Saturday, 19 April 2014

बुंदेलखंड के अप्रतिम इतिहासकार और साहित्यसेवी : राधाकृष्ण बुंदेली


बुंदेलखंड के अप्रतिम इतिहासकार और साहित्यसेवी 
राधाकृष्ण बुंदेली
बाँदा शहर के चौक बाजार की ओर बलखंडीनाका की तरफ से चलने पर कापी-किताबों की छोटी-सी दूकान- विजय पुस्तक भंडार। यहाँ पर पुरानी किताबें बेची और खरीदी जाती थीं। विजय पुस्तक भंडार की एक और पहचान राधाकृष्ण बुंदेली के नाम से भी कायम थी। इस छोटी-सी दूकान में साहित्यकारों, शोध छात्र-छात्राओं का और अलग-अलग विषयों के जिज्ञासुओं का दिन-दिनभर जमावड़ा लगा रहता था। कभी कोई किताबें खरीदने या बेचने आ जाता तो उसका काम निबटाकर फिर से साहित्यचर्चा शुरू हो जाती। विजय पुस्तक भंडार में अकसर विदेशी पर्यटक भी बैठे नजर आ जाते।
विजय पुस्तक भंडार की रोजमर्रा की जिंदगी में यह दृश्य कब से कायम है, मेरे लिए यह बता पाना बहुत कठिन है। क्योंकि अपने बचपन से मैंने हमेशा इस क्रम को देखा है। पढ़ाई के दिनों में किताबें लेने के लिए हमलोग भी वहाँ पहुँच जाते थे। बाद में, जब बुंदेली साहित्य, संस्कृति से जुड़ाव शुरू हुआ तो साहित्यचर्चा में शामिल होने लगे। संरक्षक के रूप में, मार्गदर्शक के रूप में राधाकृष्ण बुंदेली की नसीहतें, बातें बहुत प्रभावित करतीं। कभी कोई बुंदेली कहानी, बुंदेली लोकगीत या इतिहास का कोई प्रसंग बुंदेली जी से सुनने को मिल जाता तो वह हमेशा-हमेशा के लिए याददाश्त में बैठ जाता। ऐसे ढेरों प्रसंग, कहानियाँ-किस्से और लोकगीत हमारे लिए प्रेरणास्रोत बन गए। यहीं से बुंदेलखंड के इतिहास, तहजीब और लोकरंग को शब्द देने की प्रेरणा मिली। राधाकृष्ण बुंदेली हमारे लिए प्रेरणास्रोत बने, जिन्होंने बुंदेली माटी के प्रति भावनात्मक लगाव का बीज रोपा। ऐसा महसूस करना मेरे लिए आश्चर्य से भरा हुआ नहीं है कि मेरे जैसे कई युवाओं को प्रेरणा बुंदेली जी से ही मिली होगी।
राधाकृष्ण बुंदेली बुंदेलखंड की माटी के जमीन से जुड़े साहित्यकार, इतिहासकार थे। इस कारण बुंदेलखंड की तहजीब को, यहाँ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखने का उनका नजरिया एकदम अलग था। सामान्य रूप से इतिहास का अध्ययन ऐसा होता है, जिसमें संवेदनात्मक, भावात्मक अनुभूति नहीं होती है। बुंदेली जी की इतिहास-दृष्टि इसके विपरीत थी, इसके कारण उनके द्वारा रचे गए विविध लेखों में बुंदेलखंड की ऐतिहासिक विरासत की जानकारी भावनात्मक रूप से ऐसा घनिष्ठ जुड़ाव कायम करने की सामर्थ्य रखती है, जो उनके लेखन कौशल को अद्भुत वैशिष्ट्य प्रदान कर देती है।
बुंदेलखंड के प्रत्येक क्षेत्र, विविध जनपदों में भाषाई विविधता अनूठे किस्म की है। राधाकृष्ण बुंदेली का भाषाई विविधता पर अध्ययन भी उत्कृष्ट था। उन्होंने बुंदेलखंड के विविध क्षेत्रों की बोलियों के साम्य-वैषम्य का अध्ययन किया, उन्हें प्रकाश में लाने का कार्य किया। वे बुंदेली बोलियों का व्यवहार भी बड़े रोचक ढंग से करते थे। बातों के दौरान अक्सर अलग-अलग बोलियों का यथावत् और स्पष्ट प्रयोग सुनकर क्षेत्र-विशेष के प्रति अलग-सा आकर्षण पैदा हो जाता था। विविध बोलियों का व्यवहार करते हुए अक्सर वे चिंतित हो जाते थे। खड़ीबोली हिंदी के प्रयोग और अंग्रेजी के प्रयोग के माध्यम से स्वयं को शिष्ट और पढ़ा-लिखा प्रदर्शित करने के प्रयासों में अपनी भाषाई पहचान के अस्तित्व को मिटाने की नीयत उन्हें बहुत चिंतित करती थी। हमलोगों से वे अक्सर पूछते कि तुम लोगों को कितने प्रकार की बुंदेली बोलियाँ आतीं हैं। बाद में नसीहत भरा संदेश, कि बुंदेली बोलियों को व्यवहार में रखो, उनमें साहित्य लिखो, कहानियाँ लिखो, आदि।
राई, आल्हा, ढिमरियाई, कछियाई, दादरा, सोहर और ऐसे ही तमाम लोकगीतों का सस्वर पाठ करते राधाकृष्ण बुंदेली की चिंता लोकगीतों की पुरातन परंपरा के सिमटते जाने पर भी मुखर हो उठती थी। बुंदेलखंड की सांस्कृतिक पहचान का यह बहुत बड़ा पक्ष है। कुछ विशेष प्रायोजित आयोजनों के अतिरिक्त इन विधाओं का व्यवहार-लोक सिमटता जा रहा है। सहजता के स्थान पर प्रदर्शन हावी होता जा रहा है। इनके संरक्षण के लिए और इन विधाओं के कलाकारों को प्रोत्साहन देने के लिए राधाकृष्ण बुंदेली सदैव प्रयासरत रहे। बुंदेलखंड के लोकगीतों पर उन्होंने कई शोध-छात्रों का निर्देशन भी किया।
बदलती जीवन-शैली, आधुनिकता के प्रभाव और लोकसंस्कृति को पिछड़ेपन की निशानी समझने की मानसिकता के कारण बुंदेली संस्कृति और बुंदेलखंड के गौरवपूर्ण अतीत से समाज की बढ़ती दूरियों को बुंदेली जी ने शिद्दत से महसूस किया। उन्होंने बुंदेलखंड की सांस्कृतिक विशिष्टताओं को देश-दुनिया के सामने लाने और समाज को अपनी तहजीब, अपने इतिहास से जोड़ने के लिए सर्वाधिक लोक-प्रचलित माध्यम- फिल्म का उपयोग किया। इसके लिए उन्होंने अपने संसाधनों से, अपने अनथक प्रयासों से कालंजर के ऊपर लंबी फिल्म का निर्माण किया।
सन् 1986 में उन्होंने सीमित तकनीकी संसाधनों का उपयोग करके कालंजर दर्शन नामक फिल्म निर्माण की शुरुआत की। इसमें विश्वविख्यात ऐतिहासिक-पौराणिक दुर्ग कालंजर की चालीस किलोमीटर की परिधि में आने वाली ऐतिहासिक धरोहरों का फिल्मांकन किया। राधाकृष्ण बुंदेली ने पटकथा लेखन, संवाद लेखन, पात्र-चयन और निर्देशन आदि दायित्वों का स्वयं निर्वहन किया। तकनीकी के विविध प्रयोगों के माध्यम से फिल्म को रोचक और प्रभावपूर्ण बनाने के लिए अध्ययन भी किया और नवीन अनुसंधान भी किया। कालंजर के आसपास की ऐतिहासिक धरोहरों के साथ ही यहाँ पर प्रचलित धार्मिक मान्यताओं, सांस्कृतिक विशिष्टताओं और भौगोलिक विशिष्टताओं को पूरे यथार्थ के साथ, समग्रता के साथ उन्होंने फिल्माया। लगभग नौ घंटे की यह फिल्म आठ वर्षों के अनथक परिश्रम के बाद बनकर तैयार हुई। इस फिल्म में मड़फा, रौली गोंडा, रसिन और पाथर कछार समेत अनेक दुर्गम स्थानों का फिल्मांकन हुआ है। उस दौर में इन दुर्गम स्थानों तक अकेले पहुँच पाना ही बहुत कठिन हुआ करता था। डाकुओं के अलावा सड़क मार्ग की अनुपलब्धता, लोगों की दूषित मानसिकता और प्राकृतिक आपदाएँ आदि अनेक बाधाओं से जूझते हुए बुंदेली जी ने फिल्म निर्माण पूरा करके नए लोगों को प्रेरणा देने का कार्य भी किया और बुंदेलखंड की सच्ची सेवा भी की। कालंजर दर्शन फिल्म ने कालंजर को विश्व सांस्कृतिक धरोहर में स्थान दिलाने की दिशा में सार्थक योगदान दिया।
कालंजर के अतिरिक्त अन्य स्थानों के संरक्षण, देखभाल और जन-जागरूकता हेतु बुंदेली जी के प्रयास अनवरत जारी रहे। वर्ष 2010 में चित्रकूट के चर गाँव के नजदीक स्थित गुप्तकालीन और भारशिव शासकों द्वारा निर्मित सोमनाथ मंदिर की उनकी यात्रा के साथ हमलोगों की सुंदर-रोचक यादें जुड़ी हुई हैं। सत्तर वर्ष की उम्र में अपनी शारीरिक विवशताओं को दरकिनार करते हुए हमारे अनुरोध पर उन्होंने सोमनाथ मंदिर चलने की स्वीकृति दे दी। दिन-भर के कार्यक्रम में उन्होंने मंदिर के स्थापत्य के बारे में, मंदिर के निर्माण के काल निर्धारण के बारे में और मंदिर से जुड़े अनेक साक्ष्यों के बारे में विस्तार से जानकारी दी और लगभग एक घंटे के वृत्तचित्र के निर्माण का हमारा संकल्प सफल हो सका, सार्थक हो सका। वृत्तचित्र निर्माण के बाद सोमनाथ मंदिर को राष्ट्रीय पुरातात्त्विक धरोहर के रूप में संरक्षित किए जाने हेतु हमारे अभियान को उनका संरक्षण, मार्गदर्शन जीवन पर्यंत प्राप्त होता रहा।
राधाकृष्ण बुंदेली ने आजीवन बुंदेलखंड की सेवा की और निस्वार्थ भाव से, निष्काम भाव से उनकी सेवा उन तमाम लोगों के लिए मार्गदर्शक बन गई, जिनके लिए शोशेबाजी, दिखावेबाजी करके यश प्राप्ति की या अर्थ प्राप्ति की लिप्सा पहला महत्त्व रखती है। बुंदेली जी को बुंदेली विकास संस्थान, बसारी, छतरपुर के द्वारा सन् 2011 में राव बहादुर सिंह बुंदेला सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त थियोसोफिकल सोसायटी, बुंदेलखंड टीवी एवं फिल्म प्रोडक्शन यूनिट, संस्कार भारती, बुंदेलखंड अमृत महोत्सव सम्मान आदि से सम्मानित किया गया। बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा, कालंजर शोध संस्थान, अमर शहीद क्रांतिकारी मंगल पांडे फाउंडेशन, नौटंकी कला केंद्र, मंडल समाचार पत्र संपादक संघ, इंटैक और राष्ट्रीय एकीकरण अनुभाग सहित अनेक संस्थाओं और संगठनों ने उन्हें विभिन्न सम्मानों/पुरस्कारों से सम्मानित किया।
अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने व्यास ऋषि के जन्म-स्थान- अदरी, चिल्ला (बाँदा) और सोमनाथ मंदिर, चर, चित्रकूट की खोज में अमूल्य योगदान दिया। हम युवाओं के लिए उनकी प्रेरणा, उनकी कर्मठ जीवनी-शक्ति अमूल्य है। बिना किसी लालसा के निष्काम भाव से बुंदेलखंड की सेवा करने का जो भाव बुंदेली जी के जीवन में, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में देखने को मिलता है, वह अत्यंत दुर्लभ है। विशेषकर आज के भौतिक युग में, टूटते-बिखरते मानवीय मूल्यों के दौर में अपनी माटी के लिए समर्पण का भाव बहुत कम देखने को मिलता है। विजय पुस्तक भंडार के माध्यम से व्यवसाय की अपेक्षा समाजसेवा को महत्त्व देते हुए, वंचितों-गरीबों को शिक्षा के लिए अवसर उपलब्ध कराते हुए वहीं से बुंदेलखंड के नेह-प्रेम की अलख जगाने वाले राधाकृष्ण बुंदेली का व्यक्तित्व और उनका कृतित्व अनूठा था। विजय पुस्तक भंडार एक प्रतिष्ठान मात्र नहीं, शक्ति का, संप्रेषण का, जागृत चेतना का केंद्र था। हम सभी के लिए यह गौरव की बात है कि हमें बुंदेली जी का संरक्षण प्राप्त हुआ और बुंदेली माटी से भावनात्मक जुड़ाव जोड़ पाने का एक आयाम मिला। हमारे बीच से बुंदेली जी का जाना एक ऐसे निर्वात का सृजन कर गया है, जिसकी भरपाई की संभावना कोसों दूर तक नजर नहीं आती। उनकी उपस्थिति का अहसास मात्र शेष है, जो असीमित शांति देता है, प्रेरणा देता है और उनके सपनों को साकार करने हेतु संघर्ष की शक्ति देता है। उनकी स्मृतियों को कोटिशः नमन।
डॉ. राहुल मिश्र
{बुंदेली बसंत- 2014, बसारी, छतरपुर (मध्यप्रदेश) में प्रकाशित}

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