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Friday, 5 September 2025

हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में गांधी जी के विचारों का प्रभाव


हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में गांधी जी के विचारों का प्रभाव


हिंदी साहित्य के वर्तमान में उपन्यास विधा की उत्पत्ति और विकास सर्वथा नवीन भावबोध और भारतीय नवजागरण के प्रयासों से अनुप्राणित है। इस कारण भारतीय नवजागरण से संबद्ध विचारकों-समाजसेवकों के प्रयासों और उनके विचारों का उपन्यास विधा में प्रतिफलित होना भी सर्वथा प्रासंगिक और युक्तिपूर्ण है। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यास प्रायः अंग्रेजी और बांगला से अनूदित थे और उनमें इसी अनुरूप कथ्य का प्रतिपादन भी किया गया था। हिंदी के प्रारंभिक मौलिक उपन्यासों का क्रम प्रायः 1900 ई. से शुरू होता है और 1950 ई. तक के उपन्यासों को हिंदी के प्रारंभिक मौलिक उपन्यास कहा जा सकता है। सन् 1900 से 1915-16 की अवधि में एक ओर तिलिस्मी-ऐयारी-जासूसी कथानक वाले उपन्यासों का प्रभाव देखने को मिलता है, तो दूसरी ओर भारतीय नवजागरण के प्रभावों के फलस्वरूप सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित नीतिवादी-शिक्षाप्रद-उपदेशात्मक उपन्यासों का। इस अवधि के उपन्यासों में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरोध के स्थान पर उसके कारण उपजी समस्याओं को उच्च मध्यवर्गीय समाज के सीमित दायरे में रखकर चित्रित किया गया है। “इस अवधि का उपन्यास देश के उस विशाल जनसमुदाय से कटा हुआ है, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के शोषणचक्र में पिस रहा था। यह जनसमुदाय किसानों का था, जो मुख्यतः गाँवों में रहता था और विदेशी सरकार, जमींदार, महाजन और पुरोहित, सबका भक्ष्य बना हुआ था। किशोरीलाल गोस्वामी, भुवनेश्वर मिश्र, महता लज्जाराम शर्मा आदि कुछ उपन्यासकारों ने किसानों पर जमींदारों के अत्याचार, ग्रामीणों की निर्धनता, अशिक्षा तथा उनकी दीनहीन स्थिति का यत्रतत्र चित्रण किया है, किंतु यथार्थ के इस ज्वलंत पक्ष पर उनकी सर्जनात्मक दृष्टि नहीं पड़ी।”1 गोपालकृष्ण गोखले द्वारा स्थापित भारत सेवक समाज, जी. के. देवघर द्वारा स्थापित सेवासदन, राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज और केशवचंद्र सेन की प्रेरणा से स्थापित प्रार्थना समाज सहित दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज ने धार्मिक प्रेरणा और अतीत के गौरवपूर्ण सांस्कृतिक स्वरूप का समाज-सुधार के क्षेत्र में प्रयोग किया, जो इस अवधि के उपन्यासों में परिलक्षित होता रहा।

इस प्रकार 1900 से 1915-16 की अवधि में नवजागरण की दिशा और दशा सामाजिक सुधार बनाम राजनीतिक सक्रियता के दो अलग-अलग वर्गों में बँटी थी। इसके परिणामस्वरूप एक ओर बालगंगाधर तिलक और उनके समर्थकों ने राजनीतिक सक्रियता को प्रश्रय दिया, तो दूसरी ओर गोपालकृष्ण गोखले जैसे राजनीतिज्ञों ने समाज-कार्य को। एक लक्ष्य की ओर चलती दो परस्पर विरोधी विचारधाराएँ समाज को सही दिशा देने के स्थान पर दिग्भ्रम जैसी स्थितियों का सर्जन कर रही थीं। ऐसे समय में आगमन होता है, महात्मा गांधी का। दक्षिण अफ्रीका से संत बनकर लौटे गांधी जी ने परस्पर विरोधी तत्त्वों को समीप लाने और उन्हें अपनी ताकत बनाने का प्रयोग किया। “गांधी जी ने सामाजिक समस्याओं तथा राजनीतिक प्रश्नों को एक समन्वित रूप दे दिया था। इसीलिए गांधी जी खादी, हिंदू-मुसलिम एकता तथा अछूतोद्धार, स्वराज्य के तीन स्तंभ मानते थे।”2 तत्कालीन भारतीय राजनीति और भारतीय समाजनीति पर गांधी जी की स्वराज्य की अवधारणा न केवल स्थापित हुई, वरन् तीव्रता के साथ जनस्वीकार्य भी हुई। साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। गांधी जी के विचारों एवं जीवन-दृष्टि के आधार पर औपन्यासिक चरित्रों का प्रतिरूप बनाया गया, गांधी जी के जीवन की घटनाओं का प्रतिबिंब प्रस्तुत किया गया, गांधी जी द्वारा प्रवर्तित राष्ट्रीय आंदोलनों का चित्ररूप दर्शन कराया गया, गांधी जी के कुछ सिद्धांतों की मीमांसा करने के लिए कथाओं की संरचना की गई। उदाहरणस्वरूप- हृदय-परिवर्तन, अहिंसक प्रतिरोध, सत्य का स्वरूप-विवेचन, ट्रस्टीशिप की परिकल्पना, औद्योगिक विकास के दौरान बढ़ने वाली अनैतिकता, दलित-पीड़ित-पतित-शोषित समाज के प्रति सहानुभूति आदि।”3 हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों के द्वितीय सोपान में गांधी-दर्शन और गांधीवाद के आगमन को साहित्य और समाज में बड़े क्रांतिकारी बदलाव से कम नहीं कहा जा सकता है।

‘परीक्षागुरु’ से ‘सेवासदन’ तक, अर्थात् 1882 से 1916 तक हिंदी उपन्यास साहित्य को प्रयोगकाल कहा जा सकता है। इस काल के उपन्यासों की सृष्टि किसी साहित्यिक उद्देश्य को सम्मुख रखकर नहीं की गई थी, वरन् नीति, शिक्षा, प्रेम, रोमांस, तिलिस्म और जासूसी प्रवृत्तियों का चित्रण करके जनता का मनोरंजन करना अथवा कौतूहल की सृष्टि करना मात्र था।4 ‘सेवासदन’ के साथ प्रेमचंद द्वारा हिंदी उपन्यास-लेखन का प्रारंभ किया जाना और राजनीतिक-समाजसेवक के रूप में महात्मा गांधी का भारत में आगमन, दो ऐसी घटनाएँ हैं, जिन्हें हिंदी साहित्य और भारतीय समाज, दोनों के लिए युगांतकारी कहा जा सकता है।

प्रेमचंद का उपन्यास ‘सेवासदन’ सन् 1918 में हिंदी में प्रकाशित हुआ और समाज में उपेक्षित ‘आधी दुनिया’ के जटिल यथार्थ को पहली बार देखने का प्रयास हुआ। गांधी जी महिलाओं की दयनीय दशा को लेकर चिंतित थे, और वे महिलाओं को पुरुषों के समान सामाजिक मान-प्रतिष्ठा और अधिकार दिलाने के प्रबल पक्षधर थे। इसी कारण उन्होंने स्त्री-अशिक्षा और बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का विरोध किया। “1930 ई. में गांधी जी ने स्त्रियों को विदेशी वस्तुओं की दुकानों, शराबघरों और सरकारी संस्थानों पर धरना देने का संदेश दिया। इस आह्वान पर हजारों स्त्रियों ने स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया और जेल गयीं। खुद प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी भी जेल गयीं। इसका असर प्रेमचंद के उपन्यासों के नारी पात्रों पर भी दिखाई देता है।”5 इसी कारण दहेज प्रथा और वेश्यावृत्ति जैसी सामाजिक समस्याओं को केंद्र में रखकर लिखा गया ‘सेवासदन’ गांधी जी के विचारों के समीप का प्रकट होता है। प्रेमचंद के उपन्यासों में ‘सेवासदन’ की शांता; ‘गोदान’ की मालती; ‘कर्मभूमि’ की सुखदा, मुन्नी, नैना, रेणुका देवी, पठानिन और सकीना तथा ‘प्रेमाश्रम’ की श्रद्धा और विद्या आदि ऐसी नारी-पात्र हैं, जिनके माध्यम से प्रेमचंद ने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से गांधी जी के नारी-विषयक विचारों को प्रकट करने का प्रयास किया है।

प्रेमचंद अपने उपन्यासों के नारी पात्रों के साथ ही अन्य पात्रों के माध्यम से भी गांधीवादी चिंतन और तत्कालीन आंदोलनों के प्रभावों को प्रकट करते हैं। “गांधी विदेशी शिक्षा-प्रणाली, विदेशी औद्योगीकरण, शहरीकरण के प्रबल विरोधी थे, प्रेमचंद ने ज़मींदार-किसान, अमीर-गरीब का भेद तो दिखाया है, लेकिन उसे वर्ग-भेद का रूप नहीं दिया है और न ही वर्ग-संघर्ष और क्रांति के जरिये उसका समाधान प्रस्तुत किया। अहिंसात्मक सत्याग्रह और हृदय परिवर्तन ही उनके समाज-परिवर्तन के साधन रहे थे। जहाँ ऐसा होने की संभावना नहीं है, वहाँ उन्होंने यथार्थ का दामन नहीं छोड़ा है, लेकिन हिंसा को प्रश्रय नहीं दिया है। प्रेमचंद गांधी के ‘वर्ग-समन्वय’ के सिद्धांत पर, ‘ट्रस्टीशिप’ के सिद्धांत पर भी यकीन करते थे।”6 प्रेमचंद के लगभग सभी उपन्यासों में गांधीवाद के दर्शन होते हैं। यहाँ ‘प्रेमाश्रम’ के प्रेमशंकर, ‘कर्मभूमि’ के अमरकांत, ‘रंगभूमि’ के सूरदास और ‘कायाकल्प’ के चक्रधर का उल्लेख किया जा सकता है, जिनके माध्यम से प्रेमचंद गांधी जी के विचारों को स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

प्रेमचंद ने जिस राजनीतिक-सामाजिक चेतना को व्यक्त करने की परंपरा की शुरुआत की, उसे आगे बढ़ाने का कार्य उनके समकालीन और परवर्ती उपन्यासकारों ने किया। हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद पहले ऐसे उपन्यासकार भी थे, जिन्होंने गांधीवाद को उपन्यास विधा में स्थापित करने का सफल प्रयास किया। प्रेमचंद के साथ ही उनके समकालीन श्री नाथ सिंह ने गांधीवादी दृष्टिकोण से अनेक उपन्यासों की रचना की। उनके ‘उलझन’, ‘जागरण’, ‘प्रभावती’, ‘प्रजामण्डल’ आदि उपन्यासों में ग्राम-सुधार, नारी उद्धार, अछूतोद्धार जैसे विषय हैं।7 गांधीवादी विचारधारा को कविताओं के साथ ही उपन्यासों में उतारने वाले सियारामशरण गुप्त के दो उपन्यासों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। ‘गोद’ उपन्यास में उन्होंने नारी की दयनीय सामाजिक स्थिति का चित्रण करते हुए नारी स्वातंत्र्य के विषय को गांधीवादी विचारधारा के अनुरूप प्रकट किया है। उनके दूसरे उपन्यास ‘अंतिम आकांक्षा’ में सामाजिक विषमता के प्रश्न को उठाया गया है। इस उपन्यास में रामलाल निर्धन, निम्नवर्गीय पात्र है, जिसके प्रति समाज के अभिजात्य वर्ग की मानवीय सहानुभूति का उपजना गुप्त जी के गांधीवादी दृष्टिकोण को संकेतित करता है।8 

गुरुदत्त ने अपने उपन्यास ‘स्वराज्य दान’ में अहिंसा के महत्त्व को स्थापित करने का प्रयास किया है, साथ ही उनके ‘स्वाधीनता के पथ पर’, ‘पथिक’ और ‘भावुकता का मूल्य’ आदि उपन्यासों में विभिन्न सामाजिक समस्याओं का चित्रण है। जगदीश झा विमल के उपन्यास ‘खरा सोना’, ‘आशा पर पानी’, ‘लीलावती’ और ‘गरीब’, जहाँ एक ओर प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं, वहीं दूसरी ओर गांधी जी के विचारों को भी प्रकट करते हैं। प्रतापनारायण श्रीवास्तव ने ‘विजय’, ‘विकास’ और ‘बयालीस’ आदि उपन्यासों में राजनीतिक-सामाजिक समस्याओं का हल गांधीवादी विचारधारा के अनुरूप प्रस्तुत करके हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में गांधी जी के विचारों की उपस्थिति को दृढ़ता प्रदान की है। ऋषभचरण जैन का उपन्यास ‘सत्याग्रह’ दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन के जरिए गांधीवादी विचारों को प्रकट करता है। उनके अन्य उपन्यासों में ‘मयखाना’ और ‘तीन इक्के’ भी उल्लेखनीय हैं, जिनमें शराबखोरी और जुआखोरी के दुर्गुणों का चित्रण हुआ है।

उस दौर के अन्य प्रसिद्ध उपन्यासकार, ‘उग्र’ पर नग्नता का आरोप लगता रहा है, किंतु उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ गांधीवादी विचारों का चित्रण अपने उपन्यासों में किया है। “पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ राजनीतिक धरातल पर गांधी जी के विचारों से प्रभावित थे। वह दो उपन्यासों, ‘चन्द हसीनों के खतूत’ तथा ‘सरकार तुम्हारी आँखों में’, हिंदू-मुसलिम एकता के उद्देश्य से लिखते हैं। ‘शराबी’ उपन्यास मद्यनिषेध विषय पर लिखा गया है, जो राष्ट्रीय कांग्रेस का मुख्य रचनात्मक कार्यक्रम था। ‘मनुष्यानंद’ उपन्यास में अछूतोद्धार आंदोलन चलता है।”9 उषादेवी मित्रा के उपन्यासों, ‘वचन का मोल’, ‘जीवन की मुसकान’ और ‘पथचारी’ में नारी-जीवन की ऐसी विषमताएँ उभरती हैं, जिनका सीधा संबंध गांधी जी के नारी-विषयक विचारों से जुड़ा है। “परिवार से सामाजिक आंदोलनों की ओर आती भारतीय स्त्री की संक्रमणकालीन मनोदशाओं का अंकन उषादेवी मित्रा ने पर्याप्त विश्वसनीय रूप में किया है।”10

इसी प्रकार निराला कृत ‘अलका’, जयशंकर प्रसाद कृत ‘तितली’ और ‘कंकाल’, वृंदावनलाल वर्मा  कृत ‘प्रत्यागत’ और ‘कुण्डली-चक्र’, भगवतीप्रसाद वाजपेयी कृत ‘पतिता की साधना’, जैनेन्द्र कृत ‘सुनीता’, चतुरसेन शास्त्री कृत ‘आत्मदाह’, भवानीदयाल कृत ‘नेटाली हिंदू’ और मन्नन द्विवेदी कृत ‘कल्याणी’ में गांधी जी के विचार कहीं सीधे तौर पर, तो कहीं प्रतीकात्मक रूप में स्थापित होते हैं। कृष्णलाल वर्मा कृत ‘पुनरुत्थान’, धनीराम प्रेम कृत ‘मेरा देश’, मोहिनी मोहन कृत ‘देशोद्धार’ और छविनाथ पांडेय कृत ‘प्रोत्साहन’ आदि उपन्यासों में स्वाधीनता आंदोलन तथा गांधीवादी विचारों का खुला प्रतिपादन किया गया है।11 यहाँ उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि प्रयोगवाद की अवधारणा के जनक अज्ञेय का उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’, गांधी जी के अछूतोद्धार के विचार को नए प्रयोग के साथ प्रकट करता है। इस उपन्यास का नायक शेखर है। “विद्रोही शेखर ब्राह्मण छात्रों का छात्रावास छोड़कर अछूत छात्रों के छात्रावास में रहने लगता है। वह सदाशिव, राघवन आदि अछूत छात्रों की सहायता से अछूतोद्धार-समिति का निर्माण करता है, तथा अछूत बालकों के लिए स्कूल खोलकर स्वयं पढ़ाता है। सवर्ण एवं रूढ़िवादी वर्ग से संघर्ष संगठित रूप में ही किया जा सकता है, लेकिन शेखर वैयक्तिक धरातल पर समाज को चुनौती देता है।”12

गांधी जी और गांधीवादी विचारधारा के संबंध में प्रेमचंद अपनी पत्नी शिवरानी देवी से कहते हैं कि- “दुनिया में मैं महात्मा गांधी को सबसे बड़ा मानता हूँ। उनका ध्येय भी यही है कि मजदूर और किसान सुखी हों। वह इन लोगों को आगे बढ़ाने के लिए आंदोलन चला रहे हैं, मैं लिखकर उनकी हिमायत कर रहा हूँ।”13 संभवतः इसी कारण हिंदी उपन्यासों के क्षेत्र में प्रेमचंद ऐसे पहले उपन्यासकार बने, जिन्होंने गांधी जी के विचारों को हिंदी उपन्यासों में प्रतिष्ठापित करने का कार्य किया। प्रेमचंद के समकालीन और उनके परवर्ती उपन्यासकारों ने इस परंपरा को विकसित करने में योगदान दिया। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में, सन् 1916 से 1950 ई. तक हिंदी उपन्यासों में जितनी शिद्दत के साथ गांधी जी के सिद्धांत और उनकी विचारधारा प्रकट होती है, उसका दर्शन परवर्ती कालखंडों में दुर्लभ होता गया, यही इस कालखंड की विशेषता है, विशिष्टता है।

संदर्भ-

1.    गोपाल राय, रोमांस, पाठक और उपन्यास, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 123-124,

2.    डॉ. चण्डीप्रसाद जोशी, हिंदी उपन्यास : समाजशास्त्रीय अध्ययन, अनुसंधान प्रकाशन, कानपुर, प्रथम सं. 1962, पृ. 109,

3.    वेब रेफ़रेंस- http://www.hindi.mkgandhi.org/gmarg/chap20.htm

4.    डॉ. सरोजनी त्रिपाठी, प्रेमचंद के हिंदी उपन्यासों में वस्तु-विन्यास का विकास, आधुनिक हिंदी उपन्यास में वस्तु-विन्यास, ग्रन्थम, कानपुर, प्रथम सं. 1973, पृ. 108,

5.    गोपाल राय, यथार्थ के नये स्वर, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 136,

6.    राजम नटराजम पिल्लै, प्रेमचंद और गांधीवादी दर्शन, प्रेमचंद के आयाम, संपादक- ए. अरविंदाक्षन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2006, पृ. 264,

7.    डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त, हिंदी उपन्यास का विकास, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, बारहवाँ सं. 2010, पृ. 426,

8.    गोपाल राय, यथार्थ के नये स्वर, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 157,

9.    डॉ. चण्डीप्रसाद जोशी, हिंदी उपन्यास : समाजशास्त्रीय अध्ययन, अनुसंधान प्रकाशन, कानपुर, प्रथम सं. 1962, पृ. 262,

10.         मधुरेश प्रेमचंद युगीन अन्य उपन्यासकार, हिंदी उपन्यास का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 2009, पृ. 65,

11.         गोपाल राय, यथार्थ के नये स्वर, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 166,

12.         डॉ. चण्डीप्रसाद जोशी, हिंदी उपन्यास : समाजशास्त्रीय अध्ययन, अनुसंधान प्रकाशन, कानपुर, प्रथम सं. 1962, पृ. 368,

13.         क़मर रईस, प्रेमचंद : विचार-यात्रा, प्रेमचंद : विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता, संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह एवं रेखा अवस्थी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2006, पृ. 452 ।


-राहुल मिश्र


(हिंदुस्तानी प्रचार सभा, मुंबई द्वारा प्रकाशित होने वाली पत्रिका हिंदुस्तानी ज़बान के मार्च, 2025 अंक में प्रकाशित)

Saturday, 1 June 2024

लोक के राम, राम का लोक

 

लोक के राम, राम का लोक

राम लखन दोऊ भैया ही भैयासाधू बने चले जायँ मोरे लाल ।
चलत-चलत साधू बागन पहुँचेमालिन ने लए बिलमाए मोरे लाल। राम लखन...

घड़ी एक छाया में बिलमायो साधू, गजरा गुआएँ चले जाओ मोरे लाल। राम लखन...
जब वे साधू तालन पहुँचेधोबिन ने लए बिलमाए मोरे लाल। राम लखन...
चलत-चलत साधू महलन पहुँचेरानी ने लए बिलमाए मोरे लाल। राम लखन...
घड़ी एक छाया में बिलमायो साधूमहलन की शोभा बढ़ाओ मोरे लाल। राम लखन...
    बुंदेलखंड की अत्यंत प्रचलित लोकधुन में गाया जाने वाला यह लोकगीत भी बहुत ही प्रचलित है। आज भी प्रायः इस लोकगीत को सुनकर भाव-विह्वल हो जाना होता है। इस लोकगीत में वन की ओर जाते रामसीता और लक्ष्मण को देखकर बुंदेलखंड के वासी अपने मनोभावों को व्यक्त करते हैं। उनके लिए राम और लक्ष्मण सीधे-सरल राजकुमार हैंजो विपत्ति की मार सह रहे हैं। उन्हें साधु वेश धरकर वन को जाना पड़ रहा है। जिन रास्तों से वे जा रहे हैंउन रास्तों पर अलग-अलग लोग उन्हें देखकर व्यथित हो रहे हैंभावुक हो रहे हैंऔर कुछ क्षण विश्राम कर लेने का अनुरोध कर रहे हैं। इसी तरह बुंदेली में एक भजन भी है-

छैंयाँ बिलमा1 लेव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।

लाला लखनलाल कुम्हलाने, सिय के हुइहैं पाँव पिराने,

तनक बैठ तो जाव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।।

खाओ अचार2, गुलेंदे, महुआ, यहै कुआँ का पानी मिठौआ ।

पानी तो पी लेव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।।

रस्ता तुम्हरी देखी नइयाँ, बीहड़ तऊ पै है बिलगैयाँ3

मृदुल संग लै लेव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।।

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1. आराम करना, 2. चिरौंजी, 3. भटकाने वाली

भजन के ये पद बुंदेलखंड अंचल की अपनी लोक-परंपरा के अभिन्न अंग हैं। अयोध्या नगरी से वन की ओर जा रहे राम, लक्ष्मण और सीता को देखकर बरबस ही मुख से निकल पड़े ये शब्द बुंदेलखंड की प्रभाती गायकी और भजन गायकी की परंपरा में कब से हैं, यह बता पाना कठिन है, किंतु गीत के इन बोलों में छिपे भाव युगों-युगों के जीवन की कथा को कह जाते हैं। बाबा तुलसी ने इसी भाव के साहित्यिक रूप का सर्जन किया है, ‘पुर तें निकसीं रघुवीर वधू, धरि धीर दये मग में डग द्वय...’ कहकर। यहाँ गाँव के सीधे-सरल लोग हैं, जो राजकुमारों के द्वारा वनवासी का वेश धारण करके वन की ओर जाते देखकर उनका सानिध्य पाना चाहते हैं। इसी कारण वे बड़ी सरलता के साथ राम से कहते हैं- थोड़ी देर आराम तो कर लो। ओ पथिक! तुम्हारे साथ चल रहे राजकुमार लक्ष्मण का चेहरा थकान के कारण कुम्हला गया है। सीता जी के पैरों में दर्द होने लगा होगा, इसलिए थोड़ी देर आराम कर लो। हमारे पास आपको खिलाने के लिए राजमहलों में बनने वाले व्यंजन तो नहीं है, मगर वन में मिलने वाले भोज्य पदार्थ आपके लिए सहर्ष प्रस्तुत हैं। चिरौंजी, गुलेंदा, महुआ आदि बुंदेलखंड अंचल में बहुत उपजता है। हम आदिवासियों के लिए यही व्यंजन हैं- महुआ मेवा, बेर कलेवा, गुलगुच बड़ी मिठाई....। अयोध्या के वनगामी राजवंशियों, आप इन्हें ग्रहण करें, और इस मीठे जल वाले कुएँ का पानी पियें। आगे का रास्ता कठिन है, इसलिए यहाँ पर थोड़ा आराम कर लेना आपके लिए उचित होगा।


यही भाव तुलसी के मानस में देखने को मिलते हैं। वहाँ कोल-किरातों को राम के आगमन की सूचना मिलती है, तो वे स्वागत के लिए पहुँच जाते हैं। मानस में तुलसी लिखते हैं-

यह सुधि कोल किरातन्ह पाई । हरषे जनु नव निधि घर आई ।।

कंद मूल फल भरि भरि दोना । चले रंक जनु लूटन सोना ।।

धन्य भूमि बन पंथ पहारा । जहँ जहँ नाथ पाउ तुम धारा ।।

धन्य बिहग मृग काननचारी । सफल जनम भए तुम्हहि निहारी ।।

जब तें आइ रहे रघुनायक । तब तें भयउ बनु मंगलदायकु ।।

फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना । मंजु बलित बर बेलि बिताना ।।

कोल किरातों के लिए राम, लक्ष्मण और सीता का चित्रकूट के वनक्षेत्र में पहुँचना, चित्रकूट के परिक्षेत्र में आना इस प्रकार है, जैसे कोई नई निधि, नई संपत्ति घर में आ गई हो। वे इस संपत्ति के आ जाने पर इतने हर्षित हैं, कि उन्हें स्वागत करने की विधि भी समझ नहीं आ रही। वे पत्तों से दोना बनाकर उनमें कंद-मूल-फल भरकर लिए जा रहे हैं। बाबा तुलसी सुंदर चित्र खींचते हैं। वनवासी जन इस तरह से उमंग में भरकर जा रहे हैं, जैसे रंक को खजाना ही मिल गया हो। उनके उल्लास का कोई ठिकाना नहीं है। जन समुदाय तो उमंग और उल्लास में भरा हुआ है ही, साथ ही चित्रकूट की पुण्यश्लोका धरा भी मुदित हो गई है। समूचा वनप्रांतर प्रसन्न हो उठा है। बाबा तुलसी कहते हैं, कि जहाँ-जहाँ श्रीराम अपने चरण रख रहे हैं, वहाँ के मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, धरती-नदी-ताल-सरिता आदि सभी स्वयं को बड़भागी मान रहे हैं। चित्रकूट के वन प्रांतर में श्रीराम को निहारकर पशु-पक्षियों के साथ ही समस्त वनवासी अपने जन्म को सार्थक मान रहे हैं, जन्म को सफल मान रहे हैं। श्रीराम ने जब से चित्रकूट में अपना निवास बनाया है, तब से वन मंगलदायक हो गया है। मनुष्य ही नहीं, वनस्पतियाँ भी उल्लास और उमंग से भर गईं हैं।

बाबा तुलसी ने श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के चित्रकूट निवास की बहुत सुंदर और रुचिकर कथा कही है। एक उत्सव का वातावरण चित्रकूट में बना हुआ प्रतीत होता है। यद्यपि चित्रकूट की महिमा और माहात्म्य श्रीराम के आगमन के पूर्व ही स्थापित था। इसी कारण प्रयाग के तट पर भरद्वाज ऋषि ने श्रीराम के द्वारा निवास हेतु उचित स्थल के संबंध में पूछे जाने पर चित्रकूट में निवास करने के लिए कहा था-

चित्रकूट गिरि करहु निवासू । तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू ।।

सैलु सुहावन कानन चारू । करि केहरि मृग बिहरि बिहारू ।।

बाबा तुलसी के मानस में लोक-परंपरा से रस-संचित अनेक प्रसंग देखने को मिलते हैं। ऐसे अनेक प्रसंगों के बीच वनवासी राम, लक्ष्मण और सीता का प्रसंग सर्वाधिक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत होता है। मानस में एक अन्य प्रसंग आता है- केवट और राम के बीच संवाद का। अयोध्या के राजकुमार राम भले ही वनवासी के वेश में हों, किंतु वे अयोध्या राजपरिवार के सम्मानित सदस्य और अयोध्या के भावी राजा हैं। इसके बावजूद जब वे केवट से नाव लाने के लिए कहते हैं, तब केवट उन्हें ऐसी सादगी से उत्तर देता है, कि राजा और प्रजा के बीच का भेद दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं पड़ता है-

पात भरी सहरी, सकल सुत बारे-बारे, केवट की जाति, कछु वेद न पढ़ाइहौं ।।

परिवारे मेरो याहि लागि  राजा जू, हौं  दीन वित्तविहीन, कैसे दूसरी गढ़ाइहौं ।।

गौतम की धरनी ज्यों तरनि तरेंगी मेरी, प्रभु से विवादु ह्वै के वाद ना बढ़ाइहौं ।।

तुलसी के ईस राम रावरे से साँची कहौं, बिना पग धोए नाथ नाव न चढ़ाइहौं।।

यहाँ केवट के कहने का अभिप्राय यह भी है, कि आप भले ही अयोध्या के होने वाले राजा हों, किंतु इस समय आप वनवासी हैं, और मेरी एकमात्र नाव के पत्थर बन जाने पर आपसे भी कोई मदद मुझे नहीं मिल सकेगी। इस कारण मैं आपके चरण धोने के बाद ही आपको नाव में चढ़ने दूँगा। जब कभी राजशाही और मध्ययुगीन बर्बरता की बात आती है, तब राम और केवट संवाद अत्यंत प्रासंगिक हो उठता है। निश्चित रूप से राम और केवट का संवाद भी लोक-परंपरा से शिष्ट साहित्य में, तुलसी के मानस में पहुँचा होगा, क्योंकि लोक-परंपरा में विकसित प्रकीर्ण साहित्य की यह बड़ी विशेषता होती है, कि वहाँ ऊँच-नीच का, राजा-रंक का भेद नहीं होता है। वहाँ समानता-समरसता के दर्शन होते हैं।

केवट और राम के बीच संवाद का लोक-पक्ष अत्यंत रुचिकर है। एक ओर केवट को अपनी नाव की चिंता होती है; वह राम के पाँव पखारकर ही उन्हें नाव में चढ़ाने की बात कहता है, निवेदन करता है। दूसरी ओर नाव में श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के विराजमान हो जाने के बाद जब नाव चलती है, तो बिना किसी बाधा के उन्हें पार उतारने के लिए केवट चिंतित होता है। लोक की दृष्टि इस ओर जाती है।

लोकगीत गाया जाता है-

मोरी नइया में लक्षिमन राम, ओ गंगा मइया धीरे बहो...।

केवट की नैया, भागीरथ की गंगा......, राजा दशरथ के लक्षिमन राम...

गंगा मइया धीरे बहो..., मोरी नइया में लक्षिमन राम..।

रामकथा में दो प्रसंग और आते हैं। पहला अहल्या के उद्धार का है, और दूसरा शबरी की प्रतीक्षा का है। अहल्या का प्रसंग राम वनगमन के पूर्व आता है, जब राम और लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ सिद्धाश्रम में जाते हैं। मार्ग में गुरु विश्वामित्र अहल्या से परिचय कराते हैं। पद्मश्री नरेंद्र कोहली द्वारा अपनी गद्यात्मक रामकथा- ‘अभ्युदय’ में अहल्या उद्धार का तर्कपूर्ण और अत्यंत व्यावहारिक वर्णन किया गया है। गौतम ऋषि के सूने पड़े आश्रम में अहल्या श्रापित जीवन बिता रही है। उसका जीवन प्रायः प्रस्तर-सदृश हो गया है। उसको समाज से बहिष्कृत कर दिया गया है। इंद्र के अपराध का दंड अहल्या को भोगना पड़ रहा है। गौतम ऋषि भी उस दंड को भोग रहे हैं, उनके पुत्र शतानंद भी इस दंड को भोग रहे हैं। गुरु विश्वामित्र अहल्या के साथ हुए अन्याय को जानते थे, और यह भी उन्हें ज्ञात था, कि अयोध्या के राजकुमार और मिथिला के होने वाले जमाई के माध्यम से यदि अहल्या को समाज में पुनः प्रतिष्ठा दिलाई जाएगी, तो सभी को स्वीकार्य होगी। बाद में श्रीराम और लक्ष्मण ने सिद्धाश्रम में राक्षसों का वध करके अपने शौर्य का परिचय दिया था, समाज में आदरपूर्ण स्थान प्राप्त किया था। केवट प्रसंग प्रकारांतर से राम के शौर्यभाव और वीरतापूर्ण कार्य का स्मरण ही था।

इसी प्रकार शबरी के जूठे बेर खाने का प्रसंग भी आता है। शबरी के पास तक राम की ख्याति पहुँची थी। लोकरक्षक, जन-जन के प्रिय श्रीराम उस वृद्धा शबरी की कुटिया में अवश्य पधारेंगे, यह भरोसा लिए शबरी अपना जीवन बिता रही थी। कहीं अपने आराध्य राम को वह खट्टे बेर न खिला दे, इस भाव से वह चखकर उन बेरों को ही राम को दे रही है, जो मीठे हैं, सुस्वादु हैं। यह आत्मीयता, यह लगाव सहज नहीं है, वरन् अनेक अर्थों को स्वयं में समाहित किए हुए है। एक और श्रीराम का शौर्यभाव है, उनका लोकरक्षक स्वरूप है, तो दूसरी ओर श्रीराम के व्यक्तित्व की सहजता है, सरलता है। इसी कारण शबरी के जूठे बेर उन्हें स्वीकार्य होते हैं। इसी कारण केवट की व्यंग्यपूर्ण बातें उन्हें चुभती नहीं हैं। यही कारण है, कि चित्रकूट के वनवासी बेर, गुलेंदा, कचरियाँ, महुआ, कंद, मूल, फल आदि दोनों में भर-भरकर लाते हैं, और राम का स्वागत करते हैं।

तुलसी के मानस में वनवासी राम का सौंदर्य, विशेषकर समरसता-सौहार्द-समन्वय में घुल-मिलकर विकसित हुआ कर्म का सौंदर्य अपने आकर्षण में बरबस ही बाँध लेता है। वनवासी राम की सफलता का श्रेय भी इसी वैशिष्ट्य को जाता है। तुलसी के मानस सहित अन्य रामकथाओं में वनगमन प्रसंग इसी कारण अपना विशेष महत्त्व रखता है। श्रीराम के प्रति लोक का अनुराग, लोक का आत्मीय भाव किसी एक कालखंड या किसी एक युग में सिमटा हुआ नहीं है। इसका विस्तार काल और भूगोल की परिधि से बाहर है, व्यापक है। राम और कृष्ण के प्रति लोक की आस्था तब प्रबल होती है, जब वे लोक से जुड़ते हैं। वनवासी राम के साथ चित्रकूट के वन प्रांतर से लगाकर दंडक वन तक, किष्किंधा तक अपार जनसमुदाय जुड़ता है। राम के पास सेना की ताकत नहीं थी। राम लोक की शक्ति से समृद्ध हुए और रावण जैसे क्रूर, आततायी शासक को परास्त किया। विभिन्न वन्य जातियाँ, वनवासी समूह राम के साथ इस तरह से जुड़े, कि लंका विजय के उपरांत सभी अयोध्या तक पहुँचे और राम के साथ ही जीवन-पर्यंत रहने की कामना करने लगे। राम ने ही उन्हें अपने-अपने घर जाकर कर्म में संलग्न होने के लिए कहा। राम के राज्यभिषेक के बाद सभी बहुत भारी मन से विदा हुए। यह आत्मीय लगाव राम के लोक को गढ़ता है, और लोक के राम इसी आत्मीय भाव से बनते हैं। लोकरक्षक, मर्यादापुरुषोत्तम राम इसी कारण लोक के हैं, लोकजीवन में वे अपनी उपस्थिति से, अपने नाम से श्रेष्ठतम मानवीय आदर्शों और संस्कारों को स्थापित करते हैं। ‘राम-राम’ और ‘जय रामजी की’ जैसे अभिवादन परस्पर संबंधों में शुचिता और मर्यादा की कामना लिए होते हैं। लोकगीतों में, लोककथाओं में, और साथ ही लोकजीवन में राम की उपस्थिति लोक को जीवनीय शक्ति देती है, जीवन का पथ प्रदर्शित करती है। अवधी के आल्हा में पंक्तियाँ आती हैं-

राम का नाम बड़ो जग में, सोई राम के नाम रटै नर नारी ।।

राम के नाम तरी सबरी, बहु तार्यो अजामिल के खल भारी ।।

राम का नाम लियो हनुमान ने, सोने के लंका राख कै डारी ।।

     औ टेम व नेम से नाम जपौ, राम का नाम बड़ा हितकारी ।।

-डॉ. राहुल मिश्र

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ, मासिक पत्रिका के पौष, वि.सं. 2080 तदनुसार जनवरी, 2024 अंक में प्रकाशित)

Wednesday, 15 May 2024

धन्य भरत जय राम गोसाईं

 

धन्य भरत जय राम गोसाईं

अयोध्या से चित्रकूट की ओर पूरी अयोध्या नगरी ही चल पड़ी है। अयोध्या की देखभाल करने के लिए कुछ वृद्ध और अशक्तजन ही बचे हैं, जो लंबी यात्रा नहीं कर सकते। अनेक लोग अपनी अक्षमता के बाद भी यात्रा पर चल पड़े हैं। एक कसक, एक टीस जो रह-रहकर उभरती रही थी, उसके समाधान का मार्ग अब इस यात्रा में ही सूझ रहा है। सभी के पैरों की गति मानों यही बता रही है। यह यात्रा कोई सहज-साधारण यात्रा नहीं है। राजपरिवार के सभी जन, नर-नारी, बालक-युवा सभी एकसाथ चले जा रहे हैं। इस यात्रा का अनुष्ठान भरत ने किया है। भरत अयोध्या के भावी राजा हैं, क्योंकि राजा दशरथ परलोक सिधार चुके हैं, और उनक दिए गए वचन के अनुसार राम को वनवास मिला है, भरत को अयोध्या का राजपाट मिला है। दृष्टि भरत पर जाकर टिक जाती है। भरत पैदल जा रहे हैं, और देखने वाले एक भावी राजा के तन और मन, दोनों की गतियों को देख रहे हैं-

मानव ही नहीं देवता तक वह दृश्य निहार लजाते हैं,

हैं साथ पालकी अश्व बहुत, पर भरत ‘पयादे’ जाते हैं ।

हे जग के धनवानों, देखो धन रहते धनपति निर्धन हैं,

यह राजयति की छवि है, यह शाही फकीर के दर्शन हैं ।

रामलीला में यह प्रसंग इतना मार्मिक और भावुक कर देने वाला होता है, कि दर्शकों की आँखें गीली हो जाती हैं। रामलीला के विभिन्न प्रसंगों की लीलाओं में भरत-मिलाप की लीला का अपना ही महत्त्व है। रामकथा के ऐसे प्रसंग, जो अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं, और लोक के महत्त्व के लिए जिनका मंचन अनिवार्य समझा जाता है, उनमें सर्वप्रमुख लीला भरत-मिलाप की होती है। भरत-मिलाप के पूर्व अयोध्या की दशा का अत्यंत मार्मिक वर्णन विभिन्न रामकथाओं में है। महाकवि कंबन, जो रामकथा रचकर महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए, उनकी कंब रामायण में अत्यंत मर्मस्पर्शी वर्णन मिलता है। लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व रचित तमिल के महाकाव्य- कंब रामायण में विरह से व्याकुल अयोध्या नगरी का वर्णन मिलता है। अयोध्या महाराजा दशरथ के परलोकगमन की वेदना से कहीं अधिक व्याकुल राम के वियोग से है। इस पर भी भरत ने अयोध्या के राजपाट को स्वीकारा नहीं है। लेकिन भरत ने यह घोषणा कर दी है, कि वे वनवासी राम को मनाने के लिए जाएँगे, और मनाकर ले आएँगे। इस घोषणा के कारण सारी अयोध्या चैतन्य हो उठी है। वियोग के अनेक उपमानों-प्रतीकों-बिंबों के मध्य उमंग-उल्लास का परस्पर विरोधाभासी वर्णन कितने सुंदर तरीके से कंब रामायण में हुआ है, देखते ही बनता है। राम को ले आने के लिए अयोध्या के समग्र जन-समुदाय का चल पड़ना, गजों-अश्वों का प्रस्थान, मार्ग के विविध प्रसंग आदि कंब रामायण में विस्तार से मिलते हैं।

कथा-वाचस्पति, श्रीहरिकथा विशारद, कविरत्न राधेश्याम कथावाचक ने अपनी राधेश्याम रामायण में भरत-मिलाप का सुंदर वर्णन किया है। चित्रकूट में राम और लक्ष्मण के सामने भरत का पहुँचना कोई साधारण घटना नहीं थी। पूरे सैन्य-बल के साथ वनवासी राम के सम्मुख भरत का आगमन लक्ष्मण के मन में संदेह पैदा कर देता है। कुछ रामायण-पाठों में राम और सीता भी संदेह से भरे हुए दिखते हैं। लेकिन राधेश्याम रामायण में अत्यंत भावुकतापूर्ण वर्णन है, जो अन्यत्र इस भाँति तो नहीं ही मिलता है। लक्ष्मण के मन का संदेह आज कुछ कर गुजरने को है। कोल-भीलों द्वारा दी गई सूचना और सूचना की सत्यता प्रकट करते लक्षण अवश्य ही संदेह पैदा करते हैं, लेकिन राम विचलित नहीं होते हैं। उनका धैर्य और मन का विश्वास अडिग है। उन्हें भरत पर भरोसा है, कि वे किसी दुर्भावना के साथ यहाँ नहीं आए होंगे। वे लक्ष्मण को रोकते हैं, सचेत करते हैं, लेकिन लक्ष्मण मानते नहीं हैं। अचानक एक बावला सामने आकर खड़ा हो जाता है, और पूरा परिवेश ही एकदम बदल जाता है। राधेश्याम कथावाचक कहते हैं-

नंगे   थे   पाँव   बावले  के—कीचड-मिट्टी   में   लिसे  हुए ।

कुछ कुछ  बह रहा रक्त भी था, काँटे भी थे कुछ चुभे हुए ।।

थे  काले  बाल  धूलि-धूसर,   पीले   मुखड़े   पर   पड़े  हुए ।

जिस  भाँति   भयानक  आँधी  में  श्रीसूर्य देव हों छिपे हुए ।।

उस पर उसकी  उस हालत पर, दर्दीली चितवन जमा तुरत ।

आगे  को  सीतानाथ    बढ़े—आजानु   भुजाएँ   बढ़ा  तुरत ।।

वह व्याकुलता थी  बढ़ने की, धनु कहीं कहीं पर तीर गिरा ।।

महि पर-तर्कश के  साथ-साथ  वह मुनियोंवाला चीर गिरा ।।

बावला   चाहता   है  पहले  रघुवर  को  शीश  झुका  लूँ मैं ।

रघुवीर—चाहते   हैं   पहले    छाती  से  उसे  लगा  लूँ  मैं ।।

आखिर  रघुवर की विजय हुई, हाथों पर उठा लिया उसको ।

वह  चरण  छुए  उससे  पहले छाती से लगा लिया उसको ।।

जब हृदय हृदय का मिलन हुआ-तो दूर विरह का ताप हुआ ।

अब  सबने  देखा— ‘चित्रकूट’ में  ऐसे-'भरत-मिलाप’ हुआ ।।

चित्रकूट का पावन-पुनीत स्थल दो भाइयों के अगाध-असीम स्नेह का भी साक्षी बनता है। शंकाएँ दूर हो जाती हैं। मन के विषाद मिट जाते हैं। चित्रकूट तो वैसे भी अवलोकन-मात्र से विषादों को हर लेने वाला है। यहाँ अयोध्या की प्रजा अपने प्रिय राम को देखकर आह्लादित है। माता कैकेयी, सुमित्रा, कौशल्या आदि माताओं के साथ ही गुरुजन उपस्थित हैं। विदेहराज जनक भी भरत की इस यात्रा का समाचार पाकर सीधे चित्रकूट आ जाते हैं। विंध्य की छाँह तले चित्रकूट गिरि, चित्रकूट परिक्षेत्र अब अनजाना-सा नहीं रह जाता। मिथिला के राजा जनक, निषादराज गुह, अयोध्या का पूरा राजपरिवार और समूची सेना चित्रकूट में जुट जाती है। चित्रकूट की भूमिका एक नए रूप में प्रकट होती है।

भक्तकवि सूरदास के लिए भरत और राम का मिलन बहुत भावुक कर देने वाला है। सूरदास ने इस मेल के प्रसंग का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। रामकथा पर लिखे उनके पदों का संकलन सूर-राम चरितावली में है। भक्तकवि सूरदास कहते हैं-

   भ्रात मुख निरखि राम बिलखाने।

मुंडित केस सीस, बिहबल दोउ, उमँगि कंठ लपटाने ।।

तात-मरन  सुनि  स्रवन कृपानिधि  धरनि  परे मुरझाइ ।

मोह-मगन, लोचन जल-धारा,  विपति न हृदय समाइ ।।

लोटति धरनि परी  सुनि सीता,  समुझति नहिं समुझाई ।

दारुन दुख दवारि ज्यों तृन-बन, नाहिंन बुझति बुझाई ।।

दुरभ   भयौ   दरस   दसरथ कौ,  सो  अपराध   हमारे ।

‘सूरदास’  स्वामी  करुनामय,   नैन     जात   उघारे ।।

राजा दशरथ का परलोकगमन श्रीराम को विचलित कर देता है। अयोध्या का दुर्योग ऐसा था, कि राजा दशरथ के प्राणांत के समय उनका कोई भी पुत्र वहाँ उपस्थित नहीं था। पुत्र-वियोग से कहीं अधिक भाई-भाई के मध्य विवाद का दंश राजा दशरथ को भीतर ही भीतर तोड़ रहा होगा, ऐसा प्रतीत होता है। अयोध्या इस विषम काल की प्रत्यक्षदर्शी बनती है, लेकिन चित्रकूट...। यहाँ आज सत्ता के सारे केंद्र सिमटकर इकट्ठे हो गए हैं। राजा दशरथ के परलोकगमन के बाद अयोध्या किसकी होगी, यह तय करने का काम आज चित्रकूट के हिस्से आ गया है।

चित्रकूट में भरत-मिलाप कोई सामान्य घटना नहीं रह जाती, वरन् भविष्य की कार्य-योजना तय करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो जाती है। श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी इस प्रसंग की गंभीरता को प्रस्तुत करते हैं। उनके लिए भरत पूज्य हैं, वंदनीय हैं। भरत और राम के प्रेम का वर्णन वे विस्तार के साथ करते हैं। चित्रकूट में राम और भरत का मिलन दैवलोक तक हर्ष और उल्लास का प्रसार करता है-

धन्य  भरत  जय  राम  गोसाईं ।  कहत  देव  हरषत  बरिआईं ।।

मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू । भरत बचन सुनि भयउ उछाहू ।।

भरत  राम  गुन  ग्राम   सनेहू ।  पुलकि   प्रसंसत   राउ  बिदेहू ।।

अयोध्याकांड में प्रसंग आता है, कि अयोध्या के सभी नर-नारी चित्रकूट पहुँचते हैं, और पाँच दिनों तक रुकते हैं। छठवें दिन सभी प्रस्थान करते हैं। भरतजी एक विश्वास अपने मन में लेकर आए थे, कि वे अपनी माता के अपराध का प्रायश्चित्त भी करेंगे और श्रीराम को अयोध्या ले आएँगे। यदि इतने से बात नहीं बनी, तो वे स्वयं वन में रुक जाएँगे, और श्रीराम को अयोध्या जाने के लिए कहेंगे। पाँच दिनों तक इस विषय को लेकर मंथन चलता है। इसी अवधि में विंध्य गिरि के तले एक प्राचीन पवित्र सिद्ध-स्थल में कूप तैयार कर, उसमें सभी तीर्थों का जल डालकर स्थान को नया नाम भरतकूप का दिया जाता है। भरतजी इस अवधि में चित्रकूट के सभी दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करते हैं, और चित्रकूट में रम रहे श्रीराम के गुणों का श्रवण कर आनंदित होते हैं। पाँच दिनों के मंथन का नवनीत छठवें दिन निकलता है। इसी दिन सबको अयोध्या के लिए प्रस्थान भी करना है। मानस में भरत-मिलाप के प्रसंग का छठवाँ दिन बड़े महत्त्व का है। बाबा तुलसी लिखते हैं-

भोर  न्हाइ  सबु  जुरा समाजू ।  भरत  भूमिसुर  तेरहुति  राजू ।।

भल दिन आजु जानि मन माहीं । राम कृपाल कहत सकुचाहीं ।।

करि  दंडवत  कहत कर जोरी ।  राखीं नाथ सकल रुचि मोरी ।।

मोहिं  लगि सबहिं  सहेउ संतापू ।  बहुत भाँति दुखु पावा आपू ।।

अब  गोसाईं  मोहि  देउ रजाई ।  सेवौं  अवध  अवधि भर जाई ।।

जेहिं  उपाय  पुनि  पाय   जनु   देखै  दीनदयाल ।

सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल ।।

आरति  मोर  नाथ कर   छोहू ।  दुहुँ मिलि कीन्ह दीठु हठि मोहू ।।

यह बड़ दोषु दूर करि स्वामी । तजि सकोच सिखइअ अनुगामी ।।

भरत  बिनय सुनि सबहिं  प्रसंसी । खीर नीर  बिबरन  गति हंसी ।।

अनुकूल समय जानकर भरत जी अपनी बात कहते हैं। राम और भरत का स्नेहभाव ही यहाँ बचा है। बीच का कलुष-कल्मष धुल चुका है। दोनों भाइयों के बीच स्नेह की अविरल मंदाकिनी, मंदाकिनी के तीर पर बह रही है। राम को अयोध्या का राजपाट नहीं चाहिए। भरत को भी ‘अवधि भर’ के लिए ही अवध को पालना है, फिर राम को वापस लौटा देना है। संपत्ति का मोह दोनों में से किसी को नहीं है। भरत स्वयं ही श्रीराम से कहते हैं, कि मेरे आर्त भाव ने, और आपके आत्मीय प्रेम ने मुझे हठी बना दिया है, इसी कारण मैं हठ कर रहा हूँ। मेरे दोष को दूर करके, और अपने संकोच को मिटा करके आप अपने इस अनुगामी को सीख दें, कि मैं किस तरह से ‘अवधि भर’ के लिए अवध का पालन करूँ?

मोर   तुम्हार  परम  पुरषारथु । स्वारथु   सुजसु  धरम   परमारथु ।।

पितु   आयसु  पालिहिं  दुहु  भाई ।  लोक  बेद  भल  भूप  भलाई ।।

गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें । चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ।।

अस  बिचारि सब सोच बिहाई । पालहु  अवध  अवधि  भर  जाई ।।

श्रीराम कहते हैं, कि मेरा और तुम्हारा परम पुरुषार्थ, परमार्थ, स्वार्थ, धर्म और सुयश सभी कुछ इसी में है, कि हम दोनों ही भाई पिता की आज्ञा का पालन करें, ताकि लोक और शास्त्र दोनों में राजा का हित हो, अर्थात् राजा की मान-प्रतिष्ठा को कहीं पर भी कोई ठेस न पहुँचे। गुरु, पिता, माता और स्वामी की शिक्षा का पालन करने पर कुमार्ग में चलने पर भी पैर नीचे नहीं पड़ता, कर्म में पतन नहीं होता है। ऐसा विचार मन में रखते हुए चिंता को त्याग करके जाओ और ‘अवधि भर’ के लिए अवध का पालन करो।

दोनों भाइयों की स्थिति एकदम स्पष्ट है। दोनों को केवल अपने-अपने भाग्य के कर्म करने हैं। अयोध्या का साम्राज्य दोनों में से किसी के मन में लेशमात्र भी लालच उत्पन्न नहीं कर पाता है। चित्रकूट की पुण्यश्लोका धरा साक्षी बनती है, कि अयोध्या का समृद्धशाली साम्राज्य किस तरह कंदुक-सम दोनों भाइयों के बीच एक पाले से दूसरे पाले में जा रहा है। दोनों में से कोई भी अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं कर रहा। यह हमारी सनातन परंपरा का ऐसा जाज्वल्यमान उदाहरण है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। और इस प्रसंग को बाबा तुलसी ने इतना विस्तार से लिखा, तो आखिर क्यों? बाबा तुलसी का रचनाकाल भारत की पराधीनता का समय था। विदेशी आक्रांताओं के साम्राज्य कैसे बनते-बिगड़ते थे, यह बाबा तुलसी ने देखा था। पिता अपने पुत्र को बंदी बना रहा था, तो पुत्र अपने पिता और भाइयों की हत्या करके बादशाह बन रहा था। इस विषमता के कालखंड में बाबा तुलसी की लेखनी भरत और राम के प्रेम को विस्तार से बखानती है, पथभ्रष्टों को रास्ता दिखाती है।

श्रीराम से भरत पूछ रहे हैं, और राम बता रहे हैं-

मुखिया  मुख  सो  चाहिए  खान पान कहुँ एक ।

पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ।।

राजधरम  सरबसु एतनोई ।  जिमि मन माँह मनोरथ गोई ।।

बंधु प्रबोध कीन्ह बहु भाँती । बिनु अधार मन तोषु न साँती ।।

मुखिया को मुख की भाँति होना चाहिए। उसे भेदभाव नहीं करना चाहिए। मुख खान-पान में एक होता है, लेकिन जो भी ग्रहण करता है, उससे सारे शरीर का पालन विवेकपूर्ण ढंग से करता है। जिस तरह मन में मनोरथ छिपे होते हैं, और अन्य कार्य-व्यवहार उससे निकलकर प्रकट होते हैं, उसी प्रकार राजधर्म होता है। राजधर्म का सार भी इतना ही है। भरत जी के लिए ये सीख दिशा-निर्देशक बन जाती है, किंतु उन्हें भौतिक आधार के बिना संतोष नहीं होता। राम अपनी चरण पादुकाएँ उतारकर दे देते हैं। भरत उन्हें अपने सिर पर रख लेते हैं। वाल्मीकि रामायण के दाक्षिणात्य पाठ में हेमभूषित पादुकाएँ बताई गईं हैं, तो गौड़ीय पाठ में शरभंग ऋषि द्वारा भेजी गईं कुश-पादुकाओं को राम द्वारा दिए जाने की बात कही गई है। जातक कथाओं में पादुकाओं द्वारा न्याय किए जाने की बात आती है।

भरत के लिए राम की चरण पादुकाएँ संबल बनती हैं। वे विधिवत् उन्हें सिंहासन में स्थापित करते हैं। स्वयं नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहते हैं।

राम  मातु  गुर  पद सिरु नाई ।  प्रभु  पद पीठ  रजायसु पाई ।।

नंदिगाँव  करि परन कुटीरा ।  कीन्ह निवासु  धरम  धुर धीरा ।।

जटाजूट  सिर  मुनिपट धारी ।  महि खनि कुस साँथरी सँवारी ।।

असन बसन बासन ब्रत नेमा ।  करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा ।।

भूषन  बसन  भोग सुख  भूरी ।  मन तन  बचन  तजे तिन तूरी ।।

अवध  राजु  सुर राजु सिहाई ।  दसरथ  धनु सुनि धनदु लजाई ।।

तेंहि  पुर बसत भरत बिनु रागा ।  चंचरीक  जिमि  चंपक बागा ।।

भरत के लिए अयोध्या का राजपाट सुखभोग के लिए नहीं है। वे कठिन साधना करते हैं, ऋषिधर्म का निर्वाह करते हैं। जिस अयोध्या नगरी की समृद्धि को देखकर देवता भी ललचाते हैं, जिस अयोध्या नगरी की संपन्नता को सुनकर धनपति कुबेर भी लजाते हैं, उस अयोध्या नगरी का मोल भरत के लिए तृण के समान है। जैसे चंपक के वन में भौंरा रहता है, वैसे ही संसक्ति से विहीन होकर भरत रह रहे हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भरत द्वारा अयोध्या के राजपाट के संचालन का विशद-व्यापक वर्णन किया है। वे समकालीन परिस्थितियों के मध्य एक दीपस्तंभ की तरह भरत को प्रस्तुत करते हैं। सत्ता के मद में, शक्ति के अहंकार में, धन के घमंड में चूर समाज के समक्ष वे भरत को प्रस्तुत करते हैं। मानस में भरत का विराट व्यक्तित्व प्रकट होता है। रामराज्य की बात बार-बार कही जाती है। यह रामराज्य स्थापित कैसे हुआ, इस प्रश्न का उत्तर तुलसी के मानस में मिलता है। जब भरत जैसा शासक संसक्तिविहीन होकर राजपाट को चलाता है, तब राजमद नहीं होता। जब शासक आसक्ति से मुक्त होकर संन्यस्त-भाव से राजपाट को चलाता है, तब राजमोह नहीं होता। वह अपने दायित्व को ‘अवधि भर’ निभाने से आगे नहीं जाता, अपना अधिकार नहीं जताता। वह निर्विकार-निर्लिप्त भाव से सत्ता सौंप देने के लिए तत्पर रहता है, तैयार रहता है। रामराज्य तभी बनता है। रामराज्य के प्रवर्तक-संस्थापक भरत बनते हैं। भरत ही रामराज्य स्थापित कर पाते हैं। इसी कारण राम के सबसे प्रिय भरत हैं। लक्ष्मण से भी अधिक....। इसी कारण लक्ष्मण के मन में उठने वाली शंका पर राम मौन रहते हैं, लक्ष्मण को समझाते हैं। राम भरत को लेकर आश्वस्त हैं, इसी कारण वे लक्ष्मण के मन में उठी शंकाओं का शमन करते हैं, उन्हें समझाते हैं।

भरत और राम का मिलन इसी कारण रामकथा में, रामलीलाओं में अपना विशेष महत्त्व रखता है। भरत और राम का मिलन रामकथा में दो बार आता है। भरत-मिलाप के दो प्रसंग हैं। एक चित्रकूट में, दूसरा अयोध्या में...। एक वनवास गए राम के साथ, दूसरा वन से लंका-विजय करके लौटे राम के साथ...। वाराणसी में दूसरे भरत-मिलाप का प्रसंग खेला जाता है। वाराणसी की नाटी इमली की रामलीला बहुत प्रसिद्ध है। वैसे तो शिव की नगरी में जब राम उतरते हैं, तो सारी नगरी ही एक रंगमंच बन जाती है। कहीं लंका, तो कहीं अयोध्या...। पूरे वाराणसी में रामलीला के अलग-अलग प्रसंग अलग-अलग स्थानों में खेले जाते हैं। एकदम अनूठा ही रंग दिखता है। नाटी इमली की रामलीला भरत-मिलाप के प्रसंग से जुड़ी है।

राम ने लंका को जीत लिया है। विभीषण को लंका का राजपाट सौंप दिया है, और स्वयं अयोध्या की ओर चल पड़े हैं। भरत, जो नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रह रहे हैं, उनके पास समाचार आता है, कि राम अयोध्या पहुँच रहे हैं। भरत की हठ है, कि राम यदि सूर्य ढलने के पहले उनसे आकर नहीं मिलेंगे, तो वे अपने प्राण त्याग देंगे। यह हठ राम के स्नेह के कारण है, दोनों भाइयों के आपसी प्रेम की प्रगाढ़ता के कारण है। अनेक लोगों से मिलते-मिलते राम को देर हो जाती है, और राम अचानक चिंतित हो उठते हैं, भरते के लिए। उधर सूरज ढलने को है। राम दौड़कर जाते हैं, और भरत को गले लगा लेते हैं। यह प्रसंग नाटी इमली की रामलीला में इसी भाव के साथ खेला जाता है। मैदान में एक विशेष स्थान पर जब ढलते सूरज की किरणें पड़ रहीं होती हैं, तब राम और भरत का मिलाप होता है। उपस्थित जन-समुदाय भावावेश में विह्वल हो उठता है। इस रामलीला को देखने स्वयं काशी नरेश आते हैं।

भरत और राम के प्रेम को रामकथाओं के साथ ही लोकजीवन ने अपनाया है। इसी कारण भरत-मिलाप की लीला लोक को सुहाती है। लोककथाओं में भरत और राम का प्रेम दिखता है। गोस्वामी तुलसीदास के लिए भरत आदर्श हैं, प्रेरणा के स्रोत हैं। वे बार-बार अपने आराध्य श्रीराम से भरत के गुण कहलाते हैं-

लखन  तुम्हार  सपथ पितु आना ।  सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना ।।

भरतु  हंस  रबिबंस  तड़ागा ।   जनमि  कीन्ह  गुन  दोष बिभागा ।।

कहत   भरत  गुन  सील सुभाऊ ।   पेम  पयोधि  मगन  रघुराऊ ।।

जौं न होत जग जनम भरत को । सकल धरम धुर धरनि धरत को ।।

कबि कुल  अगम  भरत गुन गाथा ।  को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा ।।

यदि भरत न होते, तो संसार में समस्त धर्मों की धुरी कौन धारण करता। भरत तो धर्म की धुरी हैं। श्रीराम भरत के गुणों के गायक हैं, वाचक हैं, प्रस्तोता हैं। भरत के गुणों की कथा अगम्य है, और श्रीराम के बिना उन गुणों को कोई नहीं जान सकता।

वाराणसी में नाटी इमली की भरत-मिलाप की लीला के साथ लोकमान्यता जुड़ी है, कि श्रीराम स्वयं इस लीला में उपस्थित होते हैं। बाबा तुलसी द्वारा स्थापित रामलीलाओं के मंचन की परंपरा को मेधा भगत ने आगे बढ़ाया था। मेधा भगत को श्रीराम ने नाटी इमली की रामलीला स्थली में दर्शन दिए थे। श्रीराम का भरत के प्रति अगाध प्रेम लोक को भाता है, क्योंकि लोक इस भाव से रस-संचय कर अपने लिए सीख लेता है, अपने को सीख देता है। गोपीगंज की भरत-मिलाप की लीला भी बहुत प्रसिद्ध है। भाइयों के बीच निष्काम प्रेम-भाव, परिवार के मेल-जोल और निर्विकार-निर्लिप्त राजशासन की भावना भरत-मिलाप की लीला को हर स्थान पर प्रिय बनाती है। चित्रकूट के साथ जितना गहरा संबंध राम का है, उतना ही गहरा संबंध भरत का भी है।

चित्रकूट ने भरतजी के त्याग को, उनके समर्पण को, उनके निर्विकार भाव को, उनके सहज आत्मीय स्वभाव को देखा है। इसी कारण आज भी चित्रकूट में भरतजी की जय-जयकार होती है। रामघाट की संध्या आरती में, विभिन्न मंदिरों की आरती में आज भी भरत जी के नाम का जयकारा लगाया जाता है। लोक सदा से ही राम को धन्य कहता आया है, और भरत की जय-जयकार करता आया है। लोक की आकांक्षा भरत-मिलाप की लीला में पूर्ण होती है।

-राहुल मिश्र

(वार्षिक कर्तव्य मार्ग, जम्मू के वर्ष-2, अंक-2, 2024 में प्रकाशित)