कविताओं में उतारा
है तो दूसरी ओर ग्रामीण जीवन की सुंदरता को, प्रकृति की निकटता को और उसके सौंदर्य
की मादक अनुभूति को अपनी कविताओं में बड़ी कुशलता के साथ उतारा है। अज्ञेय की
कविताओं में जीवन के तमाम रंग इतनी बारीकी से उतरे हैं कि संवेदना और विचार के
स्तर पर कुछ भी छूटने की संभावना ही नहीं रह जाती। अज्ञेय से पहले हिंदी कविता
इतने विस्तृत फलक पर समय और समाज के साथ नहीं जुड़ी थी। हिंदी की प्रचलित
काव्य-धारा के विपरीत एकदम अलग और नई स्थापनाएँ देने के कारण विरोधों और आलोचनाओं
के बावजूद अज्ञेय के प्रशंसक ही नहीं, कटु आलोचकों ने भी उनकी काव्य-प्रतिभा को
सराहा है। सन् 1964 में आँगन के पार द्वार काव्य-संग्रह पर अज्ञेय को साहित्य
अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। सन् 1979 में कितनी नावों में कितनी बार काव्य
संग्रह पर अज्ञेय को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
अज्ञेय को अच्छा कवि कहा जाय या गद्यकार, यह समझ पाना भी बहुत कठिन है। सन् 1941
में अज्ञेय का पहला उपन्यास- शेखर : एक जीवनी प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के प्रकाशित होने के बाद कई आलोचकों
ने उन्हें गद्यकार ही घोषित कर दिया था। यह उपन्यास कथ्य, शिल्प और भाषा की दृष्टि
से हिंदी उपन्यास विधा में एक नए प्रयोग की तरह था। आज आधुनिकता के रूप में जिस
जीवन-शैली को परिभाषित किया जाता है और व्यक्ति की स्वतंत्रता को आधुनिकता के
प्रतीक के रूप में जिस तरह से देखा जाता है, उसे बहुत पहले ही अज्ञेय ने देख लिया था और अपने उपन्यास शेखर : एक जीवनी में प्रकट कर दिया था।
नदी के द्वीप और अपने-अपने अजनबी उनके दूसरे उपन्यास हैं। अज्ञेय के तीन उपन्यास
ही प्रकाशित हुए हैं। अलग-अलग तासीर वाले इन तीनों उपन्यासों में विचारों की
गंभीरता भी है, भावनाओं की विविधता भी है, विरोधी तत्वों को बड़ी कुशलता के साथ
जोड़ देने की क्षमता भी है, कथा-भाषा के विविध प्रयोग भी हैं और अनेक रंग भी हैं।
एक कुशल उपन्यासकार के रूप में अज्ञेय ने केवल तीन उपन्यास देकर ही हिंदी की
उपन्यास विधा को सशक्त भी किया और हिंदी उपन्यास लेखन के क्षेत्र में एक नए युग की
शुरुआत भी कर दी।
विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल और अमर वल्लरी आदि अज्ञेय के
प्रसिद्ध कहानी-संग्रह हैं। अपनी कहानियों में अज्ञेय ने व्यक्ति के अपने नैतिक
संघर्ष तथा व्यक्ति और समाज के बीच होने वाले टकराव को, संघर्ष को शुद्ध देशी
अंदाज में प्रकट किया है। उनकी कहानियों में एक ओर फक्कड़पन है तो दूसरी ओर
विचारों की गंभीरता भी है। अज्ञेय ने अपनी कहानियों में प्रतीकों और नाटकीय
स्थितियों के चित्रण के माध्यम से उस यथार्थ को आधुनिक हिंदी कहानियों के साथ
जोड़ा है, जो हिंदी कहानियों के लिए एकदम नया और अभूतपूर्व था। अज्ञेय द्वारा लिखी
गई गैंग्रीन और पठार का धीरज आदि कहानियों को आज की यथार्थ केंद्रित कहानियों की
प्रारंभिक अवस्था के रूप में देखा जा सकता है।
अज्ञेय को हिंदी साहित्य में कुशल निबंधकार के रूप में भी जाना जाता है। आत्मनेपद,
हिंदी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य, आलवाल, भवन्ति और
लिखि कागद कोरे आदि अज्ञेय के निबंध संग्रह हैं। इन निबंध संग्रहों में अज्ञेय ने
समय, समाज और साहित्य से जुड़े अपने अनुभवों को विचारों और चिंतन में बाँधकर
प्रस्तुत किया है। अज्ञेय के निबंधों में उनके निजी अनुभव हैं, फिर भी उनका निजीपन
समाज और साहित्य की हकीकत को खुली आँखों से देखने वाला है, इसी कारण उनके वैचारिक
निबंधों ने आधुनिक हिंदी की दिशा और दशा का निर्धारण करने में अमूल्य योगदान दिया
है। अज्ञेय को मानव-मन का विश्लेषण करने वाले कुशल समीक्षक के रूप में भी जाना
जाता है। उनके निबंध-संग्रह त्रिशंकु में फ्रायड और युंग के सिद्धांतों का प्रभाव
भी दिखता है और मानव- मन को पूरी गहराई तक उतरकर समझ लेने की क्षमता का अद्भुत
विस्तार भी दिखाई देता है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन की तरह अज्ञेय की पहचान भी यायावर, घुमक्कड़
साहित्यकार के रूप में होती है। उन्होने देश-भर की ही नहीं, बल्कि विदेशों की भी
अनेक यात्राएँ की थीं। अज्ञेय ने नई-नई जानकारियों के साथ इन यात्राओं के रोचक
वर्णन अपने यात्रा-साहित्य में किए हैं। एक बूँद सहसा उछली उनका चर्चित
यात्रा-वृतांत है, जिसमें अज्ञेय ने रोम, पेरिस, बर्लिन, फिरेंजे आदि स्थानों के
साथ जुड़ी अपनी यादों को समेटा है। यह यात्रा-साहित्य रोचक भी है और ज्ञानवर्धक भी
है। इसी तरह असम से लेकर पश्चिमी सीमा प्रांत तक भारत में की गई यात्रा का वर्णन
उन्होने अपनी पुस्तक अरे यायावर रहेगा याद में किया है। इस पुस्तक में अज्ञेय ने
किसी स्थान का केवल बाहरी वर्णन ही नहीं किया, बल्कि उस स्थान को देखकर मन में
उठने वाले विचारों को भी स्थान दिया है। भारत के पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले
लोगों के जीवन की कठिनाइयों और समस्याओं को पूरी हकीकत के साथ प्रकट करने की
दृष्टि से अज्ञेय के यात्रा-वृत्त अरे यायावर रहेगा याद का अपना विशेष महत्व है।
इस तरह यात्रा-साहित्य के माध्यम से अज्ञेय ने हिंदी साहित्य को न केवल समृद्ध
किया है, बल्कि एक जिम्मेदार भारतीय नागरिक की तरह से उन समस्याओं को भी प्रकट
किया है, जो भौगोलिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक चुनौतियों के रूप में ज्वलंत
राष्ट्रीय समस्याओं से ताल्लुक रखती हैं।
अज्ञेय कुशल संपादक भी थे। उन्होने तार सप्तक, दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक के
साथ ही सैनिक, विशाल भारत, प्रतीक, नया प्रतीक और नवभारत टाइम्स का संपादन किया।
समग्रतः अज्ञेय का रचना-संसार हिंदी गद्य की प्रचलित विधाओं के साथ ही
रेखाचित्र, इंटरव्यू, संस्मरण और आलोचना जैसी नई साहित्यिक विधाओं तक फैला हुआ है।
जितना व्यापक उनका रचना-संसार है उतनी ही व्यापकता उनके ज्ञान-भण्डार में भी है।
उर्दू, बंगाली, गुजराती, तमिल आदि भारतीय भाषाओं के साथ ही अंग्रेजी, फ्रेंच और
जर्मन भाषाओं पर उनकी अच्छी पकड़ थी। इसके साथ ही शिल्प, स्थापत्य, नृत्य-संगीत,
नाटक, फोटोग्राफी, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीतिविज्ञान, जीवविज्ञान और
वनस्पतिविज्ञान का उन्हें अच्छा ज्ञान था। अज्ञेय ने विज्ञान और अंग्रेंजी साहित्य
का अध्ययन किया था। अज्ञेय के अध्ययनक्षेत्र की इस व्यापकता का सीधा लाभ हिंदी
साहित्य को मिला है।
हिंदी साहित्य में अज्ञेय को क्रांतिकारी साहित्यकार माना जाता है। यदि उनके
प्रारंभिक साहित्य को देखें तो यह धारणा सही भी प्रतीत होती है। इसके बावजूद उनकी
क्रांति और क्रांतिकारिता के संबंध में धारणा एकदम अलग थी। उनका मानना था कि
क्रांति के बाद क्रांति और बदलाव-दर-बदलाव से ही गतिशीलता आती है। अगर विरोधी
विचारों के प्रति शत्रुतापूर्ण भाव रखे जाते हैं तो समाज की स्वाभाविक प्रगति में
रुकावट पैदा हो जाती है। समाज की गति को एकपक्षीय बनाकर नहीं रोका जाना चाहिए।
क्रांति के प्रति ऐसी अवधारणा के कारण ही वे संभवतः धर्म और आध्यात्म की ओर अग्रसर
हुए। अज्ञेय धर्म और आध्यात्म को व्यापार का नहीं बल्कि आत्मा की शांति का, कर्म
के प्रति समर्पण का और सत्कर्म का माध्यम मानते थे। धर्म और आध्यात्म की इस भूमिका
को समाज में स्थापित करने के लिए सन् 1980 में उन्होने वत्सल निधि की स्थापना भी
की और उसका संचालन भी किया। वत्सल निधि के माध्यम से अज्ञेय ने तमाम नए-पुराने
साहित्यिकों को और जिज्ञासु लोगों को पुरातन भारतीय ज्ञान-संपदा से, भारतीय
साहित्य से परिचित कराने का कार्य किया। अज्ञेय ने अपने संदर्भ में भले ही सीधे
तौर पर बौद्ध धर्म-दर्शन की चर्चा नहीं की हो, किंतु उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व
दोनों में ही परस्पर विरोधी तत्त्वों का जैसा सुंदर तालमेल दिखाई देता है, जैसा
संतुलन प्रकट होता है वह कहीं न कहीं बौद्ध दर्शन के मध्यम मार्ग से प्रेरित नजर
आता है। इसी कारण उनका व्यक्तित्व और कृतित्व, उनका समग्र जीवन उस कैनवस की तरह से
है, जिसमें परस्पर विरोधी रंगों को इस तरह से भरा गया है, जो विरोध को त्यागकर
एक-दूसरे के पूरक बने हुए प्रतीत होते हैं।
युवाओं जैसी ऊर्जा और कर्मठता के साथ समर्पित भाव से अपनी योजनाओं में लगे
रहने वाले अज्ञेय खुद को एक साहित्यकार से ज्यादा अपने परिवेश का, अपने समाज का एक
जिम्मेदार हिस्सा मानते थे और उसी जिम्मेदारी को पूरा करने को महत्व भी देते थे।
जिम्मेदारियों का यही एहसास अज्ञेय जैसे महान रचनाकार को सरलता और सहजता के धरातल
पर इस तरह उतार देता है कि वे एक साहित्यकार ही नहीं रह जाते, बल्कि साहित्यकारों
के सर्जक भी बन जाते हैं। अज्ञेय ने अपनी महानता के ऊपर अपनी इन्ही जिम्मेदारियों
को स्थापित करके तमाम नए रचनाकारों को प्रोत्साहित भी किया और उनको सही राह भी
दिखाई। जिस किसी में उन्हें रचनाधर्मिता नजर आती, संभावना नजर आती, उसे
प्रोत्साहित करने में, प्रेरित करने में और निखारने में वे जी-जान से जुट जाते थे।
इसी का परिणाम है कि अज्ञेय के सानिध्य में, उनके दिशा-निर्देशन में रचनाधर्मिता
की नसीहतें लेने वाले आज हिंदी साहित्य जगत में बहुत ऊँचाई पर पहुँचे हैं। अज्ञेय
जैसा उदारमना व्यक्तित्व और अज्ञेय जैसी सहजता आज के साहित्य जगत में खोज पाना
बहुत कठिन है।
हिंदी साहित्य को अपनी उपस्थिति से
चमत्कृत कर देने वाला, रचनात्मक स्तर पर हिंदी में एक नए दौर की शुरुआत करने वाला
यह देदीप्यमान नक्षत्र 04 अप्रैल, सन् 1987 को लुप्त हो गया। जादुई और बहुरंगी
व्यक्तित्व वाले सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के लिए उनकी ही लिखी हुई यह
पंक्तियाँ सटीक बैठती हैं—
मैं सभी ओर से खुला हूँ.
वन-सा, वन-सा अपने में बंद हूँ
शब्द में मेरी समाई नहीं होगी।
मैं सन्नाटे का छंद हूँ।
(रेडियो काश्मीर-लेह से दिनांक 11 जुलाई, 2011 को प्रातः 8 बजे प्रसारित )
डॉ. राहुल मिश्र
सोमनाथ मंदिर : अतीत की
यात्रा का सुंदर, रोचक, दुखद प्रसंग
यह बात तेरह
दिसंबर, 2010 की
है। मैं अपने अभिन्न मित्र राकेश कुमार गौतम ‘मेजर’ के साथ चित्रकूट में घूम रहा था। घूमते-घूमते बात
बुंदेलखंड में शैव मत के विस्तार और उसके प्रमुख केंद्रों तक पहुंच गई। दरअसल, मुझको
बसारी (मध्य-प्रदेश) में होने वाले बुंदेली उत्सव-2010 की स्मारिका
के लिए एक आलेख लिखना था। इस आलेख का विषय तलाशते-तलाशते मन में आया कि क्यों न
बुंदेलखंड में फैले शैव मत के ऊपर कोई आलेख लिखा जाए। बातों के दौरान ही मेरे
मित्र राकेश ने बताया कि कर्वी से मानिकपुर मार्ग पर स्थित चर गांव में एक शिव
मंदिर है, जिसे सोमनाथ मंदिर कहा जाता है। राकेश ने बताया कि मैं भी वहां नहीं गया
हूं, लेकिन उस मंदिर के बारे में सुनकर अक्सर इच्छा होती है कि वहां जाया जाय।
बुंदेलखंड में
सोमनाथ, नाम सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। यह तो सच है कि शिवभक्त राजा, शासक या
धर्मभीरु लोग अपने नाम के साथ ‘नाथ’ या ‘ईश्वर’ जोडकर
शिवमंदिर का निर्माण कराया करते थे, किंतु सोमनाथ का नाम प्रायः गुजरात के
प्रभासपत्तन नामक स्थान पर चालुक्य शासकों द्वारा बनवाए गए
सोमनाथ मंदिर के लिए रूढ हो गया था। फिर पाठा की दुर्गम विंध्य श्रृंखलाओं के बीच
सोमनाथ मंदिर, देखने और जानने-समझने की उत्कट लालसा को रोक नहीं सका।
दिसंबर
और जनवरी, दो माह बीत गए। कभी राकेश जी की व्यस्तता, तो कभी मेरी व्यस्तता, किंतु
इस बीच सोमनाथ मंदिर जाने की इच्छा बनी ही रही और 01 फरवरी को हम दोनों सोमनाथ
मंदिर के लिए चल ही पडे।
सोमनाथ
मंदिर पहुंचकर हम दोनों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही। मंदिर पुराना अवश्य होगा,
धार्मिक आस्था का बडा केंद्र भी होगा, लेकिन मंदिर का स्थापत्य मन को मोह लेने
वाला होगा, ऐसा हम लोगों ने सोचा भी नहीं था। मंदिर एक छोटी सी वृत्ताकार पहाडी पर
था। पहाडी से लगा हुआ एक पक्का रास्ता भी कुछ दूर तक था, जो आगे कच्चा और ऊबड-खाबड
था और चर गांव में जाकर मिल जाता था।
मंदिर
तक पहुंचने के लिए कुछ सीढियां भी बनी हुई थीं। सीढियों के पास
ही लाल बलुए पत्थर में बनी हुई मुगदरधारी योद्धा और नृत्यगणेश की मूर्तियां रखी
हुईं थीं। इसके साथ ही चित्रात्मक प्रस्तरों के भग्न खंड रखे हुए थे। संभवतः इन
प्रस्तरों को गांव के लोगों ने इस प्रकार रखा होगा। इस तरह मंदिर के दरवाजे पर पडी
हुई भावात्मक प्रस्तर कलाकृतियों, भग्न मूर्तियों ने ही इस बात को साबित कर दिया
था कि मंदिर कितना पुराना होगा और इसका स्थापत्य भी अपने आप में बेजोड रहा होगा।
मंदिर में ऊपर
पहुंचकर देखा तो चारों ओर भग्न प्रस्तर, गुंबदों के हिस्से, मूर्तियां और विभिन्न
प्रस्तर कलाकृतियां पडी हुईं थीं। समूची वृत्ताकार पहाडी पर मंदिर बना रहा होगा,
ऐसा अनुमान लग रहा था, किंतु चारों तरफ मैदान के अतिरिक्त कुछ भी शेष नहीं था। एक
खंडहर, जिसे मंदिर कहा जा सकता था, वही शेष था और वह भी काफी हद तक गिर चुका था।
भग्न
खंडहर में अष्टकोणीय मण्डप था, जिसकी छत गिर चुकी थी। मण्डप के गुंबदों में
अप्सराओं की सुंदर मूर्तियां थीं। मण्डप के आगे गर्भगृह जैसा था, जहां शिवलिंग
स्थापित था। यह गर्भगृह सुरक्षित लगता था, किंतु इसमें हुए नवनिर्माण को देखकर
लगता था कि इसमें कुछ बदलाव हुआ है, यह किस कारण से हुआ, इसको कुछ कहा नहीं जा
सकता।
गर्भगृह
और मण्डप का पिछला हिस्सा एकदम ध्वस्त हो चुका था। इसको देखकर यह अनुमान लगाया जा
सकता था कि यदि इस बची-खुची इमारत को बचाने की कोशिश नहीं की जाती तो यह भी गिर
जाएगी।
इस खंडहरनुमा
गर्भगृह और मण्डप की प्रदक्षिणा के लिए एक रास्ता जैसा बनाया गया था और इसके दोनों
ओर टूटी-फूटी मूर्तियों को, मण्डप के भग्नावशेषों को और गुंबदों-प्रस्तरों को
व्यवस्थित करके रखा गया था। इसी प्रदक्षिणा-पथ में विभिन्न आकार-प्रकारों के
शिवलिंग रखे हुए थे, इनको देखकर ऐसा अनुमान होता था कि जब यह मंदिर पूरी तरह से
बना रहा होगा, तब इसमें छोटे-छोटे कई शिव मंदिर रहे होंगे। मंदिर के पीछे की ओर वाल्मीकि नदी बहती
है, जो आगे चलकर वारुणी नदी में मिल जाती है।
मंदिर
के पूर्वोत्तर में बरकोठ नाम का गांव है, जहां पर कुछ ध्वंसावशेष हैं। पूर्व की ओर
लालापुर की पहाडी, देउरा-नेउरा की पहाडी और लहरी पुरवा है, यह सभी ऐतिहासिक
महत्त्व के स्थल हैं और इन स्थलों पर ध्वंसावशेष आदि भी प्राप्त होते हैं। मंदिर
के पुजारी रामकृष्णदास त्यागी से हमें यह जानकारी मिली कि इन स्थानों पर तमाम
ऐतिहासिक साक्ष्य हैं, जो संरक्षण के अभाव में नष्ट हो रहे हैं।
इतना सब
जानने-समझने के बाद हम लोग सोमनाथ मंदिर से लौट पडे। वापस आकर अपनी मित्र मंडली को
और कुछ वरिष्ठ लोगों को सोमनाथ मंदिर की प्राचीनता के बारे में तथा इसकी दयनीय
स्थिति के बारे में बताया। और फिर यह तय किया गया कि मंदिर के संरक्षण के लिए
शासन-प्रशासन को लिखा जाय, लिहाजा एक ज्ञापन 07 फरवरी,2011 को चित्रकूट के मंडलायुक्त
को देकर मंदिर को संरक्षित पुरातत्त्व धरोहर के रूप में घोषित किए जाने और इसे
पुरातत्त्व संरक्षण विभाग को दिए जाने की मांग की गई।
इसी बीच यह
विचार बना कि मंदिर के ऊपर एक वृत्तचित्र भी बनाया जाय। अतः राकेश गौतम, अर्जुन
प्रकाश गुप्त, अनिल त्रिपाठी और मैं, चारों लोग एक बार फिर सोमनाथ मंदिर पहुंचे।
बुंदेलखंड का यह क्षेत्र बघेल शासकों के आधीन था, इस आधार पर यह अनुमान लगाया जा
रहा था कि इस मंदिर का निर्माण बघेलों द्वारा कराया गया होगा।
हम लोगों ने
दोबारा सोमनाथ मंदिर पहुंचकर गहनता के साथ इधर-उधर पड़ी भग्न प्रस्तर मूर्तियों को
देखा। इनमें से कई मूर्तियां दैनंदिन जीवन को व्याख्यायित कर रहीं थीं। इन
मूर्तियों में से कुछ युद्ध की भी थीं, कुछ मातृ रूप प्रकट करती मूर्तियां थीं,
कुछ मूर्तियों में दैवासुर संग्राम दर्शाया गया था और ऐसी ही एक विशालकाय प्रतिमा
शेषशायी विष्णु की प्रतिमा भी थी। गुंबदों पर बनी विभिन्न मूर्तियों के साथ ही
अन्य तमाम प्रस्तर मूर्तियों की अपनी एक विशेषता थी कि उनके सिर के ऊपर गूमड़ जैसा
बना हुआ था, जैसे कोई छोटा-सा शिवलिंग बना हो। इसके साथ ही मंदिर के स्थापत्य को
देखकर यह कहा जाना कि मंदिर बघेलों का बनवाया हुआ है, सही नहीं लग रहा था। इस कारण
किसी निष्कर्ष पर पहुंचने के बजाय हम लोग मंदिर की वीडियो रिकार्डिंग करके वापस
लौट आए।
हम
लोगों की एक बार फिर तैयारी हुई, सोमनाथ मंदिर जाने की। इस बार हम लोगों का
नेतृत्व बुंदेलखंड के जाने-माने इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली ने किया। 18 फरवरी,
2011 को हम चार लोगों के साथ ही महेंद्र पटेल, दीपू दीक्षित, प्रमोद विश्वकर्मा
आदि दस लोग एक बार फिर सोमनाथ मंदिर पहुंचे। इस बार विभिन्न समाचारपत्रों के
संवाददाता भी हम लोगों के साथ मंदिर पहुंचे। वीडियो रिकार्डिंग भी हुई और मंदिर के
हर-एक हिस्से का, कोने का गहन अध्ययन भी हुआ। और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि
यह मंदिर दूसरी से चौथी शताब्दी के बीच गुप्तकाल में बनवाया गया होगा, इस मंदिर का
स्थापत्य भी इस तथ्य को पुष्ट करता है। यह मंदिर कालिंजर के नीलकंठ मंदिर की तरह
और रौली गोंडा में बने शिव मंदिर की तरह का है। इस मंदिर की मूर्तियों के सिर पर
बने हुए गूमड़ या शिवलिंग भारशिवों के प्रतीक थे।
गुप्त शासकों का इस क्षेत्र में परोक्ष शासन
रहा है। गुप्त शासकों के पूर्व यहां पर नागवंशी भारशिवों का शासन था, जिनकी
राजधानी नचना-कुठार (पन्ना, म.प्र.) में थी और उपराजधानी भारगढ़ (वर्तमान बरगढ़)
थी। बरकोठ या भारकोट का इतिहास भी ऐसे ही इनसे जुड़ा होगा। भारशिव शासक शैव मत के
कट्टर अनुयायी थे और सिर पर शिवलिंग धारण किये हुए भारशिव प्रतिमाएं इनका प्रतीक
होती थीं। गुप्त शासकों के शक्तिशाली होने पर नागवंशी शासकों ने उनसे रोटी-बेटी का
संबंध स्थापित किया और इस तरह इस क्षेत्र के नागवंशी शासक गुप्त राजाओं के
माण्डलिक बन गए। सोमनाथ मंदिर में मिलने वाली भारशिव प्रतिमाएं और इनके साथ ही
शेषशायी विष्णु की प्रतिमाएं इस बात को प्रमाणित करती हैं कि यह मंदिर गुप्तकाल की
स्थापत्य कला की प्रेरणा लेकर, गुप्तकाल के स्थापत्य की तर्ज पर भारशिवों द्वारा
बनवाया गया होगा।
भारशिव
(नागवंशी) शासकों की यह भी विशिष्टता रही है कि वे आदिवासी जीवन जीते हुए तथा शैव
साधना करते हुए विधर्मी और परराष्ट्राक्रांताओं को पछाड़ते रहे हैं। यदि इतिहास को
खंगाला जाय तो यह समझ में आता है कि गुप्त शासकों की सत्ता स्थापित करने और उनके
शासन को समृद्ध, सफल बनाने में नागवंश के शासकों का अमूल्य योगदान रहा है। जब
बुंदेलखंड में गुप्त शासकों की पकड़ धीमी पड़ने लगी तब बुंदेलखंड में गुप्त शासकों
के मांडलिक वाकाटक शासकों का आधिपत्य कायम हुआ। वाकाटक शासकों के प्रतीक तो
प्राप्त होते हैं, किंतु नागवंश के शासकों के प्रतीक बहुत कम ही मिलते हैं। इतिहास
में दर्ज है कि नागवंशी शासक युद्ध आदि में व्यस्त रहे और इन्होने अपने शासन के
प्रतीक स्थापित नहीं किये। इस कारण यह कहा जा सकता है कि यदि यह मंदिर नागवंश के
शासकों द्वारा बनवाया गया है तो इस अनूठे, अद्वितीय और अतुलनीय मंदिर को दुर्लभ
सांस्कृतिक धरोहर की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
स्थानीय
ग्रामवासी बताते हैं कि चालीस वर्ष पहले यह मंदिर काफी हद तक ठीक स्थिति में था।
बीहड़ में होने के कारण यह आक्रांताओं की नज़र में नहीं आया और शायद इसी कारण यह
सुरक्षित भी रह सका। किंतु बाद में हम लोगों ने ही धन के लालच में अपनी धरोहर को
नष्ट करने का दुष्कृत्य किया। इस मंदिर की दुर्लभ मूर्तियां चोरी हो गईं और कई
तरीके से इस मंदिर को नुकसान पहुंचाया गया।
इस
मंदिर में हम लोगों की यात्रा सुखद और दुखद, दोनों ही पक्ष रखती है। सुखद इस मायने
में कि हमें अपने अतीत के एक स्वर्णिम अध्याय को, एक प्रतीक को देखने का,
जानने-समझने का अवसर मिला; और दुखद इस मायने में कि यह मंदिर अपने अस्तित्व की आखिरी
साँसें गिन रहा है। हम लोगों ने इस मंदिर के स्थापत्य को, इसके अतीत को, इसकी
विशिष्टता को और इसके परिवेश को केंद्र में रखकर एक वृत्तचित्र भी बनाया। इसकी कई
प्रतियां तैयार कराईं और लोगों में वितरित करके अपने अतीत की इस पुरातन धरोहर को
बचाने की अपील की। मीडिया के माध्यम से जन-जागरूकता लाने और शासन-प्रशासन का ध्यान
इस ओर आकृष्ट कराने का कार्य किया। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग को ज्ञापन
दिया, पत्र भी लिखे। इस काम में स्थानीय ग्रामवासियों के साथ ही इलेक्ट्रानिक और
प्रिंट मीडिया के लोगों का, बुद्धिजीवियों का, छात्रों का और अपने अतीत के
प्रतीकों से लगाव रखने वाले लोगों का भरपूर सहयोग मिला।
लेकिन
यह दुखद है, खेदजनक है कि हम सरकार की तंद्रा को भंग नहीं कर सके। पुरातत्त्व
विभाग ने आज तक इस मंदिर में अपनी हाजिरी दर्ज कराने की भी जहमत नहीं उठाई है। सरकारी
अमला भी मौन होकर बैठा है। यह बुंदेलखंड का दुर्भाग्य है कि हम तरक्की की
मुख्यधारा में नहीं हैं। सोमनाथ मंदिर जैसी अन्य ऐतिहासिक धरोहरें भी यहां पर हैं,
जिन्हें संरक्षण की जरूरत है; जो देशी ही नहीं, विदेशी पर्यटकों को भी अपनी ओर
आकृष्ट कर सकती हैं, किंतु इस ओर किसी का ध्यान नहीं।
शायद
सरकार की नींद तब टूटेगी, जब बड़ा आंदोलन खड़ा होगा। हमारे इस छोटे-से प्रयास को
आपके सहयोग की जरूरत है।
डॉ. राहुल मिश्र
श्रमण संस्कृति और हिंदी साहित्य
श्रमण संस्कृति और हिंदी साहित्य
वैदिक
धर्म में व्याप्त हिंसा, कर्मकाण्डों की जटिलता, भेदभाव और कुरीतियों की प्रतिक्रियास्वरूप
बौद्ध धर्म का उदय समाज-सुधार की परिकल्पना और सामान्य जनता को सन्मार्ग दिखाने की
नीयत से हुआ। गौतम बुद्ध के निर्वाण के लगभग 45 वर्षों तक बौद्ध धर्म का विस्तार
द्रुत गति से होता रहा। भारत के साथ ही विदेशों तक इसका विस्तार हुआ।
गौतम
बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म हीनयान और महायान शाखा में विभक्त हो गया।
हीनयान शाखा के साधकों की साधना पद्धति आत्मा के दमन और आत्मा के निर्वाण की
विचारधारा पर चलते हुए व्यक्तिवादी हो गई। जबकि महायान शाखा के साधकों ने जगत्
कल्याण को अपनाया। महायान शाखा में ज्ञान की अपेक्षा भक्ति का और पूजा-अर्चन का
प्राधान्य था, इस कारण जनता की आस्तिक विचारधारा के साथ अपना तालमेल बैठाते हुए
महायान शाखा का अपेक्षाकृत अधिक विस्तार हुआ। महायान शाखा से ही कालांतर में
वज्रयान, मंत्रयान, सहजयान आदि का उदय हुआ। बौद्ध धर्म की इन शाखा-प्रशाखाओं में
तंत्रमत का प्राधान्य था। इनमें से वज्रयान तत्त्व को अधिक प्रसिद्धि मिली। उत्तरी
भारत में अपने प्रभाव का विस्तार करते हुए वज्रयान भारत से बाहर जाकर भी विस्तृत
हुआ।
बौद्ध
धर्म के वज्रयान तत्त्व की प्रसिद्धि के कारण वैदिक धर्म में जन्मे नए मत-मतांतरों
में भी इसका प्रभाव परिलक्षित होने लगा। वैदिक धर्म की पंचदेवोपासना— गणपति
संप्रदाय, सूर्य संप्रदाय, शक्ति संप्रदाय, शैव संप्रदाय और वैष्णव संप्रदाय में
से अंतिम तीन संप्रदायों का पर्याप्त विकास हुआ। इन संप्रदायों में महायान का भक्ति
तत्त्व वज्रयान के प्रभाव से तंत्रवाद का प्रभाव लेकर नए रूप में विकसित हुआ। डॉ.
गोविंद त्रिगुणायत इस तथ्य को स्वीकार करते हुए अपनी पुस्तक- ‘हिंदी की निर्गुण काव्यधारा और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि’ में लिखते हैं कि—“वैष्णव धर्म की भक्ति-भावना
महायानियों के भक्ति तत्त्व से ही अनुप्राणित है। शैवों की मठवादी प्रवृत्ति को
महायानियों की मठवाद की प्रवृत्ति से ही बल मिला था। वैष्णवों की रथ-यात्रा
बौद्धों के ही एक उत्सव का रूपांतर है। पुरी के जगन्नाथ जी बुद्ध का ही वैष्णवीकृत
रूप हैं। सारनाथ के समीप में एक संघेश्वर महादेव स्थित हैं। संघेश्वर शब्द इस बात
को प्रमाणित करता है कि यह मूर्ति बुद्ध का ही शिवीकृत रूप है। बौद्ध विचारधारा और
तत्त्वों के वैष्णवीकरण और शिवीकरण की यह प्रक्रिया संतों के समय तक चलती रही।”1
इस
प्रकार बौद्ध धर्म का वज्रयान तत्त्व और वैदिक धर्म के शैव, शाक्त एवं वैष्णव मत
आपस में मिलजुल कर एक नए आंदोलन जैसा रूप लेने लगे थे। इसका प्रमुख कारण यह भी था
कि तत्कालीन भारत की केंद्रीकृत सत्ता बिखर चुकी थी। छोटे-छोटे राजे-रजवाडे अपनी
सीमाओं के विस्तार में या अपनी रक्षा में ही इतने व्यस्त हो चुके थे कि जनता के
दुख-दर्द को समझना और सार्थक हल दे पाना उनके वश की बात नहीं रह गई थी। दूसरी ओर
विदेशी आक्रांताओं के साथ ही दूसरे धर्म का आगमन भी ऐसे आंदोलन की उत्पत्ति का
कारण बन चुका था। इन स्थितियों में सामान्य-निरीह जनता के सामने एक ही रास्ता था
और वह था, धर्म सत्ता में अपनी स्थिति को तलाशना। जनता को बिखराव से बचाने और
मत-विभेद जैसी स्थितियों के कारण संभावित टकरावों को रोकने के लिए भी आपसी समन्वय
की आवश्यकता थी। धर्म के इस नवोदित भक्ति आंदोलन की यही प्रमुख विशेषता भी थी।
इस
विशिष्टता को स्थापित करते हुए आचार्य परशुराम चतुर्वेदी हिंदी साहित्य का इतिहास
में लिखते हैं कि, “साधनमाला में वर्णित बौद्ध देवता पद्मनृत्येश्वर भी शिव
का रूपांतर ही जान पडता है। इसी प्रकार उडीसा के पंचसखाओं का शून्यपुरुष ब्राह्मण-श्रमण-संस्कृतियों के मिलन की ओर
संकेत करता है। मध्य प्रदेश के नाग राजाओं द्वारा अवलोकितेश्वर की पूजा शिव-पूजन
की भाँति हुआ करती थी। एलोरा के समीपस्थ वेरुल के कैलास मंदिर में शिव की मूर्ति
के शीर्ष स्थान पर बोधि वृक्ष स्थित है। चंबा-नरेश अजयपाल के राज्य-काल में
उत्कीर्ण ब्रह्म, वरुण और शिव के साथ बुद्ध भी हैं। खजुराहो से उपलब्ध कोक्कल के
वैद्यनाथ मंदिर वाले शिलालेख में ब्रह्म, जिन, बुद्ध तथा वामन को शिव का स्वरूप
कहा गया है। इसी प्रकार हरिहर पूजन में भी शैव-वैष्णव धारा का संगम लक्षित होता
है। संक्षेप में, ऐसे अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जिनसे समन्वयात्मक
प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। भक्ति-आंदोलन का विकास इसी पृष्ठभूमि में हुआ था।”2
भक्ति
आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने का श्रेय सिद्ध-नाथ पंथियों को जाता है। वस्तुतः
बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्त्व, तंत्रवाद और इसके प्रभाव के फलस्वरूप शैव-शाक्त एवं
वैष्णव मतों में पनपे तंत्रवाद ने आपस में घुल-मिलकर सिद्ध-नाथ पंथ को जन्म दिया।
सिद्धों
ने इस तंत्रवाद के माध्यम से सामान्य-निरीह जनता को भक्ति और सन्मार्ग का रास्ता
दिखाने के उद्देश्य से जनभाषा में साहित्य रचना की। सिद्धों की वाममार्गी
साधनापद्धति का परिष्कृत और परिवर्द्धित स्वरूप नाथ पंथ में मुखर हुआ। नाथ पंथ के
प्रमुख संत गोरखनाथ और मछिंदरनाथ की गिनती सिद्धों में भी होती है, इससे यह अनुमान
लगाया जा सकता है कि सिद्ध पंथ से ही कालांतर में नाथ पंथ का उदय हुआ होगा।
सिद्धों
की संख्या कितनी थी और इनका प्रमुख केंद्र कहाँ था, इस संदर्भ में विभिन्न मत और
विचार हैं। प्रायः ऐसा माना जाता है कि चौरासी सिद्ध हुए हैं और ये प्रायः संपूर्ण
राष्ट्र में अलग-अलग स्थानों पर रहे हैं। हिमालय के तराई क्षेत्रों से लेकर
संपूर्ण हिमालय परिक्षेत्र में इनका प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक व्यापक था। इस क्षेत्र
में इनका प्रभाव बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्त्व के विस्तार में योगदान दे रहा था।
इस कारण हिमालय परिक्षेत्र में बौद्ध गुरुओं के रूप में कई सिद्धों का अस्तित्व आज
भी विद्यमान है। इनकी रचनाएँ भी भोट भाषा में बौद्ध धर्म के प्रमुख धर्मग्रंथों,
स्तुतियों आदि में प्राप्त होती हैं। सिद्धों का अस्तित्व न केवल भारतीय हिमालयी
क्षेत्र में वरन् तिब्बत के पठारी क्षेत्र में भी फैला हुआ था।
जर्मनी
के प्रख्यात विद्वान अल्ब्रेट बेवर, जो भारतीय संस्कृत साहित्य, धर्म और
धर्मशास्त्रों के ख्यातिलब्ध विद्वान माने जाते हैं, उनकी पुस्तक ‘द हिस्ट्री आफ
इंडियन लिटरेचर’ के उपलब्ध हिंदी अनुवाद में यद्यपि बौद्ध साहित्य और धर्म के साथ
सिद्धों के सीधे संबंध का वर्णन नहीं किया गया है, तथापि इस बात का उल्लेख अवश्य
किया गया है कि बौद्ध धर्म के विस्तार, उसकी शाखा-प्रशाखाओं के विस्तार के साथ ही
व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने हेतु अवस्था या योग्यता के आधार पर पद विभाजन,
कार्य विभाजन किया जाने लगा। इस प्रकार बौद्ध धर्म में पौरोहित्याधिपत्य का क्रमिक
विकास हुआ। ब्राह्मण संस्कृति में जन्मना चलने वाली व्यवस्था के ठीक विपरीत
बौद्ध-श्रमण संस्कृति में कर्म को प्रधानता दी गई। इस कारण समाज के उपेक्षित
वर्णों के विद्वानों ने बौद्ध धर्माचार्यों का स्थान पाया।3 इस प्रकार
ऐसा प्रतीत होता है कि पुरोहितों-उपदेशकों की पहली पीढ़ी और उनके प्रमुख शिष्यों को
ही ‘सिद्ध’ नाम से अभिहित किया गया होगा।
स्पष्ट
साक्ष्यों के अभाव में असलियत को प्राथमिकता देने के बजाय इस तथ्य को स्वीकार करना
होगा कि देश और देश से बाहर निरंतर भ्रमणशील रहने वाले सिद्धों ने तत्कालीन कालखंड
में जनभाषा को माध्यम बनाकर आम जनता को सही रास्ता दिखाने का कार्य किया है, साथ
ही तत्कालीन प्रकीर्ण साहित्य पर अपना सशक्त प्रभाव डाला है।
सरहपा
से लेकर नरोपा और उनके शिष्य कुसूली की रचनाओं में जनभाषा का जो स्वरूप मिलता है,
वह आदिकालीन हिंदी के इतना निकट का है कि उसे हिंदी की उत्पत्ति की आरंभिक अवस्था
कहना अन्यथा न होगा। महापंडित राहुल सांकृत्यायन से पहले किसी भी विद्वान ने हिंदी
की इन आदिकालीन रचनाओं की ओर ध्यान नहीं दिया।
हिंदी
साहित्येतिहास लेखन का व्यवस्थित, क्रमबद्ध और प्रामाणिक कार्य आचार्य रामचंद्र
शुक्ल ने किया। उन्होने सिद्धों के साथ ही जैनों की रचनाओं को असाहित्यिक और
धार्मिक मानते हुए हिंदी साहित्य के इतिहास में स्थान नहीं दिया। उन्होने
पृथ्वीराज रासो को हिंदी का पहला महाकाव्य घोषित करते हुए वीरगाथाकाल से ही हिंदी
की शुरुआत मान ली। राहुल सांकृत्यायन द्वारा खोजा गया सिद्ध साहित्य हिंदी साहित्य
के इतिहास में महत्त्वपूर्ण और क्रांतिकारी घटना बनकर आया।
इस
संदर्भ में प्रो. नागेंद्रनाथ उपाध्याय लिखते हैं कि- “उनके पूर्व शुक्ल जी के
अनुसार, हिंदी कविता का आरंभ विक्रमी संवत् 1050 से माना जाता था। उन्होने आदि
सिद्ध सरह को हिंदी का प्रथम कवि घोषित कर उनकी कविता को हिंदी की प्राचीनतम्
कविता कहा। उनका समय 770-825 ईस्वी के बीच माना। इस प्रकार हिंदी कविता का आरंभ
राहुल जी के अनुसार आठवीं शताब्दी में हुआ।”4 आठवीं से बारहवीं शताब्दी
तक विस्तृत विपुल साहित्यराशि राहुल जी के अनथक प्रयासों से ही हिंदी साहित्यजगत्
के संज्ञान में आ सकी। यद्यपि धर्मवीर भारती प्रभृति कतिपय विद्वानों ने राहुल जी
की स्थापनाओं और मान्यताओं की आलोचना की है, तथापि सिद्ध साहित्य को इस प्रकार
नहीं छोड़ा जा सकता।
राहुल
जी ने आलोचनाओं के विरुद्ध अपने तर्क भी दिए हैं। उन्होने अपनी पुस्तक- ‘पुरातत्त्व
निबंधावलि’ में कई स्थानों पर सशक्त तर्क दिए हैं। उनका मत है कि सिद्ध के लिए कवि
होना अनिवार्य था, ताकि वह सुगम, सरस और सरल रीति से अपनी बात आम जनता तक पहुँचा
सके। इसके साथ ही कई सिद्ध संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान और ग्रंथकार भी थे।
विद्वता के साथ ही देशी भाषा में कविता करना इनका गुण था इसी कारण वे विज्ञ से
लेकर अल्पज्ञ और अनपढ़ तक अपनी बात पहुँचाने में सक्षम थे।5
सिद्ध
साहित्य, राहुल जी के तर्क और हिंदी के भक्ति साहित्य को अगर एक क्रम में रखकर
देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में चलने वाली परंपरा
ने सिद्घ साहित्य से ही रस संचय किया है। भक्तिकालीन कवियों में विद्वता का अभाव
नहीं था, किंतु गूढ़ ग्रंथों का प्रणयन करने के बजाय इनकी रचनाएँ ऐसी थीं, जो आज
भी अपढ़ से पढ़े-लिखों तक व्याप्त हैं।
समग्रतः
यह कहा जा सकता है कि जिस संस्कृति में, जिस साहित्य में हिंदी की जड़ें जमी हुई
हैं, उसके एक अंश से साक्षात्कार कराने का कार्य राहुल जी ने किया। आज भी इस
क्षेत्र में अपार संभावनाएँ हैं। श्रमण संस्कृति के पूज्य धार्मिक ग्रंथों में कई
सूत्र छिपे हो सकते हैं, जो नई स्थापनाओं और सिद्धातों के आधार बन सकते हैं।
संदर्भ
1.
हिंदी की
निर्गुण काव्यधारा और उसकी दार्शनिक पृष्ठभूमि, डॉ. गोविंद त्रिगुणायत, साहित्य
निकेतन, कानपुर, 1961, पृ. 5-6
2.
हिंदी साहित्य
का इतिहास (संपा. डॉ. नगेंद्र), आचार्य परशुराम चतुर्वेदी, पृ. 100
3.
भारतीय
साहित्य (अल्ब्रेट बेवर), अनु. डॉ. उमेशचंद्र पाण्डेय, किताबमहल, इलाहाबाद, 1968,
पृ. 303-304
4.
महापंडित
राहुल (संपा.कमला प्रसाद), प्रो. नागेंद्रनाथ उपाध्याय, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद,
1994, पृ. 122
5.
पुरातत्त्व
निबंधावलि, राहुल सांकृत्यायन, इंडियन प्रेस, इलाहाबाद, 1937, पृ. 275-291
डॉ. राहुल मिश्र
Subscribe to:
Posts (Atom)