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Tuesday, 17 January 2012

अज्ञेय : कठिन परिचय की सरल इबारत


             अज्ञेय : कठिन परिचय की सरल इबारत
  क व्यक्ति था अज्ञेय। सच्चिदानंद, हीरानंद वात्स्यायन। अप्रैल को है से था हो गया। सुंदर, भव्य, विराट, निर्बंध, अभेद्ध, अवेध्य व्यक्तित्व; यानि फूल-मालाओं के बीच सिर्फ़ एक चित्र, उतना ही चुप, उतना ही रहस्यावृत.... अज्ञेय।
हम लोगों ने आँखें खोलते ही उसी रौबदार नाम को अपने आस-पास पाया था... हवा, पानी, नदी, पहाड़ की तरह, आँगन पर छाये एक पेड़ की तरह जो बहुत कुछ देता है और बहुत कुछ छीन लेता है। एक दिन वह नहीं होता तो भाँय-भाँय करता आसमानी रेगिस्तान होता है। खुले आतंकप्रद विस्तार के नीचे हम बहुत छोटे हो जाते हैं....अवसन्न और दिग्भ्रांत.....1
यह पंक्तियाँ हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने अज्ञेय जी के देहांत के बाद हंस के मई, 1987 के संपादकीय में लिखीं थीं। अज्ञेय जी का जीवन संघर्षों और विविधताओं से भरा रहा, सन् 1930 से 1936 तक अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी के रूप में जेल यात्राएँ और उन्हीं अंग्रेजों की सेना में सन् 1943 से 1946 तक अधिकारी का दायित्व। अज्ञेय का चित्र देखें— रोबीला चेहरा, गर्वोन्नत भाल, जिजीविषा से भरी खोजी निगाहें, गजब की दृढ़ता; चेहरे की भाव भंगिमा के विपरीत अज्ञेय जी में अपार शालीनता होगी, सरलता और सहजता होगी, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता।
वस्तुतः ऐसे ही परस्पर विरोधी तत्त्वों के सायुज्य से, विविधताओं से, बड़े सुंदर तरीके से गढ़कर अज्ञेय का व्यक्तित्व बना है। इसी कारण अज्ञेय को जान पाना जितना कठिन है, उतना ही सरल भी है। इसी कारण अज्ञेय जी के साहित्य में विविधता और अनुभव क्षेत्र की व्यापकता के दर्शन जितने विस्तृत फलक पर होते हैं, उतने अन्यत्र ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलते। अज्ञेय के साहित्य की समझ तभी विकसित हो सकती है, जब उनके व्यक्तित्व को, व्यक्तित्व में गहराई तक समाए हुए संतुलन के भाव को गहराई तक समझा जाए।
एक कवि के रूप में वे पारंपरिक भी थे और आधुनिक भी थे, और इनके समन्वय पर भी जोर देते थे— जो कवि अपने को ‘आधुनिक’ कहते या मनवाना चाहते हैं उनके लिए ‘पारम्परिक’ एक अवहेलना-सूचक विशेषण होता है; मेरे लिए वैसा कदापि नहीं है। वाचिक स्थिति पारंपरिक स्थिति थी; उस का कवि उसी में रहकर अपना सम्प्रेषण-धर्म निबाह सकता था। इसलिए इस अर्थ में पारम्परिक होना न केवल दोष नहीं था बल्कि अपने सामाजिक रिश्ते की सही पहचान और कवि-कर्म का सही निष्पादन था। दूसरे, यह भी उल्लेख्य है कि यह परिवर्तन न तो एक सीधी छलांग में सम्पन्न हो गया था, न एकाएक परम्परा को तोड़ कर आधुनिक हो जाने का श्रेय मेरा है। वैसा कहना ऐतिहासिक झूठ भी होगा, अनेक बड़े कवियों के साथ अन्याय  भी होगा, और आधुनिक होने की प्रक्रिया को ग़लत समझना भी होगा।संभवतः इसी कारण अज्ञेय प्रयोग पर जोर देते और नयेपन को स्वीकार भी करते थे। अज्ञेय (कितनी नावों में कितनी बार, 1967; सुनहरे शैवाल, 1967; क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, 1969; पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, 1974; महावृक्ष के नीचे, 1977; सर्जना के क्षण, 1979 आदि) ने भी ‘नई कविता’ में लिखा, किंतु तथाकथित ‘नए कवियों’ चोट की—
आ, तू आ,
हाँ, आ,
मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,
मिटाता उसे,
मुझे मुंह भर गाली देता—
आ, तू आ!
जयी, युग नेता, पथ-प्रवर्तक
आ, तू आ,
ओ गतानुगामी!
‘नई कविता’ में अनुभूति का बड़ा जोर था और इन कवियों ने ‘अज्ञेय’ को छोड़कर भिन्न मार्ग ग्रहण किया। उन्होने ‘अज्ञेय’ रूपी सूर्य को ‘अस्त’ हुआ समझ लिया वैसे ‘नई कविता’ के बीज प्रयोगवाद में ही निहित थे।’3
हिंदी की प्रचलित धारा के विपरीत एकदम अलग, नूतन और अभिनव स्थापनाएँ देने और विचार रखने के कारण हिंदी की प्रयोगशील धारा के प्रतिनिधि और प्रवर्तक कवि, यायावर-घुमक्कड़ अज्ञेय का साहित्यिक जीवन आलोचनाओं और विरोधों से भरा रहा। इसके बावजूद वह कभी भी विचलित नहीं हुए। वैचारिक विभेद के बावजूद फ्रायड और मार्क्स से वे प्रभावित हुए। वैचारिक विरोधियों के विरोधों के साथ ही दूसरों के साथ दृष्टि-भेद को स्वीकार करने में अज्ञेय अत्यंत उदार थे। सच्चाई को पूरे मन के साथ स्वीकार करना और उस पर अडिग रहना भी अज्ञेय की विशेषता थी। इन्ही कारणों से अज्ञेय की स्थिति उनके काव्य संग्रहों— ‘भग्नदूत’ और ‘चिंता’ के समय तक उपेक्षित-सी रही, ‘इत्यलम्’ और ‘हरी घास पर क्षण भर’ तक विवादित रही और ‘बावरा अहेरी’ से ‘अरी ओ करुणामय प्रभा’ तक आते-आते वे नई कविता के प्रमुख स्तंभ बन गए। उनके कटु आलोचक भी उनकी काव्य प्रतिभा के दबे मन से ही सही, कायल हो गए थे।
छायावादोत्तर कालीन कवियों में अज्ञेय एक ऐसे कवि हैं, जिनका शहरी और देहाती जीवन की अनुभूतियों पर समान अधिकार नजर आता है। ‘अज्ञेय एक ओर मध्यवर्गीय व्यक्ति-मन की कुंठा-निराशा को, औद्योगिक नगरों की असंगति- भरी सभ्यता को उसकी तीव्रता में पकड़ते हैं, तो दूसरी ओर उन्मुक्त प्रकृति या ग्राम-जीवन की किसी छवि, विषमता या व्यथा को व्यंजित करते हैं या प्रकृति और ग्राम्य-जीवन के बिम्ब लेकर अनुभूति या सौंदर्य का कोई स्वर उभारते हैं।’4 आधुनिक जीवन की विसंगतियों के साथ ही लोक-जीवन की विद्रूपताएँ, प्रकृति का सौंदर्य, क्रांति और विद्रोह का स्वर अज्ञेय की कविताओं में इस प्रकार स्थान पाता है कि जीवन का कोई कोना, संवेदना का कोई रंग या बौद्धिकता का की पक्ष छूट जाना असंभव की हद तक कठिन होता है। अज्ञेय की कविताओं में अनुभूति या संवेदना और बौद्धिकता का सामंजस्य इतने संतुलित रूप में है कि दोनों ही एक दूसरे को नियंत्रित करती और एक दूसरे के अभावों की पूर्ति करती नजर आती हैं। अज्ञेय के कवित्व में कोरी बौद्धिकता और संवेदना ही नहीं व्यंग्य भी शामिल है, देखिए उनकी बहुचर्चित कविता, बानगी के तौर पर—
‘साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ— (उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डसना—
विष कहाँ पाया?’5
अज्ञेय को अच्छा कवि कहा जाए या गद्यकार, यह समझ पाना भी बहुत कठिन है। ‘शेखर- एक जीवनी’ के प्रकाशित होने के बाद डॉ. नगेंद्र सहित कई आलोचकों ने उन्हें मुख्यतः गद्यकार ही घोषित कर दिया। अज्ञेय के तीन उपन्यास प्रकाशित हुए हैं और तीनों उपन्यास स्वयं में बेजोड़ होने के साथ ही विविधता को, विरोधी तत्त्वों को कुशलता के साथ जोड़े हुए हैं।
अज्ञेय के पहले उपन्यास- शेखर- एक जीवनी (1941) में भारतीयता की अमिट छाप है। उपन्यास के नायक शेखर का झगड़ा अपने पिता से इस बात को लेकर होता है कि वह हिंदी का पक्षधर है और उसके पिता अंग्रेजी के। उनके दूसरे उपन्यास- नदी के द्वीप (1951) के पात्र भुवन, रेखा और गौरा पर अंग्रेजियत का गहरा प्रभाव है। जबकि अज्ञेय के तीसरे उपन्यास- अपने-अपने अजनबी में भारतीयता और अंग्रेजियत का सुंदर तालमेल मिलता है।
अज्ञेय और जैनेंद्र की कथा-भाषा की तुलना करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं कि— ‘अज्ञेय की कथा-भाषा के कई रंग हैं, जो जैनेंद्र में इस रूप में नहीं दिखते। शायद यही कारण है जिससे जैनेंद्र के परवर्ती उपन्यासों में एकरसता जैसा भाव आने लगता है, जबकि अज्ञेय में भाषिक प्रयोगों के बीच नयी संभावनाएँ उभरती हैं। ‘शेखर’ की मूलगत भाषा ‘नदी के द्वीप’(1951) की प्रणय-गाथा में और अर्थ-सघन हो उठती है; फिर एकाएक ‘अपने-अपने अजनबी’(1961) में मृत्यु के साक्षात्कार-प्रसंग में अज्ञेय अपनी भाषा को एकदम बेलौस और रंगहीन कर लेते हैं। कथा-भाषा के इस विकास-क्रम में लेखक की उपन्यास-यात्रा प्रतिबिंबित होती दिखती है।’6
विरोधी तत्वों का सुंदर तालमेल अज्ञेय की शब्दावली और भाषा में भी मिलता है। संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों के साथ ही अंग्रेजी शब्दों, मध्यवर्ग के घरेलू बोलचाल वाले ठेठ शब्दों और भाषा का प्रयोग विरोधी होकर भी इतने गुंथे हुए और परिपक्व रूप में मिलता है कि उसमें कहीं भी झोल नजर नहीं आता।
अज्ञेय के उपन्यासों की अपेक्षा उनकी कहानियों में तत्समता का दबाव कम है; व्यक्ति के आत्मसंघर्ष और परिवेश से संघर्ष में घरेलू, ठेठ देशी अंदाज अधिक मुखर हुआ है। एक ओर फक्कड़पन तो दूसरी ओर गाम्भीर्य और सटीक सम्प्रेषण अज्ञेय की विशेषता है। इसी विशेषता के और विविधता में रचा-बसा हुआ अज्ञेय का समग्र गद्य-साहित्य है। ‘अज्ञेय के कथा-साहित्य में सर्जनात्मक गद्य जैसा बहुस्तरीय है वैसा ही विधान उनके अकाल्पनिक गद्य-साहित्य में मिलता है। निबंध-रेखचित्र-संस्मरण-यात्रावृत्त-जर्नल-आलोचना-विचार-गद्य- पत्रकारिता का वैविध्य उनके लेखन में फैला है। भारतेंदु जैसा गद्य-प्रसार फिर अज्ञेय के यहाँ देखने को मिलता है। और यह आकस्मिक नहीं कि आधुनिकता का एक दौर वैचारिक स्तर पर भारतेंदु से शुरू होता है तो दूसरा दौर रचनात्मक स्तर पर अज्ञेय से।’7
हिंदी साहित्य में अज्ञेय को सामान्यतः क्रांतिकारी माना जाता है। यदि उनके प्रारंभिक साहित्य को देखें तो यह मान्यता सही भी प्रतीत होती है, इसके बावजूद उनकी क्रांति और क्रांतिकारिता के संदर्भ में धारणा एकदम विपरीत थी। अज्ञेय का मानना था कि एक क्रांतिकारी अपने विरोधी विचारों वाले व्यक्ति को बलात् अपने पक्ष में करने की कोशिश में लगा रहता है। अपने विरोधी मत के अस्तित्व को, उसकी स्थिति को शत्रुतापूर्ण दृष्टि से देखते हुए क्रांतिकारी जब अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है तब वह कोई नयापन लाने के बजाय समाज की स्वाभाविक प्रगति को बाधित कर देता है। उनका मानना था कि क्रांति के बाद क्रांति और बदलाव-दर-बदलाव गतिशीलता का पर्याय है और इसको एकांगी/एकपक्षीय बनाकर नहीं रोका जा सकता। अज्ञेय द्वारा रचित इस चौपदी के माध्यम से उनके क्रांति के प्रति विचार अधिक स्पष्ट हो जाते हैं—
‘क्रांति है आवर्त, होगी भूल उसको मानना धारा;
उपप्लव निज में नहीं, उद्दिष्ट हो सकता हमारा।
जो नहीं उपयोज्य वह गति-शक्ति का उत्पाद भर है;
स्वर्ग की हो—माँगती भागीरथी भी है किनारा।।’8
क्रांति के प्रति ऐसी अवधारणा के फलस्वरूप ही वे संभवतः सनातन भारतीय संस्कृति और आध्यात्म की ओर अग्रसर हुए। यद्यपि अज्ञेय को नास्तिक बुद्धिवादी के रूप में जाना जाता है, फिर भी उनकी कविताओं— ‘सागर मुद्रा’, ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ’, आदि में अपने प्रति स्थापित मान्यताओं के विपरीत एक धार्मिक, आस्थावान सर्जक अज्ञेय का दर्शन होता है। आध्यात्मिकता और आस्तिकता के बावजूद धर्म के विषय में उनके विचार स्पष्ट थे। वे धर्म को व्यापार मानने के बजाय आत्मिक शांति का, कर्म के प्रति समर्पण का और सत्कर्म का माध्यम मानते थे। विद्वत्द्वय स्मृतिशेष विष्णुकांत शास्त्री एवं विद्यानिवास मिश्र (साथ ही अपनी पत्नी श्रीमती कपिला वात्स्यायन) के सानिध्य के फलस्वरूप उनका मन धर्म और आध्यात्म की ओर झुका। अनन्तश्री स्वामी अखंडानंद सरस्वती से उनकी भेंट भी संभवतः इसी के फलस्वरूप हुई। स्वामी जी का सानिध्य पाकर वे अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में आध्यात्मिकता की ओर उत्तरोत्तर उन्मुख होते गए। वे प्रायः स्वामी जी से मिलते रहते और जीवनीय ऊर्जा ग्रहण करते। सन् 1980 में ‘वत्सल निधि’ की स्थापना और संचालन भी उन्होने किया। ‘वत्सल निधि’ ने तमाम नए और पुराने साहित्यिकों को, पाठकों को और भारतीय संस्कृति के अध्येताओं को पुरातन भारतीय ज्ञान-संपदा से, भारतीय साहित्य से परिचित कराने वाले महत्त्वपूर्ण मंच की भूमिका अदा की।
युवाओं जैसी ऊर्जा और कर्मठता के साथ समर्पित भाव से अपनी योजनाओं संलग्न रहने वाले अज्ञेय जी स्वयं को एक साहित्यकार से ज्यादा अपने परिवेश का, समाज का एक जिम्मेदार हिस्सा मानते थे और उसी उत्तरदायित्व को पूर्ण करने को महत्त्व देते थे। महान उद्देश्य की पूर्ति के मार्ग में होने वाली क्षति को स्वीकार कर लेना भी उन्हें बखूबी आता था। इसके बावजूद उन पर व्यक्तिवादी होने का, आत्मकेंद्रित होने का आरोप लगाया जाता रहा। सच तो यह है कि अज्ञेय की समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति और समय के प्रति जितनी समर्पित दृष्टि थी, उसके प्रतिमान विरले ही मिलते हैं। उनकी कविताओं में इसके दर्शन होते हैं। देखिए एक बानगी—
‘कब तलक यह आत्मसंचय की कृपणता।
यह घुमड़ना त्रास;
दान कर दो खुले कर से, खुले उर से
होम कर दो स्वयं को समिधा बनाकर!
शून्य होगा, तिमिरमय भी,
तुम यही जानो कि अनुक्षण
मुक्त है आकाश!’9
ऐसा दायित्वबोध अज्ञेय जैसै महान् व्यक्तित्व को सरलता और सहजता के धरातल पर इस प्रकार उतार देता है कि वे केवल कृतिकार ही नहीं रह जाते वरन् कृतिकारों के सर्जक भी बन जाते हैं। अपनी महानता के ऊपर अपने दायित्व को स्थापित कर वे नए रचनाकारों को प्रोत्साहित करने में सक्रिय हो जाते। जिस किसी में उन्हें रचनाधर्मिता नजर आती, संभावना नजर आती, उसे प्रोत्साहित करने में, प्रेरित करने में और परिष्कृत करके निखारने में वे यत्नपूर्वक संलग्न हो जाते थे। उदाहरण के तौर पर मदन वात्स्यायन का जिक्र किया जा सकता है। नया ज्ञानोदय के अप्रैल, 2005 अंक में मदन वात्स्यायन की कुछ कविताएँ छपी हैं, उनके देहांत के बाद। इसकी संपादकीय टिप्पणी का उल्लेख अज्ञेय के संदर्भ में करना समीचीन होगा। अज्ञेय, मदन वात्स्यायन को प्रोत्साहित करते हुए सितंबर, 1951 के ‘प्रतीक’ में लिखते हैं कि— बिहार के इस प्रतिभाशाली लेखक का हम स्वागत करते हैं। ‘शिफ्ट फ़ोरमैन’ के रचयिता का, जिन्होने औद्योगिक रसायन शास्त्र की शिक्षा पाई है... और यंत्र के निकट परिचय और यंत्र संचालक मानव का अदम्य विश्वास उनकी कविताओं में बोल रहा है।10
यहाँ राजेंद्र यादव की स्वीकारोक्ति का उल्लेख करना प्रासंगिक ही नहीं, आवश्यक भी होगा, वे लिखते हैं— ‘बेहद जटिल और अनेक किंवदंतियों का केंद्र था अज्ञेय का चक्रव्यूही व्यक्तित्व। बिना उनके इस बहुआयामी व्यक्तित्व को समझे, उनके साहित्य को नहीं समझा जा सकता और बिना उनके साहित्य को समझे उनके व्यक्तित्व में झाँक सकना मुश्किल है। ऐसे लोगों के साथ प्रायः एक दुर्घटना होती है- व्यक्तित्व के हटते ही रह जाता है उनका साहित्य, कभी अतिरिक्त मूल्यांकित तो कभी उपेक्षित। मालूम नहीं आने वाला समय ‘अज्ञेय’ का मूल्यांकन कैसे करेगा, लेकिन यह सही है कि अगर ‘अज्ञेय’ न होते तो हममें से बहुत लोग इस रूप में न होते, मेरी कहानी ‘खेल-खिलौने’ अज्ञेय ने सन् 51 में ‘प्रतीक’ में छापते हुए लंबी रचना लिखने का आग्रह किया था और उसी उत्साह में मैंने दो महीने में ही ‘प्रेत बोलते हैं’ लिख डाला था। उन्होने प्रशंसा करते हुए प्रारंभ और अंत बदल डालने की सलाह दी थी। तब मैंने नहीं बदला; दस वर्षों बाद दुबारा ‘सारा आकाश’ बनाते समय मुझे ‘अज्ञेय’ के सुझाव सही लगे थे।’11 ऐसा उदारमना व्यक्तित्व, ऐसी सहजता आज के साहित्य जगत् में दुर्लभ है।
संभवतः अज्ञेय जी ने गीता के दर्शन की, बौद्ध धर्म के मध्यम मार्ग की चर्चा अपने संदर्भ में नहीं की है, किंतु उनके व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में ही इनकी अमिट छाप दिखाई पड़ती है। अज्ञेय के व्यक्तित्व में, उनकी वैचारिकता में, उनके जीवन दर्शन में और इसके साथ ही उनके कृतित्व में परस्पर विरोधी तत्त्वों का जैसा सुंदर तालमेल दिखाई देता है, जैसा संतुलन प्रकट होता है वह कहीं न कहीं गीता के दर्शन और मध्यम मार्ग से प्रेरित है। इसी कारण उनका व्यक्तित्व और कृतित्व, उनका समग्र जीवन उस कैनवस की तरह से है, जिसमें विरोधी रंगों को ऐसे भरा गया है, जो विरोध को त्यागकर एक-दूसरे के पूरक बने हुए प्रतीत होते हैं। सच है, उन्हें जान पाना-समझ पाना कठिन भी है और सरल भी। आज के साहित्य की दिशा और दशा को देखते हुए, चुनौतियों को जानते-समझते हुए अज्ञेय के कृतित्व को ही नहीं, उनके व्यक्तित्व को भी समझना होगा, उनसे प्रेरणा लेनी होगी, सीख लेनी होगी।
संदर्भ :
  1. मेरी तेरी उसकी बात (संपादकीय), राजेंद्र यादव. हंस, मई, 1987, पृ. 5
  2. भूमिका, अज्ञेय, सर्जना के क्षण, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ, 1996, पृ. 9
  3. स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, राजपाल एंड संस, दिल्ली, 1996, पृ. 104
  4. छायावादोत्तर काल, डॉ. बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का इतिहास, संपा. डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, दिल्ली, 2004, पृ. 631
  5. साँप (कविता), अज्ञेय, सर्जना के क्षण, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ, 1996, पृ. 46
  6. हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती, इलाहाबाद, 1996, पृ. 109
  7. वही, पृ. 260
  8. शक्ति का उत्पात (कविता), पूर्वा, 1965, पृ. 233
  9. आवरण पृष्ठ, अज्ञेय, सर्जना के क्षण, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ, 1996
  10. संपादकीय टिप्पणी, मदन वात्स्यायन की कविताएँ, नया ज्ञानोदय, अप्रैल, 2005, पृ. 09
  11. मेरी तेरी उसकी बात (संपादकीय), राजेंद्र यादव. हंस, मई, 1987, पृ. 5

     (नूतन वाग्धारा, बाँदा के अज्ञेय विशेषांक, 2011 में प्रकाशित)