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Wednesday 15 May 2024

धन्य भरत जय राम गोसाईं

 

धन्य भरत जय राम गोसाईं

अयोध्या से चित्रकूट की ओर पूरी अयोध्या नगरी ही चल पड़ी है। अयोध्या की देखभाल करने के लिए कुछ वृद्ध और अशक्तजन ही बचे हैं, जो लंबी यात्रा नहीं कर सकते। अनेक लोग अपनी अक्षमता के बाद भी यात्रा पर चल पड़े हैं। एक कसक, एक टीस जो रह-रहकर उभरती रही थी, उसके समाधान का मार्ग अब इस यात्रा में ही सूझ रहा है। सभी के पैरों की गति मानों यही बता रही है। यह यात्रा कोई सहज-साधारण यात्रा नहीं है। राजपरिवार के सभी जन, नर-नारी, बालक-युवा सभी एकसाथ चले जा रहे हैं। इस यात्रा का अनुष्ठान भरत ने किया है। भरत अयोध्या के भावी राजा हैं, क्योंकि राजा दशरथ परलोक सिधार चुके हैं, और उनक दिए गए वचन के अनुसार राम को वनवास मिला है, भरत को अयोध्या का राजपाट मिला है। दृष्टि भरत पर जाकर टिक जाती है। भरत पैदल जा रहे हैं, और देखने वाले एक भावी राजा के तन और मन, दोनों की गतियों को देख रहे हैं-

मानव ही नहीं देवता तक वह दृश्य निहार लजाते हैं,

हैं साथ पालकी अश्व बहुत, पर भरत ‘पयादे’ जाते हैं ।

हे जग के धनवानों, देखो धन रहते धनपति निर्धन हैं,

यह राजयति की छवि है, यह शाही फकीर के दर्शन हैं ।

रामलीला में यह प्रसंग इतना मार्मिक और भावुक कर देने वाला होता है, कि दर्शकों की आँखें गीली हो जाती हैं। रामलीला के विभिन्न प्रसंगों की लीलाओं में भरत-मिलाप की लीला का अपना ही महत्त्व है। रामकथा के ऐसे प्रसंग, जो अपना एक विशिष्ट स्थान रखते हैं, और लोक के महत्त्व के लिए जिनका मंचन अनिवार्य समझा जाता है, उनमें सर्वप्रमुख लीला भरत-मिलाप की होती है। भरत-मिलाप के पूर्व अयोध्या की दशा का अत्यंत मार्मिक वर्णन विभिन्न रामकथाओं में है। महाकवि कंबन, जो रामकथा रचकर महर्षि के रूप में प्रतिष्ठित हुए, उनकी कंब रामायण में अत्यंत मर्मस्पर्शी वर्णन मिलता है। लगभग बारह सौ वर्ष पूर्व रचित तमिल के महाकाव्य- कंब रामायण में विरह से व्याकुल अयोध्या नगरी का वर्णन मिलता है। अयोध्या महाराजा दशरथ के परलोकगमन की वेदना से कहीं अधिक व्याकुल राम के वियोग से है। इस पर भी भरत ने अयोध्या के राजपाट को स्वीकारा नहीं है। लेकिन भरत ने यह घोषणा कर दी है, कि वे वनवासी राम को मनाने के लिए जाएँगे, और मनाकर ले आएँगे। इस घोषणा के कारण सारी अयोध्या चैतन्य हो उठी है। वियोग के अनेक उपमानों-प्रतीकों-बिंबों के मध्य उमंग-उल्लास का परस्पर विरोधाभासी वर्णन कितने सुंदर तरीके से कंब रामायण में हुआ है, देखते ही बनता है। राम को ले आने के लिए अयोध्या के समग्र जन-समुदाय का चल पड़ना, गजों-अश्वों का प्रस्थान, मार्ग के विविध प्रसंग आदि कंब रामायण में विस्तार से मिलते हैं।

कथा-वाचस्पति, श्रीहरिकथा विशारद, कविरत्न राधेश्याम कथावाचक ने अपनी राधेश्याम रामायण में भरत-मिलाप का सुंदर वर्णन किया है। चित्रकूट में राम और लक्ष्मण के सामने भरत का पहुँचना कोई साधारण घटना नहीं थी। पूरे सैन्य-बल के साथ वनवासी राम के सम्मुख भरत का आगमन लक्ष्मण के मन में संदेह पैदा कर देता है। कुछ रामायण-पाठों में राम और सीता भी संदेह से भरे हुए दिखते हैं। लेकिन राधेश्याम रामायण में अत्यंत भावुकतापूर्ण वर्णन है, जो अन्यत्र इस भाँति तो नहीं ही मिलता है। लक्ष्मण के मन का संदेह आज कुछ कर गुजरने को है। कोल-भीलों द्वारा दी गई सूचना और सूचना की सत्यता प्रकट करते लक्षण अवश्य ही संदेह पैदा करते हैं, लेकिन राम विचलित नहीं होते हैं। उनका धैर्य और मन का विश्वास अडिग है। उन्हें भरत पर भरोसा है, कि वे किसी दुर्भावना के साथ यहाँ नहीं आए होंगे। वे लक्ष्मण को रोकते हैं, सचेत करते हैं, लेकिन लक्ष्मण मानते नहीं हैं। अचानक एक बावला सामने आकर खड़ा हो जाता है, और पूरा परिवेश ही एकदम बदल जाता है। राधेश्याम कथावाचक कहते हैं-

नंगे   थे   पाँव   बावले  के—कीचड-मिट्टी   में   लिसे  हुए ।

कुछ कुछ  बह रहा रक्त भी था, काँटे भी थे कुछ चुभे हुए ।।

थे  काले  बाल  धूलि-धूसर,   पीले   मुखड़े   पर   पड़े  हुए ।

जिस  भाँति   भयानक  आँधी  में  श्रीसूर्य देव हों छिपे हुए ।।

उस पर उसकी  उस हालत पर, दर्दीली चितवन जमा तुरत ।

आगे  को  सीतानाथ    बढ़े—आजानु   भुजाएँ   बढ़ा  तुरत ।।

वह व्याकुलता थी  बढ़ने की, धनु कहीं कहीं पर तीर गिरा ।।

महि पर-तर्कश के  साथ-साथ  वह मुनियोंवाला चीर गिरा ।।

बावला   चाहता   है  पहले  रघुवर  को  शीश  झुका  लूँ मैं ।

रघुवीर—चाहते   हैं   पहले    छाती  से  उसे  लगा  लूँ  मैं ।।

आखिर  रघुवर की विजय हुई, हाथों पर उठा लिया उसको ।

वह  चरण  छुए  उससे  पहले छाती से लगा लिया उसको ।।

जब हृदय हृदय का मिलन हुआ-तो दूर विरह का ताप हुआ ।

अब  सबने  देखा— ‘चित्रकूट’ में  ऐसे-'भरत-मिलाप’ हुआ ।।

चित्रकूट का पावन-पुनीत स्थल दो भाइयों के अगाध-असीम स्नेह का भी साक्षी बनता है। शंकाएँ दूर हो जाती हैं। मन के विषाद मिट जाते हैं। चित्रकूट तो वैसे भी अवलोकन-मात्र से विषादों को हर लेने वाला है। यहाँ अयोध्या की प्रजा अपने प्रिय राम को देखकर आह्लादित है। माता कैकेयी, सुमित्रा, कौशल्या आदि माताओं के साथ ही गुरुजन उपस्थित हैं। विदेहराज जनक भी भरत की इस यात्रा का समाचार पाकर सीधे चित्रकूट आ जाते हैं। विंध्य की छाँह तले चित्रकूट गिरि, चित्रकूट परिक्षेत्र अब अनजाना-सा नहीं रह जाता। मिथिला के राजा जनक, निषादराज गुह, अयोध्या का पूरा राजपरिवार और समूची सेना चित्रकूट में जुट जाती है। चित्रकूट की भूमिका एक नए रूप में प्रकट होती है।

भक्तकवि सूरदास के लिए भरत और राम का मिलन बहुत भावुक कर देने वाला है। सूरदास ने इस मेल के प्रसंग का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। रामकथा पर लिखे उनके पदों का संकलन सूर-राम चरितावली में है। भक्तकवि सूरदास कहते हैं-

   भ्रात मुख निरखि राम बिलखाने।

मुंडित केस सीस, बिहबल दोउ, उमँगि कंठ लपटाने ।।

तात-मरन  सुनि  स्रवन कृपानिधि  धरनि  परे मुरझाइ ।

मोह-मगन, लोचन जल-धारा,  विपति न हृदय समाइ ।।

लोटति धरनि परी  सुनि सीता,  समुझति नहिं समुझाई ।

दारुन दुख दवारि ज्यों तृन-बन, नाहिंन बुझति बुझाई ।।

दुरभ   भयौ   दरस   दसरथ कौ,  सो  अपराध   हमारे ।

‘सूरदास’  स्वामी  करुनामय,   नैन     जात   उघारे ।।

राजा दशरथ का परलोकगमन श्रीराम को विचलित कर देता है। अयोध्या का दुर्योग ऐसा था, कि राजा दशरथ के प्राणांत के समय उनका कोई भी पुत्र वहाँ उपस्थित नहीं था। पुत्र-वियोग से कहीं अधिक भाई-भाई के मध्य विवाद का दंश राजा दशरथ को भीतर ही भीतर तोड़ रहा होगा, ऐसा प्रतीत होता है। अयोध्या इस विषम काल की प्रत्यक्षदर्शी बनती है, लेकिन चित्रकूट...। यहाँ आज सत्ता के सारे केंद्र सिमटकर इकट्ठे हो गए हैं। राजा दशरथ के परलोकगमन के बाद अयोध्या किसकी होगी, यह तय करने का काम आज चित्रकूट के हिस्से आ गया है।

चित्रकूट में भरत-मिलाप कोई सामान्य घटना नहीं रह जाती, वरन् भविष्य की कार्य-योजना तय करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो जाती है। श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी इस प्रसंग की गंभीरता को प्रस्तुत करते हैं। उनके लिए भरत पूज्य हैं, वंदनीय हैं। भरत और राम के प्रेम का वर्णन वे विस्तार के साथ करते हैं। चित्रकूट में राम और भरत का मिलन दैवलोक तक हर्ष और उल्लास का प्रसार करता है-

धन्य  भरत  जय  राम  गोसाईं ।  कहत  देव  हरषत  बरिआईं ।।

मुनि मिथिलेस सभाँ सब काहू । भरत बचन सुनि भयउ उछाहू ।।

भरत  राम  गुन  ग्राम   सनेहू ।  पुलकि   प्रसंसत   राउ  बिदेहू ।।

अयोध्याकांड में प्रसंग आता है, कि अयोध्या के सभी नर-नारी चित्रकूट पहुँचते हैं, और पाँच दिनों तक रुकते हैं। छठवें दिन सभी प्रस्थान करते हैं। भरतजी एक विश्वास अपने मन में लेकर आए थे, कि वे अपनी माता के अपराध का प्रायश्चित्त भी करेंगे और श्रीराम को अयोध्या ले आएँगे। यदि इतने से बात नहीं बनी, तो वे स्वयं वन में रुक जाएँगे, और श्रीराम को अयोध्या जाने के लिए कहेंगे। पाँच दिनों तक इस विषय को लेकर मंथन चलता है। इसी अवधि में विंध्य गिरि के तले एक प्राचीन पवित्र सिद्ध-स्थल में कूप तैयार कर, उसमें सभी तीर्थों का जल डालकर स्थान को नया नाम भरतकूप का दिया जाता है। भरतजी इस अवधि में चित्रकूट के सभी दर्शनीय स्थलों का भ्रमण करते हैं, और चित्रकूट में रम रहे श्रीराम के गुणों का श्रवण कर आनंदित होते हैं। पाँच दिनों के मंथन का नवनीत छठवें दिन निकलता है। इसी दिन सबको अयोध्या के लिए प्रस्थान भी करना है। मानस में भरत-मिलाप के प्रसंग का छठवाँ दिन बड़े महत्त्व का है। बाबा तुलसी लिखते हैं-

भोर  न्हाइ  सबु  जुरा समाजू ।  भरत  भूमिसुर  तेरहुति  राजू ।।

भल दिन आजु जानि मन माहीं । राम कृपाल कहत सकुचाहीं ।।

करि  दंडवत  कहत कर जोरी ।  राखीं नाथ सकल रुचि मोरी ।।

मोहिं  लगि सबहिं  सहेउ संतापू ।  बहुत भाँति दुखु पावा आपू ।।

अब  गोसाईं  मोहि  देउ रजाई ।  सेवौं  अवध  अवधि भर जाई ।।

जेहिं  उपाय  पुनि  पाय   जनु   देखै  दीनदयाल ।

सो सिख देइअ अवधि लगि कोसलपाल कृपाल ।।

आरति  मोर  नाथ कर   छोहू ।  दुहुँ मिलि कीन्ह दीठु हठि मोहू ।।

यह बड़ दोषु दूर करि स्वामी । तजि सकोच सिखइअ अनुगामी ।।

भरत  बिनय सुनि सबहिं  प्रसंसी । खीर नीर  बिबरन  गति हंसी ।।

अनुकूल समय जानकर भरत जी अपनी बात कहते हैं। राम और भरत का स्नेहभाव ही यहाँ बचा है। बीच का कलुष-कल्मष धुल चुका है। दोनों भाइयों के बीच स्नेह की अविरल मंदाकिनी, मंदाकिनी के तीर पर बह रही है। राम को अयोध्या का राजपाट नहीं चाहिए। भरत को भी ‘अवधि भर’ के लिए ही अवध को पालना है, फिर राम को वापस लौटा देना है। संपत्ति का मोह दोनों में से किसी को नहीं है। भरत स्वयं ही श्रीराम से कहते हैं, कि मेरे आर्त भाव ने, और आपके आत्मीय प्रेम ने मुझे हठी बना दिया है, इसी कारण मैं हठ कर रहा हूँ। मेरे दोष को दूर करके, और अपने संकोच को मिटा करके आप अपने इस अनुगामी को सीख दें, कि मैं किस तरह से ‘अवधि भर’ के लिए अवध का पालन करूँ?

मोर   तुम्हार  परम  पुरषारथु । स्वारथु   सुजसु  धरम   परमारथु ।।

पितु   आयसु  पालिहिं  दुहु  भाई ।  लोक  बेद  भल  भूप  भलाई ।।

गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें । चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ।।

अस  बिचारि सब सोच बिहाई । पालहु  अवध  अवधि  भर  जाई ।।

श्रीराम कहते हैं, कि मेरा और तुम्हारा परम पुरुषार्थ, परमार्थ, स्वार्थ, धर्म और सुयश सभी कुछ इसी में है, कि हम दोनों ही भाई पिता की आज्ञा का पालन करें, ताकि लोक और शास्त्र दोनों में राजा का हित हो, अर्थात् राजा की मान-प्रतिष्ठा को कहीं पर भी कोई ठेस न पहुँचे। गुरु, पिता, माता और स्वामी की शिक्षा का पालन करने पर कुमार्ग में चलने पर भी पैर नीचे नहीं पड़ता, कर्म में पतन नहीं होता है। ऐसा विचार मन में रखते हुए चिंता को त्याग करके जाओ और ‘अवधि भर’ के लिए अवध का पालन करो।

दोनों भाइयों की स्थिति एकदम स्पष्ट है। दोनों को केवल अपने-अपने भाग्य के कर्म करने हैं। अयोध्या का साम्राज्य दोनों में से किसी के मन में लेशमात्र भी लालच उत्पन्न नहीं कर पाता है। चित्रकूट की पुण्यश्लोका धरा साक्षी बनती है, कि अयोध्या का समृद्धशाली साम्राज्य किस तरह कंदुक-सम दोनों भाइयों के बीच एक पाले से दूसरे पाले में जा रहा है। दोनों में से कोई भी अपनी सीमा का उल्लंघन नहीं कर रहा। यह हमारी सनातन परंपरा का ऐसा जाज्वल्यमान उदाहरण है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। और इस प्रसंग को बाबा तुलसी ने इतना विस्तार से लिखा, तो आखिर क्यों? बाबा तुलसी का रचनाकाल भारत की पराधीनता का समय था। विदेशी आक्रांताओं के साम्राज्य कैसे बनते-बिगड़ते थे, यह बाबा तुलसी ने देखा था। पिता अपने पुत्र को बंदी बना रहा था, तो पुत्र अपने पिता और भाइयों की हत्या करके बादशाह बन रहा था। इस विषमता के कालखंड में बाबा तुलसी की लेखनी भरत और राम के प्रेम को विस्तार से बखानती है, पथभ्रष्टों को रास्ता दिखाती है।

श्रीराम से भरत पूछ रहे हैं, और राम बता रहे हैं-

मुखिया  मुख  सो  चाहिए  खान पान कहुँ एक ।

पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ।।

राजधरम  सरबसु एतनोई ।  जिमि मन माँह मनोरथ गोई ।।

बंधु प्रबोध कीन्ह बहु भाँती । बिनु अधार मन तोषु न साँती ।।

मुखिया को मुख की भाँति होना चाहिए। उसे भेदभाव नहीं करना चाहिए। मुख खान-पान में एक होता है, लेकिन जो भी ग्रहण करता है, उससे सारे शरीर का पालन विवेकपूर्ण ढंग से करता है। जिस तरह मन में मनोरथ छिपे होते हैं, और अन्य कार्य-व्यवहार उससे निकलकर प्रकट होते हैं, उसी प्रकार राजधर्म होता है। राजधर्म का सार भी इतना ही है। भरत जी के लिए ये सीख दिशा-निर्देशक बन जाती है, किंतु उन्हें भौतिक आधार के बिना संतोष नहीं होता। राम अपनी चरण पादुकाएँ उतारकर दे देते हैं। भरत उन्हें अपने सिर पर रख लेते हैं। वाल्मीकि रामायण के दाक्षिणात्य पाठ में हेमभूषित पादुकाएँ बताई गईं हैं, तो गौड़ीय पाठ में शरभंग ऋषि द्वारा भेजी गईं कुश-पादुकाओं को राम द्वारा दिए जाने की बात कही गई है। जातक कथाओं में पादुकाओं द्वारा न्याय किए जाने की बात आती है।

भरत के लिए राम की चरण पादुकाएँ संबल बनती हैं। वे विधिवत् उन्हें सिंहासन में स्थापित करते हैं। स्वयं नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहते हैं।

राम  मातु  गुर  पद सिरु नाई ।  प्रभु  पद पीठ  रजायसु पाई ।।

नंदिगाँव  करि परन कुटीरा ।  कीन्ह निवासु  धरम  धुर धीरा ।।

जटाजूट  सिर  मुनिपट धारी ।  महि खनि कुस साँथरी सँवारी ।।

असन बसन बासन ब्रत नेमा ।  करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा ।।

भूषन  बसन  भोग सुख  भूरी ।  मन तन  बचन  तजे तिन तूरी ।।

अवध  राजु  सुर राजु सिहाई ।  दसरथ  धनु सुनि धनदु लजाई ।।

तेंहि  पुर बसत भरत बिनु रागा ।  चंचरीक  जिमि  चंपक बागा ।।

भरत के लिए अयोध्या का राजपाट सुखभोग के लिए नहीं है। वे कठिन साधना करते हैं, ऋषिधर्म का निर्वाह करते हैं। जिस अयोध्या नगरी की समृद्धि को देखकर देवता भी ललचाते हैं, जिस अयोध्या नगरी की संपन्नता को सुनकर धनपति कुबेर भी लजाते हैं, उस अयोध्या नगरी का मोल भरत के लिए तृण के समान है। जैसे चंपक के वन में भौंरा रहता है, वैसे ही संसक्ति से विहीन होकर भरत रह रहे हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने भरत द्वारा अयोध्या के राजपाट के संचालन का विशद-व्यापक वर्णन किया है। वे समकालीन परिस्थितियों के मध्य एक दीपस्तंभ की तरह भरत को प्रस्तुत करते हैं। सत्ता के मद में, शक्ति के अहंकार में, धन के घमंड में चूर समाज के समक्ष वे भरत को प्रस्तुत करते हैं। मानस में भरत का विराट व्यक्तित्व प्रकट होता है। रामराज्य की बात बार-बार कही जाती है। यह रामराज्य स्थापित कैसे हुआ, इस प्रश्न का उत्तर तुलसी के मानस में मिलता है। जब भरत जैसा शासक संसक्तिविहीन होकर राजपाट को चलाता है, तब राजमद नहीं होता। जब शासक आसक्ति से मुक्त होकर संन्यस्त-भाव से राजपाट को चलाता है, तब राजमोह नहीं होता। वह अपने दायित्व को ‘अवधि भर’ निभाने से आगे नहीं जाता, अपना अधिकार नहीं जताता। वह निर्विकार-निर्लिप्त भाव से सत्ता सौंप देने के लिए तत्पर रहता है, तैयार रहता है। रामराज्य तभी बनता है। रामराज्य के प्रवर्तक-संस्थापक भरत बनते हैं। भरत ही रामराज्य स्थापित कर पाते हैं। इसी कारण राम के सबसे प्रिय भरत हैं। लक्ष्मण से भी अधिक....। इसी कारण लक्ष्मण के मन में उठने वाली शंका पर राम मौन रहते हैं, लक्ष्मण को समझाते हैं। राम भरत को लेकर आश्वस्त हैं, इसी कारण वे लक्ष्मण के मन में उठी शंकाओं का शमन करते हैं, उन्हें समझाते हैं।

भरत और राम का मिलन इसी कारण रामकथा में, रामलीलाओं में अपना विशेष महत्त्व रखता है। भरत और राम का मिलन रामकथा में दो बार आता है। भरत-मिलाप के दो प्रसंग हैं। एक चित्रकूट में, दूसरा अयोध्या में...। एक वनवास गए राम के साथ, दूसरा वन से लंका-विजय करके लौटे राम के साथ...। वाराणसी में दूसरे भरत-मिलाप का प्रसंग खेला जाता है। वाराणसी की नाटी इमली की रामलीला बहुत प्रसिद्ध है। वैसे तो शिव की नगरी में जब राम उतरते हैं, तो सारी नगरी ही एक रंगमंच बन जाती है। कहीं लंका, तो कहीं अयोध्या...। पूरे वाराणसी में रामलीला के अलग-अलग प्रसंग अलग-अलग स्थानों में खेले जाते हैं। एकदम अनूठा ही रंग दिखता है। नाटी इमली की रामलीला भरत-मिलाप के प्रसंग से जुड़ी है।

राम ने लंका को जीत लिया है। विभीषण को लंका का राजपाट सौंप दिया है, और स्वयं अयोध्या की ओर चल पड़े हैं। भरत, जो नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रह रहे हैं, उनके पास समाचार आता है, कि राम अयोध्या पहुँच रहे हैं। भरत की हठ है, कि राम यदि सूर्य ढलने के पहले उनसे आकर नहीं मिलेंगे, तो वे अपने प्राण त्याग देंगे। यह हठ राम के स्नेह के कारण है, दोनों भाइयों के आपसी प्रेम की प्रगाढ़ता के कारण है। अनेक लोगों से मिलते-मिलते राम को देर हो जाती है, और राम अचानक चिंतित हो उठते हैं, भरते के लिए। उधर सूरज ढलने को है। राम दौड़कर जाते हैं, और भरत को गले लगा लेते हैं। यह प्रसंग नाटी इमली की रामलीला में इसी भाव के साथ खेला जाता है। मैदान में एक विशेष स्थान पर जब ढलते सूरज की किरणें पड़ रहीं होती हैं, तब राम और भरत का मिलाप होता है। उपस्थित जन-समुदाय भावावेश में विह्वल हो उठता है। इस रामलीला को देखने स्वयं काशी नरेश आते हैं।

भरत और राम के प्रेम को रामकथाओं के साथ ही लोकजीवन ने अपनाया है। इसी कारण भरत-मिलाप की लीला लोक को सुहाती है। लोककथाओं में भरत और राम का प्रेम दिखता है। गोस्वामी तुलसीदास के लिए भरत आदर्श हैं, प्रेरणा के स्रोत हैं। वे बार-बार अपने आराध्य श्रीराम से भरत के गुण कहलाते हैं-

लखन  तुम्हार  सपथ पितु आना ।  सुचि सुबंधु नहिं भरत समाना ।।

भरतु  हंस  रबिबंस  तड़ागा ।   जनमि  कीन्ह  गुन  दोष बिभागा ।।

कहत   भरत  गुन  सील सुभाऊ ।   पेम  पयोधि  मगन  रघुराऊ ।।

जौं न होत जग जनम भरत को । सकल धरम धुर धरनि धरत को ।।

कबि कुल  अगम  भरत गुन गाथा ।  को जानइ तुम्ह बिनु रघुनाथा ।।

यदि भरत न होते, तो संसार में समस्त धर्मों की धुरी कौन धारण करता। भरत तो धर्म की धुरी हैं। श्रीराम भरत के गुणों के गायक हैं, वाचक हैं, प्रस्तोता हैं। भरत के गुणों की कथा अगम्य है, और श्रीराम के बिना उन गुणों को कोई नहीं जान सकता।

वाराणसी में नाटी इमली की भरत-मिलाप की लीला के साथ लोकमान्यता जुड़ी है, कि श्रीराम स्वयं इस लीला में उपस्थित होते हैं। बाबा तुलसी द्वारा स्थापित रामलीलाओं के मंचन की परंपरा को मेधा भगत ने आगे बढ़ाया था। मेधा भगत को श्रीराम ने नाटी इमली की रामलीला स्थली में दर्शन दिए थे। श्रीराम का भरत के प्रति अगाध प्रेम लोक को भाता है, क्योंकि लोक इस भाव से रस-संचय कर अपने लिए सीख लेता है, अपने को सीख देता है। गोपीगंज की भरत-मिलाप की लीला भी बहुत प्रसिद्ध है। भाइयों के बीच निष्काम प्रेम-भाव, परिवार के मेल-जोल और निर्विकार-निर्लिप्त राजशासन की भावना भरत-मिलाप की लीला को हर स्थान पर प्रिय बनाती है। चित्रकूट के साथ जितना गहरा संबंध राम का है, उतना ही गहरा संबंध भरत का भी है।

चित्रकूट ने भरतजी के त्याग को, उनके समर्पण को, उनके निर्विकार भाव को, उनके सहज आत्मीय स्वभाव को देखा है। इसी कारण आज भी चित्रकूट में भरतजी की जय-जयकार होती है। रामघाट की संध्या आरती में, विभिन्न मंदिरों की आरती में आज भी भरत जी के नाम का जयकारा लगाया जाता है। लोक सदा से ही राम को धन्य कहता आया है, और भरत की जय-जयकार करता आया है। लोक की आकांक्षा भरत-मिलाप की लीला में पूर्ण होती है।

-राहुल मिश्र

(वार्षिक कर्तव्य मार्ग, जम्मू के वर्ष-2, अंक-2, 2024 में प्रकाशित)

Saturday 19 March 2022

पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

 


पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

पूर्वोत्तर भारत, भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश। किसी समय इस समग्र प्रदेश को ‘नेफा’, यानि ‘नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ के नाम से जाना जाता था। ईशान्य ही ‘नार्थ-ईस्ट’ है। भारतीय वाङ्मय के अंतर्गत आने वाले शिल्पशास्त्र में वास्तुशिल्प का अपना विशिष्ट स्थान है और इसे विधिवत् शास्त्र की संज्ञा दी जाती है। वास्तुशिल्पशास्त्र में ईशान्य का विशेष महत्त्व बताया गया है। ईशान, अर्थात् हरमहेश्वर रुद्र और प्रकृति के आदिपुरुष शिव से भी इस दिशा को पहचान सकते हैं। वास्तुपुरुष मंडल में उत्तर-पूर्व की दिशा मस्तक की होती है। यह ग्रहाधिपति सूर्य की दिशा होने के कारण सर्वाधिक ऊर्जावान होती है। इस कारण प्रवेश-द्वार, द्वारमंडप और ध्यान-पूजा इत्यादि के लिए इस दिशा को सर्वथा उपयुक्त बताया गया है। भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश, या पूर्वोत्तर प्रदेश इसी दृष्टि से अत्यंत समृद्ध, प्राचीन और विशिष्ट है। इसी कारण भक्ति के भावों की व्याप्ति पूर्वोत्तर के कण-कण में है। इसी कारण पूर्वोत्तर के जीवन में भक्ति के भाव रचे-बसे हुए हैं।

भक्ति-साहित्य, स्वंय में एक रूढ़ शब्द है, जो काल-विशेष में रची गई भक्तिपरक रचनाओं का द्योतक है। मध्यकाल के पूर्वार्ध में, सन् 1350 से 1650 ई. के आसपास दक्षिण भारत के भक्तकवियों की रचनाओं के उत्तर भारत में आते प्रभावों के फलस्वरूप उत्तरभारत के भक्तकवियों द्वारा रची गई भक्तिपरक रचनाएँ ही सामान्यतः भक्ति-साहित्य की श्रेणी में रखी जाती हैं। इसी कारण भक्तिकाल और भक्ति-साहित्य एक विशेष कालखंड और उस कालखंड में रची गई रचनाओं के लिए रूढ़ हैं। इस दृष्टि से अगर देखें, तो पूर्वोत्तर भारत के भक्ति-साहित्य के अनुशीलन हेतु एक सीमारेखा बनी हुई प्रतीत होने लगती है, जो स्वयं में संकुचित और अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों-विषयों को अपनी परिधि से बाहर छोड़ देती हुई दिखाई पड़ती है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य को इस सीमारेखा में बाँधकर जानना-परखना इसी कारण उचित नहीं होगा।

इस निश्चित सीमा से अलग हटकर यदि भक्ति के भाव से ओतप्रोत साहित्य को देखें, तो सृष्टि के आदिम काल से ही भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य दिखाई पड़ने लगता है, जिसमें श्रद्धा और प्रेम का सम्मिश्रण मानवीय अभिव्यक्तियों में मुखर होता है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को इसी दृष्टि से यहाँ बताने का प्रयास किया गया है। पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृति अपने स्वरूप और अपने परिचालन में इतनी प्राचीन है, कि उसमें श्रद्धा और प्रेम के भाव, जिन्हें सम्मिलित रूप में भक्ति कह सकते हैं, सृष्टि की दृश्य-अदृश्य शक्तियों के प्रति प्रकट होते रहे हैं। इसका प्रथम दर्शन पूर्वोत्तर के शिष्ट या लिखित साहित्य से कहीं आगे प्रकीर्ण साहित्य में होता है; लोकगीतों, किस्सों-कथाओं, लोकनृत्यों आदि में होता है।

अविभाजित पूर्वोत्तर, अर्थात् भाषायी-जातीय-क्षेत्रीय पहचान के आधार पर आठ अलग राज्यों में बँटे पूर्वोत्तर का प्राचीन स्वरूप ऐसा रहा है, जहाँ जनजातीय समूहों के बीच प्रकृति की पूजा का क्रम अलग-अलग विधि-विधानों के साथ एकसमान रूप से चलता रहा है। यही एक तत्त्व विभिन्न भाषायी-जनजातीय विभेदों को किनारे रखकर समूचे पूर्वोत्तर को एक सूत्र में बाँधे रहा है। प्रकृति की पूजा में भी प्रकृति के आदि पुरुष और प्रकृति की आदिशक्ति, अर्थात् शिव और शक्ति की पूजा होती रही है। असम के बोडो जनजातीय समूह में दिवा और दिवि को आद्य देवी-देवता की मान्यता प्राप्त है। ये शिव और पार्वती के प्रतीक हैं। इसी प्रकार देउरी जनजातीय समूह में गिरा और गिराची की पूजा होती है। लालुंग समूह फा महादेव को अपना आदिदेव मानते हैं और स्वयं को उनका ही वंशज मानते हैं। तिवा (लालुंग) आदिवासियों द्वारा पूजा हेतु स्थापित किया जाने वाला त्रिपद, त्रिनेत्रधारी शिव का ही प्रतीक होता है। पूर्वोत्तर भारत के लगभग सभी जनजातीय समूहों में शिव के अनेक रूप प्रचलित हैं। शिव को शक्ति के साथ ही पूर्णता मिलती है। ये शिव किसी मंदिर में विराजने वाले नहीं हैं, अलौकिक सिंगार करने वाले भी नहीं हैं। आदिम-आदिवासी जीवन में रचे-बसे हुए हैं। इसी कारण पूर्वोत्तर के अनेक लोकगीतों- लोककथाओं में वे पूरी तरह से देशी रूप में, भंग-धतूरे के सेवनकर्ता और फक्कड़ दिखाई देते हैं। शिव का यह स्वरूप आदिवासी जीवन के अत्यंत निकट होने के कारण ही सहजता के साथ जन-स्वीकार्य हो जाता है। शिव का पशुपति रूप भी यहाँ बहुत प्रचलित है। नंदी की उपस्थिति गौवंश के प्रति जनजातीय आस्था को पुष्ट करती है। अनेक रीति-रिवाजों में गौपूजन अनिवार्य होता है।

असम का बिहू पूर्वोत्तर भारत की पहचान से जुड़ा हुआ पर्व है। यह भी गौपूजन के बिना संपन्न नहीं होता है। वस्तुतः यह पर्व प्रकृति के विभिन्न उपादानों के प्रति आस्था और श्रद्धा का पर्व है। बहाग (वैशाख), काति (कार्तिक) और माघ बिहू के तीन बड़े आयोजनों के साथ ही पूर्वोत्तर के अलग-अलग क्षेत्रों में बिहू के कुछ अन्य स्थनीय संस्करण भी होते हैं। बिहू पर्व की इतनी विविधता और पर्व में कृषि के साथ जुड़े उत्सवों की प्रधानता बिहू के प्रकृतिपूजक स्वभाव को व्याख्यायित करती है। जब प्रकृति वसंत के विभिन्न रंगों से रंग जाती है, तब बहाग बिहू अपने स्थानीय नाम, अर्थात् रंगाली बिहू के रूप में मनाया जाता है। काति बिहू का दूसरा नाम कंगाली बिहू भी है, जो कि कार्तिक के समय किसानों के खाली अन्न-भांडारों या कंगाली को प्रकट करता है। रिक्तता का अपना उत्सव है। तुलसी चौरे की पूजा के साथ ही खेतों में दीपक जलाकर अच्छी फसल की कामना करते हुए कंगाली बिहू अनाज के कोठारों को खूब भर देने की कामना के साथ मनाया जाता है। माघ बिहू को भोगाली बिहू भी कहते हैं, जिसमें धन-धान्य से परिपूर्ण भोग-आनंद का उत्सव होता है। फसल की कटाई के साथ कृषि-प्रधान जीवन में उमंग और उल्लास भर जाता है, जो इस पर्व में प्रकट होता है। सोलुंग, सोरी, दारांग, माहोहो, आओलिं मोन्यु, चांग नागा समुदाय का ‘नाक्नयुलेम’ पर्व, लेपचा समुदाय का ‘तेंदोंग-ल्हो-रम-फत’ और मिजो समुदाय का ‘न्हुआई-पुई’ आदि पर्व-अनुष्ठान अलग-अलग तरीकों से प्रकृति पूजा के साथ जुड़े हुए हैं। इन पर्वों-अनुष्ठानों में लोकगीतों, लोककथाओं और लोकनृत्यों का विशेष स्थान होता है। इनके माध्यम से आदिवासी समूह प्रकृति के प्रति अपनी श्रद्धा और अपने प्रेम को प्रकट करते आए हैं। प्रकृति-पूजा के साथ ही इन पर्वों-अनुष्ठानों में आदिवासी समुदायों के आदिपुरुषों, वीर योद्धाओं के जीवन-चरित और उनकी कथाएँ भी जुड़ती चली गईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश में ‘आबो-तानी’ के नाम से ऐसे शक्तिशाली पुरुष को पूजा जाता है, जो लोगों को प्राकृतिक आपदाओं और संकटों से बचाने वाला है। इसी कारण वे ‘आबो-तानी’ को अपना जन्मदाता मानते हैं। ‘आबो-तानी’ की छः संताने हैं, जो अलग-अलग जनजातीय पहचान बना चुकी हैं। इनको तानी वर्ग का जनजातीय समूह कहा जाता है। यह समूह मानता है, कि दोइनि-पोल्लो (सूर्य-चंद्र) आकाश में विराजते हैं और दुनिया के सारे कर्मों-कुकर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। ये अच्छे लोगों का मार्गदर्शन भी करते हैं और बुरे लोगों को दंड भी देते हैं। सूर्य और चंद्रमा की पूजा प्रकृति से जुड़ी हुई है। नदी, तारे, झरने, वन आदि की पूजा पूर्वोत्तर के प्रकृतिपूजक समाज की आस्थाओं को व्याख्यायित करती है।

मणिपुर का मैतेयी जनजातीय समूह ‘सने-मही’ की पूजा करता है। ‘सने-मही’ मुख्य रूप से प्रकृति के देवता हैं। इनके प्रति समूचे पूर्वोत्तर में आस्था देखी जा सकती है। ‘सने-मही’ मत का मैतेयी में लिखा आदिग्रंथ है- पूया। यह वस्तुतः ‘पू’ और ‘याथङ्’ से बना है, जिसका अर्थ है- पूर्वजों द्वारा दिये गए निर्देश। इस ग्रंथ में ‘लाइ-हाइ-लाओबा’, अर्थात् भगवान् के आनंद, के साथ ‘लाइ-हराओबा’ नामक पर्व को जोड़ा गया है। भगवान को आनंद प्रकृति के निर्माण और संचालन में आता है, अपनी सृष्टि को प्रसन्न देखने में आता है। इस कारण ‘लाइ-हराओबा’ सीधे-सीधे सृष्टि की उत्पत्ति की अवधारणा और प्रकृति की पूजा से जुड़ जाता है। यह पर्व अनेक नृत्यों, लोकगीतों और पर्वानुष्ठानों का समन्वित रूप है। इसमें उमंगलाई, अर्थात् वन के देवी-देवताओं की पूजा होती है। पोखरों-तालाबों की पूजा होती है। इसमें तीन सौ से अधिक ग्रामदेवी-देवताओं की पूजा होती है, पूर्वजों की पूजा होती है।

‘लाइ-हराओबा’ के इस दीर्घ नृत्य-नाट्यानुष्ठान में पूर्वोत्तर की उस वैचारिकता की झलक भी मिलती है, जो सृष्टि की उत्पत्ति और मानव के सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों के प्रति सजग रही है। यह धार्मिक नृत्य-नाट्यानुष्ठान इसी कारण प्रेमकथाओं की उपस्थिति के बाद भी विशुद्ध रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष को स्वयं में जीवंत रखता है। सृष्टि के निर्माण और संचालन में नर-नारी की उपस्थित, उनकी लौकिक-ऐहिक भाव-भंगिमाएँ असंयमित नहीं करती हैं; मन में विकृत भावों को, कामोत्तेजना को उत्पन्न नहीं करती हैं। यह समग्र अनुष्ठान पुस्तकीय ज्ञान से इतर सामाजिक-सांस्कृतिक शिक्षा का अद्भुत माध्यम बन जाता है।

‘लाइ-हराओबा’ के नृत्य-नाट्यानुष्ठान का एक महत्त्वपूर्ण अंश होता है- ‘खंबा-थोइबी’ नृत्य। यह भी नाट्य-नृत्य है। इसमें लोककथा भी समाहित है। ‘खंबा’ एक साधारण युवक है, और ‘थोइबी’ राजकुमारी है। मणिपुर का पुरातन नगर है- मोइरङ। यह मोइरङ वंश के 52 प्रतापी शासकों की राजधानी रहा है। ‘खंबा-थोइबी’ की उत्पत्ति भी इसी प्राचीनतम नगर में हुई है, ऐसी मान्यता ‘मोइरङ परब’ नामक मणिपुरी महाकाव्य में व्यक्त हुई है। खंबा-थोइबी 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के ऐसे नायक-नायिका हैं, जिन्होंने प्रेम की अनूठी परिभाषा को समाज के सामने रखा था। अनाथ खंबा की बहन खाममू ने मेहनत-मजदूरी करके, और भीख माँग-माँगकर खंबा को पाला था। थोइबी मोइरङ राजपरिवार की राजकुमारी थी। मोइरङ राजा और उनके भाई के बीच वह इकलौती संतान थी। खंबा और थोइबी के पवित्र प्रेम के बीच कोङ्ग्याङ्बा आ जाता है। वह मोइरङ राजपरिवार के विश्वस्त अधिकारी का बेटा है। तमाम कथा-प्रसंगों के बीच खंबा और थोइबी का प्रेम सफल हो जाता है, किंतु जरा-सी एक भूल होती है, और थोइबी के हाथों खंबा की हत्या हो जाती है। अंत में थोइबी भी आत्महत्या कर लेती है।

इस लोकनाट्य-नृत्य में नटराज की अनेक नृत्यमुद्राएँ आती हैं। इस कारण यह नृत्य-नाट्य शिव के तांडव और नटराज रूप से भी जुड़ जाता है। धूनी रमाने वाले, वन-प्रांतरों में निवास करने वाले शिव को ‘खंबा’ में, और राजा हिमांचल की पुत्री राजकुमारी पार्वती को ‘थोइबी’ में देखते हुए ‘खंबा-थोइबी’ नामक यह लोकनृत्य-नाट्य शिव-पार्वती की कथा से जुड़ जाता है। भले ही शिव और पार्वती के जीवन की कथा पूरी तरह से खंबा-थोइबी की कथा से मेल न खाती हो, फिर भी इस प्रेमकथा में शिव और पार्वती के आगमन से यह ऐसे प्रेमाख्यानक काव्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसे भक्तिकाल की प्रेममार्गी काव्यधारा के पूर्वोत्तरीय संस्करण के रूप में देख सकते हैं। शिव के साथ शक्ति के रौद्र और सौम्य रूप, यथा- कामाख्या और त्रिपुरसुंदरी पूर्वोत्तर में शाक्त-साधना के प्रतीक हैं।

पूर्वोत्तर की एक अन्य प्रमुख जनजाति है- मिकिर। यह स्वयं को ‘करबी’ भी कहती है। ‘करबी’ का स्थानीय बोली में अर्थ होता है- मनुष्य। ये स्वयं को ब्रह्मा से उत्पन्न मानते हैं। इस प्रकार ये देव से उत्पन्न मनुष्य हैं। इस समुदाय के द्वारा पूर्वजों के श्राद्धकर्म के समय लोकगीत गाया जाता है, जिसमें किसी महान पक्षी द्वारा अनेक अंडे दिये जाने का वर्णन मिलता है। मिकिरों या करबियों के अनुसार ये अंडे ब्रह्मा के दिये हुए थे, और इन अंडों में से ही मनुष्यों की अलग-अलग प्रजातियाँ उत्पन्न हुईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश के लोहित जनपद में परशुराम कुंड है। यह कुंड मिशिम प्रदेश के हृदय में स्थित है। अरुणाचल प्रदेश की जनजातीय व्यवस्था में मिश्मी जनजाति की बड़ी संख्या है। पुराने समय में ये परशुराम कुंड की व्यवस्था करने और यात्रियों से कर वसूलने का काम करते थे। मिश्मी लोग स्वयं को कुंडिनपुर के राजा भीष्मक के पुत्र रुक्मि का वंशज मानते हैं। रुक्मिणी के अनुरोध पर श्रीकृष्ण ने शिशुपाल से रुक्मिणी के विवाह को रुकवाया था, और स्वयं विवाह किया था। इस पर रुक्मि और श्रीकृष्ण के मध्य भयंकर संघर्ष भी हुआ। कहा जाता है, कि रुक्मिणी के कहने पर श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का ऐसा प्रहार किया, कि रुक्मिणी के भाई रुक्मि का अजीब तरीके से केश-कर्तन हो गया। इस कारण आज भी मिश्मी समुदाय के लोग बहुत छोटे केश रखते हैं। इसी तरह हार से दुःखी मिश्मी समुदाय के लोग अपने कपाल पर ‘कॉपलि’ नामक चाँदी का पट्टा धारण करते हैं।

आज के नागालैंड का दीमापुर हिडिंबापुर से विकृत होकर बना है, ऐसा माना जाता है। नागालैंड का एक जनजातीय समूह स्वयं को अज्ञातवासी भीम की पत्नी हिडिम्बा का वंशज मानता है। दीमापुर में  स्थित हिडिम्बा के बाड़ा में चौसर खेल की बड़ी-बड़ी गोटियाँ जैसी प्रस्तर आकृतियाँ रखी हैं, जिनसे किसी जमाने में भीम और उनका पुत्र घटोत्कच चौसर खेला करते थे, ऐसी भी मान्यता है।

बृहत् असम, अर्थात् कामरूप अर्थात् प्राग्ज्योतिष का राजा शैलाधिपति भगदत्त अपने किरात सैनिकों, अर्थात् वर्तमान नागालैंड के मूल निवासियों को साथ लेकर कौरवों की तरफ से महाभारत के युद्ध में लड़ने के लिए गया था। कुरुवंशीय राजा ययाति के पुत्र द्रहु की 38वीं पीढ़ी के राजा त्रिपुर से त्रिपुरा को अपना यह नाम मिला था। महाभारत का गंधर्वलोक, अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा का नैहर और अर्जुन के पुत्र बभ्रुवाहन द्वारा संचालित राजवंश का जीवंत साक्ष्य आज का मणिपुर है।

पूर्वोत्तर की तीवा (लालुंग) जनजाति अपने को माता सीता का वंशज मानती है। इसी प्रकार करवी जनजाति स्वयं को बालि और सुग्रीव का वंशज मानती है। पूर्वोत्तर में रामकथा का आगमन वाल्मीकि की रामायण के साथ होता है। इसके अतिरिक्त बंगाल की कृत्तिवासी रामायण का प्रभाव पूर्वोत्तर में पड़ा। 14वीं-15वीं शताब्दी में माधव कंदली द्वारा रचित सप्तकांड रामायण पूर्वोत्तर के लिखित भक्तिसाहित्य का पहला ग्रंथ कहा जा सकता है। यह देववाणी के रूप में नहीं, बल्कि लौकिक कथा के रूप में है, इस कारण बृहत् असम के लोकजीवन और प्रकृति के अनेक चित्र इसमें दिखाई पड़ते हैं। असमीया रामायण में सीता की अग्निपरीक्षा के प्रसंग में राम और सीता का संवाद भी है। इसमें अग्निपरीक्षा के लिए कहने पर सीता बहुत क्रोधित होती हैं। अन्य रामकथाओं की तरह असमीया रामकथा की सीता अबला नहीं दिखती हैं। यह प्रसंग पर्वतीय महिलाओं की संघर्षशीलता और उनके साहस को प्रकट करता है।

तिवा जनजाति में ‘रामायने खरङ्’ नाम से रामकथा का मौखिक रूप प्रचलित रहा है। इसमें वाल्मीकि रामयण के विभिन्न कथा-प्रसंग अलग-अलग लोकगीतों के रूप में आते हैं। ‘लिकछा लामाङ्’ खामति जनजाति की रामकथा है। इसमें बौद्ध प्रभाव है, और जातक कथाओं के प्रसंग भी इसमें आते हैं। करवी समुदाय में ‘छाबिन-आलुन्’ नामक लोकगीत गाए जाते हैं। ये लोकगीत रामकथा के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित होते हैं। चूँकि ये लिखित रूप में नहीं थे, इस कारण अलग-अलग गीत-खंडों में अलग-अलग कथाएँ होती हैं। ‘छाबिन-आलुन्’ का संकलित रूप ही करवी रामायण कहलाता है। इसमें करवी समुदाय का जीवन, उनका रहन-सहन और उनकी सांस्कृतिक विशिष्टताएँ समग्र रूप में समाहित हो गईं हैं। उदाहरण के रूप में, करवी रामायण के राम और लक्ष्मण परंपरागत झूम खेती करते हैं। राजा जनक भी झूम खेती करते हैं। सीता अपने पिता के लिए कलेवा लेकर, साथ ही धान से बनी देशी मदिरा लेकर खेत में जाती है। एक बार सीता अपने घर में साफ-सफाई करते समय भारी-से लोहे के धनुष को उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख देती हैं, और तब जनक यह तय करते हैं कि वे अपनी बेटी का विवाह ऐसे वीर युवक से करेंगे, जो इस धनुष को तोड़ देगा। तिवा, खामति और करवी रामकथाओं के लोक-संस्करणों की तरह अन्य जनजातीय समूहों में रामकथाएँ प्रचलित हैं। इन सभी में एक समानता है, कि इनमें जनजातीय-पर्वतीय जीवन इस तरह से घुला-मिला है, कि रामकथा और राम इन्हीं जनजातीय समूहों के अपने होकर रह गए हैं।

ये पूर्वोत्तर के जनजातीय समाजों के श्रद्धा और प्रेम के भाव ही कहे जाएँगे; जिन्होंने राम, कृष्ण, ब्रह्मा, शिव और शक्ति को अपने में ढाल लिया और उन्हें पूरी तरह से अपना बना लिया। भक्ति का यह ऐसा उदात्त और विलक्षण स्वरूप है, जिसे अन्यत्र खोज पाना जटिल और दुर्लभ है। श्रद्धा और प्रेम के भावों से भक्ति की निर्मिति को शाण्डिल्य और नारद ऋषियों ने बताया है। इसी प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी व्याख्यायित किया है। श्रद्धा और प्रेम के समन्वित भावों से निर्मित भक्ति और इस भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य पूर्वोत्तर की अपनी विशेष पहचान गढ़ता है। अतीत से वर्तमान तक समग्र पूर्वोत्तरीय भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार इसी भावभूमि पर हुआ है।

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक जनजातीय समुदायों का यह विशाल लोकसाहित्य, या कहें भक्तिसाहित्य लोककंठों में ही जीवित रहा। बाद में इसके लिखित संस्करण भी जागरूक साहित्यसेवियों द्वारा तैयार किये गए। सन् 1993 में रूपसिंह देउरी ने ‘रामायने खराङ्’ का असमीया लिपि में मुद्रित संस्करण तैयार किया। इसी प्रकार डॉ. देवेनचंद्र दास ने ‘छाबिन आलुन्’ को देवनागरी में लिपिबद्ध करके सन् 2000 ई. में प्रकाशित कराया। ऐसे अनेक प्रयास पूर्वोत्तर में हुए हैं, और इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है।

समग्रतः; प्रकृति-पूजा, प्रकृति पुरुष शिव और शक्ति से क्रमशः महाभारत-रामकथा के कथा-प्रसंगों ने पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को निर्मित किया। यह आधार मुख्यतः लोकजीवन, लोकसंस्कृति और लोकपरंपराओं-लोककलाओं का है। इसी कारण पौराणिक कथा-प्रसंग लोकसंस्करण में विकसित हुए, विस्तृत हुए। पूर्वोत्तर की यह ऐसी विशिष्टता है, जिसने युगों-युगों तक यहाँ के आस्थावान जनजातीय समूहों को एक सूत्र में बाँधे रखा। भले ही वैचारिक संक्रमणों, उन्माद और बर्बरता की स्थितियों ने, जातीय-क्षेत्रीय-भाषायी अस्मिता के संघर्षों और धार्मिक असंतुलनों ने पूर्वोत्तर की अपनी पुरानी पहचान को, जड़ों को गहराई में दबा दिया हो, मगर इस एक्य के सूत्र को, समन्वय को भक्ति साहित्य के लोकसंस्करणों के माध्यम से पुनर्जीवन दिया जा सकता है।

भक्ति-साहित्य का यह लोक-संस्करण भले ही शिष्ट साहित्य की परिधि से बाहर हो, किंतु इसी के रस-संचय से कालांतर में वैष्णव भक्ति (जात्रा, नामघर आदि) तक भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार पूर्वोत्तर में हुआ है। भक्ति-साहित्य के समग्र स्वरूप को पूर्वोत्तर के संदर्भ में माधवदेव द्वारा रचित निम्न पंक्तियों के आलोक में देखा जा सकता है-

धन्य-धन्य कलिकाल / धन्य नरतनु भाल / धन्य-धन्य भारतबरिषे (बरगीत / माधवदेव)

संदर्भ ग्रंथ-

1. भारत की लोकसंस्कृति, सं. हेमंत कुकरेती, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018,

2. भारतीय साहित्य की पहचान, सं. डॉ. सियाराम तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2015,

3. पूर्वोत्तर भारत का जनजातीय साहित्य, सं. डॉ. अनुशब्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2017,

4. कृतिरूप संघ दर्शन, संकलन व संपादन- हो. वे. शेषाद्रि, सुरुचि प्रकाशन, नयी दिल्ली, अष्टम सं. 2015,

5. असम : लोक-संस्कृति और साहित्य, जोगेश दास, हिंदी अनुवाद कृष्ण गोपाल अग्रवाल, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली, सं. 1976

6. मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में, डॉ. देवराज, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2006 ।

{पूर्वोत्तर भारत का भक्ति साहित्य (पुस्तक), संपादक डॉ. मंदाकिनी शर्मा, प्रकाशक- अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली में प्रकाशित}

-डॉ. राहुल मिश्र