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Saturday 3 January 2015

संघर्ष बस संघर्ष : कविताओं में यथार्थ के स्पंदन

संघर्ष बस संघर्ष : कविताओं में यथार्थ के स्पंदन

संघर्ष ऐसी प्रक्रिया है, जो समाज की छोटी से छोटी इकाई से लगाकर बड़ी से बड़ी इकाई तक, स्वयं में सामाजिक इकाई बनकर रह गए आज के व्यक्ति तक इस तरह चलती है, जो कभी असंतोष, असहमति, पीड़ा, विद्रोह को जन्म देती है तो कभी जीवन को गति और सार्थकता देती है। यह प्रक्रिया मानव-मात्र में ही नहीं, समस्त जड़-चेतन में व्याप्त है, युगों-युगों से। संघर्ष की अभिव्यक्ति के विविध माध्यम संघर्ष की सार्थकता के प्रतिमान बनते हैं। जीवन के इस गुण-धर्म से साहित्यकार का वास्ता भी युगों-युगों का है। ऐसे में आज के साहित्यकार का संघर्ष की प्रक्रिया से गहरा जुड़ाव होना स्वतः-स्वाभाविक है।
संघर्ष के साथ आज की कविता का संबंध वर्तमान युगबोध के सापेक्ष है। जीवन की यातनाओं को, भोगे हुए यथार्थ को, समाज की विसंगतियों को और परिवर्तित होते मूल्यों के संक्रमण को कविता में उसी शिद्दत के साथ प्रस्तुत करने, प्रकट करने का सार्थक प्रयास अमृतसर (पंजाब) निवासी शुभदर्शन की काव्य-कृति ‘संघर्ष बस संघर्ष’ में हुआ है। एक जागरूक पत्रकार अपने समय के यथार्थ को, अपने परिवेश को विविध आयामों से देखता भी है, विश्लेषण भी करता है और सत्यान्वेषण की कामना से संप्रेषित भी करता है। ‘संघर्ष बस संघर्ष’ कृति के रचनाकार शुभदर्शन एक पत्रकार होने के नाते स्वयं को इन्ही विशिष्टताओं के साथ कवि-कर्म में उतारते हैं। इसी कारण शुभदर्शन का समीक्ष्य काव्य-संग्रह एक जरूरी दस्तावेज़ भी बन जाता है और यथार्थ को परखने का एक मानदंड भी बन जाता है।
‘संघर्ष बस संघर्ष’ में कवि-पत्रकार शुभदर्शन की सैंतीस कविताएँ संकलित हैं। संग्रह की पहली कविता- घुटन के पैबंद में ही व्यवस्था की विद्रूपताओं के बीच घुटते रहने की पीड़ा फूट पड़ती है-
कब खुलेगा दरवाजा/कब देगा कोई दस्तक/उलाहनों की संकरी गली में/लगी उम्मीदों की हाट पर।। (पृ.19)
भोली थी माँ कविता में माँ के बहाने आधी दुनिया के उस दर्द को बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया गया है, जिसे भोगते रहना कभी मजबूरी लगता है, कभी सरल स्वभाव लगता है तो कभी भावनाओं का व्यापार लगता है। भोली-सी माँ जख्म़ों की चारदीवारी और दुख की छत को घर समझते हुए सबकुछ सहती जाती है। कभी परिवार के लिए, कभी बच्चों की खातिर अपने जीवन को गलाते हुए जब माँ रूपी सुरक्षा कवच टूट जाता है, तब उपजने वाली रिक्तता अहसास दिलाती है कि माँ का होना जीवन में कितनी अहमियत रखता है। वसीयत से मनफी, तस्वीर में अहसास नहीं होता, जड़ उखड़ने से और संघर्ष की विरासत कविताओं में माँ के साथ जुड़कर यथार्थ के विविध आयाम इस तरह प्रस्तुत होते हैं कि एक-एक शब्द चलचित्र के एक-एक दृश्य की तरह दौड़ता नज़र आता है। एक ओर माँ है, सबकुछ न्योछावर करती हुई और दूसरी ओर आज के युग का कृष्णा है-
कृष्ण की खाल में/आ चुका है कंस/कैसे निभेगा/गोपियों का साथ/बलात्कार व सैक्स हिंसा में/बदल गईं हैं--अठखेलियाँ/भारी हो गया है/पाप का गोवर्धन/पूतना का दूध पीते-पीते/अब मथुरा नहीं जाएगा कृष्ण/न ही करेगा वध/किसी कंस का/वह तो व्यस्त है/भरने तिजोरी/स्विस बैंकों के चेस्ट।। (कब बड़े होगे कृष्णा, पृ.123)
माँ के बहाने कवि ने घटती संवेदना, जड़ से उखड़ते जाने की त्रासदी, संस्कारों के संक्रमण, पलायन, गँवई-गाँव की विरासत के बिखराव और मानवीय मूल्यों के विघटन की स्थितियों को परखा है। संस्कार का सॉफ्टवेयर! कविता कंप्यूटर के युग में इन्ही स्थितियों का मार्मिक चित्रण करती है।
शुभदर्शन की कविताओं में गौरैया चिड़िया के रूप में एक और प्रतीक है। गाँवों के घरों में, लोगों के आपसी मेल-मिलाप और सद्भाव के बीच गौरैया का भी स्थान है। वह मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं की संवाहक है। शहरीकरण, आधुनिकीकरण और सबसे ज्यादा मानवीय मूल्यों का संक्रमण उस गौरैया के लिए घातक बन जाता है। शहर की ओर गौरैया और सैय्याद गौरैया कविताएँ इस प्रतीक को साथ लेकर ऐसा ताना-बाना बुनतीं हैं कि समाज की मानसिकता में आ रहे बदलाव की पूरी तसवीर नज़रों के सामने आ जाती है। इस बदलाव से टकराता कवि अभिशप्त अभिमन्यु बनकर हारने को विवश हो जाता है, फिर भी उसके हाथ में गांडीव थमा दिया जाता है, संघर्षरत रहने के लिए। इसी संघर्ष को, हारकर भी निरंतर संघर्षरत रहने की विवशता को, या अनिवार्यता को कवि अपने लोगों के साथ बाँटता भी है और समाज की मानसिकता का पर्दाफाश भी करता है-
इतने उतावले क्यों हो/दोस्त/इत्मीनान रखो/तुमसे वादा किया है/सच बताने का/--बताऊँगा/जरा रुको/अभी मुझे पूरी करनी है/--आत्मकथा/शायद वहीं से मिल जाएं तुम्हें/उन सवालों के उत्तर/जो/समय-समय पर/तुमने उछाले थे/भरी सभा में/मुझे जलील करने। (आत्मकथा, पृ.89)
समीक्ष्य कृति में कवि का संघर्ष वर्तमान के यथार्थ की विकृतियों के साथ भी होता है और वैचारिकता के स्तर पर जीवन जीने के दर्शन-पक्ष पर उभरती विकृतियों के स्तर पर भी होता है। इसमें सबसे अधिक कचोटने वाली स्थिति संवेदनहीनता की बनती है, जब व्यक्ति अपने परिवेश में घटित होने वाली घटनाओं से इस प्रकार विलग हो जाता है, मानो वह संज्ञाशून्य हो-
भागम-दौड़ के युग में/खिलौना बने संस्कार/चलती-फिरती मूरतें/क्या फर्क है--दोनों में /सोचता है राजा
वे भागदौड़ कर रहे हैं/और हम बिसात पर बैठे निभा रहे हैं/--फ़र्ज/नचा रहे हैं लोगों को/वे भी संवेदनहीन/--हम भी।। (संवेदनाहीन, पृ.86-87)
कवि निहायत दार्शनिक अंदाज़ में कहता है-
संवेदना रिश्तों में होती है/संवेदना घर में होती है/मानवता में भी होती है/--संवेदना/पर दोस्त/जब तन जाती है/अवसादों की भृकुटी/तो मजबूर हो जाता है/--आदमी/उसी संवेदना का गला दबाने/जिसके दावे करते/नहीं थकती जुबान।। (संवेदना और व्यवहार, पृ.88)
समीक्ष्य कृति की लगभग सभी कविताएँ दैनंदिन जीवन की, अपने आस-पास की अनेक स्थूल-सूक्ष्म घटनाओं का तार्किक-भावुक परीक्षण-अन्वेषण करतीं हैं। इनके साथ ही दर्शन का पक्ष भी जुड़ा है, जो सहजता के साथ रास्ता दिखाने का प्रयास भी करता है, बिना उपदेशात्मक प्रपंच का परचम उठाए हुए। बहुआयामी-बहुविध संघर्ष का स्वरूप कविताओं में ऐसा है, जिसे बदलाव की उम्मीद है, जिसमें सकारात्मक वैचारिकी का ऐसा पक्ष है, जो पाठक के मन को उद्वेलित किए बिना नहीं छोड़ता। ‘संघर्ष बस संघर्ष’ की कविताएँ पाठक की संवेदना को झंकृत कर संघर्ष की ओर उन्मुख कर देतीं हैं। गहन मंथन के लिए प्रेरित कर देतीं हैं।
समीक्ष्य कृति की शुरुआत में ही डॉ. रमेश कुंतल मेघ द्वारा किया गया विश्लेषण है। इसके जरिए पुस्तक की प्रभावोत्पादकता में बढ़ोत्तरी हो जाती है। ब्लर्ब पर डॉ. पांडेय शशिभूषण शीतांशु और डॉ. हुकुमचंद राजपाल की टिप्पणियाँ भी महत्त्वपूर्ण हैं। इन सभी को मिलाकर पुस्तक को पढ़ने से पहले पाठक के मन में एक वैचारिक माहौल बन जाता है और पुस्तक अपने उद्देश्य तक सहृदय पाठक को पहुँचाने में सफल हो जाती है। शुभदर्शन की कृति ‘संघर्ष बस संघर्ष’ इसी कारण हिंदी साहित्य के लिए, समय के इतिहास के लिए और वर्तमान के संदर्भ के लिए महत्त्वपूर्ण भी है, संग्रहणीय भी है।
(संघर्ष बस संघर्ष, शुभदर्शन, युक्ति प्रकाशन, दिल्ली-85, वर्ष- 2011, मूल्य- 250/-)

डॉ. राहुल मिश्र

Wednesday 10 December 2014

निर्गुण तथा सगुण पंथ के प्रतिनिधि कवि

सी. बी. खेडगीज् महाविद्यालय, अक्कलकोट, सोलापुर (महाराष्ट्र) में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी, दिनांक- 20-21 दिसंबर, 2013 हेतु विषय स्थापना
निर्गुण तथा सगुण पंथ के प्रतिनिधि कवि
भारत की दक्षिण काशी के नाम से विख्यात सोलापुर के उत्तर की ओर स्थित अहमदनगर और पश्चिम की ओर स्थित सतारा का भक्ति-काव्य परंपरा में अद्वितीय योगदान है। भगवान दत्तात्रेय के अवतार स्वामी समर्थ महाराज की नगरी अक्कलकोट से लगभग 100 किलोमीटर दूर पंढरपुर तीर्थ हिंदी साहित्य की उस परंपरा से जुड़ा हुआ है, जिसकी चर्चा के लिए हम सभी यहाँ उपस्थित हैं। अहमदनगर के आपेगाँव के संत ज्ञानेश्वर और सतारा के नरसीबामणी गाँव के संत नामदेव पंढरपुर की वारी (यात्रा) के माध्यम से प्रचलित हुए वारकरी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं। मुक्ताबाई, संत तुकाराम और संत एकनाथ ने इस परंपरा को समृद्ध-सशक्त किया। वारकरी संप्रदाय के साथ ही महानुभाव संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी चक्रधर ने भी भक्ति-काव्य परंपरा के विकास में योगदान दिया। इस प्रकार इस क्षेत्र से ऐसी भक्ति परंपरा का उदय हुआ, जिसे विविध संप्रदायों, पंथों- नाथ, महानुभाव, वारकरी, मालकरी आदि में बाँटकर भी देखा जा सकता है और समग्र धारा के रूप में भी देखा जा सकता है। भक्ति-काव्य की इस परंपरा ने संत नामदेव के नेतृत्व में उत्तर भारत में उदित हो रही भक्ति-काव्य परंपरा को सक्षम और समर्थ बनाने में अद्वितीय योगदान दिया।
महानुभाव संप्रदाय में निर्गुण की अपेक्षा सगुण को अधिक महत्त्व दिया गया, जबकि परवर्ती वारकरी संप्रदाय के संतों ने ब्रह्म को अनादि, नित्य, ज्ञानमय, अव्यक्त, निर्गुण और सर्वव्यापक मानते हुए निर्गुण रूप को भी महत्त्व दिया और निर्गुण ईश्वर ही सगुण के रूप में अवतरित होता है, यह कहकर सगुण रूप को भी महत्त्व दिया। इसके साथ ही महाराष्ट्र में संतकाव्य परंपरा के आदिकवि मुकुंदराज (1127-1200 ई.) ने अपने ग्रंथ ‘विवेक सिंधु’ (1190 ई.) में सगुण, निर्गुण, गुरु का महत्त्व, ब्रह्म, जीव, माया आदि विषयों का प्रतिपादन जनसाधारण की भाषा में किया। भारतवर्ष की संतकाव्य परंपरा का यह पहला काव्यग्रंथ माना जाता है।
संत शब्द का सामान्य अर्थ सज्जन होता है। मराठी व बाद में हिंदी कवियों ने ‘संत’ शब्द का अपने वर्ग के लिए इतना अधिक प्रयोग किया कि इस शब्द के साथ उनका गहरा और अभिन्न संबंध स्थापित हो गया। महात्मा चक्रधर, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, संत निवृत्तिनाथ, संत सोपानदेव और संत एकनाथ आदि संत कवियों के द्वारा रचित भक्ति-काव्य इसी आधार पर कोई विभाजक रेखा नहीं खींचता है। मराठी संत कवियों द्वारा सृजित भक्ति-काव्य प्रेरणास्रोत बनकर, एक आंदोलन का स्वरूप लेकर जब उत्तर भारत की ओर अपनी यात्रा प्रारंभ करता है, तब बड़ा बदलाव उत्तर भारत की भक्ति-काव्य परंपरा में देखने को मिलता है।
 उपासनाभेद का आश्रय लेकर सगुण और निर्गुण पंथ जैसे दो वर्गों की कल्पना की गई और हिंदी साहित्येतिहासकारों ने इसी आधार पर समग्र भक्ति साहित्य को विभाजित किया। सगुण पंथ में लीलावतार, भगवद्नुग्रह का भरोसा, परलोक या स्वर्ग-नर्क की कल्पना, लीला का माहात्म्य, वर्ण-व्यवस्था की स्वीकार्यता, साकार के प्रति भक्ति और बाह्य लालित्य होता है। निर्गुण पंथ में ब्रह्मानुभूति, आत्मविश्वास का बल, सत्कर्मों द्वारा संसार को ही स्वर्ग बनाना, वर्ण-व्यवस्था का विरोध, निराकार के प्रति भक्ति, अंतःसौंदर्य की गरिमा और विश्वात्मा प्रभु के विश्वव्यापी अस्तित्व में आस्था होती है।
हिंदी साहित्य के इतिहास के अध्ययन में हम सामान्यतः इन्हीं तथ्यों का अध्ययन करते हैं। इसके साथ ही सगुण पंथ के अंतर्गत विष्णु के दो अवतारों- राम और कृष्ण काव्य के आधार पर क्रमशः रामकाव्य परंपरा और कृष्णकाव्य परंपरा का अध्ययन करते हैं। निर्गुण पंथ में संतकाव्य परंपरा या ज्ञानमार्गी शाखा और सूफ़ीकाव्य परंपरा या प्रेममार्गी शाखा के दो वर्गों का अध्ययन करते हैं। कृष्णकाव्य परंपरा  वल्लभ संप्रदाय (श्री वल्लभाचार्य, तेलुगु), चैतन्य संप्रदाय (चैतन्य महाप्रभु, नवद्वीप, बंगाल) और राधावल्लभ संप्रदाय (श्री हित हरिवंश) का आश्रय लेकर विकसित हुई। इसके प्रतिनिधि कवि सूरदास ने ब्रजभाषा में कृष्ण भक्ति, काव्य और संगीत की ऐसी त्रिवेणी का सृजन किया है, जिसमें प्रेम, भक्ति और अध्यात्म एक-दूसरे से मिल जाते हैं। निर्गुण और सगुण का भेद नहीं रह जाता है। महाकवि सूर का कवित्व उच्चता की उस सीमा पर स्थापित है, जहाँ तक पहुँच पाना अन्य के लिए संभव नहीं है। इसी कारण तानसेन कह उठते हैं- किंधौं सूर की सर लग्यौ, किंधौं सूर की पीर, किंधौं सूर को पद सुन्यौ, तन मन धुनत सरीर।
निर्गुण पंथ की प्रेममार्गी शाखा या सूफ़ीकाव्य परंपरा को प्रायः सूफ़ी कवियों, फ़ारसी मसनवियों द्वारा विकसित माना जाता है। वस्तुतः महाभारत की रोमांसिक चेतना के साथ ही हरिवंश पुराण, वृहत्कथा, संस्कृत गद्यकाव्य और अपभ्रंश जैनकाव्य परंपरा के क्रमिक विकास को तथाकथित सूफ़ीकाव्य परंपरा में देखा जा सकता है। इस परंपरा के प्रतिनिधि कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य पद्मावत में नीति और दर्शन के भारतीय संस्करण को उतारा है। सांप्रदायिक टकराहट से स्वयं को मुक्त रखकर न्याय और अन्याय के स्थूल-सूक्ष्म संघर्ष, मानवीय कर्म और उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया की गाथा जायसी को पृथिवी पुत्र (वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार) बना देती है और पद्मावत को लोक से शिष्ट में संक्रमण का काव्य बना देती है।
निर्गुण पंथ की संतकाव्य परंपरा के प्रतिनिधि कवि कबीर और सगुण पंथ की रामकाव्य परंपरा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास हैं, जिनके हिंदी साहित्य में योगदान विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के शुभ अवसर पर हम सब उपस्थित हैं और जिनके कृतित्व के विविध पक्षों पर व्यापक विचार-विमर्श के सहभागी बन रहे हैं।
सन् 1880 के आसपास रामकुमार विद्यालंकार द्वारा रचित ‘कबिरेर संक्षिप्त जीवनचरित’ के साथ कबीर का व्यवस्थित अध्ययन प्रारंभ होता है। आचार्य क्षितिमोहन सेन कृत ‘कबीर’ (1942), रवींद्रनाथ टैगोर और ऐवेलिन अंडरहिल द्वारा अनूदित ‘वन हंड्रेड पोयम्स ऑफ़ कबीर’ (1914), अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध कृत ‘कबीर वचनावली’ (1916), रेवरेंड अहमदशाह कृत ‘द बीजक ऑफ़ कबीर’ (1917), रेवरेंड एफ. ई. के. कृत ‘कबीर एंड हिज़ फॉलोअर्स’ (1931) और उसके बाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कृत ‘कबीर’ (1942), डॉ. श्यामसुंदरदास कृत ‘कबीर ग्रंथावली’ बेल्जियम के निवासी विनान्द एम कैलेवर्त्त के शोध-ग्रंथ ‘द मिलेनियम कबीर वाणी’ आदि रचनाओं की चर्चा कबीर के विस्तृत और व्यवस्थित अध्ययन के संदर्भ में की जा सकती है। इन सभी अध्ययन ग्रंथों को अगर देखें तो यह सरलता के साथ कहा जा सकता है कि हिंदी में कबीर पर अध्ययन-अनुसंधान बहुत बाद में शुरू हुआ और परिमाण की दृष्टि से भी यह कम ही ठहरता है।
हिंदी में कबीर के अध्ययन की शुरुआत के साथ ही कुछ अवधारणाओं का विकास होता है। कबीर के सामान्य अध्ययन में हम सामान्य रूप से यह जानते हैं या जान पाते हैं कि उनके काव्य संस्कार सूफ़ी परंपरा पर आश्रित हैं, जिनमें इस्लाम के एकेश्वरवाद का प्रभाव परिलक्षित होता है। उनके काव्य सृजन में हिंदू परंपरा को कोई रचनात्मक योगदान नहीं है। कबीर के निर्गुण ब्रह्म की उपासना के पीछे पुरातन भक्ति परंपरा की तीक्ष्ण आलोचना है। ज्ञानमार्ग की कट्टरता कबीर की साधना-पद्धति का प्रमुख अंग थी। ऐसी ही अनेक मान्यताएँ कबीर के संदर्भ में प्रचलित हैं, जिनका हम सामान्य तौर पर अध्ययन करते हैं।
वस्तुतः कबीर का सम्यक् मूल्यांकन किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि निर्गुण अद्वैतवाद, सगुण वैष्णव भक्ति, बौद्ध सहजयान, नाथ पंथ, इस्लाम या सूफ़ी मत जैसे किसी भी वर्ग में कबीर को रखना संभव नहीं है। कबीर के काव्य संस्कार में इन सभी का समन्वय देखा जा सकता है। उनके व्यक्तित्व में परस्पर विरोधी तत्त्वों का सामंजस्य इस तरह मिलता है कि विरोधी तत्त्व भी एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। कबीर में एक ओर अक्खड़पन है तो दूसरी ओर दीनता और हीनता का भाव भी है। बड़े-बड़े दार्शनिकों-चिंतकों के विचारों को ‘कागद की लेखी’ कहकर अक्खड़पन दिखाने वाले कबीर ‘धण मैली पिय ऊजला, लाग सकूँ न पाँव’ कहकर अपनी असीमित दीनता को भी सहजता के साथ प्रकट कर देते हैं।
संकीर्ण भौतिकवाद और यथार्थवाद के विपरीत व्यापक करुणा, सर्वहित की कामना, सच्ची भक्ति-भावना, समाजहित पर केंद्रित विचार और अनुभूति की व्यापकता कबीर की रचनाओं में देखने को मिलती है। कबीर को समझने के लिए ज्ञान की नहीं, अनुभूति की, सच्चे मन और भाव की जरूरत पड़ती है। कबीरदास लिखते हैं-
कबीर का घर सिखर पर, जहाँ सिलहली गैल।
पाँव न टिके पिपीलक, लोगनि लादे बैल।।
संभवतः इसी कारण कबीर की लोकप्रियता हर तरह के बंधनों से मुक्त थी, लोक-व्यवहार में विस्तृत थी। कबीर ने अपनी रचनाधर्मिता का स्वरूप विभिन्न धर्मों, मतों, पंथों का सामान्यीकरण करके, विज्ञानीकरण करके बनाया। इस तरह सभी के लिए अपना-सा लगने वाला, सभी के लिए अपनत्व से, प्रेम से भरा हुआ विश्व धर्म स्थापित करना कबीर के चिंतन की मौलिक उपलब्धि है। इसके लिए वे कभी ज्ञान की आँधी आने की बात कहते हैं तो कभी-
कामी   क्रोधी   लालची,  इनसे भक्ति  न होय।
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय।।                                       
कहकर भक्ति के सच्चे स्वरूप की स्थापना करते हैं।  
भक्ति का विलक्षण और उदात्त स्वरूप गोस्वामी तुलसीदास के कृतित्व में भी प्रकट होता है। अपनी समन्वयात्मक दृष्टि को अपनी भक्ति भावना के साथ जोड़कर लोकमंगल की साधना करने वाले गोस्वामी तुलसीदास की स्थिति लोकनायक से कम नहीं आँकी जा सकती। जाने-माने इतिहासकार गोस्वामी तुलसीदास के संदर्भ में अपनी पुस्तक ‘अकबर दि ग्रेट मुगल’ में लिखते हैं- Tulsidas is the tallest tree in the magic garden of medieval Hindu Poesy. वे आगे लिखते हैं- That was the greatest man of his age in India- greater even than Akbar himself in as much as the conquest of the hearts and minds of millions of men and women effected by the poet was an achievement infinitely more lasting and important than any or all the victories gained in war by the Monarch. अपने ग्रंथ Indian Antiquary (1893) में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन लिखते हैं- If we take the influence exercised by him at the present time as our test, he is one of the three or four great writers of Asia….Over the whole Gangetic Valley his great work [ The Ramayan] is better known than Bible is in England.
रूस के प्रसिद्ध विद्वान वरान्निकोव ने रामचरितमानस का रूसी भाषा में पद्यबद्ध अनुवाद किया। रेवरेण्ड एटकिन्स ने अंग्रेजी में मानस का अनुवाद किया। ऐसे ही तमाम अध्ययन-अनुसंधान कार्य तुलसीदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विदेशों में हुए हैं या विदेशी विद्वानों द्वारा हुए हैं। ये तथ्य, ये कथन उस विश्वधर्म की व्यापकता और वैश्विक स्वीकार्यता को इंगित करते हैं, जिसकी स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने की, विशेषकर रामचरितमानस के माध्यम से। भारत वर्ष के धुर देहातों में बहुत से ऐसे लोगों को तुलसी का मानस कंठस्थ है, जिन्हें अक्षरज्ञान भी नहीं है, जो लिख-पढ़ भी नहीं सकते हैं।
भूगोल के बंधनों से, काल के बंधनों से मुक्त बाबा तुलसी का मानस एक ग्रंथ मात्र नहीं है, बल्कि भारतीय संस्कृति के बौद्धिक, कलात्मक और भावुक ग्रंथों का समन्वित रूप है। यह जीवनोपयोगी भी है, गंभीर भी है और बौद्धिक-दार्शनिक तत्त्वों से युक्त भी है। राम की गूढ़ कथा एक ओर निर्गुण, निराकार परमात्मा को हमारे अपने समाज का व्यक्ति बना देती है तो दूसरी ओर परिवार, समाज और राष्ट्र के स्तर पर सत्य और प्रेम की रक्षा की, मर्यादा के पालन की ऐसी सीख दे जाती है, जो अनपढ़ के लिए भी सहज और सुग्राह्य हो जाती है-
कीरति भनिति भूति भल सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।
रामचरितमानस के अतिरिक्त विनयपत्रिका तुलसी की प्रौढ़, सशक्त कृति है। विनयपत्रिका में बाबा तुलसी के जीवन के वृहद-व्यापक अनुभव हैं, तुलसी की विनयमूलक भक्ति का उत्कृष्ट स्वरूप है। मानवतावादी दृष्टिकोण है और गूढ़ दार्शनिक चिंतन भी है। कृष्णगीतावली, दोहावली, बरवै रामायण आदि विविध ग्रंथ भी अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। उनकी सभी कृतियाँ किसी भी युग की सीमाओं में या भौगोलिक क्षेत्र के बंधनों में बँधी हुई नहीं है।
पाश्चात्य जीवन शैली के ‘माइक्रो फैमिली कल्चर’ और टूटती-बिखरती ‘फैमिली वैल्यूज़’ के घातक दुष्परिणामों से बचने के लिए रामचरितमानस के रूप में हमारे पास ऐसा अमोघ अस्त्र है, जिसकी प्रासंगिकता वर्तमान जीवन में उत्तरोत्तर बढ़ रही है। रामकथा को आधार बनाकर अनेक भक्त कवियों ने उत्कृष्ट रचनाएँ की हैं, किंतु रामकथा को लोक-व्यवहार से, लोक-जीवन की मान्यताओं-मर्यादाओं और समाज की मानवीय अपेक्षाओं के अनुरूप बनाने का काम बाबा तुलसी ने ही किया है। बाबा तुलसी ने मानस के माध्यम से समूचे परिवार के मर्यादित आचरण को समग्रता के साथ प्रस्तुत किया है। इसके बाद भी तुलसीदास और उनकी कालजयी कृति ‘रामचरितमानस’ प्रायः दूषित आलोचना के भँवर में फँस जाती है।
अगर कबीर के राम राजा दशरथ के पुत्र राजकुमार राम नहीं, बल्कि निर्गुण ब्रह्म के प्रतीक हैं, तो तुलसी के राम भी दशरथनंदन मात्र नहीं, बल्कि मर्यादा के प्रतीक हैं, मर्यादापुरुषोत्तम हैं। अपने व्यापक अर्थों में कबीर के राम और तुलसी के राम एक ही हैं। दोनों में एक तत्त्व- मर्यादा की उपस्थिति है।
कबीर हरदी पीयरी चूना उज्जल भाइ, रामसनेही यूँ मिले, दून्यू बरन गँवाइ।। (कबीर)
 जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि वैरी सम यद्यपि परम सनेही। (तुलसी)
काव्यशास्त्रीय विभेदों को अलग रखकर, सगुण-निर्गुण की विभाजक रेखा को मिटाकर और ऐसे ही अन्य विभेदों को, प्रचलित भ्रांतियों-धारणाओं को हटाकर विचार किया जाए तो महाराष्ट्र से, पंढरपुर से चलकर उत्तर भारत में और फिर सारे विश्व में प्रचारित-प्रसारित होने वाली विश्वधर्म की संकल्पना के संवाहक के रूप में कबीर और तुलसी की भूमिका अद्वितीय है, अनुपम है।
हिंदी में तुलसी और कबीर के व्यवस्थित, समग्र, सचेत अध्ययन की स्थिति को पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। कबीर और तुलसी के संदर्भ में विदेशी विद्वानों के कथनों और उनके द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर इस धारणा को पुष्ट किया जा सकता है। कबीर और तुलसी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अध्ययन-अनुसंधान की शुरुआत के बहुत पहले से इन दोनों का स्थान लोक-व्यवहार में उच्चतम स्थिति पर था। गाँवों-कस्बों में टिमटिमाते दिये की रोशनी में रात-रातभर रामचरितमानस का पाठ करते अनपढ़ लोग, बात-बात पर मानस की चौपाइयों का उल्लेख करके मर्यादित लोकजीवन की स्थापना करते सामान्य जन तुलसी की लोक-स्वीकार्यता का उनके प्रति अगाध श्रद्धा के साक्ष्य हैं। इसी तरह गाँवों की चौपालों में रात-रातभर कबीरी (कबीर के भजन) गाते लोग, गाँवों-कस्बों में स्थापित कबीर गद्दियाँ लोक-जीवन में कबीर के उच्चतम स्थान को प्रकट करतीं हैं। लोक-व्यवहार में, लोक-जीवन में कबीर और तुलसी की स्थिति समाज-सुधारक, चिंतक, पथ-प्रदर्शक और सच्चे संत की थी। वहाँ कबीर और तुलसी आलोचना के पात्र नहीं थे, बल्कि आगाध जन-श्रद्धा और जन-आस्था से जुड़े थे। कबीर और तुलसी के लोक-व्यवहार से शिष्ट साहित्य में आने के साथ ही यह स्थिति बदलने लगी। इन दोनों भक्त कवियों की, विशेषकर तुलसी की ऐसी व्यापक और वीभत्स आलोचना शुरू हुई, जिसने लोक-व्यवहार और शिष्ट साहित्य, दोनों को दिशाहीन कर दिया।
प्रायः विदेशों से आयातित सामग्री या चिंतन या दिशा-निर्देश अपना अलग महत्त्व रखते हैं और प्रायः गर्वानुभूति भी देते हैं। यह प्रायः कच्चे माल का विदेश जाना और वहाँ से निर्मित माल के आयातित होने जैसा है। हम गर्व करते हैं, जब हमें कोई बाहरी यह बताता है कि अमुक मूल्यवान धरोहर हमारे पास है। हम अपनी धरोहर की महत्ता का मूल्यांकन स्वयं नहीं कर पाते। हजारों वर्षों की गुलामी के कारण शायद हमारी मानसिकता में यह दोष लग गया है। इस स्थिति को बदलने की जरूरत है।     
हिंदी के भक्ति-काव्य की चारों धाराओं का, इनके प्रतिनिधि कवियों का अध्ययन पुरानी परिपाटी पर, रटे-रटाए सिद्धांतों पर और घिसी-घिसाई अवधारणाओं पर होता रहा है। युगीन परिस्थितियों के अनुरूप, परिवर्तित मूल्यों के सापेक्ष और अपने मूल्यांकन के स्वतः मूल्यांकन की प्रक्रिया पर चलना जीवंत-जागृत साहित्य का लक्षण होता है। इसी आधार पर सगुण और निर्गुण पंथ के प्रतिनिधि कवियों का मूल्यांकन अपेक्षित है। पाश्चात्य चिंतनधारा में प्रचलित कुछ शब्द, जैसे- आदर्शवाद, यथार्थवाद, मानवतावाद और मूल्यवाद आदि को आयातित करके हम अपनी धरोहर की समृद्धि का विस्मरण कर बैठते हैं। इसी कारण पश्चिम के चश्मे से अपनी धरोहर को देखने का प्रयास करने लगते हैं। संत कबीर और तुलसी के कृतित्व का इसी आधार पर मूल्यांकन आधुनिक संकल्पना की देन है, जबकि पाश्चात्य चिंतनधारा के अनेक तत्त्वों से अधिक और समृद्ध तत्त्व तुलसी और कबीर के कृतित्व में उपलब्ध हैं। मूल्यांकन और अनुसंधान की इस आधुनिक नवोदित परंपरा का अपना महत्त्व है। यह सार्थक और सफल होगा, यदि इसमें पूर्वाग्रह और पक्ष-विपक्ष के निम्नस्तरीय विचारों को अलग ही रखा जाए।
यह अत्यंत सुखद संयोग है कि अक्कलकोट की इस पावन-पुनीत नगरी में तुलसी और कबीर के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा हो रही है। बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र से प्रारंभ हुई भक्ति-काव्य परंपरा ने समूचे देश को, विश्व को प्रभावित किया था। तुलसी और कबीर उसी परंपरा के संवाहक थे। आज नए समय में नई भूमिका के लिए यह परिसंवाद संगोष्ठी अगर इतिहास को दुहरा सकेगी, तो संगोष्ठी की सार्थकता भी स्थापित होगी और मानवता का कल्याण भी हो सकेगा।
डॉ. राहुल मिश्र

Sunday 17 August 2014

सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान


सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान
सआदत हसन मंटो उर्दू के सर्वाधिक विवादास्पद, चर्चित और महत्त्वपूर्ण लेखक के रुप में जाने जाते हैं। मुंशी प्रेमचंद के बाद उर्दू कहानी को एक नया आयाम देने और अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से उर्दू कहानियों में नए आयाम सृजित करने का कार्य सआदत हसन मंटो ने किया। मंटो की खूबी यह है कि वे अपने जीवनकाल में जितने चर्चित रहे, उतने ही चर्चित और प्रासंगिक आज भी हैं। मंटो का रचनाकाल आज के दौर से एकदम अलग था। उस समय साहित्य से अपेक्षाएँ थीं कि साहित्य अपने माध्यम से देश की आजादी की लड़ाई के लिए योगदान दे, किंतु मंटो ने इस भूमिका को अलग अंदाज में निभाया। उन्होंने समाज के उस क्रूर और कटु यथार्थ को, उस हकीकत को तरजीह दी, जो उस जमाने में वर्जित हुआ करती थी। इसी कारण वे जीवन-भर विवादों में रहे। उन पर आरोप भी लगे, उन्हें ताने-उलाहने भी मिले और उन पर मुकदमे भी चले। मंटो की रचनाओं में जितनी विविधता, जितना संघर्ष और जितनी सपाटबयानी नज़र आती है, वही सब उनकी जिंदगी में भी देखने को मिलती है।
उर्दू जुबान के इस नामचीन अफ़सानानिगार का जन्म पंजाब के समराला नामक स्थान में 11 मई, 1911 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के खानदान में हुआ था। उनके वालिद गुलाम हसन नामचीन बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था। मंटो उन्हें बीबीजान कहा करते थे। उनके पिता जितने सख्तमिजाज थे, उनकी माता उतनी ही नर्म स्वभाव वाली थीं। मंटो अपने माता-पिता के बारे में एक जगह लिखते हैं कि- उनके वालिद, ख़ुदा उन्हें बख़्शे, बड़े सख़्तग़ीर थे, और उनकी वालिदा बेहद नर्मदिल। इन दो पाटों के अंदर पिसकर यह दाना-ए-गुंदम किस शक्ल में बाहर आया होगा, इसका अंदाज़ा आप कर सकते हैं। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार थे और शरारती भी थे। उर्दू में कमजोर होने के कारण एंट्रेंस इम्तिहान में दो बार फेल होने के बाद मंटो को अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में दाखिला मिला। इन्ही दिनों मंटो ने अपने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक नाटक मंडली बनाई। इस नाटक मंडली ने आगा हश्र के एक नाटक के मंचन की तैयारी भी शुरू कर दी। एक खानदानी बैरिस्टर को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता था कि उसका बेटा नाच-गाने जैसी निम्न और समाज में बुरी नज़र से देखी जाने वाली गतिविधि में शामिल हो, लिहाजा मंटो के वालिद साहब ने एक रोज़ मंटो के हारमोनियम और तबले फोड़ दिए। इसके बाद नाटक मंडली ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। मंटो के वालिद ने उन्हें तीखे अल्फाज़ में बता दिया था कि ऐसे वाहियात शगल उन्हें कतई पसंद नहीं हैं। इसके बावजूद मंटो की रचनाधर्मिता थमी नहीं। सन् 1931 में मंटो का दाखिला हिंदू महासभा कॉलेज में हुआ। उन दिनों देश की आजादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। 1919 के जलियाँवाला बाग की घटना ने सात वर्ष के बालक मंटो के दिल और दिमाग पर गहरा प्रभाव डाला था। अपने आसपास क्रांतिकारी गतिविधियों को देखकर, इंकलाब जिंदाबाद के नारे सुनकर मंटो की इच्छा भी होती थी कि वह क्रांतिकारी गतिविधियों में शरीक हो जाए, मगर हर बार वालिद की सख़्तगीरी आड़े आ जाती थी। पिता के सख्त विरोध के बावजूद मंटो अदब से मुखातिब हुए और उनका पहला अफ़साना ‘तमाशा’ नाम से तैयार हो गया। इस कहानी में मंटो ने सात वर्ष के बालक खालिद की मानसिक स्थिति के जरिए जलियाँवाला बाग की घटना को अंजाम देने वाली विनाशक-क्रूर ताकतों की बर्बरता को पेश किया। सन् 1934 में 22 वर्ष की उम्र में मंटो ने जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, तब उनकी मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई। प्रगतिशील विचारधारा और देश की आजादी की लड़ाई की प्रेरणा से सन् 1935 में उनकी दूसरी कहानी- इनक़िलाब पसंद आई, जो अलीगढ़ मैगजीन में प्रकाशित हुई। मंटो की एक और कहानी- 1919 की बात में भी यही संदर्भ देखने को मिलता है। इस कहानी में इतिहास के जरिए कहानी बुनने के हुनर को देखा जा सकता है। ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं को कहानी में पिरोकर कहने की परंपरा मुंशी प्रेमचंद के जमाने में थी। मंटो ने भी ऐसा ही किया, मगर अपने खास अंदाज में। देश की आजादी की लड़ाई को मंटो ने अपनी कई कहानियों में अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया है। नया कानून कहानी में मंगू कोचवान के जरिए मंटो ने आजादी के दिनों की आम आदमी की मानसिकता को व्यक्त किया है। स्वराज्य के लिए कहानी में मंटो की क्रांतिकारी-साम्यवादी विचारधारा का गांधीवाद के साथ विरोध प्रकट होता है। इस कहानी के पात्रों- गुलाम अली और निगार के बीच संबंधों के जरिए आजादी की लड़ाई में शामिल दो अलग-अलग विचारधाराओं की पड़ताल की गई है। दो कौमें, एक ख़त, दो गड्ढे, नारा, यजीद और खाली बोतलें खाली डिब्बे कहानियों में मंटो ने राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों को बड़ी शिद्दत से व्यक्त किया है।
मंटो को अफ़सानानिगार बनने की प्रेरणा रूसी साम्यवादी साहित्य और फ्रांसीसी साहित्य के अनुवाद कार्य करने से मिली। अब्दुल वारी नामक एक पत्रकार की प्रेरणा से मंटो ने अपने लेखन की शुरुआत अनुवाद के माध्यम से की थी। सन् 1932 में मंटो के वालिद का इंतकाल हो गया था, उन्ही दिनों भगत सिंह को फाँसी की सजा दी गई थी, लिहाजा मंटो ने अपने कमरे में अपने वालिद की फोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखकर कमरे के बाहर ‘लाल कमरा’ लिख दिया था। मंटो की इस साम्यवादी वैचारिक पृष्ठभूमि ने उनके लेखन की नींव डालने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मंटो की कहानियों में राजनीतिक और सामाजिक पड़ताल के नजरिए का विकास उनकी साम्यवादी चिंतनधारा और प्रगतिशील वैचारिकता के कारण हुआ।
राजनीति और समाज के अलावा मंटो ने अपनी कहानियों के जरिए धर्म और साहित्य की हकीकतों का पर्दाफाश भी किया है। शहीद साज़ और शहदौले का चूहा कहानियों में मंटो ने अंधविश्वासों में जकड़े समाज की ऐसी कड़वी हकीकत को साझा किया है, जिसे सभ्य समाज द्वारा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन कहानियों में मंटो ने सभ्य कहे जाने वाले समाज की भ्रष्टता को बड़ी कलात्मकता और व्यंग्य के साथ उभारा है। खुदा की कसम कहानी के जरिए मंटो ने उन साहित्यकारों की खबर ली है, जो अपने समय और समाज की हकीकतों से दूर ख्वाबों की दुनिया में मशगूल रहते थे। साहित्य की समाज और सच्चाई से दूरी को मंटो ने न केवल महसूस किया, वरन् इस संकट का डटकर मुकाबला भी किया। मंटो के द्वारा लीक से हटकर चलने की इस कोशिश ने उर्दू कहानी को भी एक नई दिशा दी। आज की उर्दू कहानी अगर समय की सच्चाई से, समाज की हकीकत से और कथ्य की प्रभावोत्पादकता से जुड़ी है, तो इसे मंटो का योगदान ही माना जाएगा।
 मंटो ने अपने आसपास की जिंदगी को, अपने समय की सच्चाई को खुली आँखों से न केवल देखा था, वरन् उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके अफसाना बनाया था। उस दौर की एक और कड़वी सच्चाई थी, देश का विभाजन और विभाजन के बाद होने वाले दंगे। गंगा-जमुनी तहजीब को लहूलुहान कर देने वाला यह जख़्म मंटो की कहानियों में लगातार रिसता रहा। मंटो के लिए विभाजन की त्रासदी को सह पाना बहुत कठिन था। इसी कारण दंगों के दुष्प्रभाव और विकृत स्थितियों का जितना मार्मिक चित्रण मंटो की कहानियों में देखने को मिलता है, उसे कहीं और ढूँढ़ पाना बहुत कठिन है। मंटो की बहुचर्चित कहानी- टोबा टेकसिंह इसी तासीर की बहुत मार्मिक कहानी है। कहानी में दो देशों के बीच की जगह में चीख-चीखकर अपनी जान दे देने वाला टोबा टेकसिंह राजनीति की क्रूरता के सामने दम तोड़ने वाली गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है। इसी तरह टिटवाल का कुत्ता कहानी में  विभाजित देश की सीमाओं में एक ओर तैनात सूबेदार हिम्मत खाँ और दूसरी ओर तैनात जमादार हरनाम सिंह की गोलियों से छलनी होकर मरने वाला टिटवाल का कुत्ता उस आम आदमी की प्रतीक है, जिसे कभी हिंदुस्तानी होकर तो कभी पाकिस्तानी होकर राजनीतिक वहशीपन का शिकार होना पड़ता है। ठंडा गोश्त, खोल दो और नंगी आवाजें कहानियों को लेकर मंटो के ऊपर अश्लीलता के आरोप लगे थे और उन पर मुकदमा भी चला था। इन कहानियों को भले ही अश्लील कहकर मंटो पर आरोप लगाए जाएँ, मगर दंगों की भयावहता के बीच मानवता को शर्मसार करने वाली स्थितियों को जितनी शिद्दत के साथ इन कहानियों में प्रकट किया गया है, उसे कहीं और देख पाना संभव नहीं है। गुरमुख सिंह की वसीयत, शरीफन, रामखेलावन और मोजेल भी ऐसी ही कहानियाँ हैं, जिनके जरिए देश विभाजन के वक्त दंगों की भयावहता को और दंगों के पीछे काम कर रही क्रूर मानसिकता को समझा जा सकता है। दंगों पर ही केंद्रित कहानी- सहाय में मंटो लिखते हैं कि- वे लोग बेवकूफ हैं, जो समझते हैं कि बंदूकों से मजहब शिकार किए जा सकते हैं- मजहब, दीन, ईमान, धर्म, यकीन, विश्वास- ये जो कुछ भी हैं हमारे जिस्म में नहीं, आत्मा में होते हैं- छुरे, चाकू और गोली से ये कैसे फ़ना हो सकते हैं। मंटो का यह विचार इंसानियत के प्रति असीमित आस्था को, उनके मानवीय दृष्टिकोण को प्रकट करता है। आज के वैश्विक संदर्भ में मंटो का यह कथन एकदम सही और सटीक लगता है।
सआदत हसन मंटो की कहानियों में जिस तरह की हकीकत और बेचैनी यक्साँ है, वैसी ही उनके जीवन में भी दिखती है। मंटो 1935 में अलीगढ़ से लाहौर चले गए। वहाँ उन्होंने पारस अखबार में काम किया और मुसव्विर का संपादन भी किया। वे कुछ दिन बाद ही मुंबई आ गए, जहाँ उन्होंने फिल्मों की पटकथाएँ लिखने और फिल्म-जगत् की पत्रिकाओं में लेखन कार्य किया। मुंबई में चार साल गुजारने के बाद मंटो दिल्ली आ गए और और लगभग डेढ़ वर्षों तक आकाशवाणी में काम किया। यहीं पर उन्होंने बेहतरीन रेडियो-नाटक लिखे, जो आओ, मंटो के ड्रामे, जनाज़े और तीन औरतें संग्रहों में प्रकाशित हुए। दिल्ली प्रवास के दौरान ही मंटो का लेख-संग्रह- मंटो के मज़ामीन प्रकाशित हुआ। दिल्ली से एक बार फिर मंटो मुंबई चले गए। मुंबई के अपने प्रवास के दौरान मंटो ने अपनी नगरिया, आठ दिन और मिर्जा गालिब फिल्मों की पटकथाएँ लिखीं।
मंटो को भले ही अफ़सानानिगार के रूप में पहचान मिली हो, मगर मंटो बेहतरीन नाटककार भी थे। मंटो ने खासतौर पर रेडियो-नाटक लिखे हैं, मगर उनके नाटकों में मानसिकता की पड़ताल, समय और समाज की हकीकत और मानवीय संबंधों की जटिलता को उसी तल्खी के साथ देखा जा सकता है, जैसी उनके अफ़सानों में नज़र आती है। कबूतरी, नीली रगें, कमरा नंबर 9, रणधीर पहलवान, माचिस की डिबिया, रासपुतिन की मौत, नेपोलियन की मौत और चंगेज खाँ की मौत आदि उनके प्रसिद्ध नाटक हैं।
मंटो ने अपने जीवन में अनेक संघर्षों को झेलते हुए, अश्लीलता के आरोपों में अदालतों के चक्कर लगाते हुए, समाज की विकृतियों से विचलित होकर भटकते हुए बदकिस्मती को भोगते हुए सारा जीवन गुजार दिया। यह अजीब इत्तेफ़ाक था कि जिस दिन मंटो ने लाहौर में आखिरी साँस ली थी, उस दिन मंटो की लिखी फिल्म मिर्जा ग़ालिब दिल्ली में हाउसफुल चल रही थी। अंतोव चेखव के बाद मंटो ही ऐसे कहानीकार थे, जो अपनी कहानियों के बूते ही प्रसिद्ध हो गए। यह अलग बात है कि उनके जीते-जी उनका उचित मूल्यांकन नहीं हो सका। हिंदी और उर्दू के वर्तमान साहित्य में मंटो जितने चर्चित हुए हैं, उतनी चर्चा किसी दूसरे साहित्यकार की नहीं हुई है। हिंदी और उर्दू के आधुनिक कथा-साहित्य में मंटो की बराबरी करने वाला कोई साहित्यकार नज़र नहीं आता है। वर्तमान साहित्य यथार्थ और समय की हकीकत से जुड़ रहा है, इस कारण मंटो के लेखन को देखने का नया नजरिया विकसित हुआ है।  
उर्दू अफ़सानानिगार मुशर्रफ़ आलम जौक़ी के मुताबिक- दुनिया अब मंटो को समझ रही है। भारत और पाकिस्तान में उन पर बहुत शोध-कार्य हो रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिए सौ वर्ष भी कम हैं। वे लिखते हैं कि- शुरुआत में मंटो को दंगों, फिरकावाराना वारदातों और वेश्याओं पर कहानियाँ लिखने वाला सामान्य-सा साहित्यकार माना जाता था, लेकिन मंटो की कहानियाँ अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयाँ छोड़ जाती हैं। उनकी सपाटबयानी वाली कहानियाँ फ़िक्र के आसमान को छू लेती हैं।
मंटो ने अपने 19 साल के साहित्यिक जीवन में लगभग 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द-चित्र और 70 लेखों की रचना की। अपने छोटे-से साहित्यिक जीवन में उर्दू और हिंदी साहित्य को नई दिशा देने और कालजयी रचनाओं के जरिए समाज की कड़वी हकीकत से रू-ब-रू कराने वाला यह अफ़सानानिगार तमाम जिल्लतें, अनेक ताने-उलाहने, ढेरों मुसीबतें और अभाव से भरी हुई जिंदगी को अपने बेबाक-बिंदास अंदाज में जीते हुए 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में हमें अलविदा कह गया।   

 डॉ. राहुल मिश्र
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह से दिनांक 11 अगस्त, 2014 को प्रातः 0830 बजे प्रसारित)





Friday 18 April 2014

निराले हीरे की खोज

निराले हीरे की खोज
महान घुमक्कड़ स्वामी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन को एक पुरातत्त्ववेत्ता, चिंतक-विचारक एवं उपन्यासकार-कथाकार के रूप में जाना जाता है। यह सत्य है कि उन्होंने रूस, जापान, चीन, तिब्बत आदि देशों की यात्राएँ कीं और उन यात्राओं के माध्यम से प्राप्त किए हुए ज्ञान ने उन्हें ज्ञान की इन तमाम विधाओं का महारथी बना दिया। उन्होंने अपनी यात्राओं का बड़ा रोचक वर्णन करके यात्रा-वृत्तांत और यात्रा-साहित्य की विधा को भी साहित्य-जगत् में स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। ये यात्राएँ प्रायः मैदानी और पठारी-पहाड़ी इलाकों की हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि उन्होंने समुद्री यात्राओं के रोमांच और रहस्य को भी अपने यात्रा-वृत्तांत में शामिल किया है।
समुद्र और समुद्री यात्राएँ आदिकाल से ही मानव के लिए रहस्य और रोमांच का हिस्सा रहीं हैं। राहुल सांकृत्यायन जैसा बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्तित्व इस रोमांच से अछूता रह जाए, यह संभव नहीं था। इसी कारण उन्होंने अपनी पुस्तक निराले हीरे की खोज में समुद्र को, समुद्र के रोमांच को इतनी बारीकी से उतारा है कि हकीकत और कल्पना के बीच अंतर करना ही कठिन हो जाता है।
राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक निराले हीरे की खोज में बीस उपशीर्षक हैं, जिनमें समुद्र की यात्राओं से जुड़ी बीस अलग-अलग घटनाएँ हैं, बीस अलग-अलग बाधाएँ हैं, जिन्हें पार करते हुए निराले हीरे की खोज पूरी हो जाती है। पुस्तक का पहला उपशीर्षक ही ‘समुद्र का उपद्रव’ है, जो समुद्र में उठने वाली भीषण समुद्री हवाओं के कारण यात्रा की शुरुआत को ही संकटग्रस्त कर देता है, किंतु समुद्री यात्री हरिकृष्ण, मोहन और विक्रम उससे बच निकलते हैं। इसी तरह यात्रा आगे चलती रहती है। यात्रा के अलग-अलग पड़ावों के रूप में किताब में बने उपशीर्षक भी बड़े मजेदार और आकर्षक हैं— जैसे रेतीली खाड़ी में दो स्टीमर, महागर्त का तल, बंगले वाला आदमी, कप्तान का संदेश, भयंकर बुलबुला, मुर्दों की गुफा, मोहनस्वरूप का भूत, शैतान की आँख, पुष्पक का अंत और जल-भित्तिका आदि।
ये उपशीर्षक भी अपने अंदर छिपे रहस्य-रोमांच में पाठकों को खींच लेते हैं। इन्हीं में बँधकर अद्भुत समुद्री यात्रा का आनंद प्राप्त होता है। इसके साथ ही आपसी सूझ-बूझ, समझदारी, तुरंत निर्णय लेने की शक्ति, समन्वय और एक साथ कार्य करने की भावना जैसी नसीहतें सहजता से ही सीखने को मिल जाती हैं। राहुल सांकृत्यायन की दूरदर्शिता भी समुद्री यात्रा में प्रकट होती है। उन्होने समुद्र के जीवन के हर-एक पक्ष को इस तरह से और बड़ी बारीकी के साथ उतारा है, जैसे वे समुद्री यात्राओं के विशेषज्ञ हैं। कहीं पर भी कोई कमी छूट गई हो, ऐसा भी प्रतीत नहीं होता।
निराले हीरे की खोज में चलने वाली समुद्री यात्रा का आखिरी पड़ाव ‘आँख के जानकार’ के रूप में आता है। इसी पड़ाव में ब्राजील की राजधानी रियो-दी-जेनेरो में पहुँचकर समुद्री यात्रियों हरिकृष्ण, मोहनस्वरूप और उनके साथियों को वह निराला हीरा देखने को मिलता है। वह निराला हीरा विश्व के तमाम प्रसिद्ध हीरों से अलग किस्म का है। संसार के कई बड़े हीरों से भी बड़ा हीरा खोज लिया जाता है। यह हीरा कोहिनूर हीरे से और मुगले आजम हीरे से भी ज्यादा वजनी है, इसका वजन 300 कैरेट है।
इस प्रकार निराले हीरे की खोज पूरी हो जाती है। यदि विश्व साहित्य पर एक नजर डालें तो लगभग हर भाषा के साहित्य में ऐसी रोमांचक यात्राएँ, खोजपूर्ण यात्राएँ मिल जाएँगी। किंतु उनमें से कुछ ही ऐसी यात्राओं को हम पढ़कर अपनी याददाश्त में जिंदा रख पाते हैं, जो वास्तव में रोचक होने के साथ ही तथ्यपूर्ण और विशेष रूप से गुँथी हुई होती हैं। ऐसी ही एक यात्रा ‘गुलिवर इन लिलिपुट’ को सभी जानते होंगे। अगर ‘गुलिवर इन लिलिपुट’ की तुलना राहुल सांकृत्यायन के निराले हीरे की खोज से की जाए तो इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि हिंदी में लिखी हुई यह बहुत महत्त्वपूर्ण, रोचक, ज्ञानवर्धक और साहसिक यात्रा-कथा है। 




डॉ. राहुल मिश्र 

Monday 14 April 2014

आल्हा : बुंदेलखंड की अनूठी पहचान
ढोलक की थाप का साथ देती मंजीरे की धुन के साथ गाया जाने वाला वीरगीतात्मक काव्य आल्हा बुंदेलखंड की अनूठी तहजीब का बेमिसाल नगीना है। आल्हा में यूँ तो महोबा के दो वीरों की कथा है, किंतु आल्हा के गायन की अपनी विशिष्ट शैली के कारण यह दूर-दूर तक प्रसिद्धि पाया है।
लौकिक रास परंपरा की आदिकालीन रचना जगनिक कृत परमाल रासो के आधार पर प्रचलित आल्हा गीतों की उत्पत्ति की कथा जितनी रोचक है, उतना ही मर्मस्पर्शी है, इनका विकास और विस्तार भी। गौरवशाली अतीत से परिचित कराने के साथ ही समाज को एक सूत्र में बाँध सकने की क्षमता आल्हा गीतों में है।
जगनिक कृत परमाल रासो की प्राचीन पांडुलिपि अप्राप्य है और इस कारण यह माना जाता है कि जगनिक की यह रचना प्रायः लोक-कंठों में जीवित रही। सन् 1865 के आसपास एक अंग्रेज कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने आल्हा गवैयों की सहायता से वाचिक परंपरा में जीवित आल्हा को लिपिबद्ध    कराया। ऐसा ही प्रयास विसेंट स्मिथ ने किया। बाद में सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के संपादन में सन् 1923 में डब्ल्यू. वाटरफील्ड द्वारा हिंदी से अंग्रेजी में आल्हा का अनूदित संस्करण ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपा। लोकमहाकाव्य आल्हा को लिपिबद्ध करके संरक्षित और संकलित करने का यह संभवतः पहला प्रयास था। इसके बाद आल्हा के कई संस्करण अलग-अलग छापाखानों में छपे। आज भी गँवई-गाँव के मेलों में आल्हा की किताबें बिकती हुई देखी जा सकती हैं।
बनावट के लिहाज से इसमें बावन खंड हैं। संयोगिता स्वयंवर, परमाल का ब्याह, महोबा की लड़ाई, गढ़ मांडो की लड़ाई, नैनागढ़ की लड़ाई, बिदा की लड़ाई, मछलाहरण, मलखान का ब्याह, गंगाघाट की लड़ाई, ब्रह्मा का ब्याह, नरवरगढ़ की लड़ाई, ऊदल की कैद, चंद्रावल की चौथी लड़ाई, चंद्रावल की विदा, इंदलहरण, संगलदीप की लड़ाई, आल्हा की निकासी, लाखन का ब्याह, गाँजर की लड़ाई, पट्टी की लड़ाई, कोट-कामरू की लड़ाई, बंगाले की लड़ाई, अटक की लड़ाई, जिंसी की लड़ाई, रूसनी की लड़ाई, पटना की लड़ाई, अंबरगढ़ की लड़ाई, सुंदरगढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की दूसरी लड़ाई, भुजरियों की लड़ाई, ब्रह्मा की जीत, बौना चोर का ब्याह, धौलागढ़ की लड़ाई, गढ़चक्कर की लड़ाई, देवा का ब्याह, माहिल का ब्याह, सामरगढ़ की लड़ाई, मनोकामना तीरथ की लड़ाई, सुरजावती हरण, जागन का ब्याह, शंकरगढ़ की लड़ाई, आल्हा का मनौआ, बेतवा की लड़ाई, लाखन और पृथ्वीराज की लड़ाई, ऊदल हरण, बेला को गौना, बेला के गौना की लड़ाई, बेला और ताहर की लड़ाई, चंदनबाग की लड़ाई, जैतखंभ की लड़ाई और बेला सती। आल्हा के ये बावन खंड आल्हा गायकों को समग्रतः याद नहीं रहते। वैसे भी अब अल्हैतों की परंपरा सिमटती जा रही है। अब आल्हा के कुछ प्रचलित खंड ही प्रायः गाए जाते हैं।
बनावट की दृष्टि से देखा जाए तो आल्हा में लगभग सत्रह प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है। इसमें कहीं-कहीं संस्कृत के श्लोक हैं तो कहीं पर गद्य का प्रयोग भी हुआ है। वीर रस की प्रधानता होने के कारण इसका गायन भी ओजपूर्ण होता है। हर घटना और युद्ध या वीरता के बखान के लिये सुर और ताल के विशिष्ट उतार-चढ़ाव और अनूठी शैली श्रोताओं को न केवल मंत्रमुग्ध कर देती है, वरन् कथा का सटीक और जीवंत चित्रण भी कर देती है।
लोकमहाकाव्य आल्हा में आल्हा को ही नायकत्व का दर्जा प्राप्त है, क्योंकि वह दूसरे खंड से लेकर बावनवें खंड तक मुख्य भूमिका अदा करता है। वह वीरता, गंभीरता, धैर्य और साहस जैसे उदात्त गुणों का स्वामी है। राजा परमाल का व्यक्तित्व उनकी पदवी से मेल नहीं खाता है। वे राजा होने के बावजूद कायरता, स्वार्थ और भीरुता का प्रदर्शन करते हैं। परमाल की पत्नी मल्हना या मलना, आल्हा-ऊदल की माँ दिवला, मछला और बेला जैसे नारी पात्र भी हैं, जो मध्ययुगीन भारतीय महिलाओं का आदर्श प्रस्तुत करती हैं और वीरांगनाएँ भी हैं। आल्हा, ऊदल, मलखान और इंदल के चरित्र को विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिनके प्रश्रय में कथा का विस्तार होता है।
धर्म, अध्यात्म और संस्कृति का समन्वय आल्हा में स्पष्ट परिलक्षित होता है। आल्हा के गायन की शुरुआत में की जाने वाली स्तुति विभिन्न मत-मतांतरों के मध्य समन्वय स्थापित करती प्रतीत होती है—
सुमिर भवानी दाहिने, सनमुख रहे गनेस ।
पाँच देव रक्षा करें, ब्रह्म, विष्णु, महेस।।  
काली सुमिरौं कलकत्ते की, जगदंबा के चरन मनाय।
अन्नपूर्णा तिरवा वाली, जगमग जोत रही  छहराय।
सुमिर भवानी कलपी वाली, मनिया सुमिर महोबे क्यार।।
स्थानीय देव-देवियों की उपस्थिति आल्हा की लोकग्राह्यता की प्रतीक बन जाती है। यह लोकग्राह्यता वर्ण और जातियों के समन्वय और विभेद को मिटा देने के कारण भी है।
सगुन विचारै बनिया बाटू, बाम्हन लेय साइत विचार,
हम क्षत्रिय लोहा लादे हैं, सो हम बेचें  कौन  बजार।
नाई-बारी हो तुम नाहीं, घर के भइया  लगौ  हमार।
मान महोबै को रख लेबौ, दोनों हाथ  करौ तलवार।।
इसके साथ ही आल्हा में नीति व ज्ञान की बातें भी वर्णित हैं। यथा—
पानी जैसो बुलबुला है जो छन माँहीं जैहे  बिलाय,
सदा तुरैया ना वन फूलै यारों सदा न सावन होय।
सदा न मइया की कुक्षा में धरिहौ बार-बार अवतार,
जस अम्मर कर लेव जुद्ध में, काया छार-छार हुइ जाय।।
ऐसी ज्ञान व नीति की बातें भले ही कथा-विस्तार में महत्त्वपूर्ण स्थान न रखती हों, किंतु नीति व ज्ञान की अनूठी-अनौपचारिक पाठशाला के रूप में समाज के बड़े तबके को व्यावहारिकता सिखाने में बहुत खास भूमिका अदा करती है।
मनोरंजन और समय व्यतीत करने के साधन के रूप में आल्हा का गायन शिक्षाप्रद भी हो जाता था। इसमें अंतर्निहित ढेरों कथाएँ, गल्प और आख्यान प्रकीर्ण साहित्य की महत्त्वपूर्ण धरोहर हैं।
मध्ययुगीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थितियों के चित्र भी आल्हा में उभरते हैं। सिद्ध और नाथ पंथियों का प्रभाव, जादू-टोने, ज्योतिष, तंत्र और स्वप्न-अपशकुन, पुनर्जन्म तथा भूत-प्रेत आदि की उपस्थिति आल्हा को समग्रता प्रदान करती है। यही सब इसकी व्यापकता और स्वीकार्यता के केंद्र में है।
समूचे उत्तर भारत में, बुंदेलखंड, ब्रज, राजस्थान, बैसवारा, अवध और भोजपुर में विभिन्नताओं के साथ आल्हा गायन की, अल्हैती की व्यापक परंपरा प्रचलन में रही है। बरसात के समय, किसानों- मजदूरों के फुर्सत के समय गाँवों की चौपालों, अथाई और बैठकों में होने वाली अल्हैती सभी को एक सूत्र में जोड़ देती थी। आल्हा के तालन सैयद का चरित्र सांप्रदायिक एकता और सौहार्द का प्रतीक है—
राम का मित्तर जामवंत था और पांडों का कृष्ण अवतार,
आल्हा का ताला सैय्यद है, काम करे जो  सोच बिचार।
सैकड़ों वर्षों तक अपने वाचिक माध्यम से लोकमहाकाव्य आल्हा जनपदों, गाँवों और कस्बों में राष्ट्रीयता की अलख जगाने, नीति-विज्ञान सिखाने और मनोरंजन करने का माध्यम बना रहा। इसकी लोकप्रियता तुलसी के मानस के समकक्ष बैठती है। बिना पुस्तकाकार पाए, लोकजीवन में, लोक-कंठों में जीवित और निरंतर जीवंत रहने वाली यह विधा, यह काव्य आज देश के विकास के व्युत्क्रमानुपाती होकर मिट रहा है।

टेलीविज़न, इंटरनेट और अन्य संचार साधनों ने बहुत कुछ बदल दिया है। आज अल्हैते नहीं मिलते, गाँवों में अथाई नहीं लगती, बरसात में भी, आल्हा नहीं सुनाई पड़ता। यह संकट हमारी पहचान का है, हमारे अतीत के गौरव के क्षरण का है, हमारी संपदा के विनाश का है। इसे बचाने, संरक्षित और संवर्द्धित करने का दायित्व आज की पीढ़ी पर है, वरना आने वाली पीढ़ी के लिये आल्हा काव्य ही नहीं, शब्द भी अपरिचित रह जाएगा।
डॉ. राहुल मिश्र
{बुन्देली दरसन, अंक- 3, 2010, नगरपालिका परिषद्, हटा, दमोह (मध्य प्रदेश) में प्रकाशित}