अंतिम राय का सच : कहानियों से ज्यादा सच्चाई
‘अंतिम
राय का सच’, अपने इस नाम से ही बरबस अपनी ओर खींच लेने वाली कहानियों की नई
प्रकाशित पुस्तक त्रिलोक मेहरा की सृजनधर्मी लेखनी की उपज है। यह सन् 2019 में दिल्ली
के नमन प्रकाशन केंद्र से प्रकाशित हुई है। त्रिलोक मेहरा का नाम हिमाचलप्रदेश के
वरिष्ठ कथाकारों में आता है। हिमाचलप्रदेश के कांगड़ा जनपद के बीजापुर गाँव में
सन् 1951 में जन्मे त्रिलोक मेहरा की पारिवारिक पृष्ठभूमि मध्यमवर्गीय रही है।
स्वाभाविक रूप से उन्होंने मध्यमवर्गीय परिवारों के संघर्षों और चुनौतियों को उस
समय से देखा और भोगा है, जो देश की आजादी के बाद समग्र राष्ट्रीय चरित्र बने रहे
हैं। त्रिलोक मेहरा के दो अन्य कहानी-संग्रह- ‘कटे-फटे लोग’ और ‘मम्मी को छुट्टी
है’ प्रकाशित हो चुके हैं। इसके साथ ही उनका एक उपन्यास- ‘बिखरते इंद्रधनुष’ भी
सन् 2009 में प्रकाशित हो चुका है। कथा-साहित्य के अतिरिक्त हिमाचलप्रदेश की
लोकसंस्कृति, लोकजीवन और हिमाचली जन-जीवन के संघर्षों पर आधारित अनेक शोधपरक लेख
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। मेहरा जी की कई रेडियो वार्ताएँ और
कहानियाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित हो चुकी हैं। उनकी निरंतर सक्रियता और
साहित्यिक संलग्नता को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है।
त्रिलोक
मेहरा जी के साहित्यिक अवदान का परिचय यहाँ पर देना इसलिए आवश्यक लगा, क्योंकि एक
रचनाकार का भोगा हुआ यथार्थ, उसका देखा हुआ यथार्थ उसकी रचनाओं की विश्वसनीयता और
प्रामाणिकता को स्वतः सिद्ध करता है। साहित्य के साथ ही सामाजिक जीवन में निरंतर
संलग्न और सक्रिय रहने के कारण मेहरा जी की यह कृति अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है।
इसकी बानगी हमें संग्रह के शीर्षक से ही मिल जाती है। किसी भी कृति का शीर्षक अपना
पहला प्रभाव डालता है। अमूमन पुस्तक को खरीदते समय उसका शीर्षक देखकर एक छवि कृति
के संबंध में, कृति में संग्रहीत सामग्री के संदर्भ में बनती है। यह पहली दृष्टि
अपना विशेष महत्त्व भी रखती है, और प्रभाव भी उत्पन्न करती है। कृति के शीर्षक के
आकर्षण का यह पक्ष ‘अंतिम राय का सच’
में निखरकर आता है। कृति अपनी ओर आकृष्ट करती है- यह ऐसी कौन-सी अंतिम राय है,
जिसका सच व्यापक समाज के साथ जुड़ता है, यह प्रश्न एकदम मन में कौंध उठता है।
कहानी-संग्रह
का नाम जहाँ अपनी ओर खींचता है, वहीं दूसरी ओर संग्रह की प्रतिनिधि और
शीर्षक-कहानी भी कम प्रभावी नहीं है। ‘अंतिम
राय का सच’ कहानी उस अंतिम राय की बात करती है, जिसके बाद
सलाह-मशविरों के लिए जगह बचती नहीं है, और केवल निर्णय लेना ही शेष रह जाता है।
यही निर्णय कहानी के पात्र रमेश वर्मा और उसके साथियों की गरजती बंदूकों में दिखता
है। यह अंतिम राय कैसी है, उसकी बानगी तो कहानी के प्रारंभ में ही मिल जाती है- “वहाँ
अपने-अपने सुझावी भाषणों की तश्तरियाँ सभी आगे सरका कर खिसक गए थे, पर काम करने के
लिए कोई आगे नहीं आया था, और अगर आया था, तो वह था- रमेश वर्मा।” (पृ. 86) पहाड़ी
जीवन में, जंगलों के बीच ग्रामीण इलाके के किसान दयनीय जीवन जी रहे हैं। वे सभी
जीवधारियों पर आस्था रखते हैं, सभी जीवों के जीवन का सम्मान करते हैं, लेकिन
स्थितियाँ ऐसी जटिल हो चुकी हैं, कि किसानों का अपना जीवन ही संकट में फँसकर रह
गया है। उनके अस्तित्व पर ही संकट मँडराने लगा है। ऐसी दशा में उनके लिए सलाह
कितनी कारगर है, यह देखने का प्रयास कहानी करती है। नेताओं के पास सलाह के अलावा
कुछ भी नहीं है। संसद अपनी अंतिम राय देकर यह मान लेती है, कि उसकी जिम्मेदारियाँ
पूरी हो चुकी हैं, लेकिन इस अंतिम राय का सच किसी के हित में नजर नहीं आता है।
संग्रह
की शीर्षक-कहानी हिमाचलप्रदेश के सुदूरवर्ती गाँवों की उस जटिल समस्या की ओर संकेत
करती है, जिससे निबटने के लिए ग्रामीण समाज अपनी पुरातन परंपरागत जीवन-शैली के
विपरीत जाने को विवश होता है। हिमाचलप्रदेश के गाँवों में बंदरों के आतंक से
किसानों का जीवन दूभर हो गया है। उनके खेत, उनकी फसलें इतनी बुरी तरह से तबाह हो
रहीं हैं, कि उन्हें बंदूक उठाने को विवश होना पड़ रहा है। पर्यावरणप्रेमियों से
लगाकर धर्मभीरुओं तक सबकी अपनी दृष्टि है, लेकिन यह कहानी इन सबसे अलग हटकर
किसानों के नजरिये से देखती है। यही इस कहानी की विशिष्टता है।
समीक्ष्य
कृति में बारह कहानियाँ संकलित हैं। कृति की शीर्षक कहानी के साथ ही अन्य कहानियाँ
भी अलग-अलग तरीके से जीवन को देखती हैं, मन के भावों को पकड़ती हैं। संग्रह की
पहली कहानी है- ‘घर-बेघर’।
यह कहानी मोह में बँधे एक ऐसे पिता की विवशताओं को व्यक्त करती है, जिसका पुत्रमोह
पिता के साथ ही कई जिंदगियाँ बरबाद करता है। सुंदर, सुशील और कामकाजी जाह्नवी का
विवाह मानव से हुआ है। मानव शारीरिक रूप से विकलांग है, क्योंकि उसके एक ही किडनी
है। मानव के पिता इस सच्चाई को इसलिए छिपा लेते हैं, ताकि उनके बेटे का विवाह हो
सके। जाह्नवी इस सच्चाई को जान जाती है, और अपने भविष्य को देखते हुए नौकरी नहीं छोड़ना चाहती। यही जिद जाह्नवी के
चरित्र पर उंगली उठाने का कारण बनती है। मानव जाह्नवी का भावनात्मक भयादोहन करता
है। जाह्नवी इस दबाव में नहीं आती, और अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए अपने निर्णय
पर अडिग रहती है। वह मानव को अपनी किडनी नहीं देती। अंततः मानव की माँ उसे अपनी
किड़नी देती है। जाह्नवी अपना फर्ज निभाते हुए ससुराल आती है, लेकिन उसके प्रति
परिवार के लोगों की मानसिकता बदलती नहीं है। कहानी स्त्री-सशक्तिकरण को एकदम अलग
दृष्टि से देखती है। एक ओर जाह्नवी है, और दूसरी ओर मानव की माँ है। यहाँ स्त्री
ही स्त्री की विरोधी बन जाती है। जाह्नवी अपने बच्चों के लिए और अपने भविष्य के
लिए सजग-सचेत रहती है। उसकी सजगता परिवार को पसंद नहीं आती, दूसरी ओर जाह्नवी अपने
साथ हुए धोखे के बाद भी संबंधों को निभाने के लिए सदैव तत्पर रहती है।
‘समय
के साथ’ कहानी जातिवादी बंधनों में जकड़े समाज की
पड़ताल करती है, साथ ही समाज के दोहरे चरित्र को परत-दर-परत उघाड़ती है। कहानी की
नायिका हरप्रीत खुले विचारों वाली युवती है। हरप्रीत के पिता भी खुले विचारों वाले
हैं, लेकिन केवल अपने लिए...। अपनी बेटी के लिए वे दूसरे मानक गढ़ते हैं, निभाते
हैं। हरप्रीत के साथ हरदेव के संबंध को वे पचा नहीं पाते हैं। भुजंगा सिंह ने इसी
कारण अनेक वर्जनाएँ गढ़ रखी हैं। वे समाज में तिरस्कृत और अपमानित नहीं होना
चाहते। उन्हें इसकी चिंता रहती है। इस कारण वे हरप्रीत पर अपनी गढ़ी हुई वर्जनाओं
को लादते हैं। वे हरदेव को अपमानित करने का कोई मौका भी नहीं छोड़ते। कहानी दो
पीढ़ियों के वैचारिक टकराव को इतनी सहजता और साफगोई के साथ व्यक्त करती है, कि
समाज का कटु यथार्थ खुलकर सामने आ जाता है। कहानी में भुजंगा सिंह की पत्नी
सुरिंदर कौर का चरित्र दो पाटों के बीच पिसता हुआ दिखता है। हरदेव के पिता जातिवादी
सोच के खिलाफ खड़े दिखते हैं। भुजंगा सिंह अपनी बेटी को इतनी छूट देते हैं, कि वह
किसी सरदार से प्रेम करने लगे, लेकिन हरप्रीत की जिद के आगे वे विवश हो जाते हैं।
समाज में खिंची जातिवाद की विभाजक रेखाओं की गहराई को कहानी बखूबी आँकती है।
‘गोल्डी
के लिए केवल’ कहानी अपनी पूर्ववर्ती कहानी से आगे की कथा
कहती दिखाई पड़ती है। समाज में एक ओर जातिवाद की गहरी खाइयाँ हैं, जिन्हें पाटने
का प्रयास करता युगल ‘समय के साथ’
कहानी में है। दूसरी तरफ ‘गोल्डी के लिए केवल’
कहानी में आधुनिकता और उच्छृंखलता का दर्शन होता है। ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’
जैसी आयातित मानसिकता के कारण गोल्डी इस संसार में आता है। हरिओम और रचना के
उच्छृंखल संबंध समाज में स्वीकार्य नहीं हैं, फिर भी आधुनिकता के फेर में वे उस
स्थिति में पहुँच जाते हैं, जिसका सबसे पहला असर नवजात गोल्डी पर पड़ता है। इसके
बाद रचना इस दंश को भोगती है। हरिओम के परिवार से उसे कोई सहारा नहीं मिलता। रचना
के लिए समाज के ताने-उलाहने तो हैं ही, साथ ही गोल्डी को पालने की चुनौती भी है।
यही चुनौती उसे इतना शातिर बना देती है, कि वह अपनी सीमाएँ लाँघकर ओमप्रकाश के
परिवार को बरबाद करने में पीछे नहीं हटती। अपने लिए एक सहारा खोजती महिला दूसरी
महिला के सहारे को किस तरह छीन लेती है, उस स्थिति को यह कहानी बड़ी शिद्दत के साथ
प्रकट करती है। ओमप्रकाश को उसकी पत्नी सविता से दूर करना रचना का एकमात्र लक्ष्य
बन जाता है। ओमप्रकाश का जीवन भी एक समय के बाद ऐसे अवसाद और दुःख से भर जाता है,
जो आधुनिकता की उच्छृंखलता के दुष्परिणामों की ओर संकेत भी करता है, सावधान भी
करता है। रचना अत्यंत जटिल व्यक्तित्व वाली महिला के रूप में कहानी में दिखाई देती
है। विवाहेतर संबंधों की विद्रूपताएँ भी कहानी में दिखाई पड़ती हैं।
उच्छृंखल
यौन-संबंधों पर केंद्रित ‘एफ.आई.आर.’ कहानी
की नायिका एक बालिका है। वह कम उम्र की है, और ‘गोल्डी
के लिए केवल’ की पात्र रचना जैसी शातिर नहीं है। इसी कारण
वह भावनाओं में बह जाती है, और भानु के छलावे में फँस जाती है। उसका मन एक ओर अपने
बूढ़े दादा से धोखेबाजी करते हुए भयभीत होता है, लेकिन दूसरी तरफ उस पर भानु के छलावे
का फंदा इतना मजबूत होता है, कि उसके लिए निकल पाना आसान नहीं रह जाता। कहानी
कमउम्र बालिका की मनःस्थिति को बखूबी व्यक्त करती है। अंत में उसके द्वारा सारी
सच्चाई को ईमानदारी के साथ अपने बूढ़े दादा से बताया जाना आश्वस्त करता है, कि
जीवन के संघर्षों से हार मानने के स्थान पर चुनौतियों का डटकर सामना करना अच्छा विकल्प
है। जहाँ एक ओर इस कहानी में पारिवारिक संबंधों की सुदृढ़ता है, वहीं दूसरी ओर
समीक्ष्य कृति की अन्य कहानी- ‘अखाड़ा’
में संबंधों के बीच पसरी चालबाजियों की बिसातें हैं। कहानी स्वार्थ में पड़कर आपसी
रक्त-संबंधों और पारिवारिक मर्यादाओं को नष्ट कर देने वाली मानसिकता को प्रकट करती
है।
‘अखाड़ा’
में गाँव के फौजी का दामाद भी फौजी है और उसने अपनी ससुराल में सास-ससुर की जमीन
में कब्जा कर रखा है। घर से बेटा और बहू बेदखल हो चुके हैं। बेटे और बहू को अपने
दिवंगत पिता के लिए सहानुभूति है, किंतु बड़डेला, यानि फौजी का दामाद उन्हें दूर
ही रखना चाहता है। जब वह कहता है, कि- “हम
लाशों से खेलते आए हैं। क्या हुआ, यह अपने घर की लाश है।” तब
परिवार और आपसी संबंधों की मर्यादाओं का बिखराव, उनकी टूटन पाठक के अंतस् में
उतरकर जम जाती है। कथाकार ने इस स्थिति को बड़ी कुशलता के साथ कहानी में समेटा है।
समीक्ष्य
कृति में ‘नखरो नखरा करेगी’
कहानी एकदम अलग तरीके से समाज का चित्रण करती है। इसमें महिलाएँ हैं, जो बिशनी के
नेतृत्व में संगठित हो रही हैं। उनके संगठित होने का कारण समाज में महिला
सशक्तिकरण नहीं, बल्कि स्वयं को साक्षर और समर्थ बनाना है। कहानी किसी भी तरह से
उस महिला-सशक्तिकरण का परचम नहीं उठाती, जिसके नाम पर बड़े-बड़े आंदोलन चलाए जाते
हैं। यहाँ गाँव की महिलाएँ स्वतः प्रेरित हैं, और उन्हें केवल मार्गदर्शन मिल रहा
है, वह भी अपने बीच की ही बिशनी के माध्यम से...। बिशनी के सहयोग के लिए नखरो चाची
आगे आती हैं। नखरो चाची का व्यक्तित्व भी बहुत साधारण-सा है। वह बिशनी और तोमर से
प्रेरित होती है, और केवल इसी कारण महिलाओं को शिक्षित करने के लिए चलाए जाने वाले
अभियान से जुड़ती है, बाद में पढ़-लिख भी जाती है।
समीक्ष्य कृति में ‘हाय
कूहल’ और ‘टिटिहरियाँ’
एकदम अलग तासीर की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में हिमाचलप्रदेश का लोकजीवन ही नहीं
झलकता, वरन् हिमाचलप्रदेश में आती बदलाव की बयार के बीच बिखरते प्रतीकों की
असह्य-दुःखद पीड़ा भी झलकती है। कूहल और घराट की थमती आवाज के पीछे आधुनिक
संसाधनों का पैर पसारना है। दीनानाथ कोहली, जिनका उपनाम ‘कूहल’
से बना है, आज केवल यही एक पहचान शेष रह गई है, क्योंकि कूहल तो कब के शांत हो गए।
घराट भी नहीं बचे। पहाड़ में गरजते बुलडोजर की आवाज लोगों के मन में संदेह पैदा
करती है। जिनके घर में पीहण रखा है, वे जरा निश्चिंत दिखते हैं। जिन लोगों के पीहण
नहीं पिसे हैं, वे कूहल के लिए चिंतित होते हैं। सभी को कोहली से...घराटी से आशा
है, कि वह कुछ करेगा-
क्या
करें अब? पीहण, पत्थर और पनिहारिये सब गूँगे, ठगे से पड़े थे। पर कब तक? वे उदास
होने के लिए नहीं आए थे। उस चुप्पी को उनमें से किसी ने तोड़ा-
“कोई
मर गया है क्या? कुछ बोलो।”
“हाँ,
कुछ गाओ।”
दूसरी आवाज थी।
“क्या
गाएँ? गाने सारे घराट ने चुरा लिए।”
अनपीसे पीहण वाला रोया।
“तो
चिल्लाओ।”
दीनानाथ
कोहली के सामने चल रहा संवाद उस अंधकारमय भविष्य का खाका खींचता है, जो सबसे
ज्यादा घना-गहरा दीनानाथ के सामने है। दीनानाथ उस बड़े वर्ग का प्रतिनिधि है,
जिसका जीवन गाँव के देशी-घरेलू उद्योगों के सहारे चलता है। देशी तकनीक के ऊपर चल
रहा बुलडोजर गाँव की अपनी पहचान को, घराट को खा चुका है... कूहल के गाने को शांत
कर चुका है। अब केवल आधुनिक होते गाँव में परंपरा के टूटने की चिल्लाहट ही शेष बची
है।
‘टिटिहरियाँ’ विकास
की अंधी दौड़ की सच्चाई को खोलती है। बाँध का निर्माण विकास के प्रतिमान भले ही
गढ़े, लेकिन इसके कारण किसानों को अपनी जमीनों से वंचित होना पड़ रहा है। वन काटे
जा रहे हैं। प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट हो रहा है। मंगतराम, जगतराम और विश्नो ताई आदि
ग्रामीणों ने विकास की जिस कीमत को चुकाया है, उसका पूरा आकलन यह कहानी करती है।
किसानों को मुआवजे की रकम के लिए सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाना पड़ रहा है।
सरकारी कर्मचारियों और ठेकेदारों का गठजोड़ किसानों के मुआवजे को भी हड़प जाना चाहता
है। बच्चों को सरकारी नौकरी जैसे वायदे तो दूर की कौड़ी बन गए हैं। किसानों और
बाँध बनने के कारण विस्थापित होने वाले लोगों के विरोध को दबाने के लिए ठेकेदारों
के गुर्गों के साथ खाकी वर्दी भी मिल गई है। पूरे परिवेश में विस्थापित जन-समुदाय
की निराशा का अंधकार घना होता जा रहा है- ‘हम
दुत्कारे हुए जीव थे। आज तक रोते रहे हैं। अब यह लोहदूत हमें पाटने आ गया है। पचास
साल कम नहीं होते। काम करने की पूरी जिंदगी होती है। यहाँ बसाने की कतरने अभी भी
हमारे पास हैं, इस जगह सो सँवारा है, सजाया है। कहाँ जाएँ अब?’
यह प्रश्नचिन्ह उन तमाम विस्थापितों के जीवन के सामने लगा हुआ है, जिन्हें
अनियंत्रित विकास ने अपनी जड़ों से उखाड़ दिया है। कहानी बड़ी सहजता के साथ आज के
इस जटिल प्रश्न को उठाती भी है, और पाठक के मन को उद्वेलित भी करती है।
समीक्ष्य
कृति में ‘भ्यागड़ा’
और ‘कब्र से बोलूँगा’,
ऐसी कहानियाँ हैं, जो आतंकवाद के दो अलग-अलग चेहरों को सामने लाती हैं। ‘भ्यागड़ा’
ऐसे गीत को कहते हैं, जो सुबह के समय गाया जाता है। यह शीर्षक कई अर्थों में कहानी
के कथ्य को सामने लाता है। धर्मांधता की काली और अँधेरी रात के बीत जाने के बाद जो
सुबह आएगी, उसे भ्यागड़ा के सुर से सजाया जाएगा। यह कहानी एक आशा का संचार करती
है, जो आतंक का शमन कर सकेगी। कहानी का पात्र याकूब मागरे भले ही भटकाव में आकर
आतंक के साथ हो लिया हो, लेकिन आतंक के कारण उसके जीवन पर कसता शिकंजा उसे सोचने
को विवश कर देता है, और फिर वह अपने पुराने जीवन की ओर लौट चलता है। उसकी बाँसुरी
फिर से भ्यागड़ा की धुन गुनगुनाने लगती है। धार्मिक कट्टरता के नाम पर गीत-संगीत,
वेश-परिवेश पर लगाए जाने वाले बंधनों को, बंदिशों को याकूब नकार देता है।
‘कब्र
से बोलूँगा’ का याकूब मोहम्मद भी धर्मांधता और आतंकवाद के
चंगुल में फँसता है। पहाड़ों में जीवन सरल नहीं होता। वहाँ मजदूरी करने वाले लोगों
पर पुलिस भी शक करती है, और छिपे हुए आतंकी भी। इन जटिल स्थितियों के बीच आतंकवाद
और आतंकियों से दूर रहने के स्थान पर उनके साथ हो जाने की स्थिति को गाँववाले
देखते हैं। सड़क-निर्माण में मजदूरी करने वाला याकूब मोहम्मद आतंकियों की गिरफ्त
में इस तरह आता है, कि उसके सोचने-समझने की शक्ति ही समाप्त हो जाती है। रामलीला
में सुग्रीव की भूमिका निभाते हुए वह सच में बालि का वध करने को उद्यत हो जाता है।
कहानी आतंकवाद की उस मनःस्थिति को परखने की कोशिश करती है, जिसके कारण समाज में
मिल-जुलकर रहने वाला सामान्य-सा व्यक्ति भी आतंकी बन जाता है।
समीक्ष्य
कृति की अंतिम कहानी है- ‘छोटू’।
यह कहानी भी कई परतों में समाज की विषमताओं को खोलती है। गाँव में रहने वाले
सीधे-सादे छोटू को शहर की चकाचौंध अपनी ओर खींचती है। गाँव को छोड़कर शहर जाने
वाला छोटू शहर में संपन्न और शहरी तो नहीं बन पाता, उल्टे घरेलू नौकर बनकर शाह
पत्रकार के घर में सिमट जाता है। कहानी उस ज्वलंत मुद्दे को उठाती है, जिसकी चर्चा
अकसर सुर्खियों में आ नहीं पाती, लेकिन समाज में ऐसी स्थितियाँ शिद्दत के साथ देखी
जा सकती हैं।
संग्रह
में संकलित सभी कहानियाँ एक बड़े फलक पर अलग-अलग चित्रों को समेटती हैं। हिमाचल के
लोकजीवन को समेटने के साथ ही मन-मानसिकता में आते बदलावों को कहानियों में देखा जा
सकता है। कहानीकार त्रिलोक जी ने हिमाचल के लोकजीवन से जुड़े अनेक शब्दों का
प्रयोग करके संग्रह को विशिष्ट बनाया है। कूहट, घराट, पीहण, टल्ली, कुकड़ी, टब्बर,
छकराट, खिंद और भ्यागड़ा जैसे शब्द हिमाचल की अपनी बोली-बानी के साथ पाठक को
जोड़ते हैं।
सरल-सहज और प्रवाहपूर्ण भाषा के साथ ही रोचक शैली के साथ हरएक कहानी अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है। ‘भ्यागड़ा’ और ‘कब्र से बोलूँगा’ कहानियाँ अपना विशिष्ट महत्त्व रखती हैं, क्योंकि ये कहानियाँ अनागत के भाव को व्यक्त करने वाली हैं। कल के सुख की कामना वह विशिष्ट भाव है, जो साहित्य को दिशा-निर्देशक बनाता है। आतंकवाद की विभीषिका के बीच जो सुखद भविष्य दिख रहा है, वह इन कहानियों में महत्त्वपूर्ण है। साहित्य की समकालीन चिंतनधाराओं, प्रवृत्तियों और विमर्शों का अत्यंत सहज रूप इन कहानियों में दिखता है। कथ्य की विशिष्टता और सामयिक यथार्थ से निकटता समग्र कहानी-संग्रह की निजी विशेषता है। इसी कारण समीक्ष्य कृति पठनीय भी है और संग्रहणीय भी है।
समीक्ष्य
कृति- अंतिम राय का सच / त्रिलोक
मेहरा /
नमन प्रकाशन, नई दिल्ली /
प्रथम संस्करण 2019 /
मूल्य 250 रुपये /
पृष्ठ-134
(हिमप्रस्थ,
शिमला, वर्ष- 64-65, मार्च-मई, 2021, अंक- 11/12/1, संपादक- नर्बदा कँवर)
डॉ. राहुल मिश्र