Monday 17 April 2023

लद्दाख : कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र

 

लद्दाख : कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र

लदाख का नाम आते ही एकदम अलग तरह की छवि मन में बनने लगती है। शीत की अधिकता के बीच किस तरह जीवन बीतता होगा, यह चिंता हर किसी के मन में आ जाती है। शीत की अधिकता के बीच, वीरान-सी पर्वतमालाओं के बीच, जहाँ हरियाली और चहल-पहल दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती, वहाँ मन का रंजन, कलात्मकता का विस्तार आखिर कैसे होता होगा? यह प्रश्न हर किसी के मन में उठता है। वस्तुतः सच्चाई इसके विपरीत है। भले ही जीवन की रंगीनियाँ, चहल-पहल लद्दाख में कम हों, लेकिन कलात्मकता में लद्दाख बेजोड़ है, अनुपम है।

लद्दाख एक समय में सिल्क रूट या रेशम मार्ग का हिस्सा होता था। इस कारण अनेक संस्कृतियाँ, सभ्यताएँ यहाँ से गुजरीं और ठहर-ठहर कर इस बर्फीले रेगिस्तान में अपनी छवियाँ बिखेरती रहीं हैं। भारतीय संस्कृति से अनुप्रणित लद्दाख में न केवल बौद्ध धर्म की सर्वस्तिवादी शाखा का विस्तार हुआ, वरन् कालांतर में तिब्बत से होते हुए महायान परंपरा का विस्तार भी हुआ। हिमाचलप्रदेश के रिवाल्सल (रिवरसल) से गुरु पद्मसंभव का धार्मिक अनुष्ठान न केवल तिब्बत तक गया, वरन् लद्दाख अंचल में भी विस्तृत हुआ।

लद्दाख में भारतीय बौद्ध परंपरा ही नहीं आई, अनेक कला शैलियाँ और स्थापत्य का भी आगमन हुआ। इसी कारण आज के लद्दाख में जगह-जगह कलात्मक मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं। बौद्ध मंदिरों-मठों, जिन्हें लद्दाख में गनपा कहा जाता है, अनेक प्रकार के देवी देवताओं की मूर्तियों से सुसज्जित होकर आस्था के केंद्र के रूप में जाने जाते हैं। लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों के साथ ही धातु से बनी, संगमरमर आदि कीमती पत्थरों से बनी मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं।

अगर लद्दाख की मूर्तिकला के अतीत में उतरकर देखें, तो पता चलता है कि लद्दाख में सबसे पहले पाषाण मूर्तिकला का प्रचार हुआ। लदाख में इस कला का प्रचार-प्रसार काश्मीर शासक ललितादित्य (724-760) के समय या इसके आस-पास  हुआ। दसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध अनुवादक लोचावा रिनछेन जङ्पो (958-1055) तिब्बत से काश्मीर आए और वापस लौटते समय अपने साथ काश्मीर से अनेक कलाकारों को लेते आए। लोचावा रिंचेन जङ्पो के प्रयासों से लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों के साथ ही काष्ठ-मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ। उनकी जीवनी से ज्ञात होता है, कि उन्होंने अपने पिता की स्मृति में काश्मीर में भीधक नामक एक कुशल शिल्पकार से अपने पिता के शरीर के बराबर महाकारुणिक आर्यावलोकितेश्वर की एक मूर्ति का निर्माण करवाया, जिसका प्रतिष्ठापन गुरु श्रद्धाकर वर्मा ने किया था। इस मूर्ति का निर्माण धातु को पिघलाकर किया गया था।

लोचावा रिनछेन जङ्पो काश्मीर से अपने साथ बत्तीस कलाकारों को लेकर लद्दाख आए थे। इन कलाकारों में मृण्मूर्ति, काष्ठ-मूर्ति, धातु की मूर्ति बनाने वाले कुशल शिल्पकारों के अतिरिक्त कुशल चित्रकार भी सम्मिलित थे। ये कलाकार लद्दाख के अलग-अलग स्थानों में बस गए और अपनी कला की अनेक बानगियाँ यहाँ बिखेरते रहे। लोचावा रिंचेन जङ्पो द्वारा आज से लगभग 1000 वर्ष पहले बनवाया गया अलची बौद्ध विहार न केवल लद्दाख, वरन् पुरातन भारतीय स्थापत्य कला की अद्भुत निशानी है। लोचावा के साथ आए कलाकारों द्वारा यहाँ अनेक देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियाँ बनाई गईं हैं। साथ ही भित्तिचित्र भी बनाए गए हैं। इनमें पत्थर के परंपरात रंगों का प्रयोग किया गया है। भवन की निर्मिति भी ऐसी है, कि अनेक वर्षों तक मौसम की मार झेलकर भी अपने स्थापत्य के सौंदर्य को, अपनी मूर्तिकला की धरोहर को सहेजे हुए है।

लोचावा रिनछेन सङ्पो के पश्चात लद्दाख के कलाप्रिय और धर्मभीरु राजाओं ने मूर्ति-निर्माण कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। प्रस्तर और धातु की मूर्तियों के साथ ही मृण्मूर्तियों के निर्माण का प्रचलन लद्दाख में आया। मिट्टी से बनी मूर्तियाँ धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष अंग बनने लगीं। धर्मराज ल्हछेन ङोसडुब गोन, धर्मराज डगपा बुम दे, राजा टशी नमग्याल, धर्मराज सेङ्गे नमग्याल और धर्मराज देलदन नमग्याल ने अपने राज्यकाल में अनेक मूर्तियों का निर्माण कराया, जो वर्तमान में लद्दाख के विभिन्न अंचलों के बौद्ध मठों-मंदिरों (गोनपाओं) में स्थापित हैं, और लद्दाख की मूर्तिकला के वैशिष्ट्य का प्रदर्शन कर रहीं हैं।

लद्दाख में बनने वाली मृण्मूर्तियों में काश्मीर की मूर्तिकला के साथ ही प्राचीन गांधार शैली के दर्शन होते हैं। लद्दाख में प्रमुख रूप से बुद्ध, बोधिसत्व, आर्य अवलोकितेश्वर, आर्य मंजुश्री, मैत्रेय, वज्रपाणि के साथ ही तंत्रयान के देवी, देवता, रक्षक आदि की मूर्तियों का निर्माण होता है। मूर्ति-निर्माण से संबंधित विभिन्न ग्रंथों की रचना भारतीय शास्त्रों के आधार पर की गई है। स्तनग्युर में बौद्ध कला और शिल्प के रूप में ये पृथक ग्रंथ के रूप में संग्रहीत हैं। मूर्ति-निर्माण परंपरा यहाँ गुरु-शिष्य के रूप में चलती है। एक गुरु के अनेक शिष्य इस कला को विस्तार देते हैं। मूर्तियों के निर्माण के लिए पुराने समय में मूर्तिकारों द्वारा ही सामग्री तैयार की जाती थी। वर्तमान में भी यह परंपरा चल रही है। लद्दाख में पाई जाने वाली चिकनी पीली मिट्टी के साथ ही मोटा कपड़ा और धागा-साँचा आदि प्रयोग में लाया जाता है। मूर्ति का साँचा बनाकर उसमें लेपन करके फिर रंग भरे जाते हैं।

बौद्ध शास्त्रों के अनुसार मूर्ति के शीर्ष मुकुट से लगाकर चरण तक अलग-अलग मंत्र हैं, जिन्हें लिखकर मूर्ति के निश्चित भागों में डालना होता है। इसे धारणी कहते हैं। धारणी के अतिरिक्त धातु,अन्न, वस्त्र आदि भी मूर्ति के अंदर डाले जाते हैं। इसके पश्चात् बौद्ध आचार्यगण मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। लद्दाख के विभिन्न मठों-मंदिरों में अनेक प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं। इसके साथ ही विभिन्न स्थानों पर स्थापित की गईं मूर्तियाँ लद्दाख की मूर्तिकला के वैशिष्ट्य को दिखाती हैं। समय के बदलाव के साथ सीमेंट और प्लास्टर आफ पेरिस से भी मूर्तियाँ बनाने का चलन लद्दाख में आया है। इसमें तैलीय रंगों का प्रयोग भी नया है।

कुल मिलाकर लद्दाख की पहचान का एक बड़ा हिस्सा लद्दाख की विशिष्ट मूर्तिकला से बना है। लद्दाख में अनेक कलात्मक मूर्तियों का निर्माण होता है, जो देश ही नहीं दुनिया के अनेक हिस्सों में सजावट के लिए जाती रहती हैं।



(मासिक पत्रिका हस्ताक्षर, इंदौर, मध्यप्रदेश के अप्रैल, 2023 अंक में प्रकाशित)

Sunday 2 April 2023

पंजाब : कल से कल तक.....


पंजाब : कल से कल तक.....

पंचनद, अर्थात् पंजाब....। सतलुज, व्यास, रावी, चेनाब और झेलम नदियों से सिंचित पंचनद.....। धन-धान्य से परिपूर्ण और उल्लास-उमंग में जीने वाला पंजाब….। ढोल की थाप पर थिरकते पाँव, भांगड़ा और गिद्दा नृत्यों की उल्लासपूर्ण भंगिमाओं के बीच स्वाभाविक-सहज उमंग को साझा करते पंजाबी लोगों के साथ खड़े अन्य लोग भी उसी उमंग और उल्लास में डूब जाते, डूबते ही चले जाते। मक्के दी रोटी, सरसों दा साग पंजाब की अपनी पहचान गढ़ता है। तंदूरी रोटी भी चाव से खाई जाती...। पंजाब की लस्सी का बड़ा-सा गिलास और स्वादिष्ट लस्सी के आस्वाद को कौन भुला सकता है? सतलुज, व्यास, रावी नदियों की अठखेलियाँ करती प्रवाह-राशियाँ कितनी ही उल्लासपूर्ण जीवनगाथाएँ अपने साथ लेकर चलती हैं, इन सबका वर्णन करना समय की सीमा के पार निकल जाना होगा।

चाहे भांगड़ा-गिद्दा नृत्य का उल्लास हो, चाहे सरसों की रोटी और मक्के के साग का स्वाद हो, चाहे असिक्नी के साथ गुनी-सुनी जाती अनेक लोकगाथाएँ-प्रेम के गीत हों, चाहे ‘पंजाब पुत्र’ दुल्ला भट्टी की अनेक लोकगाथाओं की बात हो... यह धरोहर पंजाब के साथ ही पूरे भारत की है। समूचे भारत देश में सरसों का साग ओर मक्के की रोटी, लस्सी का गिलास, लोहड़ी का त्योहार, तंदूर की रोटी, भांगड़ा का नाच पंजाब को अपने साथ जोड़ लेता है, पंजाब के साथ हो लेता है। यह केवल बाहर दिखने वाला जुड़ाव नहीं है, वरन् हृदय की अनंत गहराइयों के साथ इस जुड़ाव को देखा और समझा जा सकता है।

अतीत की परतों को खँगालें, तो अनेक ऐसे प्रसंग और तथ्य निकलकर आते हैं, जो पंजाब की गौरवपूर्ण गाथा को गर्व के साथ गुनगुनाते-दुहराते हैं। रामचंद्र शास्त्री द्वारा रचित एक पुस्तक- पंजाब के नवरतन का उल्लेख करना यहाँ बीते हुए कल के पंजाब के संदर्भ में, पंजाब के अतीत के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण होगा। रामचंद्र शास्त्री ने पंजाब के अनेक महापुरुषों के मध्य से नौ ऐसे श्रेष्ठतम महापुरुषों के जीवन-चरित से इस कृति में साक्षात् कराया है, जिनका नाम देश ही नहीं, दुनिया के लिए भी अनजाना नहीं है, जिन पर सारे देश को गर्व ही नहीं, जिनसे एक आस्था भी जुड़ी है। शास्त्री जी ने इस कृति में महाराज पुरु (पोरस), गुरु नानक, गुरु गोविंद सिंह, बंदा बैरागी, धर्मवीर हकीकत राय, महाराजा रणजीत सिंह, सरदार हरिसिंह नलवा, स्वामी रामतीर्थ और लाला लाजपत राय के जीवन-चरित को उकेरा है। पंजाब के इन नवरतनों के अतिरिक्त असंख्य ऐसे वीर पंजाब की धरती पर जनमे हैं, जिन्होंने धर्म-रक्षा, राष्ट्र-रक्षा, समाज-कल्याण, सीमांत सुरक्षा और मानव-मूल्यों के विस्तार में अप्रतिम योगदान दिया है।

गुरु नानक की उदासियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। उनके सबद, उनके कीर्तन-भजन और उनके उपदेश देश ही नहीं, दुनिया में किस तरह से प्रचारित-प्रसारित हुए, यह कहने की आवश्यकता नहीं है। मानव के कल्याण के लिए, विश्व को एक परिवार की तरह जीने की सीख देने के लिए वे जीवन-पर्यंत यात्रा करते रहे। गुरु नानक लद्दाख भी पहुँचे, तिब्बत के साथ भी उनका जुड़ाव हुआ। इसी कारण उनको महायान बौद्ध परंपरा के निङ्मा संप्रदाय में नानक लामा के रूप में स्थान प्राप्त है। एक समय था, जब तिब्बत के निङ्मा संप्रदाय के धर्मभीरु लोग अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकने और स्नान करने अवश्य जाते थे। स्वर्ण मंदिर भारतीय समाज के लिए आस्था का केंद्र सदैव रहा है।

सिखों की गुरु-परंपरा में सभी गुरुओं का जीवन अनुकरणीय रहा है। विशेष रूप से संत सिपाही गुरु गोविंद सिंह का जीवन धर्म की रक्षा के लिए ही समर्पित रहा। उन्होंने मुगलों के साथ चौदह लड़ाइयाँ लड़ीं, और अपने जीवनकाल में अपने पूरे परिवार का ही बलिदान कर दिया। इसी कारण सरबंसदानी के रूप में गुरु गोविंद सिंह को जाना जाता है। उनके चलाए खालसा पंथ के उद्घोष- जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल, वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतह..., को सुनकर मन आस्था के समंदर में गोते लगाने लगता है। इसी खालसा पंथ से लंगर की परंपरा आती है। गुरुद्वारों में बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी ऊँच-नीच के एक साथ एक पंगत में सबको भोजन मिलता है। नर सेवा ही नारायण सेवा का यह अनूठा उपक्रम अतुलनीय है, वंदनीय है।

पंजाब वीरों की धरती रही है। वृहत्तर पंजाब के शूरवीर महाराजा पोरस की वीरता, उनका पराक्रम अन्यतम् है। महाराज पोरस की गथाएँ आज भी गर्व के साथ सुनी-सुनाई जाती हैं। अखंड भारतवर्ष की सीमा पर जिस प्रकार वे डटे रहे, उस गाथा का स्मरण आज भी असीमित गर्व भर देता है। यही शौर्य भाव महाराजा रणजीत सिंह के व्यक्तित्व में दिखता है, जिन्होंने विषम स्थितियों के मध्य वृहत्तर पंजाब का अस्तित्व बनाए रखा। लाला लाजपतराय जिस तरह अंग्रेज शासकों के सामने डटकर खड़े थे, वह तब भी प्रेरणा का स्रोत था, और स्वतंत्रता के बाद भी आने वाली पीढ़ियों को सदैव स्वातंत्र्य-चेतना की प्रेरणा देता रहेगा। सरदार भगत सिंह प्रभृति अनेक क्रांतिवीरों का जीवन भी प्रेरणा का स्रोत है।

पंजाब के गौरवपूर्ण अतीत के एक अन्य अध्याय की चर्चा के बिना बात कुछ अधूरी-सी रह जाएगी। एक पुस्तक हाल ही में आई है- भारतीय छंद परंपरा में पंजाब के रीत्याचार्य कवि। पुस्तक की लेखिका हैं- डॉ. अतुला भास्कर। पुस्तक यद्यपि साहित्यिक शोध-प्रबंध के स्तर की है, तथापि इस कृति का अनुशीलन पंजाब की साहित्यिक और लोक परंपरा के संदर्भों में भी किया जा सकता है। पंजाब के रीत्याचार्य कवि, जैसे- आचार्य गिरधारी, आचार्य हरिरामदास निरंजनी, आचार्य निहाल सिंह, आचार्य बदन सिंह, आचार्य प्रमोद आदि संस्कृत की काव्यशास्त्रीय परंपरा के ऐसे प्रतिनिधि हैं, जिनके साहित्यिक योगदान को पंजाबी-गुरुमुखी और संस्कृत के मध्य एक सेतु के रूप में देखा जा सकता है। पंजाब के इन रीत्याचार्य कवियों की गुरुमुखी में रचित रचनाएँ पंजाब के साहित्य को समृद्ध करने के साथ ही साहित्य के स्तर पर राष्ट्र की एकता के भाव से सुवासित प्रतीत होती हैं।

कुल मिलाकर अतीत के पंजाब की, बीते कल के पंजाब की ये कुछ ऐसी बाते हैं, जिन्हें आज के संदर्भों में अनुभूत करना न जाने क्यों वर्तमान की जटिलता के मध्य अतीत की सुंदर स्मृतियों में खो जाने जैसा ही लगता है। पंजाब की सांस्कृतिक समृद्धि, पंजाब का धन-धान्य से पूर्ण समाज-जीवन, पंजाब के वीरों का शौर्यभाव, पंजाब का नरसेवा ही नारायण सेवा का भाव आज से नहीं, वरन् अतीत के पिछले कई कालखंडों से आक्रांताओं को खटकता रहा होगा, विधर्मियों और विस्तावादियों को खटकता रहा होगा, इसे जानकर ही आज की स्थितियों का विश्लेषण कर सकते हैं। पंजाब को लूट लेने, पंजाब को बाँट देने और यहाँ की शांति को अशांति में बदल देने के प्रयास लंबे समय से होते रहे हैं। महाराजा पुरु से लगाकर महाराजा रणजीत सिंह तक कितने महान वीरों ने इन अलगाववादी-विघटनकारी तत्त्वों से संघर्ष किया। गुरु गोविंद सिंहजी ने तो अपने पूरे परिवार का ही बलिदान दे दिया। आक्रांताओं के कृत्यों से, उनके दुष्चक्रों से इतिहास भरा पड़ा है।

देश के विभाजन के साथ हमने पंजाब और बंगाल के विभाजन को जो दंश झेला है, उसे भविष्य कितने लंबे समय तक अपने दामन में काँटों की तरह अनुभूत करेगा, कहना कठिन है। एक ओर  बंगाल, तो दूसरी ओर पंजाब अंग्रेज शासकों के लिए सदैव चुनौतीपूर्ण रहा। इसी कारण इन दोनों के विभाजन की नीति चली जाती रही। देश के विभाजन के साथ बंगाल भी बँटा, और पंजाब भी...। झेलम और चेनाब पंचनद से अलग हो चलीं। विभाजन की त्रासदी ने पंजाब को बहुत भीतर तक तोड़ा, लेकिन पंजाब का उत्सवधर्मी समाज इस टूटन उबरकर फिर अपने अस्तित्व को देश की समृद्धि के साथ जोड़ने लगा। मेहनत के बल पर पंजाब ने फिर कृषिकार्य एवं अन्य क्षेत्रों में अपना वर्चस्व स्थापित किया।

पंजाब जिस तरह विभाजन की विभीषिका को झेलकर आया था, उस ‘बुरे स्वप्न’ को भुलाकर जितनी तेजी से मुख्यधारा में लौटा, और समृद्धिशील हुआ, वह भारत के अन्य प्रांतों के संदर्भ में अद्वितीय ही कहा जाएगा। तमाम विपरीत स्थितियों के बाद भी लंगर न कभी रुका, और न कभी कोई भूखा सोया। लेकिन यह कथा यहीं आकर ठहर नहीं जाती है। आज ऐसा लगता है, मानों यह सब किसी दिवास्वप्न की तरह है। कल की बातें आज के समय की जटिलता के साथ अपना साम्य नहीं बैठा पा रहीं, ऐसा भी अनुभूत होता है।

वर्ष 2016 में एक फिल्म आई थी- उड़ता पंजाब। अनेक विवादों के बीच इस फिल्म ने कितने ही सवाल पंजाब से लगाकर सारे देश के सामने उछाल दिए थे। कई सवालों के उत्तर तो हम न चाहकर भी ‘हाँ’ में देने के लिए विवश थे। अतीत के पंजाब की गौरवगाथाओं का स्मरण करते-कराते कई-कई बार वर्तमान की विषमता स्वीकार नहीं हो पाती, किंतु कबूतरबाजी (चोरी छिपे विदेश जाना), प्रतिबंधित नशीले पदार्थों की तस्करी सहित अपराध की बड़ी दुनिया के साथ पंजाब का वास्ता आज के समय की बड़ी सच्चाई है, नहीं नकारी जा सकने वाली सच्चाई है। पृथक खालिस्तान की माँग के साथ किन रास्तों का चयन कर लिया गया, अपराध और आतंक के किन गलियारों की तरफ मुड़ लिया गया, वह आज किसी से छिपा हुआ नहीं है।

हाल ही में नार्को-टेरर मॉड्यूल को अमृतसर पुलिस ने पकड़ा है, भंडाफोड़ किया है। ऐसा भी कहा जा रहा है, कि ऐसी आतंकी गतिविधियों और कामों के लिए हमारा पड़ोसी देश भी सहयोग दे रहा है। सच्चाई कुछ भी हो, लेकिन पंजाब के उल्लासपूर्ण वातावरण में आज न तो उमंग-उल्लास दिखता है, और न ही भयमुक्तता। एक अलग-सी ही हवा पंजाब में चल रही है। कई आतंकी गतिविधियाँ और टेरर मॉड्यूल विगत वर्षों में सामन आए हैं। इनमें विभाजनकारी घटक भी जुड़े हुए हैं, जो एक अलग देश की मंशा पाले हुए भारत-विरोधी गतिविधियों में संलिप्त रहते हैं। विरोध का स्तर भी ऐसा है, कि भाषा से लगाकर भूषा तक, हर किसी का विरोध है। इस पूरे अभियान के तार देश के अंदर भी जुड़े हैं, और विदेश तक फैले हैं। विदेशों में छिटपुट आंदोलन की घटनाएँ और साथ ही मंदिरों में तोड़फोड़ की घटनाएँ पृथकता की, अलगाव की पराकाष्ठा की स्थितियाँ बताती हैं। पृथकता के उन्माद में कई बार उन लोगों के साथ भी गलबहियाँ दिखाई देती हैं, जिन लोगों का अतीत गुरुओं पर कुठार चलाने, प्रहार करने, अमानवीय अत्याचार करने के लिए जाना जाता है।

यह बदलते पंजाब की एक झलक है, आज के पंजाब का यथार्थ है। पंजाब में साँझा चूल्हा की परंपरा भी रही है, अर्थात् मिल-जुलकर रहने-खाने की परंपरा। उस पंचनद में आज कितने साँझा चूल्हा होंगे, कहना कठिन लगता है। देश को छोड़कर अलग देश बनाने की मानसिकता ने कितने स्तरों पर उन सूक्ष्म तंतुओं को, संबंधों के कोमल धागों को विचलित और कमजोर किया है, यह गहन चिंतन का विषय है। यदि सांप्रदायिक सद्भाव वैमनस्य में बदल रहा है, तो यह चिंता का विषय है। यदि सामाजिक समरसता के स्थान पर क्षेत्रीयता और असहिष्णुता का विस्तार हो रहा है, तो यह चिंता की बात है। यदि भय का साम्राज्य बढ़ रहा है, तो चिंता का विषय है। आज के पंजाब के सामने ये विषय चिंतन के लिए भी हैं, और यक्ष-प्रश्न ती तरह खड़े हुए भी हैं। कहा जाता है, कि एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है, बदनाम कर देती है। विघटनकारी तत्त्वों के कृत्यों और आपराधिक-आतंकी गतिविधियों के कारण छवि धूमिल हो रही है। ऐसी दशा में समाज के जागरूक लोगों का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। आज भी पंजाब का बहुसंख्य समाज अपने गौरवपूर्ण अतीत की थाती को सहेजे चल रहा है, और उसे ही इन स्थितियों को रोकने के लिए आगे आना होगा।

विषमताओं के मध्य कई ऐसे भी पक्ष हैं, जो भविष्य की आश्वस्ति देते हैं, एक आश्वासन देते हैं, कि पंचनद के नवरतनों सहित अनेक संतों, गुरुओं के साथ समस्त भारत का जुड़ाव, संस्कृति के विभिन्न सूत्रों का परस्पर गुंथन वर्तमान की विषमता का शमन कर सकेगा। अलगाववादियों की नीति-नीयत भी अधिक समय तक चल नहीं सकेगी। भय का वातावरण भी दूर होगा। गुरुबानियाँ, गुरुओं की शिक्षाएँ अमल में लाई जाने लगेंगी। गुरु तेग बहादुर जी की सीख व्यवहार में उतरेगी।

भै काहू केउ देत  नहिं,  नहिं  भै मानत आन ।।

कहु नानक सुनि रे मना, गियानी ताहि बखान।।

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Sunday 1 January 2023

जी-20 की अध्यक्षता : नए भारत का वैश्विक-सूचकांक

 

जी-20 की अध्यक्षता : नए भारत का वैश्विक-सूचकांक


इस वर्ष (2022) के दिसंबर माह का पहला दिन भारत के लिए असीमित प्रसन्नता और गर्व का क्षण लेकर आया। जी-20, अर्थात् बीस देशों के समूह की अध्यक्षता का अवसर भारत को मिला है। वैसे तो विगत वर्ष दिसबंर माह में ही इसकी आधारशिला रख दी गई थी, जब भारत जी-20 ट्रोइका में सम्मिलित हुआ था। वर्ष भर बाद यह सुखद क्षण जब भारत के हिस्से में आया, तो भारत के अंदर ही नहीं, वैश्विक नेतृत्व की भारत की क्षमता को देखने-समझने वाले विश्व के अनेक देशों में इस प्रसन्नता की लहर को देखा गया है।

ग्रुप-20 विश्व के ऐसे बीस देशों का संगठन है, जिसमें महाद्वीपीय विविधता के साथ ही आर्थिक संपन्नता के स्तर पर विकसित और विकासशील देशों की विविधता भी है। यदि भारत के संदर्भ में कहें, तो भारत के सीमावर्ती-पड़ोस के संबंधों का भी बड़ा पक्ष इससे जुड़ा हुआ है। जी-20 में भारत का ऐसा पडोसी भी है, जिसके साथ संबंधों की बुनावट समय-समय पर जाँची-परखी जाती है। चीन की जी-20 में उपस्थिति भारत के संबंध में एक अलग आयाम गढ़ती है, एक अलग असर छोड़ती है। इसी कारण विगत वर्ष जी-20 ट्रोइका में भारत का नाम आते ही वैश्विक हलचल के साथ ही एशिया उपमहाद्वीप में भी बड़ी हलचल देखी गई थी। स्वाभाविक ही था, कि अपने पड़ोसी को वैश्विक मंच पर अध्यक्ष की आसंदी के निकट देखना भारत के स्वाभाविक विरोधियों को सहन नहीं हुआ होगा। कहना न होगा कि भारत की उत्तरी सीमा पर पूरब से लगाकर पश्चिम तक अराजकता व आतंक का समूचा परिवेश संभवतः इसी कारण गढ़ा गया होगा, कि भारत की ओर से किसी भी तरह की पहल करने पर विश्व मंच में भारत के विरुद्ध एक माहौल बनाया जाए, ताकि जी-20 की अध्यक्षता का अवसर भारत के हाथ से निकल जाए। लेकिन ऐसा नहीं हो सका, और जी-20 ट्रोइका में सम्मिलित भारत को अध्यक्षता मिल गई।

जी-20 ट्रोइका में तीन देश होते हैं। तीन देशों का एक छोटा समूह होता है, जिसमें जी-20 के वर्तमान अध्यक्ष के साथ ही पूर्व अध्यक्ष और भावी अध्यक्ष होते हैं। दिसंबर 2021 में भारत के इस ट्रोइका में सम्मिलित होने के साथ ही इस वर्ष के लिए भारत की अध्यक्षता तय हो गई थी। इंडोनेशिया के बाली में संपन्न हुए सम्मेलन में भारत को अध्यक्षता के लिए नामित किया गया। इसके साथ ही भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री मोदी को अध्यक्ष देश के प्रतिनिधि के रूप में सेशन हैमर (लकड़ी का हथौड़ा) दिया गया। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो से अध्यक्षता के प्रतीक के रूप में लकड़ी के इस हथौड़े को बहुत गर्व के साथ ग्रहण करते और प्रदर्शित करते हुए भारत के सम्मान्य प्रधानमंत्री के चित्र सोशल नेटवर्किंग के पटलों पर खूब प्रसारित हुए थे। सारे विश्व में फैले भारतवंशियों के लिए भी यह बहुत गौरव और गर्व का क्षण था। यह लकड़ी का हथौड़ा उन बीस देशों के समूह की अध्यक्षता का प्रतीक है, जिनका सारी दुनिया में वर्चस्व और बोलबाला है।

जी-20 समूह को आर्थिक रूप से विश्व के सबसे ताकतवर समूह के रूप में जाना जाता है। इस समूह की दुनिया के सकल घरेलू उत्पाद में 85 प्रतिशत भागीदारी है। विश्व की कुल जीडीपी में से 80 प्रतिशत की भागीदारी जी-20 समूह के देशों की है। इसके साथ ही इस समूह की वैश्विक व्यापार में लगभग 75 प्रतिशत की भागीदारी है। विश्व की कुल जनसंख्या का 60 प्रतिशत जी-20 समूह के देशों में है। ब्रिटेन, यूरोपीय संघ और अमरीका जैसे विकसित देशों के साथ ही सऊदी अरब, जापान और जर्मनी आदि देश इसके सदस्य हैं। भारत का पड़ोसी देश चीन भी इस समूह का सदस्य है। समूह के सदस्य देशों के माध्यम से ही समूह की वैश्विक स्तर पर स्थिति और इसके प्रभाव का आकलन किया जा सकता है। ऐसे प्रभावशाली और वैश्विक स्तर पर महत्त्वपूर्ण समूह की अध्यक्षता भारत के लिए कोई सामान्य बात नहीं है। यह भारत के वैश्विक प्रभाव और विश्व-स्तर पर भारत की स्वीकार्यता का एक मानदंड है, मापक है।

भारत को जी-20 की अध्यक्षता ऐसे विषम समय में मिली है, जबकि समूह के सदस्य देशों के मध्य संबंध बहुत सहज नहीं हैं। बाली शिखर सम्मेलन के ठीक पहले ही पौलैंड में मिसाइल गिरने के बाद नाटो देशों की ओर से तीखी प्रतिक्रिया दी जा रही थी। दूसरी ओर जी-20 में ही यूक्रेन संकट के कारण सदस्य देश आपस में बँटे हुए थे। रूस और अमरीका के मध्य यूक्रेन को लेकर चल रही तनातनी का प्रभाव बाली शिखर सम्मेलन में भी दिख रहा था। दूसरी ओर कोविड-19 की विभीषिका के कारण वैश्विक मंदी और अन्य कारक भी प्रबल थे। ऐसी विषम स्थिति में अध्यक्ष का दायित्व स्वीकारना कोई सहज कार्य नहीं था। यह भारत की वैश्विक स्वीकार्यता का ऐसा क्षण था, कि भावी अध्यक्ष के रूप में भारत को सामने देख विश्व के महायोद्धाओं ने भी अपने रुख को नरम और सहज बनाया। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा जब भारत के विजन, भारत की भावी कार्ययोजना के लिए संकल्पसूत्र को रखा गया, तो उसे सभी ने स्वीकार किया। प्रधानमंत्री मोदी ने इस अवसर को वैश्विक स्तर पर भारत की वसुधैव कुटुंबकम् की परंपरा के अनुरूप निर्वहन करने का स्पष्ट संदेश दिया है। उनका कहना, कि भारत इसे ‘एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य’ की तरह लेकर चलेगा, समूह के सभी देशों के लिए भारत की अध्यक्षता में जी-20 की आगामी कार्ययोजना को निर्धारित करने हेतु एक नियामक निर्णय के तौर पर स्वीकार्य हुआ।

जी-20 समूह के अध्यक्ष के रूप में भारत का कार्यभार सँभालना निःसंदेह विषम स्थितियों में हुआ है। एक ओर रूस-यूक्रेन विवाद में सभी सदस्य देश आपस में बँटे हुए हैं, तो दूसरी ओर चीन के ताइवान पर आक्रामक रवैये के कारण अमरीका सहित यूरोपीय देशों की अपनी नाराजगी है। दूसरी तरफ भारत के साथ भी चीन के संबंध सहज नहीं हैं। चीन और भारत की तनातनी के लिए विगत तीन वर्ष बहुत चर्चित रहे हैं, जब भारतीय सीमा में चीन की घुसपैठ का मुँहतोड़ उत्तर भारतीय सेना द्वारा दिया गया। गालवान, दौलतबेग ओल्डी, गोगरा हाट-स्प्रिंग आदि स्थानों में भारत के प्रबल प्रतिरोध और भारतीय सेना की सक्रिय कार्यवाही के बाद चीन के राष्ट्रपति का बाली में भारत के प्रधानमंत्री मोदी के साथ पहली बार आमना-सामना हुआ था। सूत्र बताते हैं, कि दोनों के मध्य कोई बात नहीं हुई। मिलने पर गर्मजोशी के स्थान पर मात्र औपचारिकता थी। ऐसी दशा में चीन के लिए भारत का नेतृत्व स्वीकारना कितना जटिल और कठिन होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। यह भले ही भारतवासियों के लिए गर्व की बात हो, लेकिन उससे कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण भी है। ऐसी विपरीत और विषम स्थितियों में न केवल अध्यक्षीय दायित्व को सँभालना, वरन् कुशलतापूर्वक इस दायित्व को निभाना भारत के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व के कौशल को प्रदर्शित करता है।

रूस और यूक्रेन विवाद पर भारत की निरपेक्षता और समूह के सदस्य देशों को युद्ध व अशांति-अस्थिरता के स्थान पर रचनात्मक और विकासात्मक अवधारणा को आत्मसात् करने का भारत का संदेश समूह के देशों ने स्वीकारा है। यह भारत के लिए एक बड़ी उपलब्धि भी है, और विश्व-स्तर पर भारत के नेतृत्व-कौशल का मानक भी है। विश्व की कुल जनसंख्या की 60 प्रतिशत भागीदारी यदि जी-20 समूह के लिए बड़ा जनबल है, तो दूसरी ओर इस विशाल जनसंख्या के साथ चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। वैश्विक आर्थिक मंदी, रोजगार, चिकित्सा, शिक्षा और स्वास्थ्य के साथ ही पर्यावरण की चुनौतियों से निबटने के लिए सकारात्मक कार्ययोजना बनाना, उसे क्रियान्वित करने के लिए उपयुक्त परिवेश बनाना समूह के अध्यक्ष के रूप में भारत की प्राथमिकताओं में है। जलवायु परिवर्तन का संकट, पर्यावरण-पारिस्थितिकी असंतुलन के साथ ही शांति व सुरक्षा की चुनौतियों को भारत ने जी-20 समूह के अध्यक्ष के रूप में अपनी प्राथमिकताओं में रखा है।

जी-20 समूह के अध्यक्ष के रूप में भारत की भूमिका निष्पक्षता के साथ रचनात्मकता और सकारात्मकता को बढ़ावा देने के रूप में होगी, यह संदेश भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री द्वारा बाली में अपने संबोधन में दिया गया है। कोविड-19 महामारी के ‘दुनिया में कहर’ के बाद जिस सकारात्मकता के साथ विकास की ओर अग्रसर होने की अपेक्षा जी-20 के नवनियुक्त अध्यक्ष से की जा रही थी, उसे समूह के देशों के साथ ही विश्व-मंच ने अनुभूत किया है। इसी कारण भारत के प्रति विश्व-मंच की धारणा बदली है। भारत में नेतृत्व के कौशल को देखा जा रहा है। भारत की बात को अब विश्व गंभीरता के साथ सुनता भी है, और गुनता भी है। जी-20 जैसे महत्त्वपूर्ण मंच की अध्यक्षता और भारत में शिखर सम्मेलन के साथ ही अनेक शिखर वार्ताओं, बैठकों और चर्चाओं से एक सार्थक और सकारात्मक विश्व-दृष्टि की कामना न केवल जी-20 समूह के देशों को है, वरन् समूचे वैश्विक समाज को भी है।

भारत के विभिन्न प्रांतों में उनकी अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान को एक वैश्विक मंच देने के उद्देश्य के साथ देश भर में जगह-जगह जी-20 समूह की बैठकें कराने के लिए योजनाएँ बन रहीं हैं, और अमल में भी लाई जाने लगीं हैं। भले ही विपक्ष के लिए विरोध के अवसर मिलते रहें, लेकिन भारतीय राजनीतिक नेतृत्व ने विधिवत् लोकतांत्रिक प्रक्रिया और देश के इस गौरवपूर्ण अवसर के लिए सभी की सहभागिता को सुनिश्चित किया है। सभी को साथ लेकर इसकी योजनाएँ बन रहीं हैं। भारत को विश्व-पटल पर एक नई पहचान इस अवसर के साथ मिल रही है। इसका लाभ भारत की अर्थव्यवस्था को भी मिलेगा।

समग्रतः, जी-20 समूह की अध्यक्षता का यह अवसर भारत के लिए उस वैश्विक सूचकांक की तरह है, जिसमें विश्वगुरु के रूप में उभरते भारत की छवि झलकती है, जिसमें भारत के गौरवपूर्ण अतीत के दर्शन होते हैं, जिसमें तकनीकी व नवाचार में नए कीर्तिमान स्थापित करता भारतदेश है, जिसमें कोविड-19 महामारी की विकरालता के दंश को अपने कुशल प्रबंधन से परास्त करके वैश्विक पटल पर उभरता हमारा भारत है। यह नए भारत का वैश्विक सूचकांक है, जिसमें जी-20 की अध्यक्षता के बहाने शीर्ष पर लहराता तिरंगा दिखता है, नया भारत दिखता है।
-राहुल मिश्र
(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र- सीमा संघोष के दिसंबर, 2022 अंक में प्रकाशित)

Tuesday 6 December 2022


 आखिर भरोसेमंद क्यों नहीं है, ड्रैगन...

हाल ही में पूर्वी लद्दाख सीमा को लेकर भारत के सेनाध्यक्ष का बयान आया है। वे कहते हैं, कि पूर्वी लद्दाख में स्थिति सामान्य है, लेकिन चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर के बयानों की पूरी एक कड़ी ही पिछले दो-तीन महीनों में आई है, जो लगभग ऐसी ही बात पर केंद्रित है। विदेशमंत्री जयशंकर अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य के अनुरूप यह कहते हैं, कि चीन को पहले अपनी सीमाओं को शांत करना होगा, स्थिर करना होगा और घुसपैठ सहित सेना की वापसी की तय शर्तों का पालन करना होगा। संबंध सुधारने के लिए कम से कम इतना तो आवश्यक है ही...।

भारत के सेनाध्यक्ष की चिंता अलग तरीके की है। पिछले वर्षों में गालवान, देपसांग, देमचोक और दौलत बेग ओल्डी में जिस तरह की घटनाएँ हुई हैं, उन्हें चीन के गिरगिटी रंग से मापा जा सकता है। पंद्रह से अधिक चरणों की वार्ताओं के बाद भी चीन ने पूर्वस्थिति पर जाने के लिए सहमति नहीं दिखाई। वह हमेशा चतुराई की भाषा बोलकर भारत की रक्षात्मक रणनीति का लाभ उठाता रहा है। इधर चीन के अंदर भी उथल-पुछल के समाचार सोशल संचार के पटलों पर तैरते रहे, और दूसरी ओर सीमा पर चीन की नीति-नीयत विस्तारवाद को केंद्र बनाकर तैयार होती और चलती रही।

अक्टूबर, 2022 का पूरा ही महीना चीन के अंदर उथल-पुथल से भरा रहा है। इसकी शुरुआत चीन में तख्ता-पलट की सूचनाओं के प्रसार से होती है। ऐसा कहा जा रहा था, कि चीन के अंदर सत्ता का परिवर्तन होने जा रहा है। व्यवस्था अधिक लोकतांत्रिक हो जाएगी, चीन के पड़ोसियों से विवाद सुलझ जाएँगे, ताइवान का मुद्दा भी हल हो जाएगा। ऐसे अनेक कयास लगाए जा रहे थे। हो सकता है, कि चीन के अंदर ऐसी कुछ स्थितियाँ बनी हों, लेकिन इन सबके पीछे का बड़ा कारण शी जिनपिंग की सत्ता में पुनः वापसी के प्रयासों का था। दुनिया के देशों में चीन की आंतरिक अस्थिरता के समाचार विश्वमंच का ध्यान भटकाने के लिए था, यह बात बाद में सही सिद्ध होती दिखी। 16 अक्टूबर से प्रारंभ हुए चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी के हर पाँच साल में होने वाले महासम्मेलन (कांग्रेस) के लिए विश्व-स्तर पर जो भूमिकाएँ बनाई जा रहीं थीं, उनकी चीन की आंतरिक राजनीति और रणनीति में भी बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यह बताते हुए, कि आंतरिक अस्थिरता और साथ ही संभावित वैश्विक संकटों से निबटने के लिए वर्तमान नेतृत्व को ही भविष्य के लिए चुना जाना आवश्यक है, महासम्मेलन का प्रारंभ होता है।

इसी क्रम में एक वीडियो भी सोशल पटल पर घूमता रहा। इसमें 2003 से दस वर्षों तक राष्ट्रपति रहे 79 वर्षीय हू जिंताओ को शी जिनपिंग के बगल से उठाकर बाहर ले जाते हुए दिखाया गया है। जिंताओ जाते-जाते प्रधानमंत्री ली केकियांग का कंधा दबाते हैं और अधिकारी जिनपिंग से कुछ कहते हैं। बाद में दोनों चीनी अधिकारी जिंताओ को लेकर ‘ग्रेट हाल आफ द पीपुल’ से बाहर चले जाते हैं। सामान्य तौर पर सीपीसी की बैठकों और कार्यवाहियों के विवरण या समाचार उतनी ही मात्रा में बाहर आते हैं, जितनी मात्रा सीपीसी के लिए अनुकूल होती है। लेकिन इस बार वह परंपरा टूटती दिखती है। इस बार विदेश की अनेक समाचार एजेंसियों की निगाहें भी इस महाधिवेशन में लगी हुई थीं।

सीपीसी की व्यवस्था और नियमों के अनुसार शी जिनपिंग के स्थान पर दूसरा महासचिव नियुक्त होना था, किंतु ऐसा नहीं होने पर एक संदेश गया, कि सीपीसी में जिनपिंग का पूरा वर्चस्व है। विरोधियों के लिए बाहर का रास्ता है, यह भी सुलभ संदेश इस महाधिवेशन से निकला। जिन मान्यताओं और व्यवस्थाओं का दम भरते हुए सीपीसी जनमुक्ति और जनवाद की बात करती रही, वे दुर्ग किस तरह ढहे हैं, इसका साक्ष्य महाधिवेशन में मिलता है। ये बदलाव विश्व को एक संदेश देता है। अधिनायक माओ त्से तुंग की नए तेवर-कलेवर के साथ वापसी को भी इसमें देख सकते हैं।

तीसरी बार पुनः नियुक्त होते ही राष्ट्रपति शी जिनपिंग की चिंता देश की आंतरिक अस्थिरता को रोकने और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए उनके एक बयान के साथ सामने आती है। वे चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी को अपनी सारी ऊर्जा अपनी क्षमता बढ़ाने, युद्ध लड़ने और जीतने के लिए तैयार रहने की दिशा में लगाने का आदेश देते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि वे सेना प्रमुख के रूप में पीएलए के युद्ध प्रशिक्षण को मजबूत करेंगे, क्योंकि सुरक्षा की स्थिति लगातार अस्थिर और अनिश्चित बनती जा रही है।

जिनपिंग के इन आदेशों और प्रयासों के विश्वमंच पर अलग-अलग अर्थ निकाले जा रहे हैं। ताइवान पर चीन की निगाहें लगी हुई हैं। अमरीका के ताइवान के साथ खड़े हो जाने से स्थितियाँ बदल गईं हैं, और चीन का स्वर भी बदल गया है। भारत के साथ चीन के सीमा-विवाद कोई नए नहीं हैं। भारत का सशक्त राजनीतिक नेतृत्व निश्चित रूप से चीन के लिए आँखों की किरकिरी बना हुआ है। वह विश्वमंच पर अनेक प्रयास करते हुए भारत को अपने आर्थिक और साथ ही सैन्य बल से अपने प्रभाव में लेने की असफल कामना करता रहता है। चीन के लिए ऐसा करना कुछ हद तक आसान तब भी हो जाता है, जब उसे भारत की राजनीतिक भूमि पर अपने चंद समर्थक मिल जाते हैं। यह अलग बात है, कि चीनी नेतृत्व के लिए इस भ्रम में रहना, कि भारत सन् 62 वाला ही है, उचित नहीं है। गालवान में भारतीय सेना के पराक्रम को सभी जानते हैं। चीन ने इस सच्चाई को देर से ही सही, स्वीकारा भी है।

7 से 11 नवंबर तक चली सैन्य कमांडर कान्फ्रेंस में सेना प्रमुख जनरल मनोज पांडेय की अध्यक्षता में सेना के तीनों अंगो के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों, रक्षा विशेषज्ञों और रक्षामंत्री के साथ ही प्रशासनिक अधिकारियों ने विचार-विमर्श किया। पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर जारी तनाव के बीच भारत और चीन के मध्य सामरिक संबंधों पर यह कान्फ्रेंस केंद्रित रही। चीन ने गालवान से सेनाओं को हटाने की बात कही थी। इसी के साथ देपसांग और देमचोक में भी सैन्य गतिविधियों को नियंत्रित करने की बात कही थी। लेकिन दूसरी तरफ चीन ने अपनी सामरिक रणनीतियों का बड़ा रोडमैप बना रखा है। इसमें तिब्बत के ल्हूंजे काउंटी से शिनजियांग के माझा तक राजमार्ग के निर्माण की बड़ी योजना भी सम्मिलित है। चीन द्वारा प्रस्तावित सड़क भारत से सटी सीमाओं को एकसाथ जोड़ने वाली है। इस राजमार्ग में देपसांग, गालवान घाटी और गोगरा हाट स्प्रिंग भी जुड़ रहे हैं और अरुणाचल के सीमावर्ती क्षेत्र भी जुड़ रहे हैं। एक ओर गालवान सहित पूर्वी लद्दाख में पूर्ववर्ती स्थिति को बहाल करने की बात चीन कहता है, तो दूसरी ओर सड़क और अन्य संसाधनों का विस्तार भी करता है।

तिब्बत से सटा लद्दाख का पठार सन् 1962 के अतीत को आज भी भुला नहीं सका है। हमारे अतीत में वह घाव आज भी रिसता है। 14 नवंबर, 1962 को भारत की संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया था, कि अक्साईचिन की 37,244 वर्ग किलोमीटर भूमि को आक्रमणकारी चीन से वापस लेकर ही मानेंगे। इस बहस में भारत की संसद के 165 सदस्यों ने भाग लिया था, और 08 नवंबर को इस प्रस्ताव को तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने संसद में रखा था। चीन ने भारत की भूमि को ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा लगाते हुए जिस तरह छलपूर्वक कब्जाया था, वह कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस युद्ध के बाद भी अनेक लड़ाइयाँ विश्व के इस सबसे ठंडे और ऊँचे युद्धक्षेत्र में हुईं। अनेक ललनाओं ने अपने सपूतों को भारतमाता की रक्षा के लिए बलि चढ़ाया। कई बहनों ने अपने भाई खोए। इन युद्धों और संघर्षों की विभीषिकाओं के अनेक चिन्ह आज भी लद्दाख अंचल के चप्पे-चप्पे में दिखते हैं।

हमारे वीर सैनिकों के बलिदानों की गौरव-गाथाएँ जहाँ हमें गर्व से भरती हैं, वहीं चीन के छल और छद्म को भी निरंतर स्मरण कराती रहती हैं। सन् 1962 में पंचशील के समझौते के साथ ही भारत का बदले हुए चीन पर, जनमुक्ति अभियान चलाने वाले चीन पर विश्वास टूट गया था। यह अलग बात है, कि उस समय कुछ नेतृत्वकर्ता राजनेता साम्यवाद के दिवास्प्नन में, बंजर-उजाड़ धरती के टुकड़े के रूप में अपनी भारतभूमि को देखने के यत्न में चीन पर भरोसा जोड़े रहे हों...। कुछ भी हो.. 1962 से 2020 तक आते-आते नेतृत्व भी बदला, और सोच भी बदली है। सन् 2020 के जून माह में गालवान घाटी पर भारत के सैनिकों ने चीन के घुसपैठियों को मुँहतोड़ जवाब दिया था। लगभग चार दशक बाद यह पहला अवसर था, जब इस सीमा पर गोलीबारी हुई। चीनी घुसपैठ को रोका गया। रूस की एजेंसी तास ने बाद में बताया था, कि चीन के पचास सैनिक इस झड़प में मारे गए थे।

गालवान की झड़प भारतीय संदर्भ में एक निर्णायक दिशा के रूप में देखी जा सकती है। इसके साथ ही भारत के सीमांतप्रदेशीय क्षेत्रों में, विशेषकर पूर्वी लद्दाख में सड़क-यातायात के साधनों का तेजी के साथ विस्तार हुआ है। पूर्वी लद्दाख में सेनाओं के परिचालन में बहुत कठिनाई होती थी, क्योंकि यहाँ सड़क मार्ग नहीं के बराबर ही थे। शयोक और नुबरा आदि नदियों पर पुल नहीं थे। सूचना और संचार के साधन भी बहुत सीमित थे। इन सभी संसाधनों का तेजी के साथ विकास सैन्य गतिविधियों और परिचालन के लिए बहुत लाभकारी और सीमा-सुरक्षा के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है।

अनेक आधुनिक शस्त्रास्त्रों से सैनिकों को सुसज्जित करने के साथ ही वायुसेना को भी आधुनिक हवाई जहाज, लड़ाकू विमान और हेलिकाप्टर आदि उपलब्ध कराकर तैयार किया गया है। आत्मनिर्भर अभियान के तहत भारत ने सैन्य सामग्री के निर्माण में कीर्तिमान बनाया है। देशी आयुधों के साथ ही स्वदेश निर्मित राडार तकनीक और अन्य सहायक सामग्रियों के साथ पूर्वी लद्दाख में तैनात भारतीय सेना हर समय मुस्तैद भी है, और सीमा पर किसी भी तरह की भारत विरोधी गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए सक्षम भी है।

चीन को भारत की इस तैयार की पूरा अंदाज है। इसलिए वह दूसरे रास्ते निकालता है। इनमें अन्य पड़ोसी देशों को भारत के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास, भारत के पड़ोसी देशों की भूमि का भारत को हानि पहुँचाने के लिए प्रयोग करने के प्रयास, समुद्री सीमा पर सैन्य गतिविधियों का संचालन और भारत के जन्मजात शत्रु को दाम, दंड, भेद की नीति के साथ भारत के विरुद्ध तैयार करने में चीन कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। ऐसी दशा में चीन पर भरोसा करना किस स्थिति में संभव हो सकता है?

चीन के आंतरिक राजनीतिक परिदृश्य में चीन का नया रोडमैप जो दिखता है, वह पुरानी व्यवस्था को बलपूर्वक बदलते हुए, चीनी नगरिकों की अपेक्षाओं को धता बताकर पुनः सत्ता पर काबिज होने के प्रयास करते-सफल होते हुए आकार लेता है। इसमें भारत को अपना पक्ष स्पष्ट और प्रबल-सबल रखना होगा। हमको अपनी रक्षात्मक नीति में आगे बढ़कर हमला नहीं करना है, लेकिन किसी भी देश-विरोधी गतिविधि का मुँहतोड़ उत्तर देने के लिए तैयार रहना चीन के संदर्भ में कारगर योजना कही जा सकती है। चीन पर भरोसा करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

-राहुल मिश्र

(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र सीमा संघोष मासिक, नई दिल्ली के नवंबर, 2022 अंक में प्रकाशित)

Thursday 30 June 2022

सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख

 


सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख

मोमोस शब्द और साथ ही इस नाम के व्यंजन का स्वाद आज किसी के लिए अनजाना नहीं है। बड़े-बड़े शहरों में मोमोस बाकायदा ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’ परोसने वाले होटलों में भी मिल जाते हैं, और सड़क के किनारे खड़े चाट के ठेलों पर भी ये सुलभ हो जाते हैं। बड़े शहरों की बात अलग ही है, यहाँ तो सबकुछ मिलना सुलभ-सरल है, लेकिन जरा कस्बाई और गँवई-गाँव के खानपान में उतरकर देखिए... आपको आश्चर्य होगा, कि यहाँ टिकिया, समोसा और कुछ आधुनिक होते समय के चाऊमीन-बरगर के साथ मोमोस भी मिल जाएँगे। हिम-आच्छादित लद्दाख का प्यारा और बहुत स्वादिष्ट व्यंजन- मोमोस... आज देश के कोने-कोने तक पहुँचा हुआ है।

किसी क्षेत्र-विशेष की सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान का बड़ा अंग उस क्षेत्र के प्रचलित व्यंजनों से बनता है। क्षेत्र-विशेष अपनी पहचान गढ़ते समय अपने व्यंजनों के चटखारों का स्वाद उतारता है। इडली-डोसा का उल्लेख करते ही दक्षिण भारत का चित्र आँखों के सामने होता है। इसी तरह बुंदेलखंड की बेड़ही-लपसी, पूर्वांचल की बाटी-चोखा और पंजाब की मक्के दी रोटी-सरसों दा साग अलग-अलग भौगौलिक रंग हमारे सामने ले आते हैं। देश की सांस्कृतिक विविधता का यह बड़ा अंग है। देश को जोड़ने वाले व्यंजनों पर अगर बात करें, तो एक अद्भुत रोमांच मन में भर जाता है, जो देश की विवधता में एकता को अनेक बार हमारे सामने ले आता है। लद्दाख भले ही दुर्गम और जटिल हो, लोगों के मन में इस बर्फीले रेगिस्तान को लेकर भले ही अनेक भ्रांतियाँ, भय और आश्चर्यजनक बातें हों; लेकिन लद्दाख के व्यंजनों ने इन मिथों को बखूबी तोड़ा है। इसी कारण देश के सुदूरवर्ती ग्राम्यांचलों में भी लद्दाखी मोमोस की हनक देखने को मिलती है।

वैसे तो लद्दाख की पहचान तीन चीजों से रही है, उसके अपने अतीत में.....। ये तीन चीजें हैं- सत्तू, पट्टू और टट्टू...। आपको यह जानकर निश्चित रूप से आश्चर्य हो सकता है, कि सत्तू जो है, वह लद्दाख की पहचान में शामिल है, जुड़ा हुआ है। बाकी दो में से पट्टू, अर्थात् दुशाला लद्दाख की शीत से बचाने के लिए बहुत आवश्यक है और टट्टू, अर्थात् अश्वों की एक वर्णसंकर प्रजाति लद्दाख की प्राचीन यातायात व्यवस्था का अभिन्न और प्रमुख अंग रहा है। लद्दाख में यातायात व्यवस्था के अंग के रूप में याक (चमरी मृग) और यारकंदी ऊँट (दो कूबड़ वाले) भी आते हैं, लेकिन नाम तो टट्टुओं का ही चलता है। इसका बड़ा कारण यह है, कि स्थानीय आवागमन और सामान ढुलाई के लिए टट्टू ही अधिकतर उपयोग में आते थे, जबकि यारकंदी ऊँट और याक की भूमिका प्रायः लंबी और दर्रों को पार करने वाली पहाड़ी यात्राओं में विशेष रूप से होती थी। ये सारी बातें इसलिए कहीं, कि सत्तू का महत्त्व भी कुछ इसी प्रकार का देखा जा सकता है, लद्दाख के जटिल जीवन में...।

लद्दाख में जौ की फसल पर्याप्त मात्रा में होती है। इस कारण लद्दाख में जौ का सत्तू चलन में है। भारत के मैदानी क्षेत्रों, जैसे- मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और बिहार आदि में चने का सत्तू चलता है। लद्दाख में चने की पैदावार नहीं है, लेकिन सत्तू बनाने की विधि है, सत्तू भी है... भले ही जौ का ही क्यों न हो..। जौ का सत्तू न केवल पौष्टिक होता है, वरन् इसकी तासीर गर्म होती है, जबकि चने के सत्तू की तासीर ठंडी होती है। यह भी एक बड़ा कारण लद्दाख में जौ के सत्तू के चलन के पीछे है। यह देखन बहुत रोचक है, कि सत्तू, जिसे लद्दाखी भाषा में ‘फे’ बोलते हैं, उसका प्रयोग क तरीके से रसोईघर और अतिथिगृह में होता है। कुछ व्यंजनों में इसका उपयोग किया जाता है, पूजा-पाठ में भी इसका उपयोग होता है। इसके अतिरिक्त यह सबसे अधिक चाय के साथ खाया या पिया जाता है।

लद्दाख में पानी पीना किसी चुनौती से कम नहीं, इस कारण भारत के मैदानी क्षेत्रों की तरह यहाँ पर अतिथियों के आगमन पर उन्हें पानी के लिए नहीं पूछा जाता है, चाय के लिए पूछा जाता है। चाय भी कई तरह की...., जैसे- गुरगुर चाय, लिप्टन चाय, ग्रीन टी और कहवा आदि। ग्रीन टी और कहवा से तो सभी परिचित होंगे, वैसे परिचित तो लिप्टन चाय से भी होंगे.... भ्रम केवल नाम के कारण हो सकता है। लिप्टन चाय दरअसल दूध वाली मीठी या शर्करामुक्त चाय के लिए प्रयोग होने वाला नाम है। इस नाम के माध्यम से लद्दाखी लोग चाय का एक भेद गढ़कर अतिथि को उसके चाय-चयन में मदद दे देते हैं। सबसे अधिक प्रचलित और प्रिय गुरगुर चाय है, लद्दाख में। यह पसंद तिब्बत तक बिखरी हुई है..., कह सकते हैं, कि समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में गुरगुर चाय का चलन है।

गुरगुर चाय वस्तुतः मक्खन डालकर बनाई गई नमकीन चाय है। इसके अपना नाम भी इसके बनाने में होने वाली ध्वनि से मिला है। लंबे बेलनाकार बरतन में मथानी जैसे डंडे से मथकर यह बनती है, और मथते समय गुरगुर की आवाज होती है। थोड़ी-सी चायपत्ती और मक्खन से बनी गुरगुर चाय में अनूठा-सा सोंधापन होता है। यह शरीर में नमक और पानी की मात्रा संतुलित करती है। गुरगुर चाय की प्याली के साथ सत्तू भी परोसा जाता है। अतिथिगण चाय की प्याली में सत्तू घोलकर या तो पी जाते हैं, या फिर खा लेते हैं। सत्तू ऐसा आहार है, जिसे आप तैयार खाद्य या ‘फास्ट फूड’ की श्रेणी में भी आसानी से रख सकते हैं। किसी भी यात्रा के लिए यह साथ ले जाने वाला सर्वोत्तम आहार है। कहीं पर भी खाया जा सकता है, कैसे भी खाया जा सकता है। मध्यभारत में तो सत्तू-नमक लेकर ढूँढ़ना... जैसे मुहावरे भी बने है। सत्तू यात्राओं के लिए बहुत उपयुक्त रहा है, विशेषकर जटिल-कठिन यात्राओं के लिए...।

लद्दाख यात्राओं के मार्ग का पड़ाव जैसा है। लद्दाख के ऊपरी हिस्से से होकर रेशम मार्ग निकलता है। लद्दाख की नुबरा घाटी रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए एक आरामगाह जैसी रही है। इसके साथ ही भारत के अन्य हिस्सों के लिए उतरने वाले संपर्क मार्गों के कारण लद्दाख एक बड़े व्यापारिक केंद्र व ठहराव के रूप में अपनी भूमिका निभाता रहा है। होशियारपुर के अनेक व्यापारियों के ठिकाने आज भी लेह में देखे जा सकते हैं। गुरु नानक अपनी यात्राओं के क्रम में लद्दाख भी पधारे थे। लेह के निकट गुरुद्वारा दातून साहिब और लेह-श्रीनगर राजमार्ग पर गुरुद्वारा पत्थरसाहिब उनकी यात्रा की अविस्मरणीय गाथा को आज भी गाते हैं।

एक समय ऐसा भी था, जब लेह बाजार में मध्य एशिया के हर हिस्से का प्रतिनिधित्व दिखाई देता था; व्यापारियों, क्रेता-विक्रेताओं, पहनावों और बिकते व्यंजनों के रूप में...। लेह बाजार में गुरुद्वारा दातून साहिब के पास ही नहीं, प्रायः पूरे लद्दाख में एक वर्ग ऐसा मिलेगा, जो तंदूरी रोटी बनाने-बेचने का काम करता है। इन्हें स्थानीय भाषा में नानवाई कहते हैं। इनके द्वारा बनाई तंदूरी रोटी लद्दाखी भाषा में ‘तागी’ कही जाती है। यह तागी कब रेशम मार्ग से उतरकर लद्दाख की ‘तागी’ और फिर पंजाब की ‘तंदूरी’ बनकर सारे देश और दुनिया में फैली...., जानना बहुत रोचक और रोमांचकारी होगा।

रेशम मार्ग पर चलने वाले यात्रियों और व्यापारियों के लिए दाना-पानी कितना जटिल रहा होगा, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। रेशम मार्ग में यात्रा करने के लिए पूरा का पूरा लाव-लश्कर होता था, जिसमें दो कूबड़ वाले ऊँटों पर चमड़े के बने थैलों में पानी, तागी या तंदूरी रोटी आदि के चलते-फिरते भंडार भी होते थे। इनके साथ ही समोसा जैसे व्यंजन भी होते थे, जो आटे के अंदर तीखा-चटपटा मसाला भरकर बनाए जाते थे। समोसा की उत्पत्ति भी यहीं से हुई, ऐसा कह सकते हैं। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था, बल्कि दर्शन-चिंतन-वैचारिकता की अनेक बातें भी इस मार्ग से आती जाती रहीं हैं। अनेक अध्येताओं ने इस रास्ते से चलकर ज्ञान की खोज की है। संस्कृतियों के आदान-प्रदान के साथ ही खान-पान की आदते और व्यंजन भी रेशम मार्ग से आए-गए हैं। और इन सबका प्रभाव आज भी लद्दाख में देखा जा सकता है। लद्दाख को यूँ ही नहीं मध्य एशिया का बड़ा केंद्र कहा जाता...।

प्रायः भौगोलिक परिस्थितियाँ और जलवायु के कारक क्षेत्र-विशेष के आहार-विहार को प्रभावित करते हैं। लद्दाख में यह पक्ष प्रमुख रूप से दिखता है। इसी कारण लद्दाखी व्यंजन देश के अन्य भागों के व्यंजनों से अलग बनते हैं। लद्दाखी व्यंजन स्थानीय आवश्यकता के अनुसार प्रायः पर्याप्त तरल होते हैं। अकसर सूप तरलता को बढ़ाने का काम करते हैं। मैदानी क्षेत्रों में मोमोस को भले ही चटनी के साथ खाने का चलन हो, लेकिन लद्दाख में मोमोस सूप के साथ ही खाए जाते हैं। मोमोस के अतिरिक्त थुक्पा में भी पर्याप्त सूप होता है। थुक्पा व्यंजन में मोटी सेवइयाँ जैसी होती हैं, जिन्हें खूब रसेदार सूप में डालकर पकाया जाता है, और गरम-गरम पी लिया जाता है। इससे शरीर में गरमी भी आती है, और पानी की कमी भी साथ-साथ पूरी होती जाती है। ‘स्क्यू’ भी कुछ इसी तरह का व्यंजन होता है। इसमें ढेर सारी सब्जियाँ- पालक, मंगोल, लाल मटर आदि डालकर खूब तरल करके पकाया जाता है, और खौलती हुई तरल सब्जी में आटे के गोल-चौकोर टुकड़े जैसे डालकर उबाला जाता है। इसे भी रसेदार बनाते हैं और इसे भी सूप की तरह से पीते हुए खाया जाता है।

खोलक एकदम अलग तरह का व्यंजन है। लद्दाख में चपातियाँ बनाने का विधान नहीं है। चपाती के रूप में अगर कहें, तो ‘तागी’ ही है, जिसका उल्लेख पूर्व में किया गया है। एक रोचक बात ‘तागी’ के बारे में बताना यहाँ आवश्यक लगती है। लद्दाख में एक कहावत कही जाती है- ‘बेचारा रोटी खाकर जिंदा है..।’ यह कहावत गरीब-दीन-हीन व्यक्ति के लिए कही जाती है। लद्दाख में चावल विशिष्ट और कुलीन वर्ग का आहार माना जाता था। लद्दाख में चावल पैदा नहीं होता था, जिस कारण चावल बहुत महँगा बिकता था। दूसरी तरफ नानवाई की रोटियाँ सहज सुलभ थीं, हर वर्ग के व्यक्ति के लिए..। आज स्थिति ऐसी नहीं है, लेकिन अतीत की यादें जीवंत हैं। हम बात कर रहे थे, लद्दाखी व्यंजन खोलक की..। यह एक तरह से चपाती का ही रूप है, लेकिन इसे सीधे आँच में नहीं पकाया जाता। मैदा या आटा को सानकर उसका कलात्मक लड्डू जैसा आकार बनाकर भाप में पकाया जाता है। फिर उसे दाल में डालकर या सब्जी के साथ खाया जाता है।

लद्दाख की जलवायु के अनुसार यहाँ के प्रायः सभी व्यंजन कम मसालेदार और भाप में पके हुए होते हैं। इनको पकाने के लिए अलग तरह के बरतन भी होते हैं। वैसे लद्दाखी रसोई भी कम कलात्मक नहीं होती। लद्दाखी घरों में रसोई केवल खाना पकाने के लिए नहीं होती, वरन् खाना खाने और घंटों बैठकर गपशप करने के लिए भी होती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लद्दाख और तिब्बत की अपनी यात्राओं के साथ यहाँ के रसोईघरों का भी रोचक वर्णन किया है। वे यह भी लिखते हैं, कि बाहरी व्यक्ति के लिए रसोई तक पहुँचना कठिन नहीं होता। रसोईघर में चूल्हा कुछ इस तरह का होता है, कि उसके निकट बैठकर शीत से बचाव किया जा सकता है। इस तरह पूरा परिवार और अतिथिगण भी रसोई में बैठकर गरमागरम भोजन का आनंद ले सकते हैं, शीत से स्वयं को बचाते हुए। यह व्यवस्था एक तरह से कम संसाधनों का उपयोग करते हुए जीवन जीने की कला भी सिखाती है।

विश्वग्राम की संकल्पना ने सारी दुनिया को एक जगह पर समेट दिया है। जिस तरह मोमोस लद्दाख से निकलकर सुदूरवर्ती गाँवों तक पहुँचे हैं, उसी तरह से चोखा-बाटी, इडली-डोसा, जलेबी-टिकिया आदि लद्दाख में भी सुलभ हैं। इतना ही नहीं लद्दाख के बड़े होटलों के साथ ही छोटे-छोटे होटलों और रेस्टोरेंट्स में ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’ भी खूब मिलती हैं। लद्दाख उभरते हुए पर्यटन केंद्र के रूप में देश ही नहीं विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। इस कारण देश-दुनिया के पर्यटकों के साथ देश-दुनिया की खान-पान की आदतें और व्यंजन भी लद्दाख पहुँचे हैं। आज के समय में सत्तू लद्दाख के दूर-दराज के गाँवों में सरलता से मिल सकता है, अपेक्षाकृत लद्दाख के शहरी  क्षेत्रों के...। आधुनिकता ने बहुत कुछ बदला है। यह बदलाव खान-पान में भी आया है। यह सांस्कृतिक संक्रमण का समय है। लद्दाख के ठंड से ठिठुरते समय में बैठकर मसाला डोसा खाना एकदम अलग अनुभव देता है। किसी गाँव के चाट के ठेले में खड़े होकर मोमोस खाना भी अलग ही लगता है। अगर गहरे उतरकर सोचें, तो कई-कई बार यह अनुभूत होता है, कि हम व्यंजन नहीं, देश को एक सूत्र में पिरोने वाले सूत्रों का सुख व आनंद अपने अंदर उतार रहे हैं।

-राहुल मिश्र (आचार्य अनामय)

(कश्फ, अर्धवार्षिकी, संयुक्तांक दिसंबर, 2021 से जून, 2022, वर्ष- 20-21, संपादक- डॉ. विनोद तनेजा, अमृतसर में प्रकाशित)

Tuesday 26 April 2022

असम-मेघालय सीमा-विवाद सुलझाकर पूर्वोत्तर बनेगा देश का विकास इंजन

 


असम-मेघालय सीमा-विवाद सुलझाकर

पूर्वोत्तर बनेगा देश का विकास इंजन


वर्ष 2022 की 29 मार्च की तिथि पूर्वोत्तर के इतिहास में इतनी महत्त्वपूर्ण होगी, जिसका असर लंबे समय तक दिखाई देगा। यह दिन भारत के लिए भी बहुत महत्त्व का है। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा का बयान इस तिथि पर बड़े मार्के का है, और असम-मेघालय सीमा-विवाद के बाद उनका यह बयान बहुत चर्चित भी रहा है। वे कहते हैं, कि- “जब वे पहली बार मुख्यमंत्री बने थे, तब गृहमंत्री ने कहा था, कि सीमा विवाद को हल करें। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं, कि पूर्वोत्तर देश का विकास इंजन बने..।“

कह सकते हैं, कि हिमंत बिस्व शर्मा को दि गए दायित्व की सफलता का पहला चरण 29 मार्च, 2022 को पूरा हुआ है। भारतीय राजनीति में हिमंत बिस्व शर्मा एकदम अलग छवि रखते हैं। उनकी स्पष्टवादिता और अनथक कर्मशीलता देखते ही बनती है। केंद्र के राजनीतिक नेतृत्व को संभवतः इसी कारण उन पर बड़ा भरोसा है, और यह भरोसा भी सफल-सच होता दिखा है।

असम और मेघालय के बीच विवाद के सुलझने की यह खबर कोई सामान्य घटना नहीं है। इसके पीछे अतीत में उतरकर देखें, तो बहुत सारे आयाम और अनेक बातें खुलकर सामने आती हैं। देश के केंद्रीय नेतृत्व के लिए पूर्वोत्तर के विवादों को सुलझाना हमेशा से ही बड़ी चुनौती रहा है। पिछली सरकारों के इस दिशा में प्रयास ईमानदारी के साथ हुए होंगे, ऐसा कहना कठिन लगता है। एक कहावत- चोर को कहना चोरी करो.... साहूकार को कहना जागते रहो...., इस संदर्भ में सार्थक लगती है। लेकिन वर्तमान सरकार ने इस विषय पर अपनी गंभीरता और अपने दायित्वबोध को खुलकर प्रकट किया है, साथ ही निभाया भी है। वर्तमान केंद्र सरकार की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ का यह बड़ा अंग रहा है।

पूर्वोत्तर का भारतीय सीमांत सुरक्षा और प्रगति के सोपानों में, शांति-स्थिरता के प्रयासों में बहुत बड़ा योगदान है। चाहे देश हो, या घर... पूर्वोत्तर का क्षेत्र ऊर्जा के केंद्र में होता है। ईशान्य कोण में शक्ति का वास होता है। एक समय ‘नेफा’ के नाम से प्रसिद्ध भारत का ईशान्य सीमांत क्षेत्र पुरातनकाल से ही धर्म, अध्यात्म, साधना का केंद्र रहा है। इस क्षेत्र के महत्त्व को न केवल ज्योतिषशास्त्र में, वरन् समग्र भारतीय चेतना एवं एकात्मता के संदर्भ में भी बहुत महत्त्व का माना जाता है। इसी कारण एक ओर जहाँ इस क्षेत्र में वर्ष भर आध्यात्मिक यात्राएँ और आयोजन किए जाने की परंपरा रही है, वहीं दूसरी ओर इस क्षेत्र के गौरव को विखंडित करने के प्रयासों के साथ भारत और भारतीयता को क्षति पहुँचाने के काम भी पराधीनता के काल में होते रहे हैं।

भारतदेश की स्वाधीनता के साथ मिले पूर्वोत्तर की अशांति के दंश क विश्लेषण करते-करते सुई विभाजन और राज करो की नीति पर, क्षेत्रीय-जातीय अस्मिता के असीमित व्यवहार पर, और सबसे बड़ी बात, कि ईसाईयत के विस्तार पर जाकर टिक जाती है। पूर्वोत्तर के वन-प्रांतरों में निवास करने वाले वनवासीजन-गिरिजन सदा प्रकृति की पूजा करते हुए सनातन परंपरा से जुड़े रहे। पराधीनता के कालखंड और उसके बाद के वर्षों में ईसाईकरण के कारण स्थितियाँ गंभीर होती गईं। विगत वर्ष 26 जुलाई को असम और मिजोरम के बीच ऐसा संघर्ष हुआ था, जिसने प्राग्ज्योतिष क्षेत्र की धरती को न केवल रक्तरंजित कर दिया था; वरन् असम और मिजोरम, दोनों  राज्यों के कई लोगों को अपनी जान तक गँवानी पड़ी थी। 26 जुलाई, 2021 का यह संघर्ष भी सीमा के विवाद को लेकर हुआ था, किंतु इस संघर्ष में जिस तरह से दोनों राज्यों के सीमावर्ती क्षेत्रों के लोग भिड़े थे, उसे देखकर ऐसा लग रहा था, मानों दो देश आपस में लड़ रहे हों।

यह घटना अपने आप में बहुत बड़ा संदेश देने वाली थी। असम और मिजोरम का सीमा विवाद उन दो राज्यों के बीच का था, जो पचास-पचपन वर्ष पहले एक ही थे। असम या कामरूप या प्राग्ज्योतिष एक राज्य रहा है। देश की स्वाधीनता के बाद विभिन्न क्षेत्रीय पहचानों और भाषायी विविधता ने इसे अलग-अलग राज्यों में बाँटा। मिजोरम, मेघालय और नागालैंड आदि इसी आधार पर अलग-अलग राज्य बने। यह तत्कालीन नीति-निर्धारकों या राज्य-विभाजन की योजना बनाने वाले लोगों का दायित्व बनता था, कि सीमाओं का निर्धारण इस तरह से किया जाए, कि भविष्य में विवाद की स्थितियाँ पैदा नहीं हों। किंतु संभवतः उस समय ऐसा नहीं हो सका। इसके पीछे के कारण शोध के विषय हैं। कुल मिलाकर तब से ही अलग-अलग तरीकों से, अलग-अलग रूपों में पूर्वोत्तर के विवाद समाचारों की सुर्खियों में आते रहे हैं। यह भी बड़ा महत्त्वपूर्ण तथ्य है, कि इन सुर्खियों को न तो पहले कभी दिल्ली ने गंभीरता से लिया, न कभी देश के अन्य हिस्सों ने। इतना अवश्य हुआ, कि इन विवादों पर राजनीति की रोटियाँ सेंकी गईं, राजनीतिक दलों ने अपनी सत्ता की लिप्सा को शांत करने के यत्न किए।

आमजन के लिए ये स्थितियाँ कितनी कष्टदायक रहीं होंगी, इसका आकलन विगत वर्ष 26 जुलाई की मात्र एक घटना से ही लगा सकते हैं, जिसमें रोते-बिलखते बच्चों, माताओं, बहनों, बुजुर्गों के आँसू सारे देश ने देखे थे। यह तो एक घटना थी... पीछे ऐसी कितनी ही घटनाएँ हुई होंगी, अनुमान लगाना और उन घटनाओं की वेदना को अनुभूत करना बहुत ही कठिन है। यदि 26 जुलाई, 2021 की हृदय-विदारक घटना से सबक लेते हुए प्रांतीय विधानमंडलों और केंद्रीय सरकार की राजनीतिक इच्छाशक्ति ऐसे सीमा विवादों को हल करने के लिए प्रतिबद्ध होती है, तो उसमें बड़ा अंश आमजन की वेदना और दुःख को अनुभूत करने वाली वैचारिकता का है।

देश के केंद्रीय नेतृत्व की ‘लुक ईस्ट पॉलिसी’ अपने पिछले कार्यकाल से ही प्रभावी रही है, मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में यह ‘पॉलिसी’ अपना मूर्त रूप तेजी से पाती है। साथ ही अपनी संवेनशीलता को सकारात्मकता के साथ आमजन की स्थिति से जोड़ते हुए कार्य के लिए प्रतिबद्ध होती है। इसी कारण असम और मेघालय के बीच सीमा-विवाद को सुलझाने के लिए पहली बार जनता की राय को, जनमत को प्राथमिकता दी गई है। असम-मेघालय सीमा में जिन 06 जगहों पर विवाद को समाप्त किया गया है, वहाँ पर पुराने नक्शों और ऐतिहासिक पक्षों-बिंदुओं की जगह जनता के विचारों को पहले स्थान पर रखा गया है। इन 06 चिन्हित जगहों पर बसे 36 गाँवों के लोगों की मंशा को, उनकी अपेक्षा और उनके विचारों-प्रतिक्रियाओं को संकलित करके विवाद को हल करने की वार्ता प्रारंभ की गई थी, मसौदा तैयार किया गया।

असम-मेघालय सीमा विवाद को हल करने के लिए विगत वर्ष अगस्त में तीन-तीन समितियाँ बनाई गईं थीं। कह सकते हैं, कि 26 जुलाई की घटना के तुरंत बाद राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने सक्रियता दिखाते हुए इस दिशा में काम प्रारंभ किया। दोनों राज्यों की समितियों द्वारा सिफारिशों और समझौते के मसौदे को तैयार किया गया था। इसे 31 जनवरी को असम और मेघालय के मुख्यमंत्रियों ने संयुक्त रूप गृह मंत्रालय को सौंपा था। गृह मंत्रालय ने दो महीने के अंदर ही तथ्यों व स्थितियों की पड़ताल करके समझौते के प्रारूप को हरी झंडी दे दी। इसके परिणामस्वरूप 29 मार्च, 2022 को नई दिल्ली में देश के गृहमंत्री के समक्ष दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने समझौता-ज्ञापन पर हस्ताक्षर करके 06 स्थानों के 36 गाँवों की 36.79 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र के सीमा-विवाद पर पूर्ण विराम लगा दिया। इस समझौते के तहत असम को 18.51 वर्ग किमी. और मेघालय को 18.28 वर्ग किमी. क्षेत्र मिला है।

असम और मेघालय के बीच सीमा-विवाद अपने पहले चरण में 06 स्थानों पर हल हुआ है, जबकि शेष 06 स्थानों पर विवाद को सुलझाने की प्रक्रिया अभी चल रही है। असम-मेघालय के मध्य 12 स्थानों पर विवाद मेघालय के अस्तित्व में आने के समय से ही चला आ रहा है। सन् 1971 में असम राज्य पुनर्गठन अधिनियम के तहत अस्तित्व में आए मेघालय ने सन् 1972 में ही इस अधिनियम को चुनौती दे दी थी। तब से ही असम-मेघालय के सीमावर्ती 12 क्षेत्रों में विवाद की स्थितियाँ बनी हुईं थीं। सन् 2010 में लंगपीह नामक एक सीमावर्ती क्षेत्र में भीषण रक्तरंजित संघर्ष हुआ था, जो सीमा विवाद की ही देन था। इस संघर्ष में चार लोगों की मृत्यु हुई थी और कई लोग गोलीबारी में घायल हुए थे। इस बड़ी घटना के अलावा अनेक छोटी-छोटी झड़पों की गिनती करना भी कठिन है। दोनों राज्यों की सीमा के निर्धारण में आँकड़ों की कारीगरी और इच्छाशक्ति के अभाव ने क्षेत्रीय अस्मिता व जातीय संघर्ष को इस स्तर तक पहुँचा दिया था, कि अपने ज्ञात अतीत से भी कहीं आगे के समय से एक साथ रहते चले आ रहे लोग महज राज्य पुनर्गठन अधिनियम के कारण एक-दूसरे के शत्रु बन गए थे। सन् 1972 से लगातार यह वैमनस्य उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहा, विवाद के क्षेत्र बढ़ते रहे, लेकिन पहले कभी भी इन विवादों को रोकने के प्रयास निष्पक्ष भाव से दिखाई नहीं दिए। इन कारणों से भी 29 मार्च, 2022 को अविस्मरणीय दिन के रूप में सदैव याद रखा जाएगा।

हालाँकि चुनौतियाँ अभी भी समाप्त नहीं हुईं हैं। असम और मेघालय के बीच 12 स्थानों में से छह स्थानों पर ही सीमा विवाद हल हुआ है। भले ही यह सीमा-विवाद का 70 प्रतिशत हो, लेकिन शेष 30 प्रतिशत अभी हल किया जाना शेष है। कहा जा सकता है, कि असम के साथ मेघालय का विवाद तो अब मात्र 30 प्रतिशत ही बचा है, लेकिन असम के साथ अन्य राज्यों का सीमा विवाद अभी भी बरकरार है। सन् 1971 में असम राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अस्तित्व में आने के साथ ही समूचा पूर्वोत्तर क्षेत्र अशांति की भेंट चढ़ गया था। इसके पहले भी इस क्षेत्र के लिए अधिसूचनाएँ बनाई और लगाई गईं थीं। जातीय अस्मिता, धार्मिक विविधता, भौगौलिक जटिलता और विविधता को मंडित करने वाली राजनीतिक चेष्टाओं ने इन स्थितियों को जटिल बनाकर रखा था। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व शर्मा और मेघालय के मुख्यमंत्री कोनराड संगमा, दोनों ने ही अपनी प्रबल इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए इस ग्रंथि का शमन किया है। केंद्र की मोदी सरकार, स्वयं प्रधानमंत्री मोदी और भारत के गृहमंत्री अमित शाह के प्रयासों का तो कोई सानी ही नहीं है। असम-मेघालय सीमा समझौते के समय प्रधानमंत्री मोदी के एक बयान की भी बड़ी चर्चा रही। प्रधानमंत्री मोदी अकसर कहते रहते हैं, कि जब भारत-बांग्लादेश सीमा विवाद सुलझ सकता है, तो भारत के दो राज्यों के बीच सीमा विवाद सुलझना कोई बड़ी बात नहीं है।

प्रधानमंत्री मोदी का आत्मविश्वास और उनकी कार्यशैली इस तथ्य की परिचायक है, कि राजनीतिक इच्छाशक्ति, सूझबूझ और सहजता के साथ वर्षों पुरानी जटिल समस्याओं को भी शांति के साथ हल किया जा सकता है। चुनौतियाँ भले ही बड़ी हों, गहरी हों, और जटिल हो... इच्छाशक्ति और निष्काम कर्मशीलता अवश्य ही उन्हें हल कर देती है। असम-मेघालय के सीमा-विवाद का अगला चरण आगामी छह माह में पूरा होने वाला है। इतना ही नहीं, इस प्रयास ने भविष्य के अनेक रास्तों को खोला है, संभावनाओं को जन्म दिया है।साथ ही इस विश्वास को भी प्रबल किया है, कि देश के अंदर राज्यों के बीच अब सीमा-विवाद पुराने समय की बात हो चुकी है। अब हम एक राष्ट्र के रूप में एकसाथ आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं। पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा व महत्त्वपूर्ण राज्य- असम और पूर्वोत्तर का मेघ से आच्छादित प्रकृति की सुरम्यता से पूरित राज्य- मेघालय अपने-अपने पड़ोसियों के साथ विवाद को सुलझाकर यह सिद्ध कर रहे हैं, कि पूर्वोत्तर सही अर्थों में देश का विकास इंजन है।

-आचार्य अनामय (राहुल मिश्र)

 (मासिक पत्रिका सीमा संघोष, नई दिल्ली के अप्रैल, 2022 अंक में प्रकाशित)