Monday 14 April 2014

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का उपन्यास : बाणभट्ट की आत्मकथा

हिंदी की सेवा के लिए और हिंदी के वर्तमान सुगठित रूप को गढ़ने  के लिए कृत संकल्पित होकर आजीवन लगे रहने वाले गौरवमयी व्यक्तित्व के धनी आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम हिंदी साहित्य में सम्मानपूर्वक लिया जाता है।
  हिंदी साहित्यसेवक, इतिहासकार और निबंधकार होने के साथ ही वे महान उपन्यासकार भी थे। भले ही उन्होने तीन उपन्यासों- चारुचंद्रलेख, बाणभट्ट की आत्मकथा और पुनर्नवा का ही सृजन किया हो, किंतु उनके ये तीनों उपन्यास ही हिंदी गद्य के महानतम् प्रतिमान हैं। बाणभट्ट की आत्मकथा आचार्य द्विवेदी जी की औपन्यासिक रचनात्मक प्रतिभा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।
उपन्यास लेखन के उस दौर में, जब फ्रायड और मार्क्स की विचारधारा का, नवीन प्रयोगों का और आधुनिकताबोध का बोलबाला था, आचार्य द्विवेदी जी ने उपन्यास लेखन में सर्वथा नवीन धारा को जन्म दिया। वृंदावनलाल वर्मा और अमृतलाल नागर सरीखे ऐतिहासिक उपन्यासकारों से इतर उन्होंने कल्पना-मिश्रित ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की।
बाणभट्ट की आत्मकथा भले ही ऐतिहासिक तथ्यों पर खरा उपन्यास न हो, किंतु आचार्य द्विवेदी जी ने कल्पना के आधार पर बाणभट्ट के समय की स्थितियों को, तत्कालीन युगबोध को, सामाजिक-सांस्कृतिक और साहित्यिक परिवेश को जितनी सूक्ष्मता के साथ अपने उपन्यास में उकेरा है, वह निस्संदेह अद्भुत और अपूर्व है। मध्यकाल की सामाजिक जड़ता, धार्मिक कट्टरता और विविध धर्मों-पंथों में बँटे समाज की एक-एक रीति-कुरीति और विसंगति पूरे खुलेपन के साथ उपन्यास में प्रकट होती है।
बाणभट्ट के जीवन से चलते-चलते आचार्य जी अपने समय और समाज की सच्चाइयों से उपन्यास को जोड़ देते हैं। अस्थिरता और विघटन के बीच नए मानव-मूल्य को खोजते-परखते उपन्यास में द्विवेदी जी के युग की सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक विद्रूपताएँ ऐसी तीक्ष्णता के साथ उभरकर सामने आने लगती हैं कि पाठक को अनायास ही यह अनुभव होने लगता है कि बाणभट्ट के रूप में उपन्यासकार अपनी कथा कह रहा है।
सामाजिक अंतर्विरोधों के बीच एक प्रेमकथा भी चलती है, बाणभट्ट और उसकी अनाम प्रेमिका बीच, बहुत गंभीरता और अनूठेपन के साथ। अंतर्मन को उद्वेलित कर देने वाली यह कथा आचार्य द्विवेदी जी के व्यक्तित्व का सर्वथा नवीन आयाम खोलती है। आखिर साहित्य और इतिहास का मर्मज्ञ क्लिष्ट, परिपक्व और व्यकरणिक बंधों में गुँथी भाषा से अलग हटकर प्रेम की भाषा का नामचीन व्याख्याता जो सिद्ध हो जाता है। संभवत: इसी आधार पर डॉ. बच्चन सिंह ने बाणभट्ट की आत्मकथा को क्लॉसिकल रोमैण्टिक उपन्यास कहा है।
भाषा, शिल्प और शैली के स्तर पर, रूपबंध और चरित्र चित्रण के स्तर पर उपन्यास बहुत सधा हुआ है। साथ ही उपन्यास की लयबद्धता और गत्यात्मकता उपन्यास को एक ही बैठक में पढ़ डालने के लिए प्रेरित करती है। आचार्य द्विवेदी जी के इस उपन्यास को पढ़े बिना उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का समग्र अध्ययन कर पाना संभव नहीं है।
डॉ. राहुल मिश्र

भारतीय सिनेमा के सौ बरस, भाग-2

भारतीय सिनेमा के सौ बरस, भाग- 2


सन् 1913 में पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र और पहली बोलती हुई फिल्म आलम आरा  के सन् 1931 में रिलीज होने के बाद भारतीय सिनेमा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सन् 1913 से 1980 तक के सफर में देश की राजनीति, समाज, शिक्षा, कृषि, संस्कृति और जीवन-स्तर में कई बदलाव आए। इन बदलावों को कई तरीकों से रुपहले परदे पर उतारते हुए भारतीय सिनेमा हर आम और खास दर्शक का बखूबी मनोरंजन करता रहा। अस्सी का दशक आते-आते फिल्मी विधा बदलने लगी। सत्तर के दशक के एंग्री यंगमैन के रचयिता सलीम-जावेद की जोड़ी टूट चुकी थी और सदी के महानायक अमिताभ का सितारा भी बुझ रहा था। मर्द, शहंशाह और जादूगर जैसी फिल्में ज्यादा कामयाब नहीं रहीं। अमिताभ बच्चन के अलावा राजेश खन्ना, राजकुमार, सुनील दत्त जैसे दिग्गज अभिनेताओं की फिल्में इस दौरान आईं, मगर ज्यादा चर्चित नहीं रहीं। अच्छे हीरो और हीरोइनों का पारिवारिक फिल्मों में एकछत्र राज था। उन्हें देखने के लिए देश के सिनेमाघरों में दर्शकों की अपार भीड़ होती थी। एक ओर हिंदी सिनेमा का नया स्वाद चखने के लिए जनता बेकरार थी और दूसरी तरफ सन् 1982 में रंगीन टेलीविजन का देश में आगमन हुआ। ऐसे में सिनेमा प्रेमियों ने सिनेमाघरों को रविवार तक ही सीमित कर दिया। फिर भी फिल्म निर्माता शांत नहीं थे, इनका प्रयोग जारी रहा। नए-नए आविष्कारों ने घिसे-पिटे डांस की जगह डिस्को डांस का प्रचलन ला दिया, जिसके आधार पर एक्शन फिल्में तैयार की जाने लगीं। इस दशक में नए नायकों और नायिकाओं का फिल्म जगत में आगमन हुआ। सन् 1981 में रिलीज हुई सलमान खान की फिल्म मैंने प्यार किया ब्लॉकबस्टर साबित हुई। 1986 में सुभाष घई की फिल्म कर्मा को जबरदस्त कामयाबी मिली। 1987 में शेखर कपूर एक अलग फिल्म मिस्टर इंडिया लेकर आए, जिसमें श्रीदेवी और अनिल कपूर लीड रोल में थे। 1988 में आमिर खान और जूही चावला की फिल्म कयामत से कयामत तक भी खूब चर्चित रही। नक्सली दुनिया को छोड़कर फिल्मों में आए डांसिंग स्टार मिथुन चक्रवर्ती ने लोगों पर ऐसा असर छोड़ा कि लोग उनके जैसे बाल कटवाने लगे, उनके जैसे कपड़े पहनने लगे। फिल्म एक दो तीन में माधुरी दीक्षित और मिथुन चक्रवर्ती की जोड़ी दर्शकों की पसंद बन गई। फिल्म राजा बाबू में गोविंदा का जादू चल गया, वहीं पारिवारिक फिल्मों में जितेंद्र, श्रीदेवी, जयाप्रदा, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल की भूमिका सराहनीय रही। वर्ष 1991 में प्रदर्शित सौदागर से दिलीप कुमार और राजकुमार का 32 साल बाद आमना सामना हुआ। इस फिल्म में राजकुमार के बोले जबरदस्त संवाद दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन जाते हैं, मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते हैं आज भी सिने प्रेमियों के दिमाग में गूँजता रहता है। इसी फिल्म से मनीषा कोईराला और विवेक मुशरान इलू इलू करते नजर आए। निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म परिंदा भी बहुत चर्चित रही। दशक के अंत में आमिर खान, सलमान खान और शाहरूख खान जैसे सितारे उभरे। इस तिकड़ी ने हिंदी सिनेमा को चार चांद लगा दिए। ये सितारे हर अदा में नाचे, इनका जादू सिनेमा प्रेमियों के सिर चढ़कर बोला। बप्पी लहरी की धुनों ने फिल्मों में नई जान डाली। सन् 1973 में यशराज फिल्म्स के माध्यम से निर्माण और निर्देशन की शुरुआत करने वाले यश चोपड़ा ने 1989 में चाँदनी  फिल्म के माध्यम से फिल्मों में रोमांस की नई इबारत लिखी। यश चोपड़ा को हिंदी फिल्मों में रोमांस के नए-नए अंदाज पेश करने के लिए जाना जाता है। इनके साथ ही खलनायकों की बात करें तो अजीत, प्राण, अमजद खान, अमरीश पुरी, गुलशन ग्रोवर, शक्ति कपूर, रंजीत आदि ने विलेन की भूमिका निभाकर अपने अभिनय का लोहा मनवाया। वहीं विश्व सुंदरियों ने अपनी प्रतिभा सिनेमा जगत में उड़ेलने में कसर नहीं छोड़ी।अस्सी के दशक की बड़ी विशेषता सार्थक सिनेमा या नए सिनेमा आंदोलन की स्थापना है। इस दशक में दर्शकों के लिए सिनेमा में समाज और समय के सच्चे और खरे यथार्थ को देखने का अवसर मिला। मनोरंजनप्रिय दर्शकों को यह भले ही अटपटा लगा हो, मगर इससे प्रभावित बुद्धिजीवी दर्शकों का एक नया वर्ग तैयार हुआ, और इन फिल्मों को स्वीकार किया जाने लगा। श्याम बेनेगल ने मंथन भूमिका, निशान्त, जुनून और त्रिकाल जैसी विविध विषयों का समेटती हुई अच्छी फिल्में दर्शकों को दीं। सन् 1973 में आंध्र प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी श्याम बेनेगल की फिल्म अंकुर  ने समांतर भारतीय सिनेमा आंदोलन की शुरुआत की। श्याम बेनेगल मशहूर फिल्म निर्देशक गुरुदत्त के भतीजे थे। आगे चलकर वे भारतीय सिनेमा के प्रभावशाली निर्देशक के रूप में स्थापित हुए। प्रकाश झा की दामुल, अपर्णा सेन की 36 चौरंगी लेन, रमेश शर्मा की नई दिल्ली टाईम्स, केतन मेहता की मिर्चमसाला, गुलजार की इजाजत, मुजफ्फ़र अली की उमराव जान, तपन सिन्हा की आज का रॉबिनहुड और महेश भट्ट की पहली फिल्म अर्थ आदि नए रुझान की फिल्में थीं। युवा निर्देशिका मीरा नायर ने अपनी पहली फिल्म सलाम बॉम्बे के लिए 1989 में केन्स में गोल्डन कैमरा अवार्ड जीता। इसके साथ ही डाकू, कैबरे नृत्यों, मारधाड, पेडों के आगे पीछे गाना गाते हीरो-हीरोईन से उबे दर्शकों का जायका बदलने लगा। नब्बे के दशक में संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का दौर चला, लेकिन गानों में पहले जैसा स्वाद नहीं था। ऐसा ही हाल सिनेमा का भी हुआ। हिंदी सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय बनाने के प्रयास में बिना सिर पैर की फिल्में बनने लगीं। सन् 1990 में आई महेश भट्ट की फिल्म आशिकी  में समाज की उपेक्षा से आहत नायक और नायिका एक-दूसरे के करीब आते हैं और अपना जीवन अपने अनुसार जीने के लिए संघर्ष करते हैं। सन्1993 में आई 1942 ए लव स्टोरी  भी इसी तासीर की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक बन गई।1993 से 2002 के दशक में हिन्दुस्तान बहुत तेज़ी से बदल रहा था। उदारीकरण ने देश के बाजारों को बदला और बाजार ने सिनेमा को। हिन्दी सिनेमा विदेशों में बसे भारतीयों तक पहुँचा। राजश्री की हम आपके हैं कौन में बसा संयुक्त परिवार के प्रति मोह तथा 1995 में आई यश चोपड़ा की दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे में भारत की यादों में तड़पता एनआरआई विदेशों तक हिंदी फिल्मकथा की पहुँच का बखान करता है। उसके बाद सन् 1997 में यश चोपड़ा की दिल तो पागल है आई। इस दौर के उभरते सितारे शाहरूख खान एक ओर डर, बाज़ीगर और अंजाम के हिंसक प्रतिनायक की भूमिका में दिखे, वहीं दूसरी ओर कभी हाँ कभी ना, राजू बन गया जेंटलमैन और चमत्कार जैसी फिल्मों में एक साधारण-से लड़के जैसे नजर आए। अपने समय के महानायकों दिलीप कुमार, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की तरह वे भी सिनेमा के लिए बाहरी थे। फिल्मी खानदानों से अलग हटकर उन्होने अपनी मेहनत से अपने लिए जमीन तैयार की थी।इस दशक में यथार्थवादी फिल्मों की दृष्टि से द्रोहकाल, परिन्दा, दीक्षा, माया मेमसाब, रूदाली, लेकिन, तमन्ना, बैंडिट क्वीन आदि उल्लेखनीय नाम हैं। क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में भी इस दौर में पीछे नहीं थीं। अंजलि, रोजा और बॉम्बे दक्षिण भारत की ऐसी फिल्में हैं, जो अपनी लोकप्रियता को साथ लेकर हिंदी में डब हुईं।नई सदी में सिनेमा का नया दौर आया। रामगोपाल वर्मा ने इसका ढंग बदला तो मणि रत्नम ने इसकी चाल। दिल चाहता है और सत्या जैसी फिल्में अपने दौर की कल्ट क्लासिक बनीं और उन्होंने अपने आगे सिनेमा की नई धाराएं शुरू कीं। नई सदी के फिल्मकार मायानगरी के लिए एकदम बाहरी थे और उन्होंने अपनी प्रतिभा के बलबूते इस उद्योग में पैठ बनाई। तकनीक ने सिनेमा को ज्यादा आसान बनाया और सिनेमा बड़े परदे से निकलकर आम आदमी के ड्राइंगरूम में आ गया। इसी बीच मल्टीप्लैक्स सिनेमाघर आए और उनके साथ सिनेमा का दर्शक बदला, विषय भी बदले। अब सिनेमा में गाँव नहीं थे। यह स्याह शहरों की कथाएं थीं जिन्हें ब्लैक फ़्राइडे में अनुराग कश्यप ने, मकबूल में विशाल भारद्वाज ने और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में सुधीर मिश्र ने बड़े अदब से सुनाया। ऋतिक रोशन, रणबीर कपूर नई सदी के नायक हुए। सलमान खान और आमिर खान ने नए समय में फिर से स्टारडम का शिखर देखा। लेकिन इन नायकों की सफलता के पीछे उनका अभिनय कौशल नहीं, बल्कि नए-नए निर्माता-निर्देशकों की मेहनत और बेहतरीन पटकथाएँ थीं। इन पटकथाओं में कहीं गाँव थे तो कहीं शहर थे। कहीं देश की ज्वलंत समस्याएँ थीं तो कहीं पर समाज का बदलता स्वरूप था। इस दौर के सफल निर्माता-निर्देशकों में राजकुमार हिरानी, अभिनव कश्यप, इम्तियाज़ अली, प्रियदर्शन, प्रकाश झा आदि रहे, जिनके काम की ईमानदारी इन महानायकों की सफलताओं में बोलती रही।सन् 2001 में आई लगान ने अपने समय में काफी धूम मचाई और ऑस्कर पुरस्कार पाने की दौड़ में भी शामिल हुई। सन् 2002 में आई फिल्म ओम जय जगदीश से अनुपम खेर ने निर्देशन की शुरुआत की। तीन भाइयों के बीच के भावनात्मक संबंधों को बड़े कलात्मक ढंग से बताती इस फिल्म के साथ ही वहीदा रहमान की 11 वर्षों के बाद फिल्मों में वापसी हुई। प्रकाश झा की फिल्म गंगाजल एक ईमानदार पुलिसवाले की भ्रष्ट व्यवस्था के साथ संघर्ष की कहानी लेकर आई। इस फिल्म की कहानी 1979-80 में बिहार के भागलपुर में घटित एक सत्य घटना आंखफोड़वा कांड से प्रेरित थी। इसी तरह सन् 2001 में एस. शंकर के निर्देशन में आई अनिल कपूर की फिल्म नायक में एक दिन का मुख्यमंत्री राजनीति, भ्रष्टाचार और अपराध के गठजोड़ को प्रकट किया गया। सन् 2003 में आई रवि चोपड़ा की फिल्म बागबान  उन माता-पिता के दुखद बुढ़ापे की कथा कहती है, जो अपने बच्चों के ऊपर बोझ बन जाते हैं। यह फिल्म उस आधुनिक समाज का सच्चा आइना दिखाती है, जहाँ परिवार की मर्यादा पर आधुनिकता भारी पड़ रही है। सन् 2003 में रिलीज हुई फिल्म कोई मिल गया के माध्यम से राकेश रोशन ने अपने बेटे रितिक रोशन के कैरियर को संभालने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर धरती के बाहर भी जीवन होने की संभावनाओं को ऐसे रोचक ढंग से उठाया कि लोगों के जेहन में अनेक विचार उठने लगे। सन् 1857 की क्रांति के महानायक को रुपहले परदे में उतारने का प्रयास केतन मेहता ने अपनी फिल्म मंगल पाण्डे  में किया। यह फिल्म सन् 2005 में रिलीज हुई।     रोमांच, मनोरंजन, कलात्मकता, हकीकत और नसीहत से भरी फिल्में देने वाले प्रियदर्शन की सन् 2004 में रिलीज हुई फिल्म हलचल का अगला क्रम मालामाल वीकली, भूलभुलैया  और दे दनादन में आगे बढ़ता है। सन् 2007 में आई फिल्म गाँधी, माई फ़ादर में निर्माता अनिल कपूर और निर्देशक फिरोज अब्बास नकवी ने महात्मा गाँधी और उनके बेटे हरिलाल गाँधी के रिश्तों की तल्खी को सच्चाई के साथ पेश करने की कोशिश की। सन् 2007 में आमिर खान की फिल्म तारे ज़मीन पर  महत्त्वाकांक्षी माँ-बाप की उम्मीदों के पहाड़ तले दबकर घुटते एक ऐसे बच्चे की कहानी बयाँ करती है, जिसे अपने समय और समाज में आसानी से खोज लेना कठिन नहीं है। इस फिल्म को 2008 का सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार मिला है और दिल्ली सरकार ने इसे करमुक्त घोषित किया है। ऐसी ही एक फिल्म पा है। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने अभिषेक बच्चन के बेटे का किरदार निभाया है। बाल्की द्वारा निर्देशित यह फिल्म प्रोजोरिया नामक बीमारी से पीड़ित 12 साल के बच्चे की कहानी बयाँ करती है।लीक से हटकर समाज में घटने वाली घटनाओं को रुपहले परदे पर उतारने के लिए मशहूर श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टू सज्ज्नपुर  में सज्जनपुर ऐसा गाँव है, जो भारत के किसी खाँटी गाँव का सच्चा नक्शा उतारकर हमारे सामने रख देता है। इस गाँव में हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते लोग हैं, विधवा विवाह, अशिक्षा और अंधविश्वास जैसी सामाजिक समस्याएँ हैं। वोट हासिल करने के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले नेता हैं और गांव के इकलौते पढ़े-लिखे महादेव के रूप में ऐसा सामान्य व्यक्ति भी है, जो अपनी प्रेमिका कमला को चाहते हुए भी जब अपना नहीं बना पाता तो उसकी खुशियों के लिए अपनी जमीन बेच देता है।सन् 2008 में रिलीज हुई नीरज पांडे द्वारा निर्देशित फिल्म ए वेडनसडे  में दोपहर दो बजे से लगाकर शाम छह बजे तक की कथा है, मगर दर्शकों को कई दिनों तक सोचने को मजबूर कर देती है। आतंकवाद से त्रस्त आम आदमी की असहाय स्थिति और उसकी ताकत, दोनों ही फिल्म में ऐसी शिद्दत के साथ प्रकट होती हैं कि देखते ही बनता है। गंभीर विषयों के लिए चर्चित निर्देशक राजकुमार संतोषी ने अंदाज़ अपना अपना  बनाकर साबित कर दिया था कि वे हास्य पर भी अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं और लंबे अरसे बाद सन् 2009 में अपनी नयी फिल्म अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानी  के साथ उन्होने फिल्म जगत् को एक और स्वस्थ हास्य फिल्म दी।लाइफ एक रेस है, तेज़ नहीं भागोगे तो कोई तुम्हें कुचलकर आगे निकल जाएगा और कामयाब नहीं, काबिल बनो, जैसे नसीहत भरे संवाद लेकर आई राजकुमार हिरानी की फिल्म 3 ईडियट्स भारतीय शिक्षा प्रणाली की कमियों और उसकी वजह से विद्यार्थियों के किताबी कीड़ा बन जाने की भयावह स्थितियों को उजागर करती है। पढ़ाई की रॅट्टामार शैली पर व्यंग्य करती फिल्म साल 2009 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनी। अंग्रेजी उपन्यासकार चेतन भगत के आईआईटी पर आधारित उपन्यास 5 पॉइंट सम वन से मिलती-जुलती होने की वजह से यह विवादों में भी रही। सन् 2010 में निर्माता आमिर खान और निर्देशक अनुषा रिजवी के प्रयासों से आई फिल्म पीपली लाइव को श्याम बेनेगल की फिल्म वेलडन अब्बा  के आगे की कथा कहा जा सकता है। इन दोनों फिल्मों में भारत के धुर ग्रामीण समाज की विवशताओं को दिखाने का प्रयास किया गया है। कर्ज के कारण मरने को मजबूर किसान नत्था की खबर को सनसनीखेज बनाने में जुटे मीडिया की संवेदनहीनता को भी फिल्म में शिद्दत के साथ प्रकट किया गया है। सन् 2010 में आई निर्देशक हबीब फ़ैसल की फिल्म दो दूनी चार में मजाकिया ढंग से प्रस्तुत की गई कहानी ऐसी लगती है, जैसे वह हमारी ही कहानी हो। फिल्म महानगरीय जीवन में एक मध्यवर्गीय परिवार की परेशानियों और जोड़ तोड़ को बेहद वास्तविकता के साथ चित्रित करती है। इसी तरह ईगल फिल्म्स के बैनर तले राजीव मेहरा की फिल्म चला मुसद्दी आफिस आफिस  घपलों-घोटालों और कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को इस तरह प्रकट करती है कि सच्चाई और रुपहले परदे पर चलते चित्रों के बीच कोई अंतर नहीं दिखता है। फिल्म का नायक मुसद्दीलाल अपनी बंद हुई पेंशन पाने के लिए स्वयं को जिंदा साबित करने में लगा हुआ है।सन् 2010 में आई निर्माता अमिता पाठक और निर्देशक अश्विनी धीर की फिल्म अतिथि तुम कब जाओगे की कहानी महानगरीय संस्कृति के कारण टूटते पारिवारिक संबंधों की कड़वी हकीकत को शिद्दत के साथ बयाँ करती है। फिल्म यह सवाल उठाती है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को संवेदनहीन होने की नसीहत देकर किस ओर ले जा रहे हैं। सुभाष कपूर की फिल्म फँस गए रे ओबामा  वैश्विक मंदी के लोकल इफेक्ट को मजाकिया अंदाज में पेश करती है। अमिर खान की फिल्म तलाश और दिल्ली बेल्ली, गौरी शिंदे की फिल्म इंगलिश विंगलिश, सौरभ शुक्ल की फिल्म बर्फी, अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर, मिलन लुथुरिया की फिल्म द डर्टी पिक्चर, श्रीराम राघवन की फिल्म एजेंट विनोद, पंकज कपूर की फिल्म मौसम, प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण, अनुराग कश्यप की फिल्म दैट गर्ल इन यलो बूट्स  और अजय सिन्हा की खाप  आदि ऐसी फिल्में हैं, जो अपने अलग-अलग अंदाज लेकर आईं हैं और अपने ज्वलंत विषयों के माध्यम से समाज को सोचने के लिए मजबूर कर देने की क्षमता रखती हैं। इस दौर में जिस्म औरजन्नत आदि फिल्में भी आईं, मगर इनमें मानसिक विकृतियों को ही ज्यादा स्थान मिला।सत्तर-अस्सी के दशक तक हिंदी फिल्मों के साथ बेहतरीन गीतों का मेल हुआ करता था। मशहूर शायरों, ग़ज़लकारों के बेहतरीन नगमे हुआ करते थे। लता मंगेशकर, आशा भोंसले, किशोर कुमार, मुकेश, उदित नारायण, कविता कृष्णमूर्ति और अनुराधा पोडवाल जैसे कई गायक-गायिकाओं के मीठे सुर दर्शकों-श्रोताओं का मन मोह लेते थे। इनमें से कई यादगार नगमे अक्सर लोगों की जुबाँ पर होते थे। हॉलीवुड की नकल करते हुए बॉलीवुड से फिल्मी नगमों की वह पुरानी मिठास गायब होती चली गई। नई सदी में अशोक मिश्र, अमित मिश्र, प्रीतम चक्रवर्ती, अंजन अंकित, संजोय चौधरी, साजिद-वाजिद और शांतनु मोइत्रा जैसे गीतकारों के गीतों में डिस्को-डांस की कान फोड़ने वाली थिरकन तो दिखी, मगर गीतों से मिलने वाली अजीब-सी तसल्ली नहीं मिली। हालाँकि नई सदी के कुछ गीत यादगार भी बने।


दादासाहेब फाल्के के जमाने की मूक फिल्मों की शुरआती तकनीक से लगाकर आज के दौर की थ्री डी तकनीक तक फिल्म निर्माण में कई उतार-चढ़ाव आए। आज फिल्में बनाना उतना कठिन और मेहनत भरा काम नहीं रह गया। तकनीकी सुविधाएँ बढ़ने के बावजूद बॉक्स ऑफिस में कई फिल्मों की लागत करोड़ों तक पहुँच जाती है। जो फिल्म जितनी महँगी होने लगी, वह उतनी ही ज्यादा कारगर मानी जाने लगी। इस तरह फिल्म व्यवसाय भी भौतिकता की अपार चकाचौंध में खोता चला गया।इन सबके बावजूद साल भर में सर्वाधिक फिल्में बनाने में भारत अग्रणी है। हिंदी के साथ ही भारत की अनेक भाषाओं-बोलियों में फिल्म व्यवसाय अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाते हुए लगातार आगे बढ़ रहा है। राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में भी फिल्म व्यवसाय का अमूल्य योगदान है। देश की विविध भाषाओं-बोलियों की प्रसिद्ध फिल्मों की डबिंग ने सारे देश को एक सूत्र में जोडने का काम किया है। इतना ही नहीं, विदेशों तक भारतीय फिल्मों की गूँज सुनाई देती है। भारतीय फिल्मों को भले ही हॉलीवुड की तरह सम्मान या बड़े-बड़े पुरस्कार नहीं मिले हों, फिर भी भारतीय फिल्मों के संस्थापक दादासाहब फाल्के से लगाकर इक्कीसवीं सदी में भारत के दूरदराज क्षेत्रों से आने वाले नए-नवेले निर्माता-निर्देशकों तक फिल्म व्यवसाय को समाज के हित में लगाने का जज्बा बरकरार है। आने वाले समय में भारतीय फिल्में अपनी इस जिम्मेदारी को और भी अच्छे तरीके से निभाएँगी, ऐसी संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।

                                                                                डॉ. राहुल मिश्र
(आकाशवाणी, लेह से प्रसारित)






Sunday 3 November 2013

इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा : संभावनाएँ और चुनौतियाँ

इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा : संभावनाएँ और चुनौतियाँ
शिक्षा-व्यवस्था के संदर्भ में भारतीय विचारधारा की सुदीर्घ परंपरा वैदिक काल से निरंतरता के साथ चलती रही है। भारत में अंग्रेजों के आगमन और 02 फरवरी, सन् 1935 को गवर्नर जनरल विलियम बेंटिक की काउंसिल में मैकाले द्वारा प्रस्तुत किये गये सुझावों की भारतीय उपनिवेश में स्वीकार्यता ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था की पुरातन-परंपरागत धारा को एकदम बदल दिया। मैकाले के सुझावों के आधार पर भारत में यूरोपीय साहित्य तथा विज्ञान की शिक्षा अंग्रेजी माध्यम से भारतीय लोगों को दिये जाने का प्राविधान किया गया। इसके परिणामस्वरूप परंपरागत शिक्षा-व्यवस्था के स्थान पर मैकाले की योजना अपनी जड़ें मजबूत करती रही। इसके शुभ और अशुभ परिणाम भारतीय समाज में अनेक तरीकों से परिलक्षित होते रहे।
देश की आजादी के पहले ही आजाद देश की शिक्षा-व्यवस्था का स्पष्ट, व्यावहारिक और सर्वथा उपयोगी खाका खींचने का कार्य महात्मा गांधी ने किया। उन्होंने हिंद स्वराज में लिखा कि, अंग्रेजी बिलकुल ही न पढ़ने से हमारा काम चले, ऐसा समय नहीं रहा। अतः जो लोग अंग्रेजी पढ़ चुके हैं वे उस शिक्षा का सदुपयोग करें। जहाँ जरूरी मालूम हो वहाँ उससे काम लें। अंग्रेजों के साथ व्यवहार करने में, उन हिंदुस्तानियों के लिए जिनकी भाषा हम नहीं समझते, और अंग्रेज खुद अपनी सभ्यता से कैसे आजिज आ गये हैं। यह जानने के लिए हमें अंग्रेजी सीखनी चाहिए। जिन्होंने अंग्रेजी पढ़ ली है उन्हें चाहिए कि अपने बच्चों को पहले सदाचार और अपनी भाषा सिखाएँ। फिर हिंदुस्तान की एक दूसरी भाषा सिखाएँ। जब वे प्रौढ़ वय के हो जाएँ तब चाहें तो अंग्रेजी पढ़ सकते हैं। पर उद्देश्य यही हो कि हमारे लिए अंग्रेजी पढ़ना जरूरी न हो, उससे पैसा कमाना नहीं।1 अनेक विविधताओं से भरे भारत देश को एक राष्ट्र की भावना में बाँधने के लिए महात्मा गांधी ने भाषार्इ समन्वय और राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के व्यवहार की पुरजोर वकालत की। आजादी पाने के बाद आजाद भारत के पहरुओं के लिए गांधी के विचार प्रासंगिक नहीं रहे और उनकी प्राथमिकताएँ एक बार फिर मैकाले मिनट्स के इर्द-गिर्द घूमने लगीं। आजाद भारत की शिक्षा-व्यवस्था भारतीय संविधान के नीति-निर्देशक तत्त्वों, सामाजिक न्याय, समता और समानता के अवसर जैसे शब्दों के आवरण में सिमटकर चलती रही। यहाँ मौलाना अबुल क़लाम आज़ाद के व्यक्तिगत प्रयासों का उल्लेख करना आवश्यक होगा। भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने गांधीवादी विचारों के अनुरूप भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में भारतीय संस्कृति की उपस्थिति को, शिक्षा की समतापूर्ण सर्वसुलभता को और शिक्षा के जनतंत्रीकरण को बढ़ावा दिया। आजाद भारत की शिक्षा व्यवस्था के दिशा निर्धारण में मौलाना आज़ाद की भूमिका अविस्मरणीय रही। शिक्षा पर राजनीतिक नियंत्रण ने गांधी और मौलाना आज़ाद के विचारों को, प्रयासों को ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रहने दिया। बाद में डॉ. सर्वेपल्लि राधाकृष्णन, डॉ. संपूर्णानन्द, डॉ.दौलत सिंह कोठारी, डॉ. लक्ष्मणस्वामी मुदालियार, आचार्य राममूर्ति, आदि शिक्षाविदों के संयोजन में, नेतृत्व में अनेक समितियों और आयोगों ने भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के संदर्भ में अनेक सुझाव दिये, सुधार भी हुए।
आजाद भारत की शिक्षा-व्यवस्था के लिए इन मनीषियों के सुझाव सार्थक हुए, उपयोगी भी हुए, किन्तु शिक्षा के विशुद्ध भारतीय स्वरूप को शेष रख पाने की दिशा में अपेक्षित परिणाम नहीं ला सके। फलतः शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य भौतिक संसाधनों को उपलब्ध कर पाने और व्यक्तिगत स्वार्थों को पूर्ण कर पाने की चेष्टाओं में निहित हो गया। लिंग आधारित, अवसर आधारित और जाति-धर्म-पंथ आधारित असमानताएँ अलोकतांत्रिक अवधारणा के प्रतीकों के रूप में आजाद भारत की शिक्षा व्यवस्था पर हावी रहीं। नब्बे के दशक में आए आर्थिक उदारीकरण, विनिवेश, विश्वव्यापारीकरण और बहुराष्ट्रीकरण के कारण भारतीय समाज में और साथ ही भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में बदलाव आने लगा।
इक्कीसवीं सदी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था का स्वरूप इन्हीं सब बदलावों को साथ लेकर बना है। इक्कीसवीं सदी की शुरुआत ही बहुराष्ट्रीकरण, आर्थिक उदारीकरण और इनके कारण आर्इ सूचना-संचार क्रांति के व्यापक प्रभावों को लेकर हुर्इ। मैकाले मिनट्स के साथ बदली परंपरागत भारतीय शिक्षा-व्यवस्था को एक बार फिर बदलने का कार्य विश्वग्राम संस्कृति ने किया। विज्ञान, दर्शन और मानविकी के विषयों की प्रासंगिता पर प्रश्न-चिन्ह लगने लगे और अनेक नये विषयों, पाठ्यक्रमों, शिक्षण-प्रशिक्षण प्रविधियों और तकनीकों का आगमन शिक्षा-व्यवस्था में हुआ। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में स्थापित हुए अंतरराष्ट्रीय पब्लिक स्कूल शिक्षा के वैश्विक स्वरूप के ऐसे ज्वलंत प्रतिमान हैं, जो बचपन में ही यूरोप और अमेरिका, आदि देशों के शैक्षिक भ्रमण के साथ ही बच्चों को ग्रीन कार्ड का सुंदर सपना दिखा देते हैं। माध्यमिक और उच्च शिक्षा-स्तर पर विदेशों में अध्ययन करना आज का स्टेटस सिंबल है। जो विद्यार्थी अध्ययन के लिए विदेश नहीं जा सकते, उनके लिए देश में ही स्थापित हुए निजी विश्वविद्यालयों में वैश्विक स्तर के ऐसे नए-नए पाठ्यक्रम उपलब्ध हैं, जिनके साथ प्लेसमेंट की सुनिश्चतता भी जुड़ी होती है। इसके लिए कर्ज पाना भी कठिन नहीं रहा है।
प्रबंधन और तकनीकी उच्च शिक्षा हेतु स्थापित छह भारतीय संस्थान (आर्इआर्इएम) व नौ भारतीय प्रौद्यौगिकी संस्थान (आर्इआर्इटी) देश में ही नहीं, विदेशों में भी ख्याति रखते हैं। इन संस्थानों से पढ़कर निकले छात्र देश में ही नहीं, विदेशों में भी उच्च पदों पर कार्य कर रहे हैं। इसी तरह चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, सूचना-तकनीकी और कम्प्यूटर विज्ञान आदि अनेक क्षेत्रों में भारतीय मेधा की काबिलियत वैश्विक स्तर पर स्थपित हुर्इ है। आँकड़े बताते हैं कि वर्ष 1998 में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों से निकले कम्प्यूटर इंजीनियरों में से लगभग तीस प्रतिशत कम्प्यूटर इंजीनियर अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों में काम कर रहे हैं। भारत के हर दस में से चार सॉफ़्टवेयर इंजीनियर विदेशों में अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। विगत पंद्रह वर्षों में ये आँकड़े तेजी से बदले हैं।
इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण अंग के रूप में उभरे सूचना-तकनीकी-चिकित्सा-संचार और प्रबंधन के अध्ययन को व्यवस्थित करने का कार्य प्रमुख रूप से राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने किया। इक्कीसवीं शताब्दी के प्रमुख प्रेरक बल के रूप में ज्ञान को स्वीकार करते हुए, वैश्विक स्तर पर एक प्रतियोगी खिलाड़ी के रूप में उभरने की भारत की क्षमता की ज्ञान संसाधनों पर निर्भरता को स्वीकार करते हुए और 25 वर्ष से कम आयु के 55 करोड़ युवकों सहित भारत की मानवीय पूँजी को सामर्थ्यवान बनाने की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए 13 जून, सन् 2005 को श्री सैम पित्रोदा की अध्यक्षता में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का गठन किया गया। सन् 2006 में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने सिफारिशें दीं कि पुस्तकालय, अनुवाद, अंग्रेजी भाषा अध्यापन, राष्ट्रीय ज्ञान तंत्र (नेटवर्क), शिक्षा का अधिकार, व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण, उच्चतर शिक्षा, राष्ट्रीय विज्ञान और समाज विज्ञान प्रतिष्ठान तथा र्इ-अधिकारिता के क्षेत्रों में त्वरित विकास किया जाए। सन् 2007, 2008 और 2009 में क्रमशः मुक्त शैक्षिक पाठ्य विवरण, प्रबंध शिक्षा, बौद्धिक संपदा अधिकार, नवाचार; स्कूल शिक्षा, उत्तम पी-एच.डी., उद्यमशीलता; कृषि, जीवन-स्तर में सुधार लाना आदि प्रमुख सिफारिशें दी गर्इं।2 प्रधानमंत्री के सलाहकार के रूप में कार्य करने वाले राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफारिशों के आधार पर प्रत्येक राज्य में एक केंद्रीय विश्वविद्यालय, एक चिकित्सा संस्थान, एक प्रबन्धन संस्थान और एक प्रौद्योगिकी संस्थान खोलने की दिशा में प्रयास किये गये और इनमें अपेक्षित सफलता भी प्राप्त हुर्इ।
शिक्षा-व्यवस्था के निजीकरण की अवधारणा के विकसित होने के साथ ही निजी विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों, इण्टर कॉलेजों और पब्लिक स्कूलों की संख्या भी देश में तेजी से बढ़ी है। शिक्षा के निजीकरण ने जहाँ एक ओर ज्ञान की सुलभता के अवसरों की वृद्धि की है, वहीं दूसरी ओर शिक्षण-प्रशिक्षण प्रविधियों, शिक्षा के क्षेत्र में तकनीक के अनुप्रयोगों, कक्षाओं के स्वरूप बदलावों, सूचनाओं की असीमित उपलब्धताओं और व्यावहारिकताओं को, खुलेपन को बढ़ावा दिया है। जाति-धर्म-लिंग और आर्थिक असमानता आदि का विभेद आज उतनी शिद्दत के साथ दिखार्इ नहीं पड़ता है, जितना कि देश की आजादी के तीस-चालीस वर्ष बाद हुआ करता था।
निश्चित रूप से यह इक्कीसवीं सदी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की संभावनाओं का सुखद पक्ष है, सकारात्मक पक्ष है। 21 वीं सदी में शिक्षा का आश्चर्यजनक रूप से प्रचार एवं प्रसार हुआ है व साक्षरता का स्तर बढ़ा है। इसका प्रत्यक्ष परिणाम हमें 14 वीं लोकसभा के चुनाव में भी देखने को मिला है। अब तक की चुनी गर्इ सभी लोकसभाओं से अधिक शिक्षित व्यक्ति चुनकर लोकसभा के सदस्य बने हैं। आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में 21 वीं सदी में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया को अत्यधिक तीव्रता प्रदान की है। सन् 1951 में जहाँ केवल 16.67 प्रतिशत साक्षरता थी, वहीं 2001 में 65.38 प्रतिशत साक्षरता हो गर्इ है। अब शिक्षा किसी वर्ग विशेष के लिए नहीं अपितु सर्वसुलभहै।3
इक्कीसवीं शताब्दी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की संभावनाएँ जितनी सुखद और सकारात्मक हैं, उतनी ही अधिक चुनौतियाँ भी हैं। इक्कसीवीं सदी की भारतीय शिक्षा व्यवस्था की चुनौतियों को समझने के लिए यूनेस्को द्वारा गठित डेलोर्स आयोग के सन् 1996 मेंप्रस्तुत प्रतिवेदन- लर्निंग- द ट्रेज़र विदिन पर नजर डालनी होगी। आयोग ने विश्व स्तर पर प्रत्येक राष्ट्र के समक्ष तीन संकट देखे हैं- आर्थिक संकट, प्रगति की अवधारणा संकट और किसी-न-किसी प्रकार का नैतिक संकट। आयोग का यह निष्कर्ष निर्विवाद है। भारत के समक्ष भी ये तीनों संकट विशाल या यों कहें, विकराल रूप से उपस्थित हैं।...असमानता और गरीबी तब तक कैसे घटेंगी जब तक विश्व को केवल एक बाजार माना जायेगा। भौतिक उपलब्धियों की होड़ बढ़ती जाएगी। मानवीय संवेदनाएँ घट रहीं हैं। लोग एक-दूसरे के पास नहीं आ रहे हैं, शायद दूर होते जा रहे हैं। लोग एक दूसरे से क्षणों में संपर्क स्थपित कर सकते हैं, दूरियों की परिभाषाएँ बदल गईं हैं। विश्व भर में किसी भी जगह क्षण भर में संपर्क स्थपित कर पाना वास्तविकता है। फिर भी हम पड़ोसियों जैसा व्यवहार क्यों नहीं कर पा रहे हैं, वी हैव बिकम नेबर्स नॉट नेबरली।4
भारत की आजादी के ठीक पहले भारतीय लोगों की आपस में दूरियाँ बढ़ रहीं थीं, परिणामस्वरूप देश विभाजित हुआ। आजाद भारत में भी क्षेत्र, भाषा और तहजीब पर आधारित विभेद महात्मा गांधी की स्वराज की कामना को खंडित करता रहा। तमाम मनीषियों के अनथक प्रयासों ने इसे कम अवश्य किया, मगर इसे समाप्त करने में सफलता नहीं दिलार्इ। इक्कीसवीं सदी में शिक्षित भारतीय समाज आज फिर से भाषार्इ-जातीय-धार्मिक-क्षेत्रीय-प्रांतीय और ऐसे ही अनेक विभेदों में बँट रहा है। इसका प्रमुख कारण पुरातन भारतीय शिक्षा-व्यवस्था में निहित मूल्यों का वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था में नहीं होना है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय एकता की शिक्षा की नवीन अवधारणा की स्थापना का अभाव भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। डॉ. ईश्वरदयाल गुप्त लिखते हैं कि, राष्ट्रीय एकता की शिक्षा वास्तव में भारत की शिक्षा प्रणाली में एक नवीन प्रयोग है। जिसके नवीन परिणाम अभी तक संतोषप्रद नहीं रहे हैं। पहले पच्चीस वर्ष तो उसे परिभाषित करने में ही लगे। जब भारत स्वतंत्र हुआ तो शताब्दियों बाद एक आशा बँधी कि नये परिवेश में नये उत्साह के साथ हम एक-दूसरे की विविधताओं के सौंदर्य को सराहेंगे, लेकिन इन आशओं को मृग-तृष्णा सिद्ध होने में अधिक समय नहीं लगा।5
देश की आजादी के बाद देश की सांस्कृतिक विविधता को और अपनी अनूठी राष्ट्रीय संस्कृति की पहचान को सुरक्षित रख पाने, संरक्षित और संवर्द्धित कर पाने की अभिलाषा भी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकी। 21वीं शताब्दी के प्रारम्भ में यह दोहराने की आवश्यकता नहीं है कि शिक्षा के प्रचार तथा प्रसार की सार्वभौमिक आवश्यकता अब सर्वमान्य है। यह भी आधिकारिक तौर पर विश्व के सभी देश स्वीकार कर चुके हैं कि प्रत्येक देश की शिक्षा-व्यवस्था की जड़ें उसकी ‘अपनी’ संस्कृति में स्थापित होनी चाहिए और उसकी प्रतिबद्धता प्रगति तथा भविष्य के लिए स्पष्ट और उजागर होनी चाहिए। यह तभी संभव होगा, जब देश की नीतियाँ, विशेषकर शिक्षा नीतियाँ, शिक्षा और संस्कृति के जुड़ाव की आवश्यकता को स्वीकार करें और इस जुड़ाव में नर्इ पीढ़ी की आस्था उत्पन्न करने का प्रयास करें। ऐसा न करने या न कर पाने पर अंतर ‘संस्कारों’ में ही आता है और वही अपने प्रभाव विभिन्न क्षेत्रों में दिखाता है।6
शिक्षा में नैतिक मूल्यों की कमी, राष्ट्रीय एकता के अभाव और शिक्षा की ‘अपनी’ संस्कृति से दूरी, इन चुनौतियों की जड़ों को तलाशने का प्रयास करते हुए हमें इक्कीसवीं सदी की शिक्षा-व्यवस्था के उन दो आधारों को देखना होगा, जो सरकारी और निजी व्यवस्था में बँटे हुए हैं। सरकारी शिक्षा-व्यवस्था पूरी तरह से नौकरशाही पर निर्भर है। नौकरशाही का संचलन भी राजनीति-केंद्रित है। इस कारण सत्ताधारी राजनीतिक दल अपनी विचारधारा का सामाजिक प्रयोग सरकारी शिक्षा-व्यवस्था के माध्यम से करते हैं। अनेक राज्य सरकारों से लगाकर केंद्र सरकार तक फैली इस मानसिकता को बड़ी सहजता के साथ देखा जा सकता है। दूसरी ओर निजी शिक्षा-व्यवस्था है, जिसमें पूँजीपतियों का वर्चस्व कायम है। सरकारें संसाधनों की कमी से ग्रस्त हैं। अत: प्राइवेट रूप से शिक्षा-व्यवस्था करने वालों के समुदाय में वृद्धि हो रही है। कर्इ दशकों तक ‘व्यापारी’ रहे लोग एकाएक शिक्षा में रुचि लेने लगे हैं। वे इसे अधिक फायदे का सौदा समझते हैं और व्यापार के अनुभवों का उपयोग करते हुए संस्थाओं के भव्य भवन खड़े कर देते हैं। संपर्क-सूत्रों का उपयोग करते हैं और शिक्षाविद् बनकर सम्मान के अधिकारी बन जाते हैं। 2006 में ग्यारह हजार भारतवासी नये करोड़पति बने। अत: शिक्षा में शुल्क कितना ही बढ़ाया जाए, ऐसे लोगों को ग्राहक तो मिलते ही रहेंगे। मेरा आशय यह नहीं है कि प्राइवेट स्कूलों (जिन्हें कहा तो पब्लिक स्कूल ही जाता है) को चलाने वाले या नए छत्तीसगढ़ी विश्वविद्यालय चलाने वाले सब इसी श्रेणी में आते हैं। वस्तुस्थिति से परिचित तो सभी हैं। यहाँ यह भी याद रखना होगा कि इन स्कूलों में अभी भी संबंधित स्कूल बोर्ड की सालाना परीक्षा के कारण अंकों का उपलब्धि स्तर अधिक रहता है। स्वायत्तशासी विश्वविद्यालयों को तो सब कुछ स्वयं ही निर्णीत करना होता है। परिणास्वरूप पढ़ाने के अध्यापक तथा दिखाने के अध्यापक जैसी श्रेणियों का प्रादुर्भाव हुआ है। यह एक परिस्थितिजन्य नवाचार है, जिसमें प्रबंधन, संस्थान और शिक्षार्थी सभी प्रसन्न-मुक्त रहते हैं।7
निजी और सरकारी, दोनों शिक्षा-व्यवस्थाओं में आर्इ विकृतियों का कारण शिक्षविदों और समाज के विविध वर्गों के जागरूक प्रतिनिधियों का शिक्षा-व्यवस्था से दूर हो जाना है। आर्थिक हित, वैचारिक हित और वैयक्तिक स्वार्थ साधन के बँधे-बँधाए साँचों में परिवर्तन की संभावनाओं का शून्य होते जाना जनतांत्रिक व्यवस्था के सिद्धांतों के विपरीत होता है। शिक्षा में इसी कारण जनतांत्रिक व्यवस्था का अभाव गहराता जा रहा है। इसके परिणास्वरूप नर्इ पीढ़ी का जनतांत्रिक मूल्यों से विश्वास उठता जा रहा है। इस संदर्भ में प्रो. रामसकल पाण्डेय अपना मत व्यक्त करते हैं कि, वर्तमान शिक्षा बालक में जनतंत्र के प्रति आस्था नहीं उत्पन्न कर पाती अत: इस शिक्षा में परिवर्तन की आवश्यकता है। हमें उस शिक्षा को महत्त्व देना चाहिए, जो कुशल नागरिक का निर्माण करे। इस प्रकार की शिक्षा में केवल विषय-ज्ञान का महत्त्व नहीं होगा। बालकों को जीवन के सभी अनुभवों की शिक्षा मिलनी चाहिए और उन अनुभवों के अभ्यास के लिए अवसर मिलना चाहिए। बालक को शिक्षा इसलिए नहीं देनी है कि अनेक उपाधियों से वह अपने नाम को अलंकृत कर सकें। वरन् इसलिए शिक्षा देनी है कि वह व्यवहारकुशल बन सकें और जीवन में ज्ञान का उपयोग कर सकें।8
इक्कीसवीं सदी में भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की चुनौतियों के संदर्भों की चर्चा करते हुए आवश्यक होगा कि उस वर्ग की विचारधारा को भी जान-समझ लिया जाए, जिससे देश, काल समाज की अपेक्षाएँ अपने व्यापक सरोकारों के साथ जुड़ी होती हैं। उस वर्ग को बुद्धिजीवी के रूप में जाना जाता है। नानी पालखीवाला के शब्दों में, दुर्भाग्यवश आज अपने युग में हमने बुद्धिजीवी का मोल घटा डाला है और इस शब्द को मिट्टी में मिला दिया है। आज ‘बुद्धिजीवी’ का अर्थ बदल गया है। आज बुद्धिजीवी वह व्यक्ति है जो इतना चतुर एवं चालाक है कि भाँप सके कि रोटी का कौन सा भाग चिकना चुपड़ा है।9
समग्रतः, इक्कीसवीं सदी की भारतीय शिक्षा-व्यवस्था अनेक चुनौतियों के बावजूद सकारात्मक दिशा में असीमित संभावनाओं को स्वयं में समेटे हुए आगे बढ़ रही है। अनुभवों से और स्थिति  की अनिवार्यताओं से सीखने की पुरातन स्थापित अवधारणा का अनुगमन करते हुए नैतिक मूल्यों की सीख आज की पीढ़ी को स्वतः प्राप्त हो रही है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफारिशों पर सरकारी अमल शिक्षा-व्यवस्था को निश्चित रूप से सकारात्मक दिशा में ले जाएगा। व्यवस्था-सुधार के प्रति, नैतिक मूल्यों की स्थापना के प्रति और राष्ट्रीय एकता की भावना के प्रति युवा-आग्रह का स्वर गाहे-ब-गाहे सुनार्इ दे जाता है। यह निश्चित रूप से सापेक्ष परिणाम का शुभ संकेत है। युवा शक्ति के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर अग्रणी भारत निश्चित रूप से विश्व-शक्ति बनकर उभरेगा, यह संभावना नकारी नहीं जा सकती। इतना अवश्य है कि पीढ़ियों के टकराव को, विविध विभेदों के संक्रमण को रोकने का दायित्व राष्ट्र के हित में सभी को निभाना होगा। अंत में, अल्लामा इकबाल की लिखी दो पंक्तियाँ, जो बहुत कुछ कह जाती हैं, नसीहत दे जाती हैं--
   आइने नौ से डरना,  तर्ज़-ए-कुहन पर अड़ना।
मंज़िल यही कठिन है,  कौमों की ज़िंदगी में।।
संदर्भ-
1    हिन्द स्वराज, महात्मा गांधी, अनु. कालिका प्रसाद, सस्ता साहित्य मंडल प्रका., नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ- 82
4    शैक्षिक परिवर्तन का यथार्थ, शिक्षा के सार्थक सरोकार, प्रो. जगमोहन सिंह राजपूत, विद्या विहार, नई दिल्ली, 
      2006, पृष्ठ- 81-82  
5    आधुनिक भारतीय शिक्षा : समस्या चिंतन, शिक्षा प्रणाली : लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की समस्या,              
      डॉ. ईश्वरदयाल गुप्त, हरियाणा साहित्य अकादमी, चण्डीगढ़, 1991, पृष्ठ- 198
6    क्यों तनावग्रस्त है शिक्षा-व्यवस्था ?, शिक्षा से दूर होते मूल्य एवं संवेदनाएँ, प्रो. जगमोहन सिंह राजपूत,
      किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृष्ठ- 36 
7    वही,  पृष्ठ- 12 
8    आधुनिक भारतीय शिक्षा दर्शन, भारतीय जनतंत्र और शिक्षा (व्याख्यान), प्रो. रामसकल पाण्डेय, केंद्रीय हिंदी
      संस्थान, आगरा, 1988, पृष्ठ- 40
9    हम भारत के लोग, बुद्धिजीवी का विश्वासघात, नानी पालखीवाला, सुरुचि प्रकाशन, नई दिल्ली, 1991,  
      पृष्ठ- 19
डॉ. राहुल मिश्र
(केंद्रीय बौद्ध विद्या संस्थान, लेह-लदाख में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी, 01-04 जुलाई, 2013 में प्रस्तुत शोध-पत्र, लदाख प्रभा-18 में प्रकाशित)