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Friday, 5 September 2025

 

अपराजेय योद्धा श्रीमंत बाजीराव बल्लाळ भट्ट

हिंदवी साम्राज्य के स्वप्न को साकार करने वाले अपराजेय योद्धा श्रीमंत बाजीराव बल्लाळ भट्ट की पुण्यतिथि पर विगत 28 अप्रैल को रावेरखेड़ी में भव्य आयोजन हुआ। मध्यप्रदेश के खारगौन जनपद में रावेरखेड़ी नर्मदा के तट पर स्थित एक अनजाना-सा गाँव है, लेकिन हिंदवी साम्राज्य के अपराजेय योद्धा की समाधि ने इस गाँव को न केवल वैश्विक मानचित्र पर उकेरा है, वरन् भारतीय शौर्य और सनातन आस्था के समर्पित जनों के लिए तीर्थ की भाँति पूज्यनीय बनाया है।

दिल्ली से विजय-पताका फहराते हुए लौट रहे पेशवा बाजीराव का पड़ाव रावेरखेड़ी में पड़ा था। यहीं उनका स्वास्थ खराब हुआ और 28 अप्रैल, 1740 को उन्होंने देवलोकगमन किया। श्रीमंत के स्वामिभक्त ग्वालियर के सिंधिया राजे ने उनकी समाधि बनवाई। समाधि-स्थल भव्य किले के रूप में है, लेकिन यह स्थान और साथ ही रावेरखेड़ी इतिहास के पन्नों में अनजाना-सा रहा है। सच्चाई तो यह है, कि बाजीराव पेशवा को भी कम लोग ही जानते होंगे। वर्ष 2015 में एक फिल्म आई थी- बाजीराव मस्तानी। यह फिल्म नागनाथ इनामदार के मराठी उपन्यास राऊ पर केंद्रित थी। इस फिल्म ने बाजीराव पेशवा का जैसा परिचय समाज को देने का प्रयास किया, वह भारत के गौरवपूर्ण अतीत का अनुशीलन और समाज का सच से निदर्शन नहीं करा सका है। पेशवा बाजीराव की अद्भुत युद्धकला, उनका संगठन-कौशल, उनका शौर्य और पराक्रम, उनकी वीरता के अनेक गौरवपूर्ण अध्यायों पर एक मनगढंत प्रेमकथा का आवरण डाला गया है। मस्तानी बुंदेल-केसरी वीर छत्रसाल की धर्म-पुत्री थी, और पराक्रम में भी किसी से कम नहीं थी। महाराजा छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को अपना पुत्र मानते हुए बुंदेलखंड के राज्य का एक तिहाई भाग बाजीराव पेशवा को दिया था। कुँवरि मस्तानी ने महाराजा छत्रसाल के गुरु महामति प्राणनाथ द्वारा प्रवर्तित प्रणामी संप्रदाय की विधिवत् दीक्षा ली थी। बाजीराव पेशवा और मस्तानी कुँवरि के संबंध अतीत की सच्चाई हैं, लेकिन इनका केवल कल्पनाजन्य विस्तार ही कथा-उपन्यासों और फिल्मों तक आता है। खेदजनक तो यह है, कि बाजीराव-मस्तानी के संबंधों का सम्यक मूल्यांकन और ऐतिहासिक शोधपरक अध्ययन इतिहासकारों के अध्ययन-क्षेत्र में नहीं आ सका। फलतः सही व सर्वाङ्गपूर्ण जानकारी का अभाव हमारे चरितनायक को, भारतीय शौर्य की गौरवशाली परंपरा के प्रमुख मानबिंदु को, बाजीराव बल्लाळ भट्ट को अपेक्षित मान नहीं दिला सका।

सैन्य-अध्ययन में बहुत प्रचलित युद्ध-तकनीक है- ब्लिट्जक्रेग। हिंदी में इसे विद्युतगति युद्ध कह सकते हैं। इस युद्ध पद्धति के जनक पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट थे। छत्रपति शिवाजी महाराज ने गुरिल्ला युद्ध पद्धति के द्वारा मुगलों को अनेक युद्धों में परास्त किया था। उनकी इस युद्ध-पद्धति को सामयिक आवश्यकता और अनिवार्यता के अनुरूप विस्तारित करते हुए श्रीमंत बाजीराव ने बिजली की गति से शत्रु पर टूट पड़ने की युद्ध पद्धति को अपनाया। शत्रु जब तक युद्ध के हालात को समझ पाए, तब तक शत्रु पर चारों ओर से एकसाथ आक्रमण कर देना। उनकी इसी युद्ध पद्धति के कारण उन्हें हर युद्ध में विजयश्री मिली। ब्रिटिश सेना के फील्ड मार्शल बर्नार्ड लॉ मांटगोमरी द्वितीय विश्वयुद्ध के सबसे सफल और प्रमुख कमांडर थे। जनरल मांटगोमरी की प्रसिद्ध पुस्तक है- हिस्ट्री आफ वारफेयर। इस पुस्तक में उन्होंने बाजीराव पेशवा की अश्वसेना सहित उनकी बिजली-युद्ध पद्धति की बहुत प्रशंसा की है। वे लिखते हैं, कि- “पेशवा बाजीराव प्रथम एक भी युद्ध नहीं हारे। वे सदैव संख्याबल में कम, किंतु कुशल घुड़सवार सैनिकों के साथ बिजली की गति से आक्रमण कर दुश्मन की लाखों की सेना को परास्त कर देते थे।“

28 फरवरी, 1728 को संभाजीनगर (पूर्ववर्ती औरंगाबाद) के निकट पालखेड़ गाँव के समीप हुए पालखेड़ का युद्ध उनके इस रणकौशल का उत्कृष्टतम उदाहरण है। पालखेड़ के युद्ध में उनकी नवोन्मेषी युद्धनीति, रणनीति और राजनीतिक कुशलता का अद्भुत साम्य देखने को मिलता है। इसी कारण पालखेड़ का युद्ध विश्व के चर्चित और प्रसिद्ध युद्धों में अपना स्थान भी रखता है और आज भी ‘केस-स्टडी’ के रूप में पढ़ा-पढ़ाया जाता है। ब्रिटेन और अमरीका में आज भी सैन्य-अध्ययन के अंतर्गत पालखेड़ का युद्ध ‘केस-स्टडी’ के रूप में पढ़ाया जाता है।

पिता बालाजी विश्वनाथ की मृत्यु के उपरांत छत्रपति शाहूजी महाराज के समक्ष पेशवा के पद को लेकर बड़ा संकट खड़ा हो गया था। उस समय बाजीराव की आयु 19 वर्ष के आसपास थी। अल्पवय के बाजीराव की वीरता और कर्मठता ने शाहूजी महाराज को बहुत प्रभावित किया, और उन्होंने बाजीराव को पेशवा नियुक्त किया। इसके उपरांत बीस वर्षों तक बाजीराव पेशवा ने कभी अपनी कमर की तलवार नहीं खोली, कभी अश्व की सवारी नहीं छोड़ी और अटक से कटक तक भगवा ध्वज फहराकर शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज के स्वप्न को साकार किया। विश्व का इतिहास साक्षी है, कि शक्तिशाली सेनापति हो या सामान्य-सा सैनिक, या फिर परिवार का ही व्यक्ति... अवसर पाते ही सत्ता हथियाने के प्रयास प्रारंभ कर देता है। भारत का मध्यकाल तो ऐसे विश्वासघातों से भरा पड़ा है, जहाँ सत्ता पाने के लिए भाई अपने भाइयों को मार डालता है, पिता को बंदी बना लेता है... भतीजा अपने चाचा की धोखे से हत्या कर देता है, आदि...आदि। इसी मध्यकाल में अप्रतिम योद्धा बाजीराव बल्लाळ भट्ट की स्वामिभक्ति, उनका त्याग और समर्पण, आदर्श और नैतिकता की अक्षय कीर्ति सनातन भारतीय परंपरा के, उदात्त भारतीय जीवन-पद्धति और जीवन दर्शन के जीवंत-जागृत साक्ष्य के रूप में हमारे समक्ष है। पेशवा बाजीराव की प्रधान मुद्रा में अंकित एक-एक शब्द उनके विराट व्यक्तित्व को उद्घोषित करता है। उनकी मुद्रा में अंकित है-

“श्रीराजा शाहूजी नरपती हर्षनिधान-बाजीराव बल्लाळ पंतप्रधान”

पंतप्रधान बाजीराव बल्लाळ छत्रपति शाहूजी महाराज की ओर से मुद्रा अंकित करते हैं। दक्षिण से उत्तर तक अपने अश्वों की पदचाप से विधर्मी आक्रांताओं द्वारा पददलित भारतभूमि को स्वातंत्र्य का अमृतपान कराने वाले इस अपराजेय योद्धा ने कभी भी राज्यलिप्सा नहीं पाली, कभी भी यश की लालसा नहीं पाली...। अखंड भारत के लिए, हिंदवी स्वराज के लिए अपने तन-मन को गलाया, समर्पित किया। बाजीराव पेशवा को ‘राऊ’ कहकर पुकारा जाता था। ‘राऊ’ अर्थात् सरदारों में सर्वश्रेष्ठ...। यह उपाधि उन पर खरी बैठती थी। मराठा साम्राज्य का विस्तार और म्लेच्छ आक्रांताओं की कुत्सित चालों व नीतियों का दमन करते हुए दिल्ली तक अपनी कीर्ति-पताका फहराने वाले बाजीराव पेशवा को ‘महाराष्ट्र केसरी’, ‘हिंद केसरी’ के रूप में हम जानते हैं। ‘हर-हर महादेव’ का उद्घोष करते हुए सिंह की भाँति विधर्मियों पर टूट पड़ने वाले श्रीमंत बाजीराव ने मुगलों को दिल्ली के आसपास तक सीमित कर दिया था। इतना ही नहीं, पेशवा बाजीराव के भय से मुगल शासकों को दिल्ली भी हाथ से जाती दिख रही थी। पेशवा बाजीराव ने ही समूचे भारतदेश की अखंडता और हिंदू राजसत्ता पर आधृत हिंदू पदपादशाही का सिद्धांत दिया था, जिसका विस्तार के साथ उल्लेख स्वातंत्र्यवीर सावरकर की इसी नाम से रचित पुस्तक में मिलता है। पेशवा बाजीराव का ही पराक्रम था, कि उन्होंने देश के विभिन्न राज्यों में शक्तिकेंद्र स्थापित किए। होलकर, पवार, सिंधिया, गायकवाड़, शिंदे आदि वीर राजे-रजवाड़े पेशवा बाजीराव के प्रयासों से ही सशक्त और समर्थ होकर सक्रिय हुए।

 अप्रतिम योद्धा, माँ भारती के अमर सपूत, भारतीय शौर्य परंपरा के संवाहक, शिवाजी महाराज के हिंदवी स्वराज को साकार करने वाले पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट को हमारी नई पीढ़ी कितना जानती है? यह प्रश्न हमारे सामने है। निःसंदेह ‘फिल्मी नैरेटिव’ ने बहुत गलत संदेश दिया है, जिसका सुधार करना हमारा दायित्य है। हमारा इतिहास केवल पराजय का इतिहास नहीं है, जैसा कि बताया जाता है, पढ़ाया जाता है। हमारा इतिहास पेशवा बाजीराव जैसे महान योद्धाओं की अपरिमित शौर्यगाथाओं से भरा हुआ है। पेशवा बाजीराव ने अपने लगभग चालीस वर्ष के छोटे-से जीवन में, बीस वर्ष के अंतराल में चालीस लड़ाइयाँ लड़ीं, और सभी में विजय प्राप्त की। विश्व इतिहास में सिकंदर को महान बताया जाता है, अपराजेय बताया जाता है। लेकिन वह भी परास्त हुआ था, भारत को जीतने का उसका सपना कभी सच नहीं हो सका था। यहाँ से उसे वापस लौटकर जाना पड़ा था। ऐसे में जो जीता, वो सिकंदर कैसे हुआ? पेशवा बाजीराव ने शत प्रतिशत युद्ध जीते। इसलिए जो जीता, वह बाजीराव कहा जाना चाहिए।

‘जो जीता, वो बाजीराव’ का उद्घोष करते हुए पेशवा बाजीराव के प्रति आस्थावान देशभक्तों का एकत्रीकरण रावेरखेड़ी में हुआ। सनातन भारतीय परंपरा के रक्षक, रण-धुरंधर, पराक्रमी, अद्वितीय योद्धा, हिंद केसरी, प्रबल प्रतापी पेशवा बाजीराव बल्लाळ भट्ट का समाधि-स्थल उनकी पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यक्रम के कारण 28 अप्रैल को चर्चा में आया, यहाँ चहल-पहल हुई, लेकिन शेष समय में यह पवित्र स्थल उपेक्षित ही रहता है। ज्ञात हुआ है, कि कुछ समय पूर्व कुछ जागरूक लोगों के प्रयासों से आवागमन के साधन सुलभ हुए हैं, लेकिन अब भी बहुत कुछ किया जाना शेष है। विशेष रूप से अपनी आने वाली पीढ़ी को ऐसे अद्वितीय नायक, अपराजेय योद्धा के बारे में बताया जाना.....।

-राहुल मिश्र

(पाञ्चजन्य, नई दिल्ली में प्रकाशित, ज्येष्ठ कृष्ण 5, वि.सं. 2082, युगाब्द 5127 तदनुसार 18 मई, 2025)

Sunday, 18 November 2018

सप्तकल्पक्षये क्षीणे न मृता तेन नर्मदा




सप्तकल्पक्षये क्षीणे न मृता तेन नर्मदा

सप्तकल्पक्षये    क्षीणे      मृता   तेन  नर्मदा ।
नर्मदैकैव      राजेन्द्र       परं     तिष्ठेत्सरिद्वरा ।। 55 ।।
तोयपूर्णा      महाभाग      मुनिसङ्घैरभिष्टुता ।
गंगाद्याः सरितश्चान्याः कल्पे-कल्पे क्षयं गताः ।। 56 ।।
भारतीय संस्कृति और समाज-जीवन में अपना विशेष महत्त्व रखने वाली नर्मदा नदी का सुंदर-रोचक और धर्म-अध्यात्म से परिपूर्ण वर्णन श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में मिलता है। नर्मदा का एक नाम रेवा भी है। श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में नर्मदा नदी का समग्र वैशिष्ट्य प्रदर्शित-परिलक्षित होता है। रेवाखंड में उल्लिखित है कि सात कल्पों का क्षय हो जाने के बाद भी मृत होना, अर्थात् नष्ट होना तो दूर, जो क्षीण भी नहीं होती है, ऐसी श्रेष्ठ नदी ही नर्मदा कहलाती है। श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में मार्कण्डेय ऋषि और धर्मराज युधिष्ठिर के मध्य संवाद चल रहा है। मार्कण्डेय ऋषि धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि- हे राजेंद्र! नर्मदा ही ऐसी श्रेष्ठ नदी है, जो सदा स्थित रहा कहती है, कभी नष्ट नहीं होती है। इस प्रसंग के पूर्व युधिष्ठिर के प्रश्न पर मार्कण्डेय ऋषि बताते हैं- गंगा सब नदियों में श्रेष्ठ है; उसी प्रकार सरस्वती, कावेरी, देविका, सिंधु, सालकुठी, सरयू, शतरुद्रा, यमुना, गोदावरी आदि अनेक नदियाँ समस्त पापों का हरण करने वाली हैं। ये सभी नदियाँ और समुद्र किस कारण से कल्प, कल्प में नष्ट हो जाते हैं, उनके बारे में मैं बताऊँगा। किंतु इन सबसे अलग नर्मदा नदी ऐसी है, जिसका सात कल्पों में भी क्षय नहीं होता, जो अनेक कल्पों तक अनवरत् प्रवाहमान रहती है, जो कालजयी और शाश्वत है। मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को बताते हैं, कि-  हे महाभाग! नर्मदा नदी सदैव जल से परिपूर्ण रहती है। मुनि-संघ, अर्थात् साधु-संन्यासियों और ऋषि-मुनियों के लिए यह नदी सदैव अभीष्टित रही है। इसके तट पर मुनि-संघ तपश्चर्या करने हेतु सदैव प्रेरित होता रहा है। इसका कारण संभवतः नर्मदा नदी का शाश्वत जीवन है, क्योंकि गंगा और उसके सदृश अनेक नदियों का कल्प-कल्प में क्षय हो जाया करता है।
मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम नर्मदा नदी के उद्गम-स्थल के निकट स्थित है, जिसे वर्तमान में मारकुंडी के नाम से जाना जाता है। विंध्य पर्वतश्रेणियों और सतपुड़ा की पहाड़ियों के मध्य नर्मदा नदी का उद्गम अमरकंटक नामक स्थान पर होता है। विंध्य पर्वतश्रेणी का दक्षिणी छोर चित्रकूट परिक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। अतीत से ही चित्रकूट परिक्षेत्र धर्म-साधना का केंद्र रहा है। इस कारण यहाँ पर अनेक प्रसिद्ध ऋषियों के आश्रम रहे हैं और अनेक साधकों ने इस क्षेत्र का अपनी साधना के लिए चयन भी किया है। नर्मदा नदी के उद्गम के साथ शिवजी की साधना का प्रसंग जुड़ा हुआ है। श्रीस्कंद पुराण में मार्कण्डेय ऋषि नर्मदा के शाश्वत जीवन को बताते हुए कहते हैं कि-
पुरा  शिवः  शान्ततनुश्चचारविपुल तपः ।
हितार्थ  सर्वलोकानामुमया  सह शंकरः ।।14।।
ऋक्षशैलं  समारूह्य  तपस्तेपे सुदारुणम् ।
अदृश्यः सर्वभूतानां सर्वंभूतात्मको वशी ।।15।।
तपस्तस्य  देवस्य स्वेदः समभवत्विकल ।
तंगिरिंप्लावयामास     सस्वेदोरुद्रसंभवः ।।16।।
प्राचीनकाल में परम शांत शरीर वाले शिवजी ने उमाजी के साथ अत्यंत कठिन साधना की थी। लोक-कल्याण के लिए उन्होंने यह तप ऋक्षशैल में किया था। यह ऋक्षशैल विंध्य और सतपुड़ा की पर्वश्रेणियों की संगम-स्थली माना जाता है। कठिन तपश्चर्या के कारण शिवजी के शरीर से निकलने वाली पसीने की बूँदें इस ऋक्षशैल पर गिरीं, जिसने शैल को पिघला दिया और इस प्रकार नर्मदा का जन्म हुआ। ऋक्षशैल को रैवतक पर्वत भी कहा जाता है। रैवतक से उत्पन्न होने के कारण नर्मदा को रेवा के नाम से भी जाना जाता है। शिव को सृष्टि के संहारकर्ता के रूप में जाना जाता है। नर्मदा के तट पर शिवजी की कठिना साधना-तपश्चर्या शिव के लोकरक्षक स्वरूप को प्रकट करती है। इसके साथ ही शिवजी के स्वेद से उत्पन्न नर्मदा नदी श्रम की महत्ता और साधना की श्रेष्ठता को स्थापित करती है। श्रीस्कंद पुराण में वर्णित आस्था के पक्ष के साथ नर्मदा के तटीय क्षेत्रों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक-सामाजिक अतीत अपने समग्र गौरव के साथ उपस्थित हो जाता है, जिसे अध्ययन की गहराइयों में उतरकर देखा जा सकता है, जाँचा-परखा जा सकता है।
नर्मदा नदी के किनारे गोंड जनजातीय समूह का विस्तार मिलता है। इसी कारण इस क्षेत्र को आज गोंडवाना के नाम से जाना जाता है। इतिहास में गोंड राजवंश का कालखंड पंद्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। गोंड राजवंश की प्रसिद्धि प्रमुख रूप से रानी दुर्गावती के नाम से अंकित है, जिन्होंने अपने पति राजा दलपतशाह के असामयिक निधन के बाद गोंडवाना का शासन पूरी कुशलता के साथ सँभाला, मुगलों की सेनाओं को कई बार पराजित किया और बाद में वीरगति को प्राप्त किया। किंतु इससे पूर्व गोंड जनजातीय समूह को प्राचीनतम जनजातीय समूह और मानव आबादी के स्रोत के रूप में भी जाना जाता है। गोंडी धर्म की कथाओं में शिव को शंभूशेक या महादेव के रूप में जाना जाता है। गोंडों की धार्मिक कथाओं में महादेव की अठासी पीढ़ियों का उल्लेख मिलता है। इन अठासी पीढ़ियों में शिव के साथ शक्ति का अद्भुत समन्वय देखा जा सकता है। लोकदेवता के रूप में शिव-शक्ति का युगल लोक का कल्याण करता रहा है, ऐसा गोंडवाना की लोककथाओं और लोकगीतों में वर्णित होता है। महादेव की अठासी पीढ़ियों की शुरुआत शंभु-मूला से होती है और अंतिम पीढ़ी में शंभु-पार्वती का उल्लेख मिलता है। इन अठासी पीढ़ियों का अतीत पाँच हजार से लगाकर दस हजार ईसापूर्व तक माना जाता है। गोंडों का अपना धर्म, जिसे गोंडी भाषा में ‘कोया-पुनेम’ कह जाता है, उसका अतीत भी लगभग इतना ही पुराना है।
कोया-पुनेम का शाब्दिक अर्थ होता है- मानव-धर्म। नर्मदा के तट पर बसी गोंडों की अति-प्राचीन बस्तियाँ अपनी आस्थाओं और जीवनीय मान्यताओं के साथ हजारों वर्ष पहले से मानव-धर्म का निर्वहन करती चली आ रही हैं। ‘कोया-पुनेम’ या मानव-धर्म यहाँ के मूल निवासियों की अपनी आस्थाओं, मान्यताओं और धार्मिक क्रिया-कलापों में प्रकट होता रहा है। श्रीस्कंद पुराण में वर्णित शिव-पार्वती की कठिन तपश्चर्या इसी की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति प्रतीत होती है। लोक-कल्याण के लिए, मानव-धर्म को निभाने के लिए गोंडों के आदिपुरुष और गोंडों की आदिशक्ति ने संयुक्त रूप से जिस कठिन तप और साधना से नर्मदा का सृजन किया, उसका धार्मिक स्वरूप श्रम के प्रति आस्थावान होने, साधना के प्रति नतमस्तक होने की सीख देता प्रतीत होता है। इस कारण रैवतक पर्वत की नीलिमा से युक्त रेवा का प्रवाह सदियों से कर्म-सौंदर्य और लोक-कल्याण का गुणगान करता रहा है; श्रम-साधना के प्रति आस्थावान मानव-समुदाय को इन विलक्षण गुणों से जोड़ने हेतु प्रेरित करता रहा है। नर्मदा नदी इसी कारण साधना की प्रतीक है।
रैवतक पर्वत में की गई शिव-पार्वती की तपश्चर्या के संबंध में ऐसी मान्यता है कि यह तपस्या उन्होंने विष्णु के लिए की थी। विष्णु के विभिन्न अवतारों द्वारा अलग-अलग कालखंडों में रक्ष-संहार किया गया। साधना-तपस्या और लोक के कल्याण हेतु संलग्न रहने वाले साधु-संन्यासियों को आतंकित करने वाले क्रूरकर्मा राक्षसों के संहार के लिए विष्णु ने अलग-अलग अवतार धारण किए और धरती पर धर्म की स्थापना की। अलग-अलग कालखंडों में विष्णु द्वारा किए गए संहारों के प्रायश्चित्त के रूप में शिव ने अपनी तपस्या रैवतक पर्वत में की, ऐसा माना जाता है। इस तरह शैव और वैष्णव का अद्भुत समन्वय, अनूठा सामंजस्य नर्मदा के तट पर परिलक्षित होता है। यह नर्मदा का अपना वैशिष्ट्य है, कि शैव-साधना का विशिष्ट केंद्र होकर भी यहाँ वैष्णव भक्ति-भावना के सूत्र जुड़ते हैं।
श्रीस्कंद पुराण में नर्मदा के माहात्म्य को उद्घाटित करने वाले मार्कण्डेय ऋषि जब नर्मदा नदी को सात कल्पों के क्षय हो जाने पर भी क्षीण नहीं होने वाली दुर्लभ नदी कहते हैं, तब बहुधा पुराणकार और कथावाचक के प्रति अतिकाल्पनिक हो जाने का संशय उत्पन्न होने लगता है। पुरातनकाल में आस्थावान लोगों के लिए संशय की स्थितियाँ आज के सदृश नहीं होती थीं। आज की वैज्ञानिक दृष्टि अपनी आस्था को बल देने के लिए तथ्यों को महत्त्व देती है। इस दृष्टि से विचार करने हेतु पुनः गोंड जनजातीय समूहों के अतीत को देखना होगा। आज की भूवैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि पचास करोड़ वर्ष पूर्व धरती में केवल दो महाद्वीप थे। इनमें से एक को ‘लॉरेशिया लैंड’ और दूसरे को ‘गोंडवाना लैंड’ नाम दिया गया है। इन दोनों महाद्वीपों के टूटने पर वर्तमान के पाँच महाद्वीपों का निर्माण हुआ है।
दक्षिणी गोलार्ध में स्थित ‘गोंडवाना लैंड’ का सीधा संबंध नर्मदा नदी के तटीय क्षेत्रों से था। इस कारण आदिमकालीन गोंड जनजातीय समूहों को आदिमानव की बस्तियाँ माना जाता है। भूवैज्ञानिकों का मानना है कि जीवन का सर्वप्रथम विकास नर्मदा नदी के तट पर हुआ है। नर्मदा नदी घाटी में हुए उत्खनन में डायनासोरों के अंडे और जीवाश्म भी मिले हैं। पेंजिया भूखंड के निर्माण के समय, अर्थात् लगभग तेरह करोड़ वर्ष पूर्व आदिमानव की उत्पत्ति भी नर्मदा नदी घाटी में हुई। नर्मदा घाटी में मिलने वाले खारे पानी के स्रोत और आदिमानव द्वारा बनाए गए शैलचित्र नर्मदा नदी घाटी की प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं। गोंडी भाषा में प्रचलित लोकगीतों और लोककथाओं में आदिकालीन मानव के अनेक विविधतापूर्ण चित्र मिलते हैं, जिनके आधार पर भी नर्मदा नदी की प्राचीनता को सिद्ध किया जा सकता है।
सप्तकल्प, अर्थात् लगभग आठ करोड़ चालीस लाख वर्ष गुजर जाने के बाद भी नर्मदा नदी का क्षय नहीं होता, नर्मदा नदी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, ऐसा जब श्रीस्कंद पुराण में कहा जाता है, तब वर्तमान की भूवैज्ञानिक खोजों के आलोक में इस कथन को परखने पर हमारा सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है। जिस समय आज के जैसे आधुनिक उपकरण और परीक्षण की विधियाँ नहीं थीं, उस समय किया गया काल-निर्धारण न केवल आश्चर्य में डाल देने वाला है, वरन् अपने पुरातन ज्ञान-विज्ञान के प्रति असीमित-अपरिमित आस्था की उत्पत्ति करा देने वाला भी है।
विंध्य को उत्तर और दक्षिण का विभाजक माना जाता है। विंध्य और सतपुड़ा के संधि-स्थल से निकलने वाली नर्मदा नदी भी विंध्य की भाँति उत्तर और दक्षिण के मध्य विभाजक रेखा खींचती है। उत्तर और दक्षिण का विभाजन वस्तुतः आर्य और द्रविड़ जातीय समूहों का  विभेद है। इस विभेद को तोड़ने के अनेक प्रयास अतीत से ही होते रहे हैं। विष्णु के हिस्से की तपस्या को रैवतक पर्वत में शिव-पार्वती द्वारा किया जाना, रामेश्वरम् में श्रीराम के द्वारा शिवलिंग की स्थापना करना आदि इसके प्रतीक हैं। ये शैव और वैष्णव के मध्य समन्वय-सौहार्द को स्थापित करने के साथ ही उत्तर और दक्षिण के विभेद को मिटाने के प्रयास भी हैं। भारतीय ऋषि-मुनियों ने, विशेषकर महर्षि अगस्त्य और उनकी पत्नी लोपामुद्रा ने इस कार्य को सक्रियता के साथ किया है। महर्षि अगस्त्य के साथ एक प्रसंग आता है, कि विंध्य को निरंतर ऊँचा होते देखकर उन्होंने विंध्य पर्वत से आग्रह किया, कि उन्हें दक्षिण की ओर जाना है और जब तक वे दक्षिण की यात्रा से लौटकर न आ जाएँ, तब तक वह अपनी ऊँचाई को न बढ़ाए। इस पौराणिक प्रसंग में महर्षि अगस्त्य उत्तर और दक्षिण के मध्य बढ़ती दूरियों को कम करने हेतु प्रयासरत प्रतीत होते हैं। बाद में राम का वनगमन होता है। दक्षिणापथ में अग्रसर होने हेतु राम का पथ-प्रदर्शन अगस्त्य ऋषि द्वारा किया जाता है।
अतीत की यह परंपरा, उत्तर और दक्षिण के मध्य विभेद को कम करने के प्रयासों की अगली कड़ी नर्मदा परिक्रमा में दिखाई पड़ती है। नर्मदा के किनारे-किनारे चलने वाली पदयात्रा इसी कारण अपना धार्मिक महत्त्व-मात्र नहीं रखती, अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक सहकार और सामंजस्य के गुरुतर दायित्व का निर्वहन भी करती है। नर्मदा परिक्रमा का प्रारंभ कब से हुआ, यह बताना कठिन है। यद्यपि कुछ आस्थावान भक्तों द्वारा नर्मदा परिक्रमा के रोचक वृत्तांत को लिपिबद्ध किया गया है। नर्मदा परिक्रमा तीन वर्ष तीन मास और तेरह दिनों में पूर्ण होती है। भगवान दत्तात्रेय के उपासक नर्मदा परिक्रमा को विशेष महत्त्व देते हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा और तेलंगाना आदि प्रांतों के साथ ही नेपाल से आने वाले दत्त संप्रदाय के उपासक बड़ी आस्था के साथ नर्मदा की परिक्रमा करते हैं। इस तरह नर्मदा परिक्रमा में उत्तर से दक्षिण तक, अखंड भारतवर्ष सिमट आता है, ऐसा कहा जा सकता है। आपसी मेल-जोल को बढ़ाने, विविध संस्कृतियों और जीवन-दृष्टियों को अवगाहने के लिए नर्मदा परिक्रमा को किसी लोक-उत्सव से कम नहीं कहा जा सकता है।
लोकजीवन के लिए नर्मदा केवल एक नदी नहीं है, वरन् ‘माई’ है, माता है। इसीलिए नर्मदा स्नान को जाते, नर्मदा की परिक्रमा लगाते आस्थावान नर्मदा-पुत्रों की वाणी में- ‘नरबदा मइया ऐसी तो मिली रे.., जैसे मिले हैं मताई ओर बाप रे....’ जैसे लंबी टेर वाले लमटेरा गीत सुनाई पड़ते रहते हैं। राजा मेकल की सुता, मेकलसुता और सोन नद की कथाओं के साथ ही बाजबहादुर और रानी रूपमती की कथाओं को नरबदा माई अपने में बसाए हुए हैं। गोंडवाना की रानी दुर्गावती और महिष्मती (महेश्वर) की रानी अहिल्याबाई होलकर की वीरता को रेवा ने अपने प्रवाह में सँजोया है।
आज भृगु ऋषि की साधना-स्थली भेड़ाघाट प्रसिद्ध पर्यटन-स्थल के रूप में विकसित हुआ है। आस्था और लोक-परंपरा को साथ लेकर चलने वाली नर्मदा परिक्रमा अब तीन वर्ष तीन माह और तेरह दिन से सिमटकर हवाई मार्ग से मात्र तीन-चार घंटे में ही पूरी हो जाने वाली बन गई है। सप्तकल्पों में भी क्षय नहीं होने वाली नर्मदा नदी के किनारे जन्मे आदिमानव के वंशजों के लिए अतीत का गौरवपूर्ण अध्याय आज के भौतिकता से पूर्ण जीवन में पढ़ा जाना दुष्कर प्रतीत होने लगा है। इसके बावजूद नरबदा माई अपने आँचल में असीमित स्नेह भरे हुए अपने सपूतों को जीवन जीने की दिशा दिखा रही हैं, साधना का पथ बता रही हैं, और कर्म के सौंदर्य को प्रतिष्ठापित कर रही हैं।
संदर्भ-स्रोत-
1.  श्रीस्कंद पुराण, द्वितीय खंड, रेवाखंड, सं. श्रीराम शर्मा आचार्य, संस्कृति संस्थान, बरेली, सं. 1986,
2.  लारेंशिया-गोंडवाना कनेक्शन बिफोर पेंजिया, सं. विक्टर ए. रामोस एवं डंकन कैपी, द जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका, कॉलॉरेडो, सं. 1999,
3.  भारतीय संस्कृति में ऋषियों का योगदान, डॉ. जगतनारायण दुबे, दुर्गा पब्लिकेशंस, दिल्ली, सं. 1989,
4.  संस्कृति-स्रोतस्विनी नर्मदा, अयोध्याप्रसाद द्विवेदी, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, सं. 1987,
5.  जंगल रहे-ताकि नर्मदा बहे, पंकज श्रीवास्तव, नर्मदा संरक्षण पहल, इंदौर, सं. 2007,
6.  हिस्ट्री, ऑर्कियोलॉजी एंड कल्चर ऑफ दि नर्मदा वैली, आर.के. शर्मा, शारदा पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, सं. 2007,
7.  एथनिक ग्रुप्स ऑफ साउथ एशिया एंड दि पैसिफिक : एन इनसाइक्लोपीडिया, जेम्स बी. मिन्हन,  एबीसी-सीएलआईओ, एलएलसी, कैलिफोर्निया, सं. 2012,
8.  विकीपीडिया।
-राहुल मिश्र
(अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास द्वारा श्रीमहेश्वर, मध्यप्रदेश में आयोजित ‘नर्मदा परिक्रमा’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी, दिनांक- 13-14 सितंबर, 2018 की स्मारिका में प्रकाशित, सं. डॉ. मंदाकिनी शर्मा एवं डॉ. आशा वर्मा, प्रका. अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली)