Wednesday 11 February 2015

एक देश के ‘पिघलते’ अस्तित्व की दास्तान

एक देश के ‘पिघलते’ अस्तित्व की दास्तान
हिंदी कथा-साहित्य-जगत् में कामतानाथ का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है। वे जितने बढ़िया कथाकार हैं, उतने ही उम्दा उपन्यासकार भी हैं। समग्रता और बड़ी सरलता के साथ वर्तमान के जटिल यथार्थ को जितनी बेबाकी के साथ वे अपनी कहानियों में प्रस्तुत कर देते हैं; वही खुलापन, संपूर्णता, सहजता और यथार्थ का प्रामाणिक प्रस्तुतीकरण उनके उपन्यासों में दिखाई देता है। चाहे ‘एक और हिंदुस्तान’ हो या फिर धार्मिक पाखंड पर केंद्रित ‘समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की’, दोनों उपन्यासों में वे समय की ज्वलंत समस्याओं से टकराते नजर आते हैं। स्वाधीनता संग्राम को केंद्र में रखकर लिखे गए उनके बहुचर्चित उपन्यास ‘काल-कथा’ के माध्यम से वे यथार्थवादी और जमीनी हकीकतों से रू-ब-रू कराते उपन्यासकार के रूप में स्थापित होते हैं। कामतानाथ का ताजा उपन्यास ‘पिघलेगी बर्फ’ उनके इसी लेखकीय कौशल का विस्तार है। इस उपन्यास में एक देश के स्वर्णिम अतीत से लेकर दयनीय वर्तमान तक का समूचा आख्यान है।
दुर्गम इलाकों की जोखिम भरी यात्राओं के वृत्तांत के रूप में रचित कामतानाथ का यह नया उपन्यास- ‘पिघलेगी बर्फ’ हिमालय की तराई में बसे तिब्बत देश की संस्कृति और अस्तित्व के स्वर्णिम अतीत व क्रमिक विनाश के दयनीय वर्तमान को समग्रता के साथ प्रस्तुत करता है। समीक्ष्य उपन्यास में तिब्बती जनमानस के विशद विवरण, तिब्बत की सामाजिक-सांस्कृतिक विशिष्टताओं के साथ ही राजनीतिक कारणों और बड़े-शक्तिशाली देश की सत्तालोलुपता के कारण तिब्बत के अस्तित्व की मार्मिक पतनगाथा को सहज, सरल और रोमांचक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। उपन्यास के नायक की जोखिम भरी दुर्गम पहाड़ी यात्राओं के साथ ही कथा का विस्तार होता है, साथ ही जीवन-संघर्ष की विकट स्थितियों से साक्षात्कार भी होता है।
कथानायक घर छोड़कर भागता है और ब्रिटिश फौज में भरती हो जाता है। फौज के साथ लंबी समुद्री यात्राओं, देश में चलती स्वाधीनता संग्राम की लहर, आजाद हिंद फौज के गठन की सूचनाओं के साथ ही लड़ाइयों और फौजी कार्यवाहियों से थक-हारकर कथानायक का पलायन होता है। बर्मा, आसाम और मलाया के बीहड़ों-जंगलों में भटकते हुए और फिर बर्फीले, दुर्गम पहाड़ी-मैदानी रास्तों से होते हुए तिब्बत तक के लंबे मार्ग में जिंदगी और मौत से जूझते कथानायक का भगोड़ापन और पलायन की प्रवृत्ति, परिस्थितियों से डरकर भागते रहने की स्थितियाँ बेशक अलग ‘थीम’ है, किंतु यात्राओं के विशद वर्णन के बीच इसकी प्रभावोत्पादकता कम हो जाती है।
कथानायक के तिब्बत पहुँचने के साथ ही उपन्यास एक नया मोड़ ले लेता है। उपन्यास में तिब्बत का वृहद विवरण यहीं से परत-दर-परत खुलता चला जाता है। तिब्बती जनजीवन की ढेरों बातें, तिब्बतियों का रहन-सहन, वेशभूषा, सामाजिक संरचना और दैनंदिन क्रियाकलाप जीवंत हो उठते हैं। यात्रा-प्रसंगों के साथ ही तिब्बत की भौगोलिक संरचना और सांस्कृतिक विशिष्टताओं के विविध पक्ष रोचक जानकारियों के जादूई पिटारे की तरह खुलते चले जाते हैं। तिब्बत के धार्मिक परिवेश, रीति-रिवाज और मान्यताओं का वर्णन भी व्यापक रूप से उपन्यास में होता है। तिब्बतियों के आय के स्रोत, यातायात के साधन और तिब्बतियों की विविध आर्थिक समस्याओं की समूची जानकारी भी उपन्यास में उपलब्ध हो जाती है।
उपन्यास में खास तौर पर उन राजनीतिक पक्षों को उजागर करने का प्रयास किया गया है, जिनके कारण लगभग चालीस-पैंतालीस वर्षों के अंदर ही तिब्बत देश अपने पड़ोसी और शक्तिशाली देश की सत्तालोलुपता का शिकार हो गया। चीन की विस्तारवादी नीति ने समूचे तिब्बत को, एक जीवित राष्ट्र को निगल लिया। एक जीवंत संस्कृति का अस्तित्व ही संकट में पड़ गया। तिब्बत राष्ट्र के मुखिया दलाई लामा को अपना वतन छोड़ना पड़ा। चीन ने तिब्बत की राजधानी ल्हासा, पोटाला राजमहल और बौद्ध विहारों सहित समूचे तिब्बत की काया ही पलट दी। भारत ने भी तिब्बत पर चीन के कब्जे को मान्यता दे दी। कुल मिलाकर तिब्बत की वर्तमान दयनीय राजनीतिक स्थिति और वर्तमान के इस ज्वलंत वैश्विक मुद्दे को सटीक और प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत करने में उपन्यासकार ने अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी है। ऐसा क्लिष्ट राजनीतिक विमर्श भले ही उपन्यास को बोझिल और उबाऊ बनाता हो, किंतु भाषा की सहजता और प्रवाहपूर्ण शैली बड़ी आसानी से तिब्बत देश की ज्वलंत राजनीतिक समस्या और उसके अस्तित्व पर मँडराते संकट से पाठकों को अवगत करा देती है।
इन सबके बीच कथानायक और एक तिब्बती युवती के बीच प्रेम-प्रसंग भी चलता रहता है। तमाम बंधन, भटकाव और मानसिक ऊहापोह की स्थितियों से गुजरते हुए अंततः दोनों का विवाह भी हो जाता है। कथानायक की सपत्नीक वापसी, रास्ते में बच्चे की मौत और फिर दुर्गम रास्ते पर चलते-चलते हैजे के कारण पत्नी की मौत के प्रसंग उपन्यास का विस्तार भले ही करते हों, किंतु कथात्मकता का प्रभाव डालने में कामयाब नहीं हो पाते। तिब्बत का सांगोपांग चित्रण और यात्रा-वृत्तांतों की भरमार के कारण कथा-प्रसंगों की संवेदना, पात्रों के सरोकार और चारित्रिक अंतर्विरोध उपन्यास में कहीं दबे-से रह जाते हैं।
उपन्यास के अंत तक पहुँचते-पहुँचते भारत के विभाजन का दर्द भी साफ हो जाता है। एक ओर तिब्बत की दयनीय, अस्तित्वहीन स्थिति और दूसरी ओर अखंड भारत के विभाजन के फलस्वरूप उपजी प्रश्नाकुलताएँ और इन सबके बीच कथानायक के सपनों के संसार के उजड़ जाने व सुखद भविष्य की कामनाओं के बिखर जाने की स्थितियाँ भगोड़ेपन और पलायनवादी मानसिकता के साथ मिलकर अजीब विकृति पैदा कर देती है। अंततः उपन्यास गहरे अवसाद और उदासी में डूब जाता है। उपन्यास के अंत में रोमांचक कथा-यात्राओं के स्थान पर गहरा विषाद, मोहभंग और विरक्ति आ जाती है। दुनियावी छल-प्रपंचों और षड्यंत्रकारी घातक स्थितियों का ‘फ्लैश बैक’ देकर उपन्यास पूर्ण हो जाता है। उपन्यास के प्रारंभ से लेकर अंत तक निरंतर चलते रहने वाले यात्रा-प्रसंगों के बीच कथा का प्रभाव भले ही कम हो, किंतु जिस सहजता और प्रवाह के साथ, प्रामाणिक तथ्यों और जानकारियों के साथ तिब्बत देश के क्रमिक विनाश को रेखांकित किया गया है, वह निःसंदेह बेजोड़ है। उपन्यासकार ने इतिहास, वर्तमान और वर्तमान की ज्वलंत समस्या (तिब्बत-समस्या) को समेटकर सक्षम और सफल कृति दी है। उपन्यास की मुहावरेदार, सरल और सुग्राह्य भाषा-शैली और शिल्प के वैशिष्टय ने समीक्ष्य कृति को पठनीय और रोचक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।

समीक्ष्य कृति- पिघलेगी बर्फ, कामतानाथ, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण- 2006, मूल्य- 155 रुपये 

                                                                  डॉ. राहुल मिश्र



(वाग्धारा, बाँदा के जनवरी-जून 2008 के अंक में प्रकाशित)

Saturday 3 January 2015

संघर्ष बस संघर्ष : कविताओं में यथार्थ के स्पंदन

संघर्ष बस संघर्ष : कविताओं में यथार्थ के स्पंदन

संघर्ष ऐसी प्रक्रिया है, जो समाज की छोटी से छोटी इकाई से लगाकर बड़ी से बड़ी इकाई तक, स्वयं में सामाजिक इकाई बनकर रह गए आज के व्यक्ति तक इस तरह चलती है, जो कभी असंतोष, असहमति, पीड़ा, विद्रोह को जन्म देती है तो कभी जीवन को गति और सार्थकता देती है। यह प्रक्रिया मानव-मात्र में ही नहीं, समस्त जड़-चेतन में व्याप्त है, युगों-युगों से। संघर्ष की अभिव्यक्ति के विविध माध्यम संघर्ष की सार्थकता के प्रतिमान बनते हैं। जीवन के इस गुण-धर्म से साहित्यकार का वास्ता भी युगों-युगों का है। ऐसे में आज के साहित्यकार का संघर्ष की प्रक्रिया से गहरा जुड़ाव होना स्वतः-स्वाभाविक है।
संघर्ष के साथ आज की कविता का संबंध वर्तमान युगबोध के सापेक्ष है। जीवन की यातनाओं को, भोगे हुए यथार्थ को, समाज की विसंगतियों को और परिवर्तित होते मूल्यों के संक्रमण को कविता में उसी शिद्दत के साथ प्रस्तुत करने, प्रकट करने का सार्थक प्रयास अमृतसर (पंजाब) निवासी शुभदर्शन की काव्य-कृति ‘संघर्ष बस संघर्ष’ में हुआ है। एक जागरूक पत्रकार अपने समय के यथार्थ को, अपने परिवेश को विविध आयामों से देखता भी है, विश्लेषण भी करता है और सत्यान्वेषण की कामना से संप्रेषित भी करता है। ‘संघर्ष बस संघर्ष’ कृति के रचनाकार शुभदर्शन एक पत्रकार होने के नाते स्वयं को इन्ही विशिष्टताओं के साथ कवि-कर्म में उतारते हैं। इसी कारण शुभदर्शन का समीक्ष्य काव्य-संग्रह एक जरूरी दस्तावेज़ भी बन जाता है और यथार्थ को परखने का एक मानदंड भी बन जाता है।
‘संघर्ष बस संघर्ष’ में कवि-पत्रकार शुभदर्शन की सैंतीस कविताएँ संकलित हैं। संग्रह की पहली कविता- घुटन के पैबंद में ही व्यवस्था की विद्रूपताओं के बीच घुटते रहने की पीड़ा फूट पड़ती है-
कब खुलेगा दरवाजा/कब देगा कोई दस्तक/उलाहनों की संकरी गली में/लगी उम्मीदों की हाट पर।। (पृ.19)
भोली थी माँ कविता में माँ के बहाने आधी दुनिया के उस दर्द को बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिसे भोगते रहना कभी मजबूरी लगता है, कभी सरल स्वभाव लगता है तो कभी भावनाओं का व्यापार लगता है। भोली-सी माँ जख्म़ों की चारदीवारी और दुख की छत को घर समझते हुए सबकुछ सहती जाती है। कभी परिवार के लिए, कभी बच्चों की खातिर अपने जीवन को गलाते हुए जब माँ रूपी सुरक्षा कवच टूट जाता है, तब उपजने वाली रिक्तता अहसास दिलाती है कि माँ का होना जीवन में कितनी अहमियत रखता है। वसीयत से मनफी, तस्वीर में अहसास नहीं होता, जड़ उखड़ने से और संघर्ष की विरासत कविताओं में माँ के साथ जुड़कर यथार्थ के विविध आयाम इस तरह प्रस्तुत होते हैं कि एक-एक शब्द चलचित्र के एक-एक दृश्य की तरह दौड़ता नज़र आता है। एक ओर माँ है, सबकुछ न्योछावर करती हुई और दूसरी ओर आज के युग का कृष्णा है-
कृष्ण की खाल में/आ चुका है कंस/कैसे निभेगा/गोपियों का साथ/बलात्कार व सैक्स हिंसा में/बदल गईं हैं--अठखेलियाँ/भारी हो गया है/पाप का गोवर्धन/पूतना का दूध पीते-पीते/अब मथुरा नहीं जाएगा कृष्ण/न ही करेगा वध/किसी कंस का/वह तो व्यस्त है/भरने तिजोरी/स्विस बैंकों के चेस्ट।। (कब बड़े होगे कृष्णा, पृ.123)
माँ के बहाने कवि ने घटती संवेदना, जड़ से उखड़ते जाने की त्रासदी, संस्कारों के संक्रमण, पलायन, गँवई-गाँव की विरासत के बिखराव और मानवीय मूल्यों के विघटन की स्थितियों को परखा है। संस्कार का सॉफ्टवेयर! कविता कंप्यूटर के युग में इन्ही स्थितियों का मार्मिक चित्रण करती है।
शुभदर्शन की कविताओं में गौरैया चिड़िया के रूप में एक और प्रतीक है। गाँवों के घरों में, लोगों के आपसी मेल-मिलाप और सद्भाव के बीच गौरैया का भी स्थान है। वह मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की संवाहक है। शहरीकरण, आधुनिकीकरण और सबसे ज्यादा मानवीय मूल्यों का संक्रमण उस गौरैया के लिए घातक बन जाता है। शहर की ओर गौरैया और सैय्याद गौरैया कविताएँ इस प्रतीक को साथ लेकर ऐसा ताना-बाना बुनतीं हैं कि समाज की मानसिकता में आ रहे बदलाव की पूरी तसवीर नज़रों के सामने आ जाती है। इस बदलाव से टकराता कवि अभिशप्त अभिमन्यु बनकर हारने को विवश हो जाता है, फिर भी उसके हाथ में गांडीव थमा दिया जाता है, संघर्षरत रहने के लिए। इसी संघर्ष को, हारकर भी निरंतर संघर्षरत रहने की विवशता को, या अनिवार्यता को कवि अपने लोगों के साथ बाँटता भी है और समाज की मानसिकता का पर्दाफाश भी करता है-
इतने उतावले क्यों हो/दोस्त/इत्मीनान रखो/तुमसे वादा किया है/सच बताने का/--बताऊँगा/जरा रुको/अभी मुझे पूरी करनी है/--आत्मकथा/शायद वहीं से मिल जाएं तुम्हें/उन सवालों के उत्तर/जो/समय-समय पर/तुमने उछाले थे/भरी सभा में/मुझे जलील करने। (आत्मकथा, पृ.89)
समीक्ष्य कृति में कवि का संघर्ष वर्तमान के यथार्थ की विकृतियों के साथ भी होता है और वैचारिकता के स्तर पर जीवन जीने के दर्शन-पक्ष पर उभरती विकृतियों के स्तर पर भी होता है। इसमें सबसे अधिक कचोटने वाली स्थिति संवेदनहीनता की बनती है, जब व्यक्ति अपने परिवेश में घटित होने वाली घटनाओं से इस प्रकार विलग हो जाता है, मानो वह संज्ञाशून्य हो-
भागम-दौड़ के युग में/खिलौना बने संस्कार/चलती-फिरती मूरतें/क्या फर्क है--दोनों में /सोचता है राजा
वे भागदौड़ कर रहे हैं/और हम बिसात पर बैठे निभा रहे हैं/--फ़र्ज/नचा रहे हैं लोगों को/वे भी संवेदनहीन/--हम भी।। (संवेदनाहीन, पृ.86-87)
कवि निहायत दार्शनिक अंदाज़ में कहता है-
संवेदना रिश्तों में होती है/संवेदना घर में होती है/मानवता में भी होती है/--संवेदना/पर दोस्त/जब तन जाती है/अवसादों की भृकुटी/तो मजबूर हो जाता है/--आदमी/उसी संवेदना का गला दबाने/जिसके दावे करते/नहीं थकती जुबान।। (संवेदना और व्यवहार, पृ.88)
समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताएँ दैनंदिन जीवन की, अपने आस-पास की अनेक स्थूल-सूक्ष्म घटनाओं का तार्किक-भावुक परीक्षण-अन्वेषण करतीं हैं। इनके साथ ही दर्शन का पक्ष भी जुड़ा है, जो सहजता के साथ रास्ता दिखाने का प्रयास भी करता है, बिना उपदेशात्मक प्रपंच का परचम उठाए हुए। बहुआयामी-बहुविध संघर्ष का स्वरूप कविताओं में ऐसा है, जिसे बदलाव की उम्मीद है, जिसमें सकारात्मक वैचारिकी का ऐसा पक्ष है, जो पाठक के मन को उद्वेलित किए बिना नहीं छोड़ता। ‘संघर्ष बस संघर्ष’ की कविताएँ पाठक की संवेदना को झंकृत कर संघर्ष की ओर उन्मुख कर देतीं हैं। गहन मंथन के लिए प्रेरित कर देतीं हैं।
समीक्ष्य कृति की शुरुआत में ही डॉ. रमेश कुंतल मेघ द्वारा किया गया विश्लेषण है। इसके जरिए पुस्तक की प्रभावोत्पादकता में बढ़ोत्तरी हो जाती है। ब्लर्ब पर डॉ. पांडेय शशिभूषण शीतांशु और डॉ. हुकुमचंद राजपाल की टिप्पणियाँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। इन सभी को मिलाकर पुस्तक को पढ़ने से पहले पाठक के मन में एक वैचारिक माहौल बन जाता है और पुस्तक अपने उद्देश्य तक सहृदय पाठक को पहुँचाने में सफल हो जाती है। शुभदर्शन की कृति ‘संघर्ष बस संघर्ष’ इसी कारण हिंदी साहित्य के लिए, समय के इतिहास के लिए और वर्तमान के संदर्भ के लिए महत्त्वपूर्ण भी है, संग्रहणीय भी है।
(संघर्ष बस संघर्ष, शुभदर्शन, युक्ति प्रकाशन, दिल्ली-85, वर्ष- 2011, मूल्य- 250/-)

डॉ. राहुल मिश्र