कैलास मानसरोवर में चीन का दखल : आस्था से
खिलवाड़
कैलास मानसरोवर का नाम आते ही हमारे मनोविचार आस्था और
भक्ति भाव में डूब जाते हैं। कैलास मानसरोवर पुरातनकाल से ही हमारी आस्था के
केंद्र में है। जिसकी सर्जना परमपिता ब्रह्मा के मानस से हुई, जो विष्णु का क्षीर-सागर
है, जो शिव का निवास है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश का यह मानसरोवर है, कैलास है। मानसरोवर
मानस के सरोवर सदृश भारतीय चिंतन-दर्शन परंपरा में देखा जाता है, जहाँ नीर-क्षीर
का विवेक करने वाले हंस विचरण करते हैं। ये मानस के हंस जीवन के सत्य, शिवत्व और
सौंदर्य को विवेचित करते हैं, विश्लेषित करते हैं। इसी कारण कैलास मानसरोवर न केवल
शिव का स्थान है, वरन् जीवन के सत्य और सत्य के सौंदर्य से युक्त अध्यात्म का
केंद्र भी है। पद्म-पंखुडियों की भाँति कैलास पर्वत की श्रेणियों के मध्य स्थापित शिवलिंग और पार्श्व में ही गौरी कुंड व राक्षस कुंड आदि पवित्र सरोवरों
के प्रति भारत के जन-जन की आस्था जुड़ी है। इसी कारण अन्य तीर्थयात्राओं की तरह कैलास
मानसरोवर की यात्रा, कैलास की प्रदक्षिणा का विधान रहा है।
कैलास मानसरोवर का समग्र परिक्षेत्र भारत, नेपाल और वर्तमान में चीन
अधिकृत तिब्बत तक फैला हुआ है। पशुपतिनाथ के प्रति आस्थावान नेपाली जन कैलास
मानसरोवर के प्रति भी आस्था रखते हैं। भारत के लिए हिमालय साक्षात् देवालय है और
कैलास मानसरोवर देवालयों में भी उत्कृष्टतम् है। एक समय ऐसा था, कि आस्था की यही
कड़ियाँ तिब्बत को भी जोड़े हुए थीं। तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद स्थितियाँ
तेजी के साथ बदलीं और इन बदलावों ने कैलास मानसरोवर के उस क्षेत्र को विशेष रूप से
प्रभावित किया, जो चीन के कब्जे में आया। वर्तमान में 6836 वर्ग किमी. का भाग भारतीय
क्षेत्र में है। इस भाग को यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थलों की अंतरिम सूची में
सम्मिलित किया है। 19 मई, 2019 को इस क्षेत्र को विश्व विरासत स्थल में सम्मिलित
करने से पूर्व चीन और नेपाल द्वारा अपने क्षेत्र को विश्व विरासत स्थल की श्रेणी
में जोड़ने के लिए आवेदन किया गया था, किंतु उस पर कुछ भी नहीं हो सका। सम्मिलित
श्रेणी, अर्थात् प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत के रूप में समग्र कैलास मानसरोवर
परिक्षेत्र को सम्मिलित करने की बात थी, किंतु इसे पीछे चीन की दोहरी मंशा समझ में
आती है। संभवतः इसी कारण आज तक चीन अधिकृत क्षेत्र के संबंध में यूनेस्को ने कोई
निर्णय नहीं लिया है।
कैलास पर्वतश्रेणी या कैलास रेंज न केवल विशिष्ट सामरिक महत्त्व रखती
है, वरन् पर्यावरण की दृष्टि से भी यह क्षेत्र बहुत महत्त्व का है। वर्ष भर बर्फ
से ढकी रहने वाली इस क्षेत्र की पहाड़ियाँ ऐसा जलस्रोत हैं, जो वर्षपर्यंत अनेक
बड़ी-छोटी नदियों को जल देती हैं। जलवायु और पारिस्थितिकी के संतुलन की दृष्टि से
भी यह क्षेत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है। कैलास रेंज के उत्तर में ही प्रसिद्ध पैंगांग
झील है। पैंगाग झील न केवल पर्यटन के संदर्भ में, वरन् भारत और चीन अधिकृत तिब्बत में
सीमावर्ती संघर्षों व झगड़ों के लिए भी चर्चा में रहती है। हाल ही में चीन द्वारा
पैंगाग झील के निकट रास्ता और अन्य सैन्य ठिकाने बनाए गए हैं। गालवान और देमचोक
में चीन के सैनिकों के साथ होने वाली झड़पें और घुसपैठ की घटनाएँ अकसर चर्चा में
रहती हैं। ये सारी स्थितियाँ तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद बनी हैं।
तिब्बत के साथ भारत का धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव रहा है। तिब्बत में
पनपी महायान परंपरा के बीज भारत के ही हैं। जिस तरह भारत के लोगों की आस्था कैलास
मानसरोवर में है, वैसी ही आस्था और धार्मिक संलग्नता महायान परंपरा के अनुयायियों
की भी है। तिब्बत में कैलास मानसरोवर को कांग रिनपोछे के रूप में पूजा जाता है।
महायानी बौद्ध उसी प्रकार कैलास मानसरोवर की परिक्रमा लगाना पुण्यकार्य मानते हैं,
जिस प्रकार सनातन परंपरा के लोग मानते हैं। कैलास मानसरोवर और इससे निकली विभिन्न
नदियों, नदों का उल्लेख महायान परंपरा के विभिन्न ग्रंथों में मिलता है। इस कारण
तिब्बत और तिब्बत से सटे महायान परंपरा-बहुत लद्दाख के धर्मभीरु श्रद्धालुओं का
आवागमन प्रायः वर्ष भर कैलास मानसरोवर तक होता रहता था। कैलास मानसरोवर के साथ ही
अमरनाथ और अन्य तीर्थयात्राओं पर जाने वाले लोगों, साधु संन्यासियों ने लद्दाख के
सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन पर भी गहरी छाप छोड़ी है, जो आज भी लद्दाखी परंपराओं में
दिखाई देती है। इसमें बहुत प्रसिद्ध एक लोकगीत और लोकनाट्य है, जो लद्दाखी नववर्ष
के समय में गाया-मनाया जाता है। इसमें एक लामा (महायानी परंपरा का संन्यासी) और एक
जोगी (सनातन परंपरा का संन्यासी) का रूप धरकर घर-घर जाते हैं और सभी के कुशल-मंगल
की कामना करते हैं। अक्षत छिड़ककर अपनी शुभानुशंसाएँ देते हैं। यह परंपरा कैलास
मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले साधु-संन्यासियों के लद्दाखी जनजीवन में प्रभाव
को भी व्याख्यायित करती है।
महायान परंपरा के साथ ही जैन परंपरा में भी कैलास मानसरोव का अपना
विशिष्ट धार्मिक महत्त्व है। जैन आगमों में कैलास को अष्टापद कहा गया है। प्रथम
जैन तीर्थंकर ऋषभदेव जी ने यहीं पर निर्वाण प्राप्त किया था। ऋषभदेव के परवर्ती
जैन तीर्थांकरों के भी कैलास मानसरोवर की यात्राओं और पूजा-तपश्चर्या के विभिन्न
प्रसंग जैन ग्रंथों में मिलते हैं। ऐसी मान्यता है कि श्री भरत स्वामी ने यहाँ पर रत्नों के 72 जिनालय बनवाए
थे। जैन आगमों में वर्णित कैलास मानसरोवर के विभिन्न प्रसंगों और जैनाचार्यों की यात्राओं
के कारण प्रतिवर्ष अनेक जैन तीर्थयात्री भी कैलास मानसरोवर की परिक्रमा करने के
लिए जाते हैं।
कुल मिलाकर वृहत्तर भारतीय समाजजीवन की
आस्थाएँ कैलास मानसरोवर से जुड़ी रहीं हैं, वर्तमान में भी जुड़ी हैं। अपने अतीत
में कैलास मानसरोवर की यात्रा लोगों के लिए कठिन नहीं रही। जिस तरह अमरनाथ,
गंगासागर, वैष्णों देवी, रामेश्वरम्, तिरुपति की यात्राएँ सुलभ-सहज हैं, उसी
प्रकार एक समय ऐसा भी था, जब लोग बड़ी सरलता के साथ कैलास मानसरोवर की यात्रा कर
आते थे। लद्दाख के देमचोक, सिक्किम के नाथू-ला और उत्तराखंड के पिथौरागढ़ आदि से
होकर कैलास मानसरोवर के लिए तीर्थयात्री आते-जाते रहते थे। ये मार्ग प्रायः वर्ष
भर खुले भी रहते थे। लद्दाख से तो भिक्षुगण और आम श्रद्धालुगण तिब्बत के मठों की
यात्राओं पर भी इसी रास्ते से आते-जाते रहते थे।
सन् 1950 के आसपास तक कैलास परिक्षेत्र का
बड़ा भाग भारत के हिस्से में था। इसका प्रमुख कारण जम्मू के डोगरा शासकों का
आधिपत्य था। जनरल जोरावर सिंह ने इस समूचे क्षेत्र में अपना आधिपत्य कर रखा था। जनमुक्ति
के नाम पर तिब्बत को मुक्त कराने की साम्यवादी चीन की योजना जैसै-जैसे साकार होती
गई, वैसे-वैसे कैलास रेंज पर चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का अधिकार बढ़ता गया। सन्
1962 के युद्ध में रेजांग दर्रा और चुशूल सेक्टर के हिस्से दोनों तरफ से खाली हो
गए थे। यह युद्ध भारतीय सेना के अद्भुत शौर्य और पराक्रम की गौरव गाथा रच गया था।
हालाँकि तत्कालीन राजनीतिक इच्छाशक्ति इस दिशा में नहीं थी। उस समय का राजनीतिक
नेतृत्व ऐसा मानता था, कि जिस भूमि पर घास का एक तिनका भी नहीं उगता है, उस भूमि
की रक्षा करना और उस भूमि के कारण अपने साम्यवादी मित्र से संबंध खराब करना उचित
नहीं...। ऐसी मान्यताएँ तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की रहीं, फलतः चीन के कदम पूर्वी
लद्दाख की ओर धीरे-धीरे बढ़ते रहे। बहुत बड़े भूभाग पर चीन की सैन्य घसपैठ और डटकर
बैठ जाने की हरकतें होती रहीं। उत्तराखंड और अरुणाचल आदि राज्यों की सीमा पर भी चीन
आगे बढ़ता रहा और अपने संसाधनों को इन क्षेत्रों में उन्नत करता रहा।
इधर गालवान और दौलतबेग ओल्डी में सैन्य
अभियानों के साथ ही इच्छाशक्ति से परिपूर्ण राजनीतिक नेतृत्व की दक्षता ने भारतीय
हिस्से में बड़ा बदलाव किया है। सैन्य तैनाती के साथ ही सड़क, संचार आदि अन्य
संसाधनों का विस्तार हुआ है। उत्तराखंड की ओर से लिपुलेख दर्रे से होकर जाने वाले
मार्ग को पक्का किया गया है। सामरिक महत्त्व वाले अनेक पुलों का निर्माण किया गया
है।
इन तमाम स्थितियों को देखते हुए अब तक चीन
ने कैलास मानसरोवर में अपना जिस तरह का परोक्ष अतिक्रमण अभियान चला रखा था, उसे
प्रत्यक्ष रूप से करना प्रारंभ कर दिया है। कैलास मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले
लोगों के लिए चीन द्वारा सीमित संख्या में वीसा निर्गत किए जाते रहे हैं। चीन
द्वारा तगड़ी वसूली की जाती रही है, इस पर भी यात्रियों को समस्याओं और वैधानिक
दाँवपेंचों की अनेक स्थितियों के साथ अपनी यात्रा करनी होती थी। दूसरी ओर चीन धार्मिक
यात्रा के लिए संसाधन उपलब्ध कराने के नाम पर कैलास मानसरोवर क्षेत्र में,
गौरीकुंड-राक्षसताल के आसपास अनेक आवासीय निर्माण करता रहा है। इसके साथ ही सड़क
एवं अन्य संसाधन भी चीन ने वहाँ पर बढ़ाए हैं। यह सोचने की बात है, कि आखिर कितने
श्रद्धालुओं को कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए अनुमति दी जाती है, और उस अनुपात
में निर्माण-कार्य आदि का विस्तार व विकास कितना किया गया है। निश्चित रूप से
आँकड़े यही बताएँगे, कि कैलास मानसरोवर की पवित्रता और उसकी नैसर्गिक सुंदरता को नष्ट
करने के लिए चीन द्वारा बेतहाशा भौतिक संसाधनों को वहाँ पर इकट्ठा किया गया है।
इतना ही नहीं, पर्यटन केंद्र के रूप में इस धार्मिक स्थान को विकसित किया जा रहा
है, जबकि कैलास मानसरोवर की प्राकृतिक निर्मिति को हानि न पहुँचे, इसका ध्यान रखते
हुए ही पुरातनकाल से यात्राएँ की जाती रहीं हैं।
चीन द्वारा कैलास मानसरोवर में किए जा रहे विकास
और भौतिक संसाधनों की बढ़ोत्तरी के दुखद पर्यावरणीय पक्ष भी दिखाई देते हैं। कैलास
पर्वत से सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसे बड़े नदों के साथ ही अनेक छोटी-छोटी नदियाँ
निकलती हैं, जिनके प्रदूषण के खतरे के साथ ही जलवायु परिवर्तन में भी यहाँ का
विकास एक बड़ा कारक बनता है। इस दृष्टि से यह क्षेत्र अपने स्वाभाविक स्वरूप के
साथ रहने दिया जाए, ऐसा अनेक पर्यावरणविदों-चिंतकों का मानना है। इसके बावजूद चीन ने
मानसरोवर के निकट ही बड़ी सैन्य छावनियाँ बनाना शुरू कर दिया है। ऐसी सूचनाएँ भी हैं,
कि चीन ने मानसरोवर के निकट जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों के लिए ठिकाने
भी बनाए हैं। अत्याधुनिक सैन्य उपकरणों के साथ ही उच्च क्षमता वाले राडार और अन्य
उपकरण यहाँ पर लगाए जाने का क्रम चीन द्वारा अनवरत जारी है। इसके साथ ही होटल, बड़े
आवासीय भवन, बड़ी लंबी-चौड़ी सड़कें आदि भी मानसरोवर के आसपास बनाए जाने की जानकारी
इन दिनों चर्चा में है। चीन द्वारा विकसित किए जा रहे ये तमाम संसाधन चीन की सेना
की बड़ी जमावट की ओर इंगित करते हैं।
यह अत्यंत विषम स्थिति है, कि भारतीय
उपमहाद्वीप का विशिष्ट क्षेत्र, जो न केवल अपना धार्मिक महत्त्व रखता है, वरन्
पर्यावरण सुरक्षा-संरक्षा की दृष्टि से भी बहुत महत्त्व का है, वहाँ पर बेतहाशा
भौतिक विकास किया जा रहा है, उसकी पवित्रता और शुचिता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा
है। भारत के शीर्ष नेतृत्व के साथ ही भारतीय आमजनमानस के लिए चीन द्वारा कैलास
मानसरोवर की धार्मिक मान्यता पर कुठाराघात और अनियंत्रित भौतिक विकास चिंता का
विषय है। इसके लिए अनेक मंचों से आवाजें उठाई जाती रहीं हैं। आज भी भारत का एक
बड़ा वर्ग उस दिन की प्रतीक्षा में है, जब वह अपने पुरखों की तरह बिना किसी बाधा
के कैलास मानसरोवर की धार्मिक यात्रा पर जा सकेगा, जिस दिन कैलास मानसरोवर साम्यवादी-पूँजीवादी
चीन के चंगुल से मुक्त हो सकेगा। वह दिन वास्तव में धार्मिक आस्थावान लोगों के लिए
ही नहीं, वरन् पर्यावरण प्रेमियों के लिए भी, हिमालय की उपत्यकाओं में सैन्य
हलचलों के विराम और शांति के चाहने वालों के लिए भी बड़ा सुखद दिन होगा। हम सभी को
उस दिन की प्रतीक्षा है।