Saturday, 14 July 2012

हे संचालक! तू महान है (व्यंग्य)


            हे संचालक! तू महान है  (व्यंग्य)
कोई भी आयोजन हो, छोटा या बड़ा, आयोजन की सफलता या असफलता का केंद्र बिंदु संचालक ही होता है। साथ ही संचालक के व्यक्तित्व से आयोजन के वैशिष्ट्य का दर्शन होता है।  संचालक जैसा होगा, श्रोता या दर्शक आयोजन के बारे में वैसी ही धारणा बनाएँगे। वैसे संचालक की परिभाषा तो रही है- कि वह व्यक्ति या व्यक्तित्व, जो संचालन करने की क्षमता रखता है, संचालक कहलाता है। जैसे, बीस डिब्बों वाली रेलगाड़ी को एक दाढ़ीबाबा चला रहे हैं, यह है सरकार का संचालन और व्यक्ति हुआ संचालक। लेकिन फिर भी लोग समाचारपत्रों के कंधे पर अपने विचारों को रखकर फायर कर देते हैं, लिहाजा समाचारपत्र हर रोज यही कहते हैं कि सरकार के संचालक तो बापू के वारिसान हैं और जो संचालक दूरदर्शन पर नजर आते हैं वो तो केवल दिखाने वाले हाथी दाँत के उदाहरण हैं। सरकारी योजनाओं, नीतियों और परियोजनाओं को चबा-चबाकर खाने वाले दाँत तो दूसरे हैं, जो दिखते नहीं हैं।
तमाम मठों के अधिपति अपने को धर्म का ठेकेदार मानते हैं और पीठाधीश्वर या हामीकार बनकर फतवा-फरमान जारी करते हुए धर्म के संचालक होने के नित नए प्रयोग और अनुष्ठान करते हैं। ऐसे बौखलाए और लाचार संचालक जिनके बारे में अपने द्वारा संचालित किए जाने का ढिंढोरा पीटते वो नई सदी की संचार क्रांति, भागमभाग और महँगाई की मार से स्वचालित हो गए हैं। वे निर्माण या ध्वंस के चक्कर में न पड़कर दो जून की रोटी के लिए मेहनत करना ज्यादा जरूरी समझते हैं और अपनी मजबूरी भी समझते हैं। मजबूरी तो धर्म संचालकों के सामने भी है, अगर संचालक पद का त्याग कर दिया तो अम्पाला या मर्सिडीज़ बेंज में लंबा-चौड़ा झंडा लगाकर घूमने, तरह-तरह के पकवान-व्यंजनों-मेवों और किस्म-किस्म के सुखों का रसास्वादन करने का सुख पल भर में छूट जाएगा।
तमाम समाज के ठेकेदार, जिन्हें समाज के बनने या बिगड़ने की बड़ी चिंता होती है; वे समाज की हर-एक गतिविधि पर अपनी पैनी नज़र रखते हुए समाज को प्रगतिशील बनाने, समाज को सुधारने और समाज को नई दिशा देने के लिए स्वयं संचालक बनकर सामने आते हैं। समाज के ऐसे ठेकेदारों को इसीलिए राजकाज की भाषा में स्वैच्छिक कहा जाता है। ये अपनी इच्छा से अपने सिर पर समाज को सुधारने और समाज का संचालन करने का ताज धारण करके समाजसेवा के रण में कूद पड़ते हैं। यह अलग बात है कि समाजसेवा के लिए सरकारी योजनाओं का शुभारंभ इनके घर भरो आंदोलन के साथ शुरू हो। इसमें कोई बुराई भी नहीं है, क्योंकि जब तक स्वयंसेवा नहीं होगी तब तक समाजसेवा कैसे हो सकती है। स्वयंसेवा का भी अपना ‘स्टैंड’ है। स्वयंसेवक समाज के बड़े सेवकों में स्थान पाते हैं। इन स्वयं सेवकों में भारत-भारती का जज्बा पूरे उफान पर रहता है और इसी बूते यह समाज के संचालक होने का दम भरते हैं, जरूरत पड़ने पर ताल भी ठोंक देते हैं।
ताली बजाकर और ताल ठोंककर विदेशी परिधानों को धारण किए हुए ऊपर से नीचे तक, आहार से विचार तक विदेशी संगत में तराशे हुए एक अलग कुलीन तबके के उदाहरण पर, भारतीय समाज के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से के उदाहरण पर अगर गौर किया जाए तो यही कहना पड़ेगा कि हमारे संचालक तो बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुखिया हैं। जब इन संचालकों से देशी संचालकों की मुठभेड़ हो जाती है, तब एशियन बनाम अल्सेशियन का मामला बन जाता है। तब लगता है कि हमारे संचालक बहुत लाचार और बेबस हैं, उनकी सोच को पाला मार गया है, उनकी सोच ने विस्तार पाना बंद कर दिया है। नई ‘जेनरेशन’ राष्ट्राभिमान और राष्ट्रप्रेम के बजाय विश्वप्रेम और विश्वबंधुत्व को ‘प्रमोट’ कर रही है। तभी तो अपनी तहजीब, अपनी पहचान की बलि देकर विचार और व्यवहार में ‘मल्टीनेशनलाइज़्ड’ हो रही है। यह ‘मल्टीनेशनलाइजेशन’ वैश्विक स्तर पर संचालकों का महासमूह है, एक महाआंदोलन है, जिसके आगे छुटभैये किस्म के संचालक सूरज के सामने दीपक जैसी गरिमा से मंडित होते हैं।
ऊपर की पंक्तियाँ जिस प्रकार के संचालकों का बखान कर रहीं हैं, वे स्थाई और ‘लाँग टर्म’ टाइप संचालक हैं। एकबारगी ऐसा सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि ऐसे महान संचालक धरती पर संचालन करने के लिए ही भेजे गए हैं- जाओ, और युगों-युगों से असंचालित अर्द्धपशु मनुष्य रूपी जीव प्रजाति को अपने कुशल  संचालन से पूर्ण करके पूर्णता प्रदान करो। दूसरे किस्म के संचालक क्षणिक होते हैं, उनकी भी अपनी गरिमा होती है। जिस तरह किसी भी दबे-कुचले, मरहे-खुरहे व्यक्ति को आयोजन के अध्यक्ष पद पर आसीन कर देने पर उसमें त्रैलोक्य तेज और गंभीरता समा जाती है, ठीक उसी तरह आयोजन का संचालक चाहे कितना भी मूढ़ और अज्ञानी क्यों न हो मंच पर माइक के सामने परम वैभव और अनूठी विद्वता का परिचायक बन ही जाता है। हाँ, अगर संचालक नया है तो थोड़ा झिझक की वजह से भाषा और व्याकरण की गलती के साथ ही अप्रासंगिक उदाहरण कह जाता है। जैसे एक बार एक शोक सभा के आयोजन में संचालक महोदय ने ऐसा चुटकुला सुना दिया कि गमगीन माहौल अचानक ठहाकों में बदल गया और ठहाके भी इतने बुलंद थे कि अगर स्वर्गीय व्यक्ति वहाँ पर मौजूद होता तो उसे स्वयं पर शर्म जरूर आ जाती। कुछ ‘रजिस्टर्ड’ संचालक भी होते हैं, जिन्हें हर आयोजन में खासतौर पर संचालन करने के लिए बुलाया जाता है, ठीक उसी तरह जिस तरह लोग अपने घर में पुत्ररत्न की प्राप्ति पर गाने-बजाने के लिए ‘कुछ लोगों’ को बुलाते हैं। अब आप स्वयं ही समझ गए होंगे कि उनकी संज्ञा क्या होगी।
ऐसे संचालक हर बड़े से बड़े या छोटे से छोटे आयोजन के संचालक बनकर आयोजन की सफलता को पैमाने में कसते हैं। अपने यहाँ भी एक संचालक हैं, जिनका व्यक्तित्व चंद्रिका के समान शीतल है और अपने ललित ज्ञान की आभा से आयोजन को आलोकित कर देते हैं। अपने संचालन में ये साहित्य के लालित्य का प्रदर्शन करते हैं और आदि कवि से लेकर आधुनिक कवियों तक की रचनाओं के टुकड़े इस कदर सभा में बिखेर देते हैं कि तमाम मनीषियों को अपनी अगाध साहित्यसेवा में शर्म महसूस होने लगती है। वैसे अगर सब टुकड़े जोड़े जाएँ तो बेशक भानुमती का पिटारा बन सकता है। ऐसे लालित्य को बुंदेलखंड की भाषा में ललत्ता कहा जाता है। जब कोई बेटा समोसा खा लेने के बाद जलेबी खाने की ‘डिमांड’ अपनी माँ के सामने रखता है तो माँ उसे झिड़ककर कहती है- तैं बहुत ललत्ता हा। ऐसे ही हमारे बहुप्रचलित और बहुप्रचारित संचालक महोदय ने इस कदर रचनाएँ चुराईं हैं कि तमाम जीवित और तमाम दिवंगत रचनाकारों की आत्माएँ हर-एक आयोजन के दौरान इन संचालक महोदय के लिए यह बुंदेलखंडी वाक्य दोहराती हैं। लेकिन हमारे संचालक महोदय बिना किसी संकोच, झिझक या पूर्वाग्रह के अपने प्रदर्शन द्वारा अंधों में काना राजा वाली ‘पोजीशन’ बनाए हुए हैं। इस तरह का डटे रहने वाला जज्बा भी संचालकों की योग्यता में शुमार होता है।
कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि संचालक किसी भी आयोजन में वही स्थान रखता है, जो स्थान जीभ का मुँह में होता है। फिर चाहे जीभ तोतली भाषा में बोले या फिर हकलाए, सुनना तो पड़ेगा ही। संचालक को सहन करना श्रोताओं या दर्शकों की मजबूरी है और यह मजबूरी लाइलाज है। चाहे वह किसी आयोजन का संचालक हो या फिर दिल्ली में बैठा संचालक हो।
                                               डॉ. राहुल मिश्र     
    
    

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