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Sunday 17 August 2014

सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान


सआदत हसन मंटो का जीवन और योगदान
सआदत हसन मंटो उर्दू के सर्वाधिक विवादास्पद, चर्चित और महत्त्वपूर्ण लेखक के रुप में जाने जाते हैं। मुंशी प्रेमचंद के बाद उर्दू कहानी को एक नया आयाम देने और अपनी रचनाधर्मिता के माध्यम से उर्दू कहानियों में नए आयाम सृजित करने का कार्य सआदत हसन मंटो ने किया। मंटो की खूबी यह है कि वे अपने जीवनकाल में जितने चर्चित रहे, उतने ही चर्चित और प्रासंगिक आज भी हैं। मंटो का रचनाकाल आज के दौर से एकदम अलग था। उस समय साहित्य से अपेक्षाएँ थीं कि साहित्य अपने माध्यम से देश की आजादी की लड़ाई के लिए योगदान दे, किंतु मंटो ने इस भूमिका को अलग अंदाज में निभाया। उन्होंने समाज के उस क्रूर और कटु यथार्थ को, उस हकीकत को तरजीह दी, जो उस जमाने में वर्जित हुआ करती थी। इसी कारण वे जीवन-भर विवादों में रहे। उन पर आरोप भी लगे, उन्हें ताने-उलाहने भी मिले और उन पर मुकदमे भी चले। मंटो की रचनाओं में जितनी विविधता, जितना संघर्ष और जितनी सपाटबयानी नज़र आती है, वही सब उनकी जिंदगी में भी देखने को मिलती है।
उर्दू जुबान के इस नामचीन अफ़सानानिगार का जन्म पंजाब के समराला नामक स्थान में 11 मई, 1911 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के खानदान में हुआ था। उनके वालिद गुलाम हसन नामचीन बैरिस्टर और सेशन जज थे। उनकी माता का नाम सरदार बेगम था। मंटो उन्हें बीबीजान कहा करते थे। उनके पिता जितने सख्तमिजाज थे, उनकी माता उतनी ही नर्म स्वभाव वाली थीं। मंटो अपने माता-पिता के बारे में एक जगह लिखते हैं कि- उनके वालिद, ख़ुदा उन्हें बख़्शे, बड़े सख़्तग़ीर थे, और उनकी वालिदा बेहद नर्मदिल। इन दो पाटों के अंदर पिसकर यह दाना-ए-गुंदम किस शक्ल में बाहर आया होगा, इसका अंदाज़ा आप कर सकते हैं। मंटो बचपन से ही बहुत होशियार थे और शरारती भी थे। उर्दू में कमजोर होने के कारण एंट्रेंस इम्तिहान में दो बार फेल होने के बाद मंटो को अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में दाखिला मिला। इन्ही दिनों मंटो ने अपने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक नाटक मंडली बनाई। इस नाटक मंडली ने आगा हश्र के एक नाटक के मंचन की तैयारी भी शुरू कर दी। एक खानदानी बैरिस्टर को यह कैसे बर्दाश्त हो सकता था कि उसका बेटा नाच-गाने जैसी निम्न और समाज में बुरी नज़र से देखी जाने वाली गतिविधि में शामिल हो, लिहाजा मंटो के वालिद साहब ने एक रोज़ मंटो के हारमोनियम और तबले फोड़ दिए। इसके बाद नाटक मंडली ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। मंटो के वालिद ने उन्हें तीखे अल्फाज़ में बता दिया था कि ऐसे वाहियात शगल उन्हें कतई पसंद नहीं हैं। इसके बावजूद मंटो की रचनाधर्मिता थमी नहीं। सन् 1931 में मंटो का दाखिला हिंदू महासभा कॉलेज में हुआ। उन दिनों देश की आजादी की लड़ाई अपने चरम पर थी। 1919 के जलियाँवाला बाग की घटना ने सात वर्ष के बालक मंटो के दिल और दिमाग पर गहरा प्रभाव डाला था। अपने आसपास क्रांतिकारी गतिविधियों को देखकर, इंकलाब जिंदाबाद के नारे सुनकर मंटो की इच्छा भी होती थी कि वह क्रांतिकारी गतिविधियों में शरीक हो जाए, मगर हर बार वालिद की सख़्तगीरी आड़े आ जाती थी। पिता के सख्त विरोध के बावजूद मंटो अदब से मुखातिब हुए और उनका पहला अफ़साना ‘तमाशा’ नाम से तैयार हो गया। इस कहानी में मंटो ने सात वर्ष के बालक खालिद की मानसिक स्थिति के जरिए जलियाँवाला बाग की घटना को अंजाम देने वाली विनाशक-क्रूर ताकतों की बर्बरता को पेश किया। सन् 1934 में 22 वर्ष की उम्र में मंटो ने जब अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, तब उनकी मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई। प्रगतिशील विचारधारा और देश की आजादी की लड़ाई की प्रेरणा से सन् 1935 में उनकी दूसरी कहानी- इनक़िलाब पसंद आई, जो अलीगढ़ मैगजीन में प्रकाशित हुई। मंटो की एक और कहानी- 1919 की बात में भी यही संदर्भ देखने को मिलता है। इस कहानी में इतिहास के जरिए कहानी बुनने के हुनर को देखा जा सकता है। ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं को कहानी में पिरोकर कहने की परंपरा मुंशी प्रेमचंद के जमाने में थी। मंटो ने भी ऐसा ही किया, मगर अपने खास अंदाज में। देश की आजादी की लड़ाई को मंटो ने अपनी कई कहानियों में अलग-अलग ढंग से व्यक्त किया है। नया कानून कहानी में मंगू कोचवान के जरिए मंटो ने आजादी के दिनों की आम आदमी की मानसिकता को व्यक्त किया है। स्वराज्य के लिए कहानी में मंटो की क्रांतिकारी-साम्यवादी विचारधारा का गांधीवाद के साथ विरोध प्रकट होता है। इस कहानी के पात्रों- गुलाम अली और निगार के बीच संबंधों के जरिए आजादी की लड़ाई में शामिल दो अलग-अलग विचारधाराओं की पड़ताल की गई है। दो कौमें, एक ख़त, दो गड्ढे, नारा, यजीद और खाली बोतलें खाली डिब्बे कहानियों में मंटो ने राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों को बड़ी शिद्दत से व्यक्त किया है।
मंटो को अफ़सानानिगार बनने की प्रेरणा रूसी साम्यवादी साहित्य और फ्रांसीसी साहित्य के अनुवाद कार्य करने से मिली। अब्दुल वारी नामक एक पत्रकार की प्रेरणा से मंटो ने अपने लेखन की शुरुआत अनुवाद के माध्यम से की थी। सन् 1932 में मंटो के वालिद का इंतकाल हो गया था, उन्ही दिनों भगत सिंह को फाँसी की सजा दी गई थी, लिहाजा मंटो ने अपने कमरे में अपने वालिद की फोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखकर कमरे के बाहर ‘लाल कमरा’ लिख दिया था। मंटो की इस साम्यवादी वैचारिक पृष्ठभूमि ने उनके लेखन की नींव डालने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मंटो की कहानियों में राजनीतिक और सामाजिक पड़ताल के नजरिए का विकास उनकी साम्यवादी चिंतनधारा और प्रगतिशील वैचारिकता के कारण हुआ।
राजनीति और समाज के अलावा मंटो ने अपनी कहानियों के जरिए धर्म और साहित्य की हकीकतों का पर्दाफाश भी किया है। शहीद साज़ और शहदौले का चूहा कहानियों में मंटो ने अंधविश्वासों में जकड़े समाज की ऐसी कड़वी हकीकत को साझा किया है, जिसे सभ्य समाज द्वारा कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता। इन कहानियों में मंटो ने सभ्य कहे जाने वाले समाज की भ्रष्टता को बड़ी कलात्मकता और व्यंग्य के साथ उभारा है। खुदा की कसम कहानी के जरिए मंटो ने उन साहित्यकारों की खबर ली है, जो अपने समय और समाज की हकीकतों से दूर ख्वाबों की दुनिया में मशगूल रहते थे। साहित्य की समाज और सच्चाई से दूरी को मंटो ने न केवल महसूस किया, वरन् इस संकट का डटकर मुकाबला भी किया। मंटो के द्वारा लीक से हटकर चलने की इस कोशिश ने उर्दू कहानी को भी एक नई दिशा दी। आज की उर्दू कहानी अगर समय की सच्चाई से, समाज की हकीकत से और कथ्य की प्रभावोत्पादकता से जुड़ी है, तो इसे मंटो का योगदान ही माना जाएगा।
 मंटो ने अपने आसपास की जिंदगी को, अपने समय की सच्चाई को खुली आँखों से न केवल देखा था, वरन् उसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करके अफसाना बनाया था। उस दौर की एक और कड़वी सच्चाई थी, देश का विभाजन और विभाजन के बाद होने वाले दंगे। गंगा-जमुनी तहजीब को लहूलुहान कर देने वाला यह जख़्म मंटो की कहानियों में लगातार रिसता रहा। मंटो के लिए विभाजन की त्रासदी को सह पाना बहुत कठिन था। इसी कारण दंगों के दुष्प्रभाव और विकृत स्थितियों का जितना मार्मिक चित्रण मंटो की कहानियों में देखने को मिलता है, उसे कहीं और ढूँढ़ पाना बहुत कठिन है। मंटो की बहुचर्चित कहानी- टोबा टेकसिंह इसी तासीर की बहुत मार्मिक कहानी है। कहानी में दो देशों के बीच की जगह में चीख-चीखकर अपनी जान दे देने वाला टोबा टेकसिंह राजनीति की क्रूरता के सामने दम तोड़ने वाली गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है। इसी तरह टिटवाल का कुत्ता कहानी में  विभाजित देश की सीमाओं में एक ओर तैनात सूबेदार हिम्मत खाँ और दूसरी ओर तैनात जमादार हरनाम सिंह की गोलियों से छलनी होकर मरने वाला टिटवाल का कुत्ता उस आम आदमी की प्रतीक है, जिसे कभी हिंदुस्तानी होकर तो कभी पाकिस्तानी होकर राजनीतिक वहशीपन का शिकार होना पड़ता है। ठंडा गोश्त, खोल दो और नंगी आवाजें कहानियों को लेकर मंटो के ऊपर अश्लीलता के आरोप लगे थे और उन पर मुकदमा भी चला था। इन कहानियों को भले ही अश्लील कहकर मंटो पर आरोप लगाए जाएँ, मगर दंगों की भयावहता के बीच मानवता को शर्मसार करने वाली स्थितियों को जितनी शिद्दत के साथ इन कहानियों में प्रकट किया गया है, उसे कहीं और देख पाना संभव नहीं है। गुरमुख सिंह की वसीयत, शरीफन, रामखेलावन और मोजेल भी ऐसी ही कहानियाँ हैं, जिनके जरिए देश विभाजन के वक्त दंगों की भयावहता को और दंगों के पीछे काम कर रही क्रूर मानसिकता को समझा जा सकता है। दंगों पर ही केंद्रित कहानी- सहाय में मंटो लिखते हैं कि- वे लोग बेवकूफ हैं, जो समझते हैं कि बंदूकों से मजहब शिकार किए जा सकते हैं- मजहब, दीन, ईमान, धर्म, यकीन, विश्वास- ये जो कुछ भी हैं हमारे जिस्म में नहीं, आत्मा में होते हैं- छुरे, चाकू और गोली से ये कैसे फ़ना हो सकते हैं। मंटो का यह विचार इंसानियत के प्रति असीमित आस्था को, उनके मानवीय दृष्टिकोण को प्रकट करता है। आज के वैश्विक संदर्भ में मंटो का यह कथन एकदम सही और सटीक लगता है।
सआदत हसन मंटो की कहानियों में जिस तरह की हकीकत और बेचैनी यक्साँ है, वैसी ही उनके जीवन में भी दिखती है। मंटो 1935 में अलीगढ़ से लाहौर चले गए। वहाँ उन्होंने पारस अखबार में काम किया और मुसव्विर का संपादन भी किया। वे कुछ दिन बाद ही मुंबई आ गए, जहाँ उन्होंने फिल्मों की पटकथाएँ लिखने और फिल्म-जगत् की पत्रिकाओं में लेखन कार्य किया। मुंबई में चार साल गुजारने के बाद मंटो दिल्ली आ गए और और लगभग डेढ़ वर्षों तक आकाशवाणी में काम किया। यहीं पर उन्होंने बेहतरीन रेडियो-नाटक लिखे, जो आओ, मंटो के ड्रामे, जनाज़े और तीन औरतें संग्रहों में प्रकाशित हुए। दिल्ली प्रवास के दौरान ही मंटो का लेख-संग्रह- मंटो के मज़ामीन प्रकाशित हुआ। दिल्ली से एक बार फिर मंटो मुंबई चले गए। मुंबई के अपने प्रवास के दौरान मंटो ने अपनी नगरिया, आठ दिन और मिर्जा गालिब फिल्मों की पटकथाएँ लिखीं।
मंटो को भले ही अफ़सानानिगार के रूप में पहचान मिली हो, मगर मंटो बेहतरीन नाटककार भी थे। मंटो ने खासतौर पर रेडियो-नाटक लिखे हैं, मगर उनके नाटकों में मानसिकता की पड़ताल, समय और समाज की हकीकत और मानवीय संबंधों की जटिलता को उसी तल्खी के साथ देखा जा सकता है, जैसी उनके अफ़सानों में नज़र आती है। कबूतरी, नीली रगें, कमरा नंबर 9, रणधीर पहलवान, माचिस की डिबिया, रासपुतिन की मौत, नेपोलियन की मौत और चंगेज खाँ की मौत आदि उनके प्रसिद्ध नाटक हैं।
मंटो ने अपने जीवन में अनेक संघर्षों को झेलते हुए, अश्लीलता के आरोपों में अदालतों के चक्कर लगाते हुए, समाज की विकृतियों से विचलित होकर भटकते हुए बदकिस्मती को भोगते हुए सारा जीवन गुजार दिया। यह अजीब इत्तेफ़ाक था कि जिस दिन मंटो ने लाहौर में आखिरी साँस ली थी, उस दिन मंटो की लिखी फिल्म मिर्जा ग़ालिब दिल्ली में हाउसफुल चल रही थी। अंतोव चेखव के बाद मंटो ही ऐसे कहानीकार थे, जो अपनी कहानियों के बूते ही प्रसिद्ध हो गए। यह अलग बात है कि उनके जीते-जी उनका उचित मूल्यांकन नहीं हो सका। हिंदी और उर्दू के वर्तमान साहित्य में मंटो जितने चर्चित हुए हैं, उतनी चर्चा किसी दूसरे साहित्यकार की नहीं हुई है। हिंदी और उर्दू के आधुनिक कथा-साहित्य में मंटो की बराबरी करने वाला कोई साहित्यकार नज़र नहीं आता है। वर्तमान साहित्य यथार्थ और समय की हकीकत से जुड़ रहा है, इस कारण मंटो के लेखन को देखने का नया नजरिया विकसित हुआ है।  
उर्दू अफ़सानानिगार मुशर्रफ़ आलम जौक़ी के मुताबिक- दुनिया अब मंटो को समझ रही है। भारत और पाकिस्तान में उन पर बहुत शोध-कार्य हो रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि मंटो को पूरी तरह समझ पाने के लिए सौ वर्ष भी कम हैं। वे लिखते हैं कि- शुरुआत में मंटो को दंगों, फिरकावाराना वारदातों और वेश्याओं पर कहानियाँ लिखने वाला सामान्य-सा साहित्यकार माना जाता था, लेकिन मंटो की कहानियाँ अपने अंत के साथ खत्म नहीं होती हैं। वे अपने पीछे इंसान को झकझोर देने वाली सच्चाइयाँ छोड़ जाती हैं। उनकी सपाटबयानी वाली कहानियाँ फ़िक्र के आसमान को छू लेती हैं।
मंटो ने अपने 19 साल के साहित्यिक जीवन में लगभग 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द-चित्र और 70 लेखों की रचना की। अपने छोटे-से साहित्यिक जीवन में उर्दू और हिंदी साहित्य को नई दिशा देने और कालजयी रचनाओं के जरिए समाज की कड़वी हकीकत से रू-ब-रू कराने वाला यह अफ़सानानिगार तमाम जिल्लतें, अनेक ताने-उलाहने, ढेरों मुसीबतें और अभाव से भरी हुई जिंदगी को अपने बेबाक-बिंदास अंदाज में जीते हुए 18 जनवरी, 1955 को लाहौर में हमें अलविदा कह गया।   

 डॉ. राहुल मिश्र
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह से दिनांक 11 अगस्त, 2014 को प्रातः 0830 बजे प्रसारित)





Tuesday 1 July 2014

IMPORTANCE OF KALACHAKRA कालचक्र का महत्व

कालचक्र का महत्त्व
कालचक्र अनुष्ठान का बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा में अपना विशेष स्थान है। भारत की पुरातन पूजा परंपरा में कालचक्र का विशेष महत्त्व रहा है। कालचक्र संस्कृत भाषा का शब्द है। भोट भाषा में इसे दुस-खोर-वङ-छेन कहा जाता है। काल का सरल अर्थ समय होता है और चक्र का अर्थ निरंतर गतिमान रहने वाला पहिया होता है। इस तरह कालचक्र का सीधा सा अर्थ समय का चक्र होता है। कालचक्र या समय का चक्र प्रकृति से अपना संबंध बनाए रखते हुए ज्योतिषशास्त्र के द्वारा विचार करके सूक्ष्म आंतरिक ऊर्जा के विकास और आध्यात्मिक चेतना को जगाने के अभ्यास के मेल से बनने वाला तांत्रिक ज्ञान होता है।
बौद्ध धर्म में चार प्रकार की तांत्रिक साधनाएँ बताई गईं हैं। चर्यातंत्र और क्रियातंत्र मूल रूप से तांत्रिक साधनाएँ नहीं हैं, जबकि योगतंत्र और अनुत्तरयोगतंत्र में तांत्रिक साधना होती है। अनुत्तरयोगतंत्र के तीन उपविभाजन होते हैं। इनमें पहला मातृतंत्र या प्रज्ञातंत्र है, दूसरा पितृतंत्र या योगतंत्र है और तीसरा अद्वयतंत्र है। कालचक्रतंत्र अद्वयतंत्र का मूल ग्रंथ माना जाता है। कालचक्रतंत्र के विषय की व्यापकता को देखते हुए इसे कालचक्रयान नाम भी दिया गया है। कालचक्रतंत्र का मूल ग्रंथ संस्कृत में है, जो पाँच खंडों में विभाजित है। बौद्ध तंत्रों में मूलतंत्र, भाष्यतंत्र और लघुतंत्रों की परंपरा मिलती है। कालचक्रतंत्र के अनेक भाष्यतंत्र और लघुतंत्र वर्तमान में उपलब्ध हैं। आचार्य अभयाकर गुप्त, आचार्य धर्माकरशांति, आचार्य विमलप्रभाकर और आचार्य नारोपाद द्वारा कालचक्र पर भाष्यग्रंथ और टीकाएँ लिखी गईं हैं, जिन्हें कालचक्रतंत्र के ज्ञान के लिए प्रमाणिक माना जाता है।
ईसा की तीसरी और छठवीं शताब्दी के बीच बौद्ध धर्म में इन तांत्रिक साधनाओं का उदय हुआ। इन साधनाओं का जन्म दक्षिण भारत में आंध्रप्रदेश के श्रीधान्यकटक क्षेत्र में हुआ। वर्तमान में यह क्षेत्र गुंटूर जिले के अमरावती और धरनीकोटा नामक शहरों के द्वारा जाना जाता है। इसी क्षेत्र में स्थित श्रीपर्वत तांत्रिक साधना का प्रमुख केंद्र बना। संभवतः इसी क्षेत्र में प्रख्यात बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन का जन्म हुआ था। नागार्जुन ने बौद्ध तांत्रिक साधनाओं पर अनेक भाष्य लिखे, अनेक रचनाएँ कीं। महायान परंपरा की शिक्षाओं की अपेक्षा तंत्र साधना की शिक्षा अत्यंत गुप्त रूप से दी जाती थी, और पात्र-अपात्र का विचार करके इन शिक्षाओं को दिया जाता था, इस कारण इसे गुह्यसमाजतंत्र नाम मिला। गुह्यसमाजतंत्र की उत्पत्ति दक्षिण भारत में हुई और दक्षिण भारत के सातवाहन शासकों के साथ ही महा-मेघवाहन, मौर्य, इक्ष्वाकु, पल्लव, सालकायना, विष्णु-कुंदिन, चालुक्य और विजयनगर शासकों ने गुह्यसमाजतंत्र साधना के विस्तार के लिए संसाधन उपलब्ध कराने और पर्याप्त संरक्षण प्रदान करने का कार्य किया। सातवाहन वंश के राजा हाल ने द्वितीय शताब्दी में आर्य नागार्जुन के लिए श्रीपर्वत शिखर पर एक विहार बनवाया था। कृष्णा और गोदावरी नदियों के किनारे बसे नागार्जुनकोंडा, अमरावती और धरनीकोटा नगरों में गुह्यसमाजतंत्र साधना का विस्तार हुआ। नागार्जुनकोंडा में मिले एक अभिलेख से पता चलता है कि इस क्षेत्र में स्थाविरों के संघ बने थे, जिनके माध्यम से कश्मीर, गांधार, चीन, किरात (वर्तमान तिब्बत और उसके आसपास हिमालय की तराई का इलाका), तोसलि (वर्तमान ओडिशा), यवन (वर्तमान अफगानिस्तान) और ताम्रपर्णी द्वीप (वर्तमान श्रीलंका) में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ। ऐसी मान्यता है कि श्रीधान्यकटक क्षेत्र से ही मूल कालचक्र ज्ञान प्रसारित हुआ था। प्रसिद्ध तिब्बती विद्वान तारानाथ के अनुसार भगवान् बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के अगले वर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा को श्रीधान्यकटक के महान स्तूप के पास ही कालचक्र का ज्ञान प्रसारित किया था। उन्होंने इसी स्थान पर कालचक्र मंडलों का सूत्रपात भी किया था। संभवतः इसी कारण जापान के बुश्शोकाई फाउंडेशन और नोरबूलिंगका इंस्टीट्यूट के अनुरोध पर परमपावन दलाई लामा ने भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण की 2550 वीं जयंती पर सन् 2006 में श्रीधान्यकटक में 31 वीं कालचक्र पूजा आयोजित की थी।
श्रीधान्यकटक से गुह्यसमाजतंत्र साधना और कालचक्र पूजा-साधना का विस्तार उत्तर भारत की ओर हुआ। ईसा की आठवीं शताब्दी के मध्य से नौवीं शताब्दी के मध्य तक कालचक्र पूजा-साधना आधुनिक पाकिस्तान की स्वात घाटी के ओड्डियान (उर्ग्यान) तक विकसित हो गई। इसी अवधि में पाल शासकों के संरक्षण में नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों में तंत्र-साधना के अध्ययन की शुरुआत हुई। ईसा की दसवीं शताब्दी के मध्य में कालचक्रतंत्र ग्रंथ की रचना हुई। आठवीं और बारहवीं शताब्दी के मध्य मठों और विश्वविद्यालयों से निकलकर चौरासी सिद्धों के माध्यम से तंत्र-साधना का विकास हुआ। इसी कालखंड में समूचे हिमालय परिक्षेत्र में गुह्यसमाजतंत्र साधना के अंतर्गत कालचक्र पूजा-साधना का विकास हुआ। कालांतर में दक्षिण भारत सहित उत्तर भारत और हिमालयी परिक्षेत्र के अतिरिक्त अन्य हिस्सों में प्रचलित वज्रयान बौद्ध परंपरा सिमटने लगी। जिस समय देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तंत्र-साधना का प्रभाव कम होता जा रहा था, उस समय तिब्बत के धर्मभीरु शासक इस परंपरा को संरक्षण प्रदान कर रहे थे। लदाख अंचल समेत हिमालय की गोद में बसे भारतीय क्षेत्रों और नेपाल-भूटान आदि देशों में इस परंपरा का प्रभाव बना रहा।
बौद्ध ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सारा ब्रह्माण्ड या संसार एक चक्र में बँधा हुआ होता है। यह चक्र चार स्थितियों- शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस से मिलकर बना होता है। कालचक्र तीन प्रकार का होता है। बाहरी, आंतरिक और वैकल्पिक कालचक्र। इन तीनों प्रकार के कालचक्र में शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस की स्थितियाँ होती हैं।
कालचक्र का बाहरी स्वरूप समय के मापन पर आधारित होता है। ग्रहों, नक्षत्रों की गति से हम समय के चक्र को जान सकते हैं। इसी तरह जन्म, जीवन और मरण की स्थितियों में काल की गति या समय चक्र चलता है। इस संसार में प्रत्येक जीवधारी काल, अर्थात् समय की गति से बँधा होता है। संसार के अन्य जीवधारियों की तुलना में मनुष्य सबसे अधिक समझदार, ज्ञानवान और विवेकवान होता है। मानव-सभ्यता का विकास भी इसी कारण हुआ है। मानव-सभ्यता के विकास-क्रम में बाहरी परिवेश और आंतरिक स्थितियों को जानने-समझने की चेतना का विकास भी हुआ। अंतरिक्ष विज्ञान और समय की गति को जानने की उत्सुकता भी मानव-सभ्यता के विकास के साथ ही उत्पन्न हुई। सौरमंडल की गति के वैज्ञानिक पक्ष और दार्शनिक पक्ष को कई तरीकों से व्याख्यायित किया गया। इसी से कालचक्र या समयचक्र की अवधारणा का विकास भी हुआ। सूरज का एक नाम कालचक्र भी होता है। सौरमंडल में सूरज के इर्द-गिर्द ग्रहों-उपग्रहों की चक्राकार गति चलती रहती है। सौरमंडल के ग्रहों-नक्षत्रों की गति की तरह सजीव और साथ ही निर्जीव वस्तुओं की गति चलती रहती है। उनकी उत्पत्ति के लिए एक वातावरण का निर्माण होता है, फिर उन्हें उत्पन्न होना होता है, उन्हें एक निश्चित अवधि तक सक्रिय रहना होता है और फिर उन्हें नष्ट हो जाना होता है। कालचक्रतंत्र की शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस की स्थितियों को कालचक्र के बाहरी स्वरूप में देखा जा सकता है। जन्म, बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था और मृत्यु का यह चक्र भौतिक जगत् में दिखाई पड़ता है। कालचक्र के बाहरी विधान के अनुरूप हम मौसम के बदलावों का अनुभव करते हैं। मौसम के बदलने के कारण शरीर और मन पर पड़ने वाले प्रभावों का हम अनुभव करते हैं।
संसार में कालचक्र की आंतरिक गति मानव-मन के अलग-अलग भावों और विचारों के लगातार बदलने पर आधारित होती है। आंतरिक जगत् में भी गति होती है। यह गति मानव-मन और विचारों में होती है। बचपन से लगाकर वृद्धावस्था तक ज्ञान, विवेक और समझ के अलग-अलग स्तर इसी गति को प्रकट करते हैं। इसी तरह राग, द्वेष, मद, लोभ, मोह, अहंकार, लालच, क्रोध आदि चित्तवृत्तियाँ भौतिक जगत् की स्थितियों के सापेक्ष मानव-मन में समय-समय पर उत्पन्न होती रहती हैं और नष्ट होती रहती हैं। कालचक्र की आंतरिक गति हमारे कर्मों के प्रभाव से परिवर्तित होती है और उसे हम महसूस करते हैं। इसी तरह मन, वाणी, कर्म की परिशुद्धि करके सम्यक् संबोधि प्राप्त करना भी कालचक्र की आंतरिक गति का लक्षण होता है। काल की इस गति को समझने की चेतना का विकास करने वाले साधक परिवर्तन की प्रक्रिया को जान-समझ पाते हैं। सामान्य मनुष्य इस गति को, इस चक्र को नहीं समझ पाते हैं।
काल के इस चक्र में परस्पर विरोधी तत्त्व शामिल होते हैं। इसमें कल्याणकारी तत्त्व भी होते हैं और अकल्याणकारी तत्त्व भी होते हैं। इन तत्त्वों का प्रभाव और व्यक्ति-विशेष में इन तत्त्वों की उपस्थिति उसके कर्मों के कारण होती है। कर्म का संयोग मन और वाणी से होता है। इनमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली तत्त्व मानव-मन होता है। काल के चक्र को समझकर अगर मानव-मन की, आंतरिक जगत् के चक्र की परिशुद्धि कर दी जाए तो वाणी और कर्म की परिशुद्धि का मार्ग सुलभ हो जाता है। कालचक्र की वैकल्पिक गति बाहरी और आंतरिक कालचक्र के बीच तालमेल बनाने और मन, वाणी, कर्म के परिशोधन की इसी जटिल विधि पर आधारित होती है। कालचक्र अनुष्ठान और कालचक्र पूजा का विधान इसी वैकल्पिक गति पर आधारित होता है। मन, वाणी और कर्म की शुद्धि से; काय, वाक् और चित्त की शुद्धि से त्रिस्तरीय साधना सफल हो जाती है और आत्मज्ञान अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है।
साधना के विभिन्न स्वरूप इसी पूर्णता की प्राप्ति के माध्यम बनते हैं। तंत्र के माध्यम से ऐसी साधना का स्वरूप कालचक्र में होता है। कालचक्र पूजा के लिए बनाए जाने वाले रेत मंडल में सारे संसार का स्वरूप बना होता है। इसमें दसों दिशाएँ होतीं हैं। सकारात्मक और नकारात्मक भाव होते हैं। सकारात्मक भावों की रक्षा के लिए रक्षक होते हैं, धर्मपाल होते हैं और नकारात्मक भावों से लड़ने के लिए शक्तिशाली योद्धा भी होते हैं। कालचक्र मंडल में बुद्ध के 722 स्वरूप होते हैं। कालचक्र पूजा-अभिषेक के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली रेत और धार्मिक कृत्य के लिए जल का प्रयोग भी अपने प्रतीकात्मक अर्थ रखते हैं। जिस तरह बारीक रेत को मुट्ठी में बंद करके नहीं रखा जा सकता है, वह झर-झर करके बंद मुट्ठी से निकल जाती है, और जिस तरह जल को मुट्ठी में रोककर नहीं रखा जा सकता, उसी तरह का स्वभाव काल का भी होता है, समय का भी होता है। समय की गति को पहचानकर उसका सार्थक उपयोग कालचक्र के प्रतीक आधारित महत्त्व को स्पष्ट करता है।
कालचक्रतंत्र के साथ शंबाला के धर्मभीरु राजाओं का मिथक भी जुड़ा हुआ है। ऐसी मान्यता है कि शंबाला का धर्मराज्य एक बार फिर से कायम होगा, इसके लिए धर्मयुद्ध होगा और विधर्मियों का संसार से सफाया होगा, धर्म का शासन स्थापित होगा। इस मिथक की परमपावन दलाई लामा ने बड़ी स्पष्ट और व्यावहारिक व्याख्या की है। उनका कहना है कि बौद्ध धर्म शांति और अहिंसा को मानने वाला है। इसमें धर्मयुद्ध का मतलब लोगों से युद्ध करना नहीं, बल्कि संसार में फैली बुराइयों से, दूषित चित्तवृत्तियों से लड़कर, उन्हें हराकर मानवता के, विश्वकल्याण के, सत्य-शांति-अहिंसा के धर्म का शासन स्थापित करना है।
ऐसा माना जाता है कि बौद्ध तंत्र-साधना में कालचक्रतंत्र की उत्पत्ति बहुत बाद में हुई। गुह्यसमाजतंत्र के एक अंग के रूप में, अनुत्तरयोगतंत्र की एक शाखा के रूप में कालचक्रतंत्र का उद्भव और विकास हुआ। नालंदा, राजगीर और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के माध्यम से कालचक्रतंत्र का प्रचार-प्रसार हुआ, किंतु कालांतर में कालचक्रतंत्र का महत्त्व बौद्धतंत्रों में लगातार बढ़ता गया। इसी कारण विमलप्रभाकर और अन्य टीकाकारों ने, बौद्ध आचार्यों ने कालचक्रतंत्र को तंत्रराज, आदिबुद्ध और बृहदादिबुद्ध नाम दिए हैं। क्षणभंगवाद, शून्यवाद, अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, कर्मवाद, निर्वाण आदि बौद्ध मत, दर्शन और मान्यताएँ कालचक्रतंत्र-साधना में प्रकट होतीं हैं। इसी कारण बौद्ध धर्म के वर्तमान स्वरूप में कालचक्र-साधना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संभवतः इसी कारण परमपावन चौदहवें दलाई लामा ने कालचक्र अनुष्ठान को बौद्ध धर्म की सर्वोच्च पूजा-साधना के रूप में स्थापित किया है। उनके द्वारा कालचक्रतंत्र की जटिल पद्धति का सरल संस्करण तैयार किया गया है। उनके द्वारा कालचक्रतंत्र की व्याख्या वर्तमान वैज्ञानिक युग के अनुरूप की गई है। इस कारण कालचक्र अनुष्ठान के प्रति देश-दुनिया में जनस्वीकार्यता बढ़ी है। जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के भेदभाव से हटकर कालचक्र अनुष्ठान के साथ देश-दुनिया की आस्था भी इसी कारण जुड़ी है।     
परमपावन चौदहवें दलाई लामा के संरक्षण में भारत की पुरातन परंपरा और हिमालयी परिक्षेत्र की अपनी अनूठी पहचान आज स्वयं को सुरक्षित रख पा रही है। परमपावन दलाई लामा ने विशिष्ट कालचक्र साधना को विश्वकल्याण, विश्वशांति और विश्वबंधुत्व जैसे महान मानवीय मूल्यों के साथ जोड़कर पुरातन-परंपरागत साधना-पद्धति को एक नया आयाम दिया है और इसे विश्वव्यापी भी बनाया है। परमपावन दलाई लामा के संरक्षण में अब तक बत्तीस कालचक्र अनुष्ठान संपन्न हो चुके हैं। इनमें से पहले दो अनुष्ठान तिब्बत की राजधानी ल्हासा के नोरबूलिङका मठ में संपन्न हुए हैं। बारह कालचक्र अनुष्ठान विदेशों में संपन्न हुए हैं और शेष अठारह कालचक्र अनुष्ठान भारत के विभिन्न क्षेत्रों में संपन्न हुए हैं।
दुनिया के तमाम मत, पंथ, संप्रदाय इस बात पर जोर देते हैं कि समाज में आपसी सौहार्द, समन्वय, भाईचारा और बंधुत्व की भावना का विकास हो। इसके लिए सभी मत-संप्रदाय विशेष प्रयास भी करते हैं और धार्मिक विधानों के माध्यम से सौहार्द-समन्वय स्थापित करते हैं। इसके लिए सभी मत-संप्रदाय एक निश्चित क्रम के अनुसार नियत समयांतराल में बड़े धार्मिक आयोजन करते हैं। ऐसे आयोजनों या विधानों में धर्म-विशेष के मानने वाले लोग आपसी भेदभाव को भुलाकर एकसाथ समय गुजारते हैं, धार्मिक आयोजनों में शरीक होते हैं। बौद्ध धर्म में आयोजित होने वाली कालचक्र पूजा के केंद्र में भी इस भावना को देखा जा सकता है। यह धार्मिक पूजा-अनुष्ठान का सामाजिक पक्ष है, जिसके मूल में मानवता की भावना निहित होती है, सामाजिक समरसता की भावना निहित होती है। अन्य धर्मों और मतों के द्वारा वृहद स्तर पर आयोजित किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों और आयोजनों-विधानों की तुलना में बौद्ध धर्म की परंपरागत कालचक्र पूजा का स्थान श्रेष्ठ है। अन्य धर्मों की तरह बौद्ध धर्म की कालचक्र पूजा में शामिल होने के लिए जाति-धर्म का कोई बंधन नहीं है। 28 दिसंबर, 2011 से 10 जनवरी, 2012 तक बोधगया में हुई 32 वीं कालचक्र पूजा में हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता रिचर्ड गेर के साथ ही देश-विदेश के लगभग तीन लाख श्रद्धालु शामिल हुए थे। इन श्रद्धालुओं में बड़ी संख्या दूसरे धर्मों को मानने वाले लोगों की थी। धार्मिक भेदभाव, क्षेत्रीय भेदभाव और भाषाई भेदभाव को भुलाकर सबको इस पूजा में शामिल करने की पवित्र भावना बौद्ध धर्म की श्रेष्ठता को सिद्ध करती है। विश्वकल्याण के लिए, सारे संसार के सुख के लिए, समृद्धि के लिए और सत्य, शांति, अहिंसा, दया, करुणा, क्षमा जैसे महान मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए समर्पित कालचक्र पूजा इसी कारण अपना विशेष महत्त्व रखती है। दुनिया भर में अब तक संपन्न हो चुकी 32 कालचक्र पूजा के आयोजनों के सार्थक और जनकल्याणकारी पक्ष उभरकर सामने आए हैं। सारे संसार में कम से कम इस बात की चर्चा का माहौल तो बना ही है कि इस संसार को बचाने के लिए बौद्ध धर्म के मूल में स्थित भावना को; सत्य, शांति, अहिंसा, करुणा और दया-क्षमा जैसे गुणों को संरक्षित-संवर्धित किया जाए। इस दिशा में कालचक्र पूजा एक ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में प्रचारित-प्रसारित हुई है, जिसने सारे संसार को बौद्ध धर्म के मानवतावादी और विश्वकल्याणकारी पक्ष से परिचित कराया है। इसी कारण परमपावन दलाई लामा के संरक्षण में आयोजित किए गए 32 कालचक्र अनुष्ठानों ने उत्तरोत्तर सफलता अर्जित की है और सारे संसार को मानवता के धर्म के साथ जोड़ने में अद्भुत योगदान दिया है। 03 से 14 जुलाई 2014 तक लेह-लदाख में होने वाला 33 वाँ कालचक्र अनुष्ठान सफल और सार्थक होगा, इसमें संदेह नहीं है।     
कालचक्र का धार्मिक महत्त्व जितना अधिक है, उतना ही सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व भी है। कालचक्र अनुष्ठान एक अवसर है, एक सुखद संयोग है, पुरातन धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं को संरक्षित रखने का। इससे भी बड़ा पक्ष सामाजिक महत्त्व का है। कालचक्र अनुष्ठान के अवसर पर देश-दुनिया के तमाम लोग जाति और धर्म का भेदभाव मिटाकर एकजुट होते हैं। अमीर और गरीब का, ऊँच और नीच का भेद इस अवसर पर मिट जाता है। केवल एक ही ध्येय, केवल एक ही लक्ष्य सामने होता है, मानवता के कल्याण का, विश्व की शांति का, बंधुत्व और भाईचारे का। भौतिकतावाद, जाति-धर्म, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, भाषा-भूषा और सांस्कृतिक विभेद के बंधनों में जकड़े संसार को उसके इन बंधनों से मुक्त होने का रास्ता दिखाने वाली कालचक्र पूजा का सामाजिक पक्ष और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। समाज को एक सूत्र में बाँधने और संपूर्ण आर्यावर्त की पुरातन-परंपरागत विश्वबंधुत्व की भावना को; सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया की भावना को बल प्रदान करने के लिए और मानवता के उच्च आदर्शों की स्थापना के लिए कालचक्र पूजा का बड़ा महत्त्व है। कालचक्र अनुष्ठान दुनिया-भर के उन लोगों को एकसाथ लाने का महान अनुष्ठान भी है, जो लोग मानवता के पक्षधर हैं, जिनके मन में करुणा, दया, सत्य, शांति और अहिंसा जैसे महान मानवीय मूल्यों के प्रति श्रद्धा है, आस्था है। निश्चित रूप से कालचक्र पूजा-अभिषेक का मानवता के कल्याण में, समस्त चराचर जगत् के कल्याण में योगदान रहा है और आगे आने वाले समय में भी रहेगा। 03 से 14 जुलाई 2014 तक लेह-लदाख में होने वाली 33 वीं कालचक्र पूजा के अवसर पर होने वाले महासंगम के परिणाम कल्याणकारी होंगे और सुखद भी होंगे।    
डॉ. राहुल मिश्र
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी लेह, दिनांक- 30 जून, 2014, प्रातः 0830 बजे प्रसारित)   




Friday 18 April 2014

निराले हीरे की खोज

निराले हीरे की खोज
महान घुमक्कड़ स्वामी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन को एक पुरातत्त्ववेत्ता, चिंतक-विचारक एवं उपन्यासकार-कथाकार के रूप में जाना जाता है। यह सत्य है कि उन्होंने रूस, जापान, चीन, तिब्बत आदि देशों की यात्राएँ कीं और उन यात्राओं के माध्यम से प्राप्त किए हुए ज्ञान ने उन्हें ज्ञान की इन तमाम विधाओं का महारथी बना दिया। उन्होंने अपनी यात्राओं का बड़ा रोचक वर्णन करके यात्रा-वृत्तांत और यात्रा-साहित्य की विधा को भी साहित्य-जगत् में स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। ये यात्राएँ प्रायः मैदानी और पठारी-पहाड़ी इलाकों की हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि उन्होंने समुद्री यात्राओं के रोमांच और रहस्य को भी अपने यात्रा-वृत्तांत में शामिल किया है।
समुद्र और समुद्री यात्राएँ आदिकाल से ही मानव के लिए रहस्य और रोमांच का हिस्सा रहीं हैं। राहुल सांकृत्यायन जैसा बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्तित्व इस रोमांच से अछूता रह जाए, यह संभव नहीं था। इसी कारण उन्होंने अपनी पुस्तक निराले हीरे की खोज में समुद्र को, समुद्र के रोमांच को इतनी बारीकी से उतारा है कि हकीकत और कल्पना के बीच अंतर करना ही कठिन हो जाता है।
राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक निराले हीरे की खोज में बीस उपशीर्षक हैं, जिनमें समुद्र की यात्राओं से जुड़ी बीस अलग-अलग घटनाएँ हैं, बीस अलग-अलग बाधाएँ हैं, जिन्हें पार करते हुए निराले हीरे की खोज पूरी हो जाती है। पुस्तक का पहला उपशीर्षक ही ‘समुद्र का उपद्रव’ है, जो समुद्र में उठने वाली भीषण समुद्री हवाओं के कारण यात्रा की शुरुआत को ही संकटग्रस्त कर देता है, किंतु समुद्री यात्री हरिकृष्ण, मोहन और विक्रम उससे बच निकलते हैं। इसी तरह यात्रा आगे चलती रहती है। यात्रा के अलग-अलग पड़ावों के रूप में किताब में बने उपशीर्षक भी बड़े मजेदार और आकर्षक हैं— जैसे रेतीली खाड़ी में दो स्टीमर, महागर्त का तल, बंगले वाला आदमी, कप्तान का संदेश, भयंकर बुलबुला, मुर्दों की गुफा, मोहनस्वरूप का भूत, शैतान की आँख, पुष्पक का अंत और जल-भित्तिका आदि।
ये उपशीर्षक भी अपने अंदर छिपे रहस्य-रोमांच में पाठकों को खींच लेते हैं। इन्हीं में बँधकर अद्भुत समुद्री यात्रा का आनंद प्राप्त होता है। इसके साथ ही आपसी सूझ-बूझ, समझदारी, तुरंत निर्णय लेने की शक्ति, समन्वय और एक साथ कार्य करने की भावना जैसी नसीहतें सहजता से ही सीखने को मिल जाती हैं। राहुल सांकृत्यायन की दूरदर्शिता भी समुद्री यात्रा में प्रकट होती है। उन्होने समुद्र के जीवन के हर-एक पक्ष को इस तरह से और बड़ी बारीकी के साथ उतारा है, जैसे वे समुद्री यात्राओं के विशेषज्ञ हैं। कहीं पर भी कोई कमी छूट गई हो, ऐसा भी प्रतीत नहीं होता।
निराले हीरे की खोज में चलने वाली समुद्री यात्रा का आखिरी पड़ाव ‘आँख के जानकार’ के रूप में आता है। इसी पड़ाव में ब्राजील की राजधानी रियो-दी-जेनेरो में पहुँचकर समुद्री यात्रियों हरिकृष्ण, मोहनस्वरूप और उनके साथियों को वह निराला हीरा देखने को मिलता है। वह निराला हीरा विश्व के तमाम प्रसिद्ध हीरों से अलग किस्म का है। संसार के कई बड़े हीरों से भी बड़ा हीरा खोज लिया जाता है। यह हीरा कोहिनूर हीरे से और मुगले आजम हीरे से भी ज्यादा वजनी है, इसका वजन 300 कैरेट है।
इस प्रकार निराले हीरे की खोज पूरी हो जाती है। यदि विश्व साहित्य पर एक नजर डालें तो लगभग हर भाषा के साहित्य में ऐसी रोमांचक यात्राएँ, खोजपूर्ण यात्राएँ मिल जाएँगी। किंतु उनमें से कुछ ही ऐसी यात्राओं को हम पढ़कर अपनी याददाश्त में जिंदा रख पाते हैं, जो वास्तव में रोचक होने के साथ ही तथ्यपूर्ण और विशेष रूप से गुँथी हुई होती हैं। ऐसी ही एक यात्रा ‘गुलिवर इन लिलिपुट’ को सभी जानते होंगे। अगर ‘गुलिवर इन लिलिपुट’ की तुलना राहुल सांकृत्यायन के निराले हीरे की खोज से की जाए तो इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि हिंदी में लिखी हुई यह बहुत महत्त्वपूर्ण, रोचक, ज्ञानवर्धक और साहसिक यात्रा-कथा है। 




डॉ. राहुल मिश्र 

Monday 14 April 2014

आल्हा : बुंदेलखंड की अनूठी पहचान
ढोलक की थाप का साथ देती मंजीरे की धुन के साथ गाया जाने वाला वीरगीतात्मक काव्य आल्हा बुंदेलखंड की अनूठी तहजीब का बेमिसाल नगीना है। आल्हा में यूँ तो महोबा के दो वीरों की कथा है, किंतु आल्हा के गायन की अपनी विशिष्ट शैली के कारण यह दूर-दूर तक प्रसिद्धि पाया है।
लौकिक रास परंपरा की आदिकालीन रचना जगनिक कृत परमाल रासो के आधार पर प्रचलित आल्हा गीतों की उत्पत्ति की कथा जितनी रोचक है, उतना ही मर्मस्पर्शी है, इनका विकास और विस्तार भी। गौरवशाली अतीत से परिचित कराने के साथ ही समाज को एक सूत्र में बाँध सकने की क्षमता आल्हा गीतों में है।
जगनिक कृत परमाल रासो की प्राचीन पांडुलिपि अप्राप्य है और इस कारण यह माना जाता है कि जगनिक की यह रचना प्रायः लोक-कंठों में जीवित रही। सन् 1865 के आसपास एक अंग्रेज कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने आल्हा गवैयों की सहायता से वाचिक परंपरा में जीवित आल्हा को लिपिबद्ध    कराया। ऐसा ही प्रयास विसेंट स्मिथ ने किया। बाद में सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के संपादन में सन् 1923 में डब्ल्यू. वाटरफील्ड द्वारा हिंदी से अंग्रेजी में आल्हा का अनूदित संस्करण ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपा। लोकमहाकाव्य आल्हा को लिपिबद्ध करके संरक्षित और संकलित करने का यह संभवतः पहला प्रयास था। इसके बाद आल्हा के कई संस्करण अलग-अलग छापाखानों में छपे। आज भी गँवई-गाँव के मेलों में आल्हा की किताबें बिकती हुई देखी जा सकती हैं।
बनावट के लिहाज से इसमें बावन खंड हैं। संयोगिता स्वयंवर, परमाल का ब्याह, महोबा की लड़ाई, गढ़ मांडो की लड़ाई, नैनागढ़ की लड़ाई, बिदा की लड़ाई, मछलाहरण, मलखान का ब्याह, गंगाघाट की लड़ाई, ब्रह्मा का ब्याह, नरवरगढ़ की लड़ाई, ऊदल की कैद, चंद्रावल की चौथी लड़ाई, चंद्रावल की विदा, इंदलहरण, संगलदीप की लड़ाई, आल्हा की निकासी, लाखन का ब्याह, गाँजर की लड़ाई, पट्टी की लड़ाई, कोट-कामरू की लड़ाई, बंगाले की लड़ाई, अटक की लड़ाई, जिंसी की लड़ाई, रूसनी की लड़ाई, पटना की लड़ाई, अंबरगढ़ की लड़ाई, सुंदरगढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की दूसरी लड़ाई, भुजरियों की लड़ाई, ब्रह्मा की जीत, बौना चोर का ब्याह, धौलागढ़ की लड़ाई, गढ़चक्कर की लड़ाई, देवा का ब्याह, माहिल का ब्याह, सामरगढ़ की लड़ाई, मनोकामना तीरथ की लड़ाई, सुरजावती हरण, जागन का ब्याह, शंकरगढ़ की लड़ाई, आल्हा का मनौआ, बेतवा की लड़ाई, लाखन और पृथ्वीराज की लड़ाई, ऊदल हरण, बेला को गौना, बेला के गौना की लड़ाई, बेला और ताहर की लड़ाई, चंदनबाग की लड़ाई, जैतखंभ की लड़ाई और बेला सती। आल्हा के ये बावन खंड आल्हा गायकों को समग्रतः याद नहीं रहते। वैसे भी अब अल्हैतों की परंपरा सिमटती जा रही है। अब आल्हा के कुछ प्रचलित खंड ही प्रायः गाए जाते हैं।
बनावट की दृष्टि से देखा जाए तो आल्हा में लगभग सत्रह प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है। इसमें कहीं-कहीं संस्कृत के श्लोक हैं तो कहीं पर गद्य का प्रयोग भी हुआ है। वीर रस की प्रधानता होने के कारण इसका गायन भी ओजपूर्ण होता है। हर घटना और युद्ध या वीरता के बखान के लिये सुर और ताल के विशिष्ट उतार-चढ़ाव और अनूठी शैली श्रोताओं को न केवल मंत्रमुग्ध कर देती है, वरन् कथा का सटीक और जीवंत चित्रण भी कर देती है।
लोकमहाकाव्य आल्हा में आल्हा को ही नायकत्व का दर्जा प्राप्त है, क्योंकि वह दूसरे खंड से लेकर बावनवें खंड तक मुख्य भूमिका अदा करता है। वह वीरता, गंभीरता, धैर्य और साहस जैसे उदात्त गुणों का स्वामी है। राजा परमाल का व्यक्तित्व उनकी पदवी से मेल नहीं खाता है। वे राजा होने के बावजूद कायरता, स्वार्थ और भीरुता का प्रदर्शन करते हैं। परमाल की पत्नी मल्हना या मलना, आल्हा-ऊदल की माँ दिवला, मछला और बेला जैसे नारी पात्र भी हैं, जो मध्ययुगीन भारतीय महिलाओं का आदर्श प्रस्तुत करती हैं और वीरांगनाएँ भी हैं। आल्हा, ऊदल, मलखान और इंदल के चरित्र को विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिनके प्रश्रय में कथा का विस्तार होता है।
धर्म, अध्यात्म और संस्कृति का समन्वय आल्हा में स्पष्ट परिलक्षित होता है। आल्हा के गायन की शुरुआत में की जाने वाली स्तुति विभिन्न मत-मतांतरों के मध्य समन्वय स्थापित करती प्रतीत होती है—
सुमिर भवानी दाहिने, सनमुख रहे गनेस ।
पाँच देव रक्षा करें, ब्रह्म, विष्णु, महेस।।  
काली सुमिरौं कलकत्ते की, जगदंबा के चरन मनाय।
अन्नपूर्णा तिरवा वाली, जगमग जोत रही  छहराय।
सुमिर भवानी कलपी वाली, मनिया सुमिर महोबे क्यार।।
स्थानीय देव-देवियों की उपस्थिति आल्हा की लोकग्राह्यता की प्रतीक बन जाती है। यह लोकग्राह्यता वर्ण और जातियों के समन्वय और विभेद को मिटा देने के कारण भी है।
सगुन विचारै बनिया बाटू, बाम्हन लेय साइत विचार,
हम क्षत्रिय लोहा लादे हैं, सो हम बेचें  कौन  बजार।
नाई-बारी हो तुम नाहीं, घर के भइया  लगौ  हमार।
मान महोबै को रख लेबौ, दोनों हाथ  करौ तलवार।।
इसके साथ ही आल्हा में नीति व ज्ञान की बातें भी वर्णित हैं। यथा—
पानी जैसो बुलबुला है जो छन माँहीं जैहे  बिलाय,
सदा तुरैया ना वन फूलै यारों सदा न सावन होय।
सदा न मइया की कुक्षा में धरिहौ बार-बार अवतार,
जस अम्मर कर लेव जुद्ध में, काया छार-छार हुइ जाय।।
ऐसी ज्ञान व नीति की बातें भले ही कथा-विस्तार में महत्त्वपूर्ण स्थान न रखती हों, किंतु नीति व ज्ञान की अनूठी-अनौपचारिक पाठशाला के रूप में समाज के बड़े तबके को व्यावहारिकता सिखाने में बहुत खास भूमिका अदा करती है।
मनोरंजन और समय व्यतीत करने के साधन के रूप में आल्हा का गायन शिक्षाप्रद भी हो जाता था। इसमें अंतर्निहित ढेरों कथाएँ, गल्प और आख्यान प्रकीर्ण साहित्य की महत्त्वपूर्ण धरोहर हैं।
मध्ययुगीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थितियों के चित्र भी आल्हा में उभरते हैं। सिद्ध और नाथ पंथियों का प्रभाव, जादू-टोने, ज्योतिष, तंत्र और स्वप्न-अपशकुन, पुनर्जन्म तथा भूत-प्रेत आदि की उपस्थिति आल्हा को समग्रता प्रदान करती है। यही सब इसकी व्यापकता और स्वीकार्यता के केंद्र में है।
समूचे उत्तर भारत में, बुंदेलखंड, ब्रज, राजस्थान, बैसवारा, अवध और भोजपुर में विभिन्नताओं के साथ आल्हा गायन की, अल्हैती की व्यापक परंपरा प्रचलन में रही है। बरसात के समय, किसानों- मजदूरों के फुर्सत के समय गाँवों की चौपालों, अथाई और बैठकों में होने वाली अल्हैती सभी को एक सूत्र में जोड़ देती थी। आल्हा के तालन सैयद का चरित्र सांप्रदायिक एकता और सौहार्द का प्रतीक है—
राम का मित्तर जामवंत था और पांडों का कृष्ण अवतार,
आल्हा का ताला सैय्यद है, काम करे जो  सोच बिचार।
सैकड़ों वर्षों तक अपने वाचिक माध्यम से लोकमहाकाव्य आल्हा जनपदों, गाँवों और कस्बों में राष्ट्रीयता की अलख जगाने, नीति-विज्ञान सिखाने और मनोरंजन करने का माध्यम बना रहा। इसकी लोकप्रियता तुलसी के मानस के समकक्ष बैठती है। बिना पुस्तकाकार पाए, लोकजीवन में, लोक-कंठों में जीवित और निरंतर जीवंत रहने वाली यह विधा, यह काव्य आज देश के विकास के व्युत्क्रमानुपाती होकर मिट रहा है।

टेलीविज़न, इंटरनेट और अन्य संचार साधनों ने बहुत कुछ बदल दिया है। आज अल्हैते नहीं मिलते, गाँवों में अथाई नहीं लगती, बरसात में भी, आल्हा नहीं सुनाई पड़ता। यह संकट हमारी पहचान का है, हमारे अतीत के गौरव के क्षरण का है, हमारी संपदा के विनाश का है। इसे बचाने, संरक्षित और संवर्द्धित करने का दायित्व आज की पीढ़ी पर है, वरना आने वाली पीढ़ी के लिये आल्हा काव्य ही नहीं, शब्द भी अपरिचित रह जाएगा।
डॉ. राहुल मिश्र
{बुन्देली दरसन, अंक- 3, 2010, नगरपालिका परिषद्, हटा, दमोह (मध्य प्रदेश) में प्रकाशित}



 

भारतीय सिनेमा के सौ बरस, भाग-2

भारतीय सिनेमा के सौ बरस, भाग- 2


सन् 1913 में पहली मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र और पहली बोलती हुई फिल्म आलम आरा  के सन् 1931 में रिलीज होने के बाद भारतीय सिनेमा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सन् 1913 से 1980 तक के सफर में देश की राजनीति, समाज, शिक्षा, कृषि, संस्कृति और जीवन-स्तर में कई बदलाव आए। इन बदलावों को कई तरीकों से रुपहले परदे पर उतारते हुए भारतीय सिनेमा हर आम और खास दर्शक का बखूबी मनोरंजन करता रहा। अस्सी का दशक आते-आते फिल्मी विधा बदलने लगी। सत्तर के दशक के एंग्री यंगमैन के रचयिता सलीम-जावेद की जोड़ी टूट चुकी थी और सदी के महानायक अमिताभ का सितारा भी बुझ रहा था। मर्द, शहंशाह और जादूगर जैसी फिल्में ज्यादा कामयाब नहीं रहीं। अमिताभ बच्चन के अलावा राजेश खन्ना, राजकुमार, सुनील दत्त जैसे दिग्गज अभिनेताओं की फिल्में इस दौरान आईं, मगर ज्यादा चर्चित नहीं रहीं। अच्छे हीरो और हीरोइनों का पारिवारिक फिल्मों में एकछत्र राज था। उन्हें देखने के लिए देश के सिनेमाघरों में दर्शकों की अपार भीड़ होती थी। एक ओर हिंदी सिनेमा का नया स्वाद चखने के लिए जनता बेकरार थी और दूसरी तरफ सन् 1982 में रंगीन टेलीविजन का देश में आगमन हुआ। ऐसे में सिनेमा प्रेमियों ने सिनेमाघरों को रविवार तक ही सीमित कर दिया। फिर भी फिल्म निर्माता शांत नहीं थे, इनका प्रयोग जारी रहा। नए-नए आविष्कारों ने घिसे-पिटे डांस की जगह डिस्को डांस का प्रचलन ला दिया, जिसके आधार पर एक्शन फिल्में तैयार की जाने लगीं। इस दशक में नए नायकों और नायिकाओं का फिल्म जगत में आगमन हुआ। सन् 1981 में रिलीज हुई सलमान खान की फिल्म मैंने प्यार किया ब्लॉकबस्टर साबित हुई। 1986 में सुभाष घई की फिल्म कर्मा को जबरदस्त कामयाबी मिली। 1987 में शेखर कपूर एक अलग फिल्म मिस्टर इंडिया लेकर आए, जिसमें श्रीदेवी और अनिल कपूर लीड रोल में थे। 1988 में आमिर खान और जूही चावला की फिल्म कयामत से कयामत तक भी खूब चर्चित रही। नक्सली दुनिया को छोड़कर फिल्मों में आए डांसिंग स्टार मिथुन चक्रवर्ती ने लोगों पर ऐसा असर छोड़ा कि लोग उनके जैसे बाल कटवाने लगे, उनके जैसे कपड़े पहनने लगे। फिल्म एक दो तीन में माधुरी दीक्षित और मिथुन चक्रवर्ती की जोड़ी दर्शकों की पसंद बन गई। फिल्म राजा बाबू में गोविंदा का जादू चल गया, वहीं पारिवारिक फिल्मों में जितेंद्र, श्रीदेवी, जयाप्रदा, शबाना आज़मी, स्मिता पाटिल की भूमिका सराहनीय रही। वर्ष 1991 में प्रदर्शित सौदागर से दिलीप कुमार और राजकुमार का 32 साल बाद आमना सामना हुआ। इस फिल्म में राजकुमार के बोले जबरदस्त संवाद दुनिया जानती है कि राजेश्वर सिंह जब दोस्ती निभाता है तो अफसाने बन जाते हैं, मगर दुश्मनी करता है तो इतिहास लिखे जाते हैं आज भी सिने प्रेमियों के दिमाग में गूँजता रहता है। इसी फिल्म से मनीषा कोईराला और विवेक मुशरान इलू इलू करते नजर आए। निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म परिंदा भी बहुत चर्चित रही। दशक के अंत में आमिर खान, सलमान खान और शाहरूख खान जैसे सितारे उभरे। इस तिकड़ी ने हिंदी सिनेमा को चार चांद लगा दिए। ये सितारे हर अदा में नाचे, इनका जादू सिनेमा प्रेमियों के सिर चढ़कर बोला। बप्पी लहरी की धुनों ने फिल्मों में नई जान डाली। सन् 1973 में यशराज फिल्म्स के माध्यम से निर्माण और निर्देशन की शुरुआत करने वाले यश चोपड़ा ने 1989 में चाँदनी  फिल्म के माध्यम से फिल्मों में रोमांस की नई इबारत लिखी। यश चोपड़ा को हिंदी फिल्मों में रोमांस के नए-नए अंदाज पेश करने के लिए जाना जाता है। इनके साथ ही खलनायकों की बात करें तो अजीत, प्राण, अमजद खान, अमरीश पुरी, गुलशन ग्रोवर, शक्ति कपूर, रंजीत आदि ने विलेन की भूमिका निभाकर अपने अभिनय का लोहा मनवाया। वहीं विश्व सुंदरियों ने अपनी प्रतिभा सिनेमा जगत में उड़ेलने में कसर नहीं छोड़ी।अस्सी के दशक की बड़ी विशेषता सार्थक सिनेमा या नए सिनेमा आंदोलन की स्थापना है। इस दशक में दर्शकों के लिए सिनेमा में समाज और समय के सच्चे और खरे यथार्थ को देखने का अवसर मिला। मनोरंजनप्रिय दर्शकों को यह भले ही अटपटा लगा हो, मगर इससे प्रभावित बुद्धिजीवी दर्शकों का एक नया वर्ग तैयार हुआ, और इन फिल्मों को स्वीकार किया जाने लगा। श्याम बेनेगल ने मंथन भूमिका, निशान्त, जुनून और त्रिकाल जैसी विविध विषयों का समेटती हुई अच्छी फिल्में दर्शकों को दीं। सन् 1973 में आंध्र प्रदेश की ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी श्याम बेनेगल की फिल्म अंकुर  ने समांतर भारतीय सिनेमा आंदोलन की शुरुआत की। श्याम बेनेगल मशहूर फिल्म निर्देशक गुरुदत्त के भतीजे थे। आगे चलकर वे भारतीय सिनेमा के प्रभावशाली निर्देशक के रूप में स्थापित हुए। प्रकाश झा की दामुल, अपर्णा सेन की 36 चौरंगी लेन, रमेश शर्मा की नई दिल्ली टाईम्स, केतन मेहता की मिर्चमसाला, गुलजार की इजाजत, मुजफ्फ़र अली की उमराव जान, तपन सिन्हा की आज का रॉबिनहुड और महेश भट्ट की पहली फिल्म अर्थ आदि नए रुझान की फिल्में थीं। युवा निर्देशिका मीरा नायर ने अपनी पहली फिल्म सलाम बॉम्बे के लिए 1989 में केन्स में गोल्डन कैमरा अवार्ड जीता। इसके साथ ही डाकू, कैबरे नृत्यों, मारधाड, पेडों के आगे पीछे गाना गाते हीरो-हीरोईन से उबे दर्शकों का जायका बदलने लगा। नब्बे के दशक में संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का दौर चला, लेकिन गानों में पहले जैसा स्वाद नहीं था। ऐसा ही हाल सिनेमा का भी हुआ। हिंदी सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय बनाने के प्रयास में बिना सिर पैर की फिल्में बनने लगीं। सन् 1990 में आई महेश भट्ट की फिल्म आशिकी  में समाज की उपेक्षा से आहत नायक और नायिका एक-दूसरे के करीब आते हैं और अपना जीवन अपने अनुसार जीने के लिए संघर्ष करते हैं। सन्1993 में आई 1942 ए लव स्टोरी  भी इसी तासीर की श्रेष्ठ फिल्मों में से एक बन गई।1993 से 2002 के दशक में हिन्दुस्तान बहुत तेज़ी से बदल रहा था। उदारीकरण ने देश के बाजारों को बदला और बाजार ने सिनेमा को। हिन्दी सिनेमा विदेशों में बसे भारतीयों तक पहुँचा। राजश्री की हम आपके हैं कौन में बसा संयुक्त परिवार के प्रति मोह तथा 1995 में आई यश चोपड़ा की दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे में भारत की यादों में तड़पता एनआरआई विदेशों तक हिंदी फिल्मकथा की पहुँच का बखान करता है। उसके बाद सन् 1997 में यश चोपड़ा की दिल तो पागल है आई। इस दौर के उभरते सितारे शाहरूख खान एक ओर डर, बाज़ीगर और अंजाम के हिंसक प्रतिनायक की भूमिका में दिखे, वहीं दूसरी ओर कभी हाँ कभी ना, राजू बन गया जेंटलमैन और चमत्कार जैसी फिल्मों में एक साधारण-से लड़के जैसे नजर आए। अपने समय के महानायकों दिलीप कुमार, राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन की तरह वे भी सिनेमा के लिए बाहरी थे। फिल्मी खानदानों से अलग हटकर उन्होने अपनी मेहनत से अपने लिए जमीन तैयार की थी।इस दशक में यथार्थवादी फिल्मों की दृष्टि से द्रोहकाल, परिन्दा, दीक्षा, माया मेमसाब, रूदाली, लेकिन, तमन्ना, बैंडिट क्वीन आदि उल्लेखनीय नाम हैं। क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्में भी इस दौर में पीछे नहीं थीं। अंजलि, रोजा और बॉम्बे दक्षिण भारत की ऐसी फिल्में हैं, जो अपनी लोकप्रियता को साथ लेकर हिंदी में डब हुईं।नई सदी में सिनेमा का नया दौर आया। रामगोपाल वर्मा ने इसका ढंग बदला तो मणि रत्नम ने इसकी चाल। दिल चाहता है और सत्या जैसी फिल्में अपने दौर की कल्ट क्लासिक बनीं और उन्होंने अपने आगे सिनेमा की नई धाराएं शुरू कीं। नई सदी के फिल्मकार मायानगरी के लिए एकदम बाहरी थे और उन्होंने अपनी प्रतिभा के बलबूते इस उद्योग में पैठ बनाई। तकनीक ने सिनेमा को ज्यादा आसान बनाया और सिनेमा बड़े परदे से निकलकर आम आदमी के ड्राइंगरूम में आ गया। इसी बीच मल्टीप्लैक्स सिनेमाघर आए और उनके साथ सिनेमा का दर्शक बदला, विषय भी बदले। अब सिनेमा में गाँव नहीं थे। यह स्याह शहरों की कथाएं थीं जिन्हें ब्लैक फ़्राइडे में अनुराग कश्यप ने, मकबूल में विशाल भारद्वाज ने और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में सुधीर मिश्र ने बड़े अदब से सुनाया। ऋतिक रोशन, रणबीर कपूर नई सदी के नायक हुए। सलमान खान और आमिर खान ने नए समय में फिर से स्टारडम का शिखर देखा। लेकिन इन नायकों की सफलता के पीछे उनका अभिनय कौशल नहीं, बल्कि नए-नए निर्माता-निर्देशकों की मेहनत और बेहतरीन पटकथाएँ थीं। इन पटकथाओं में कहीं गाँव थे तो कहीं शहर थे। कहीं देश की ज्वलंत समस्याएँ थीं तो कहीं पर समाज का बदलता स्वरूप था। इस दौर के सफल निर्माता-निर्देशकों में राजकुमार हिरानी, अभिनव कश्यप, इम्तियाज़ अली, प्रियदर्शन, प्रकाश झा आदि रहे, जिनके काम की ईमानदारी इन महानायकों की सफलताओं में बोलती रही।सन् 2001 में आई लगान ने अपने समय में काफी धूम मचाई और ऑस्कर पुरस्कार पाने की दौड़ में भी शामिल हुई। सन् 2002 में आई फिल्म ओम जय जगदीश से अनुपम खेर ने निर्देशन की शुरुआत की। तीन भाइयों के बीच के भावनात्मक संबंधों को बड़े कलात्मक ढंग से बताती इस फिल्म के साथ ही वहीदा रहमान की 11 वर्षों के बाद फिल्मों में वापसी हुई। प्रकाश झा की फिल्म गंगाजल एक ईमानदार पुलिसवाले की भ्रष्ट व्यवस्था के साथ संघर्ष की कहानी लेकर आई। इस फिल्म की कहानी 1979-80 में बिहार के भागलपुर में घटित एक सत्य घटना आंखफोड़वा कांड से प्रेरित थी। इसी तरह सन् 2001 में एस. शंकर के निर्देशन में आई अनिल कपूर की फिल्म नायक में एक दिन का मुख्यमंत्री राजनीति, भ्रष्टाचार और अपराध के गठजोड़ को प्रकट किया गया। सन् 2003 में आई रवि चोपड़ा की फिल्म बागबान  उन माता-पिता के दुखद बुढ़ापे की कथा कहती है, जो अपने बच्चों के ऊपर बोझ बन जाते हैं। यह फिल्म उस आधुनिक समाज का सच्चा आइना दिखाती है, जहाँ परिवार की मर्यादा पर आधुनिकता भारी पड़ रही है। सन् 2003 में रिलीज हुई फिल्म कोई मिल गया के माध्यम से राकेश रोशन ने अपने बेटे रितिक रोशन के कैरियर को संभालने की कोशिश की, वहीं दूसरी ओर धरती के बाहर भी जीवन होने की संभावनाओं को ऐसे रोचक ढंग से उठाया कि लोगों के जेहन में अनेक विचार उठने लगे। सन् 1857 की क्रांति के महानायक को रुपहले परदे में उतारने का प्रयास केतन मेहता ने अपनी फिल्म मंगल पाण्डे  में किया। यह फिल्म सन् 2005 में रिलीज हुई।     रोमांच, मनोरंजन, कलात्मकता, हकीकत और नसीहत से भरी फिल्में देने वाले प्रियदर्शन की सन् 2004 में रिलीज हुई फिल्म हलचल का अगला क्रम मालामाल वीकली, भूलभुलैया  और दे दनादन में आगे बढ़ता है। सन् 2007 में आई फिल्म गाँधी, माई फ़ादर में निर्माता अनिल कपूर और निर्देशक फिरोज अब्बास नकवी ने महात्मा गाँधी और उनके बेटे हरिलाल गाँधी के रिश्तों की तल्खी को सच्चाई के साथ पेश करने की कोशिश की। सन् 2007 में आमिर खान की फिल्म तारे ज़मीन पर  महत्त्वाकांक्षी माँ-बाप की उम्मीदों के पहाड़ तले दबकर घुटते एक ऐसे बच्चे की कहानी बयाँ करती है, जिसे अपने समय और समाज में आसानी से खोज लेना कठिन नहीं है। इस फिल्म को 2008 का सर्वश्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार मिला है और दिल्ली सरकार ने इसे करमुक्त घोषित किया है। ऐसी ही एक फिल्म पा है। इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने अभिषेक बच्चन के बेटे का किरदार निभाया है। बाल्की द्वारा निर्देशित यह फिल्म प्रोजोरिया नामक बीमारी से पीड़ित 12 साल के बच्चे की कहानी बयाँ करती है।लीक से हटकर समाज में घटने वाली घटनाओं को रुपहले परदे पर उतारने के लिए मशहूर श्याम बेनेगल की फिल्म वेलकम टू सज्ज्नपुर  में सज्जनपुर ऐसा गाँव है, जो भारत के किसी खाँटी गाँव का सच्चा नक्शा उतारकर हमारे सामने रख देता है। इस गाँव में हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करते लोग हैं, विधवा विवाह, अशिक्षा और अंधविश्वास जैसी सामाजिक समस्याएँ हैं। वोट हासिल करने के लिए कुछ भी कर गुजरने वाले नेता हैं और गांव के इकलौते पढ़े-लिखे महादेव के रूप में ऐसा सामान्य व्यक्ति भी है, जो अपनी प्रेमिका कमला को चाहते हुए भी जब अपना नहीं बना पाता तो उसकी खुशियों के लिए अपनी जमीन बेच देता है।सन् 2008 में रिलीज हुई नीरज पांडे द्वारा निर्देशित फिल्म ए वेडनसडे  में दोपहर दो बजे से लगाकर शाम छह बजे तक की कथा है, मगर दर्शकों को कई दिनों तक सोचने को मजबूर कर देती है। आतंकवाद से त्रस्त आम आदमी की असहाय स्थिति और उसकी ताकत, दोनों ही फिल्म में ऐसी शिद्दत के साथ प्रकट होती हैं कि देखते ही बनता है। गंभीर विषयों के लिए चर्चित निर्देशक राजकुमार संतोषी ने अंदाज़ अपना अपना  बनाकर साबित कर दिया था कि वे हास्य पर भी अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं और लंबे अरसे बाद सन् 2009 में अपनी नयी फिल्म अजब प्रेम की ग़ज़ब कहानी  के साथ उन्होने फिल्म जगत् को एक और स्वस्थ हास्य फिल्म दी।लाइफ एक रेस है, तेज़ नहीं भागोगे तो कोई तुम्हें कुचलकर आगे निकल जाएगा और कामयाब नहीं, काबिल बनो, जैसे नसीहत भरे संवाद लेकर आई राजकुमार हिरानी की फिल्म 3 ईडियट्स भारतीय शिक्षा प्रणाली की कमियों और उसकी वजह से विद्यार्थियों के किताबी कीड़ा बन जाने की भयावह स्थितियों को उजागर करती है। पढ़ाई की रॅट्टामार शैली पर व्यंग्य करती फिल्म साल 2009 की सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनी। अंग्रेजी उपन्यासकार चेतन भगत के आईआईटी पर आधारित उपन्यास 5 पॉइंट सम वन से मिलती-जुलती होने की वजह से यह विवादों में भी रही। सन् 2010 में निर्माता आमिर खान और निर्देशक अनुषा रिजवी के प्रयासों से आई फिल्म पीपली लाइव को श्याम बेनेगल की फिल्म वेलडन अब्बा  के आगे की कथा कहा जा सकता है। इन दोनों फिल्मों में भारत के धुर ग्रामीण समाज की विवशताओं को दिखाने का प्रयास किया गया है। कर्ज के कारण मरने को मजबूर किसान नत्था की खबर को सनसनीखेज बनाने में जुटे मीडिया की संवेदनहीनता को भी फिल्म में शिद्दत के साथ प्रकट किया गया है। सन् 2010 में आई निर्देशक हबीब फ़ैसल की फिल्म दो दूनी चार में मजाकिया ढंग से प्रस्तुत की गई कहानी ऐसी लगती है, जैसे वह हमारी ही कहानी हो। फिल्म महानगरीय जीवन में एक मध्यवर्गीय परिवार की परेशानियों और जोड़ तोड़ को बेहद वास्तविकता के साथ चित्रित करती है। इसी तरह ईगल फिल्म्स के बैनर तले राजीव मेहरा की फिल्म चला मुसद्दी आफिस आफिस  घपलों-घोटालों और कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को इस तरह प्रकट करती है कि सच्चाई और रुपहले परदे पर चलते चित्रों के बीच कोई अंतर नहीं दिखता है। फिल्म का नायक मुसद्दीलाल अपनी बंद हुई पेंशन पाने के लिए स्वयं को जिंदा साबित करने में लगा हुआ है।सन् 2010 में आई निर्माता अमिता पाठक और निर्देशक अश्विनी धीर की फिल्म अतिथि तुम कब जाओगे की कहानी महानगरीय संस्कृति के कारण टूटते पारिवारिक संबंधों की कड़वी हकीकत को शिद्दत के साथ बयाँ करती है। फिल्म यह सवाल उठाती है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को संवेदनहीन होने की नसीहत देकर किस ओर ले जा रहे हैं। सुभाष कपूर की फिल्म फँस गए रे ओबामा  वैश्विक मंदी के लोकल इफेक्ट को मजाकिया अंदाज में पेश करती है। अमिर खान की फिल्म तलाश और दिल्ली बेल्ली, गौरी शिंदे की फिल्म इंगलिश विंगलिश, सौरभ शुक्ल की फिल्म बर्फी, अनुराग कश्यप की फिल्म गैंग्स ऑफ वासेपुर, मिलन लुथुरिया की फिल्म द डर्टी पिक्चर, श्रीराम राघवन की फिल्म एजेंट विनोद, पंकज कपूर की फिल्म मौसम, प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण, अनुराग कश्यप की फिल्म दैट गर्ल इन यलो बूट्स  और अजय सिन्हा की खाप  आदि ऐसी फिल्में हैं, जो अपने अलग-अलग अंदाज लेकर आईं हैं और अपने ज्वलंत विषयों के माध्यम से समाज को सोचने के लिए मजबूर कर देने की क्षमता रखती हैं। इस दौर में जिस्म औरजन्नत आदि फिल्में भी आईं, मगर इनमें मानसिक विकृतियों को ही ज्यादा स्थान मिला।सत्तर-अस्सी के दशक तक हिंदी फिल्मों के साथ बेहतरीन गीतों का मेल हुआ करता था। मशहूर शायरों, ग़ज़लकारों के बेहतरीन नगमे हुआ करते थे। लता मंगेशकर, आशा भोंसले, किशोर कुमार, मुकेश, उदित नारायण, कविता कृष्णमूर्ति और अनुराधा पोडवाल जैसे कई गायक-गायिकाओं के मीठे सुर दर्शकों-श्रोताओं का मन मोह लेते थे। इनमें से कई यादगार नगमे अक्सर लोगों की जुबाँ पर होते थे। हॉलीवुड की नकल करते हुए बॉलीवुड से फिल्मी नगमों की वह पुरानी मिठास गायब होती चली गई। नई सदी में अशोक मिश्र, अमित मिश्र, प्रीतम चक्रवर्ती, अंजन अंकित, संजोय चौधरी, साजिद-वाजिद और शांतनु मोइत्रा जैसे गीतकारों के गीतों में डिस्को-डांस की कान फोड़ने वाली थिरकन तो दिखी, मगर गीतों से मिलने वाली अजीब-सी तसल्ली नहीं मिली। हालाँकि नई सदी के कुछ गीत यादगार भी बने।


दादासाहेब फाल्के के जमाने की मूक फिल्मों की शुरआती तकनीक से लगाकर आज के दौर की थ्री डी तकनीक तक फिल्म निर्माण में कई उतार-चढ़ाव आए। आज फिल्में बनाना उतना कठिन और मेहनत भरा काम नहीं रह गया। तकनीकी सुविधाएँ बढ़ने के बावजूद बॉक्स ऑफिस में कई फिल्मों की लागत करोड़ों तक पहुँच जाती है। जो फिल्म जितनी महँगी होने लगी, वह उतनी ही ज्यादा कारगर मानी जाने लगी। इस तरह फिल्म व्यवसाय भी भौतिकता की अपार चकाचौंध में खोता चला गया।इन सबके बावजूद साल भर में सर्वाधिक फिल्में बनाने में भारत अग्रणी है। हिंदी के साथ ही भारत की अनेक भाषाओं-बोलियों में फिल्म व्यवसाय अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को पूरी तरह से निभाते हुए लगातार आगे बढ़ रहा है। राष्ट्रीय एकता को स्थापित करने में भी फिल्म व्यवसाय का अमूल्य योगदान है। देश की विविध भाषाओं-बोलियों की प्रसिद्ध फिल्मों की डबिंग ने सारे देश को एक सूत्र में जोडने का काम किया है। इतना ही नहीं, विदेशों तक भारतीय फिल्मों की गूँज सुनाई देती है। भारतीय फिल्मों को भले ही हॉलीवुड की तरह सम्मान या बड़े-बड़े पुरस्कार नहीं मिले हों, फिर भी भारतीय फिल्मों के संस्थापक दादासाहब फाल्के से लगाकर इक्कीसवीं सदी में भारत के दूरदराज क्षेत्रों से आने वाले नए-नवेले निर्माता-निर्देशकों तक फिल्म व्यवसाय को समाज के हित में लगाने का जज्बा बरकरार है। आने वाले समय में भारतीय फिल्में अपनी इस जिम्मेदारी को और भी अच्छे तरीके से निभाएँगी, ऐसी संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।

                                                                                डॉ. राहुल मिश्र
(आकाशवाणी, लेह से प्रसारित)