निर्मल मन जन सो मोहिं पावा
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे ।
ज्ञानं विज्ञानसहितं
यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।1।।
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् ।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं
सुसुखं कर्तुमव्ययम् ।।2।।
श्रीमद्भगवद्गीता के नवें अध्याय के प्रारंभ में श्रीकृष्ण और
अर्जुन के मध्य संवाद होता है। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- हे अर्जुन! तुम दोष-दृष्टि
से रहित मेरे परम भक्त हो, इसलिए इस परम गोपनीय ज्ञान को, जो विज्ञान से परिपूर्ण
है, तुमसे भली-भाँति कहूँगा। इस ज्ञान को जानकर तुम इस दुःखरूपी संसार से मुक्त हो
जाओगे। विज्ञान से परिपूर्ण यह ज्ञान सभी विद्याओं में श्रेष्ठ है, सभी रहस्यों का
रहस्य है, अत्यंत पवित्र और उत्तम है। यह ज्ञान प्रत्यक्ष फल देने वाला और धर्म से
युक्त है। इस ज्ञान की साधना बहुत सरल है और इस ज्ञान का विनाश कभी नहीं होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ज्ञान, धर्म, भक्ति,
शरणागति और योग आदि को बताने से पहले इनकी गोपनीयता, रहस्यमयता और इनके गूढ़ होने की
ओर संकेत करते हैं। भक्ति, विज्ञान और नीति से जुड़े तत्त्वों का समग्र ज्ञान स्वयं
में रहस्य से पूर्ण होता है और भक्ति, ज्ञान, तर्क या फिर नीति में से किसी एक के
होने मात्र से ही इस रहस्य को नहीं जाना जा सकता। इसके लिए सर्वांगपूर्ण होना
आवश्यक है। इसी आधार पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस ज्ञान की प्राप्ति हेतु उपयुक्त
पात्र जानकर ही उसे इसका उपदेश दिया। वह भी तब, जब उसने इसे जानने की अपनी उत्कट
अभिलाषा प्रकट की।
इस ज्ञान के अव्यय-भाव की ओर भी श्रीकृष्ण संदेश देते हैं-
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मन्वे प्राह
मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।।1।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो
विदुः ।
स कालेनेह
महता योगो नष्टः परंतप ।।2।।
मैंने इस अविनाशी योग का वर्णन सूर्य से किया था। सूर्य ने
इसे अपने पुत्र वैवस्वत मनु से बताया और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को
बताया। हे परंतप अर्जुन! इस तरह परंपरा से प्राप्त इस अव्यय ज्ञान को राजर्षियों
ने जाना और उसके बाद यह ज्ञान धरती पर बहुत समय तक लुप्तप्राय ही रहा। अब तुमको यह
ज्ञान देकर सनातन परंपरा को पुनः स्थापित करूँगा।
श्रवण के माध्यम से गूढ़ रहस्य-ज्ञान के संचरण की परंपरा
तुलसी के श्रीरामचरितमानस में भी है। राम-चरित के रचयिता भगवान शिव से भगवती
पार्वती, महर्षि लोमश, लोमश ऋषि से काकभुशुंडि, काकभुशुंडि से याज्ञवल्क्य और
याज्ञवल्क्य से महर्षि भरद्वाज ने रामकथा को सुना। यह रामकथा तुलसीदास ने सूकरखेत
में अपने गुरु से सुनी। इस रामकथा को बाबा तुलसी ने जनसामान्य की भाषा में सरल,
सहज, सुगम और सुबोध ढंग से लिखा, जो श्रीरामचरितमानस के रूप में पूर्ण हुई।
काल की गति को मापने वाली वृहदतम इकाइयों तक विस्तृत गूढ़,
गुह्य, रहस्यपूर्ण विपुल ज्ञानराशि के प्रतिनिधि- श्रीमद्भगवद्गीता और
श्रीरामचरितमानस इसी कारण सामान्य-से और साधारण-से धर्मग्रंथ-मात्र नहीं हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता में आराधक और आराध्य के संवाद हैं, एक जिज्ञासु की जिज्ञासाएँ और
उनके समाधान हैं तथा विषय का सम्यक्, सर्वांग निरूपण है। इस कारण गीता के अनुशीलन
में विद्वानों को भटकना नहीं पड़ता है। इसके विपरीत श्रीरामचरितमानस में राम के
चरित्र के सहारे और रामकथा के अन्य पात्रों के माध्यम से बाबा तुलसी ज्ञान के गूढ़
रहस्य को स्थापित करते हैं।
मानस के प्रारंभ में ही बाबा तुलसी अपनी विनम्रता प्रकट
करने के साथ ही रामकथा के गूढ़ तत्त्व की विवेचना करते हैं-
श्रोता बकता ग्याननिधि
कथा राम कै
गूढ़ ।
किमि समुझौं मैं जीव जड़, कलि मल ग्रसित बिमूढ़ ।।1/30
(ख)।।
बाबा तुलसी की यह आत्मस्वीकार्यता रामचरित की गुह्यता और
उसकी रहस्यमयता को स्पष्ट करने में सक्षम है। अपने विवेक से, अपने आत्मबोध से और
अपनी सामर्थ्य से बाबा तुलसी रामकथा के गूढ़ तत्त्वों को जितना समझ पाए थे, वह भी
उन्हें पर्याप्त नहीं लगा था और भ्रम में पड़ जाने का संदेह भी उन्हें था; संभवतः
इसी कारण उन्होंने रामकथा को गूढ़ कहकर उसके स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया
होगा। दूसरी ओर, कलिकाल की मूढ़ता से ग्रस्त अज्ञानी और जड़ जीव के लिए रामकथा को
उसके वास्तविक अर्थ में ग्रहण कर पाने, समझ पाने की कठिनतम स्थितियों को भी बाबा
तुलसी ने बड़ी सरलता के साथ स्पष्ट कर दिया था।
बाबा तुलसी का मानस आमजन के लिए, आम लोगों की भाषा में,
समग्र लोकसंस्करण की भूमिका में है। वाल्मीकि रामायण, आनंद रामायण, अध्यात्म
रामायण और ऐसे ही अनेक क्लिष्ट महाग्रंथों के रस-संचयन के उपरांत, सगुण-निर्गुण
ब्रह्म के लोक में निरूपण के उपरांत तुलसी का यह लोकमहाकाव्य कहीं लोकरंजन की
वस्तु-मात्र बनकर न रह जाए, ऐसी चिंता तुलसी के मन में बार-बार उठती रही; और इसी
के फलस्वरूप वे राम की कथा को गूढ़, गुह्य, रहस्यपूर्ण कहकर इसके आध्यात्मिक,
पारमार्थिक महत्त्व को स्थापित करने का निरंतर प्रयास करते रहे। यह प्रयास उस
परंपरा का भी अंग था, जो श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन को
उपदेश देने से पहले निभाई गई थी।
जिस ज्ञान, विज्ञान, भक्ति, शरणागति के साथ विश्वकल्याण की,
मानवता के उद्धार की, समाज के सच्चे-सात्विक विकास की अवधारणा जुड़ी हो और जो
ज्ञान मोक्ष या मुक्ति या निर्वाण जैसी स्थितियों की प्राप्ति का माध्यम हो, उसे
सामान्य या प्रचलित पद्धति में न तो बताया जा सकता है और न ही ग्रहण किया जा सकता
है। ऐसे ज्ञान को ग्रहण करने के उपायकर्त्ता की पात्रता के विषय में चिंतित होना
अत्यंत सामान्य बात है। इसी चिंता के कारण ज्ञान को बाँटने से पहले उसकी गुह्यता
का, उसके रहस्य और गूढ़ता का वर्णन करके ज्ञान की महत्ता को रेखांकित किया जाना
अनिवार्य बन जाता है। तुलसीदास जैसा विलक्षण और क्रांतिदृष्टा संत स्वयं को ‘जीव
जड़’ और ‘कलिमल ग्रसित बिमूढ़’ कहकर अपनी अपात्रता को बताने का प्रयास करता है। यह
भले ही उनकी विनम्रता हो, मगर इस कथन में निहित भाव को गूढ़-गुह्य ज्ञान की महत्ता
के संदर्भ में देखा जाना अपेक्षित होगा।
गूढ़ता, गुह्यता, रहस्यमयता और अर्थ-सघनता के प्रति बाबा
तुलसी का आग्रह उस तत्त्व को स्थापित करने के आशय से है, जो सांसारिक
दुःखों-कष्टों, वेदनाओं, विकारों के त्रिस्तरीय परिहार के लिए अत्यंत आवश्यक है।
जब उस तत्त्व की स्थापना समाज में हो जाती है, जब रामराज्य स्थापित हो जाता है, तब
मनुष्य दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से, त्रिस्तरीय बंधनों से मुक्त हो जाता है।
यही तो रामराज्य की विशेषता है-
दैहिक, दैविक भौतिक तापा । रामराज्य नहिं काहिहु व्यापा ।।
रामराज्य पर महात्मा गांधी ने भी बहुत जोर दिया है। जब रामराज्य
की स्थापना और उसकी अवधारणा की चर्चा होती है, तब अनेक चिंतक-विचारक धार्मिक
संकीर्णता के छद्म आवरण में अवरुद्ध होकर
धर्मविशेष-मात्र की प्रभुसत्ता या वर्चस्व को देखने लगते हैं। महात्मा
गांधी ने अपने जीवन-दर्शन को, अपने अनुभवों को, और भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व के
कल्याण के हेतु अपने विचारों को ‘हिंद स्वराज’ में संकलित कर दिया है। ‘हिंद
स्वराज’ गांधी दर्शन का सार है। इसमें रामराज्य की अवधारणा है, इसकी स्थापनाएँ
हैं। इसमें बाबा तुलसी और बापू के राम के उस तत्त्व की विवेचना है, जिसमें त्रिविध
तापों को दूर करने की क्षमता निहित है। इसमें राम के उस तत्त्व की विवेचना है, जो
व्यष्टि से लगाकर समष्टि तक कल्याण की सामर्थ्य रखता है। बापू जीवन-पर्यंत इस राम
तत्त्व की साधना करते रहे। उनके जीवन का अंतिम उद्गार भी ‘हे राम!’ था। बापू के
राम किसी धर्म, मत, पंथ, संप्रदाय-विशेष के राम नहीं थे। इसी कारण उनके व्यक्तित्व
का विस्तार सारे संसार में आज भी है।
बापू के राम, बाबा तुलसी के राम और उनकी गूढ़ कथा को समझने के
लिए राम के त्रिविध स्वरूप को, और राम की त्रिस्तरीय भूमिका को जानना आवश्यक होगा।
गूढ़ता, गुह्यता और रहस्यमयता यही है। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी
तिन्ह तैसी । और निर्मल मन जन सो मोहिं पावा, मोहिं कपट छल छिद्र न भावा ।
आदि पंक्तियों के माध्यम से बाबा तुलसी राम के गूढ़, गुह्य और पारमार्थिक
कल्याणकारी तत्त्व की प्राप्ति की पात्रता को स्पष्ट करते हैं। जो इस पात्रता को
पूरा नहीं कर पाता, वह राम के स्वरूप को, राम तत्त्व को एकांगी-एकपक्षीय देखता और
जानता-समझता है। वह भ्रम में पड़ जाता है। तब या तो वह कट्टर धार्मिक हो जाता है,
या फिर कट्टर अधार्मिक बनकर रह जाता है।
राम का आधिभौतिक स्वरूप सामान्य मानव की भाँति सांसारिक
क्रियाकलापों में विन्यस्त है। संसार के षड्यंत्रों, प्रपंचों, अपराधों, कुकर्मों
और आसुरी प्रवृत्तियों से जूझता और परास्त करता राम का आधिभौतिक स्वरूप सामान्य और
सहज बुद्धि वालों के लिए सुग्राह्य बन जाता है। लोक में राम की लीला राम के प्रति
भक्तिभाव को जन्म देती है। आधिदैविक राम तत्त्व विष्णु का अवतार है, शिव का आराध्य
है, इसलिए पूज्य है। नारायण की नर-लीला भक्ति में नया आयाम जोड़ती है। आधिदैविक
राम तत्त्व से आधिभौतिक राम तत्त्व पुष्ट होता है, इस कारण सांसारिक क्रियाकलाप,
असुरों का संहार और ऐसे अन्यान्य क्रियाकलाप बड़े चमत्कारिक ढंग से कुशलतापूर्वक
संपन्न होते हैं। बाबा तुलसी के मानस में यह पक्ष तुलसी की राम के प्रति अनन्य
भक्तिभावना के कारण पुष्ट होती है, जबकि वाल्मीकि रामायण में राम का आधिदैविक तत्त्व
सामान्य मानव के अधिक समीप का दिखता है। राम का आध्यात्मिक तत्त्व ऐसे उत्कृष्टतम
स्तर पर है, जिसने राम को मर्यादा की स्थापना करने वाले उत्तम पुरुष की श्रेणी में
स्थापित किया है। राम के आध्यात्मिक
तत्त्व में ही वह गूढ़ता, गुह्यता निहित है, जिसे निर्मल मन के बिना पाया
नहीं जा सकता, जाना भी नहीं जा सकता। ऐसा निर्मल मन विभीषण का था। जीवरूपी विभीषण
सांसारिक आसक्ति, कामना और वासना की प्रतिरूप लंका में मोह, लोभ, द्वेष, कपट आदि
के बीच छटपटाता है। जब कभी उसका विवेक उसे वैराग्य रूपी हनुमान के माध्यम से उसे
कामना रहित धर्म की, विकार रहित मर्यादा की, सच्ची मानवता की और नीति-आदर्श के
वास्तविक स्वरूप की प्राप्ति का मार्ग सुलभ कराता है, तब उसकी परिणति राम की
शरणागति के रूप में होती है।
राम का आधिभौतिक तत्त्व सार्थक और निष्काम कर्म के ज्ञान के
प्रतीक महाराजा दशरथ और भक्तिस्वरूपा माता कौशल्या के माध्यम से उपजता है, जो विजय
और विभूति की प्राप्ति के लिए जीवनपर्यंत धर्म का पालन करता है, मानवता की रक्षा
करता है, जीवन के उच्चतम आदर्शों को, मर्यादाओं को स्थापित करता है; तथा यम-नियम
रूपी दिग्पालों को मोहरूपी रावण से मुक्त कराकर मोक्ष का मार्ग दिखाता है। इस राम तत्त्व
में परहित को धर्म से श्रेष्ठ और परपीड़ा को अधर्म से भी ज्यादा निकृष्ट बताकर
जगत्कल्याण की जैसी भावना स्थापित की गई है; वह राम, अर्थात् मर्यादा और धैर्य,
अर्थात् सीता के बिना संभव नहीं है।
मानस में अनेक स्थानों पर उपदेश देने के प्रसंगों के माध्यम
से बाबा तुलसी ने राम के आध्यात्मिक तत्त्व की स्थापनाएँ की हैं। इसके साथ ही
अज्ञान के अंधकार से आवृत्त जड़ जीव को ज्ञान का दीपक जलाकर तथा भक्ति की चिंतामणि
को फेरकर शाश्वत प्रकाशपुंज का अंश बनने का उपदेश बाबा तुलसी उत्तरकांड में देते
हैं।
राम का आध्यात्मिक तत्त्व राम और रावण के ऐतिहासिक या
पौराणिक अस्तित्वमात्र को मानकर ही नहीं चलता, वरन् राम और रावण के शाश्वत स्वरूप
को व्याख्यायित करता है। प्रत्येक मनुष्य में राम और रावण हैं। प्रत्येक मानव के
आध्यात्मिक धरातल पर राम-रावण संग्राम भी चल रहा है। इस संग्राम का प्रतिफल मानव
के कार्य-व्यवहार, आचरण, जीवन-शैली, वाणी, विचार और संबंध में प्रकट होता रहता है।
इसी कारण भौतिक स्तर पर राम का भक्त दिखने वाला कोई भक्त अपने अभौतिक रूप में,
अपने अचेतन में रावण का भक्त भी हो सकता है। ऐसे भक्तों को प्रभु की मूरत उनकी
अपनी अज्ञानता के कारण वैसी ही दिखती है।
दूसरी बात आत्मबल और कर्म पर एकाग्रनिष्ठा की है। महाभारत
के प्रसंग में विकट धनुर्धारी अर्जुन ने कर्म पर एकाग्रनिष्ठ और लक्ष्य पर एकाग्र
होने की अपनी क्षमता का प्रदर्शन द्रोपदी स्वयंवर के समय मछली की आँख पर निशाना
साधकर कर दिया था। उसके अंदर आत्मबल और कर्मबल की शक्तियाँ तो थीं, किंतु
सुषुप्तावस्था में थीं। श्रीकृष्ण को इसका आभास था, इस कारण कर्मयोग का उपदेश देकर
उन्होंने अर्जुन की सुषुप्त शक्तियों को जागृत किया। कृष्ण को अर्जुन और अर्जुन को
कृष्ण न मिलते, तो महाभारत का युद्ध तब भी नहीं जीता जा सकता था, और आज भी नहीं
जीता जा सकता है।
कृष्ण को छलिया-प्रपंची मानने वाली; और साथ ही विभीषण को
देशद्रोही, राम को शम्बूक वध का अपराधी देखने वाली आधुनिकताबोधी दृष्टि राम के
गूढ़, गुह्य तत्त्व को उसके वास्तविक रूप में ग्रहण न कर पाने के कारण भटक जाती
है। यह भटकाव धर्मभीरुता या धार्मिक कट्टरता या फिर धार्मिक विद्वेषजन्य विषमता को
जन्म देता है। ऐसे में बाबा तुलसी के राम, बापू के राम और उनका रामराज्य समझ से
परे हो जाता है।
राम के भौतिक तत्त्व से अधिक प्रबल राम का आध्यात्मिक
तत्त्व है, क्योंकि वही जीवन के सच्चे, सार्थक, शाश्वत मूल्यों को, मर्यादा को,
नैतिकता और आदर्श को युगों-युगों तक संरक्षित रख सकने की सामर्थ्य रखता है। इसी
कारण राम से बड़ा राम का नाम है। इसी कारण बापू के राम ने ऐसे रामराज्य की
परिकल्पना स्थापित की थी, जो इस विश्व को सुंदर बना सकता था। इसी कारण बाबा तुलसी
ने अपने जीवन के अनेक कठिन संघर्षों को, विभीषिकाओं को धर्मानुरूप और सम्यक् भाव
से विजित करने की क्षमता पाई थी। इस गूढ़ तत्त्व को समझकर; राम को नहीं, राम के
नाम को जानकर कोई भी मनुष्य अपने जीवन को मोक्ष का पर्याय बना सकता है। इसके लिए
गुह्य-गूढ़ ज्ञान को जानने की पात्रता को उपजाना होगा और उसके बाद दोनों
महाग्रंथों- श्रीमद्भगवद्गीता और श्रीरामचरितमानस के मूल रस का आस्वादन करके जीवन
को सार्थक और कल्याणकारक बनाया जा सकता है।
-राहुल मिश्र
(राष्ट्रधर्म, लखनऊ के
जून, 2023 अंक में प्रकाशित)