Sunday, 16 December 2012

ताँकांजलि : जापानी छंद का हिंदी संस्करण




पुस्तक समीक्षा       
           ताँकांजलि : जापानी छंद का हिंदी संस्करण                             
  लखनऊ निवासी डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं और उत्तर प्रदेश के सेवानिवृत्त राजपत्रित अधिकारी हैं। एक तो विज्ञान का अध्ययन और ऊपर से प्रशासनिक व्यस्तताएँ, फिर भी हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी साहित्य से ऐसा घनिष्ठ जुड़ाव कि उनकी सत्रह कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। मूल रूप से कवि, गीतकार और शायर डॉ. नासिर विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, ईशीपुर, भागलपुर द्वारा डी.लिट् की मानद उपाधि प्रदान की गई है और सन् 1999 में लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी तथा आधुनिक भाषा विभाग में ‘डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर : व्यक्तित्व और कृतित्व’ विषय पर लघुशोध भी कराया गया है। डॉ. नासिर ने दोहा, सोरठा, कुण्डलिया और चौपाई जैसे प्रचलित छंदों के अतिरिक्त गीतिका, हरिगीतिका, घनाक्षरी और नवीन त्रिपदा छंद के साथ ही उर्दू की काव्य शैलियों- रूबाई, माहिया, त्राइले, ग़ज़ल तथा हिंदी ग़ज़ल और गीत भी लिखे हैं। डॉ. नासिर का ‘हाइकू शताष्टक’ जापान से आयातित वार्णिक छंद हाइकू का हिंदी संस्करण है। हिंदी और उर्दू की कविताओं में छंदों के नए-नए प्रयोगों, कथ्य की प्रभावोत्पादकता को लय के साथ जोड़कर गद्य की बेबाकी को विशुद्ध काव्य में उतारने के अनुसंधानों में सिद्धहस्त डॉ. नासिर ने जापान से नवागत वार्णिक छंद हाइकू का उर्दू संस्करण भी बनाया है, जिसमें 10,14,10 के क्रम में 34 मात्राएँ होती हैं।
  हाइकू की भाँति ताँका भी जापान का नवागत वार्णिक छंद है। यद्यपि उद्भव की दृष्टि से जापान में ताँका छंद का प्रचलन बहुत पहले ही शुरू हो गया था। इसमें 5,7,5,7,7 के क्रम में 31 मात्राएँ होती हैं और यह अतुकांत छंद होता है। इसकी अंतिम दो पंक्तियों के 7,7 अक्षरों को हटा देने पर हाइकू बन जाता है। लेखन की सरलता के कारण संभवतः हाइकू अधिक प्रचलित हो गया और हाइकू का जनक ताँका छंद कम प्रचलित ही रह गया। कुछ एक वर्षों से ताँका छंद भी प्रचलित हुआ है। हिंदी में ताँका का संस्करण भी आया है।
  डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर की सद्यः प्रकाशित कृति ताँकांजलि इसी परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण शुरुआत कही जा सकती है। यद्यपि रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ और डॉ. भावना कुँअर के संयुक्त संपादन में ‘भावकलश’ नाम से एक ताँका संकलन हाल ही में प्रकाशित हुआ है। इसमें विश्व भर में फैले हिंदी के 29 कवियों के लगभग पाँच सौ ताँका संकलित हैं। इस संकलन से इतर एक ताँकाकार की रचना के तौर पर ताँकांजलि’ का अपना महत्त्व है। ताँकांजलि का महत्त्व डॉ. नासिर के अनुभवी, उम्रदराज़ व्यक्तित्व और व्यापक कृतित्व की बदौलत और अधिक बढ़ जाता है। कविता, गीत, ग़ज़ल और शेरो-शायरी में दैनंदिन जीवन से लेकर समाज, देश और विश्व की समस्याओं-हलचलों को चस्पा कर देने में सिद्धहस्त डॉ. नासिर की लेखनी ताँका शैली के जरिए और अधिक पैनेपन के साथ समस्याओं को, विचारों को और मुद्दों को पूरी शिद्दत के साथ इस कृति में उकेरती है।
  डॉ. नासिर समकालीन साहित्य विमर्श के महत्त्वपूर्ण पक्ष- स्त्री विमर्श से अपनी बात शुरू करते हैं-
काँटों के मध्य/दिल रहता ज़ख्मी/योषा फिर भी/बिखराती मुसकान/सुमनों के समान।4। और
ममतामयी/संतोष की मूरत/भोली सूरत/योषिता-उत्थान हो/सर्वत्र सम्मान हो।6।
  नवजात शिशु के लिए माँ की ममता ही सारा संसार होती है, उसी तरह धरती माता की ममता अपने पुत्रों के लिए होती है। ममता की महत्ता को ब्रह्माण्ड की व्यापकता से आँक कर ताँकाकार ने अपने विचारों की व्यापकता को शब्द दिए हैं-
माँ की ममता/होती सम ब्रह्माण्ड/ओर न छोर/अनादि व अनन्त/हरदम वसन्त।7।
  धरती की ममता के बदले उसे स्वार्थी मानव से मिलने वाली प्रदूषण की सौगात पर दो टूक टिप्पणी-
धरा अनिल/नभ एवं सलिल/किये जो मैले/स्वयं हुए दूषित/पंचभूत पुतले।8।
पर्यावरण प्रदूषण के खतरों की चेतावनी भी ताँका में मुखर हो उठती है-
वायु-वारि-भू/गगन प्रदूषित/हो रहे लुप्त/गिद्ध-चील-गौरैया/मानव! तेरी बारी।9।
अणु बमों से/हुआ है क्या हासिल/क्रुद्ध प्रकृति/विनाश के आसार/प्यारे! करो विचार।18।
  ताँकांजलि में पर्यावरण प्रदूषण को ही नहीं विचारों और तहजीबों के प्रदूषण को भी शब्द मिले हैं-
ठाँव-ठाँव ही/व्याप्त प्रदूषण है/लो! संगीत भी/हो रहा प्रदूषित/बिगड़ी तहजीब।12।
  डॉ. नासिर समाज के विकृत-घिनौने चेहरे को भी देखते हैं और उनकी कलम महँगाई, उग्रवाद और भ्रष्टाचार जैसे ज्वलंत सामाजिक मुद्दों पर भी चल पड़ती है। महँगाई की पराकाष्ठा पर वे लिखते हैं-
महँगाई ने/मचाया हाहाकार/हाटों में आग/आटा चावल साग/जनता हेतु ख्वाब।27।
जनता भूखी/हो गई, प्याज-रोटी/सोना-चाँदी से/जमाखोरों की चाँदी/खाक मिली आजादी।31।
सोना-चाँदी तो/अब हैं चाँद-तारे/आम आदमी/छू भी इन्हें न पाते/महँगाई के मारे।32।
महँगा आटा/महँगी हुई दाल/नेता फिर भी/सतत खुशहाल/जनता है बेहाल।30।
  बेहाल जनता का मार्मिक चित्रण भी ताँकाकार ने शिद्दत के साथ किया है-
यौवन भूखा/रोगी हुआ वृद्धत्व/शैशव सूखा/महँगाई ने मारा/बेकल सर्वहारा।35।
  एक ओर महँगाई की मार है तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार का काला साया है। ताँका में शब्दबद्ध भ्रष्टाचार की वेदना मुखर हो उठती है-
रोती जनता/भ्रष्टाचार अनन्त/हँसता नेता/सोचो! कैसे हो अब/भ्रष्टाचार का अन्त।36।
भूले संस्कार/पनपा भ्रष्टाचार/न्याय बीमार/बढ़ता अत्याचार/रूठ गई बहार।68।
  भ्रष्टाचार की व्यापकता की वेदना के बीच ताँकाकार को भरोसा है, वक्त बदलने का, उम्मीद है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता जागरूक होगी। यही उम्मीद उनकी ताँका की पंक्तियों में साकार हो उठती है-
उठेगी आँधी/जाग्रत होंगे लोग/बोलेंगे हल्ला/भागेंगे भ्रष्टाचारी/आएगा फिर गाँधी।37।
फैले उजास/दूर हो भ्रष्टाचार/महँगाई को/हो जाये वनवास/बेकारी हो बेकार।39।
  यही उम्मीद आवाहन बन जाती है, भ्रष्टाचार के खिलाफ-
भ्रष्टाचारी का/कर दो मुँह काला/बोल दो हल्ला/भाग न पाये पापी/देश बेचने वाला।41।
  ताँकाकार का गुस्सा भ्रष्ट राजनेताओं पर भी उतर पड़ता है-
रचते स्वाँग/सेवक बनने का/बन जाते हैं/स्वामी पाकर वोट/खूब कमाते नोट।45।
बढ़ी गिरानी/चोरी औ’ बेईमानी/झूठों के नाना/नेता की मनमानी/व्यर्थ गई कुर्बानी।46।
  और काले धन पर-
धनी है देश/निर्धन देशवासी/काले धन का/चल रहा है धंधा/विदेशों से विशेष।44।
  भारत के बदलते चरित्र पर ताँकाकार की टिप्पणी-
कल कहते/‘सत्यमेव जयते’/मगर आज/सत्य बेचारा पस्त/झूठ कमीना मस्त।66।
कौन है ऐसा/आजादी न चाहता/पर भेड़िये/हुये कहीं आजाद/ग़ज़ालों का क्या होगा।91।
  ताँकाकार केवल राष्ट्रीय और सामाजिक समस्याओं से ही नहीं उलझता, वरन् दर्शन के गूढ़ चिंतन को भी शब्दों में समेट लेता है। यथा,
मर्त्य लोक भी/अजब गजब है/भरमाता है/आता है जो जहाँ से/लौट वहीं जाता है।86।
जग सुंदर जीवन/सुखकर/और मरण/शांति का है पर्याय/दुखदायी संक्रांति।89।
बीता न काल/हम ही बीत गये/भरा ही रहा/समय का कलश/हम ही रीत गये।105।
  ताँकाकार प्रकृति के चित्रण के जरिये रहस्यवाद लेकर भी आता है-
ऋतु वासंती/कोकिल गाती गीत/कौवा अगीत/हुआ मोर मायूस/ग्रधृ दिखाते नृत्य।80।
  डॉ. मिर्ज़ा हसन नासिर एक ओर समस्याओं से जूझते, दर्शन पक्ष की, रहस्यवाद की बातें करते नज़र आते हैं तो दूसरी ओर ताँकांजलि में वे उर्दू-शेरो-शायरी की इश्क़िया रवायत के गुलशन की खुश्बू को इस कदर बिखेर देते हैं कि उस महक को लंबे अर्से तक ज़ेहन में ताज़ा रखा जा सकता है। देखिए एक बानगी-
बज़्म हसीन/वो जो नहीं मौज़ूद/सब बेकार/स्वप्न कहाँ साकार/मैं तो हूँ ग़मगीन।21।
  इसी तरह रीतिकालीन काव्य पंरपरा का नवीन कलेवर साकार हो उठता है-
कुंचित केश/काले-काले नयन/रूप अनूप/मुखड़ा है कि चाँद/बिखराता है धूप।23।
वो चन्द्रमुखी/मम चक्षु चकोर/उर में उठी/लख हर्ष-हिलोर/हुआ भावविभोर।20।
  ताँकांजलि में विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भी झलक मिल जाती है-
सजी है सभा/गा रहा मधुघोष/उल्लू करता/मोबाइल पे बात/कौवा भी खुराफात।81।
निगल रहे/नभ के काले गार/ब्रह्माण्ड पिण्ड/साथ ही उजियार/बचेगा अँधियार।107।
एक सागर/ज्ञान का विज्ञान का/लहरा रहा/बूँद पाकर मूर्ख/एक इठला रहा।108।
  समग्रतः, ताँकांजलि में प्रकृति, परिवेश और जीवन पूरी शिद्दत के साथ प्रकट हुआ है। ताँकाकार का काव्य-कौशल, शब्द-चयन, विचारों का गुंफन और गाम्भीर्य मिल-जुल कर कृति की प्रासंगिकता को बढ़ा देते हैं तथा इसे निःसंदेह पठनीय और संग्रहणीय कृति बना देते हैं।
                                                                                                                      डॉ. राहुल मिश्र

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