Wednesday 10 December 2014

निर्गुण तथा सगुण पंथ के प्रतिनिधि कवि

सी. बी. खेडगीज् महाविद्यालय, अक्कलकोट, सोलापुर (महाराष्ट्र) में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी, दिनांक- 20-21 दिसंबर, 2013 हेतु विषय स्थापना
निर्गुण तथा सगुण पंथ के प्रतिनिधि कवि
भारत की दक्षिण काशी के नाम से विख्यात सोलापुर के उत्तर की ओर स्थित अहमदनगर और पश्चिम की ओर स्थित सतारा का भक्ति-काव्य परंपरा में अद्वितीय योगदान है। भगवान दत्तात्रेय के अवतार स्वामी समर्थ महाराज की नगरी अक्कलकोट से लगभग 100 किलोमीटर दूर पंढरपुर तीर्थ हिंदी साहित्य की उस परंपरा से जुड़ा हुआ है, जिसकी चर्चा के लिए हम सभी यहाँ उपस्थित हैं। अहमदनगर के आपेगाँव के संत ज्ञानेश्वर और सतारा के नरसीबामणी गाँव के संत नामदेव पंढरपुर की वारी (यात्रा) के माध्यम से प्रचलित हुए वारकरी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं। मुक्ताबाई, संत तुकाराम और संत एकनाथ ने इस परंपरा को समृद्ध-सशक्त किया। वारकरी संप्रदाय के साथ ही महानुभाव संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी चक्रधर ने भी भक्ति-काव्य परंपरा के विकास में योगदान दिया। इस प्रकार इस क्षेत्र से ऐसी भक्ति परंपरा का उदय हुआ, जिसे विविध संप्रदायों, पंथों- नाथ, महानुभाव, वारकरी, मालकरी आदि में बाँटकर भी देखा जा सकता है और समग्र धारा के रूप में भी देखा जा सकता है। भक्ति-काव्य की इस परंपरा ने संत नामदेव के नेतृत्व में उत्तर भारत में उदित हो रही भक्ति-काव्य परंपरा को सक्षम और समर्थ बनाने में अद्वितीय योगदान दिया।
महानुभाव संप्रदाय में निर्गुण की अपेक्षा सगुण को अधिक महत्त्व दिया गया, जबकि परवर्ती वारकरी संप्रदाय के संतों ने ब्रह्म को अनादि, नित्य, ज्ञानमय, अव्यक्त, निर्गुण और सर्वव्यापक मानते हुए निर्गुण रूप को भी महत्त्व दिया और निर्गुण ईश्वर ही सगुण के रूप में अवतरित होता है, यह कहकर सगुण रूप को भी महत्त्व दिया। इसके साथ ही महाराष्ट्र में संतकाव्य परंपरा के आदिकवि मुकुंदराज (1127-1200 ई.) ने अपने ग्रंथ ‘विवेक सिंधु’ (1190 ई.) में सगुण, निर्गुण, गुरु का महत्त्व, ब्रह्म, जीव, माया आदि विषयों का प्रतिपादन जनसाधारण की भाषा में किया। भारतवर्ष की संतकाव्य परंपरा का यह पहला काव्यग्रंथ माना जाता है।
संत शब्द का सामान्य अर्थ सज्जन होता है। मराठी व बाद में हिंदी कवियों ने ‘संत’ शब्द का अपने वर्ग के लिए इतना अधिक प्रयोग किया कि इस शब्द के साथ उनका गहरा और अभिन्न संबंध स्थापित हो गया। महात्मा चक्रधर, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, संत निवृत्तिनाथ, संत सोपानदेव और संत एकनाथ आदि संत कवियों के द्वारा रचित भक्ति-काव्य इसी आधार पर कोई विभाजक रेखा नहीं खींचता है। मराठी संत कवियों द्वारा सृजित भक्ति-काव्य प्रेरणास्रोत बनकर, एक आंदोलन का स्वरूप लेकर जब उत्तर भारत की ओर अपनी यात्रा प्रारंभ करता है, तब बड़ा बदलाव उत्तर भारत की भक्ति-काव्य परंपरा में देखने को मिलता है।
 उपासनाभेद का आश्रय लेकर सगुण और निर्गुण पंथ जैसे दो वर्गों की कल्पना की गई और हिंदी साहित्येतिहासकारों ने इसी आधार पर समग्र भक्ति साहित्य को विभाजित किया। सगुण पंथ में लीलावतार, भगवद्नुग्रह का भरोसा, परलोक या स्वर्ग-नर्क की कल्पना, लीला का माहात्म्य, वर्ण-व्यवस्था की स्वीकार्यता, साकार के प्रति भक्ति और बाह्य लालित्य होता है। निर्गुण पंथ में ब्रह्मानुभूति, आत्मविश्वास का बल, सत्कर्मों द्वारा संसार को ही स्वर्ग बनाना, वर्ण-व्यवस्था का विरोध, निराकार के प्रति भक्ति, अंतःसौंदर्य की गरिमा और विश्वात्मा प्रभु के विश्वव्यापी अस्तित्व में आस्था होती है।
हिंदी साहित्य के इतिहास के अध्ययन में हम सामान्यतः इन्हीं तथ्यों का अध्ययन करते हैं। इसके साथ ही सगुण पंथ के अंतर्गत विष्णु के दो अवतारों- राम और कृष्ण काव्य के आधार पर क्रमशः रामकाव्य परंपरा और कृष्णकाव्य परंपरा का अध्ययन करते हैं। निर्गुण पंथ में संतकाव्य परंपरा या ज्ञानमार्गी शाखा और सूफ़ीकाव्य परंपरा या प्रेममार्गी शाखा के दो वर्गों का अध्ययन करते हैं। कृष्णकाव्य परंपरा  वल्लभ संप्रदाय (श्री वल्लभाचार्य, तेलुगु), चैतन्य संप्रदाय (चैतन्य महाप्रभु, नवद्वीप, बंगाल) और राधावल्लभ संप्रदाय (श्री हित हरिवंश) का आश्रय लेकर विकसित हुई। इसके प्रतिनिधि कवि सूरदास ने ब्रजभाषा में कृष्ण भक्ति, काव्य और संगीत की ऐसी त्रिवेणी का सृजन किया है, जिसमें प्रेम, भक्ति और अध्यात्म एक-दूसरे से मिल जाते हैं। निर्गुण और सगुण का भेद नहीं रह जाता है। महाकवि सूर का कवित्व उच्चता की उस सीमा पर स्थापित है, जहाँ तक पहुँच पाना अन्य के लिए संभव नहीं है। इसी कारण तानसेन कह उठते हैं- किंधौं सूर की सर लग्यौ, किंधौं सूर की पीर, किंधौं सूर को पद सुन्यौ, तन मन धुनत सरीर।
निर्गुण पंथ की प्रेममार्गी शाखा या सूफ़ीकाव्य परंपरा को प्रायः सूफ़ी कवियों, फ़ारसी मसनवियों द्वारा विकसित माना जाता है। वस्तुतः महाभारत की रोमांसिक चेतना के साथ ही हरिवंश पुराण, वृहत्कथा, संस्कृत गद्यकाव्य और अपभ्रंश जैनकाव्य परंपरा के क्रमिक विकास को तथाकथित सूफ़ीकाव्य परंपरा में देखा जा सकता है। इस परंपरा के प्रतिनिधि कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य पद्मावत में नीति और दर्शन के भारतीय संस्करण को उतारा है। सांप्रदायिक टकराहट से स्वयं को मुक्त रखकर न्याय और अन्याय के स्थूल-सूक्ष्म संघर्ष, मानवीय कर्म और उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया की गाथा जायसी को पृथिवी पुत्र (वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार) बना देती है और पद्मावत को लोक से शिष्ट में संक्रमण का काव्य बना देती है।
निर्गुण पंथ की संतकाव्य परंपरा के प्रतिनिधि कवि कबीर और सगुण पंथ की रामकाव्य परंपरा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास हैं, जिनके हिंदी साहित्य में योगदान विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के शुभ अवसर पर हम सब उपस्थित हैं और जिनके कृतित्व के विविध पक्षों पर व्यापक विचार-विमर्श के सहभागी बन रहे हैं।
सन् 1880 के आसपास रामकुमार विद्यालंकार द्वारा रचित ‘कबिरेर संक्षिप्त जीवनचरित’ के साथ कबीर का व्यवस्थित अध्ययन प्रारंभ होता है। आचार्य क्षितिमोहन सेन कृत ‘कबीर’ (1942), रवींद्रनाथ टैगोर और ऐवेलिन अंडरहिल द्वारा अनूदित ‘वन हंड्रेड पोयम्स ऑफ़ कबीर’ (1914), अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध कृत ‘कबीर वचनावली’ (1916), रेवरेंड अहमदशाह कृत ‘द बीजक ऑफ़ कबीर’ (1917), रेवरेंड एफ. ई. के. कृत ‘कबीर एंड हिज़ फॉलोअर्स’ (1931) और उसके बाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कृत ‘कबीर’ (1942), डॉ. श्यामसुंदरदास कृत ‘कबीर ग्रंथावली’ बेल्जियम के निवासी विनान्द एम कैलेवर्त्त के शोध-ग्रंथ ‘द मिलेनियम कबीर वाणी’ आदि रचनाओं की चर्चा कबीर के विस्तृत और व्यवस्थित अध्ययन के संदर्भ में की जा सकती है। इन सभी अध्ययन ग्रंथों को अगर देखें तो यह सरलता के साथ कहा जा सकता है कि हिंदी में कबीर पर अध्ययन-अनुसंधान बहुत बाद में शुरू हुआ और परिमाण की दृष्टि से भी यह कम ही ठहरता है।
हिंदी में कबीर के अध्ययन की शुरुआत के साथ ही कुछ अवधारणाओं का विकास होता है। कबीर के सामान्य अध्ययन में हम सामान्य रूप से यह जानते हैं या जान पाते हैं कि उनके काव्य संस्कार सूफ़ी परंपरा पर आश्रित हैं, जिनमें इस्लाम के एकेश्वरवाद का प्रभाव परिलक्षित होता है। उनके काव्य सृजन में हिंदू परंपरा को कोई रचनात्मक योगदान नहीं है। कबीर के निर्गुण ब्रह्म की उपासना के पीछे पुरातन भक्ति परंपरा की तीक्ष्ण आलोचना है। ज्ञानमार्ग की कट्टरता कबीर की साधना-पद्धति का प्रमुख अंग थी। ऐसी ही अनेक मान्यताएँ कबीर के संदर्भ में प्रचलित हैं, जिनका हम सामान्य तौर पर अध्ययन करते हैं।
वस्तुतः कबीर का सम्यक् मूल्यांकन किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि निर्गुण अद्वैतवाद, सगुण वैष्णव भक्ति, बौद्ध सहजयान, नाथ पंथ, इस्लाम या सूफ़ी मत जैसे किसी भी वर्ग में कबीर को रखना संभव नहीं है। कबीर के काव्य संस्कार में इन सभी का समन्वय देखा जा सकता है। उनके व्यक्तित्व में परस्पर विरोधी तत्त्वों का सामंजस्य इस तरह मिलता है कि विरोधी तत्त्व भी एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। कबीर में एक ओर अक्खड़पन है तो दूसरी ओर दीनता और हीनता का भाव भी है। बड़े-बड़े दार्शनिकों-चिंतकों के विचारों को ‘कागद की लेखी’ कहकर अक्खड़पन दिखाने वाले कबीर ‘धण मैली पिय ऊजला, लाग सकूँ न पाँव’ कहकर अपनी असीमित दीनता को भी सहजता के साथ प्रकट कर देते हैं।
संकीर्ण भौतिकवाद और यथार्थवाद के विपरीत व्यापक करुणा, सर्वहित की कामना, सच्ची भक्ति-भावना, समाजहित पर केंद्रित विचार और अनुभूति की व्यापकता कबीर की रचनाओं में देखने को मिलती है। कबीर को समझने के लिए ज्ञान की नहीं, अनुभूति की, सच्चे मन और भाव की जरूरत पड़ती है। कबीरदास लिखते हैं-
कबीर का घर सिखर पर, जहाँ सिलहली गैल।
पाँव न टिके पिपीलक, लोगनि लादे बैल।।
संभवतः इसी कारण कबीर की लोकप्रियता हर तरह के बंधनों से मुक्त थी, लोक-व्यवहार में विस्तृत थी। कबीर ने अपनी रचनाधर्मिता का स्वरूप विभिन्न धर्मों, मतों, पंथों का सामान्यीकरण करके, विज्ञानीकरण करके बनाया। इस तरह सभी के लिए अपना-सा लगने वाला, सभी के लिए अपनत्व से, प्रेम से भरा हुआ विश्व धर्म स्थापित करना कबीर के चिंतन की मौलिक उपलब्धि है। इसके लिए वे कभी ज्ञान की आँधी आने की बात कहते हैं तो कभी-
कामी   क्रोधी   लालची,  इनसे भक्ति  न होय।
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय।।                                       
कहकर भक्ति के सच्चे स्वरूप की स्थापना करते हैं।  
भक्ति का विलक्षण और उदात्त स्वरूप गोस्वामी तुलसीदास के कृतित्व में भी प्रकट होता है। अपनी समन्वयात्मक दृष्टि को अपनी भक्ति भावना के साथ जोड़कर लोकमंगल की साधना करने वाले गोस्वामी तुलसीदास की स्थिति लोकनायक से कम नहीं आँकी जा सकती। जाने-माने इतिहासकार गोस्वामी तुलसीदास के संदर्भ में अपनी पुस्तक ‘अकबर दि ग्रेट मुगल’ में लिखते हैं- Tulsidas is the tallest tree in the magic garden of medieval Hindu Poesy. वे आगे लिखते हैं- That was the greatest man of his age in India- greater even than Akbar himself in as much as the conquest of the hearts and minds of millions of men and women effected by the poet was an achievement infinitely more lasting and important than any or all the victories gained in war by the Monarch. अपने ग्रंथ Indian Antiquary (1893) में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन लिखते हैं- If we take the influence exercised by him at the present time as our test, he is one of the three or four great writers of Asia….Over the whole Gangetic Valley his great work [ The Ramayan] is better known than Bible is in England.
रूस के प्रसिद्ध विद्वान वरान्निकोव ने रामचरितमानस का रूसी भाषा में पद्यबद्ध अनुवाद किया। रेवरेण्ड एटकिन्स ने अंग्रेजी में मानस का अनुवाद किया। ऐसे ही तमाम अध्ययन-अनुसंधान कार्य तुलसीदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विदेशों में हुए हैं या विदेशी विद्वानों द्वारा हुए हैं। ये तथ्य, ये कथन उस विश्वधर्म की व्यापकता और वैश्विक स्वीकार्यता को इंगित करते हैं, जिसकी स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने की, विशेषकर रामचरितमानस के माध्यम से। भारत वर्ष के धुर देहातों में बहुत से ऐसे लोगों को तुलसी का मानस कंठस्थ है, जिन्हें अक्षरज्ञान भी नहीं है, जो लिख-पढ़ भी नहीं सकते हैं।
भूगोल के बंधनों से, काल के बंधनों से मुक्त बाबा तुलसी का मानस एक ग्रंथ मात्र नहीं है, बल्कि भारतीय संस्कृति के बौद्धिक, कलात्मक और भावुक ग्रंथों का समन्वित रूप है। यह जीवनोपयोगी भी है, गंभीर भी है और बौद्धिक-दार्शनिक तत्त्वों से युक्त भी है। राम की गूढ़ कथा एक ओर निर्गुण, निराकार परमात्मा को हमारे अपने समाज का व्यक्ति बना देती है तो दूसरी ओर परिवार, समाज और राष्ट्र के स्तर पर सत्य और प्रेम की रक्षा की, मर्यादा के पालन की ऐसी सीख दे जाती है, जो अनपढ़ के लिए भी सहज और सुग्राह्य हो जाती है-
कीरति भनिति भूति भल सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।
रामचरितमानस के अतिरिक्त विनयपत्रिका तुलसी की प्रौढ़, सशक्त कृति है। विनयपत्रिका में बाबा तुलसी के जीवन के वृहद-व्यापक अनुभव हैं, तुलसी की विनयमूलक भक्ति का उत्कृष्ट स्वरूप है। मानवतावादी दृष्टिकोण है और गूढ़ दार्शनिक चिंतन भी है। कृष्णगीतावली, दोहावली, बरवै रामायण आदि विविध ग्रंथ भी अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। उनकी सभी कृतियाँ किसी भी युग की सीमाओं में या भौगोलिक क्षेत्र के बंधनों में बँधी हुई नहीं है।
पाश्चात्य जीवन शैली के ‘माइक्रो फैमिली कल्चर’ और टूटती-बिखरती ‘फैमिली वैल्यूज़’ के घातक दुष्परिणामों से बचने के लिए रामचरितमानस के रूप में हमारे पास ऐसा अमोघ अस्त्र है, जिसकी प्रासंगिकता वर्तमान जीवन में उत्तरोत्तर बढ़ रही है। रामकथा को आधार बनाकर अनेक भक्त कवियों ने उत्कृष्ट रचनाएँ की हैं, किंतु रामकथा को लोक-व्यवहार से, लोक-जीवन की मान्यताओं-मर्यादाओं और समाज की मानवीय अपेक्षाओं के अनुरूप बनाने का काम बाबा तुलसी ने ही किया है। बाबा तुलसी ने मानस के माध्यम से समूचे परिवार के मर्यादित आचरण को समग्रता के साथ प्रस्तुत किया है। इसके बाद भी तुलसीदास और उनकी कालजयी कृति ‘रामचरितमानस’ प्रायः दूषित आलोचना के भँवर में फँस जाती है।
अगर कबीर के राम राजा दशरथ के पुत्र राजकुमार राम नहीं, बल्कि निर्गुण ब्रह्म के प्रतीक हैं, तो तुलसी के राम भी दशरथनंदन मात्र नहीं, बल्कि मर्यादा के प्रतीक हैं, मर्यादापुरुषोत्तम हैं। अपने व्यापक अर्थों में कबीर के राम और तुलसी के राम एक ही हैं। दोनों में एक तत्त्व- मर्यादा की उपस्थिति है।
कबीर हरदी पीयरी चूना उज्जल भाइ, रामसनेही यूँ मिले, दून्यू बरन गँवाइ।। (कबीर)
 जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि वैरी सम यद्यपि परम सनेही। (तुलसी)
काव्यशास्त्रीय विभेदों को अलग रखकर, सगुण-निर्गुण की विभाजक रेखा को मिटाकर और ऐसे ही अन्य विभेदों को, प्रचलित भ्रांतियों-धारणाओं को हटाकर विचार किया जाए तो महाराष्ट्र से, पंढरपुर से चलकर उत्तर भारत में और फिर सारे विश्व में प्रचारित-प्रसारित होने वाली विश्वधर्म की संकल्पना के संवाहक के रूप में कबीर और तुलसी की भूमिका अद्वितीय है, अनुपम है।
हिंदी में तुलसी और कबीर के व्यवस्थित, समग्र, सचेत अध्ययन की स्थिति को पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। कबीर और तुलसी के संदर्भ में विदेशी विद्वानों के कथनों और उनके द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर इस धारणा को पुष्ट किया जा सकता है। कबीर और तुलसी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अध्ययन-अनुसंधान की शुरुआत के बहुत पहले से इन दोनों का स्थान लोक-व्यवहार में उच्चतम स्थिति पर था। गाँवों-कस्बों में टिमटिमाते दिये की रोशनी में रात-रातभर रामचरितमानस का पाठ करते अनपढ़ लोग, बात-बात पर मानस की चौपाइयों का उल्लेख करके मर्यादित लोकजीवन की स्थापना करते सामान्य जन तुलसी की लोक-स्वीकार्यता का उनके प्रति अगाध श्रद्धा के साक्ष्य हैं। इसी तरह गाँवों की चौपालों में रात-रातभर कबीरी (कबीर के भजन) गाते लोग, गाँवों-कस्बों में स्थापित कबीर गद्दियाँ लोक-जीवन में कबीर के उच्चतम स्थान को प्रकट करतीं हैं। लोक-व्यवहार में, लोक-जीवन में कबीर और तुलसी की स्थिति समाज-सुधारक, चिंतक, पथ-प्रदर्शक और सच्चे संत की थी। वहाँ कबीर और तुलसी आलोचना के पात्र नहीं थे, बल्कि आगाध जन-श्रद्धा और जन-आस्था से जुड़े थे। कबीर और तुलसी के लोक-व्यवहार से शिष्ट साहित्य में आने के साथ ही यह स्थिति बदलने लगी। इन दोनों भक्त कवियों की, विशेषकर तुलसी की ऐसी व्यापक और वीभत्स आलोचना शुरू हुई, जिसने लोक-व्यवहार और शिष्ट साहित्य, दोनों को दिशाहीन कर दिया।
प्रायः विदेशों से आयातित सामग्री या चिंतन या दिशा-निर्देश अपना अलग महत्त्व रखते हैं और प्रायः गर्वानुभूति भी देते हैं। यह प्रायः कच्चे माल का विदेश जाना और वहाँ से निर्मित माल के आयातित होने जैसा है। हम गर्व करते हैं, जब हमें कोई बाहरी यह बताता है कि अमुक मूल्यवान धरोहर हमारे पास है। हम अपनी धरोहर की महत्ता का मूल्यांकन स्वयं नहीं कर पाते। हजारों वर्षों की गुलामी के कारण शायद हमारी मानसिकता में यह दोष लग गया है। इस स्थिति को बदलने की जरूरत है।     
हिंदी के भक्ति-काव्य की चारों धाराओं का, इनके प्रतिनिधि कवियों का अध्ययन पुरानी परिपाटी पर, रटे-रटाए सिद्धांतों पर और घिसी-घिसाई अवधारणाओं पर होता रहा है। युगीन परिस्थितियों के अनुरूप, परिवर्तित मूल्यों के सापेक्ष और अपने मूल्यांकन के स्वतः मूल्यांकन की प्रक्रिया पर चलना जीवंत-जागृत साहित्य का लक्षण होता है। इसी आधार पर सगुण और निर्गुण पंथ के प्रतिनिधि कवियों का मूल्यांकन अपेक्षित है। पाश्चात्य चिंतनधारा में प्रचलित कुछ शब्द, जैसे- आदर्शवाद, यथार्थवाद, मानवतावाद और मूल्यवाद आदि को आयातित करके हम अपनी धरोहर की समृद्धि का विस्मरण कर बैठते हैं। इसी कारण पश्चिम के चश्मे से अपनी धरोहर को देखने का प्रयास करने लगते हैं। संत कबीर और तुलसी के कृतित्व का इसी आधार पर मूल्यांकन आधुनिक संकल्पना की देन है, जबकि पाश्चात्य चिंतनधारा के अनेक तत्त्वों से अधिक और समृद्ध तत्त्व तुलसी और कबीर के कृतित्व में उपलब्ध हैं। मूल्यांकन और अनुसंधान की इस आधुनिक नवोदित परंपरा का अपना महत्त्व है। यह सार्थक और सफल होगा, यदि इसमें पूर्वाग्रह और पक्ष-विपक्ष के निम्नस्तरीय विचारों को अलग ही रखा जाए।
यह अत्यंत सुखद संयोग है कि अक्कलकोट की इस पावन-पुनीत नगरी में तुलसी और कबीर के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा हो रही है। बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र से प्रारंभ हुई भक्ति-काव्य परंपरा ने समूचे देश को, विश्व को प्रभावित किया था। तुलसी और कबीर उसी परंपरा के संवाहक थे। आज नए समय में नई भूमिका के लिए यह परिसंवाद संगोष्ठी अगर इतिहास को दुहरा सकेगी, तो संगोष्ठी की सार्थकता भी स्थापित होगी और मानवता का कल्याण भी हो सकेगा।
डॉ. राहुल मिश्र

Friday 29 August 2014

एक युग के समापन के बीस बरस

श्रद्धांजलि/स्मरण
एक युग के समापन के बीस बरस
लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज के गांधी वार्ड में लड़खड़ाती-सी, डूबती-सी आवाज- आई एम स्टिल ट्रीटेड अनट्रीट के शांत होने के साथ ही एक युग का अंत हो गया था, मेरे जीवन में। हमारे परिवार के साथ लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज का रिश्ता कभी अच्छा नहीं रहा। जिनकी उपस्थिति एक शीतल अहसास देती रही है, हमारे परिवार के उन लोगों को छीनने का काम मेडिकल कॉलेज ने किया है। पहले बाबाजी पंडित गणेश मिश्र, फिर प्रमोद चाचा, फिर अजित भइया और फिर मेरे पिता- मेजर विनोद कुमार मिश्र। आधी रात की मौत-सी खामोशी के बीच अपने पिता के मित्र डॉ. रूपनारायण गुप्त से जिस समय इस खबर को सुना था कि अब मेरे पिता का शरीर नहीं रहा, तब किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज के बारे में ऐसी भयावह धारणा मेरे किशोर मन में बनी थी, जो आज तक मिट नहीं पाई है। कई वर्षों तक, जब भी उस कॉलेज के सामने से गुजरता, तब पूरी कोशिश इस बात पर रहती कि उसकी तरफ देखने से खुद को बचाए रखूँ।
29 अगस्त, 1994 से बीस वर्ष गुजर गए, कैसे और कब गुजर गए, इसका मूल्यांकन कर पाना भी मेरे लिए बहुत कठिन है। अपने पिता के पर्वत-से व्यक्तित्व के सामने खुद को जाँचते-परखते ही इतना लंबा समय गुजर गया, शायद। लखनऊ विश्वविद्यालय से मेरे पिता ने अंग्रेजी में एम. ए. किया था। उसके बाद बाजपुर कॉलेज, नैनीताल में लगभग दो वर्षों तक अध्यापन कार्य और फिर हिंदू कॉलेज, अतर्रा में अंग्रेजी प्राध्यापक के रूप में उन्होंने अपनी सेवाएँ दीं। नेशनल कैडेट कोर (एन.सी.सी.) के केयर टेकर से लगाकर 60 उ.प्र. वाहिनी एन.सी.सी. के समादेशन अधिकारी तक क्रमशः अपने दायित्वों का निर्वाह किया। समाजकार्य के क्षेत्र में एक छोटी-सी संस्था- गौपैक को जन्म देकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वहन किया। अपने पिता के बारे में इतना-सा परिचय देते हुए लगता है, जैसे पर्वत की तुलना राई से की जा रही हो। अपने माता-पिता, अपने निकटस्थ परिजन हर किसी को प्रिय, महान और सर्वश्रेष्ठ लगते हैं। बीस वर्षों के लंबे कालखंड में जब भी अपने पिता के मित्रों या उनके शिष्यों से मिला और उनकी भीगी हुई पलकों को देखा, तब हर बार अहसास किया कि मेरे पिता केवल मेरे लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी महान और श्रेष्ठ थे।
इतिहास और पुराणों में अपना विशेष स्थान रखने वाली सई नदी के किनारे पर बसा हमारा छोटा-सा गाँव हाजीपुर गोशा अपनी भौगोलिक विशिष्टता के कारण ऐसा रहा कि आजादी के बाद भी वहाँ विकास के भागते मानदंडों को खोज पाना कठिन है। इन विषम परिस्थितियों के बीच हमारे बाबाजी पंडित गणेश मिश्र सरकारी पाठशाला के प्रधानाध्यापक के रूप में अपनी सेवाएँ देते रहे। हमारे गाँव में ही नहीं, पूरे क्षेत्र में पंडितजी के नाम से पहचाने जाने वाले हमारे बाबाजी हिंदी, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान थे। अवधी लोकसंस्कृति से भी उनका गहरा जुड़ाव था। बनरा उपनाम से वे कविताएँ और गीत भी लिखा करते थे। उन्होंने अत्यंत सरल भाषा में श्रीमद्भगवद्गीता का पद्यानुवाद भी किया, जो सन् 1937 में पं. मदनमोहन शुक्ल ‘मदनेश’ के साहित्य मंदिर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित हुआ। एक ओर लोकसाहित्य तो दूसरी ओर शिष्ट साहित्य के सर्जन की परस्पर विरोधी स्थितियाँ उनके व्यावहारिक जीवन में भी देखने को मिलती थीं। अंग्रेज हुक्मरानों और तत्कालीन शिक्षा विभाग के आला अफसरानों के दौरों का प्रबंधन बाबाजी के हाथों में ही हुआ करता था। हफ्तों तक एक स्थान से दूसरे स्थान पर पड़ाव डालकर अंग्रेज मुलाजिम जाँच-पड़ताल करते रहते और पंडितजी का सहयोग उन्हें मिलता रहता। बरसात का मौसम आते ही पतली-सी जलधारा के रूप में बहने वाली सई नदी विकराल रूप ले लेती, उसके भरोसे जिंदा रहने वाले छोटे-बड़े नाले भी उफना उठते थे। इसके कारण हमारा गाँव टापू जैसा बन जाता। देश की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारियों के लिए बरसात के चार महीने काटना बहुत कठिन हुआ करता था, क्योंकि उन दिनों अंग्रेजों से स्वयं को बचाने के लिए भागना और अपने जीवन को बचाना कठिन हो जाता था। अंग्रेज अफसर भी शायद इसी मौके की तलाश में रहते थे। तब हमारा गाँव और हमारे बाबाजी नई भूमिका में होते। प्राकृतिक रूप से सुरक्षा के घेरे में बंद हो जाने वाला हमारा गाँव क्रांतिकारियों के लिए सुरक्षित शरणगाह बन जाता।
हमारे गाँव से लगभग बीस-पचीस किलोमीटर दूर स्थित काकोरी का देश के स्वाधीनता आंदोलन में बड़ा नाम है। काकोरी की ट्रेन डकैती ने अवध में अंग्रेज हुक्मरानों की पेशानी पर बल डाल दिए थे। काकोरी कांड से हमारे गाँव का क्या संबंध है, इसके ऐतिहासिक साक्ष्य जुटा पाना कठिन है, फिर भी हमारे बाबाजी द्वारा स्थापित ककोर बाबा का छोटा-सा मंदिर मुझे कई मायनों में इन सूत्रों को जोड़ता हुआ प्रतीत होता है। गाँव से बाहर ऐसे स्थान पर, जहाँ पहुँच पाना आसान न हो, वहाँ बाबाजी ने ककोर बाबा की प्राण-प्रतिष्ठा कराई, एक तालाब भी खुदवाया। खेत में बना यह कच्चा तालाब बना रहे, इसके लिए यह मान्यता भी प्रचलित हो गई कि जो व्यक्ति इस तालाब से पाँच अँजुरी मिट्टी निकालेगा, उसे साल भर फोड़े-फुंसियाँ या चर्मरोग नहीं होगा। आज भी उस तालाब का अस्तित्व बरकरार है। हमारे कुलदेवता के रूप में पूजे जाने वाले ककोर बाबा की नियमित पूजा की परंपरा भी बरकरार है।
इन्हीं विशिष्टताओं को लेकर खानदान-ए-गणेशी (आनंद चाचा इस शब्द का अकसर उपयोग किया करते हैं।) ने पुख्ता शक्ल अख्तियार की। विनोद, प्रमोद, आनंद और अशोक। प्रफुल्लता, उत्साह और उमंग से भरी मनःस्थितियों को व्याख्यायित करती ये चार स्थितियाँ उन चार लोगों के नाम बनीं, जिन्हें वल्दियत के रूप में पंडितजी सरीखा कर्मठ किसान, निष्काम कर्मयोगी, समर्पित शिक्षक और आस्थावान देशभक्त मिला था। स्वाभाविक ही था कि पैतृक और परिवेशगत उपलब्धियाँ अपनी छाप छोड़ें। आनंद चाचा अकसर बताते हैं कि जब तक घर में साइकिल नहीं आई थी, तब तक लखनऊ पैदल ही जाना होता था। मोहान के रास्ते से लखनऊ तक की पैदल यात्रा करके पढ़ाई की ललक लिए, कंधे में टंगे झोले में राशन-पानी ढोते हुए उस कर्मठता की इबारत लिखी जाती, जिसकी कल्पना कर पाना भी हमलोगों के लिए असंभव है।
आनंद चाचा की नौकरी सबसे पहले लगी। वे डाक विभाग में मुलाजिम बने और साथ ही लखनऊ और गाँव के बीच संपर्क-सेतु भी बने, अपनी नई साइकिल के जरिए। छुट्टी के दिनों में वे साइकिल में राशन-पानी बाँधकर लखनऊ पहुँचाते। लखनऊ की टिकायतराय कॉलोनी में पिताजी रहते थे। उन्ही दिनों लखनऊ में सिटी स्टेशन के पास बड़ी बुआ (स्व. श्रीमती कांति द्विवेदी) का मकान बन रहा था। फूफाजी उत्तरप्रदेश सचिवालय में थे। बुआजी के निर्माणाधीन मकान में पिताजी और उनके मित्रों श्री चंद्रप्रकाश बडथ्वाल, श्री रामप्रताप द्विवेदी और श्री रामप्रकाश गुप्त का जमावड़ा रहता। श्री रामप्रकाश गुप्त बाद में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने। उस समय प्रमोद चाचा लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. (राजनीतिविज्ञान) में गोल्ड मेडल लेकर उत्तीर्ण हुए थे। प्रमोद चाचा लखनऊ विश्विद्यालय के छात्रावास में रहते थे, वहीं एक दिन वे मरणासन्न हालत में पाए गए। मेडिकल कॉलेज में उन्हें भर्ती किया गया और वहीं पर उनका देहांत हो गया। हमारे बाबाजी पिताजी को बच्चूलाल कहा करते थे। पिता और पुत्र के बीच महीनों मुलाकात नहीं हो पाती थी। अशोक चाचा बहुत छोटे थे और गाँव की पाठशाला में पढ़ते थे। बाबाजी और पिताजी के बीच पत्राचार के जरिए ही संवाद होता। इन पत्रों के विषय भी साहित्यिक गंभीरता से पूर्ण और वैचारिकता के शीर्ष पर स्थित होते थे।
लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्र-राजनीति का उत्तरप्रदेश की विधानसभा तक दबदबा रहा करता था। पिताजी विश्वविद्यालय छात्रसंघ के जूनियर लाइब्रेरियन चुने गए। उन दिनों देश और प्रदेश की राजनीति में बड़े उतार-चढ़ाव हो रहे थे। देश के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू अकसर लखनऊ आया करते और उनकी सभाओं के संचालन का जिम्मा प्रायः पिताजी पर होता था। गोविंद वल्लभ पंत संयुक्त प्रांत (यूनाइटेड प्राविएंसेस) के प्रधानमंत्री बने थे और बाद में उत्तरप्रदेश के गठन के बाद पहले मुख्यमंत्री बने थे। काकोरी कांड के साथ पंत जी का गहरा संबंध था। उन्होंने शहीद पं. रामप्रसाद बिस्मिल, ठाकुर रोशन सिंह और अन्य क्रांतिकारियों को बचाने के लिए अदालत में जबरदस्त पैरवी की थी। बाद में पं. मदनमोहन मालवीय जी के साथ मिलकर उन्होंने वायसराय को एक पत्र भी लिखा था, किंतु गांधी जी का सहयोग न मिलने के कारण काकोरी कांड के क्रांतिकारियों को बचा पाना संभव नहीं हुआ। पिताजी पंत जी के संपर्क में आए। उनके व्यक्तित्व से इतना प्रभावित हुए कि 1983 में उन्होंने गोविंद वल्लभ पंत शिक्षा पारितोषिक संकाय (गोपैक) को मूर्त रूप दिया। वे अकसर कहा करते कि यह संस्था उनका पाँचवाँ बेटा है। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में गोपैक के प्रति उनका असीमित समर्पण मुझे अकसर ही बाल-सुलभ ईर्ष्या के लिए प्रेरित कर दिया करता था। मेरी माताजी श्रीमती रंजना मिश्रा को भी शायद ऐसा महसूस होता रहा। हालाँकि पिताजी के जाने के बाद हमलोगों की धारण एकदम बदल गई और विरासत के रूप में मिली इस जिम्मेदारी को पूरे मनोयोग से निभाने के प्रयास में हमलोग आज भी लगे हैं।
आदरणीया सुचेता कृपलानी उत्तरप्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनी थीं। देश की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने का खिताब भी उनके हिस्से में ही है। आचार्य जे. बी. कृपलानी कांग्रेस विरोधी राजनीति के अग्रिम पंक्ति के नेता थे। पंडित नेहरू के देहांत के बाद लालबहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने थे। शास्त्री जी के साथ देश में नई क्रांति आई। देश में कांग्रेस का चेहरा भी बदलने लगा था। एक बँधे-बँधाए दायरे की राजनीति से निकलकर नएपन की सुगबुगाहट महसूस की जा रही थी। लखनऊ भी बदल रहा था। इसके सूत्रधार शायद शास्त्री जी ही थे। पिताजी भी इस क्रांति के, इस बदलाव के सहभागी बने। वे शास्त्री जी से जब भी मिलते, नई ऊर्जा ग्रहण करते। इस ऊर्जा का पहला सामाजिक उपयोग उन्होंने गाँव-जवार की दयनीय-विषम स्थिति से राजनेताओं का साक्षात्कार कराने में किया। केंद्र सरकार के नेताओं-मंत्रियों के साथ ही प्रदेश सरकार के मंत्रियों-विधायकों का जमावड़ा हमारे गाँव में अकसर लगा रहता। पिताजी को शास्त्री जी के व्यक्तित्व ने बहुत प्रभावित किया। उन्होंने शास्त्री जी के चित्रों का एक संकलन भी तैयार किया था। ताशकंद में जब शास्त्री जी का आकस्मिक निधन हुआ, तो पिताजी को भी गहरा आघात लगा था। मैंने अवधी में लिखी उनकी एक कविता- रहैं देही मा दुई पसुरी, मुलु नेता रहै गरीबन क्यार को पढ़कर उनकी वेदना का और उनकी तत्कालीन मनःस्थिति का अनुमान लगाया। शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने के साथ देश की राजनीति एक परिवार के दायरे से बाहर निकलकर आई थी और उनके देहांत के बाद पुरानी स्थिति और विकृत होकर हावी हुई थी। आने वाले समय में देश ने आपातकाल भी देखा था।
जिन दिनों पिताजी लखनऊ में थे, उन दिनों लखनऊ साहित्यिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र होता था। हजरतगंज के कॉफ़ी हाउस में साहित्यिक-सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियाँ शिद्दत के साथ महसूस की जाती थीं। कॉफ़ी हाउस के साथ ही विश्वविद्यालय परिसर में, हज़रतगंज, क़ेसरबाग, चौक और अमीनाबाद की छोटी-बड़ी चाय की दूकानों में साहित्य-चर्चा के दौर चलते ही रहते थे। लखनऊ को वैसे भी नजाकत और नफ़ासत का शहर माना जाता है। पिताजी ने लखनऊ विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग द्वारा प्रकाशित की जाने वाली वार्षिक पत्रिका के छात्र-संपादक एवं अतिथि संपादक के रूप में कई वर्षों तक कार्य किया। हिंदी साहित्य के तत्कालीन नामचीन साहित्यकारों- अमृतलाल नागर, डॉ. धर्मवीर भारती और डॉ. भगवतीचरण वर्मा के सानिध्य ने पिताजी के साहित्यकार को विकसित किया, तो वी. के. कृष्ण मेनन, मोरारजी देसाई और नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. तुलसी गिरि व तत्कालीन शिक्षामंत्री यदुनाथ खनाल आदि के सानिध्य ने उनकी राजनीतिक-सामाजिक चेतना को विकसित किया था। लखनऊ विश्वविद्यालय के तत्कालीन उपकुलसचिव प्रो. ए. वी. राव और विधि संकाय के अधिष्ठाता प्रो. वी. एन. शुक्ल के संरक्षण में उनके व्यक्तित्व का विकास हुआ। उन्होंने विदेशी छात्रों के साथ लंबा समय गुजारा और भाषा अभियान के तहत देश-विदेश की कई यात्राएँ भी कीं। आजाद देश के हिस्से में एक दर्द यह भी था कि आजादी दिलाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाली हिंदी को देश के कई हिस्सों में पसंद नहीं किया जाता था। संपूर्णानंद और जयप्रकाश नारायण के प्रयासों को युवा हाथों की ताकत मिल रही थी।
उन दिनों सार्वजनिक जीवन भी सादगी और सरलता से भरा होता था। साहित्यकार, राजनीतिज्ञ और सहृदय के बीच भेद नहीं होता था। उन दिनों को स्मरण करते हुए विद्यानिवास मिश्र लिखते हैं कि हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की बैठकों में पुरानी-सी फटी दरी पर बड़े और छोटे, सभी बिना किसी भेदभाव के बैठते थे। वहाँ पर सारे अंतर मिट जाते थे। बड़प्पन जूते-चप्पलों के साथ दरवाजे पर ही उतर जाता था। वे एक प्रसंग उठाते हैं- एक सभा के दौरान विजलक्ष्मी पंडित को संपूर्णानंद जी देख रहे थे। एक अदने-से कवि ने व्यंग्य में लिखा- विजयलक्ष्मी ढिग लसत इमि संपूर्णानंद, जिमि अशोक वाटिका महि सियहिं लहावत दसकंध। कागज के टुकड़े में लिखी ये पंक्तियाँ हाथों-हाथ चलती हुई संपूर्णानंद जी तक पहुँचीं, उन्होंने पंक्तियों के रचनाकार को तलाशना चाहा, मगर तब तक कवि महोदय वहाँ से खिसक चुके थे। एक क्षण में ही संपूर्णानंद जी के चेहरे पर मुसकान तैर गई। पूरा सभागार ठहाकों से भर उठा। आज वैसी सादगी, सरलता और सहृदयता खोज पाना बहुत कठिन हो गया है। साहित्यकार, राजनेता और सहृदय व्यक्ति के अलग-अलग वर्ग बन गए हैं। इनका एकसाथ मिल पाना संभव नहीं रहा है। इन सबमें सहृदयता सबसे ज्यादा दुर्लभ हो गई है। उस समय के नामचीन साहित्यकार भी यह मानते थे कि समाज से उन्हें साहित्य-सर्जन हेतु प्रेरणा मिलती है, इस कारण वे समाज के प्रति कृतज्ञ होते थे, समाज भी उन्हें सिर-आँखों पर बैठाता था। आज के साहित्यकार ऐसे हैं, जैसे दूसरे लोक से बैठकर इस दुनिया को देखते हैं, फिर लिखते हैं। इस कारण समाज से उनका भावनात्मक जुड़ाव नहीं हो पाता है। पुराने साहित्यकार समाज के लिए प्रेरणास्रोत भी बनते थे, आदर्श भी बनते थे। शायद यही कारण रहा होगा कि पिताजी जिन साहित्यकारों, समाजसेवकों, राजनीतिज्ञों के संपर्क में आए, उन्होंने पिताजी के बहुमुखी विकास में सकारात्मक योगदान दिया। पिताजी ने सामयिक विषयों पर अखबारों में कॉलम भी लिखे, हिंदी और अंग्रेजी में आलेख लिखे और कुछ कविताएँ, कहानियाँ और व्यंग्य भी लिखे। उनके द्वारा रचित व्यंग्य- अहमदी चच्चू तथा दो आलेख- टीनोपाल में धुले चावल और पत्र तथा ये बहरूपिया नैन मैंने बहुत पहले पढ़े थे, कई बार पढ़े थे, मगर उस समय की तासीर का, सामयिक यथार्थ का तल्ख, सटीक और समग्र विवरण उनके लेखन में समझ पाने में मुझे कई वर्ष लग गए।
मेरे पिता ने मुझसे कभी जिक्र नहीं किया, मगर बड़ी बुआ के बड़े बेटे विनय दद्दू ने मुझे बताया कि लखनऊ में सिटी मांटेसरी स्कूल की स्थापना में पिताजी का योगदान रहा है। उन्होंने सिटी मांटेसरी स्कूल के प्रबंधक और संस्थापक डॉ. जगदीश गांधी के साथ पिताजी के संबंधों की चर्चा भी मुझसे कई बार की। अपने पिता के पुराने चित्रों में से सन् 1960-61 के कुछ चित्र और उनके कुछ पुराने कागजात इस बात की पुष्टि भी करते हैं। बाद के वर्षों में क्या हुआ, यह तो अतीत के गर्त में दबकर रह गया है, मगर जब सिटी मांटेसरी स्कूल की सफलता की खबरें सुनता या देखता हूँ तो एक सुखद अनुभूति होती है। विनय दद्दू ने यह भी बताया कि सिटी मांटेसरी स्कूल की स्थापना, विकास और बाद में उससे संबंध-विच्छेद ने उनके मामाजी के सामने ऐसी चुनौती खड़ी कर दी, जिसे पूर्ण करने के लिए उन्होंने अस्सी के दशक में बुंदेलखंड के पाठा-तिरहार क्षेत्र के अत्यंत पिछड़े इलाक में समाजकार्य का अनूठा और अपूर्व कीर्तिमान स्थापित किया। अस्सी के दशक में बाँदा जनपद के पाठा और तिरहार क्षेत्र में डकैतों, पूँजीपति दबंगों और सरकारी मुलाजिमों का ऐसा कहर बरपता था कि सीधे-सादे गरीब लोगों का जीवन गुलामों से भी बदतर होकर रह गया था। इन विषम स्थितियों को एक चुनौती के रूप में स्वीकार करते हुए पिताजी ने पाठा-तिरहार क्षेत्र में पहली बार महिलाओं को घर की चहारदीवारी से बाहर निकाला, उन्हें संगठित किया। लगभग बीस अनौपचारिक-व्यावसायिक शिक्षण केंद्रों, पुस्तकालयों और विधिक परामर्श केंद्रों के माध्यम से इस क्षेत्र में जन-जागरूकता लाने का अनूठा-अभिनव प्रयोग उन्होंने किया।
एक आदर्श शिक्षक के रूप में, एक जिम्मेदार-जागरूक नागरिक के रूप में उनकी सक्रियता को जितना मैंने देखा था, उससे कहीं ज्यादा महसूस किया, उनके जाने के बाद। उनके जीते-जी उनको इतनी गहराई से समझ पाना शायद मेरे लिए संभव नहीं हो पाता। अपने जीवन में संघर्षों-बाधाओं से डटकर मुकाबला करते हुए मेरे पिता ने जिस जीवन को जिया, वह मेरे लिए और शायद कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बन गया, प्रतीक बन गया। उनके जाने के साथ ही मेरे जीवन में एक युग का अंत हो गया, बीस बरस गुजर गए, मगर लगता है कि यह कल की ही बात हो। अपने पिता को याद करके मेरी आँखों में आँसू नहीं आते, क्योंकि मुझे अपने जीवन के हर-एक मोड़ पर उनकी उपस्थिति का अहसास होता है।
सन् 2000 में मैं अपने गाँव गया हुआ था। घर के बाहर बैठा था, तभी पता लगा कि ककोर बाबा के मंदिर के पास एक पेड़ पर दो कबूतर बैठे हुए हैं और उनकी उपस्थिति असामान्य-सी है। मैं खुद को रोक नहीं सका और वहाँ पहुँच गया। भारी भीड़ के बावजूद दोनों कबूतर निडर होकर बैठे हुए थे, लोगों ने बताया कि वे सुबह से बैठे हुए हैं। लोगों का अच्छा-खासा मजमा सुबह से ही लगा हुआ था। उन्हें देखकर लगा कि वे आपस में मशविरा कर रहे हैं। आठ अगस्त की शाम की इस घटना के अगले दिन काकोरी कांड की पचहत्तरवीं सालगिरह मनाई गई थी।
आचार्य जे. बी. कृपलानी और श्रद्धेया सुचेता कृपलानी से मेरे पिता को विशेष स्नेह मिला। वे दोनों मेर पिता को पुत्रवत् मानते थे। आचार्य कृपलानी के कद्दावर, निडर, साहसी और दृढ़ व्यक्तित्व ने, उनके भाषण-कौशल ने और एक आदर्श शिक्षक की उनकी भूमिका ने मेरे पिता के व्यक्तित्व का निर्माण किया। गोविंद वल्लभ पंत और लालबहादुर शास्त्री के व्यक्तित्व ने मेरे पिता को गढ़ा था। इनके साथ ही मेरे बाबाजी और साथ ही ककोर बाबा ऐसे प्रतीकों के रूप में मेरे जीवन में आए, जिनके व्यक्तित्व का समेकित पुंज मैंने अपने पिता में देखा। नियति ने उस महामना के वंशज के रूप में जो पहचान मुझे दी, उसकी गरिमा को बनाए रखने की जद्दोजहद के बीच हर साल अपने पिता को स्मरण करना मुझे दुःख, अपार वेदना और असुरक्षा का अहसास कराता है। बड़े पेड़ की छत्रछाया के नीचे एक ओर छोटे पौधे पनप नहीं पाते, वहीं दूसरी ओर आँधी-पानी के संकट से सुरक्षित रखने में बड़े पेड़ का योगदान रहता है। बड़े पेड़ के गिरने के बाद असुरक्षा का भाव अजीब दहशत भर देता है। उस दहशत को जीते-भोगते बीस वर्षों के अंतराल में, जब खुद को बड़े पेड़ की भूमिका में पाता हूँ, तब भी उस दहशत से खुद को मुक्त नहीं रख पाता हूँ। मुझे आज भी उनकी लड़खड़ाती आवाज का अहसास होता है- आई एम स्टिल ट्रीटेड अनट्रीट, उनको समझ पाने में शायद मैं भी असफल रहा, उनके संपर्क के लोग भी असफल रहे और आज भी उन्हें समझ पाना कठिन लगता है। फिर भी उनके अभाव को उनके जाने के बाद महसूस करना ही नियति है, काल की गति में लिखी सच्चाई है। एक भरोसा, एक आत्मविश्वास जरूर मुझे शक्ति देता है, जब मैं अपने पिता की अशरीरी उपस्थिति को अपने नजदीक पाता हूँ।    
डॉ. राहुल मिश्र
(अपने पिताजी के कुछ पुराने चित्रों के माध्यम से उनकी स्मृतियों को साझा करने का प्रयास किया है।)  






श्रद्धेय अमृतलाल नागर, डॉ. धर्मवीर भारती और डॉ. भगवतीचरण वर्मा के साथ

गौपैक द्वारा आयोजित समाज संस्कार बाल मेला


स्काट प्रोफेसर पीटर ड्राई का स्वागत, मुख्य वक्ता प्रो. मोहन












प्रो. वी. एन. शुक्ल (अधिष्ठाता, विधि संकाय), श्री अशोक निगम (शोध-छात्र), प्रो. ए. वी. राव (उपकुलपति), डॉ. तुलसी गिरि (प्रधानमंत्री, नेपाल सरकार), श्री सत्यदेव त्रिपाठी (शोध-छात्र), श्री विजय त्रिवेदी (शोध-छात्र) तथा श्री विनोद मिश्र

श्री जेफरी सुरेश राम, श्री विनोद मिश्र, श्री अशोक निगम, मा. श्री वी. के. कृष्ण मेनन (प्रतिरक्षा मंत्री, भारत सरकार), प्रो. ए. वी. राव (उपकुलपति), श्री विजय त्रिवेदी (शोध-छात्र), प्रो. वी. एन. शुक्ल (अधिष्ठाता, विधि संकाय) एवं श्री गोमती भारतीय

हिंदू कॉलेज, अतर्रा में प्राचार्य श्री कामतानाथ उपाध्याय के साथ
     

Sunday 17 August 2014

सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान


सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान
सआदत हसन मंटो उर्दू के सर्वाधिक विवादास्पद, चर्चित और महत्त्वपूर्ण लेखक के रुप में जाने जाते हैं। मुंशी प्रेमचंद के बाद उर्दू कहानी को एक नया आयाम देने और अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से उर्दू कहानियों में नए आयाम सृजित करने का कार्य सआदत हसन मंटो ने किया। मंटो की खूबी यह है कि वे अपने जीवनकाल में जितने चर्चित रहे, उतने ही चर्चित और प्रासंगिक आज भी हैं। मंटो का रचनाकाल आज के दौर से एकदम अलग था। उस समय साहित्य से अपेक्षाएँ थीं कि साहित्य अपने माध्यम से देश की आजादी की लड़ाई के लिए योगदान दे, किंतु मंटो ने इस भूमिका को अलग अंदाज में निभाया। उन्होंने समाज के उस क्रूर और कटु यथार्थ को, उस हकीकत को तरजीह दी, जो उस जमाने में वर्जित हुआ करती थी। इसी कारण वे जीवन-भर विवादों में रहे। उन पर आरोप भी लगे, उन्हें ताने-उलाहने भी मिले और उन पर मुकदमे भी चले। मंटो की रचनाओं में जितनी विविधता, जितना संघर्ष और जितनी सपाटबयानी नज़र आती है, वही सब उनकी जिंदगी में भी देखने को मिलती है।
उर्दू जुबान के इस नामचीन अफ़सानानिगार का जन्म पंजाब के समराला नामक स्थान में 11 मई, 1911 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के खानदान में हुआ था। उनके वालिद गुलाम हसन नामचीन बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था। मंटो उन्हें बीबीजान कहा करते थे। उनके पिता जितने सख्तमिजाज थे, उनकी माता उतनी ही नर्म स्वभाव वाली थीं। मंटो अपने माता-पिता के बारे में एक जगह लिखते हैं कि- उनके वालिद, ख़ुदा उन्हें बख़्शे, बड़े सख़्तग़ीर थे, और उनकी वालिदा बेहद नर्मदिल। इन दो पाटों के अंदर पिसकर यह दाना-ए-गुंदम किस शक्ल में बाहर आया होगा, इसका अंदाज़ा आप कर सकते हैं। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार थे और शरारती भी थे। उर्दू में कमजोर होने के कारण एंट्रेंस इम्तिहान में दो बार फेल होने के बाद मंटो को अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में दाखिला मिला। इन्ही दिनों मंटो ने अपने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक नाटक मंडली बनाई। इस नाटक मंडली ने आगा हश्र के एक नाटक के मंचन की तैयारी भी शुरू कर दी। एक खानदानी बैरिस्टर को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता था कि उसका बेटा नाच-गाने जैसी निम्न और समाज में बुरी नज़र से देखी जाने वाली गतिविधि में शामिल हो, लिहाजा मंटो के वालिद साहब ने एक रोज़ मंटो के हारमोनियम और तबले फोड़ दिए। इसके बाद नाटक मंडली ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। मंटो के वालिद ने उन्हें तीखे अल्फाज़ में बता दिया था कि ऐसे वाहियात शगल उन्हें कतई पसंद नहीं हैं। इसके बावजूद मंटो की रचनाधर्मिता थमी नहीं। सन् 1931 में मंटो का दाखिला हिंदू महासभा कॉलेज में हुआ। उन दिनों देश की आजादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। 1919 के जलियाँवाला बाग की घटना ने सात वर्ष के बालक मंटो के दिल और दिमाग पर गहरा प्रभाव डाला था। अपने आसपास क्रांतिकारी गतिविधियों को देखकर, इंकलाब जिंदाबाद के नारे सुनकर मंटो की इच्छा भी होती थी कि वह क्रांतिकारी गतिविधियों में शरीक हो जाए, मगर हर बार वालिद की सख़्तगीरी आड़े आ जाती थी। पिता के सख्त विरोध के बावजूद मंटो अदब से मुखातिब हुए और उनका पहला अफ़साना ‘तमाशा’ नाम से तैयार हो गया। इस कहानी में मंटो ने सात वर्ष के बालक खालिद की मानसिक स्थिति के जरिए जलियाँवाला बाग की घटना को अंजाम देने वाली विनाशक-क्रूर ताकतों की बर्बरता को पेश किया। सन् 1934 में 22 वर्ष की उम्र में मंटो ने जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, तब उनकी मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई। प्रगतिशील विचारधारा और देश की आजादी की लड़ाई की प्रेरणा से सन् 1935 में उनकी दूसरी कहानी- इनक़िलाब पसंद आई, जो अलीगढ़ मैगजीन में प्रकाशित हुई। मंटो की एक और कहानी- 1919 की बात में भी यही संदर्भ देखने को मिलता है। इस कहानी में इतिहास के जरिए कहानी बुनने के हुनर को देखा जा सकता है। ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं को कहानी में पिरोकर कहने की परंपरा मुंशी प्रेमचंद के जमाने में थी। मंटो ने भी ऐसा ही किया, मगर अपने खास अंदाज में। देश की आजादी की लड़ाई को मंटो ने अपनी कई कहानियों में अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया है। नया कानून कहानी में मंगू कोचवान के जरिए मंटो ने आजादी के दिनों की आम आदमी की मानसिकता को व्यक्त किया है। स्वराज्य के लिए कहानी में मंटो की क्रांतिकारी-साम्यवादी विचारधारा का गांधीवाद के साथ विरोध प्रकट होता है। इस कहानी के पात्रों- गुलाम अली और निगार के बीच संबंधों के जरिए आजादी की लड़ाई में शामिल दो अलग-अलग विचारधाराओं की पड़ताल की गई है। दो कौमें, एक ख़त, दो गड्ढे, नारा, यजीद और खाली बोतलें खाली डिब्बे कहानियों में मंटो ने राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों को बड़ी शिद्दत से व्यक्त किया है।
मंटो को अफ़सानानिगार बनने की प्रेरणा रूसी साम्यवादी साहित्य और फ्रांसीसी साहित्य के अनुवाद कार्य करने से मिली। अब्दुल वारी नामक एक पत्रकार की प्रेरणा से मंटो ने अपने लेखन की शुरुआत अनुवाद के माध्यम से की थी। सन् 1932 में मंटो के वालिद का इंतकाल हो गया था, उन्ही दिनों भगत सिंह को फाँसी की सजा दी गई थी, लिहाजा मंटो ने अपने कमरे में अपने वालिद की फोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखकर कमरे के बाहर ‘लाल कमरा’ लिख दिया था। मंटो की इस साम्यवादी वैचारिक पृष्ठभूमि ने उनके लेखन की नींव डालने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मंटो की कहानियों में राजनीतिक और सामाजिक पड़ताल के नजरिए का विकास उनकी साम्यवादी चिंतनधारा और प्रगतिशील वैचारिकता के कारण हुआ।
राजनीति और समाज के अलावा मंटो ने अपनी कहानियों के जरिए धर्म और साहित्य की हकीकतों का पर्दाफाश भी किया है। शहीद साज़ और शहदौले का चूहा कहानियों में मंटो ने अंधविश्वासों में जकड़े समाज की ऐसी कड़वी हकीकत को साझा किया है, जिसे सभ्य समाज द्वारा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन कहानियों में मंटो ने सभ्य कहे जाने वाले समाज की भ्रष्टता को बड़ी कलात्मकता और व्यंग्य के साथ उभारा है। खुदा की कसम कहानी के जरिए मंटो ने उन साहित्यकारों की खबर ली है, जो अपने समय और समाज की हकीकतों से दूर ख्वाबों की दुनिया में मशगूल रहते थे। साहित्य की समाज और सच्चाई से दूरी को मंटो ने न केवल महसूस किया, वरन् इस संकट का डटकर मुकाबला भी किया। मंटो के द्वारा लीक से हटकर चलने की इस कोशिश ने उर्दू कहानी को भी एक नई दिशा दी। आज की उर्दू कहानी अगर समय की सच्चाई से, समाज की हकीकत से और कथ्य की प्रभावोत्पादकता से जुड़ी है, तो इसे मंटो का योगदान ही माना जाएगा।
 मंटो ने अपने आसपास की जिंदगी को, अपने समय की सच्चाई को खुली आँखों से न केवल देखा था, वरन् उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके अफसाना बनाया था। उस दौर की एक और कड़वी सच्चाई थी, देश का विभाजन और विभाजन के बाद होने वाले दंगे। गंगा-जमुनी तहजीब को लहूलुहान कर देने वाला यह जख़्म मंटो की कहानियों में लगातार रिसता रहा। मंटो के लिए विभाजन की त्रासदी को सह पाना बहुत कठिन था। इसी कारण दंगों के दुष्प्रभाव और विकृत स्थितियों का जितना मार्मिक चित्रण मंटो की कहानियों में देखने को मिलता है, उसे कहीं और ढूँढ़ पाना बहुत कठिन है। मंटो की बहुचर्चित कहानी- टोबा टेकसिंह इसी तासीर की बहुत मार्मिक कहानी है। कहानी में दो देशों के बीच की जगह में चीख-चीखकर अपनी जान दे देने वाला टोबा टेकसिंह राजनीति की क्रूरता के सामने दम तोड़ने वाली गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है। इसी तरह टिटवाल का कुत्ता कहानी में  विभाजित देश की सीमाओं में एक ओर तैनात सूबेदार हिम्मत खाँ और दूसरी ओर तैनात जमादार हरनाम सिंह की गोलियों से छलनी होकर मरने वाला टिटवाल का कुत्ता उस आम आदमी की प्रतीक है, जिसे कभी हिंदुस्तानी होकर तो कभी पाकिस्तानी होकर राजनीतिक वहशीपन का शिकार होना पड़ता है। ठंडा गोश्त, खोल दो और नंगी आवाजें कहानियों को लेकर मंटो के ऊपर अश्लीलता के आरोप लगे थे और उन पर मुकदमा भी चला था। इन कहानियों को भले ही अश्लील कहकर मंटो पर आरोप लगाए जाएँ, मगर दंगों की भयावहता के बीच मानवता को शर्मसार करने वाली स्थितियों को जितनी शिद्दत के साथ इन कहानियों में प्रकट किया गया है, उसे कहीं और देख पाना संभव नहीं है। गुरमुख सिंह की वसीयत, शरीफन, रामखेलावन और मोजेल भी ऐसी ही कहानियाँ हैं, जिनके जरिए देश विभाजन के वक्त दंगों की भयावहता को और दंगों के पीछे काम कर रही क्रूर मानसिकता को समझा जा सकता है। दंगों पर ही केंद्रित कहानी- सहाय में मंटो लिखते हैं कि- वे लोग बेवकूफ हैं, जो समझते हैं कि बंदूकों से मजहब शिकार किए जा सकते हैं- मजहब, दीन, ईमान, धर्म, यकीन, विश्वास- ये जो कुछ भी हैं हमारे जिस्म में नहीं, आत्मा में होते हैं- छुरे, चाकू और गोली से ये कैसे फ़ना हो सकते हैं। मंटो का यह विचार इंसानियत के प्रति असीमित आस्था को, उनके मानवीय दृष्टिकोण को प्रकट करता है। आज के वैश्विक संदर्भ में मंटो का यह कथन एकदम सही और सटीक लगता है।
सआदत हसन मंटो की कहानियों में जिस तरह की हकीकत और बेचैनी यक्साँ है, वैसी ही उनके जीवन में भी दिखती है। मंटो 1935 में अलीगढ़ से लाहौर चले गए। वहाँ उन्होंने पारस अखबार में काम किया और मुसव्विर का संपादन भी किया। वे कुछ दिन बाद ही मुंबई आ गए, जहाँ उन्होंने फिल्मों की पटकथाएँ लिखने और फिल्म-जगत् की पत्रिकाओं में लेखन कार्य किया। मुंबई में चार साल गुजारने के बाद मंटो दिल्ली आ गए और और लगभग डेढ़ वर्षों तक आकाशवाणी में काम किया। यहीं पर उन्होंने बेहतरीन रेडियो-नाटक लिखे, जो आओ, मंटो के ड्रामे, जनाज़े और तीन औरतें संग्रहों में प्रकाशित हुए। दिल्ली प्रवास के दौरान ही मंटो का लेख-संग्रह- मंटो के मज़ामीन प्रकाशित हुआ। दिल्ली से एक बार फिर मंटो मुंबई चले गए। मुंबई के अपने प्रवास के दौरान मंटो ने अपनी नगरिया, आठ दिन और मिर्जा गालिब फिल्मों की पटकथाएँ लिखीं।
मंटो को भले ही अफ़सानानिगार के रूप में पहचान मिली हो, मगर मंटो बेहतरीन नाटककार भी थे। मंटो ने खासतौर पर रेडियो-नाटक लिखे हैं, मगर उनके नाटकों में मानसिकता की पड़ताल, समय और समाज की हकीकत और मानवीय संबंधों की जटिलता को उसी तल्खी के साथ देखा जा सकता है, जैसी उनके अफ़सानों में नज़र आती है। कबूतरी, नीली रगें, कमरा नंबर 9, रणधीर पहलवान, माचिस की डिबिया, रासपुतिन की मौत, नेपोलियन की मौत और चंगेज खाँ की मौत आदि उनके प्रसिद्ध नाटक हैं।
मंटो ने अपने जीवन में अनेक संघर्षों को झेलते हुए, अश्लीलता के आरोपों में अदालतों के चक्कर लगाते हुए, समाज की विकृतियों से विचलित होकर भटकते हुए बदकिस्मती को भोगते हुए सारा जीवन गुजार दिया। यह अजीब इत्तेफ़ाक था कि जिस दिन मंटो ने लाहौर में आखिरी साँस ली थी, उस दिन मंटो की लिखी फिल्म मिर्जा ग़ालिब दिल्ली में हाउसफुल चल रही थी। अंतोव चेखव के बाद मंटो ही ऐसे कहानीकार थे, जो अपनी कहानियों के बूते ही प्रसिद्ध हो गए। यह अलग बात है कि उनके जीते-जी उनका उचित मूल्यांकन नहीं हो सका। हिंदी और उर्दू के वर्तमान साहित्य में मंटो जितने चर्चित हुए हैं, उतनी चर्चा किसी दूसरे साहित्यकार की नहीं हुई है। हिंदी और उर्दू के आधुनिक कथा-साहित्य में मंटो की बराबरी करने वाला कोई साहित्यकार नज़र नहीं आता है। वर्तमान साहित्य यथार्थ और समय की हकीकत से जुड़ रहा है, इस कारण मंटो के लेखन को देखने का नया नजरिया विकसित हुआ है।  
उर्दू अफ़सानानिगार मुशर्रफ़ आलम जौक़ी के मुताबिक- दुनिया अब मंटो को समझ रही है। भारत और पाकिस्तान में उन पर बहुत शोध-कार्य हो रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिए सौ वर्ष भी कम हैं। वे लिखते हैं कि- शुरुआत में मंटो को दंगों, फिरकावाराना वारदातों और वेश्याओं पर कहानियाँ लिखने वाला सामान्य-सा साहित्यकार माना जाता था, लेकिन मंटो की कहानियाँ अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयाँ छोड़ जाती हैं। उनकी सपाटबयानी वाली कहानियाँ फ़िक्र के आसमान को छू लेती हैं।
मंटो ने अपने 19 साल के साहित्यिक जीवन में लगभग 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द-चित्र और 70 लेखों की रचना की। अपने छोटे-से साहित्यिक जीवन में उर्दू और हिंदी साहित्य को नई दिशा देने और कालजयी रचनाओं के जरिए समाज की कड़वी हकीकत से रू-ब-रू कराने वाला यह अफ़सानानिगार तमाम जिल्लतें, अनेक ताने-उलाहने, ढेरों मुसीबतें और अभाव से भरी हुई जिंदगी को अपने बेबाक-बिंदास अंदाज में जीते हुए 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में हमें अलविदा कह गया।   

 डॉ. राहुल मिश्र
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह से दिनांक 11 अगस्त, 2014 को प्रातः 0830 बजे प्रसारित)





Tuesday 1 July 2014

IMPORTANCE OF KALACHAKRA कालचक्र का महत्व

कालचक्र का महत्त्व
कालचक्र अनुष्ठान का बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा में अपना विशेष स्थान है। भारत की पुरातन पूजा परंपरा में कालचक्र का विशेष महत्त्व रहा है। कालचक्र संस्कृत भाषा का शब्द है। भोट भाषा में इसे दुस-खोर-वङ-छेन कहा जाता है। काल का सरल अर्थ समय होता है और चक्र का अर्थ निरंतर गतिमान रहने वाला पहिया होता है। इस तरह कालचक्र का सीधा सा अर्थ समय का चक्र होता है। कालचक्र या समय का चक्र प्रकृति से अपना संबंध बनाए रखते हुए ज्योतिषशास्त्र के द्वारा विचार करके सूक्ष्म आंतरिक ऊर्जा के विकास और आध्यात्मिक चेतना को जगाने के अभ्यास के मेल से बनने वाला तांत्रिक ज्ञान होता है।
बौद्ध धर्म में चार प्रकार की तांत्रिक साधनाएँ बताई गईं हैं। चर्यातंत्र और क्रियातंत्र मूल रूप से तांत्रिक साधनाएँ नहीं हैं, जबकि योगतंत्र और अनुत्तरयोगतंत्र में तांत्रिक साधना होती है। अनुत्तरयोगतंत्र के तीन उपविभाजन होते हैं। इनमें पहला मातृतंत्र या प्रज्ञातंत्र है, दूसरा पितृतंत्र या योगतंत्र है और तीसरा अद्वयतंत्र है। कालचक्रतंत्र अद्वयतंत्र का मूल ग्रंथ माना जाता है। कालचक्रतंत्र के विषय की व्यापकता को देखते हुए इसे कालचक्रयान नाम भी दिया गया है। कालचक्रतंत्र का मूल ग्रंथ संस्कृत में है, जो पाँच खंडों में विभाजित है। बौद्ध तंत्रों में मूलतंत्र, भाष्यतंत्र और लघुतंत्रों की परंपरा मिलती है। कालचक्रतंत्र के अनेक भाष्यतंत्र और लघुतंत्र वर्तमान में उपलब्ध हैं। आचार्य अभयाकर गुप्त, आचार्य धर्माकरशांति, आचार्य विमलप्रभाकर और आचार्य नारोपाद द्वारा कालचक्र पर भाष्यग्रंथ और टीकाएँ लिखी गईं हैं, जिन्हें कालचक्रतंत्र के ज्ञान के लिए प्रमाणिक माना जाता है।
ईसा की तीसरी और छठवीं शताब्दी के बीच बौद्ध धर्म में इन तांत्रिक साधनाओं का उदय हुआ। इन साधनाओं का जन्म दक्षिण भारत में आंध्रप्रदेश के श्रीधान्यकटक क्षेत्र में हुआ। वर्तमान में यह क्षेत्र गुंटूर जिले के अमरावती और धरनीकोटा नामक शहरों के द्वारा जाना जाता है। इसी क्षेत्र में स्थित श्रीपर्वत तांत्रिक साधना का प्रमुख केंद्र बना। संभवतः इसी क्षेत्र में प्रख्यात बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन का जन्म हुआ था। नागार्जुन ने बौद्ध तांत्रिक साधनाओं पर अनेक भाष्य लिखे, अनेक रचनाएँ कीं। महायान परंपरा की शिक्षाओं की अपेक्षा तंत्र साधना की शिक्षा अत्यंत गुप्त रूप से दी जाती थी, और पात्र-अपात्र का विचार करके इन शिक्षाओं को दिया जाता था, इस कारण इसे गुह्यसमाजतंत्र नाम मिला। गुह्यसमाजतंत्र की उत्पत्ति दक्षिण भारत में हुई और दक्षिण भारत के सातवाहन शासकों के साथ ही महा-मेघवाहन, मौर्य, इक्ष्वाकु, पल्लव, सालकायना, विष्णु-कुंदिन, चालुक्य और विजयनगर शासकों ने गुह्यसमाजतंत्र साधना के विस्तार के लिए संसाधन उपलब्ध कराने और पर्याप्त संरक्षण प्रदान करने का कार्य किया। सातवाहन वंश के राजा हाल ने द्वितीय शताब्दी में आर्य नागार्जुन के लिए श्रीपर्वत शिखर पर एक विहार बनवाया था। कृष्णा और गोदावरी नदियों के किनारे बसे नागार्जुनकोंडा, अमरावती और धरनीकोटा नगरों में गुह्यसमाजतंत्र साधना का विस्तार हुआ। नागार्जुनकोंडा में मिले एक अभिलेख से पता चलता है कि इस क्षेत्र में स्थाविरों के संघ बने थे, जिनके माध्यम से कश्मीर, गांधार, चीन, किरात (वर्तमान तिब्बत और उसके आसपास हिमालय की तराई का इलाका), तोसलि (वर्तमान ओडिशा), यवन (वर्तमान अफगानिस्तान) और ताम्रपर्णी द्वीप (वर्तमान श्रीलंका) में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ। ऐसी मान्यता है कि श्रीधान्यकटक क्षेत्र से ही मूल कालचक्र ज्ञान प्रसारित हुआ था। प्रसिद्ध तिब्बती विद्वान तारानाथ के अनुसार भगवान् बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के अगले वर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा को श्रीधान्यकटक के महान स्तूप के पास ही कालचक्र का ज्ञान प्रसारित किया था। उन्होंने इसी स्थान पर कालचक्र मंडलों का सूत्रपात भी किया था। संभवतः इसी कारण जापान के बुश्शोकाई फाउंडेशन और नोरबूलिंगका इंस्टीट्यूट के अनुरोध पर परमपावन दलाई लामा ने भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण की 2550 वीं जयंती पर सन् 2006 में श्रीधान्यकटक में 31 वीं कालचक्र पूजा आयोजित की थी।
श्रीधान्यकटक से गुह्यसमाजतंत्र साधना और कालचक्र पूजा-साधना का विस्तार उत्तर भारत की ओर हुआ। ईसा की आठवीं शताब्दी के मध्य से नौवीं शताब्दी के मध्य तक कालचक्र पूजा-साधना आधुनिक पाकिस्तान की स्वात घाटी के ओड्डियान (उर्ग्यान) तक विकसित हो गई। इसी अवधि में पाल शासकों के संरक्षण में नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों में तंत्र-साधना के अध्ययन की शुरुआत हुई। ईसा की दसवीं शताब्दी के मध्य में कालचक्रतंत्र ग्रंथ की रचना हुई। आठवीं और बारहवीं शताब्दी के मध्य मठों और विश्वविद्यालयों से निकलकर चौरासी सिद्धों के माध्यम से तंत्र-साधना का विकास हुआ। इसी कालखंड में समूचे हिमालय परिक्षेत्र में गुह्यसमाजतंत्र साधना के अंतर्गत कालचक्र पूजा-साधना का विकास हुआ। कालांतर में दक्षिण भारत सहित उत्तर भारत और हिमालयी परिक्षेत्र के अतिरिक्त अन्य हिस्सों में प्रचलित वज्रयान बौद्ध परंपरा सिमटने लगी। जिस समय देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तंत्र-साधना का प्रभाव कम होता जा रहा था, उस समय तिब्बत के धर्मभीरु शासक इस परंपरा को संरक्षण प्रदान कर रहे थे। लदाख अंचल समेत हिमालय की गोद में बसे भारतीय क्षेत्रों और नेपाल-भूटान आदि देशों में इस परंपरा का प्रभाव बना रहा।
बौद्ध ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सारा ब्रह्माण्ड या संसार एक चक्र में बँधा हुआ होता है। यह चक्र चार स्थितियों- शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस से मिलकर बना होता है। कालचक्र तीन प्रकार का होता है। बाहरी, आंतरिक और वैकल्पिक कालचक्र। इन तीनों प्रकार के कालचक्र में शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस की स्थितियाँ होती हैं।
कालचक्र का बाहरी स्वरूप समय के मापन पर आधारित होता है। ग्रहों, नक्षत्रों की गति से हम समय के चक्र को जान सकते हैं। इसी तरह जन्म, जीवन और मरण की स्थितियों में काल की गति या समय चक्र चलता है। इस संसार में प्रत्येक जीवधारी काल, अर्थात् समय की गति से बँधा होता है। संसार के अन्य जीवधारियों की तुलना में मनुष्य सबसे अधिक समझदार, ज्ञानवान और विवेकवान होता है। मानव-सभ्यता का विकास भी इसी कारण हुआ है। मानव-सभ्यता के विकास-क्रम में बाहरी परिवेश और आंतरिक स्थितियों को जानने-समझने की चेतना का विकास भी हुआ। अंतरिक्ष विज्ञान और समय की गति को जानने की उत्सुकता भी मानव-सभ्यता के विकास के साथ ही उत्पन्न हुई। सौरमंडल की गति के वैज्ञानिक पक्ष और दार्शनिक पक्ष को कई तरीकों से व्याख्यायित किया गया। इसी से कालचक्र या समयचक्र की अवधारणा का विकास भी हुआ। सूरज का एक नाम कालचक्र भी होता है। सौरमंडल में सूरज के इर्द-गिर्द ग्रहों-उपग्रहों की चक्राकार गति चलती रहती है। सौरमंडल के ग्रहों-नक्षत्रों की गति की तरह सजीव और साथ ही निर्जीव वस्तुओं की गति चलती रहती है। उनकी उत्पत्ति के लिए एक वातावरण का निर्माण होता है, फिर उन्हें उत्पन्न होना होता है, उन्हें एक निश्चित अवधि तक सक्रिय रहना होता है और फिर उन्हें नष्ट हो जाना होता है। कालचक्रतंत्र की शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस की स्थितियों को कालचक्र के बाहरी स्वरूप में देखा जा सकता है। जन्म, बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था और मृत्यु का यह चक्र भौतिक जगत् में दिखाई पड़ता है। कालचक्र के बाहरी विधान के अनुरूप हम मौसम के बदलावों का अनुभव करते हैं। मौसम के बदलने के कारण शरीर और मन पर पड़ने वाले प्रभावों का हम अनुभव करते हैं।
संसार में कालचक्र की आंतरिक गति मानव-मन के अलग-अलग भावों और विचारों के लगातार बदलने पर आधारित होती है। आंतरिक जगत् में भी गति होती है। यह गति मानव-मन और विचारों में होती है। बचपन से लगाकर वृद्धावस्था तक ज्ञान, विवेक और समझ के अलग-अलग स्तर इसी गति को प्रकट करते हैं। इसी तरह राग, द्वेष, मद, लोभ, मोह, अहंकार, लालच, क्रोध आदि चित्तवृत्तियाँ भौतिक जगत् की स्थितियों के सापेक्ष मानव-मन में समय-समय पर उत्पन्न होती रहती हैं और नष्ट होती रहती हैं। कालचक्र की आंतरिक गति हमारे कर्मों के प्रभाव से परिवर्तित होती है और उसे हम महसूस करते हैं। इसी तरह मन, वाणी, कर्म की परिशुद्धि करके सम्यक् संबोधि प्राप्त करना भी कालचक्र की आंतरिक गति का लक्षण होता है। काल की इस गति को समझने की चेतना का विकास करने वाले साधक परिवर्तन की प्रक्रिया को जान-समझ पाते हैं। सामान्य मनुष्य इस गति को, इस चक्र को नहीं समझ पाते हैं।
काल के इस चक्र में परस्पर विरोधी तत्त्व शामिल होते हैं। इसमें कल्याणकारी तत्त्व भी होते हैं और अकल्याणकारी तत्त्व भी होते हैं। इन तत्त्वों का प्रभाव और व्यक्ति-विशेष में इन तत्त्वों की उपस्थिति उसके कर्मों के कारण होती है। कर्म का संयोग मन और वाणी से होता है। इनमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली तत्त्व मानव-मन होता है। काल के चक्र को समझकर अगर मानव-मन की, आंतरिक जगत् के चक्र की परिशुद्धि कर दी जाए तो वाणी और कर्म की परिशुद्धि का मार्ग सुलभ हो जाता है। कालचक्र की वैकल्पिक गति बाहरी और आंतरिक कालचक्र के बीच तालमेल बनाने और मन, वाणी, कर्म के परिशोधन की इसी जटिल विधि पर आधारित होती है। कालचक्र अनुष्ठान और कालचक्र पूजा का विधान इसी वैकल्पिक गति पर आधारित होता है। मन, वाणी और कर्म की शुद्धि से; काय, वाक् और चित्त की शुद्धि से त्रिस्तरीय साधना सफल हो जाती है और आत्मज्ञान अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है।
साधना के विभिन्न स्वरूप इसी पूर्णता की प्राप्ति के माध्यम बनते हैं। तंत्र के माध्यम से ऐसी साधना का स्वरूप कालचक्र में होता है। कालचक्र पूजा के लिए बनाए जाने वाले रेत मंडल में सारे संसार का स्वरूप बना होता है। इसमें दसों दिशाएँ होतीं हैं। सकारात्मक और नकारात्मक भाव होते हैं। सकारात्मक भावों की रक्षा के लिए रक्षक होते हैं, धर्मपाल होते हैं और नकारात्मक भावों से लड़ने के लिए शक्तिशाली योद्धा भी होते हैं। कालचक्र मंडल में बुद्ध के 722 स्वरूप होते हैं। कालचक्र पूजा-अभिषेक के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली रेत और धार्मिक कृत्य के लिए जल का प्रयोग भी अपने प्रतीकात्मक अर्थ रखते हैं। जिस तरह बारीक रेत को मुट्ठी में बंद करके नहीं रखा जा सकता है, वह झर-झर करके बंद मुट्ठी से निकल जाती है, और जिस तरह जल को मुट्ठी में रोककर नहीं रखा जा सकता, उसी तरह का स्वभाव काल का भी होता है, समय का भी होता है। समय की गति को पहचानकर उसका सार्थक उपयोग कालचक्र के प्रतीक आधारित महत्त्व को स्पष्ट करता है।
कालचक्रतंत्र के साथ शंबाला के धर्मभीरु राजाओं का मिथक भी जुड़ा हुआ है। ऐसी मान्यता है कि शंबाला का धर्मराज्य एक बार फिर से कायम होगा, इसके लिए धर्मयुद्ध होगा और विधर्मियों का संसार से सफाया होगा, धर्म का शासन स्थापित होगा। इस मिथक की परमपावन दलाई लामा ने बड़ी स्पष्ट और व्यावहारिक व्याख्या की है। उनका कहना है कि बौद्ध धर्म शांति और अहिंसा को मानने वाला है। इसमें धर्मयुद्ध का मतलब लोगों से युद्ध करना नहीं, बल्कि संसार में फैली बुराइयों से, दूषित चित्तवृत्तियों से लड़कर, उन्हें हराकर मानवता के, विश्वकल्याण के, सत्य-शांति-अहिंसा के धर्म का शासन स्थापित करना है।
ऐसा माना जाता है कि बौद्ध तंत्र-साधना में कालचक्रतंत्र की उत्पत्ति बहुत बाद में हुई। गुह्यसमाजतंत्र के एक अंग के रूप में, अनुत्तरयोगतंत्र की एक शाखा के रूप में कालचक्रतंत्र का उद्भव और विकास हुआ। नालंदा, राजगीर और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के माध्यम से कालचक्रतंत्र का प्रचार-प्रसार हुआ, किंतु कालांतर में कालचक्रतंत्र का महत्त्व बौद्धतंत्रों में लगातार बढ़ता गया। इसी कारण विमलप्रभाकर और अन्य टीकाकारों ने, बौद्ध आचार्यों ने कालचक्रतंत्र को तंत्रराज, आदिबुद्ध और बृहदादिबुद्ध नाम दिए हैं। क्षणभंगवाद, शून्यवाद, अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, कर्मवाद, निर्वाण आदि बौद्ध मत, दर्शन और मान्यताएँ कालचक्रतंत्र-साधना में प्रकट होतीं हैं। इसी कारण बौद्ध धर्म के वर्तमान स्वरूप में कालचक्र-साधना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संभवतः इसी कारण परमपावन चौदहवें दलाई लामा ने कालचक्र अनुष्ठान को बौद्ध धर्म की सर्वोच्च पूजा-साधना के रूप में स्थापित किया है। उनके द्वारा कालचक्रतंत्र की जटिल पद्धति का सरल संस्करण तैयार किया गया है। उनके द्वारा कालचक्रतंत्र की व्याख्या वर्तमान वैज्ञानिक युग के अनुरूप की गई है। इस कारण कालचक्र अनुष्ठान के प्रति देश-दुनिया में जनस्वीकार्यता बढ़ी है। जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के भेदभाव से हटकर कालचक्र अनुष्ठान के साथ देश-दुनिया की आस्था भी इसी कारण जुड़ी है।     
परमपावन चौदहवें दलाई लामा के संरक्षण में भारत की पुरातन परंपरा और हिमालयी परिक्षेत्र की अपनी अनूठी पहचान आज स्वयं को सुरक्षित रख पा रही है। परमपावन दलाई लामा ने विशिष्ट कालचक्र साधना को विश्वकल्याण, विश्वशांति और विश्वबंधुत्व जैसे महान मानवीय मूल्यों के साथ जोड़कर पुरातन-परंपरागत साधना-पद्धति को एक नया आयाम दिया है और इसे विश्वव्यापी भी बनाया है। परमपावन दलाई लामा के संरक्षण में अब तक बत्तीस कालचक्र अनुष्ठान संपन्न हो चुके हैं। इनमें से पहले दो अनुष्ठान तिब्बत की राजधानी ल्हासा के नोरबूलिङका मठ में संपन्न हुए हैं। बारह कालचक्र अनुष्ठान विदेशों में संपन्न हुए हैं और शेष अठारह कालचक्र अनुष्ठान भारत के विभिन्न क्षेत्रों में संपन्न हुए हैं।
दुनिया के तमाम मत, पंथ, संप्रदाय इस बात पर जोर देते हैं कि समाज में आपसी सौहार्द, समन्वय, भाईचारा और बंधुत्व की भावना का विकास हो। इसके लिए सभी मत-संप्रदाय विशेष प्रयास भी करते हैं और धार्मिक विधानों के माध्यम से सौहार्द-समन्वय स्थापित करते हैं। इसके लिए सभी मत-संप्रदाय एक निश्चित क्रम के अनुसार नियत समयांतराल में बड़े धार्मिक आयोजन करते हैं। ऐसे आयोजनों या विधानों में धर्म-विशेष के मानने वाले लोग आपसी भेदभाव को भुलाकर एकसाथ समय गुजारते हैं, धार्मिक आयोजनों में शरीक होते हैं। बौद्ध धर्म में आयोजित होने वाली कालचक्र पूजा के केंद्र में भी इस भावना को देखा जा सकता है। यह धार्मिक पूजा-अनुष्ठान का सामाजिक पक्ष है, जिसके मूल में मानवता की भावना निहित होती है, सामाजिक समरसता की भावना निहित होती है। अन्य धर्मों और मतों के द्वारा वृहद स्तर पर आयोजित किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों और आयोजनों-विधानों की तुलना में बौद्ध धर्म की परंपरागत कालचक्र पूजा का स्थान श्रेष्ठ है। अन्य धर्मों की तरह बौद्ध धर्म की कालचक्र पूजा में शामिल होने के लिए जाति-धर्म का कोई बंधन नहीं है। 28 दिसंबर, 2011 से 10 जनवरी, 2012 तक बोधगया में हुई 32 वीं कालचक्र पूजा में हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता रिचर्ड गेर के साथ ही देश-विदेश के लगभग तीन लाख श्रद्धालु शामिल हुए थे। इन श्रद्धालुओं में बड़ी संख्या दूसरे धर्मों को मानने वाले लोगों की थी। धार्मिक भेदभाव, क्षेत्रीय भेदभाव और भाषाई भेदभाव को भुलाकर सबको इस पूजा में शामिल करने की पवित्र भावना बौद्ध धर्म की श्रेष्ठता को सिद्ध करती है। विश्वकल्याण के लिए, सारे संसार के सुख के लिए, समृद्धि के लिए और सत्य, शांति, अहिंसा, दया, करुणा, क्षमा जैसे महान मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए समर्पित कालचक्र पूजा इसी कारण अपना विशेष महत्त्व रखती है। दुनिया भर में अब तक संपन्न हो चुकी 32 कालचक्र पूजा के आयोजनों के सार्थक और जनकल्याणकारी पक्ष उभरकर सामने आए हैं। सारे संसार में कम से कम इस बात की चर्चा का माहौल तो बना ही है कि इस संसार को बचाने के लिए बौद्ध धर्म के मूल में स्थित भावना को; सत्य, शांति, अहिंसा, करुणा और दया-क्षमा जैसे गुणों को संरक्षित-संवर्धित किया जाए। इस दिशा में कालचक्र पूजा एक ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में प्रचारित-प्रसारित हुई है, जिसने सारे संसार को बौद्ध धर्म के मानवतावादी और विश्वकल्याणकारी पक्ष से परिचित कराया है। इसी कारण परमपावन दलाई लामा के संरक्षण में आयोजित किए गए 32 कालचक्र अनुष्ठानों ने उत्तरोत्तर सफलता अर्जित की है और सारे संसार को मानवता के धर्म के साथ जोड़ने में अद्भुत योगदान दिया है। 03 से 14 जुलाई 2014 तक लेह-लदाख में होने वाला 33 वाँ कालचक्र अनुष्ठान सफल और सार्थक होगा, इसमें संदेह नहीं है।     
कालचक्र का धार्मिक महत्त्व जितना अधिक है, उतना ही सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व भी है। कालचक्र अनुष्ठान एक अवसर है, एक सुखद संयोग है, पुरातन धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं को संरक्षित रखने का। इससे भी बड़ा पक्ष सामाजिक महत्त्व का है। कालचक्र अनुष्ठान के अवसर पर देश-दुनिया के तमाम लोग जाति और धर्म का भेदभाव मिटाकर एकजुट होते हैं। अमीर और गरीब का, ऊँच और नीच का भेद इस अवसर पर मिट जाता है। केवल एक ही ध्येय, केवल एक ही लक्ष्य सामने होता है, मानवता के कल्याण का, विश्व की शांति का, बंधुत्व और भाईचारे का। भौतिकतावाद, जाति-धर्म, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, भाषा-भूषा और सांस्कृतिक विभेद के बंधनों में जकड़े संसार को उसके इन बंधनों से मुक्त होने का रास्ता दिखाने वाली कालचक्र पूजा का सामाजिक पक्ष और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। समाज को एक सूत्र में बाँधने और संपूर्ण आर्यावर्त की पुरातन-परंपरागत विश्वबंधुत्व की भावना को; सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया की भावना को बल प्रदान करने के लिए और मानवता के उच्च आदर्शों की स्थापना के लिए कालचक्र पूजा का बड़ा महत्त्व है। कालचक्र अनुष्ठान दुनिया-भर के उन लोगों को एकसाथ लाने का महान अनुष्ठान भी है, जो लोग मानवता के पक्षधर हैं, जिनके मन में करुणा, दया, सत्य, शांति और अहिंसा जैसे महान मानवीय मूल्यों के प्रति श्रद्धा है, आस्था है। निश्चित रूप से कालचक्र पूजा-अभिषेक का मानवता के कल्याण में, समस्त चराचर जगत् के कल्याण में योगदान रहा है और आगे आने वाले समय में भी रहेगा। 03 से 14 जुलाई 2014 तक लेह-लदाख में होने वाली 33 वीं कालचक्र पूजा के अवसर पर होने वाले महासंगम के परिणाम कल्याणकारी होंगे और सुखद भी होंगे।    
डॉ. राहुल मिश्र
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी लेह, दिनांक- 30 जून, 2014, प्रातः 0830 बजे प्रसारित)