Friday 4 March 2022

कैलास मानसरोवर में चीन का दखल : आस्था से खिलवाड़

 

कैलास मानसरोवर में चीन का दखल : आस्था से खिलवाड़

कैलास मानसरोवर का नाम ते ही हमारे मनोविचार आस्था और भक्ति भाव में डूब जाते हैं। कैलास मानसरोवर पुरातनकाल से ही हमारी आस्था के केंद्र में है। जिसकी सर्जना परमपिता ब्रह्मा के मानस से हुई, जो विष्णु का क्षीर-सागर है, जो शिव का निवास है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश का यह मानसरोवर है, कैलास है। मानसरोवर मानस के सरोवर सदृश भारतीय चिंतन-दर्शन परंपरा में देखा जाता है, जहाँ नीर-क्षीर का विवेक करने वाले हंस विचरण करते हैं। ये मानस के हंस जीवन के सत्य, शिवत्व और सौंदर्य को विवेचित करते हैं, विश्लेषित करते हैं। इसी कारण कैलास मानसरोवर न केवल शिव का स्थान है, वरन् जीवन के सत्य और सत्य के सौंदर्य से युक्त अध्यात्म का केंद्र भी है। पद्म-पंखुडियों की भाँति कैलास पर्वत की श्रेणियों के मध्य स्थापित शिवलिंग और पार्श्व में ही गौरी कुंड व राक्षस कुंड आदि पवित्र सरोवरों के प्रति भारत के जन-जन की आस्था जुड़ी है। इसी कारण अन्य तीर्थयात्राओं की तरह कैलास मानसरोवर की यात्रा, कैलास की प्रदक्षिणा का विधान रहा है।

कैलास मानसरोवर का समग्र परिक्षेत्र भारत, नेपाल और वर्तमान में चीन अधिकृत तिब्बत तक फैला हुआ है। पशुपतिनाथ के प्रति आस्थावान नेपाली जन कैलास मानसरोवर के प्रति भी आस्था रखते हैं। भारत के लिए हिमालय साक्षात् देवालय है और कैलास मानसरोवर देवालयों में भी उत्कृष्टतम् है। एक समय ऐसा था, कि आस्था की यही कड़ियाँ तिब्बत को भी जोड़े हुए थीं। तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद स्थितियाँ तेजी के साथ बदलीं और इन बदलावों ने कैलास मानसरोवर के उस क्षेत्र को विशेष रूप से प्रभावित किया, जो चीन के कब्जे में आया। वर्तमान में 6836 वर्ग किमी. का भाग भारतीय क्षेत्र में है। इस भाग को यूनेस्को ने विश्व विरासत स्थलों की अंतरिम सूची में सम्मिलित किया है। 19 मई, 2019 को इस क्षेत्र को विश्व विरासत स्थल में सम्मिलित करने से पूर्व चीन और नेपाल द्वारा अपने क्षेत्र को विश्व विरासत स्थल की श्रेणी में जोड़ने के लिए आवेदन किया गया था, किंतु उस पर कुछ भी नहीं हो सका। सम्मिलित श्रेणी, अर्थात् प्राकृतिक और सांस्कृतिक विरासत के रूप में समग्र कैलास मानसरोवर परिक्षेत्र को सम्मिलित करने की बात थी, किंतु इसे पीछे चीन की दोहरी मंशा समझ में आती है। संभवतः इसी कारण आज तक चीन अधिकृत क्षेत्र के संबंध में यूनेस्को ने कोई निर्णय नहीं लिया है।

कैलास पर्वतश्रेणी या कैलास रेंज न केवल विशिष्ट सामरिक महत्त्व रखती है, वरन् पर्यावरण की दृष्टि से भी यह क्षेत्र बहुत महत्त्व का है। वर्ष भर बर्फ से ढकी रहने वाली इस क्षेत्र की पहाड़ियाँ ऐसा जलस्रोत हैं, जो वर्षपर्यंत अनेक बड़ी-छोटी नदियों को जल देती हैं। जलवायु और पारिस्थितिकी के संतुलन की दृष्टि से भी यह क्षेत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है। कैलास रेंज के उत्तर में ही प्रसिद्ध पैंगांग झील है। पैंगाग झील न केवल पर्यटन के संदर्भ में, वरन् भारत और चीन अधिकृत तिब्बत में सीमावर्ती संघर्षों व झगड़ों के लिए भी चर्चा में रहती है। हाल ही में चीन द्वारा पैंगाग झील के निकट रास्ता और अन्य सैन्य ठिकाने बनाए गए हैं। गालवान और देमचोक में चीन के सैनिकों के साथ होने वाली झड़पें और घुसपैठ की घटनाएँ अकसर चर्चा में रहती हैं। ये सारी स्थितियाँ तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद बनी हैं।

तिब्बत के साथ भारत का धार्मिक और सांस्कृतिक जुड़ाव रहा है। तिब्बत में पनपी महायान परंपरा के बीज भारत के ही हैं। जिस तरह भारत के लोगों की आस्था कैलास मानसरोवर में है, वैसी ही आस्था और धार्मिक संलग्नता महायान परंपरा के अनुयायियों की भी है। तिब्बत में कैलास मानसरोवर को कांग रिनपोछे के रूप में पूजा जाता है। महायानी बौद्ध उसी प्रकार कैलास मानसरोवर की परिक्रमा लगाना पुण्यकार्य मानते हैं, जिस प्रकार सनातन परंपरा के लोग मानते हैं। कैलास मानसरोवर और इससे निकली विभिन्न नदियों, नदों का उल्लेख महायान परंपरा के विभिन्न ग्रंथों में मिलता है। इस कारण तिब्बत और तिब्बत से सटे महायान परंपरा-बहुत लद्दाख के धर्मभीरु श्रद्धालुओं का आवागमन प्रायः वर्ष भर कैलास मानसरोवर तक होता रहता था। कैलास मानसरोवर के साथ ही अमरनाथ और अन्य तीर्थयात्राओं पर जाने वाले लोगों, साधु संन्यासियों ने लद्दाख के सांस्कृतिक-सामाजिक जीवन पर भी गहरी छाप छोड़ी है, जो आज भी लद्दाखी परंपराओं में दिखाई देती है। इसमें बहुत प्रसिद्ध एक लोकगीत और लोकनाट्य है, जो लद्दाखी नववर्ष के समय में गाया-मनाया जाता है। इसमें एक लामा (महायानी परंपरा का संन्यासी) और एक जोगी (सनातन परंपरा का संन्यासी) का रूप धरकर घर-घर जाते हैं और सभी के कुशल-मंगल की कामना करते हैं। अक्षत छिड़ककर अपनी शुभानुशंसाएँ देते हैं। यह परंपरा कैलास मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले साधु-संन्यासियों के लद्दाखी जनजीवन में प्रभाव को भी व्याख्यायित करती है।

महायान परंपरा के साथ ही जैन परंपरा में भी कैलास मानसरोव का अपना विशिष्ट धार्मिक महत्त्व है। जैन आगमों में कैलास को अष्टापद कहा गया है। प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव जी ने यहीं पर निर्वाण प्राप्त किया था। ऋषभदेव के परवर्ती जैन तीर्थांकरों के भी कैलास मानसरोवर की यात्राओं और पूजा-तपश्चर्या के विभिन्न प्रसंग जैन ग्रंथों में मिलते हैं। ऐसी मान्यता है कि श्री भरत स्वामी ने यहाँ पर रत्नों के 72 जिनालय बनवाए थे। जैन आगमों में वर्णित कैलास मानसरोवर के विभिन्न प्रसंगों और जैनाचार्यों की यात्राओं के कारण प्रतिवर्ष अनेक जैन तीर्थयात्री भी कैलास मानसरोवर की परिक्रमा करने के लिए जाते हैं।

कुल मिलाकर वृहत्तर भारतीय समाजजीवन की आस्थाएँ कैलास मानसरोवर से जुड़ी रहीं हैं, वर्तमान में भी जुड़ी हैं। अपने अतीत में कैलास मानसरोवर की यात्रा लोगों के लिए कठिन नहीं रही। जिस तरह अमरनाथ, गंगासागर, वैष्णों देवी, रामेश्वरम्, तिरुपति की यात्राएँ सुलभ-सहज हैं, उसी प्रकार एक समय ऐसा भी था, जब लोग बड़ी सरलता के साथ कैलास मानसरोवर की यात्रा कर आते थे। लद्दाख के देमचोक, सिक्किम के नाथू-ला और उत्तराखंड के पिथौरागढ़ आदि से होकर कैलास मानसरोवर के लिए तीर्थयात्री आते-जाते रहते थे। ये मार्ग प्रायः वर्ष भर खुले भी रहते थे। लद्दाख से तो भिक्षुगण और आम श्रद्धालुगण तिब्बत के मठों की यात्राओं पर भी इसी रास्ते से आते-जाते रहते थे।

सन् 1950 के आसपास तक कैलास परिक्षेत्र का बड़ा भाग भारत के हिस्से में था। इसका प्रमुख कारण जम्मू के डोगरा शासकों का आधिपत्य था। जनरल जोरावर सिंह ने इस समूचे क्षेत्र में अपना आधिपत्य कर रखा था। जनमुक्ति के नाम पर तिब्बत को मुक्त कराने की साम्यवादी चीन की योजना जैसै-जैसे साकार होती गई, वैसे-वैसे कैलास रेंज पर चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी का अधिकार बढ़ता गया। सन् 1962 के युद्ध में रेजांग दर्रा और चुशूल सेक्टर के हिस्से दोनों तरफ से खाली हो गए थे। यह युद्ध भारतीय सेना के अद्भुत शौर्य और पराक्रम की गौरव गाथा रच गया था। हालाँकि तत्कालीन राजनीतिक इच्छाशक्ति इस दिशा में नहीं थी। उस समय का राजनीतिक नेतृत्व ऐसा मानता था, कि जिस भूमि पर घास का एक तिनका भी नहीं उगता है, उस भूमि की रक्षा करना और उस भूमि के कारण अपने साम्यवादी मित्र से संबंध खराब करना उचित नहीं...। ऐसी मान्यताएँ तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व की रहीं, फलतः चीन के कदम पूर्वी लद्दाख की ओर धीरे-धीरे बढ़ते रहे। बहुत बड़े भूभाग पर चीन की सैन्य घसपैठ और डटकर बैठ जाने की हरकतें होती रहीं। उत्तराखंड और अरुणाचल आदि राज्यों की सीमा पर भी चीन आगे बढ़ता रहा और अपने संसाधनों को इन क्षेत्रों में उन्नत करता रहा।

इधर गालवान और दौलतबेग ओल्डी में सैन्य अभियानों के साथ ही इच्छाशक्ति से परिपूर्ण राजनीतिक नेतृत्व की दक्षता ने भारतीय हिस्से में बड़ा बदलाव किया है। सैन्य तैनाती के साथ ही सड़क, संचार आदि अन्य संसाधनों का विस्तार हुआ है। उत्तराखंड की ओर से लिपुलेख दर्रे से होकर जाने वाले मार्ग को पक्का किया गया है। सामरिक महत्त्व वाले अनेक पुलों का निर्माण किया गया है।

इन तमाम स्थितियों को देखते हुए अब तक चीन ने कैलास मानसरोवर में अपना जिस तरह का परोक्ष अतिक्रमण अभियान चला रखा था, उसे प्रत्यक्ष रूप से करना प्रारंभ कर दिया है। कैलास मानसरोवर की यात्रा पर जाने वाले लोगों के लिए चीन द्वारा सीमित संख्या में वीसा निर्गत किए जाते रहे हैं। चीन द्वारा तगड़ी वसूली की जाती रही है, इस पर भी यात्रियों को समस्याओं और वैधानिक दाँवपेंचों की अनेक स्थितियों के साथ अपनी यात्रा करनी होती थी। दूसरी ओर चीन धार्मिक यात्रा के लिए संसाधन उपलब्ध कराने के नाम पर कैलास मानसरोवर क्षेत्र में, गौरीकुंड-राक्षसताल के आसपास अनेक आवासीय निर्माण करता रहा है। इसके साथ ही सड़क एवं अन्य संसाधन भी चीन ने वहाँ पर बढ़ाए हैं। यह सोचने की बात है, कि आखिर कितने श्रद्धालुओं को कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए अनुमति दी जाती है, और उस अनुपात में निर्माण-कार्य आदि का विस्तार व विकास कितना किया गया है। निश्चित रूप से आँकड़े यही बताएँगे, कि कैलास मानसरोवर की पवित्रता और उसकी नैसर्गिक सुंदरता को नष्ट करने के लिए चीन द्वारा बेतहाशा भौतिक संसाधनों को वहाँ पर इकट्ठा किया गया है। इतना ही नहीं, पर्यटन केंद्र के रूप में इस धार्मिक स्थान को विकसित किया जा रहा है, जबकि कैलास मानसरोवर की प्राकृतिक निर्मिति को हानि न पहुँचे, इसका ध्यान रखते हुए ही पुरातनकाल से यात्राएँ की जाती रहीं हैं।

चीन द्वारा कैलास मानसरोवर में किए जा रहे विकास और भौतिक संसाधनों की बढ़ोत्तरी के दुखद पर्यावरणीय पक्ष भी दिखाई देते हैं। कैलास पर्वत से सिंधु और ब्रह्मपुत्र जैसे बड़े नदों के साथ ही अनेक छोटी-छोटी नदियाँ निकलती हैं, जिनके प्रदूषण के खतरे के साथ ही जलवायु परिवर्तन में भी यहाँ का विकास एक बड़ा कारक बनता है। इस दृष्टि से यह क्षेत्र अपने स्वाभाविक स्वरूप के साथ रहने दिया जाए, ऐसा अनेक पर्यावरणविदों-चिंतकों का मानना है। इसके बावजूद चीन ने मानसरोवर के निकट ही बड़ी सैन्य छावनियाँ बनाना शुरू कर दिया है। ऐसी सूचनाएँ भी हैं, कि चीन ने मानसरोवर के निकट जमीन से हवा में मार करने वाली मिसाइलों के लिए ठिकाने भी बनाए हैं। अत्याधुनिक सैन्य उपकरणों के साथ ही उच्च क्षमता वाले राडार और अन्य उपकरण यहाँ पर लगाए जाने का क्रम चीन द्वारा अनवरत जारी है। इसके साथ ही होटल, बड़े आवासीय भवन, बड़ी लंबी-चौड़ी सड़कें आदि भी मानसरोवर के आसपास बनाए जाने की जानकारी इन दिनों चर्चा में है। चीन द्वारा विकसित किए जा रहे ये तमाम संसाधन चीन की सेना की बड़ी जमावट की ओर इंगित करते हैं।

यह अत्यंत विषम स्थिति है, कि भारतीय उपमहाद्वीप का विशिष्ट क्षेत्र, जो न केवल अपना धार्मिक महत्त्व रखता है, वरन् पर्यावरण सुरक्षा-संरक्षा की दृष्टि से भी बहुत महत्त्व का है, वहाँ पर बेतहाशा भौतिक विकास किया जा रहा है, उसकी पवित्रता और शुचिता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। भारत के शीर्ष नेतृत्व के साथ ही भारतीय आमजनमानस के लिए चीन द्वारा कैलास मानसरोवर की धार्मिक मान्यता पर कुठाराघात और अनियंत्रित भौतिक विकास चिंता का विषय है। इसके लिए अनेक मंचों से आवाजें उठाई जाती रहीं हैं। आज भी भारत का एक बड़ा वर्ग उस दिन की प्रतीक्षा में है, जब वह अपने पुरखों की तरह बिना किसी बाधा के कैलास मानसरोवर की धार्मिक यात्रा पर जा सकेगा, जिस दिन कैलास मानसरोवर साम्यवादी-पूँजीवादी चीन के चंगुल से मुक्त हो सकेगा। वह दिन वास्तव में धार्मिक आस्थावान लोगों के लिए ही नहीं, वरन् पर्यावरण प्रेमियों के लिए भी, हिमालय की उपत्यकाओं में सैन्य हलचलों के विराम और शांति के चाहने वालों के लिए भी बड़ा सुखद दिन होगा। हम सभी को उस दिन की प्रतीक्षा है।

Monday 29 November 2021

छेतन फुनछोग : लद्दाखी माटी का अचर्चित नायक...


छेतन फुनछोग : लद्दाखी माटी का अचर्चित नायक...

लद्दाख की वीरप्रसूता धरा अपने कर्मवीर सपूतों के शौर्य और पराक्रम के बल पर जानी जाती है। भारतमाता के धवलमुकुट के मणि सदृश सुशोभित लद्दाख के युवाओं की गौरवगाथा का एक अविस्मरणीय अध्याय उस समय भी लिखा गया था, जिस समय विभाजित पाकिस्तान की नीति-नीयत लद्दाख के समूचे क्षेत्र को अपने में मिला लेने के कुचक्र रच रही थी। इस कुचक्र का मुँहतोड़ उत्तर देने वाले लद्दाखी युवाओं में एक बड़ा नाम छेतन फुनछोग का है।

आज का पाक अधिकृत काश्मीर सन् 1947-48 के कबायली हमलों और पाकिस्तानी सेना के कुचक्रों का साक्षी है। लद्दाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी स्करदो में 1947 के कबायली हमले हुए थे। उस समय छेतन फुनछोग काश्मीर राज्य के अधिकारी के रूप में स्करदो में तैनात थे। कबायलियों के हमलों ने स्करदो पर आधिपत्य जमा लिया। छेतन फुनछोग लद्दाख के नुबरा में आ गए। इनकी तैनाती भी यहीं पर हो गई। अगस्त, 1948 के बाद पाकिस्तानी कबायली तत्कालीन लेह और कारगिल तहसीलों की तरफ आगे बढ़ रहे थे। कबायली लेह से लगभग तीस किलोमीटर दूर तारू के मैदान तक पहुँच चुके थे। नुबरा घाटी भी एकदम असुरक्षित हो गई थी। इसी समय 2 डोगरा बटालियन के कर्नल (उस समय मेजर) ठाकुर पृथ्वीचंद (महावीरचक्र विजेता) को लद्दाख भेजा गया था, ताकि वे लद्दाख की सीमाओं की सुरक्षा के लिए स्थानीय युवाओं को सैन्य प्रशिक्षण देकर एक फौज तैयार करें, साथ ही कबायलियों को आगे बढ़ने से रोकें।

कर्नल पृथ्वीचंद केवल 14 सहयोगियों के साथ लद्दाख आए थे। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती नुबरा घाटी में कबायलियों को घुसने से रोकने की थी। लेह में काश्मीर राज्य की एक ही प्लाटून थी। उस समय के लद्दाख में नहीं के बराबर ही संसाधन थे। अस्थायी हवाई अड्डा बनाने के लिए इंजीनियर सोनम नोरबू ने अनथक मेहनत की थी। सड़क मार्ग भी प्रायः अपर्याप्त थे, इस कारण सैनिकों का आवागमन बहुत ही कठिन था। श्रीनगर या मनाली की तरफ से सैन्य सहायता उपलब्ध होना भी कठिन था। ऐसी स्थिति में यही एकमात्र विकल्प था, कि स्थानीय युवक त्वरित सैन्य प्रशिक्षण लेकर आक्रमणकारी कबायलियों के रास्ते को रोकें और लद्दाख की सुरक्षा करें। इस हेतु कर्नल पृथ्वीचंद तो अपना प्रयास कर ही रहे थे, लेकिन उनकी सहायता के लिए स्थानीय स्तर पर जो अपेक्षित था, वह छेतन फुनछोग के माध्यम से ही संभव हो सका, विशेषकर नुबरा घाटी में...।

कर्नल पृथ्वीचंद अपने एक संस्मरणात्मक लेख में लिखते हैं, कि- “इस पूरे अभियान में (पाकिस्तानी कबायलियों के नुबरा घाटी में हमले को रोकने के लिए) का-गा (लद्दाखी भाषा में आदरणीय के समानार्थक) छेतन फुनछोग ने सैनिकों को हरसंभव मदद दी। वे स्वयं मोर्चे पर रहते थे। उन्होंने युवाओं-नागरिकों को स्वयंसेवक के तौर पर तैयार किया, जो प्राथमिक सैन्य प्रशिक्षण लेकर मोर्चे पर डटे थे। उन्होंने न केवल सैनिकों का, बल्कि सामान्य नागरिकों का मनोबल भी बढ़ाया। वे सीमा पर खुद पहुँचकर देखते थे, कि यहाँ किन चीजों की कमी है और बिना इंतजार किए हुए सामान को पहुँचाने के लिए सक्रिय हो जाते थे। परिवहन-व्यवस्था, भारवाहकों की व्यवस्था और सामान आदि की कमी उनके कारण कभी नहीं हुई। इतना ही नहीं, उनकी बुद्धिमत्ता और तत्काल निर्णय लेने की कुशलता के कारण हमलावरों के बारे में जानकारी पाने और दुश्मन के द्वारा किए जाने वाले दुष्प्रचार को रोकने में भी हमें सफलता मिली।“ कर्नल पृथ्वीचंद आगे लिखते हैं, कि- ”घाटी (नुबरा घाटी) में हमारी सफलता के पीछे का-गा छेतन फुनछोग जैसे लोग थे, जिनका सहयोग मिला और जिनके द्वारा नागरिकों का मनोबल ऊँचा रखने में मदद मिली।” कर्नल पृथ्वी चंद का यह संस्मरणात्मक लेख राजपुर, देहरादून स्थित मोरावियन इंस्टीट्यूट की 25वीं वर्षगाँठ पर प्रकाशित स्मारिका में छपा था। यह इंस्टीट्यूट सन् 1963 में छेतन फुनछोग द्वारा स्थापित किया गया था। इस शिक्षण संस्थान की स्थापना न केवल हिमालयी परिक्षेत्र में आने वाले बदलाव की आहटों का परिणाम थी, बल्कि छेतन फुनछोग की अध्येतावृत्ति और अध्ययन-अध्यापन के प्रति रुचि की अभिव्यक्ति भी थी।

लेह नगर से लगभग 15 किलोमीटर दूर साबू गाँव के प्रतिष्ठित परिवार में सन् 1908 में जन्मे छेतन फुनछोग बचपन से ही मेधावी रहे। उनका परिवार लेह के राजपरिवार के निकट रहा और उनके पूर्वज लद्दाख के राजा के मंत्री भी रहे। छेतन फुनछोग अपने पिता की इकलौती संतान थे। उनके पिता लद्दाख के प्रतिष्ठित रिजोंग मठ के अनुयायी थे, फलतः वे भी दो वर्षों तक भिक्षु के रूप में रिजोंग मठ में रहे और महायान बौद्ध परंपरा के ग्रंथों के साथ ही लद्दाखी भाषा का गहन अध्ययन किया। उनके पिता का 40 वर्ष की आयु में देहांत हो गया था, इस कारण उन्हें अपनी मठ-आधारित शिक्षा को बीच में ही छोड़कर सासांरिक जीवन में प्रवेश करना पड़ा। इसके बाद भी उन्होंने अध्ययन से मुख नहीं मोड़ा। वे लद्दाख के जाने-माने विद्वान जोसफ गेर्ग्यन के संपर्क में आए। जोसफ गेर्ग्यन अपनी युवावस्था में ही ईसाई बन गए थे। सन् 1933 में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का लद्दाख आना हुआ था। वे गेर्ग्यन जी से मिले भी थे, और उनकी साहित्यिक अभिरुचि से बहुत प्रभावित भी हुए थे। राहुल सांकृत्यायन अपनी पुस्तक ‘यात्रा के पन्ने’ के ‘लद्दाख में’ खंड में गेर्ग्यन महाशय का उल्लेख करते हुए बताते हैं, कि- “उनकी उम्र साठ के ऊपर होगी। वे लद्दाख से नीचे कभी नहीं गए और उन्होंने कभी रेलगाड़ी भी नहीं देखी है। वे ही एक सज्जन हैं, जो शुद्ध भोटभाषा लिख सकते हैं।“ राहुल सांकृत्यायन इसी क्रम में छेतन फुनछोग का उल्लेख भी करते हैं। वे उन्हें नो-नो छे-र्तन-फुन्-छोग् कहकर संबोधित करते हैं। लद्दाखी बोलचाल में नो-नो कहकर युवा और अपने से कम उम्र के बालकों को संबोधित किया जाता है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन जब लिखते हैं, कि- उन्हें पढ़ने-लिखने, शुद्ध भोटभाषा का व्यवहार करने और लद्दाख के साहित्य को सहेजने आदि कार्यों के लिए नो-नो छे-र्तन-फुन्-छोग् से बड़ी आशा है, तब उनका यह कथन छेतन फुनचोग की साहित्यिक अभिरुचि और अध्ययनशीलता को सहजता के साथ व्यक्त कर देता है।

राहुल सांकृत्यायन द्वारा वर्णित यह प्रसंग स्पष्ट करता है, कि छेतन फुनछोग, जोसफ गेर्ग्यन व महापंडित राहुल सांकृत्यायन का आपस में मिलना और लद्दाख परिक्षेत्र की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों पर तीनों की चिंताओं और विचारों का संयोजन भविष्य की ऐसी कार्ययोजना का आधार बनता है, जो कालांतर में छेतन फुनछोग के माध्यम से साकार होता दिखता है। लद्दाख में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए और जनसांख्यिकी में होते बदलाव को रोकने के उद्देश्य से राहुल सांकृत्यायन के प्रयासों से एक सोसायटी का गठन हुआ, जिसका नाम ‘लद्दाख बुद्धिस्ट एजूकेशन सोसायटी’ रखा गया। राहुलजी ने इस समिति के पदों को लद्दाखी भाषा में नाम भी दिए थे। छेतन फुनछोग इस सोसायटी के सचिव बने थे। इस सोसायटी ने एक ज्ञापन भी तत्कालीन काश्मीर दरबार को भेजा था, जिसमें भोटभाषा और संस्कृत के शिक्षकों की नियुक्ति, नए विद्यालयों की स्थापना आदि की माँग की गई थी। इसी सोसायटी के माध्यम से भोटभाषा (लद्दाखी) के व्याकरण और प्राथमिक स्तर की पुस्तकों के प्रकाशन की योजना भी बनाई गई थी।

छेतन फुनछोग का विवाह जोसफ गेर्ग्यन की बेटी सुङ्किल से हुआ। इस विवाह की शर्त के अनुरूप सितंबर, 1934 में ईसाई धर्म में दीक्षित होकर वे एलियाह छेतन फुनछोग बन गए। यद्यपि उनके इस कृत्य को उनके अपने समाज ने कभी स्वीकार नहीं किया, तथापि विरोधों के बाद भी वे लद्दाखी भाषा, समाज, साहित्य, संस्कृति और राजनीतिक दशा-दिशा के लिए सदैव चिंतित भी रहे और उन्नयन के लिए सदैव प्रयासरत भी रहे। छेतन फुनछोग ने लद्दाखी भाषा का पहला व्याकरण ग्रंथ तैयार किया था। इसके अलावा समाज में शिक्षा के प्रचार व प्रसार के लिए भी वे संलग्न रहे। देशभक्ति का भाव और अपनी मातृभूमि की सेवा का भाव उनमें कूट-कूटकर भरा था। इसी कारण कर्नल पृथ्वीचंद के साथ वे कंधे से कंथा मिलाकर लगे रहे।

लद्दाख की नुबरा घाटी में सन् 1948 में तैयार हुई ‘नुबरा गार्ड्स’ नाम की नवयुवकों के सैन्य-प्रशिक्षित जन-सेना के निर्माण और उसे सैन्य आयुधों से सुसज्जित कराने में छेतन फुनछोग का बड़ा योगदान था। सन् 1948 के आसपास वे नुबरा में काश्मीर राज्य के अधिकारी (लेह व स्करदो के कार्यवाहक तहसीलदार) के रूप में कार्यरत थे। कर्नल पृथ्वीचंद की सैन्य टुकड़ी को सहायता पहुँचाने के साथ ही ‘नुबरा गार्ड्स’ के नवयुवकों को सैन्य उपकरण और हथियार दिये जाने के विषय पर कर्नल पृथ्वीचंद असमंजस की स्थिति में थे। छेतन फुनछोग के प्रयासों से कर्नल पृथ्वीचंद को नवयुवकों पर भरोसा हुआ और नवगठित ‘नुबरा गार्ड्स’ ने विधिवत् सैन्यबल की तरह सुसज्जित होकर नुबरा घाटी को पाकिस्तानी हमलावरों से बचाया। कालांतर में ‘नुबरा गार्ड्स’ को सैन्य बल का स्थान दिया गया और फिर यही आगे चलकर ‘लद्दाख स्काउट’ के रूप में अस्तित्व में आया।

छेतन फुनछोग की बड़ी भूमिका भारत के राजनयिक प्रतिनिधि के रूप में भी रही है। इसके पीछे बड़ा कारण उनकी विद्वता और उनके भाषाज्ञान को मान सकते हैं। यह बात राहुल सांकृत्यायन ने भी अपनी लेखनी से उद्धृत की है। मातृभूमि से लगाव और भोटभाषा लिखने-पढ़ने-बोलने में महारथ के कारण छोतन फुनछोग को काश्मीर राज्य और फिर भारत सरकार द्वारा कई बार तिब्बत संबंधी मामलों को हल करने के लिए नियुक्त किया गया, तिब्बत भेजा गया। सन् 1940 से 1948 तक तिब्बत के साथ सीमा संबंधी विवाद और साथ ही आपराधिक घटनाओं के मामले सामने आते रहे हैं। इन्हें हल करने के लिए राजनयिक स्तर की वार्ता का संयोजन छेतन फुनछोग ने किया।

कबायली हमलों के शांत होने और जम्मू-काश्मीर के भारत-विलय की प्रक्रिया पूरी होने के बाद सन् 1950 में वे लेह के पहले सूचना-अधिकारी बने थे, इसके पूर्व वे  लेह और स्करदो के कार्यवाहक तहसीलदार भी रहे थे। यहाँ उल्लेखनीय है, कि छेतन फुनछोग के पिता लेह तहसील के पहले तहसीलदार बने थे। सन् 1950 में उन्होंने सरकारी सेवा से त्यागपत्र दे दिया और ‘मिशनरी’ कार्यों में संलग्न हो गए। उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा कालखंड भले ही प्रशासनिक दायित्वों को निभाते हुए बिताया हो, लेकिन उनका पठन-पाठन से संबंध कभी नहीं टूटा। लद्दाखी भाषा के सरल व्याकरण की पुस्तकें और ‘लद्दाखी रीडर्स’ उनकी कीर्ति के अक्षय स्रोत हैं, भले ही इन पुस्तकों को लद्दाख में अपेक्षित स्थान व गौरव न मिला हो। वे लद्दाख में शिक्षा के गुणवत्तापरक केंद्र स्थापित करना चाहते थे, विद्यालय स्थापित करना चाहते थे, किंतु उनकी पुस्तकों की तरह उनके इस विचार को भी फलने-फूलने का मौका नहीं मिल सका। कुछ अन्य कारण भी बने, और अपने जीवन को सहज-संकटमुक्त बनाने हेतु वे अंततः सन् 1959 में मसूरी चले गए और बाइबिल के तिब्बती अनुवाद पर कार्य करने लगे। उन्होंने अमेरिका, प्रांस, जर्मनी, स्विटजरलैंड, डेनमार्क, कनाडा आदि देशों की यात्रा की। इन यात्राओं के समय उन्हें विदेश में रहकर काम करने के लिए अनेक प्रस्ताव आए, लेकिन उन्होंने भारत में रहना ही पसंद किया। उन्हीं दिनों हजारों की संख्या में तिब्बतियों का निर्वासन हुआ। यहाँ कहना प्रासंगिक ही होगा, कि उनकी तिब्बत यात्राओं के बीच ही उन्हें इस बात का आभास होने लगा था, कि तिब्बत पर साम्यवादी चीन की कुदृष्टि पड़ने लगी है। इसी कारण आत्मीय भाव के साथ छेतन फुनछोग अपने सहधर्मी तिब्बती बंधुओं के लिए सेवाभाव से जुट गए। आचार्य विनोबा भावे के भूदान आंदोलन से प्रेरित होकर उन्होंने तिब्बतियों के पुनर्वास हेतु भूमि तलाशने का काम किया। छेतन फुनछोग के प्रयासों का ही फल था, कि विनोबा भावे ने भूदान में प्राप्त भूमि में से 100 एकड़ भूमि देहरादून में तिब्बती शरणार्थियों को दे दी थी। तिब्बती शरणार्थियों के अनुरोध पर ही उन्होंने सन् 1963 में एक स्कूल देहरादून के राजपुर नामक स्थान पर खोला था। अपने प्रारंभिक वर्षों में यह स्कूल बच्चों के लिए और साथ ही प्रौढ़शिक्षा के लिए था। बाद में यह आवासीय विद्यालय बना और आज भी शिक्षा जगत् में अग्रणी भूमिका निभा रहा है।

लद्दाख की धरती का यह सपूत सन् 1973 में अपनी इहलीला समाप्त कर अनंत में विलीन हो गया, लेकिन यह बड़े गर्व की बात है, कि उनके सुपुत्र ओदपल फुनचोग ने लद्दाख की सेवा के, भारतदेश की सेवा के व्रत को समर्पित भाव से निभाया। छेतन फुनछोग के सुपुत्र ओदपल जी के बारे में उनके गाँव के ही एक सहपाठी श्री एलिहुद जॉर्ज बड़े गर्व से बताते हैं, कि ओदपल जी अपने बचपन में कागज के जहाज बनाकर उड़ाया करते थे। बाद में वे भारतीय वायुसेना के कमीशनधारी अधिकारी बने। 06 अक्टूबर, 2021 को सीमा संघोष के डिजिटल आयाम द्वारा लेह में आयोजित तीन-दिवसीय अभियान ‘द ग्लोरियस स्काई’ के उद्घाटन समारोह में सेवानिवृत्त विंग कमांडर ओदपल फुनचोग की उपस्थिति ने छेतन फुनछोग के व्यक्तित्व और कृतित्व का स्मरण कराने का अवसर उपलब्ध कराया। देश की सीमाओं की अक्षुण्णता और अखंडता के लिए, साथ ही शिक्षा की अलख जगाने के लिए लद्दाख की माटी के इस अचर्चित नायक का योगदान कभी नहीं भुलाया जा सकता है।

राहुल मिश्र

(सीमा संघोष, नई दिल्ली के )


 

Tuesday 21 September 2021

मिजोरम विवाद : आखिर कौन है, झगड़े की जड़ में...



मिजोरम विवाद : आखिर कौन है, झगड़े की जड़ में...

देश के पूर्वोत्तर सीमांतक्षेत्र के लिए इस वर्ष की 26 जुलाई को एक ऐसी तिथि के रूप में इंगित किया जा सकता है, जिसने पूर्वोत्तर भारत के इतिहास को काला धब्बा लगा दिया है। देश का पूर्वोत्तर भाग, जिसे बहुत आस्था और श्रद्धा के साथ सारा देश देखता है। ज्योतिषीय गणना और आकलन पूर्वोत्तर को, ईशान्य कोण को बहुत महत्त्व देते हैं। यह ऐसी दिशा होती है, जहाँ वास्तु के अनुसार ऊर्जा का वास होता है। इसी कारण अनेक विद्वानों ने अंग्रेजों द्वारा निर्धारित ‘नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ से इतर पूर्वोत्तर को ईशान्य सरहद एजेंसी कहकर यहाँ के वास्तुशास्त्रीय महत्त्व को रेखांकित किया है।

26 जुलाई, 2021 की हृदयविदारक-दारुण घटना के पहले और बाद की स्थितियों पर कुछ कहने के पूर्व उपरोक्त पंक्तियों के माध्यम से भारतदेश के पूर्वोत्तर क्षेत्र के, ईशान्य कोण के महत्त्व को रेखांकित करना आवश्यक लगता है। यह महत्त्व और यह वैशिष्ट्य भारतीय ज्योतिषशास्त्र और वास्तुशास्त्र के क्षेत्र का ही नहीं है, वरन् इसको भारत के प्राचीन ज्ञानीजनों से लगाकर आधुनिककाल के अध्येता और सुधीजन भी समझते रहे हैं। इसी कारण ‘भारतमाता के मुकुट’ और ‘भारतदेश के सजग प्रहरी’ जैसी मान्यताएँ पूर्वोत्तर के साथ जुड़ी रहीं हैं। आस्था के अनेक केंद्र, शक्ति-साधना के अनेक स्थल, ऋषियों-मुनियों-साधकों की तपःस्थली पूर्वोत्तर में हैं। पूर्वोत्तर भारत के अनेक स्थलों की धार्मिक यात्राओं पर जाने की परंपरा भी बहुत पुरानी रही है। यह सबकुछ इसी कारण से है, क्योंकि समग्र भारतीय मनीषा के लिए, समग्र भारतीय चेतना और एकात्मता के लिए पूर्वोत्तर भारत का अमूल्य योगदान रहा है। एक ओर सिंधु नद, तो दूसरी ओर ब्रह्मपुत्र नद हिमालय से प्रवाहित होते हुए भारतमाता की सबल-सशक्त भुजाओं का भान कराते हैं। ब्रह्मपुत्र के जल से सिंचित पूर्वोत्तर, अरुण की पहली किरण से आलोकित पूर्वोत्तर, महाभारत की कथाओं को अपने कण-कण में बसाए हुए पूर्वोत्तर की क्या विशिष्टता रही है, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।

इस वैशिष्ट्य को हम तो सदैव से जानते ही रहे हैं, लेकिन इस वैशिष्ट्य की ओर उन आक्रांताओं की भी दृष्टि रही है, जिन्होंने भारतदेश के समृद्ध समाज को, गौरवशाली सांस्कृति वैभव को, सामाजिक समरसता को छिन्न-भिन्न करने की नीयत से कई बार, और कई तरीके से प्रहार किए हैं। बताने की आवश्यकता नहीं, कि इन प्रहारों के चिन्ह कहीं नालंदा के ध्वंसावशेषों में, कहीं विखंडित और परिवर्तित कर दिए गए स्थापत्य-शिल्प केंद्रों में, तो कहीं समाज के अलग-अलग बँटे हुए वर्गों में, तो कहीं धर्म के अंतरण के कारण उत्पन्न हुई असहज सामाजिक संरचनाओं में दिखाई देते हैं। पूर्वोत्तर का समग्र क्षेत्र, जो भारतीय मनीषा की ऊर्जा से आलोकित रहा, वह भी आक्रांताओं की कुदृष्टि से बचा नहीं रह सका।

जब 26 जुलाई, 2021 की वेदनापूर्ण घटना की जड़ों को तलाशते हुए गहरे उतरते हैं, तब यही कुदृष्टि कहीं न कहीं न दिखाई देती है। पूर्वोत्तर भारत में बर्मन, पाल और आहोम आदि प्रतापी शासकों की बहुत पुरानी और सुदीर्घ परंपरा रही है। कामरूप का नाम भारतीय वाङ्मय से लगाकर अनेक कथाओं-किंवदंतियों में प्रचलित रहा है, जो यहाँ की समृद्धि का परिचायक है। यहाँ निवास करने वाले अनेक वनवासी समूह प्रकृति के सानिध्य में अपनी सनातन आस्था के साथ, प्रकृति के प्रति आस्था के साथ जीवन जीते रहे हैं। यहाँ की दुर्गम भौगौलिक स्थिति और यहाँ के लोगों की संघर्षशीलता के कारण तलवार के बल पर लोगों को बदल पाना संभव नहीं रहा। ऐसा हमें इतिहास के अनेक प्रसंगों से ज्ञात होता है। व्यापार के बहाने बंगाल की खाड़ी तक पहुँचने वाले अंग्रेजों के लिए पूर्वोत्तर ही नहीं देश के अनेक हिस्सों के ऐसे लोग चुनौतीपूर्ण थे, जिन्हें साम, दाम, दंड से बदल पाना संभव नहीं था। इसके लिए ईसाई प्रचारकों की नीति का उपयोग किया गया। पूर्वोत्तर के अनेक क्षेत्रों में यह ‘भेद-नीति’ इतने बड़े स्तर पर चली, कि आज वही लोग एक-दूसरे के जीवन को नष्ट कर डालने के लिए उद्यत हो गए, जो सदियों से सदैव एकसाथ रहते रहे हैं, जो सदियों से प्रकृति को एक-दूसरे के बाँधे रखने का सूत्र मानते रहे हैं।

पूर्वोत्तर का समूचा भौगौलिक क्षेत्र इन्हीं विशिष्टताओं के साथ ही अलग-अलग वनवासी समूहों की पहचान को मिलाकर जाना जाता रहा है। अगर सिक्किम को उसकी विशिष्ट पहचान के साथ अलग वर्ग में रखकर बात करें, तो पूर्वोत्तर के बड़े हिस्से के रूप में कामरूप या प्राग्ज्योतिषपुर या असम कालांतर में अपने विभाजनों के द्वारा मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, नागालैंड और अरुणाचलप्रदेश के नाम से वर्तमान के राज्यों के रूप में जाना जाता है। इनके विभाजन का पहला प्रयास अंग्रेजों के समय में हुआ था, जो कि भौगौलिक नहीं था, वरन् वनवासी समूहों के विशिष्ट सामाजिक और जीवन-पद्धतिगत अंतरों को उभारकर किया गया था। यह विभाजन इतने गहरे बैठ गया, कि राजनीतिक खेमेबंदियों और प्रजातिगत-समुदायगत पहचान और मान-प्रतिष्ठा का विषय बनकर कालांतर में अलग-अलग राज्यों के रूप में अस्तित्व में आने लगा। आज के पूर्वोत्तर के राज्य इसी का परिणाम प्रतीत होते हैं। भौगौलिक विभाजन के ये दूसरे प्रयास अपने साथ ऐसी विषमताओं को लेकर आए, कि जिनकी परिणति वर्तमान के आपसी संघर्ष में दिखाई देने लगी।

यह सोच पाना भी बहुत कठिन है, कि भारतदेश के दो राज्य; या यो कहें, कि एक परिवार के दो हिस्से आपस में इतनी शत्रुता कर बैठे, कि एक-दूसरे के रक्तपिपासु ही हो गए। दोनों ही राज्यों की संवैधानिक व्यवस्थाएँ भारत के संविधान के अनुसार चलती हैं। असम और मिजोरम की कार्यपालिकाएँ और विधायिकाएँ भारत के संविधान और संसद से बाहर नहीं हैं, फिर भी दोनों राज्यों के बीच 26 जुलाई को बनी स्थिति ऐसी थी, जैसे दो देश ही आपस में भिड़ गए हों। इस संघर्ष में असम के पुलिसबल के 6 जवानों को अपना जीवन गँवाना पड़ा। इन जवानों के परिवार अनाथ हो गए। असम ने अपने इन जवानों को शहीद का दर्जा देते हुए अंतिम विदाई दी। इसके साथ ही 50 के आसपास जवान घायल भी हुए। इस घटना ने जिस तरह अनेक कायसों और तथ्यों को जन्म दिया है, वे संघीय व्यवस्था के अंतर्गत बड़ी पड़ताल की आवश्यकता को जन्म देने वाले हैं। कहा जाता है, कि असम पुलिस पर मिजोरम की तरफ से हमला करने वाले लोगों के पास आधुनिक तकनीक वाले हथियार थे। ये हथियार मिजोरम के सीमावर्ती तथाकथित लोगों के पास कैसे सुलभ हुए, इस बात को लेकर भी कयास लगाए जाते रहे हैं। कुल मिलाकर पूरी घटना सरसरी तौर पर सरल दिखाई देती है, परंतु इसके पीछे अनेक जटिल तथ्य हैं।

वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मिजोरम की आबादी में 87.16 प्रतिशत लोग ईसाई थे। मिजोरम का सबसे बड़ा और प्रभावशाली चर्च मिजोरम प्रेस्बिटेरियन चर्च है। यह न केवल मिजोरम में, बल्कि समूचे पूर्वोत्तर भारत से लगाकर भारत के विभिन्न प्रांतों तक, और फिर ताइवान, नेपाल, चीन और ब्रिटेन आदि देशों तक अपने कार्यक्षेत्र को फैलाए हुए है। यह तथ्य भी कम रोचक नहीं है, कि मिजोरम और असम के बीच सीमा विवाद के रक्तरंजित होते ही मिजोरम प्रेस्बिटेरियन चर्च के नेतागण मिजोरम के मुख्यमंत्री से विवाद को सुलझाने की अपील करते हैं। असम के मुख्यमंत्री जोरामथांगा स्वयं इस चर्च के अनुयायी हैं। 1987 में मिजोरम के स्वतंत्र देश बनने के पहले तक, और मिजो नेशनल फ्रंट के राजनीति में उतरने तक जोरामथांगा एक अलग भूमिका में रहे हैं। ये सारे तथ्य आपस में मिलजुलकर बहुत कुछ स्पष्ट कर देते हैं।

दूसरी तरफ असम का कहना है, कि उसकी बराक घाटी के लगभग 1.75 हेक्टेयर जमीन पर मिजोरम के लोगों ने अवैध कब्जा कर लिया है। मिजोरम सन् 1875 में बनी सीमारेखा को मानता है, जबकि असम 1933 में बनी सीमा रेखा को। मिजोरम का यह भी कहना है, कि जिस क्षेत्र में असम अपना दावा करता है, वहाँ मिजो आदिवासी पिछले सौ से अधिक वर्षों से काबिज हैं। मिजोरम में प्रतिवर्ष 11 जनवरी को मिशनरी दिवस मनाया जाता है, जिसका विधिवत् राज्यस्तरीय सार्वजनिक अवकाश रहता है। पिछले वर्ष 9-11 जनवरी तक ‘ज़ो’ उत्सव पहली बार हुआ था। यह मिजोरम के विभिन्न जातीय समूहों को एक करने के नाम पर भले ही रहा हो, लेकिन मिशनरी दिवस तक चलने वाले और विदेशों तक अलग-अलग जगहों में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम का कितना अंश मिजो लोगों के एककीकरण के लिए था, वह समझने की बात है। मिजोरम में मिजो आदिवासियों के नाम पर जिन समूहों को चिन्हित किया जाता है, वे ऐसे ही आयोजनों और अलग-अलग मिशनरी संगठनों के प्रभाव से ईसाई बने चुके हैं। मिजो आदिवासियों के नाम पर जिन वनवासी समूहों को संगठित करने, उन्हें सभ्य सुशिक्षित बनाने और उनके लिए सुविधाएँ उपलब्ध कराने की बात कही जाती है, वे वस्तुतः अपने पारंपरिक आधार से उखड़ी हुई एक नई जातीय संस्कृति और पहचान है। फलतः मिजो नाम के आवरण को ढके हुए हमारे सामने एक नई संस्कृति और जातीय पहचान होती है, जिसका मूल ईसाईयत होता है। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया गया है, कि पूर्वोत्तर भारत की जिस शक्ति को, जिस सामर्थ्य को हमारे प्राचीन ग्रंथों से लगाकर मनीषियों तक ने पहचाना, उसे क्षत-विक्षत किये बिना भारतीय सामाजिक संरचना को खंड-खंड करना संभव नहीं था, फलतः सीधे-सादे वनवासियों को शिक्षित करने के नाम पर, दवा-उपचार देने के नाम पर, सभ्य बनाने के नाम पर और आधुनिक बनाने के नाम पर जो हुआ, उसकी परिणति मिजोरम की जनसांख्यिकी के आँकड़ों में दिखाई देती है।

असम में पिछली सरकार ने अपने राज्य के जनसांख्यिकी असंतुलन को गंभीरता से लिया था। घुसपैठियों की समस्या भी इसके साथ जुड़ी हुई थी। पूर्वोत्तर के राज्यों में मुस्लिम आबादी बहुत तेजी के साथ बढ़ी है, जिसे स्थानीय निवासी अपनी पहचान और अस्मिता पर संकट की तरह देखते हैं। हाल ही में संपन्न हुए चुनावों की धुरी भी इन्हीं विषयों पर केंद्रित थी। असम की जनता ने पिछली सरकार के निर्णयों के प्रति अपनी आस्था को व्यक्त किया, फलतः नई सरकार ने पिछले प्रयासों को और अधिक तीव्रता के साथ आगे बढ़ाया। जनसांख्यिकी के असंतुलन और घुसपैठियों के कारण बढ़ती अराजकता पर वर्तमान असम सरकार की शून्य सहनशक्ति एक ओर असम के घुसपैठियों के लिए बड़ा संदेश देने वाली है, तो दूसरी ओर मिजोरम के तथाकथित ‘मिजो आदिवासियों’ के लिए भी...।

असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वालों में बड़ी संख्या मुस्लिम घुसपैठियों की है। ये सभी अपने चाल-चरित्र के कारण केवल असम में ही नहीं, बल्कि किसी भी जगह अच्छी दृष्टि से नहीं देखे जाते, इन पर शक की सुई हमेशा घूमती रहती है, जो इनके कामों के कारण शक को सच में बदलती भी रहती है। मिजोरम और असम के सीमावर्ती इलाकों में इनकी हरकतें भी एक बड़ा कारण बनी हैं। असम और मिजोरम के सीमावर्ती इलाकों में सहिष्णुता और सद्भावना की संभावना तलाशना स्वयं में बहुत जटिल कार्य है। क्योंकि असम और मिजोरम के बीच हुए भौगौलिक सीमा विवाद का बड़ा हिस्सा धर्माधारित वर्ग के विवाद का भी है। यह बदलती हुई स्थिति है, जिसमें संस्कृतियों के टकराव को भी देखा जा सकता है। इन सबके बीच असम के मुख्यमंत्री ने स्थितियों को सँभालने के लिए बहुत गंभीरता का परिचय दिया है, और मिजोरम की तरफ से भी ऐसी पहल अपेक्षित है।   

पूर्वोत्तर के राज्यों में तेजी से बदलती जनसांख्यिकी, जनसंख्या के असंतुलन, मूल निवासियों की धार्मिक मान्यताओं और सांस्कृतिक पहचान पर मँडराते संकट जैसी स्थितियाँ 26 जुलाई जैसी घटनाओं के लिए वातावरण बना देती हैं। लिहाजा इस ओर गंभीरता के साथ विचार किया जाना चहिए और समाधान के लिए भी प्रयास किए जाने चाहिए।

-राहुल मिश्र

(मासिक पत्रिका सीमा संघोष, नई दिल्ली के सितंबर, 2021 अंक में प्रकाशित) 


 

Thursday 26 August 2021

अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित (लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)

 


अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित

(लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)


डुल्लू पंडित, अर्थात पंडित श्रीधर कौल; यह एक ऐसा नाम है, जिसने न कभी ख्याति चाही, न पद और न ही पैसा-मान-प्रतिष्ठा। एक निष्काम सेवाव्रती की तरह से अपना सारा जीवन, अपनी सारी कर्मठता-सक्रियता लदाख को समर्पित कर दी। इसी कारण श्रीधर कौल के बारे में बहुत ही कम जानकारियाँ आज मिल पाती हैं। लदाख के जाने-माने इतिहासकार और संस्कृतिकर्मी स्वर्गीय आबा टशी  रबग्यस अकसर ही श्रीधर कौल के बारे में बताया करते थे। कथाकार अब्दुल ग़नी शेख और लदाख के वरिष्ठ-वयोवृद्ध चिकित्सक डॉक्टर तंजिन के पास भी डुल्लू पंडित से जुड़ी अनेक बातें और यादें हैं, जिन्हें उन्होंने या तो अपनी रचनाओं में सहेजा है, या फिर वे अपनी स्मृतियों को खंगालते हुए यदा-कदा बताते हैं। आज के लदाख की नई पीढ़ी के लिए डुल्लू पंडित का नाम अनजाना-सा ही होगा। आधुनिक लदाख के निर्माता कहे जाने वाले पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे का तो सामाजिक और राजनीतिक जीवन ही डुल्लू पंडित के सानिध्य में शुरू हुआ था।

श्रीधर कौल ने लदाख में बिताए अपने समय को; जैसा और जितना लदाख को देखा, उन अनुभवों को अपनी एक अधूरी रचना में समेटा था। उनके जीवनकाल में यह रचना पूरी नहीं हो सकी। बाद में उनके पुत्र हृदयनाथ कौल ने कुछ अंश उसमें जोड़े, और ‘लदाख : थ्रू द एजेस, टूवार्ड्स ए न्यू आइडेंटिटी’ के नाम से यह पुस्तक बहुत बाद में, सन् 1992 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का प्राक्कथन कुशोग बकुल रिंपोछे ने लिखा है। अपने प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है- “इस पुस्तक के लिए चंद पंक्तियाँ लिखना मेरे लिए बहुत खुशी की बात है। इस अवसर का लाभ उठाते हुए मैं अपनी ओर से, साथ ही लदाख की जनता की ओर से श्रीयुत् श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता दर्ज कराना चाहता हूँ। लदाख के लोगों के लिए और लदाख की संस्कृति के लिए उनका अविस्मरणीय योगदान, सन् 1947 के युद्ध में लदाख अंचल के लिए उनकी असाधारण सेवाएँ, और इन सबसे ज्यादा लदाखी लोगों को अपने नागरिक अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक करने हेतु किए गए कार्यों के लिए श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।”

इस पुस्तक का उल्लेख यहाँ पर इसलिए करना समीचीन लगता है, ताकि तथ्यपरक जानकारी का संदर्भ सुलभ हो सके। यह पुस्तक लदाख के अतीत को केवल देखती नहीं है, अनूठे भावनात्मक लगाव को, एक सांस्कृतिक संबंध को व्यक्त ही नहीं करती;  बल्कि महसूस भी कराती है। यह पुस्तक श्रीधर कौल ‘डुल्लू’ के लदाख अंचल के प्रति प्रेम और भावनात्मक लगाव को व्यक्त करने, और साथ ही भारत की पुरातन सांस्कृतिक-धार्मिक जड़ों को लदाख अंचल के कण-कण में देखने का सहज प्रयास भी है। तमाम सिद्धहस्त लेखकों के लदाख-वृत्तांत के सामने यह पुस्तक भले ही साधारण-सी हो, किंतु जिस पक्ष को इस पुस्तक में अनुभूत किया जा सकता है, उसे अन्यत्र खोजना कठिन है। परमपूज्य कुशोग बकुल रिनपोछे ने अपने कथन में मन के भावों की सीधी-सरल अभिव्यक्ति के माध्यम से आधुनिक लदाख के निर्माण की उस नींव को नमन किया है, जिसके साथ बीसवीं सदी के लदाख का निर्माण होता है। इस दृष्टि से पुस्तक का पुरोवाक् अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और इसी के सहारे बीसवीं सदी के लदाख को देखा जा सकता है।

सन् 1887 के पहले तक लदाख में आधुनिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। लदाख अंचल के लिए ईसाई मिशनरियों ने ‘मिल-हिल मिशन’ बनाया था। सन् 1888 में कैथोलिक धर्मप्रचारकों ने इसकी शुरुआत कर दी थी। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह इस स्थिति से अनजान नहीं थे। कश्मीर के बौद्ध आचार्यों की कर्मभूमि रहे लदाख परिक्षेत्र की सीधी-सादी-सरल जनता के हितों के लिए उनकी चिंता एक ओर गिलगित-स्करदो-बल्टिस्तान के अतीत के साथ जुड़ी थी, तो दूसरी तरफ ईसाई मिशनरियों के साथ आने वाले खतरे को लेकर भी थी। इस कारण उन्होंने ईसाई मिशनरियों को लदाख में आने की अनुमति नहीं दी। लाहुल-स्पीति (हिमाचलप्रदेश) को अपना संपर्क केंद्र बनाकर मिशनरी अपनी गतिविधियों को संचालित करते रहे और लदाख को अपने प्रभाव में लेने के लिए लगातार सक्रिय रहे। संभवतः ब्रिटिश शासकों के भारी दबाव के कारण सन् 1884 में मोरावियन मिशन का आगमन पहली बार लेह में हुआ। अस्पतालों और स्कूलों का संचालन करने के साथ ही कुछ लदाखी युवाओं को चर्च से जोड़कर समाज में पकड़ बनाने की कोशिशों को देखते हुए उस समय यह आवश्यक हो गया था, कि लदाख में ऐसी शिक्षा-व्यवस्था संचालित हो, जो आबादी के आँकड़ों को बड़े बदलाव से बचा सके, साथ ही अतीत की गलतियों के दुहराव को रोक सके।

इस कार्य के लिए श्रीधर कौल से उपयुक्त व्यक्ति कोई नहीं था। श्रीधर कौल शिक्षा के विकास और विस्तार में महाराजा हरि सिंह के न केवल सलाहकार थे, वरन् कश्मीर में शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने वाले कर्मठ और समर्पित शिक्षाविद् भी थे। ऐसा उल्लेख मिलता है, कि ‘वीमेंस वेलफेयर ट्रस्ट’ की बैठकों में वे अकसर कहा करते थे, कि- “राज्य में एक इलाका अब भी अशिक्षा से जूझ रहा है।” उनका इशारा लदाख अंचल की ओर होता था। इन चिंताओं को ध्यान में रखकर ही महाराजा काश्मीर ने श्रीनगर में बौद्धसभा का गठन किया था। इसके संस्थापक पंडित श्रीधर कौल थे। इस सभा के अध्यक्ष पूज्य स्तगछङ रिनपोछे थे, और वकील पंडित शंभुनाथ धर थे। बौद्धसभा द्वारा एक रिपोर्ट तैयार की गई थी, जिसे ग्लांसी नामक अंग्रेज अधिकारी की अध्यक्षता में गठित ‘ग्लान्सी कमीशन’ को सौंपा गया था। इस कमीशन की गतिविधियों का उल्लेख लदाख के जाने-माने इतिहासकार-साहित्यकार टशी रबग्यस ने किया है। वे ‘मरयुल लदाख के इतिहास का सर्वप्रकाशकादर्श’ में लिखते हैं, कि- “लदाख के बौद्धों के साथ मित्रता रखने वाले सज्जन मित्र थे, जिन्होंने लदाख के लोगों के लिए उस समय अपना विशेष योगदान दिया, जब लदाख के लोग जागरूक नहीं थे।”

श्रीधर कौल संवेदनशील, कर्मठ और सहृदय व्यक्ति थे, फलतः सन् 1939 में उन्हें शिक्षा अधिकारी बनाकर लदाख भेजा गया। अनेक सुविधाओं से संपन्न आज के लदाख में भी जब किसी अधिकारी का स्थानांतरण होता है, तो उसकी तैनाती को किसी सजा से कम नहीं माना जाता। ऐसी स्थिति में सन् 1939 के लदाख की कल्पना-मात्र ही रोंगटे खड़े कर देने वाली होगी। श्रीनगर की हरी-भरी और तमाम सुख-सविधाओं से युक्त अपनी जन्मभूमि से निकलकर रूखे-सूखे और भयंकर ठंडे लदाख अंचल में कौल जी का आगमन होता है। वे इसे किसी सजा के तौर पर नहीं, बल्कि सौभाग्य के रूप में देखते हैं। शिक्षा के लिए जागरूकता उनके जीवन का ध्येय बन जाता है। उस समय के लदाख में आवागमन के साधन नहीं के बराबर थे। लदाख का क्षेत्रफल भी आज से दुगुना था, क्योंकि उस समय गिलगित-बल्तिस्थान तक लदाख की सीमाएँ होती थीं। दुर्गम पहाड़ी रास्तों को उन्होंने पैदल चलकर, घोड़े पर सवार होकर तय किया और गाँव-गाँव में पहुँचकर लोगों को शिक्षा के लिए जागरूक किया।

लदाख के जाने-माने इतिहासकार और साहित्यकार अब्दुल ग़नी शेख बताते हैं, कि पंडित श्रीधर कौल को लोग एक शिक्षक के रूप में सम्मान देते थे, इस कारण वे लदाख अंचल में ‘मास्टरजी डुल्लू पंडित’ के रूप में जाने जाते थे। उनके अनथक प्रयासों से लदाख अंचल में कई स्कूलों की स्थापना हुई। लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई। मास्टरजी प्रत्येक विद्यालय में पहुँचते थे, और शिक्षकों के विकास के लिए सुझाव देते थे। वे बच्चों को आधुनिक शिक्षा के लिए प्रेरित करते थे, ताकि लदाख अंचल के युवा भी सरकारी तंत्र में शामिल हो सकें, अधिकारों के लिए जागरूक हो सकें और विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकें।

श्रीधरजू कौल आर्यसमाज  जुड़े हुए थे। उनके प्रयासों से ही श्रीनगर के रैनाबाड़ी इलाके में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना सन् 1943 में हुई थी। इसके पहले उन्होंने आर्यसमाज की तर्ज पर ‘लदाख बुद्धिस्ट एजूकेशन सोसायटी’ की स्थापना में योगदान दिया था। इस संगठन के माध्यम से लदाख अंचल में शिक्षा के लिए जागरूकता के साथ ही बिगड़ते जनसंख्या संतुलन को सुधारने और अनेक प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं से निपटने के लिए संगठित होने का प्रयास शुरू हुआ था। बाद में यह संगठन ‘यंग मैन बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के रूप में जाना गया। एसोसिएशन के शायद पहले अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन थे। कारपो रिगजिन भी पंडित कौल की तरह समर्पित जनसेवक थे।

मास्टरजी डुल्लू पंडित के लिए नई चुनौती तब सामने आई, जब देश की आजादी निकट आ चुकी थी। सीमांत सुरक्षा की दृष्टि से लदाख की हालत अच्छी नहीं थी। सन् 1947 में देश की आजादी और फिर कश्मीर राज्य में तेजी से बदलती राजनीतिक स्थितियों के बीच डोगरा शासकों के अधीन आने वाला सारा भूभाग दिशाहीन हो चुका था। देश के विभाजन के साथ ही कबाइली आक्रमणकारियों ने गिलगित और स्करदो पर कब्जा कर लिया था। वहाँ की बौद्ध आबादी को विस्थापन और आतंक के कहर से जूझना पड़ रहा था। यही स्थितियाँ बल्तिस्तान से लगने वाली नुबरा घाटी में दुहराई जाने वाली थीं। ऐसी विषम परिस्थितियों में लदाख के युवाओं को संगठित करके ‘नुबरा गार्ड्स’ नामक एक संगठन तैयार किया गया। इसमें बौद्ध युवाओं को जोड़ने का काम ‘यंग बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन ने किया। इसके पीछे पंडित डुल्लू कौल की प्रेरणा थी। वे स्वयं भी युवाओं को इसके लिए प्रेरित कर रहे थे, जागरूक कर रहे थे।

उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में विलय हो जाने के बाद भी लदाख की सुरक्षा के लिए भारतीय फौजें नहीं पहुँच पाई थीं। भारतीय फौजों के लदाख पहुँचने, और लदाख की दुर्गम भौगोलिक स्थितियों के बीच उन्हें सुरक्षा-व्यवस्था मुस्तैद करने में काफी समय लगने वाला था। इसे देखते हुए कारपो छेवांग रिगजिन और पंडित कौल ने श्रीनगर प्रशासन से अनुरोध किया, कि ‘नुबरा गार्ड्स’ को धार्मिक संगठन के स्थान पर सैनिक संगठन का दर्जा दिया जाए, और युवाओं को प्रशिक्षित किया जाए। फलतः नुबरा गार्ड्स ने देश के उत्तरी छोर पर अपना मोर्चा सँभाला।

पंडित कौल ने सन् 1948 में लदाख की रक्षा के लिए एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसे उन्होंने खुद पंडित नेहरू को सौंपा था। लेह-मनाली मार्ग को लदाख के आवागमन के लिए तैयार करने की जरूरत को जिस तरह मास्टरजी डुल्लू कौल ने तत्कालीन रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह और जनरल के.एम. करिअप्पा के सामने रखा था, उसे एक दूरदर्शी चिंतक की सक्रियता से कम नहीं कहा जा सकता। मास्टरजी के प्रयासों से गठित ‘नुबरा गार्ड्स’ को सन् 1963 में ‘लदाख स्काउट्स’ का नाम मिला और यह सेना की स्वतंत्र इकाई के रूप में आज भी सक्रिय है। इन ‘स्नो वारियर्स’, इन ‘स्नो टाइगर्स’ ने नुबरा घाटी से जुड़े बल्तिस्थान के इलाके में सन् 1947-48 में मचाए गए आतंक का बखूबी जवाब 13 दिसंबर, सन् 1971 को दिया था। उस समय अगर कुछ समय तक युद्ध-विराम की घोषणा नहीं होती, तो बल्तिस्थान के पाँच नहीं, पाँच सैकड़ा गाँव आज पाक अधिकृत कश्मीर में नहीं होते।

पंडित श्रीधर कौल का श्रीनगर के रैनाबाड़ी स्थित आवास उनके अपने घर से कहीं ज्यादा लदाख के लोगों के लिए घर जैसा था। इसी कारण उसे लदाख सराय ही कहा जाने लगा था। ऐसा बताया जाता है कि पंडित कौल ने डोलमा नाम की एक गरीब-अनाथ लदाखी बालिका को अपनी दत्तक पुत्री बनाया था। बाद में उन्होंने ही उसका विवाह कराया। श्रीनगर के रैनाबाड़ी में रहकर पढ़ने वाले तमाम लदाखी बालक-बालिकाओं के रहने-खाने का सारा व्यय मास्टरजी ही वहन करते थे। पंडित श्रीधर कौल की दूरदर्शी दृष्टि ने कुशोग बकुल रिनपोछे में जिस राजनीतिक नेतृत्वशक्ति को देखा था, कालांतर में वह उभरकर सामने आई। आज के लदाख के निर्माणकर्ता के व्यक्तित्व का बड़ा अंश श्रीधर कौल के सानिध्य में निर्मित हुआ।

सन् 1948 तक पंडित श्रीधर कौल लदाख में रहे। इसके बाद भी उनका लदाख से संबंध बना रहा। सन् 1952 में वे लदाख से चले गए, किंतु उनके अविस्मरणीय योगदान को, उनकी कर्तव्यनिष्ठा को, उनके महायान बौद्ध धर्म-दर्शन से लगाव को लदाख की जनता विस्मृत नहीं कर सकी। इसी कारण आजाद भारत में जब लदाख के विकास के लिए किसी मार्गदर्शक की जरूरत महसूस हुई, तो लदाख के लोगों ने श्रीघर कौल पर ही अपना भरोसा जताया। लदाखियों द्वारा सन् 1953 में एक ज्ञापन तत्कालीन मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद को भेजा गया, जिसमें पंडित श्रीधर कौल को लदाख मामलों का विशेष सचिव नियुक्त किए जाने की माँग थी। लदाख के लोगों की यह माँग भले ही पूरी न हो सकी हो, किंतु इसने एक निष्काम सेवाव्रती के प्रति आस्थायुक्त जनभावनाओं को अभिव्यक्त कर दिया था।

सन् 1967 में पंडित श्रीधर कौल अपने रैनाबाड़ी स्थित आवास में चिरनिद्रालीन हो गए। लदाख अंचल को जम्मू और श्रीनगर के समान विकसित और सशक्त होते देखने की कामना करने वाले पंडित श्रीधर कौल की अमूल्य राष्ट्रसेवा विस्मृत नहीं की जा सकती। देश के उत्तरी छोर को एकता के सूत्र से बाँधकर रखने वाले, लदाख अंचल में शिक्षा की अलख जगाने वाले पंडित श्रीधर कौल डुल्लू का निष्काम सेवाभाव नींव के पत्थर की तरह है।

-राहुल मिश्र

(मासिक पत्रिका सीमा संघोष, अगस्त, 2021 अंक में प्रकाशित)





Sunday 22 August 2021

भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

 



भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

यह केवल कहने की बात नहीं है, बल्कि इसे देखा भी जा सकता है, और सुना भी...। इसीलिए बात बहुत मार्के की है। नागिन, सपेरा और बीन...इन तीनों का गठजोड़ बहुत पुराना भी है, और स्थापित भी है। इन तीनों को अन्योन्याश्रय-संबंध के साथ हिंदी के सिनेमा ने भी बढ़-चढ़कर दिखाया है। जरा याद कीजिए उन फिल्मों को; जो नागिन, सपेरा और बीन की तिकड़ी को लेकर बनी हैं, या जिनमें इन तीनों का बहुत बड़ा ‘रोल’ दिखाई देता है। ‘नागिन’ छाप फिल्मों में ‘तेरी मेहरबानियाँ’ जैसा झोल नहीं दिखता, कि पोस्टर किसकी मेहरबानियों की बात कह रहा है? पूरी फिल्म में जब कुत्ता साये की तरह साथ नजर आता है, तब कुत्ते का नाम लिखना आखिर क्यों उचित नहीं...। अपन तो सोचा करते थे, कि फिल्म को अगर ‘कुत्ते की मेहरबानियाँ’ नाम दिया होता, तो शायद फिल्म की पटकथा और फिल्म के पोस्टर के बीच तादात्म्य दिखाई दे जाता।

खैर... बात नागिन की हो रही है, तो यहाँ बेझिझक बताना होगा, कि ‘नागिन’ टाइप फिल्में अपने नाम से भटकती नहीं हैं। इसी कारण ये फिल्में अपना तीखा और तेज असर डालती हैं। एक जमाना ऐसा भी था, जब नागिन का जादू ‘आधी दुनिया’ पर सिर चढ़कर बोला करता था। मोहतरमाएँ नागिन की तरह बल खाती थीं, और सपेरे को डस ही लेंगी जैसी अदा में हर समय दिखती थीं। अनेक शायरों के लिए ‘नागिन-सी चाल’ शेर-बहर की पैदाइश के लिए मुकम्मल माहौल बनाती थी। इस सबके बीच बीन भी कम महत्त्व की नहीं होती थी। बीन की धुन के साथ नागिन और सपेरे का नाच फिल्म से निकलकर सड़क तक कब और कैसे आया, इस पर ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। बात आगे बढ़ाने से पहले यह भी बताना कम रोचक नहीं लगता, कि आज भी हारमोनियम के सीखने वाले नए-नवोढ़े संगीतकारों के लिए नागिन की बीन वाली धुन बजाना खासा चैलेंज होता है, और उससे ही सीखने का क्रम आगे बढ़ता है।

नागिन वाला नाच ऐसा सदाबहार नाच है, जिसके बिना कह सकते हैं कि जयमालाएँ नहीं पड़तीं। दुनिया चाहे कितनी भी मॉडर्न क्यों न हो जाए। बारात भले ही शहर में जा रही हो, या गाँव की कच्ची और ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर...नागिन वाले नाच के बिना उसका सौंदर्य निखरता ही नहीं है। पूरे रंग में बारात चली जा रही है और दूल्हे के सगे सब अलग-अलग अदा में नाच रहे हैं। तभी बीच में से एक नागिन निकलकर जाती है, और ब्रास बैंड पार्टी के मुखिया को, यानि म्यूजिक डाइरेक्टर को हिदायत देती है- ए... नागिन.... बजाओ...। तुरंत ही कैसियो पर उंगलियाँ थिरककर ‘ऊँ..हूँ...हूँ...ऊँ.. हूँ... हूँ... हूँ...’ की धुन निकालने लगती हैं। दूसरी तरफ अलग-अलग नृत्य पद्धतियों में नाच रहे बरियाती सब चौंकन्ने हो जाते हैं। ताल बदलकर मुस्तैद हो जाते हैं और कितनी नागिनें और सपेरे एकदम प्रकट हो गए, गिनना कठिन हो जाता है। कभी-कभी नागिन एक ही होती है, और सपेरे कई। सपेरा बनना भी आसान... पतलून से रूमाल निकाला, और एक कोना मुँह में दबाकर दूसरे कोने को दोनों हाथों से पकड़ा, और बस... सपेरे की बीन भी तैयार....। नागिन को इतना कुछ नहीं करना पड़ता। वह अपनी दोनों हथेलियों को फन की तरह बनाकर सपेरों से मुकाबले के लिए उतर पड़ती है। उसके सामने चैलेंज बड़ा होता है... कई-कई सपेरों से बचने का। इसके लिए उसे बार-बार लोटना पड़ता है, उठना पड़ता है, गिरना पड़ता है। सपेरे भी उसे काबू करने के लिए कम जोर आजमाइश नहीं करते। कैसियो की धुन की तेजी के साथ नागिन और सपेरे इस कदर लहालोट होते हैं, कि अपने तन-वसन की सुध भी भूल जाते हैं। गाँवों की कच्ची सड़कों या पगडंडियों पर नागिन-सपेरा का यह मुकाबला दूर से ही आभास करा देता है, धूल के उठते गुबार के जरिये...। अब देखिये... जनवासे से बढ़िया लकालक क्रीज बने हुए कपड़े पहनकर चली नागिनें और सपेरे दुलहिन के दुआर तक पहुँचते-पहुँचते ऐसे लगने लगते हैं, मानों घूर समेटकर आ रहे हों। यकीन मानिए, कि यह चमत्कार बीन की धुन में ही होता है, जो अपने कपड़ों की क्रीज को कम से कम जयमाल के फंक्शन तक न टूटने देने की बारातियों की प्रतिबद्धता को भंग करा देती है।

इतनी बड़ी अहमियत रखने वाली बीन की तौहीन तब होती है, जब वह भैंस के सामने पहुँचती है- भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय..। वैसे भैंस को लेकर और भी कई बातें हैं, जैसे- काला अक्षर भैंस बराबर और अकल बड़ी या भैंस.. आदि। भैंस के साथ इन लोक-कथनों को सुनकर अकसर यही आभास होता है, कि भैंस का पढ़ने-पढ़ाने या दिमागी कार्य-व्यवहारों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। बीन का अपना शास्त्रीय महत्त्व होता है। संगीत की पुरातन व्यवस्था में बीन नामक संगीत का उपकरण अपना स्थान रखता है। बीन का संबंध मन के आह्लाद से भी होता है, उमंग से भी होता है। इसी कारण बीन की धुन पर वह नागिन भी थिरकने लगती है, जिसके कान तक नहीं होते। सर्प प्रजाति के जीवों के कान नहीं होते। बीन की हरकतों को देखकर नागिन थिरकती है। फिर भी हम संगीत के प्रभाव को नकार नहीं सकते। हम संगीत के सुख में डूबने की स्थितियों को नकार नहीं सकते। संगीत जीवन में उमंग और उल्लास भरता है।

भैंस को संगीत से कोई मतलब नहीं होता। उसके दो कान भी होते हैं, देख भी सकती है, लेकिन न तो बीन की धुन ही उसे उद्वेलित करती है, और न ही बीन की कलात्मक थिरकन....। आँख और कान होते हुए भी उसके लिए उल्लास और उमंग कोई मायने नहीं रखते। जीवन का आह्लाद, जीवन की उमंग से वह कोसों दूर रहती है। एकदम वीतरागी होकर वह बीन के सामने खड़ी रहती है, पगुराती रहती है। संगीत उसके लिए नीरस है, उसके पास अपनी खुशी है, केवल पगुराने में...। उसके पास खुशी का कोई कारण बीन की धुन से खुश होने का नहीं है। ठीक उसी तरह, जिस तरह उसके लिए काला अक्षर होता है। जिस तरह वह अपने आकार-प्रकार से अकल को ‘चैलेंज’ करती है।

भैंस के प्रति ये नकारात्मक विचार कहे जा सकते हैं। भैंस की अपनी संस्कृति, अपनी पहचान की चिंता के पीछे उसके वीतरागी हो जाने की स्थितियों को छिपाया जा सकता है। बेशक भैंस बड़ी होती है। अकल छोटी होती है, क्योंकि अकल तो दिखाई भी नहीं पड़ती। इसी अकल के भरोसे अगर भैंस के चिंतन की गंभीरता का आकलन करें, तो कह सकते हैं, कि उसे बीन के संगीत के सामने अपनी चिंतन की गंभीरता को कुरबान कर देना उचित नहीं लगता। इसी कारण वह चिंतन की अतल गहराइयों में डूबे हुए बीन की धुन को ‘इग्नोर’ करती है। ऐसा करके वह अपनी महानता की, अपनी गंभीरता की, अपने गंभीर चिंतन की लाज रखती है।

अब आप कह सकते हैं, कि फिर उसे पगुराना क्यों होता है, और वह भी खड़े रहकर? दरअसल भैंस का खड़े रहना और पगुराना, दोनों ही उसके व्यक्तित्व से जुड़े हुए पहलू हैं। खड़े रहकर वह अपनी सक्रियता का बोध कराती है। वह यह बताती है, कि उसकी सक्रियता नायाब है। अगर वह बैठ जाएगी, तो उसके साथ सबकुछ बैठ ही जाएगा। एक जागरूक और चिंतनशील ‘परसन’ के लिए खड़े रहना कई कारणों से जरूरी होता है। और पगुराना भैंस का गुणधर्म है। अपनी चिंतनशीलता और अपने विकराल भौतिक व्यक्तित्व के आवरण के पीछे उसे पगुराना होता है, हजम करना होता है, बहुत सारी योजनाओं को, व्यवस्थाओं को, लोगों के सपनों को, विचारों को, कभी-कभी जीवन को...। वह जुगाली नहीं करती, पगुराती है। पगुराना एक क्रिया है, कई पुश्तों के लिए। मौका मिलते ही जल्दी-जल्दी अपने उदर में भर लो, और फिर लंबे समय तक उसे पगुराते रहो। ‘ऊपर की कमाई’ जल्दी-जल्दी खाकर तीन पुश्तों के लिए पगुराने का इंतजाम...। भैंस इसी कारण एक अलग चरित्र गढ़ती है। वह बीन पर ध्यान नहीं देती। उसका ध्यान पगुराने पर होता है। आखिर बीन से उसे क्या हासिल होने वाला है?

राहुल मिश्र


अमृत विचार, बरेली में 13 दिसंबर, 2020 को प्रकाशित


Friday 30 July 2021

 

श्रीकृष्ण रास मंडल बरास्ता वक्त पाजेब-सा मेरे पैरों में बँध.....

किड़...र्र..र्र...र्र...किड़-किड़.. धम्म... हे प्रभु गिरिधर.. गोवर्धनधारी... अब राखो पत हमारी...हम आए सरन तिहारी... किड़-धम्म-धम्म... और वक्त पाजेब-सा मेरे पैरों में बँध, धड़कनों के संग सुर मिलाया करे..साज़ बजते ही साथी देखो यहाँ, रौनकें दिल में सबके बढ़ाया करे... के साथ ही हे मात तेरे चरणों में..आकाश झुका देंगे...आँसू न बहा माता, मोती न लुटा माता.. जैसे बोल बाँदा के उन तमाम बाशिंदों के लिए स्मृतियों की मधुर पूँजी बनकर आज भी संचित होंगे, जिन्होंने बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के संधिकाल में अपनी तरुणाई को देखा होगा। आज के तमाम युवाओं के लिए भी यादों में ये पंक्तियाँ होंगी, किंतु यहाँ सीमा-रेखा खींचकर बताना इसलिए आवश्यक हो गया, क्योंकि इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दशक में आई ‘इंटरनेट क्रांति’ ने अचानक ही बहुत बड़ा बदलाव ला दिया था। और इस बड़े बदलाव ने सामूहिक मनोरंजन के केंद्रों को तेजी के साथ सिकोड़ दिया, चाहे बात सिनेमाघरों की हो, या फिर रंगमंचीय परंपराओं की हो..।

नगाड़े की धमक और ढोलक की थापों के बीच गूँजते ऐसे चौबोलों, कड़ों, दोहों, दौड़, लँगड़ी दौड़, लावनी और लँगड़ी लावनी जैसे छंद-विधानों और सुर-लय-तालों के साथ जुड़ी हुई हैं, बाँदा के ठठराही मोहल्ले के श्रीकृष्ण रास मंडल की स्मृतियाँ...। बाँदा नगर की धुर पुरानी आबादी के बीच स्थित वह ठठराही मोहल्ला, जिसके साथ छोटी बाजार की पहचान भी शामिल है..., चौक-बाजार या बड़ी बाजार के अस्तित्व में आने के बाद से ही..। वैसे तो ठठराही को ताँबे, पीतल, काँसे के पुराने बर्तनों का अस्पताल भी कहा जा सकता है, क्योंकि यहाँ साल-भर बर्तनों की ठक-ठक गूँजती ही रहती है, मगर वसंत पंचमी के आने के साथ ही इस मोहल्ले में कुछ ऐसी सांस्कृतिक हलचलें भी बढ़ने लगती हैं, जिनका संबंध श्रीकृष्ण रास मंडल से जुड़ता है। होलिकादहन के बाद आने वाली पंचमी से शुरू होने वाली रासलीला के लिए तैयारियाँ वसंत पंचमी से ही शुरू हो जाती हैं। इसमें एक तरफ कलाकार अपने अभिनय की तैयारी करते हैं, तो दूसरी तरफ रंग-रोगन करके रंगमंच को व्यवस्थित करने का क्रम चल निकलता है। वैसे तो रंगशाला ज्यादा पुरानी नहीं है। पुराने जमाने में मंचन के लिए सड़क में ही तखत बिछाकर और उनके ऊपर चाँदनी लगाकर मंच तैयार कर लिया जाता था। समय और स्थितियों के बदलाव के साथ, और लोगों के आकर्षण व लगाव के कारण ऊँचा और पक्का मंच अस्तित्व में आया, जिसे आज भी देखा जा सकता है। रंगशाला के दोनों तरफ से गुजरने वाले रास्तों के कारण यह अपनी स्वाभाविक भौगौलिक स्थिति के कारण ही थियेटर के बड़े परदे जैसा बन गया है। बाकी की कमी दूर तक चली जानी वाली चौड़ी सड़क के दोनों किनारों पर बने मकानों के चबूतरों ने पूरी कर दी है, जो दर्शकों के बैठने के लिए अच्छा और ऊँचा स्थान उपलब्ध करा देते हैं।

अगर अतीत में उतरकर देखें, तो साफ नज़र आता है कि होली की पंचमी के आने के साथ ही श्रीकृष्ण रास मंडल के ऊँचे मंच के निकट के मकानों के चबूतरों पर अस्थाई कब्जा कर लेने की होड़ चल पड़ती थी। घरों के मालिकान अपने-अपने घरों के छज्जों में बैठकर, तो दूर-दराज से आने वाले दर्शकगण मकानों के चबूतरों में बैठकर रासलीला का आनंद लिया करते थे। नजदीक की, और अच्छी वाली जगह की तलाश के लिए शायद पंचमी की सुबह का इंतजार भी नहीं किया जाता होगा, ऐसा भी कहा जा सकता है, क्योंकि अच्छी जगह के लिए बड़ी मारामारी होती थी, यहाँ तक कि कई बार झगड़े भी हो जाया करते थे। होली की पंचमी से दस दिनों तक चलने वाली रासलीला के लिए दर्शकों द्वारा तय की गई जगह, जिसे धुर बुंदेलखंडी में छेकी गई जगह कहा जा सकता है, पूरे के पूरे दस दिनों के लिए आरक्षित हो जाती थी। पूरे दिन चबूतरों पर बिछी रहने वाली फट्टियाँ और बोरे इस बात को बखूबी बता दिया करते थे, कि लोगों में रासलीला और स्वाँग देखने के लिए कितना आकर्षण होता था।

कमोबेश ऐसा ही आकर्षण स्थानीय कलाकारों के लिए भी होता था, जिन्हें रासमंडली में बतौर कलाकार काम करने का मौका मिल जाता था। लोकनाट्य विधाओं के प्रति आकर्षण रखने वालों के लिए श्रीकृष्ण रास मंडल का दस दिवसीय आयोजन किसी बड़े ‘इवेंट’ से कम नहीं होता था, और श्रीकृष्ण रास मंडल गीत-संगीत-अभिनय आदि में रुचि रखने वाले स्थानीय लोगों को एक अवसर उपलब्ध कराने का माध्यम बन जाता था। इसी कारण जिस कलाकार को रास मंडली में अभिनय का मौका मिलता, वह गर्व से फूला नहीं समाता था। पुराने समय में महिला कलाकारों के लिए ऐसे मंच वर्जित होते थे, इस कारण महिला पात्रों का अभिनय भी पुरुष ही करते थे, और वह भी ऐसा जबरदस्त, कि सचमुच की महिलाएँ भी हार मान बैठें। इन कलाकारों की छाप लोगों के मन में ऐसी बैठती थी, कि मंच के बाहर भी उनकी अपनी एक पहचान बन जाती थी। दिमान हरदौल का अभिनय करने वाले रिछारिया जी, सरदार भगत सिंह और भक्त मोरध्वज का अभिनय करने वाले पन्नालाल स्वर्णकार, शालिग्राम गुप्त, फुल्ले महाराज और ग्याल महाराज जैसे नामचीन कलाकार भले ही आज इस दुनिया में न हों, लेकिन उनके अभिनय-कौशल को आज भी लोग याद करते हैं।

चैत्र मास की कृष्ण प्रतिपदा से लेकर पंचमी तक चलने वाले होलिकोत्सव का रंग उतरते-उतरते कृष्ण पंचमी, यानि रंगपंचमी के आगमन के साथ ही बाँदा और इसके आसपास के गाँवों का उत्सवधर्मी समाज श्रीकृष्ण रास मंडल की लीलाओं को देखने के लिए तैयार हो जाता, साल-भर की लंबी प्रतीक्षा के बाद....। मगर बुंदेलखंड में रासलीला?.... श्रीकृष्ण की लीलाओं का मंचन....? यह तो रामलीलाओं की भूमि है.... चित्रकूट में कोल-भीलों के बीच दोना-पत्तलों में कंद-मूल-फल खाने वाले वनवासी श्रीराम की भूमि है... राजा के रूप में विराजमान ओरछा के अधिष्ठाता श्रीराम की भूमि है, गोस्वामी तुलसीदास के श्रीरामचरितमानस की पंक्तियों को रात-दिन गुनगुनाने वाली.. रग-रग में जोश भर देने वाले आल्हा के गवैयों की भूमि है... तब यहाँ कन्हैया जी अपनी लीलाओं के साथ कैसे आ गए? यह बड़ा प्रश्न श्रीकृष्ण रास मंडल का जिक्र होते ही अनेक लोगों के मन में उठ खड़ा होता होगा। प्रश्न भी स्वाभाविक ही है.. और उत्तर बुंदेलखंड की अपनी अनूठी पहचान में निहित है। समन्वय का भाव बुंदेलखंड के कण-कण में बसा है। अगर प्रभु श्रीराम चित्रकूट में, रामराजा ओरछा में विराजते हैं, तो ओरछा में ही दिमान हरदौल भी पूजे जाते हैं, लोकदेवता के रूप में..। गोंडों के आदिपुरुष ग्योंड़ी बाबा के प्रति जनआस्थाएँ भी देखी जाती हैं। चंदेलों-बुंदेलों के आराध्य शिव और शक्ति के प्रतीकों को, परमालों-प्रतिहारों की देवियों को लोग बड़ी आस्था के साथ पूजते हैं। बुंदेलखंड की सतत् संघर्षशील प्रवृत्ति के बीच लोकरक्षकों का वजन लोकरंजक से कुछ ज्यादा रहा, संभवतः इसी कारण प्रलयंकर शिव, शक्तिस्वरूपा चंद्रिका और महेश्वरीमाता, और दुष्टों के संहारक श्रीराम अपेक्षाकृत अधिक स्थान जनआस्थाओं में पा सके, बजाय लीलाधारी नटवरनागर कन्हैया जी के...। बुंदेलखंड की रामलीला बहुत प्रसिद्ध है, और उसमें भी राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद का प्रसंग तो दूर-दूर तक अपनी ख्याति रखता है, किंतु कृष्ण की लीलाएँ इस क्षेत्र की पहचान से नहीं जुड़ी हैं। इस कारण से भी श्रीकृष्ण रास मंडल का वैशिष्ट्य बढ़ जाता है, क्योंकि इस रंगमंच ने बुंदेलखंड की अनूठी समन्वय की प्रवृत्ति को पिछले दो-ढाई सौ वर्षों से जीवंत करके रखा है। इसी विशेषता के आधार पर यह भी कहा जा सकता है, कि समूचे बुंदेलखंड में श्रीकृष्ण की रासलीलाओं के मंचन का यह सबसे पहला, इकलौता और पुराना केंद्र होगा।

अगर मथुरा की रासलीला का बुंदेलखंडी संस्करण श्रीकृष्ण रास मंडल में होने वाली माखनचोरी, चंद्रखिलौना, कंसवध और नाग-नथैया जैसी लीलाओं में देखा जा सकता है, तो अलग-अलग कथानकों पर आधारित स्वाँग की परंपरा का विस्तार भी यहाँ देखने को मिलता है। कलगी और तुर्रा नाम के ख्यालबाजी के अखाड़ों से निकली स्वाँग की परंपरा हाथरस, वृंदावन और मथुरा में विशेष रूप से देखी जा सकती है। इसको विस्तार देने का काम हाथरस वाले पंडित नथाराम शर्मा गौड़ ने किया। वस्तुतः उनके आगमन के साथ ही नौटंकी के स्वाँगों का लिखित रूप तैयार होने लगा था, जिसने रंगमंचों को व्यवस्थित करने का बड़ा काम किया। गुरु-शिष्य के रूप में चलने वाली परंपरा में स्वाँग की पुस्तकों के आगमन के साथ ही संवादों को, संगीत की धुनों को तैयार करना सरल हो गया। हाथरस की स्वाँग की यह परंपरा श्रीकृष्ण रास मंडल में भी दिखाई देने लगी। इसमें बड़ी भूमिका गुरु-शिष्य परंपरा की भी रही है, जो आज भी कायम है। पंडित नथाराम शर्मा गौड़ द्वारा रचित स्वाँगों की तर्ज पर श्रीकृष्ण रास मंडल में भी स्वाँग लिखने और मंचन करने की शुरुआत हुई। इसमें सबसे बड़ा नाम फूलचंद्र गुप्त बताशेवाले का आता है। उन्होंने वभ्रुवाहन नामक स्वाँग लिखा था। फूलचंद्र गुप्त रास मंडली से भी जुड़े हुए थे, इस कारण उन्होंने स्थानीय दर्शकों की रुचि के अनुसार संवादों और भाषा को रखा, शायद इसी कारण वभ्रुवाहन स्वाँग को जनता के द्वारा बहुत पसंद किया जाता था। वभ्रुवाहन स्वाँग के साथ ही वीर अभिमन्यु, भक्त मोरध्वज और राजा हरदौल के स्वाँग भी बहुत प्रसिद्ध रहे हैं, जिनका मंचन हर साल किया जाता रहा है। इन स्वाँगों को देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ती थी। बुंदेलखंड की अपनी पहचान, बुंदेलखंडी लोकगायकी, जैसे- लमटेरा, फाग, दादरा, रसिया, कजरी, उमाह, कछियाई, राई आदि को दस दिवसीय रासलीला का प्रमुख आकर्षण कहा जा सकता है। बुंदेलखंड के लोकगायकों के लिए यह मंच बड़ा अवसर उपलब्ध कराता था। इस मंच के गायकों को दूसरे स्थानों में भी विशेष मान-प्रतिष्ठा मिलती थी।

वक्त पाजेब-सा मेरे पैरों में बँध, धड़कनों के संग सुर मिलाया करे.. लावनी की ये पंक्तियाँ श्रीकृष्ण रास मंडल के संदर्भ में एकदम खरी उतरती हैं, क्योंकि ठठराही मोहल्ले का यह साधारण-सा आयोजन समय और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभाने में पीछे नहीं रहा है। समय के साथ आते बदलावों की हर हरारत को इसने अपने में उतारा है। श्रीकृष्ण की भक्ति-विषयक लीलाओं और दशावतार के मंचन के बाद मनोरंजन के लिए इसमें स्वाँगों के माध्यम से सामाजिक समस्याओं, कुरीतियों-बुराइयों के प्रति लोगों को सचेत करने का काम बखूबी होता रहा। इतना ही नहीं, देश की आजादी के आंदोलन के दौरान, और उसके बाद भी श्रीकृष्ण रास मंडल अपनी रंगमंचीय प्रस्तुतियों के माध्यम से समय और समाज के साथ निरंतर जुड़ा रहा है। आजादी के आंदोलन में पारसी रंगमंचों की बड़ी भूमिका रही है। अंग्रेजों के कोप से बचने के लिए रंगमंच में इस तरह से प्रस्तुतियाँ दी जाती थीं, कि क्रांतिकारियों का संदेश लोगों तक पहुँच भी जाए, और अंग्रेजों की पकड़ में भी न आए। कमोबेश ऐसा ही दायित्व उस कालखंड में श्रीकृष्ण रास मंडल ने भी निभाया। पौराणिक पात्रों के साथ ही राजा हरदौल और भक्त मोरध्वज जैसे स्वाँगों के मंचन में देश की आजादी के आंदोलन के साथ जुड़ने के संदेश निहित होते थे। देश की आजादी के लिए शहीद होने वाले क्रांतिकारियों के जीवन का मंचन करके लोगों के मन में पहले आजादी की अलख जगाने, और आजादी के बाद इन क्रांतिवीरों की स्मृतियों को जीवंत रखने में भी रास मंडल की बड़ी भूमिका रही है। रासलीलाओं के क्रम में आने वाले शहीद भगत सिंह नाटक में सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त आदि क्रांतिकारियों के जीवन को उतारा जाता था। इतना ही नहीं, दुर्गा भाभी जैसी वीरांगनाओं को भी इन नाटकों में दिखाया जाता था। सरदार भगत सिंह का स्वाँग भी बहुत प्रसिद्ध रहा है, और इसे देखने के लिए भी भारी भीड़ इकट्ठी हुआ करती थी। अगर रंगपंचमी से दस दिनों के भीतर 23 मार्च आ जाता था, तो सरदार भगत सिंह का मंचन 23 मार्च, अर्थात् सरदार भगत सिंह के बलिदान दिवस पर ही होता था। यह क्रम आज भी अनवरत जारी है।

बाँदा के इस अनूठे रंगमंच के नामचीन कलाकार कस्सी गुरु की मृत्यु नब्बे वर्ष की आयु में हुई थी, उनकी मृत्यु को लगभग तीस वर्ष हो चुके हैं। कस्सी गुरु बताया करते थे, कि उनके बाबाजी ने रहस के मंचन को देखा था। अपने बाबा से प्रेरित होकर ही कस्सी गुरु रास मंडल से जुड़े थे। कस्सी गुरु के बताने के अनुसार पंचलैट के उजाले में बिना ध्वनि-विस्तारक यंत्रों की मदद के, अस्थायी मंच बनाकर जितने उत्साह के साथ दस दिनों तक रासलीलाओं का आयोजन होता था, वह निश्चित तौर पर आज के समय में कल्पनातीत है। नक्कारे की धमक भी ऐसी होती थी, कि बाँदा के आसपास के लगभग बीस-पचीस किलोमीटर के दायरे में आने वाले गाँवों के लोग इकट्ठे हो जाते थे। कभी-कभी सिर पर आ गए सूर्यदेव की परवाह किए बिना लोग डटे ही रहते थे, मानों पूरे स्वाँग को देखकर ही उठने का प्रण लेकर आए हों....कब रात गुजर गई, कब दिन चढ़ आया, इससे बेखबर...। कस्सी गुरु की बातों का सहारा लेकर अगर श्रीकृष्ण रास मंडल का काल-निर्धारण किया जाए, तो यह परंपरा सीधे तौर पर दौ सौ वर्षों से अधिक पुरानी नजर आती है।

वैसे ठठराही के ही प्रेम चच्चा, उर्फ बैरागी डॉक्टर उर्फ प्रेम श्रीवास्तव जी के पास भी इस रंगशाला से जुड़ी ढेरों स्मृतियाँ थीं। आज उनको दिवंगत हुए कई वर्ष गुजर गए हैं, किंतु उनकी मोहक वंशी की धुन को कभी भुलाया नहीं जा सकता। अपने नाम के अनुरूप ही वे बैरागियों जैसा तंबा और बंडी पहनते थे। होम्योपैथी के अच्छे जानकार थे, साथ ही गीत-संगीत से विशेष लगाव रखते थे। यही एक कारण था, जो उनको श्रीकृष्ण रास मंडल से जोड़े हुए था। उनकी परंपरा को उनके बेटे प्रशांत ने आगे बढ़ाया है। वंशी, ढोलक, हारमोनियम आदि विभिन्न वाद्य-यंत्रों में पारंगत प्रशांत जी की श्रीकृष्ण रास मंडल में सक्रियता सुखद है, सुंदर है। आज पुरानी पीढ़ी के तमाम कलाकार या तो दिवंगत हो चुके हैं, या फिर शारीरिक रूप से अक्षम हो चले हैं। ऐसी स्थिति में उनके वंशजों ने दो सौ साल पुरानी इस परंपरा को जिलाए रखने का यत्न किया है, जो कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण है, सराहनीय है।

श्रीकृष्ण रास मंडल के प्रमुख कर्ता-धर्ता श्री बसंतलाल जी सर्राफ एक ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जिन्होंने लंबे समय तक सभी को जोड़कर रखा है, और इसके लिए वे आज भी सक्रिय हैं, अपनी बढ़ती उम्र की विवशता के बाद भी...। किंतु उनकी वेदना आज के बदलते समय को लेकर है। सूचना और संचार क्रांति ने बहुत कुछ बदल दिया है। लोगों के पास उपलब्ध दूसरे तमाम मनोरंजन के साधनों ने, दौड़ती-भागती जिंदगी ने श्रीकृष्ण रास मंडल की उस पुरानी हनक को ठेस पहुँचाई है, जिसके बूते इस रंगमंच ने समाज का मनोरंजन भी किया, समाज को नसीहतें भी बाँटीं और बुंदेली माटी की पहचान को जिलाए रखा। बसंतलाल जी के सुपुत्र विजय जी की पीढ़ी भी उसी सक्रियता के साथ परंपरा को निभाती जा रही है, किंतु तेजी से बदलते समाज और दौड़ती-भागती जिंदगी के बीच सामूहिक रूप से बैठकर कुछ मनोरजंन कर लेने, अपनी सांस्कृतिक पहचान को दुहरा लेने और लोकजीवन का सहकार-सानिध्य पा लेने के अवसर घटते जा रहे हैं; या यूँ कहें, कि हम अपनी जिंदगी के जरूरी कामों की सूची से इन्हें हटाते जा रहे हैं। संभवतः इसी कारण बुंदेलखंड का यह अनूठा रंगमंच अपने लगभग दौ सौ वर्षों के गौरवपूर्ण अतीत को समेटकर अस्तित्व के लिए संघर्ष करने को विवश हो गया है।

राहुल मिश्र

(दमोह की हटा नगरपालिका द्वारा प्रकाशित वार्षिक पत्रिका-  बुंदेली दरसन- 2018 में प्रकाशित)