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Saturday, 19 April 2014

बुंदेलखंड के अप्रतिम इतिहासकार और साहित्यसेवी : राधाकृष्ण बुंदेली


बुंदेलखंड के अप्रतिम इतिहासकार और साहित्यसेवी 
राधाकृष्ण बुंदेली
बाँदा शहर के चौक बाजार की ओर बलखंडीनाका की तरफ से चलने पर कापी-किताबों की छोटी-सी दूकान- विजय पुस्तक भंडार। यहाँ पर पुरानी किताबें बेची और खरीदी जाती थीं। विजय पुस्तक भंडार की एक और पहचान राधाकृष्ण बुंदेली के नाम से भी कायम थी। इस छोटी-सी दूकान में साहित्यकारों, शोध छात्र-छात्राओं का और अलग-अलग विषयों के जिज्ञासुओं का दिन-दिनभर जमावड़ा लगा रहता था। कभी कोई किताबें खरीदने या बेचने आ जाता तो उसका काम निबटाकर फिर से साहित्यचर्चा शुरू हो जाती। विजय पुस्तक भंडार में अकसर विदेशी पर्यटक भी बैठे नजर आ जाते।
विजय पुस्तक भंडार की रोजमर्रा की जिंदगी में यह दृश्य कब से कायम है, मेरे लिए यह बता पाना बहुत कठिन है। क्योंकि अपने बचपन से मैंने हमेशा इस क्रम को देखा है। पढ़ाई के दिनों में किताबें लेने के लिए हमलोग भी वहाँ पहुँच जाते थे। बाद में, जब बुंदेली साहित्य, संस्कृति से जुड़ाव शुरू हुआ तो साहित्यचर्चा में शामिल होने लगे। संरक्षक के रूप में, मार्गदर्शक के रूप में राधाकृष्ण बुंदेली की नसीहतें, बातें बहुत प्रभावित करतीं। कभी कोई बुंदेली कहानी, बुंदेली लोकगीत या इतिहास का कोई प्रसंग बुंदेली जी से सुनने को मिल जाता तो वह हमेशा-हमेशा के लिए याददाश्त में बैठ जाता। ऐसे ढेरों प्रसंग, कहानियाँ-किस्से और लोकगीत हमारे लिए प्रेरणास्रोत बन गए। यहीं से बुंदेलखंड के इतिहास, तहजीब और लोकरंग को शब्द देने की प्रेरणा मिली। राधाकृष्ण बुंदेली हमारे लिए प्रेरणास्रोत बने, जिन्होंने बुंदेली माटी के प्रति भावनात्मक लगाव का बीज रोपा। ऐसा महसूस करना मेरे लिए आश्चर्य से भरा हुआ नहीं है कि मेरे जैसे कई युवाओं को प्रेरणा बुंदेली जी से ही मिली होगी।
राधाकृष्ण बुंदेली बुंदेलखंड की माटी के जमीन से जुड़े साहित्यकार, इतिहासकार थे। इस कारण बुंदेलखंड की तहजीब को, यहाँ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखने का उनका नजरिया एकदम अलग था। सामान्य रूप से इतिहास का अध्ययन ऐसा होता है, जिसमें संवेदनात्मक, भावात्मक अनुभूति नहीं होती है। बुंदेली जी की इतिहास-दृष्टि इसके विपरीत थी, इसके कारण उनके द्वारा रचे गए विविध लेखों में बुंदेलखंड की ऐतिहासिक विरासत की जानकारी भावनात्मक रूप से ऐसा घनिष्ठ जुड़ाव कायम करने की सामर्थ्य रखती है, जो उनके लेखन कौशल को अद्भुत वैशिष्ट्य प्रदान कर देती है।
बुंदेलखंड के प्रत्येक क्षेत्र, विविध जनपदों में भाषाई विविधता अनूठे किस्म की है। राधाकृष्ण बुंदेली का भाषाई विविधता पर अध्ययन भी उत्कृष्ट था। उन्होंने बुंदेलखंड के विविध क्षेत्रों की बोलियों के साम्य-वैषम्य का अध्ययन किया, उन्हें प्रकाश में लाने का कार्य किया। वे बुंदेली बोलियों का व्यवहार भी बड़े रोचक ढंग से करते थे। बातों के दौरान अक्सर अलग-अलग बोलियों का यथावत् और स्पष्ट प्रयोग सुनकर क्षेत्र-विशेष के प्रति अलग-सा आकर्षण पैदा हो जाता था। विविध बोलियों का व्यवहार करते हुए अक्सर वे चिंतित हो जाते थे। खड़ीबोली हिंदी के प्रयोग और अंग्रेजी के प्रयोग के माध्यम से स्वयं को शिष्ट और पढ़ा-लिखा प्रदर्शित करने के प्रयासों में अपनी भाषाई पहचान के अस्तित्व को मिटाने की नीयत उन्हें बहुत चिंतित करती थी। हमलोगों से वे अक्सर पूछते कि तुम लोगों को कितने प्रकार की बुंदेली बोलियाँ आतीं हैं। बाद में नसीहत भरा संदेश, कि बुंदेली बोलियों को व्यवहार में रखो, उनमें साहित्य लिखो, कहानियाँ लिखो, आदि।
राई, आल्हा, ढिमरियाई, कछियाई, दादरा, सोहर और ऐसे ही तमाम लोकगीतों का सस्वर पाठ करते राधाकृष्ण बुंदेली की चिंता लोकगीतों की पुरातन परंपरा के सिमटते जाने पर भी मुखर हो उठती थी। बुंदेलखंड की सांस्कृतिक पहचान का यह बहुत बड़ा पक्ष है। कुछ विशेष प्रायोजित आयोजनों के अतिरिक्त इन विधाओं का व्यवहार-लोक सिमटता जा रहा है। सहजता के स्थान पर प्रदर्शन हावी होता जा रहा है। इनके संरक्षण के लिए और इन विधाओं के कलाकारों को प्रोत्साहन देने के लिए राधाकृष्ण बुंदेली सदैव प्रयासरत रहे। बुंदेलखंड के लोकगीतों पर उन्होंने कई शोध-छात्रों का निर्देशन भी किया।
बदलती जीवन-शैली, आधुनिकता के प्रभाव और लोकसंस्कृति को पिछड़ेपन की निशानी समझने की मानसिकता के कारण बुंदेली संस्कृति और बुंदेलखंड के गौरवपूर्ण अतीत से समाज की बढ़ती दूरियों को बुंदेली जी ने शिद्दत से महसूस किया। उन्होंने बुंदेलखंड की सांस्कृतिक विशिष्टताओं को देश-दुनिया के सामने लाने और समाज को अपनी तहजीब, अपने इतिहास से जोड़ने के लिए सर्वाधिक लोक-प्रचलित माध्यम- फिल्म का उपयोग किया। इसके लिए उन्होंने अपने संसाधनों से, अपने अनथक प्रयासों से कालंजर के ऊपर लंबी फिल्म का निर्माण किया।
सन् 1986 में उन्होंने सीमित तकनीकी संसाधनों का उपयोग करके कालंजर दर्शन नामक फिल्म निर्माण की शुरुआत की। इसमें विश्वविख्यात ऐतिहासिक-पौराणिक दुर्ग कालंजर की चालीस किलोमीटर की परिधि में आने वाली ऐतिहासिक धरोहरों का फिल्मांकन किया। राधाकृष्ण बुंदेली ने पटकथा लेखन, संवाद लेखन, पात्र-चयन और निर्देशन आदि दायित्वों का स्वयं निर्वहन किया। तकनीकी के विविध प्रयोगों के माध्यम से फिल्म को रोचक और प्रभावपूर्ण बनाने के लिए अध्ययन भी किया और नवीन अनुसंधान भी किया। कालंजर के आसपास की ऐतिहासिक धरोहरों के साथ ही यहाँ पर प्रचलित धार्मिक मान्यताओं, सांस्कृतिक विशिष्टताओं और भौगोलिक विशिष्टताओं को पूरे यथार्थ के साथ, समग्रता के साथ उन्होंने फिल्माया। लगभग नौ घंटे की यह फिल्म आठ वर्षों के अनथक परिश्रम के बाद बनकर तैयार हुई। इस फिल्म में मड़फा, रौली गोंडा, रसिन और पाथर कछार समेत अनेक दुर्गम स्थानों का फिल्मांकन हुआ है। उस दौर में इन दुर्गम स्थानों तक अकेले पहुँच पाना ही बहुत कठिन हुआ करता था। डाकुओं के अलावा सड़क मार्ग की अनुपलब्धता, लोगों की दूषित मानसिकता और प्राकृतिक आपदाएँ आदि अनेक बाधाओं से जूझते हुए बुंदेली जी ने फिल्म निर्माण पूरा करके नए लोगों को प्रेरणा देने का कार्य भी किया और बुंदेलखंड की सच्ची सेवा भी की। कालंजर दर्शन फिल्म ने कालंजर को विश्व सांस्कृतिक धरोहर में स्थान दिलाने की दिशा में सार्थक योगदान दिया।
कालंजर के अतिरिक्त अन्य स्थानों के संरक्षण, देखभाल और जन-जागरूकता हेतु बुंदेली जी के प्रयास अनवरत जारी रहे। वर्ष 2010 में चित्रकूट के चर गाँव के नजदीक स्थित गुप्तकालीन और भारशिव शासकों द्वारा निर्मित सोमनाथ मंदिर की उनकी यात्रा के साथ हमलोगों की सुंदर-रोचक यादें जुड़ी हुई हैं। सत्तर वर्ष की उम्र में अपनी शारीरिक विवशताओं को दरकिनार करते हुए हमारे अनुरोध पर उन्होंने सोमनाथ मंदिर चलने की स्वीकृति दे दी। दिन-भर के कार्यक्रम में उन्होंने मंदिर के स्थापत्य के बारे में, मंदिर के निर्माण के काल निर्धारण के बारे में और मंदिर से जुड़े अनेक साक्ष्यों के बारे में विस्तार से जानकारी दी और लगभग एक घंटे के वृत्तचित्र के निर्माण का हमारा संकल्प सफल हो सका, सार्थक हो सका। वृत्तचित्र निर्माण के बाद सोमनाथ मंदिर को राष्ट्रीय पुरातात्त्विक धरोहर के रूप में संरक्षित किए जाने हेतु हमारे अभियान को उनका संरक्षण, मार्गदर्शन जीवन पर्यंत प्राप्त होता रहा।
राधाकृष्ण बुंदेली ने आजीवन बुंदेलखंड की सेवा की और निस्वार्थ भाव से, निष्काम भाव से उनकी सेवा उन तमाम लोगों के लिए मार्गदर्शक बन गई, जिनके लिए शोशेबाजी, दिखावेबाजी करके यश प्राप्ति की या अर्थ प्राप्ति की लिप्सा पहला महत्त्व रखती है। बुंदेली जी को बुंदेली विकास संस्थान, बसारी, छतरपुर के द्वारा सन् 2011 में राव बहादुर सिंह बुंदेला सम्मान से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त थियोसोफिकल सोसायटी, बुंदेलखंड टीवी एवं फिल्म प्रोडक्शन यूनिट, संस्कार भारती, बुंदेलखंड अमृत महोत्सव सम्मान आदि से सम्मानित किया गया। बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा, कालंजर शोध संस्थान, अमर शहीद क्रांतिकारी मंगल पांडे फाउंडेशन, नौटंकी कला केंद्र, मंडल समाचार पत्र संपादक संघ, इंटैक और राष्ट्रीय एकीकरण अनुभाग सहित अनेक संस्थाओं और संगठनों ने उन्हें विभिन्न सम्मानों/पुरस्कारों से सम्मानित किया।
अपने जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने व्यास ऋषि के जन्म-स्थान- अदरी, चिल्ला (बाँदा) और सोमनाथ मंदिर, चर, चित्रकूट की खोज में अमूल्य योगदान दिया। हम युवाओं के लिए उनकी प्रेरणा, उनकी कर्मठ जीवनी-शक्ति अमूल्य है। बिना किसी लालसा के निष्काम भाव से बुंदेलखंड की सेवा करने का जो भाव बुंदेली जी के जीवन में, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में देखने को मिलता है, वह अत्यंत दुर्लभ है। विशेषकर आज के भौतिक युग में, टूटते-बिखरते मानवीय मूल्यों के दौर में अपनी माटी के लिए समर्पण का भाव बहुत कम देखने को मिलता है। विजय पुस्तक भंडार के माध्यम से व्यवसाय की अपेक्षा समाजसेवा को महत्त्व देते हुए, वंचितों-गरीबों को शिक्षा के लिए अवसर उपलब्ध कराते हुए वहीं से बुंदेलखंड के नेह-प्रेम की अलख जगाने वाले राधाकृष्ण बुंदेली का व्यक्तित्व और उनका कृतित्व अनूठा था। विजय पुस्तक भंडार एक प्रतिष्ठान मात्र नहीं, शक्ति का, संप्रेषण का, जागृत चेतना का केंद्र था। हम सभी के लिए यह गौरव की बात है कि हमें बुंदेली जी का संरक्षण प्राप्त हुआ और बुंदेली माटी से भावनात्मक जुड़ाव जोड़ पाने का एक आयाम मिला। हमारे बीच से बुंदेली जी का जाना एक ऐसे निर्वात का सृजन कर गया है, जिसकी भरपाई की संभावना कोसों दूर तक नजर नहीं आती। उनकी उपस्थिति का अहसास मात्र शेष है, जो असीमित शांति देता है, प्रेरणा देता है और उनके सपनों को साकार करने हेतु संघर्ष की शक्ति देता है। उनकी स्मृतियों को कोटिशः नमन।
डॉ. राहुल मिश्र
{बुंदेली बसंत- 2014, बसारी, छतरपुर (मध्यप्रदेश) में प्रकाशित}

Monday, 14 April 2014

आल्हा : बुंदेलखंड की अनूठी पहचान
ढोलक की थाप का साथ देती मंजीरे की धुन के साथ गाया जाने वाला वीरगीतात्मक काव्य आल्हा बुंदेलखंड की अनूठी तहजीब का बेमिसाल नगीना है। आल्हा में यूँ तो महोबा के दो वीरों की कथा है, किंतु आल्हा के गायन की अपनी विशिष्ट शैली के कारण यह दूर-दूर तक प्रसिद्धि पाया है।
लौकिक रास परंपरा की आदिकालीन रचना जगनिक कृत परमाल रासो के आधार पर प्रचलित आल्हा गीतों की उत्पत्ति की कथा जितनी रोचक है, उतना ही मर्मस्पर्शी है, इनका विकास और विस्तार भी। गौरवशाली अतीत से परिचित कराने के साथ ही समाज को एक सूत्र में बाँध सकने की क्षमता आल्हा गीतों में है।
जगनिक कृत परमाल रासो की प्राचीन पांडुलिपि अप्राप्य है और इस कारण यह माना जाता है कि जगनिक की यह रचना प्रायः लोक-कंठों में जीवित रही। सन् 1865 के आसपास एक अंग्रेज कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने आल्हा गवैयों की सहायता से वाचिक परंपरा में जीवित आल्हा को लिपिबद्ध    कराया। ऐसा ही प्रयास विसेंट स्मिथ ने किया। बाद में सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के संपादन में सन् 1923 में डब्ल्यू. वाटरफील्ड द्वारा हिंदी से अंग्रेजी में आल्हा का अनूदित संस्करण ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपा। लोकमहाकाव्य आल्हा को लिपिबद्ध करके संरक्षित और संकलित करने का यह संभवतः पहला प्रयास था। इसके बाद आल्हा के कई संस्करण अलग-अलग छापाखानों में छपे। आज भी गँवई-गाँव के मेलों में आल्हा की किताबें बिकती हुई देखी जा सकती हैं।
बनावट के लिहाज से इसमें बावन खंड हैं। संयोगिता स्वयंवर, परमाल का ब्याह, महोबा की लड़ाई, गढ़ मांडो की लड़ाई, नैनागढ़ की लड़ाई, बिदा की लड़ाई, मछलाहरण, मलखान का ब्याह, गंगाघाट की लड़ाई, ब्रह्मा का ब्याह, नरवरगढ़ की लड़ाई, ऊदल की कैद, चंद्रावल की चौथी लड़ाई, चंद्रावल की विदा, इंदलहरण, संगलदीप की लड़ाई, आल्हा की निकासी, लाखन का ब्याह, गाँजर की लड़ाई, पट्टी की लड़ाई, कोट-कामरू की लड़ाई, बंगाले की लड़ाई, अटक की लड़ाई, जिंसी की लड़ाई, रूसनी की लड़ाई, पटना की लड़ाई, अंबरगढ़ की लड़ाई, सुंदरगढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की दूसरी लड़ाई, भुजरियों की लड़ाई, ब्रह्मा की जीत, बौना चोर का ब्याह, धौलागढ़ की लड़ाई, गढ़चक्कर की लड़ाई, देवा का ब्याह, माहिल का ब्याह, सामरगढ़ की लड़ाई, मनोकामना तीरथ की लड़ाई, सुरजावती हरण, जागन का ब्याह, शंकरगढ़ की लड़ाई, आल्हा का मनौआ, बेतवा की लड़ाई, लाखन और पृथ्वीराज की लड़ाई, ऊदल हरण, बेला को गौना, बेला के गौना की लड़ाई, बेला और ताहर की लड़ाई, चंदनबाग की लड़ाई, जैतखंभ की लड़ाई और बेला सती। आल्हा के ये बावन खंड आल्हा गायकों को समग्रतः याद नहीं रहते। वैसे भी अब अल्हैतों की परंपरा सिमटती जा रही है। अब आल्हा के कुछ प्रचलित खंड ही प्रायः गाए जाते हैं।
बनावट की दृष्टि से देखा जाए तो आल्हा में लगभग सत्रह प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है। इसमें कहीं-कहीं संस्कृत के श्लोक हैं तो कहीं पर गद्य का प्रयोग भी हुआ है। वीर रस की प्रधानता होने के कारण इसका गायन भी ओजपूर्ण होता है। हर घटना और युद्ध या वीरता के बखान के लिये सुर और ताल के विशिष्ट उतार-चढ़ाव और अनूठी शैली श्रोताओं को न केवल मंत्रमुग्ध कर देती है, वरन् कथा का सटीक और जीवंत चित्रण भी कर देती है।
लोकमहाकाव्य आल्हा में आल्हा को ही नायकत्व का दर्जा प्राप्त है, क्योंकि वह दूसरे खंड से लेकर बावनवें खंड तक मुख्य भूमिका अदा करता है। वह वीरता, गंभीरता, धैर्य और साहस जैसे उदात्त गुणों का स्वामी है। राजा परमाल का व्यक्तित्व उनकी पदवी से मेल नहीं खाता है। वे राजा होने के बावजूद कायरता, स्वार्थ और भीरुता का प्रदर्शन करते हैं। परमाल की पत्नी मल्हना या मलना, आल्हा-ऊदल की माँ दिवला, मछला और बेला जैसे नारी पात्र भी हैं, जो मध्ययुगीन भारतीय महिलाओं का आदर्श प्रस्तुत करती हैं और वीरांगनाएँ भी हैं। आल्हा, ऊदल, मलखान और इंदल के चरित्र को विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिनके प्रश्रय में कथा का विस्तार होता है।
धर्म, अध्यात्म और संस्कृति का समन्वय आल्हा में स्पष्ट परिलक्षित होता है। आल्हा के गायन की शुरुआत में की जाने वाली स्तुति विभिन्न मत-मतांतरों के मध्य समन्वय स्थापित करती प्रतीत होती है—
सुमिर भवानी दाहिने, सनमुख रहे गनेस ।
पाँच देव रक्षा करें, ब्रह्म, विष्णु, महेस।।  
काली सुमिरौं कलकत्ते की, जगदंबा के चरन मनाय।
अन्नपूर्णा तिरवा वाली, जगमग जोत रही  छहराय।
सुमिर भवानी कलपी वाली, मनिया सुमिर महोबे क्यार।।
स्थानीय देव-देवियों की उपस्थिति आल्हा की लोकग्राह्यता की प्रतीक बन जाती है। यह लोकग्राह्यता वर्ण और जातियों के समन्वय और विभेद को मिटा देने के कारण भी है।
सगुन विचारै बनिया बाटू, बाम्हन लेय साइत विचार,
हम क्षत्रिय लोहा लादे हैं, सो हम बेचें  कौन  बजार।
नाई-बारी हो तुम नाहीं, घर के भइया  लगौ  हमार।
मान महोबै को रख लेबौ, दोनों हाथ  करौ तलवार।।
इसके साथ ही आल्हा में नीति व ज्ञान की बातें भी वर्णित हैं। यथा—
पानी जैसो बुलबुला है जो छन माँहीं जैहे  बिलाय,
सदा तुरैया ना वन फूलै यारों सदा न सावन होय।
सदा न मइया की कुक्षा में धरिहौ बार-बार अवतार,
जस अम्मर कर लेव जुद्ध में, काया छार-छार हुइ जाय।।
ऐसी ज्ञान व नीति की बातें भले ही कथा-विस्तार में महत्त्वपूर्ण स्थान न रखती हों, किंतु नीति व ज्ञान की अनूठी-अनौपचारिक पाठशाला के रूप में समाज के बड़े तबके को व्यावहारिकता सिखाने में बहुत खास भूमिका अदा करती है।
मनोरंजन और समय व्यतीत करने के साधन के रूप में आल्हा का गायन शिक्षाप्रद भी हो जाता था। इसमें अंतर्निहित ढेरों कथाएँ, गल्प और आख्यान प्रकीर्ण साहित्य की महत्त्वपूर्ण धरोहर हैं।
मध्ययुगीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थितियों के चित्र भी आल्हा में उभरते हैं। सिद्ध और नाथ पंथियों का प्रभाव, जादू-टोने, ज्योतिष, तंत्र और स्वप्न-अपशकुन, पुनर्जन्म तथा भूत-प्रेत आदि की उपस्थिति आल्हा को समग्रता प्रदान करती है। यही सब इसकी व्यापकता और स्वीकार्यता के केंद्र में है।
समूचे उत्तर भारत में, बुंदेलखंड, ब्रज, राजस्थान, बैसवारा, अवध और भोजपुर में विभिन्नताओं के साथ आल्हा गायन की, अल्हैती की व्यापक परंपरा प्रचलन में रही है। बरसात के समय, किसानों- मजदूरों के फुर्सत के समय गाँवों की चौपालों, अथाई और बैठकों में होने वाली अल्हैती सभी को एक सूत्र में जोड़ देती थी। आल्हा के तालन सैयद का चरित्र सांप्रदायिक एकता और सौहार्द का प्रतीक है—
राम का मित्तर जामवंत था और पांडों का कृष्ण अवतार,
आल्हा का ताला सैय्यद है, काम करे जो  सोच बिचार।
सैकड़ों वर्षों तक अपने वाचिक माध्यम से लोकमहाकाव्य आल्हा जनपदों, गाँवों और कस्बों में राष्ट्रीयता की अलख जगाने, नीति-विज्ञान सिखाने और मनोरंजन करने का माध्यम बना रहा। इसकी लोकप्रियता तुलसी के मानस के समकक्ष बैठती है। बिना पुस्तकाकार पाए, लोकजीवन में, लोक-कंठों में जीवित और निरंतर जीवंत रहने वाली यह विधा, यह काव्य आज देश के विकास के व्युत्क्रमानुपाती होकर मिट रहा है।

टेलीविज़न, इंटरनेट और अन्य संचार साधनों ने बहुत कुछ बदल दिया है। आज अल्हैते नहीं मिलते, गाँवों में अथाई नहीं लगती, बरसात में भी, आल्हा नहीं सुनाई पड़ता। यह संकट हमारी पहचान का है, हमारे अतीत के गौरव के क्षरण का है, हमारी संपदा के विनाश का है। इसे बचाने, संरक्षित और संवर्द्धित करने का दायित्व आज की पीढ़ी पर है, वरना आने वाली पीढ़ी के लिये आल्हा काव्य ही नहीं, शब्द भी अपरिचित रह जाएगा।
डॉ. राहुल मिश्र
{बुन्देली दरसन, अंक- 3, 2010, नगरपालिका परिषद्, हटा, दमोह (मध्य प्रदेश) में प्रकाशित}



 

Sunday, 2 October 2011

बाँदा : परंपरा और नवीनता का एक शहर


   बाँदा : परंपरा और नवीनता का एक शहर              
बुंदेला शासकों से पहले उस शहर की हैसियत एक गुमनाम गाँव से ज्यादा नहीं थी। आज वह शहर बुंदेलखंड के एक मंडल का मुख्यालय है। मेरे लिए यह रोमांचकारी घटना से कम नहीं कि उस शहर में मेरा बचपन गुजरा है। यह कथा-यात्रा उस शहर की है, जिसके कलेजे को चीरती हुई पूरब से पश्चिम रेलवे लाइन गुजरती है। पूरब से घुसें तो किसी पुराने तालाब और हवेली के भग्नावशेष दिखाई देते हैं और पश्चिम से घुसने पर भूरागढ़ का किला और फिर केन नदी। बंबेसुर (वामदेवेश्वर) पहाड़ तो बहुत दूर से ही दिखने लगता है। हाँ ! यह वही बंबेसुर पहाड़, भूरागढ़ और केन नदी है, जो गोविंद मिश्र की कथाभूमि और केदारबाबू की कविताओं के सजीव पात्र हैं। आपने सही पहचाना, यह बांदा शहर ही है, जिसे महर्षि वामदेव की कर्मभूमि और महाकवि पद्माकर की जन्मभूमि के रूप में जाना जाता है।
कोल और भील आदिवासियों की आबादी के कारण इसे खुटला बाँदा कहा गया, आज भी एक मुहल्ला खुटला नाम से कायम है। यह महसूस करना भी कम रोमांचकारी नहीं है कि बायाँ का  ‘बा और दायाँ का दा मिलकर बाँदा बना, जहाँ वाम पक्ष भी उतना ही लड़ाका, जितना दक्षिण पक्ष। रहे होंगे महुबे वाले बड़े लड़इया’, अब तो बाँदा वाले बाजी मारे हुए हैं। वैसे शहर उतना बुरा नहीं, स्टेशन की चकाचक, नई-नवेली बिल्डिंग से बाहर आते ही हनुमान मंदिर और चाय-पान की दूकानों पर जुटी भीड़ कई गलत धारणाओं को सिरे से नकार देती है। हनुमान मंदिर में इधर कुछ दिनों से कीर्तन मंडली ने भी कब्जा जमा रखा है। कीर्तन मंडली के जरिए कबीरी, उमाह, फाग, ढिमरयाई और इसी तरह के लोकगीत गायकों को एक मंच मिल जाता है। यह उपेक्षित लोकगायक रात भर के लिए भीड़ को अपने मोहपाश में बाँध लेते हैं। वैसे भी स्टेशन रोड पूरे शहर के लिए टाइमपास करने और घूमने के लिए इकलौता अड्डा है। दिन में पं. जवाहरलाल नेहरू कॉलेज के परिसर, कचेहरी और उसके आस-पास वाला भीड़ का दबाव शाम ढलते ही स्टेशन रोड की ओर खिसक आता है।
कचेहरी में जुटने वाली भीड़ को देखकर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यहां के लोगों को मुकदमे और न्यायपालिका पर कितना विश्वास है। संचार क्रांति से पहले कंधे में बंदूक टाँगकर निकलना यहाँ के लोगों का स्टेटस सिंबल हुआ करता था, भले ही जूते फटे हों, लेकिन अब बंदूक की जगह मोबाइल फोन ने ले रखी है। साथ में बंदूक भी हो तो कहने ही क्या ? वैसे कचेहरी की भीड़ बढ़ाने वालों में कुछ खबरची और छुटभैये टाइप के नेता भी होते हैं जो टाइमपास करने के लिए मूँगफली चबाते और पान की पीक से सड़कों पर अजीबोगरीब पेंटिंग बनाते टहलते रहते हैं।
कचेहरी चौराहे की अशोक लाट देश की आजादी में योगदान देने वाले बाँदा के वीरों को याद करती और आजाद देश की आजादी का बखान करती है। अशोक लाट की पार्कनुमा जमीन अब दूसरी भूमिका निभा रही है। शासन-प्रशासन से माँगें मनवाने वालों, धरना-प्रदर्शन करने वालों का, दीन-दुखियारों का यह इकलौता सहारा है और जनवरी से लेकर दिसंबर तक हर समय आबाद रहता है। जब लंबे समय तक कोई बड़ा नेता शहर में नहीं आता या कोई बड़ी घटना नहीं होती या फिर कोई राजनीतिक भूचाल नहीं आता तो शहर उदासियाँ ओढ़ लेता है। तब समाजसेवक, जनसेवक और भइये दिल्ली और लखनऊ की ओर टुकुर-टुकुर ताकने लगते हैं, जैसे बारिश की आस में किसान आसमान की ओर ताकता रहता है। बोतलबंद मिनरल वाटर यूज़ करने वाले केन नदी को बचाने की बात करने लगते हैं, महंगी कारों में घूमने वाले सर्वहारा समाज के दुखों-कष्टों की वेदना में व्यथित हो उठते हैं और चेहरे पर मायूसी का-मासूमियत का लेबल चिपकाकर भरोसा जीतने कोशिशें होने लगती हैं। शहर की राजनीतिक नब्ज़ इसी तरह असामान्य-असहज होकर धड़कती ही रहती है, कभी तेज- कभी धीमी।
इन सबसे अलग शहर का सबसे अहम वर्ग है, जो मॉडर्न स्टाइल के  कपड़े पहनता है, बम्बइया कट वाले बाल कतरवाता है, अनोखे किस्म से। फर्राटेदार बाइक से पढ़ने भी जाता है। इधर कुछ एक वर्षों में ही शहर में कोचिंग इंस्टीट्यूशनों की बाढ़-सी आ गई है, लिहाजा शहर की शिक्षा संस्थाएँ सिमटकर महज परीक्षा संस्थान बनकर रह गईं हैं। परीक्षा दो-डिग्री लो और बेरोजगारी का बिल्ला टाँगकर घूमो। सरकारी नौकरी के लिए रोजगार दफ़्तर के चक्कर लगाते, फॉर्म जमा करने के लिए साइकिलें दौड़ाते युवाओं की संख्या भी शहर में कम नहीं। कोई बड़ी फैक्ट्री-वैक्ट्री न होने के कारण बेकार टहलना और भी आसान।
इनके बावजूद चौक बाज़ार बाँदा, चाँदनी चौक से कमतर नहीं। देर रात तक गुलज़ार रहने वाला चौक बाज़ार शहर की समृद्धि की निशानी है। यह अलग बात है कि ज्यादातर खरीददार इंदिरा नगर और सिविल लाइन्स जैसे पॉश इलाकों के बाशिंदे होते हैं। बाकी तो खाली जेब में हाथ डाले हुए बाज़ार की रौनक देखते हुए महेश्वरी देवी के दर्शन करके घर को लौट जाते हैं। महेश्वरी देवी अपने गगनस्पर्शी मीनारनुमा मंदिर में बैठकर ऊँचे ख्वाब देखने को असीसती रहती हैं। नवरात्र में देवी गीतों (उमाह) और पारंपरिक दीवारी नृत्य से महेश्वरी देवी मंदिर ही नहीं मानो सारा शहर ही पुरनिया हो जाता है।
चौक बाज़ार से आगे बढ़ें तो शंकर गुरु चौराहा आता है। शंकर गुरु हलवाई के वंशज तो शहर छोड़कर चले गए, लेकिन बाँदा के मशहूर सोहन हलवा के कारण याद कायम है। ऐसे ही बोड़ाराम हलवाई के लड़कों-नातियों ने खुद को असली वारिस सिद्ध करने का शांतियुद्ध छेड़ रखा है—बोड़ेराम की असली दूकान। अब अगर सभी असली हैं तो नकली कौन ? यह असली-नकली का भेद शहर को आज नहीं पता चल सका। अगर आपको पता चले तो बताइएगा जरूर।
शंकर गुरु चौराहे से मनोहरीगंज पहुँचा जा सकता है। कहा जाता है कि वर्तमान कालवनगंज मुहल्ला जिस भू-भाग पर बसा है, वहाँ कभी बड़ा-सा तालाब हुआ करता था। 18वीं शताब्दी के मध्य में जब छत्रसाल के पौत्र राजा गुमान सिंह ने बाँदा को अपना मुख्यालय बनाया तब उन्होने इस तालाब की मरम्मत कराई, लिहाजा इसे राजा का तालाब कहा जाने लगा। अंग्रेज हुक्मरान मिस्टर रिचर्डसन के उत्तराधिकारी मिस्टर मेनवेरिंग ने इस तालाब की पुराई करवाकर आबादी बसाई। कोतवाली की तरफ उन्ही के नाम पर एक मोहल्ला मनोहरी गंज के नाम से बन गया।
मनोहरी गंज के आगे अलीगंज है, जहाँ सेठ जी के अहाते में आज भी रामा जी के वंशज मराठी ब्राह्मण रहते हैं और यहाँ की मिट्टी में आज भी मराठाकालीन बाँदा की गौरवशाली परंपरा को महसूस किया जा सकता है। यहीं पर हिंदू-मुस्लिम एकता और सौहार्द का प्रतीक रामा जी का इमामबाड़ा है। लाख बदलाव आ जाने के बाद भी, राजनीतिक उथल-पुथल के दौरान भी बाँदा ने रामा जी द्वारा स्थापित परंपरा को नहीं छोड़ा, इसीलिए चाहे ईद हो या दशहरा, सारे बाँदावासी मिलजुल कर मनाते हैं।
लखनऊ और दिल्ली से लाए गए बीजों से शहर में ऐसी मजलिसें और परिषदें पैदा हो गईं हैं जो जबरिया भय का भूत दिखाकर शहर को आतंक और खौफ का चादर ओढ़ाना चाहती हैं। इसके बावजूद कव्वाली और मुशायरे के दौर चलते ही रहते हैं और छोटी बाजार से निकलने वाली प्रभात फेरी तो मानो यहाँ के बाशिंदों के जीवन का ही अंग है। दो जून की रोटी के जुगाड़ के लिए दौड़ते-भागते लोगों को नबाब टैंक में लगने वाले कजली मेले और केन किनारे भूरागढ़ में लगने वाले नटबली के मेले का बेसब्री से इंतजार रहता है। नटबली मेले के बहाने भूरागढ़ की राजकुमारी और बल्ली नट की प्रेम कहानी के दुखद अंत को शहर याद करता है। यह अलग बात है कि शहर में अब चंद प्रेम कहानियाँ विफल भी हो जाती हैं या फिर बड़े विद्रूप तरीके से समाप्त हो जाती हैं।
दीवान कीरत सिंह द्वारा रनगढ़ की तर्ज पर बनवाए गए भूरागढ़ को बाँदा में बुंदेला शासकों के शासन का प्रतीक कहा जा सकता है। भूरागढ़ अपने अस्तित्व को बचाए रखने में भले ही विफल हो गया हो, फिर भी इसके जर्रे-जर्रे में गर्व की अनुभूति की जा सकती है। सन् सत्तावन की गदर में फाँसी पर लटकाए गए हजारों रणबाँकुरों की आवाजें आज भी भूरागढ़ में गूँजती हैं। जब तक बाँदा में अंग्रेज हुक्मरान रहे, भूरागढ़ के सामने से गुजरते हुए सम्मान के तौर पर हैट उतार लेते थे। अब देशी हुक्मरानों को इसकी जरूरत महसूस नहीं होती। तेजी से बढ़ती हुई आबादी ने शहर के दर्जनों तालाबों और सार्वजनिक स्थलों को लील लिया है।
भू-अभिलेखों में दर्ज है कि बाँदा की आबादी उत्तर की ओर भवानीपुरवा और दक्षिण की ओर लड़ाकापुरवा में थी। भवानी और लड़ाका मउहर राजपूत वंश के शासक ब्रजराज (ब्रजलाल) के भाई थे और यहाँ उनका आधिपत्य था। नए-नए मुहल्लों के पीछे यह नाम तो छिप ही गए, आबादी के विस्तार ने तमाम खेतों को-पुरवों को विहार, कॉलोनी और नगर में बदल दिया। आस-पास के गाँवों के लोग शहरी हो जाने के फेर में बाँदा में बस गए।
शहर में बन गए बड़े-बड़े और महँगे होटल, लॉज व मैरिजहाउस सुनियोजित तरीके से शहर को आधुनिक बनाने के महान् उत्तरदायित्व का निर्वहन कर रहे हैं। रंग-बिरंगी रौशनियों के बीच आर्केष्ट्रा की धुनों पर थिरकते युवा और चंद बुजुर्ग कदम शहर को आधुनिकता की ओर ले जाने के लिए सक्रिय दिखाई देते हैं। वेलेन्टाइन्स डे और फ्रेन्डशिप डे जैसे इम्पोर्टेड डेज़ से भी शहर अनजान नहीं है। इसीलिए कुछ खास दिनों में बुके और गिफ्ट आइटम की दुकानें शहर में आश्चर्यजनक तरीके से बढ़ जाती हैं। अजीब-सा मादक और खुश्नुमा माहौल बन जाता है, जिंदगी की तमाम समस्याओं से जूझते लोगों से दूर कहीं। इधर दो-एक वर्षों के भीतर शहर में खुल गए बीयर बार ने आधुनिकता के नए सोपान खोले हैं।डांस बार तो नहीं हैं, लेकिन शहर को इनकी जरूरत महसूस होने लगी है।
दूसरी ओर, कड़कड़ाती ठंड में रजाई ओढ़कर रामलीला देखनेवालों, छोटी बाजार के श्रीकृष्णरास मंडल में होने वाली रासलीला देखने के लिए घंटों इंतजार करने वालों और आल्हा प्रतियोगिता में रात भर तन्मयता के साथ आल्हा सुनने वालों, कव्वाली–मुशायरों में वाह-वाह करने वालों की तादाद भले ही कम हो गई हो, लेकिन परंपराएँ जिंदा हैं।
शहर की जीवन-धारा कही जा सकने वाली केन नदी भी तमाम रिवाजों से, तीज-त्योहारों-पर्वों और उत्सवों से गाहे-ब-गाहे जुड़ जाया करती है-- बिना जाति, धर्म का भेद किए हुए। बच्चों की तरह घुटुरुअन चलती केन, अल्हड़ जवानी की इठलाती केन और बूढ़ी-शांत-वीतरागी केन, गोविंद मिश्र की कहानियों और केदारबाबू की कविताओं की प्यास बुझाती केन शायद अब शहर के लिए नदी मात्र रह गई है, उसका अस्तित्व सिमटने लगा है। केदारबाबू अगर जिंदा होते तो उन्हें कितना दुख होता, शहर नहीं जानता।


अस्तित्व तो भूरागढ़ किले, निम्नी पार वाले महल, बारादरी और इनकी जैसी तमाम इमारतों का भी सिमट गया है। बहुत से लोग अपनी संततियों को इन खंडहरोंके बारे में बता पाने, बुंदेलखंड के गर्वपूर्ण अतीत से परिचित करा पाने में असमर्थ हो जाते हैं। बुंदेलखंड के गौरवपूर्ण अतीत की भग्नावशेष निशानियों के साथ ही खपरैल-मिट्टी वाले कच्चे मकानों का अस्तित्व भी सिमट रहा है, जहाँ प्रेम, स्नेह, सौहार्द और भाईचारा होता था, संयुक्त परिवार होते थे, जहाँ पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को तमाम ज्ञान की बातें अनायास ही मिल जाती थीं, दादी-नानी की रोचक कहानियाँ मिलती थीं। अथाई लगती थी, चौपालें होती थीं, लोगों के दुख और सुख सबके हो जाते थे, कुल मिलाकर जीवन सरल, सहज, सुखद और सुंदर हो जाता था।
पुरातनता बनाम नवीनता के संघर्ष को; सामाजिक और मानवीय मूल्यों, संस्कारों व जीवन-स्तर में आ रहे बदलाव को यहीं से जाना और समझा जा सकता है। बाँदा जैसा हर शहर संक्रांति काल के अधकचरे दौर में फँसा रहता है, हमेशा, हर सदी में। उसके लिए अपने अतीत को छोड़ पाना जितना कठिन होता है, उतना ही वर्तमान की गति के साथ दौड़ पाना भी कठिन होता है।
यह कहानी बाँदा जैसे हर शहर की हो सकती है। बुंदेलखंड के तमाम शहरों और कस्बों की हो सकती है,जिन्हें मुम्बई और दिल्ली की हवा तो मिलती है, लेकिन वैसा पोषण नही मिलता, लिहाजा कुपोषण के शिकार होकर वे बड़े विकृत तरीके से विकसित होते हैं।
{नगर पालिका परिषद्- हटा, दमोह (मध्य प्रदेश) की वार्षिक पत्रिका बुंदेली दरसन 2011, अंक 04, में प्रकाशित}                                                                               
                                         डॉ. राहुल मिश्र