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Saturday 19 March 2022

पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

 


पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

पूर्वोत्तर भारत, भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश। किसी समय इस समग्र प्रदेश को ‘नेफा’, यानि ‘नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ के नाम से जाना जाता था। ईशान्य ही ‘नार्थ-ईस्ट’ है। भारतीय वाङ्मय के अंतर्गत आने वाले शिल्पशास्त्र में वास्तुशिल्प का अपना विशिष्ट स्थान है और इसे विधिवत् शास्त्र की संज्ञा दी जाती है। वास्तुशिल्पशास्त्र में ईशान्य का विशेष महत्त्व बताया गया है। ईशान, अर्थात् हरमहेश्वर रुद्र और प्रकृति के आदिपुरुष शिव से भी इस दिशा को पहचान सकते हैं। वास्तुपुरुष मंडल में उत्तर-पूर्व की दिशा मस्तक की होती है। यह ग्रहाधिपति सूर्य की दिशा होने के कारण सर्वाधिक ऊर्जावान होती है। इस कारण प्रवेश-द्वार, द्वारमंडप और ध्यान-पूजा इत्यादि के लिए इस दिशा को सर्वथा उपयुक्त बताया गया है। भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश, या पूर्वोत्तर प्रदेश इसी दृष्टि से अत्यंत समृद्ध, प्राचीन और विशिष्ट है। इसी कारण भक्ति के भावों की व्याप्ति पूर्वोत्तर के कण-कण में है। इसी कारण पूर्वोत्तर के जीवन में भक्ति के भाव रचे-बसे हुए हैं।

भक्ति-साहित्य, स्वंय में एक रूढ़ शब्द है, जो काल-विशेष में रची गई भक्तिपरक रचनाओं का द्योतक है। मध्यकाल के पूर्वार्ध में, सन् 1350 से 1650 ई. के आसपास दक्षिण भारत के भक्तकवियों की रचनाओं के उत्तर भारत में आते प्रभावों के फलस्वरूप उत्तरभारत के भक्तकवियों द्वारा रची गई भक्तिपरक रचनाएँ ही सामान्यतः भक्ति-साहित्य की श्रेणी में रखी जाती हैं। इसी कारण भक्तिकाल और भक्ति-साहित्य एक विशेष कालखंड और उस कालखंड में रची गई रचनाओं के लिए रूढ़ हैं। इस दृष्टि से अगर देखें, तो पूर्वोत्तर भारत के भक्ति-साहित्य के अनुशीलन हेतु एक सीमारेखा बनी हुई प्रतीत होने लगती है, जो स्वयं में संकुचित और अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों-विषयों को अपनी परिधि से बाहर छोड़ देती हुई दिखाई पड़ती है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य को इस सीमारेखा में बाँधकर जानना-परखना इसी कारण उचित नहीं होगा।

इस निश्चित सीमा से अलग हटकर यदि भक्ति के भाव से ओतप्रोत साहित्य को देखें, तो सृष्टि के आदिम काल से ही भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य दिखाई पड़ने लगता है, जिसमें श्रद्धा और प्रेम का सम्मिश्रण मानवीय अभिव्यक्तियों में मुखर होता है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को इसी दृष्टि से यहाँ बताने का प्रयास किया गया है। पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृति अपने स्वरूप और अपने परिचालन में इतनी प्राचीन है, कि उसमें श्रद्धा और प्रेम के भाव, जिन्हें सम्मिलित रूप में भक्ति कह सकते हैं, सृष्टि की दृश्य-अदृश्य शक्तियों के प्रति प्रकट होते रहे हैं। इसका प्रथम दर्शन पूर्वोत्तर के शिष्ट या लिखित साहित्य से कहीं आगे प्रकीर्ण साहित्य में होता है; लोकगीतों, किस्सों-कथाओं, लोकनृत्यों आदि में होता है।

अविभाजित पूर्वोत्तर, अर्थात् भाषायी-जातीय-क्षेत्रीय पहचान के आधार पर आठ अलग राज्यों में बँटे पूर्वोत्तर का प्राचीन स्वरूप ऐसा रहा है, जहाँ जनजातीय समूहों के बीच प्रकृति की पूजा का क्रम अलग-अलग विधि-विधानों के साथ एकसमान रूप से चलता रहा है। यही एक तत्त्व विभिन्न भाषायी-जनजातीय विभेदों को किनारे रखकर समूचे पूर्वोत्तर को एक सूत्र में बाँधे रहा है। प्रकृति की पूजा में भी प्रकृति के आदि पुरुष और प्रकृति की आदिशक्ति, अर्थात् शिव और शक्ति की पूजा होती रही है। असम के बोडो जनजातीय समूह में दिवा और दिवि को आद्य देवी-देवता की मान्यता प्राप्त है। ये शिव और पार्वती के प्रतीक हैं। इसी प्रकार देउरी जनजातीय समूह में गिरा और गिराची की पूजा होती है। लालुंग समूह फा महादेव को अपना आदिदेव मानते हैं और स्वयं को उनका ही वंशज मानते हैं। तिवा (लालुंग) आदिवासियों द्वारा पूजा हेतु स्थापित किया जाने वाला त्रिपद, त्रिनेत्रधारी शिव का ही प्रतीक होता है। पूर्वोत्तर भारत के लगभग सभी जनजातीय समूहों में शिव के अनेक रूप प्रचलित हैं। शिव को शक्ति के साथ ही पूर्णता मिलती है। ये शिव किसी मंदिर में विराजने वाले नहीं हैं, अलौकिक सिंगार करने वाले भी नहीं हैं। आदिम-आदिवासी जीवन में रचे-बसे हुए हैं। इसी कारण पूर्वोत्तर के अनेक लोकगीतों- लोककथाओं में वे पूरी तरह से देशी रूप में, भंग-धतूरे के सेवनकर्ता और फक्कड़ दिखाई देते हैं। शिव का यह स्वरूप आदिवासी जीवन के अत्यंत निकट होने के कारण ही सहजता के साथ जन-स्वीकार्य हो जाता है। शिव का पशुपति रूप भी यहाँ बहुत प्रचलित है। नंदी की उपस्थिति गौवंश के प्रति जनजातीय आस्था को पुष्ट करती है। अनेक रीति-रिवाजों में गौपूजन अनिवार्य होता है।

असम का बिहू पूर्वोत्तर भारत की पहचान से जुड़ा हुआ पर्व है। यह भी गौपूजन के बिना संपन्न नहीं होता है। वस्तुतः यह पर्व प्रकृति के विभिन्न उपादानों के प्रति आस्था और श्रद्धा का पर्व है। बहाग (वैशाख), काति (कार्तिक) और माघ बिहू के तीन बड़े आयोजनों के साथ ही पूर्वोत्तर के अलग-अलग क्षेत्रों में बिहू के कुछ अन्य स्थनीय संस्करण भी होते हैं। बिहू पर्व की इतनी विविधता और पर्व में कृषि के साथ जुड़े उत्सवों की प्रधानता बिहू के प्रकृतिपूजक स्वभाव को व्याख्यायित करती है। जब प्रकृति वसंत के विभिन्न रंगों से रंग जाती है, तब बहाग बिहू अपने स्थानीय नाम, अर्थात् रंगाली बिहू के रूप में मनाया जाता है। काति बिहू का दूसरा नाम कंगाली बिहू भी है, जो कि कार्तिक के समय किसानों के खाली अन्न-भांडारों या कंगाली को प्रकट करता है। रिक्तता का अपना उत्सव है। तुलसी चौरे की पूजा के साथ ही खेतों में दीपक जलाकर अच्छी फसल की कामना करते हुए कंगाली बिहू अनाज के कोठारों को खूब भर देने की कामना के साथ मनाया जाता है। माघ बिहू को भोगाली बिहू भी कहते हैं, जिसमें धन-धान्य से परिपूर्ण भोग-आनंद का उत्सव होता है। फसल की कटाई के साथ कृषि-प्रधान जीवन में उमंग और उल्लास भर जाता है, जो इस पर्व में प्रकट होता है। सोलुंग, सोरी, दारांग, माहोहो, आओलिं मोन्यु, चांग नागा समुदाय का ‘नाक्नयुलेम’ पर्व, लेपचा समुदाय का ‘तेंदोंग-ल्हो-रम-फत’ और मिजो समुदाय का ‘न्हुआई-पुई’ आदि पर्व-अनुष्ठान अलग-अलग तरीकों से प्रकृति पूजा के साथ जुड़े हुए हैं। इन पर्वों-अनुष्ठानों में लोकगीतों, लोककथाओं और लोकनृत्यों का विशेष स्थान होता है। इनके माध्यम से आदिवासी समूह प्रकृति के प्रति अपनी श्रद्धा और अपने प्रेम को प्रकट करते आए हैं। प्रकृति-पूजा के साथ ही इन पर्वों-अनुष्ठानों में आदिवासी समुदायों के आदिपुरुषों, वीर योद्धाओं के जीवन-चरित और उनकी कथाएँ भी जुड़ती चली गईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश में ‘आबो-तानी’ के नाम से ऐसे शक्तिशाली पुरुष को पूजा जाता है, जो लोगों को प्राकृतिक आपदाओं और संकटों से बचाने वाला है। इसी कारण वे ‘आबो-तानी’ को अपना जन्मदाता मानते हैं। ‘आबो-तानी’ की छः संताने हैं, जो अलग-अलग जनजातीय पहचान बना चुकी हैं। इनको तानी वर्ग का जनजातीय समूह कहा जाता है। यह समूह मानता है, कि दोइनि-पोल्लो (सूर्य-चंद्र) आकाश में विराजते हैं और दुनिया के सारे कर्मों-कुकर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। ये अच्छे लोगों का मार्गदर्शन भी करते हैं और बुरे लोगों को दंड भी देते हैं। सूर्य और चंद्रमा की पूजा प्रकृति से जुड़ी हुई है। नदी, तारे, झरने, वन आदि की पूजा पूर्वोत्तर के प्रकृतिपूजक समाज की आस्थाओं को व्याख्यायित करती है।

मणिपुर का मैतेयी जनजातीय समूह ‘सने-मही’ की पूजा करता है। ‘सने-मही’ मुख्य रूप से प्रकृति के देवता हैं। इनके प्रति समूचे पूर्वोत्तर में आस्था देखी जा सकती है। ‘सने-मही’ मत का मैतेयी में लिखा आदिग्रंथ है- पूया। यह वस्तुतः ‘पू’ और ‘याथङ्’ से बना है, जिसका अर्थ है- पूर्वजों द्वारा दिये गए निर्देश। इस ग्रंथ में ‘लाइ-हाइ-लाओबा’, अर्थात् भगवान् के आनंद, के साथ ‘लाइ-हराओबा’ नामक पर्व को जोड़ा गया है। भगवान को आनंद प्रकृति के निर्माण और संचालन में आता है, अपनी सृष्टि को प्रसन्न देखने में आता है। इस कारण ‘लाइ-हराओबा’ सीधे-सीधे सृष्टि की उत्पत्ति की अवधारणा और प्रकृति की पूजा से जुड़ जाता है। यह पर्व अनेक नृत्यों, लोकगीतों और पर्वानुष्ठानों का समन्वित रूप है। इसमें उमंगलाई, अर्थात् वन के देवी-देवताओं की पूजा होती है। पोखरों-तालाबों की पूजा होती है। इसमें तीन सौ से अधिक ग्रामदेवी-देवताओं की पूजा होती है, पूर्वजों की पूजा होती है।

‘लाइ-हराओबा’ के इस दीर्घ नृत्य-नाट्यानुष्ठान में पूर्वोत्तर की उस वैचारिकता की झलक भी मिलती है, जो सृष्टि की उत्पत्ति और मानव के सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों के प्रति सजग रही है। यह धार्मिक नृत्य-नाट्यानुष्ठान इसी कारण प्रेमकथाओं की उपस्थिति के बाद भी विशुद्ध रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष को स्वयं में जीवंत रखता है। सृष्टि के निर्माण और संचालन में नर-नारी की उपस्थित, उनकी लौकिक-ऐहिक भाव-भंगिमाएँ असंयमित नहीं करती हैं; मन में विकृत भावों को, कामोत्तेजना को उत्पन्न नहीं करती हैं। यह समग्र अनुष्ठान पुस्तकीय ज्ञान से इतर सामाजिक-सांस्कृतिक शिक्षा का अद्भुत माध्यम बन जाता है।

‘लाइ-हराओबा’ के नृत्य-नाट्यानुष्ठान का एक महत्त्वपूर्ण अंश होता है- ‘खंबा-थोइबी’ नृत्य। यह भी नाट्य-नृत्य है। इसमें लोककथा भी समाहित है। ‘खंबा’ एक साधारण युवक है, और ‘थोइबी’ राजकुमारी है। मणिपुर का पुरातन नगर है- मोइरङ। यह मोइरङ वंश के 52 प्रतापी शासकों की राजधानी रहा है। ‘खंबा-थोइबी’ की उत्पत्ति भी इसी प्राचीनतम नगर में हुई है, ऐसी मान्यता ‘मोइरङ परब’ नामक मणिपुरी महाकाव्य में व्यक्त हुई है। खंबा-थोइबी 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के ऐसे नायक-नायिका हैं, जिन्होंने प्रेम की अनूठी परिभाषा को समाज के सामने रखा था। अनाथ खंबा की बहन खाममू ने मेहनत-मजदूरी करके, और भीख माँग-माँगकर खंबा को पाला था। थोइबी मोइरङ राजपरिवार की राजकुमारी थी। मोइरङ राजा और उनके भाई के बीच वह इकलौती संतान थी। खंबा और थोइबी के पवित्र प्रेम के बीच कोङ्ग्याङ्बा आ जाता है। वह मोइरङ राजपरिवार के विश्वस्त अधिकारी का बेटा है। तमाम कथा-प्रसंगों के बीच खंबा और थोइबी का प्रेम सफल हो जाता है, किंतु जरा-सी एक भूल होती है, और थोइबी के हाथों खंबा की हत्या हो जाती है। अंत में थोइबी भी आत्महत्या कर लेती है।

इस लोकनाट्य-नृत्य में नटराज की अनेक नृत्यमुद्राएँ आती हैं। इस कारण यह नृत्य-नाट्य शिव के तांडव और नटराज रूप से भी जुड़ जाता है। धूनी रमाने वाले, वन-प्रांतरों में निवास करने वाले शिव को ‘खंबा’ में, और राजा हिमांचल की पुत्री राजकुमारी पार्वती को ‘थोइबी’ में देखते हुए ‘खंबा-थोइबी’ नामक यह लोकनृत्य-नाट्य शिव-पार्वती की कथा से जुड़ जाता है। भले ही शिव और पार्वती के जीवन की कथा पूरी तरह से खंबा-थोइबी की कथा से मेल न खाती हो, फिर भी इस प्रेमकथा में शिव और पार्वती के आगमन से यह ऐसे प्रेमाख्यानक काव्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसे भक्तिकाल की प्रेममार्गी काव्यधारा के पूर्वोत्तरीय संस्करण के रूप में देख सकते हैं। शिव के साथ शक्ति के रौद्र और सौम्य रूप, यथा- कामाख्या और त्रिपुरसुंदरी पूर्वोत्तर में शाक्त-साधना के प्रतीक हैं।

पूर्वोत्तर की एक अन्य प्रमुख जनजाति है- मिकिर। यह स्वयं को ‘करबी’ भी कहती है। ‘करबी’ का स्थानीय बोली में अर्थ होता है- मनुष्य। ये स्वयं को ब्रह्मा से उत्पन्न मानते हैं। इस प्रकार ये देव से उत्पन्न मनुष्य हैं। इस समुदाय के द्वारा पूर्वजों के श्राद्धकर्म के समय लोकगीत गाया जाता है, जिसमें किसी महान पक्षी द्वारा अनेक अंडे दिये जाने का वर्णन मिलता है। मिकिरों या करबियों के अनुसार ये अंडे ब्रह्मा के दिये हुए थे, और इन अंडों में से ही मनुष्यों की अलग-अलग प्रजातियाँ उत्पन्न हुईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश के लोहित जनपद में परशुराम कुंड है। यह कुंड मिशिम प्रदेश के हृदय में स्थित है। अरुणाचल प्रदेश की जनजातीय व्यवस्था में मिश्मी जनजाति की बड़ी संख्या है। पुराने समय में ये परशुराम कुंड की व्यवस्था करने और यात्रियों से कर वसूलने का काम करते थे। मिश्मी लोग स्वयं को कुंडिनपुर के राजा भीष्मक के पुत्र रुक्मि का वंशज मानते हैं। रुक्मिणी के अनुरोध पर श्रीकृष्ण ने शिशुपाल से रुक्मिणी के विवाह को रुकवाया था, और स्वयं विवाह किया था। इस पर रुक्मि और श्रीकृष्ण के मध्य भयंकर संघर्ष भी हुआ। कहा जाता है, कि रुक्मिणी के कहने पर श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का ऐसा प्रहार किया, कि रुक्मिणी के भाई रुक्मि का अजीब तरीके से केश-कर्तन हो गया। इस कारण आज भी मिश्मी समुदाय के लोग बहुत छोटे केश रखते हैं। इसी तरह हार से दुःखी मिश्मी समुदाय के लोग अपने कपाल पर ‘कॉपलि’ नामक चाँदी का पट्टा धारण करते हैं।

आज के नागालैंड का दीमापुर हिडिंबापुर से विकृत होकर बना है, ऐसा माना जाता है। नागालैंड का एक जनजातीय समूह स्वयं को अज्ञातवासी भीम की पत्नी हिडिम्बा का वंशज मानता है। दीमापुर में  स्थित हिडिम्बा के बाड़ा में चौसर खेल की बड़ी-बड़ी गोटियाँ जैसी प्रस्तर आकृतियाँ रखी हैं, जिनसे किसी जमाने में भीम और उनका पुत्र घटोत्कच चौसर खेला करते थे, ऐसी भी मान्यता है।

बृहत् असम, अर्थात् कामरूप अर्थात् प्राग्ज्योतिष का राजा शैलाधिपति भगदत्त अपने किरात सैनिकों, अर्थात् वर्तमान नागालैंड के मूल निवासियों को साथ लेकर कौरवों की तरफ से महाभारत के युद्ध में लड़ने के लिए गया था। कुरुवंशीय राजा ययाति के पुत्र द्रहु की 38वीं पीढ़ी के राजा त्रिपुर से त्रिपुरा को अपना यह नाम मिला था। महाभारत का गंधर्वलोक, अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा का नैहर और अर्जुन के पुत्र बभ्रुवाहन द्वारा संचालित राजवंश का जीवंत साक्ष्य आज का मणिपुर है।

पूर्वोत्तर की तीवा (लालुंग) जनजाति अपने को माता सीता का वंशज मानती है। इसी प्रकार करवी जनजाति स्वयं को बालि और सुग्रीव का वंशज मानती है। पूर्वोत्तर में रामकथा का आगमन वाल्मीकि की रामायण के साथ होता है। इसके अतिरिक्त बंगाल की कृत्तिवासी रामायण का प्रभाव पूर्वोत्तर में पड़ा। 14वीं-15वीं शताब्दी में माधव कंदली द्वारा रचित सप्तकांड रामायण पूर्वोत्तर के लिखित भक्तिसाहित्य का पहला ग्रंथ कहा जा सकता है। यह देववाणी के रूप में नहीं, बल्कि लौकिक कथा के रूप में है, इस कारण बृहत् असम के लोकजीवन और प्रकृति के अनेक चित्र इसमें दिखाई पड़ते हैं। असमीया रामायण में सीता की अग्निपरीक्षा के प्रसंग में राम और सीता का संवाद भी है। इसमें अग्निपरीक्षा के लिए कहने पर सीता बहुत क्रोधित होती हैं। अन्य रामकथाओं की तरह असमीया रामकथा की सीता अबला नहीं दिखती हैं। यह प्रसंग पर्वतीय महिलाओं की संघर्षशीलता और उनके साहस को प्रकट करता है।

तिवा जनजाति में ‘रामायने खरङ्’ नाम से रामकथा का मौखिक रूप प्रचलित रहा है। इसमें वाल्मीकि रामयण के विभिन्न कथा-प्रसंग अलग-अलग लोकगीतों के रूप में आते हैं। ‘लिकछा लामाङ्’ खामति जनजाति की रामकथा है। इसमें बौद्ध प्रभाव है, और जातक कथाओं के प्रसंग भी इसमें आते हैं। करवी समुदाय में ‘छाबिन-आलुन्’ नामक लोकगीत गाए जाते हैं। ये लोकगीत रामकथा के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित होते हैं। चूँकि ये लिखित रूप में नहीं थे, इस कारण अलग-अलग गीत-खंडों में अलग-अलग कथाएँ होती हैं। ‘छाबिन-आलुन्’ का संकलित रूप ही करवी रामायण कहलाता है। इसमें करवी समुदाय का जीवन, उनका रहन-सहन और उनकी सांस्कृतिक विशिष्टताएँ समग्र रूप में समाहित हो गईं हैं। उदाहरण के रूप में, करवी रामायण के राम और लक्ष्मण परंपरागत झूम खेती करते हैं। राजा जनक भी झूम खेती करते हैं। सीता अपने पिता के लिए कलेवा लेकर, साथ ही धान से बनी देशी मदिरा लेकर खेत में जाती है। एक बार सीता अपने घर में साफ-सफाई करते समय भारी-से लोहे के धनुष को उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख देती हैं, और तब जनक यह तय करते हैं कि वे अपनी बेटी का विवाह ऐसे वीर युवक से करेंगे, जो इस धनुष को तोड़ देगा। तिवा, खामति और करवी रामकथाओं के लोक-संस्करणों की तरह अन्य जनजातीय समूहों में रामकथाएँ प्रचलित हैं। इन सभी में एक समानता है, कि इनमें जनजातीय-पर्वतीय जीवन इस तरह से घुला-मिला है, कि रामकथा और राम इन्हीं जनजातीय समूहों के अपने होकर रह गए हैं।

ये पूर्वोत्तर के जनजातीय समाजों के श्रद्धा और प्रेम के भाव ही कहे जाएँगे; जिन्होंने राम, कृष्ण, ब्रह्मा, शिव और शक्ति को अपने में ढाल लिया और उन्हें पूरी तरह से अपना बना लिया। भक्ति का यह ऐसा उदात्त और विलक्षण स्वरूप है, जिसे अन्यत्र खोज पाना जटिल और दुर्लभ है। श्रद्धा और प्रेम के भावों से भक्ति की निर्मिति को शाण्डिल्य और नारद ऋषियों ने बताया है। इसी प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी व्याख्यायित किया है। श्रद्धा और प्रेम के समन्वित भावों से निर्मित भक्ति और इस भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य पूर्वोत्तर की अपनी विशेष पहचान गढ़ता है। अतीत से वर्तमान तक समग्र पूर्वोत्तरीय भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार इसी भावभूमि पर हुआ है।

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक जनजातीय समुदायों का यह विशाल लोकसाहित्य, या कहें भक्तिसाहित्य लोककंठों में ही जीवित रहा। बाद में इसके लिखित संस्करण भी जागरूक साहित्यसेवियों द्वारा तैयार किये गए। सन् 1993 में रूपसिंह देउरी ने ‘रामायने खराङ्’ का असमीया लिपि में मुद्रित संस्करण तैयार किया। इसी प्रकार डॉ. देवेनचंद्र दास ने ‘छाबिन आलुन्’ को देवनागरी में लिपिबद्ध करके सन् 2000 ई. में प्रकाशित कराया। ऐसे अनेक प्रयास पूर्वोत्तर में हुए हैं, और इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है।

समग्रतः; प्रकृति-पूजा, प्रकृति पुरुष शिव और शक्ति से क्रमशः महाभारत-रामकथा के कथा-प्रसंगों ने पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को निर्मित किया। यह आधार मुख्यतः लोकजीवन, लोकसंस्कृति और लोकपरंपराओं-लोककलाओं का है। इसी कारण पौराणिक कथा-प्रसंग लोकसंस्करण में विकसित हुए, विस्तृत हुए। पूर्वोत्तर की यह ऐसी विशिष्टता है, जिसने युगों-युगों तक यहाँ के आस्थावान जनजातीय समूहों को एक सूत्र में बाँधे रखा। भले ही वैचारिक संक्रमणों, उन्माद और बर्बरता की स्थितियों ने, जातीय-क्षेत्रीय-भाषायी अस्मिता के संघर्षों और धार्मिक असंतुलनों ने पूर्वोत्तर की अपनी पुरानी पहचान को, जड़ों को गहराई में दबा दिया हो, मगर इस एक्य के सूत्र को, समन्वय को भक्ति साहित्य के लोकसंस्करणों के माध्यम से पुनर्जीवन दिया जा सकता है।

भक्ति-साहित्य का यह लोक-संस्करण भले ही शिष्ट साहित्य की परिधि से बाहर हो, किंतु इसी के रस-संचय से कालांतर में वैष्णव भक्ति (जात्रा, नामघर आदि) तक भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार पूर्वोत्तर में हुआ है। भक्ति-साहित्य के समग्र स्वरूप को पूर्वोत्तर के संदर्भ में माधवदेव द्वारा रचित निम्न पंक्तियों के आलोक में देखा जा सकता है-

धन्य-धन्य कलिकाल / धन्य नरतनु भाल / धन्य-धन्य भारतबरिषे (बरगीत / माधवदेव)

संदर्भ ग्रंथ-

1. भारत की लोकसंस्कृति, सं. हेमंत कुकरेती, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018,

2. भारतीय साहित्य की पहचान, सं. डॉ. सियाराम तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2015,

3. पूर्वोत्तर भारत का जनजातीय साहित्य, सं. डॉ. अनुशब्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2017,

4. कृतिरूप संघ दर्शन, संकलन व संपादन- हो. वे. शेषाद्रि, सुरुचि प्रकाशन, नयी दिल्ली, अष्टम सं. 2015,

5. असम : लोक-संस्कृति और साहित्य, जोगेश दास, हिंदी अनुवाद कृष्ण गोपाल अग्रवाल, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली, सं. 1976

6. मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में, डॉ. देवराज, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2006 ।

{पूर्वोत्तर भारत का भक्ति साहित्य (पुस्तक), संपादक डॉ. मंदाकिनी शर्मा, प्रकाशक- अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली में प्रकाशित}

-डॉ. राहुल मिश्र


Saturday 19 April 2014

प्रकृति और प्रगति की मार झेलते चङ्पा घुमंतू


प्रकृति और प्रगति की मार झेलते चङ्पा घुमंतू
मनाली से लेह का सफ़र तय करते वक्त 5260 मीटर ऊँचे तङलङ ला दर्रे के पहले पङ गाँव पड़ता है। इस गाँव के आगे तङलङ ला की तराई के गाँवों के पास गाड़ियों को देखते ही वहाँ के निवासी गाड़ियों की ओर दौड़ पड़ते हैं और यात्रियों से पानी माँगते हैं। कुछ लोगों ने रास्ते के किनारे तारकोल के खाली ड्रम रख दिए हैं। मनाली-लेह राजमार्ग से अकसर आने-जाने वाले लोग अपने साथ ज्यादा मात्रा में पानी लाते हैं और इन ड्रमों में डाल देते हैं। लगभग पंद्रह-बीस वर्ष पहले मनाली-लेह राजमार्ग से यात्रा करने वाले यात्रियों की याददाश्त में यह वाक़या जीवंत होगा। इन दिनों तङलङ ला की तराई वीरान ही नज़र आती है। इस वीरानी का कारण वहाँ के अधिकांश निवासियों का विस्थापन है।
लदाख अंचल मुख्य रूप से तीन भागों में बँटा है- नुब्रा, जङ्स्कर और चङ्थङ। चङ्थङ का शाब्दिक अर्थ ‘उत्तर का मैदान’ होता है। चङ्थङ का मैदान एक ओर चीन अधिकृत तिब्बत तक तथा दूसरी ओर हिमाचल प्रदेश तक फैला हुआ है। चङ्थङ के समद रोकछेन, खरनग और कोरजोक क्षेत्रों में रहने वाले घुमंतू आदिवासी चङ्पा कहलाते हैं। चङ्थङ के प्रत्येक क्षेत्र का विस्तार लगभग 100- 150 वर्ग किलोमीटर है।
तङ्लङ् ला के पश्चिम की ओर खरनग क्षेत्र है और दक्षिण-पूरब की ओर कोरजोद क्षेत्र है। यो दोनों क्षेत्र हरियाली और जल की उपलब्धता के संदर्भ में अपेक्षाकृत समृद्ध हैं। इस कारण इस क्षेत्र के चङ्पा घुमंतुओं को प्रकृति की मार अपेक्षाकृत कम ही सहनी पड़ती है।
तङ्लङ् ला के पूरब की ओर समद रोकछेन क्षेत्र में विस्तृत मैदान और ऊँचे-ऊँचे ग्लेशियर हैं। दूर-दूर तक फैले मैदानों में पानी का भीषण संकट है। यहाँ के लोगों को पानी के लिए बहुत ऊँचाई पर जाना पड़ता है, जो बहुत कष्टसाध्य होता है। इस कारण इस क्षेत्र के चङ्पा घुमंतू आदिवासी यात्रियों से पानी माँगकर अपना जीवन चलाने का प्रयास करते हैं।
समुद्र तल से लगभग तेरह हजार फुट की ऊँचाई पर विस्तृत  इस क्षेत्र में जनसंख्या घनत्व सबसे कम है। यहाँ लगातार हवाएँ चलती रहतीं हैं और वनस्पति के नाम पर केवल घास उगती है। घास के बड़े-बड़े मैदानों के कारण ये दुनिया सबसे ऊँचे चरागाहों में से एक है। भारत का सीमांत क्षेत्र होने के कारण यहाँ पर वर्ष-भर फौजी जमावड़ा भी रहता है। पर्यटन के लिए प्रसिद्ध पङ्गोङ झील, त्सोमोरीरी झील तथा पङमिग झील भी इसी क्षेत्र में है।
खरनक, कोरजोक और समद रोकछेन क्षेत्रों के चङ्पा आदिवासी अपने-अपने क्षेत्रों में पुरातन-परंपरागत जीवन-शैली का अनुसरण करते हुए पशुपालन करते आए हैं। ये एक स्थान पर रहने के बजाय चारा-पानी की तलाश में वर्ष-भर भटकते रहते हैं। चङ्पा आदिवासी याक, भेड़, बकरी और घोड़े पालते हैं। यहाँ पर लंबी और छोटी, दोनों प्रजातियों की भेड़ें पाई जातीं हैं। इनसे विश्वप्रसिद्ध एवं बेशकीमती पशमीना ऊन पाया जाता है। याक की खाल और ऊन का भी व्यावसायिक उपयोग होता है। चङ्पा घुमंतुओं का जीवन पशुओं पर निर्भर होता है। महिलाएँ मक्खन बनाने, उपले बनाने और दूध को सुखाकर छुरपे बनाने का काम करतीं हैं। घुमंतू जीवन जीते हुए चङ्पा आदिवासी ऊन, खाल, मक्खन, छुरपे आदि का संग्रह करके उन्हें निचले इलाके के खेतिहर ग्रामीणों को देकर बदले में गेहूँ, जौ, मटर, चना आदि लेते हैं। इनका सत्तू बनाकर सर्दियों में इस्तेमाल करते हैं। इस तरह समूचे चङ्थङ क्षेत्र के लोगों का जीवन घुमंतुओं और खेतिहर स्थाई निवासियों के अन्योन्याश्रित संबंधों पर आश्रित रहता है।
चङ्पा घुमंतुओं की पारिवारिक व्यवस्था मातृसत्तात्मक और बहुपति प्रथा पर चलती है। ये लोग किसी स्थान पर एक से दो माह ठहरते हैं। याक के मोटे ऊन से बने तंबुओं (डोक्सा) में पूरा परिवार एकसाथ रहता है और अपना जीवन बसर करता है। सर्दियों के लिए ये लोग भेड़ की खाल से बने कोट (लक्पा), जूते (पागू) और ऊन से बने मोजे, टोपी (तिबि) आदि का इस्तेमाल करते हैं। बीमारियों के इलाज के लिए ये लोग पारंपरिक चिकित्सा (अमची) और तांत्रिक पद्धति का सहारा लेते हैं।
कुछ विद्वानों का मानना है कि चङ्पा घुमंतू अपने जानवरों के लिए चारे की तलाश में तिब्बत से इस क्षेत्र में आए और यहीं बस गए। कुछ तिब्बती घुमंतू, जो बाद में इस क्षेत्र में आए, उन्हें खम्-बा कहा जाता है। ये लोग घुमंतू जीवन जीने का साथ ही खेती भी करते हैं। चङ्पा समुदाय खम्-बा और लदाख के अन्य मूल निवासियों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं करता है।
लोत्सर और तङ्ग्युक(घुड़दौड़) इनके प्रमुख पर्व हैं। लोत्सर नव वर्ष की शुरुआत का पर्व है, जिसमें प्रत्येक परिवार अपने घर में क्रमशः कार्यक्रम और प्रीतिभोज का आयोजन करता है, तथा सभी लोग मिलजुल कर उसमें सम्मिलित होते हैं। तङ्ग्युक में प्रत्येक परिवार का पुरुष सदस्य भाग लेता है। सजे-सजाए घोड़ों में घुडदौड़ होती है। परिवार की महिलाएँ प्रतिभागी पुरुषों को छङ (एक प्रकार की देशी शराब) पिलातीं हैं।
कुल मिलाकर चङ्पा घुमंतुओं का जीवन कष्टप्रद होने के बाद भी रोमांच से भरा हुआ होता है। बाहरी समाज पर आश्रित नहीं होने के कारण आधुनिकता की चकाचौंध का भी इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। सन् 1974 में जारी किए गए गजेटियर के मुताबिक चङ्पा घुमंतुओं के एक हजार परिवार इसी प्रकार अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।
स्वयं में खुश और खुशहाल रहने वाले चङ्पा घुमंतुओं का वर्तमान निराशाओं, संकटों और विभीषिकाओं से भरा हुआ है। खरनक गाँव के निवासी शेरिंग पलजेस बताते हैं कि लगभग 25 वर्ष पूर्व खरनक क्षेत्र में चङ्पा घुमंतुओं के 70-80 परिवार ही बचे थे। ये सभी ज़ारा, पङ्छेन, यारङ्, साङ्ता, लोक्मोछे आदि गाँवों में भ्रमण करते हुए पशुपालन करते थे। इन दिनों मात्र 20-25 परिवार ही खरनक क्षेत्र में बचे हैं, जो घुमंतू जीवन बिता रहे हैं। कमोबेश ऐसी ही स्थिति समद रोकछेन और कोरजोक की है। ये परिवार भी घुमंतू जीवन छोड़कर विस्थापित होना चाहते हैं। चङ्पा घुमंतू अपनी मातृभूमि से विस्थापित होकर लेह के निकट खरनकलिङ्, चोगलमसर में और लेह-मनाली राजमार्ग पर रोङ् गाँव के आसपास बस गए हैं।
 अपने विस्थापन के दर्द को टूटी-फूटी हिंदी में बयाँ करते हुए शेरिंग पलजेस बताते हैं कि सर्दी के मौसम में एक ओर तङ्लङ् ला और दूसरी ओर बारालाचा दर्रों के बर्फ से ढँक जाने और रास्ते बंद हो जाने के बाद लगभग 6 माह के लिए हमारा इलाक प्राकृतिक जेल में तब्दील हो जाता है। बर्फीली हवाओं से जानवरों को बचाना बहुत कठिन हो जाता है। उन दिनों भोदन और पानी की भी बहुत समस्या होती है। बर्फ को पिघलाकर पानी का बंदोबस्त करना पड़ता है। हर साल हजारों पशु बर्फीली हवाओं के कारण मरते हैं। निचले इलाके के खेतिहर लोगों के साथ वस्तु विनिमय की परंपरागत व्यवस्था भी समाप्त हो गई है, इस कारण गेहूँ, जौ, मटर आदि भी नहीं मिल पाते हैं।
शेरिंग पलजेस बताते हैं कि चङ्पा घुमंतुओं का जीवन पशुओं पर आश्रित होता है, इसलिए वे पशु हत्या के लिए अपने पशुओं को कसाइयों को नहीं बेचते, मगर परंपरागत व्यवस्था टूट जाने के कारण उन्हें ऐसा करने को मजबूर होना पड़ता है। वे बताते हैं कि इसी कारण उन्होंने घुमंतू जीवन त्यागकर विस्थापन को भले ही स्वीकार कर लिया हो, मगर मातृभूमि के प्रति लगाव उन्हें बार-बार कचोटता रहता है।
भारत ही नहीं, विश्व के पर्यटन मानचित्र पर लदाख की सशक्त उपस्थिति ने भी चङ्पा घुमंतुओं के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया है। लदाख के मुख्यालय लेह में अपना पर्यटन व्यवसाय चलाने वाले स्थानीय प्रतिनिधि देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों के सामने चङ्पा घुमंतुओं को प्रदर्शनी के तौर पर पेश करने से बाज नहीं आते हैं। इसका लाभ चङ्पा घुमंतुओं को तो नहीं मिलता, बशर्ते ‘टू नाइट थ्री डेज़ विद चङ्पा नोमैड्स’ जैसे ‘पैकेजेस’ के माध्यम से पर्यटन व्यवसायियों की जेबें जरूर भर जातीं हैं। रोङ्, खरनक, मरखा, जङ्स्कर, लाहुल-स्पीति ट्रेकिंग रूट भी चङ्पा घुमंतुओं के जीवन में अनाधिकृत दखल देते हैं।
इतना ही नहीं, चङ्पा घुमंतुओं का स्वकेंद्रित जीवन, अनूठी जीवन-शैली और मुख्यधारा से दूरी भी उनके अस्तित्व के लिए खतरा बन गई है। प्रगति के विशालकाय प्रतिमानों का जो स्वरूप जङ्स्कर और नूब्रा घाटियों में, साथ ही लेह के आसपास के इलाकों में देखने को मिलता है, वह चङ्थङ के चङ्पा घुमंतुओं से बहुत दूर है। खरनग, कोरजोद र समद रोगछेन में चिकित्सालयों और विद्यालयों के भवन भले ही देखने को मिल जाएँ, शेष सुविधाएँ मिल पाना संभव नहीं है।
वर्ष 2012 की शुरुआत में ही भीषण बर्फीले तूफान के कारण हजारों जानवर इस क्षेत्र में मारे गए थे। इतनी विशाल विभीषिका ने चङ्पा घुमंतुओं को आर्थिक तौर पर इतनी बुरी तरह से तोड़ दिया कि वे लेह तथा अन्य संपन्न गाँवों/कस्बों में दिहाड़ी मजदूरी तक करने को मजबूर हो गए। यह भले ही लदाख अंचल के अनियमित विकास की क्रूर तसवीर पेश करता हो, योजनागत विकास में लगे पैबंदों को उजागर करता हो, अर्थशास्त्रियों-समाजशास्त्रियों के माथे की लकीरों को बयाँ करता हो और पर्यटन के नाम पर इंसान को ही नुमाइश बना देने की वीभत्स मानसिकता को सामने लाता हो, मगर शेरिंग पलजेस जैसे युवाओं की आँखों के आँसू नहीं पोंछ सकता। चङ्पा घुमंतू आदिवासी पर्यटकों के ‘फोटो एलबम’ की शोभा बढ़ा रहे हैं। चङ्पा घुमंतू लगभग आधे वर्ष तक प्रकृति की जेल में कैद रहते हैं और विकास की मुख्यधारा से बहुत दूर हैं, इसलिए मानव-विकास सूचकांक को प्रभावित नहीं कर पा रहे हैं। चङ्पा घुमंतू आदिवासी आजाद देश में विस्थापन की जिंदगी जी रहे हैं। इस हकीक़त को जज्ब़ कर पाना सभ्यता और मानवता के लिए मुमकिन नहीं है।
                                                                  डॉ. राहुल मिश्र










(केंद्रीय समाज कल्याण विभाग, दिल्ली की मासिक पत्रिका, 
समाज कल्याण के दिसंबर, 2013 अंक में प्रकाशित)