Tuesday, 21 September 2021

मिजोरम विवाद : आखिर कौन है, झगड़े की जड़ में...



मिजोरम विवाद : आखिर कौन है, झगड़े की जड़ में...

देश के पूर्वोत्तर सीमांतक्षेत्र के लिए इस वर्ष की 26 जुलाई को एक ऐसी तिथि के रूप में इंगित किया जा सकता है, जिसने पूर्वोत्तर भारत के इतिहास को काला धब्बा लगा दिया है। देश का पूर्वोत्तर भाग, जिसे बहुत आस्था और श्रद्धा के साथ सारा देश देखता है। ज्योतिषीय गणना और आकलन पूर्वोत्तर को, ईशान्य कोण को बहुत महत्त्व देते हैं। यह ऐसी दिशा होती है, जहाँ वास्तु के अनुसार ऊर्जा का वास होता है। इसी कारण अनेक विद्वानों ने अंग्रेजों द्वारा निर्धारित ‘नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ से इतर पूर्वोत्तर को ईशान्य सरहद एजेंसी कहकर यहाँ के वास्तुशास्त्रीय महत्त्व को रेखांकित किया है।

26 जुलाई, 2021 की हृदयविदारक-दारुण घटना के पहले और बाद की स्थितियों पर कुछ कहने के पूर्व उपरोक्त पंक्तियों के माध्यम से भारतदेश के पूर्वोत्तर क्षेत्र के, ईशान्य कोण के महत्त्व को रेखांकित करना आवश्यक लगता है। यह महत्त्व और यह वैशिष्ट्य भारतीय ज्योतिषशास्त्र और वास्तुशास्त्र के क्षेत्र का ही नहीं है, वरन् इसको भारत के प्राचीन ज्ञानीजनों से लगाकर आधुनिककाल के अध्येता और सुधीजन भी समझते रहे हैं। इसी कारण ‘भारतमाता के मुकुट’ और ‘भारतदेश के सजग प्रहरी’ जैसी मान्यताएँ पूर्वोत्तर के साथ जुड़ी रहीं हैं। आस्था के अनेक केंद्र, शक्ति-साधना के अनेक स्थल, ऋषियों-मुनियों-साधकों की तपःस्थली पूर्वोत्तर में हैं। पूर्वोत्तर भारत के अनेक स्थलों की धार्मिक यात्राओं पर जाने की परंपरा भी बहुत पुरानी रही है। यह सबकुछ इसी कारण से है, क्योंकि समग्र भारतीय मनीषा के लिए, समग्र भारतीय चेतना और एकात्मता के लिए पूर्वोत्तर भारत का अमूल्य योगदान रहा है। एक ओर सिंधु नद, तो दूसरी ओर ब्रह्मपुत्र नद हिमालय से प्रवाहित होते हुए भारतमाता की सबल-सशक्त भुजाओं का भान कराते हैं। ब्रह्मपुत्र के जल से सिंचित पूर्वोत्तर, अरुण की पहली किरण से आलोकित पूर्वोत्तर, महाभारत की कथाओं को अपने कण-कण में बसाए हुए पूर्वोत्तर की क्या विशिष्टता रही है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।

इस वैशिष्ट्य को हम तो सदैव से जानते ही रहे हैं, लेकिन इस वैशिष्ट्य की ओर उन आक्रांताओं की भी दृष्टि रही है, जिन्होंने भारतदेश के समृद्ध समाज को, गौरवशाली सांस्कृति वैभव को, सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न करने की नीयत से कई बार, और कई तरीके से प्रहार किए हैं। बताने की आवश्यकता नहीं, कि इन प्रहारों के चिन्ह कहीं नालंदा के ध्वंसावशेषों में, कहीं विखंडित और परिवर्तित कर दिए गए स्थापत्य-शिल्प केंद्रों में, तो कहीं समाज के अलग-अलग बँटे हुए वर्गों में, तो कहीं धर्म के अंतरण के कारण उत्पन्न हुई असहज सामाजिक संरचनाओं में दिखाई देते हैं। पूर्वोत्तर का समग्र क्षेत्र, जो भारतीय मनीषा की ऊर्जा से आलोकित रहा, वह भी आक्रांताओं की कुदृष्टि से बचा नहीं रह सका।

जब 26 जुलाई, 2021 की वेदनापूर्ण घटना की जड़ों को तलाशते हुए गहरे उतरते हैं, तब यही कुदृष्टि कहीं न कहीं न दिखाई देती है। पूर्वोत्तर भारत में बर्मन, पाल और आहोम आदि प्रतापी शासकों की बहुत पुरानी और सुदीर्घ परंपरा रही है। कामरूप का नाम भारतीय वाङ्मय से लगाकर अनेक कथाओं-किंवदंतियों में प्रचलित रहा है, जो यहाँ की समृद्धि का परिचायक है। यहाँ निवास करने वाले अनेक वनवासी समूह प्रकृति के सानिध्य में अपनी सनातन आस्था के साथ, प्रकृति के प्रति आस्था के साथ जीवन जीते रहे हैं। यहाँ की दुर्गम भौगौलिक स्थिति और यहाँ के लोगों की संघर्षशीलता के कारण तलवार के बल पर लोगों को बदल पाना संभव नहीं रहा। ऐसा हमें इतिहास के अनेक प्रसंगों से ज्ञात होता है। व्यापार के बहाने बंगाल की खाड़ी तक पहुँचने वाले अंग्रेजों के लिए पूर्वोत्तर ही नहीं देश के अनेक हिस्सों के ऐसे लोग चुनौतीपूर्ण थे, जिन्हें साम, दाम, दंड से बदल पाना संभव नहीं था। इसके लिए ईसाई प्रचारकों की नीति का उपयोग किया गया। पूर्वोत्तर के अनेक क्षेत्रों में यह ‘भेद-नीति’ इतने बड़े स्तर पर चली, कि आज वही लोग एक-दूसरे के जीवन को नष्ट कर डालने के लिए उद्यत हो गए, जो सदियों से सदैव एकसाथ रहते रहे हैं, जो सदियों से प्रकृति को एक-दूसरे के बाँधे रखने का सूत्र मानते रहे हैं।

पूर्वोत्तर का समूचा भौगौलिक क्षेत्र इन्हीं विशिष्टताओं के साथ ही अलग-अलग वनवासी समूहों की पहचान को मिलाकर जाना जाता रहा है। अगर सिक्किम को उसकी विशिष्ट पहचान के साथ अलग वर्ग में रखकर बात करें, तो पूर्वोत्तर के बड़े हिस्से के रूप में कामरूप या प्राग्ज्योतिषपुर या असम कालांतर में अपने विभाजनों के द्वारा मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड और अरुणाचलप्रदेश के नाम से वर्तमान के राज्यों के रूप में जाना जाता है। इनके विभाजन का पहला प्रयास अंग्रेजों के समय में हुआ था, जो कि भौगौलिक नहीं था, वरन् वनवासी समूहों के विशिष्ट सामाजिक और जीवन-पद्धतिगत अंतरों को उभारकर किया गया था। यह विभाजन इतने गहरे बैठ गया, कि राजनीतिक खेमेबंदियों और प्रजातिगत-समुदायगत पहचान और मान-प्रतिष्ठा का विषय बनकर कालांतर में अलग-अलग राज्यों के रूप में अस्तित्व में आने लगा। आज के पूर्वोत्तर के राज्य इसी का परिणाम प्रतीत होते हैं। भौगौलिक विभाजन के ये दूसरे प्रयास अपने साथ ऐसी विषमताओं को लेकर आए, कि जिनकी परिणति वर्तमान के आपसी संघर्ष में दिखाई देने लगी।

यह सोच पाना भी बहुत कठिन है, कि भारतदेश के दो राज्य; या यो कहें, कि एक परिवार के दो हिस्से आपस में इतनी शत्रुता कर बैठे, कि एक-दूसरे के रक्तपिपासु ही हो गए। दोनों ही राज्यों की संवैधानिक व्यवस्थाएँ भारत के संविधान के अनुसार चलती हैं। असम और मिजोरम की कार्यपालिकाएँ और विधायिकाएँ भारत के संविधान और संसद से बाहर नहीं हैं, फिर भी दोनों राज्यों के बीच 26 जुलाई को बनी स्थिति ऐसी थी, जैसे दो देश ही आपस में भिड़ गए हों। इस संघर्ष में असम के पुलिसबल के 6 जवानों को अपना जीवन गँवाना पड़ा। इन जवानों के परिवार अनाथ हो गए। असम ने अपने इन जवानों को शहीद का दर्जा देते हुए अंतिम विदाई दी। इसके साथ ही 50 के आसपास जवान घायल भी हुए। इस घटना ने जिस तरह अनेक कायसों और तथ्यों को जन्म दिया है, वे संघीय व्यवस्था के अंतर्गत बड़ी पड़ताल की आवश्यकता को जन्म देने वाले हैं। कहा जाता है, कि असम पुलिस पर मिजोरम की तरफ से हमला करने वाले लोगों के पास आधुनिक तकनीक वाले हथियार थे। ये हथियार मिजोरम के सीमावर्ती तथाकथित लोगों के पास कैसे सुलभ हुए, इस बात को लेकर भी कयास लगाए जाते रहे हैं। कुल मिलाकर पूरी घटना सरसरी तौर पर सरल दिखाई देती है, परंतु इसके पीछे अनेक जटिल तथ्य हैं।

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मिजोरम की आबादी में 87.16 प्रतिशत लोग ईसाई थे। मिजोरम का सबसे बड़ा और प्रभावशाली चर्च मिजोरम प्रेस्बिटेरियन चर्च है। यह न केवल मिजोरम में, बल्कि समूचे पूर्वोत्तर भारत से लगाकर भारत के विभिन्न प्रांतों तक, और फिर ताइवान, नेपाल, चीन और ब्रिटेन आदि देशों तक अपने कार्यक्षेत्र को फैलाए हुए है। यह तथ्य भी कम रोचक नहीं है, कि मिजोरम और असम के बीच सीमा विवाद के रक्तरंजित होते ही मिजोरम प्रेस्बिटेरियन चर्च के नेतागण मिजोरम के मुख्यमंत्री से विवाद को सुलझाने की अपील करते हैं। असम के मुख्यमंत्री जोरामथांगा स्वयं इस चर्च के अनुयायी हैं। 1987 में मिजोरम के स्वतंत्र देश बनने के पहले तक, और मिजो नेशनल फ्रंट के राजनीति में उतरने तक जोरामथांगा एक अलग भूमिका में रहे हैं। ये सारे तथ्य आपस में मिलजुलकर बहुत कुछ स्पष्ट कर देते हैं।

दूसरी तरफ असम का कहना है, कि उसकी बराक घाटी के लगभग 1.75 हेक्टेयर जमीन पर मिजोरम के लोगों ने अवैध कब्जा कर लिया है। मिजोरम सन् 1875 में बनी सीमारेखा को मानता है, जबकि असम 1933 में बनी सीमा रेखा को। मिजोरम का यह भी कहना है, कि जिस क्षेत्र में असम अपना दावा करता है, वहाँ मिजो आदिवासी पिछले सौ से अधिक वर्षों से काबिज हैं। मिजोरम में प्रतिवर्ष 11 जनवरी को मिशनरी दिवस मनाया जाता है, जिसका विधिवत् राज्यस्तरीय सार्वजनिक अवकाश रहता है। पिछले वर्ष 9-11 जनवरी तक ‘ज़ो’ उत्सव पहली बार हुआ था। यह मिजोरम के विभिन्न जातीय समूहों को एक करने के नाम पर भले ही रहा हो, लेकिन मिशनरी दिवस तक चलने वाले और विदेशों तक अलग-अलग जगहों में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम का कितना अंश मिजो लोगों के एककीकरण के लिए था, वह समझने की बात है। मिजोरम में मिजो आदिवासियों के नाम पर जिन समूहों को चिन्हित किया जाता है, वे ऐसे ही आयोजनों और अलग-अलग मिशनरी संगठनों के प्रभाव से ईसाई बने चुके हैं। मिजो आदिवासियों के नाम पर जिन वनवासी समूहों को संगठित करने, उन्हें सभ्य सुशिक्षित बनाने और उनके लिए सुविधाएँ उपलब्ध कराने की बात कही जाती है, वे वस्तुतः अपने पारंपरिक आधार से उखड़ी हुई एक नई जातीय संस्कृति और पहचान है। फलतः मिजो नाम के आवरण को ढके हुए हमारे सामने एक नई संस्कृति और जातीय पहचान होती है, जिसका मूल ईसाईयत होता है। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है, कि पूर्वोत्तर भारत की जिस शक्ति को, जिस सामर्थ्य को हमारे प्राचीन ग्रंथों से लगाकर मनीषियों तक ने पहचाना, उसे क्षत-विक्षत किये बिना भारतीय सामाजिक संरचना को खंड-खंड करना संभव नहीं था, फलतः सीधे-सादे वनवासियों को शिक्षित करने के नाम पर, दवा-उपचार देने के नाम पर, सभ्य बनाने के नाम पर और आधुनिक बनाने के नाम पर जो हुआ, उसकी परिणति मिजोरम की जनसांख्यिकी के आँकड़ों में दिखाई देती है।

असम में पिछली सरकार ने अपने राज्य के जनसांख्यिकी असंतुलन को गंभीरता से लिया था। घुसपैठियों की समस्या भी इसके साथ जुड़ी हुई थी। पूर्वोत्तर के राज्यों में मुस्लिम आबादी बहुत तेजी के साथ बढ़ी है, जिसे स्थानीय निवासी अपनी पहचान और अस्मिता पर संकट की तरह देखते हैं। हाल ही में संपन्न हुए चुनावों की धुरी भी इन्हीं विषयों पर केंद्रित थी। असम की जनता ने पिछली सरकार के निर्णयों के प्रति अपनी आस्था को व्यक्त किया, फलतः नई सरकार ने पिछले प्रयासों को और अधिक तीव्रता के साथ आगे बढ़ाया। जनसांख्यिकी के असंतुलन और घुसपैठियों के कारण बढ़ती अराजकता पर वर्तमान असम सरकार की शून्य सहनशक्ति एक ओर असम के घुसपैठियों के लिए बड़ा संदेश देने वाली है, तो दूसरी ओर मिजोरम के तथाकथित ‘मिजो आदिवासियों’ के लिए भी...।

असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वालों में बड़ी संख्या मुस्लिम घुसपैठियों की है। ये सभी अपने चाल-चरित्र के कारण केवल असम में ही नहीं, बल्कि किसी भी जगह अच्छी दृष्टि से नहीं देखे जाते, इन पर शक की सुई हमेशा घूमती रहती है, जो इनके कामों के कारण शक को सच में बदलती भी रहती है। मिजोरम और असम के सीमावर्ती इलाकों में इनकी हरकतें भी एक बड़ा कारण बनी हैं। असम और मिजोरम के सीमावर्ती इलाकों में सहिष्णुता और सद्भावना की संभावना तलाशना स्वयं में बहुत जटिल कार्य है। क्योंकि असम और मिजोरम के बीच हुए भौगौलिक सीमा विवाद का बड़ा हिस्सा धर्माधारित वर्ग के विवाद का भी है। यह बदलती हुई स्थिति है, जिसमें संस्कृतियों के टकराव को भी देखा जा सकता है। इन सबके बीच असम के मुख्यमंत्री ने स्थितियों को सँभालने के लिए बहुत गंभीरता का परिचय दिया है, और मिजोरम की तरफ से भी ऐसी पहल अपेक्षित है।   

पूर्वोत्तर के राज्यों में तेजी से बदलती जनसांख्यिकी, जनसंख्या के असंतुलन, मूल निवासियों की धार्मिक मान्यताओं और सांस्कृतिक पहचान पर मँडराते संकट जैसी स्थितियाँ 26 जुलाई जैसी घटनाओं के लिए वातावरण बना देती हैं। लिहाजा इस ओर गंभीरता के साथ विचार किया जाना चहिए और समाधान के लिए भी प्रयास किए जाने चाहिए।

-राहुल मिश्र

(मासिक पत्रिका सीमा संघोष, नई दिल्ली के सितंबर, 2021 अंक में प्रकाशित) 


 

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