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Thursday 26 August 2021

अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित (लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)

 


अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित

(लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)


डुल्लू पंडित, अर्थात पंडित श्रीधर कौल; यह एक ऐसा नाम है, जिसने न कभी ख्याति चाही, न पद और न ही पैसा-मान-प्रतिष्ठा। एक निष्काम सेवाव्रती की तरह से अपना सारा जीवन, अपनी सारी कर्मठता-सक्रियता लदाख को समर्पित कर दी। इसी कारण श्रीधर कौल के बारे में बहुत ही कम जानकारियाँ आज मिल पाती हैं। लदाख के जाने-माने इतिहासकार और संस्कृतिकर्मी स्वर्गीय आबा टशी  रबग्यस अकसर ही श्रीधर कौल के बारे में बताया करते थे। कथाकार अब्दुल ग़नी शेख और लदाख के वरिष्ठ-वयोवृद्ध चिकित्सक डॉक्टर तंजिन के पास भी डुल्लू पंडित से जुड़ी अनेक बातें और यादें हैं, जिन्हें उन्होंने या तो अपनी रचनाओं में सहेजा है, या फिर वे अपनी स्मृतियों को खंगालते हुए यदा-कदा बताते हैं। आज के लदाख की नई पीढ़ी के लिए डुल्लू पंडित का नाम अनजाना-सा ही होगा। आधुनिक लदाख के निर्माता कहे जाने वाले पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे का तो सामाजिक और राजनीतिक जीवन ही डुल्लू पंडित के सानिध्य में शुरू हुआ था।

श्रीधर कौल ने लदाख में बिताए अपने समय को; जैसा और जितना लदाख को देखा, उन अनुभवों को अपनी एक अधूरी रचना में समेटा था। उनके जीवनकाल में यह रचना पूरी नहीं हो सकी। बाद में उनके पुत्र हृदयनाथ कौल ने कुछ अंश उसमें जोड़े, और ‘लदाख : थ्रू द एजेस, टूवार्ड्स ए न्यू आइडेंटिटी’ के नाम से यह पुस्तक बहुत बाद में, सन् 1992 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का प्राक्कथन कुशोग बकुल रिंपोछे ने लिखा है। अपने प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है- “इस पुस्तक के लिए चंद पंक्तियाँ लिखना मेरे लिए बहुत खुशी की बात है। इस अवसर का लाभ उठाते हुए मैं अपनी ओर से, साथ ही लदाख की जनता की ओर से श्रीयुत् श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता दर्ज कराना चाहता हूँ। लदाख के लोगों के लिए और लदाख की संस्कृति के लिए उनका अविस्मरणीय योगदान, सन् 1947 के युद्ध में लदाख अंचल के लिए उनकी असाधारण सेवाएँ, और इन सबसे ज्यादा लदाखी लोगों को अपने नागरिक अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक करने हेतु किए गए कार्यों के लिए श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।”

इस पुस्तक का उल्लेख यहाँ पर इसलिए करना समीचीन लगता है, ताकि तथ्यपरक जानकारी का संदर्भ सुलभ हो सके। यह पुस्तक लदाख के अतीत को केवल देखती नहीं है, अनूठे भावनात्मक लगाव को, एक सांस्कृतिक संबंध को व्यक्त ही नहीं करती;  बल्कि महसूस भी कराती है। यह पुस्तक श्रीधर कौल ‘डुल्लू’ के लदाख अंचल के प्रति प्रेम और भावनात्मक लगाव को व्यक्त करने, और साथ ही भारत की पुरातन सांस्कृतिक-धार्मिक जड़ों को लदाख अंचल के कण-कण में देखने का सहज प्रयास भी है। तमाम सिद्धहस्त लेखकों के लदाख-वृत्तांत के सामने यह पुस्तक भले ही साधारण-सी हो, किंतु जिस पक्ष को इस पुस्तक में अनुभूत किया जा सकता है, उसे अन्यत्र खोजना कठिन है। परमपूज्य कुशोग बकुल रिनपोछे ने अपने कथन में मन के भावों की सीधी-सरल अभिव्यक्ति के माध्यम से आधुनिक लदाख के निर्माण की उस नींव को नमन किया है, जिसके साथ बीसवीं सदी के लदाख का निर्माण होता है। इस दृष्टि से पुस्तक का पुरोवाक् अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और इसी के सहारे बीसवीं सदी के लदाख को देखा जा सकता है।

सन् 1887 के पहले तक लदाख में आधुनिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। लदाख अंचल के लिए ईसाई मिशनरियों ने ‘मिल-हिल मिशन’ बनाया था। सन् 1888 में कैथोलिक धर्मप्रचारकों ने इसकी शुरुआत कर दी थी। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह इस स्थिति से अनजान नहीं थे। कश्मीर के बौद्ध आचार्यों की कर्मभूमि रहे लदाख परिक्षेत्र की सीधी-सादी-सरल जनता के हितों के लिए उनकी चिंता एक ओर गिलगित-स्करदो-बल्टिस्तान के अतीत के साथ जुड़ी थी, तो दूसरी तरफ ईसाई मिशनरियों के साथ आने वाले खतरे को लेकर भी थी। इस कारण उन्होंने ईसाई मिशनरियों को लदाख में आने की अनुमति नहीं दी। लाहुल-स्पीति (हिमाचलप्रदेश) को अपना संपर्क केंद्र बनाकर मिशनरी अपनी गतिविधियों को संचालित करते रहे और लदाख को अपने प्रभाव में लेने के लिए लगातार सक्रिय रहे। संभवतः ब्रिटिश शासकों के भारी दबाव के कारण सन् 1884 में मोरावियन मिशन का आगमन पहली बार लेह में हुआ। अस्पतालों और स्कूलों का संचालन करने के साथ ही कुछ लदाखी युवाओं को चर्च से जोड़कर समाज में पकड़ बनाने की कोशिशों को देखते हुए उस समय यह आवश्यक हो गया था, कि लदाख में ऐसी शिक्षा-व्यवस्था संचालित हो, जो आबादी के आँकड़ों को बड़े बदलाव से बचा सके, साथ ही अतीत की गलतियों के दुहराव को रोक सके।

इस कार्य के लिए श्रीधर कौल से उपयुक्त व्यक्ति कोई नहीं था। श्रीधर कौल शिक्षा के विकास और विस्तार में महाराजा हरि सिंह के न केवल सलाहकार थे, वरन् कश्मीर में शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने वाले कर्मठ और समर्पित शिक्षाविद् भी थे। ऐसा उल्लेख मिलता है, कि ‘वीमेंस वेलफेयर ट्रस्ट’ की बैठकों में वे अकसर कहा करते थे, कि- “राज्य में एक इलाका अब भी अशिक्षा से जूझ रहा है।” उनका इशारा लदाख अंचल की ओर होता था। इन चिंताओं को ध्यान में रखकर ही महाराजा काश्मीर ने श्रीनगर में बौद्धसभा का गठन किया था। इसके संस्थापक पंडित श्रीधर कौल थे। इस सभा के अध्यक्ष पूज्य स्तगछङ रिनपोछे थे, और वकील पंडित शंभुनाथ धर थे। बौद्धसभा द्वारा एक रिपोर्ट तैयार की गई थी, जिसे ग्लांसी नामक अंग्रेज अधिकारी की अध्यक्षता में गठित ‘ग्लान्सी कमीशन’ को सौंपा गया था। इस कमीशन की गतिविधियों का उल्लेख लदाख के जाने-माने इतिहासकार-साहित्यकार टशी रबग्यस ने किया है। वे ‘मरयुल लदाख के इतिहास का सर्वप्रकाशकादर्श’ में लिखते हैं, कि- “लदाख के बौद्धों के साथ मित्रता रखने वाले सज्जन मित्र थे, जिन्होंने लदाख के लोगों के लिए उस समय अपना विशेष योगदान दिया, जब लदाख के लोग जागरूक नहीं थे।”

श्रीधर कौल संवेदनशील, कर्मठ और सहृदय व्यक्ति थे, फलतः सन् 1939 में उन्हें शिक्षा अधिकारी बनाकर लदाख भेजा गया। अनेक सुविधाओं से संपन्न आज के लदाख में भी जब किसी अधिकारी का स्थानांतरण होता है, तो उसकी तैनाती को किसी सजा से कम नहीं माना जाता। ऐसी स्थिति में सन् 1939 के लदाख की कल्पना-मात्र ही रोंगटे खड़े कर देने वाली होगी। श्रीनगर की हरी-भरी और तमाम सुख-सविधाओं से युक्त अपनी जन्मभूमि से निकलकर रूखे-सूखे और भयंकर ठंडे लदाख अंचल में कौल जी का आगमन होता है। वे इसे किसी सजा के तौर पर नहीं, बल्कि सौभाग्य के रूप में देखते हैं। शिक्षा के लिए जागरूकता उनके जीवन का ध्येय बन जाता है। उस समय के लदाख में आवागमन के साधन नहीं के बराबर थे। लदाख का क्षेत्रफल भी आज से दुगुना था, क्योंकि उस समय गिलगित-बल्तिस्थान तक लदाख की सीमाएँ होती थीं। दुर्गम पहाड़ी रास्तों को उन्होंने पैदल चलकर, घोड़े पर सवार होकर तय किया और गाँव-गाँव में पहुँचकर लोगों को शिक्षा के लिए जागरूक किया।

लदाख के जाने-माने इतिहासकार और साहित्यकार अब्दुल ग़नी शेख बताते हैं, कि पंडित श्रीधर कौल को लोग एक शिक्षक के रूप में सम्मान देते थे, इस कारण वे लदाख अंचल में ‘मास्टरजी डुल्लू पंडित’ के रूप में जाने जाते थे। उनके अनथक प्रयासों से लदाख अंचल में कई स्कूलों की स्थापना हुई। लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई। मास्टरजी प्रत्येक विद्यालय में पहुँचते थे, और शिक्षकों के विकास के लिए सुझाव देते थे। वे बच्चों को आधुनिक शिक्षा के लिए प्रेरित करते थे, ताकि लदाख अंचल के युवा भी सरकारी तंत्र में शामिल हो सकें, अधिकारों के लिए जागरूक हो सकें और विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकें।

श्रीधरजू कौल आर्यसमाज  जुड़े हुए थे। उनके प्रयासों से ही श्रीनगर के रैनाबाड़ी इलाके में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना सन् 1943 में हुई थी। इसके पहले उन्होंने आर्यसमाज की तर्ज पर ‘लदाख बुद्धिस्ट एजूकेशन सोसायटी’ की स्थापना में योगदान दिया था। इस संगठन के माध्यम से लदाख अंचल में शिक्षा के लिए जागरूकता के साथ ही बिगड़ते जनसंख्या संतुलन को सुधारने और अनेक प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं से निपटने के लिए संगठित होने का प्रयास शुरू हुआ था। बाद में यह संगठन ‘यंग मैन बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के रूप में जाना गया। एसोसिएशन के शायद पहले अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन थे। कारपो रिगजिन भी पंडित कौल की तरह समर्पित जनसेवक थे।

मास्टरजी डुल्लू पंडित के लिए नई चुनौती तब सामने आई, जब देश की आजादी निकट आ चुकी थी। सीमांत सुरक्षा की दृष्टि से लदाख की हालत अच्छी नहीं थी। सन् 1947 में देश की आजादी और फिर कश्मीर राज्य में तेजी से बदलती राजनीतिक स्थितियों के बीच डोगरा शासकों के अधीन आने वाला सारा भूभाग दिशाहीन हो चुका था। देश के विभाजन के साथ ही कबाइली आक्रमणकारियों ने गिलगित और स्करदो पर कब्जा कर लिया था। वहाँ की बौद्ध आबादी को विस्थापन और आतंक के कहर से जूझना पड़ रहा था। यही स्थितियाँ बल्तिस्तान से लगने वाली नुबरा घाटी में दुहराई जाने वाली थीं। ऐसी विषम परिस्थितियों में लदाख के युवाओं को संगठित करके ‘नुबरा गार्ड्स’ नामक एक संगठन तैयार किया गया। इसमें बौद्ध युवाओं को जोड़ने का काम ‘यंग बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन ने किया। इसके पीछे पंडित डुल्लू कौल की प्रेरणा थी। वे स्वयं भी युवाओं को इसके लिए प्रेरित कर रहे थे, जागरूक कर रहे थे।

उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में विलय हो जाने के बाद भी लदाख की सुरक्षा के लिए भारतीय फौजें नहीं पहुँच पाई थीं। भारतीय फौजों के लदाख पहुँचने, और लदाख की दुर्गम भौगोलिक स्थितियों के बीच उन्हें सुरक्षा-व्यवस्था मुस्तैद करने में काफी समय लगने वाला था। इसे देखते हुए कारपो छेवांग रिगजिन और पंडित कौल ने श्रीनगर प्रशासन से अनुरोध किया, कि ‘नुबरा गार्ड्स’ को धार्मिक संगठन के स्थान पर सैनिक संगठन का दर्जा दिया जाए, और युवाओं को प्रशिक्षित किया जाए। फलतः नुबरा गार्ड्स ने देश के उत्तरी छोर पर अपना मोर्चा सँभाला।

पंडित कौल ने सन् 1948 में लदाख की रक्षा के लिए एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसे उन्होंने खुद पंडित नेहरू को सौंपा था। लेह-मनाली मार्ग को लदाख के आवागमन के लिए तैयार करने की जरूरत को जिस तरह मास्टरजी डुल्लू कौल ने तत्कालीन रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह और जनरल के.एम. करिअप्पा के सामने रखा था, उसे एक दूरदर्शी चिंतक की सक्रियता से कम नहीं कहा जा सकता। मास्टरजी के प्रयासों से गठित ‘नुबरा गार्ड्स’ को सन् 1963 में ‘लदाख स्काउट्स’ का नाम मिला और यह सेना की स्वतंत्र इकाई के रूप में आज भी सक्रिय है। इन ‘स्नो वारियर्स’, इन ‘स्नो टाइगर्स’ ने नुबरा घाटी से जुड़े बल्तिस्थान के इलाके में सन् 1947-48 में मचाए गए आतंक का बखूबी जवाब 13 दिसंबर, सन् 1971 को दिया था। उस समय अगर कुछ समय तक युद्ध-विराम की घोषणा नहीं होती, तो बल्तिस्थान के पाँच नहीं, पाँच सैकड़ा गाँव आज पाक अधिकृत कश्मीर में नहीं होते।

पंडित श्रीधर कौल का श्रीनगर के रैनाबाड़ी स्थित आवास उनके अपने घर से कहीं ज्यादा लदाख के लोगों के लिए घर जैसा था। इसी कारण उसे लदाख सराय ही कहा जाने लगा था। ऐसा बताया जाता है कि पंडित कौल ने डोलमा नाम की एक गरीब-अनाथ लदाखी बालिका को अपनी दत्तक पुत्री बनाया था। बाद में उन्होंने ही उसका विवाह कराया। श्रीनगर के रैनाबाड़ी में रहकर पढ़ने वाले तमाम लदाखी बालक-बालिकाओं के रहने-खाने का सारा व्यय मास्टरजी ही वहन करते थे। पंडित श्रीधर कौल की दूरदर्शी दृष्टि ने कुशोग बकुल रिनपोछे में जिस राजनीतिक नेतृत्वशक्ति को देखा था, कालांतर में वह उभरकर सामने आई। आज के लदाख के निर्माणकर्ता के व्यक्तित्व का बड़ा अंश श्रीधर कौल के सानिध्य में निर्मित हुआ।

सन् 1948 तक पंडित श्रीधर कौल लदाख में रहे। इसके बाद भी उनका लदाख से संबंध बना रहा। सन् 1952 में वे लदाख से चले गए, किंतु उनके अविस्मरणीय योगदान को, उनकी कर्तव्यनिष्ठा को, उनके महायान बौद्ध धर्म-दर्शन से लगाव को लदाख की जनता विस्मृत नहीं कर सकी। इसी कारण आजाद भारत में जब लदाख के विकास के लिए किसी मार्गदर्शक की जरूरत महसूस हुई, तो लदाख के लोगों ने श्रीघर कौल पर ही अपना भरोसा जताया। लदाखियों द्वारा सन् 1953 में एक ज्ञापन तत्कालीन मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद को भेजा गया, जिसमें पंडित श्रीधर कौल को लदाख मामलों का विशेष सचिव नियुक्त किए जाने की माँग थी। लदाख के लोगों की यह माँग भले ही पूरी न हो सकी हो, किंतु इसने एक निष्काम सेवाव्रती के प्रति आस्थायुक्त जनभावनाओं को अभिव्यक्त कर दिया था।

सन् 1967 में पंडित श्रीधर कौल अपने रैनाबाड़ी स्थित आवास में चिरनिद्रालीन हो गए। लदाख अंचल को जम्मू और श्रीनगर के समान विकसित और सशक्त होते देखने की कामना करने वाले पंडित श्रीधर कौल की अमूल्य राष्ट्रसेवा विस्मृत नहीं की जा सकती। देश के उत्तरी छोर को एकता के सूत्र से बाँधकर रखने वाले, लदाख अंचल में शिक्षा की अलख जगाने वाले पंडित श्रीधर कौल डुल्लू का निष्काम सेवाभाव नींव के पत्थर की तरह है।

-राहुल मिश्र

(मासिक पत्रिका सीमा संघोष, अगस्त, 2021 अंक में प्रकाशित)





Thursday 4 February 2021

भारत में भी है ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ का मजा

 

भारत में भी है ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ का मजा

मध्यकालीन व्यापारिक गतिविधियों की रोचक और साहसिक कथाएँ सिल्क रूट या रेशम मार्ग में बिखरी पड़ी हैं। सिल्क रूट का सबसे चर्चित हिस्सा, यानि उत्तरी रेशम मार्ग 6500 किलोमीटर लंबा है। दुनिया-भर में बदलती स्थितियों के कारण सिल्क रूट तो बंद हो गया, मगर उसकी रोचक स्मृतियाँ कई देशों के मन से ओझल नहीं हो पाईं। इस कारण चीन, कज़ाकिस्तान और किर्गिस्तान सहित दूसरे देशों के प्रस्ताव पर रेशम मार्ग को यूनेस्को ने विश्व विरासत का दर्जा दे दिया। इसके बाद ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ के तौर पर अंतरराष्ट्रीय पर्यटन का नया क्षेत्र खुला है।

पर्यटन के शौकीन लोगों के लिए सिल्क रूट टूरिज़्म जितना रोचक और रोमांचकारी है, उतना ही महँगा भी है। मगर आपको यह जानकर ताज्जुब होगा, कि कम खर्च में भी सिल्क रूट टूरिज़्म का मजा लिया जा सकता है, और वह भी देश से बाहर जाए बिना...। भले ही इस बात पर एकदम से भरोसा न हो, लेकिन यह हकीक़त है, जो देश के धुर उत्तरी छोर पर आपके स्वागत के लिए तैयार नज़र आती है।

जम्मू व कश्मीर के लदाख अंचल का उत्तरी इलाका, यानि नुबरा घाटी क्षेत्र सिल्क रूट से जुड़ा हुआ है। लदाख के मुख्यालय लेह से लगभग चालीस किलोमीटर की यात्रा के बाद मिलता है, खरदुंग दर्रा, जिसे दुनिया की सबसे ऊँची सड़क के लिए भी जाना जाता है। खरदुंग-ला के पार शुरू होती है, नुबरा घाटी, यानि फूलों की घाटी। सिल्क रूट के टकलामकान रेगिस्तान में नख़लिस्तान की तरह...। नुबरा के मुख्यालय देस्कित पहुँचने से पहले ही नुबरा नदी शयोक नदी से मिलती दिखाई पड़ती है। शयोक नदी के किनारे-किनारे पश्चिम की तरफ चलते हुए एक तरफ लदाख पर्वतमाला और दूसरी तरफ काराकोरम की पर्वतश्रेणियाँ अपने अलग-अलग रंग-ढंग को साथ लिए चलती हुई नजर आती हैं। देस्कित को पार करते ही हुंदर गाँव आता है। यह गाँव दो कूबड़ वाले ऊँटों की सवारी के लिए जाना जाता है। ये बैक्ट्रियन या यारकंदी ऊँट सिल्क रूट के शहंशाह कहे जा सकते हैं। सिल्क रूट के बंद हो जाने के बाद इनकी प्रजाति हुंदर में उन परिवारों के पास सुरक्षित है, जो किसी जमाने में सिल्क रूट व्यापार में माल ढुलाई और ‘शटल सेवा’ का काम किया करते थे। हुंदर का राजमहल, जो अब एक बौद्धमठ की शक्ल अख्तियार कर चुका है, किसी जमाने में सिल्क रूट के व्यापार पर नजर रखने की जिम्मेदारी निभाया करता था। हुंदर गाँव तक पहुँचने वाले पर्यटकों के लिए जितनी रोमांचक यारकंदी ऊँटों की सवारी होती है, उतना ही आकर्षण उनके लिए हुंदर राजमहल को देखने में होता है। अनूठी देशी बनावट वाले इस महल से आगे पश्चिम की तरफ बढ़ते हुए काराकोरम पर्वतश्रेणियों की ऊँचाई में वह रास्ता दिखाई पड़ने लगता है, जो कभी सिल्क रूट के सहायक मार्ग के तौर पर जाना जाता था। शयोक नदी के दोनों तरफ ऊँचे पहाड़ों पर सीधी लकीरों की तरह दिखने वाले सिल्क रूट के साथ-साथ चलते हुए चालुंका पहुँचते हैं। यह बल्तिस्थान का पहला गाँव है, जो यहाँ के लोगों के रंग-रूप, नाक-नक्श और अनूठी तहजीब के कारण एक नए संसार के खुल जाने का अहसास करा देता है।

चालुंका से बोगदंग और फिर तुरतुक तक बलखाती-इठलाती शयोक नदी, दोनों किनारों पर अलग-अलग रंगों को बदलती पर्वतराशियाँ, सियाचिन ग्लोशियर से टकराकर आते शीतल-मंद पवन के झोंके और इन सबके साथ असीमित पसरी शांति पर्यटन के एकदम नए और अनूठे अहसास को साथ लिए दिल में गहरे उतर जाती है। देश की सीमा का आखिरी गाँव है- तुरतुक। दो-तीन वर्ष पहले तक हुंदर के आगे पर्यटकों को जाने की इजाजत नहीं थी। इस कारण बल्ती संस्कृति के अनूठे दर्शन पर्यटकों के लिए सुलभ नहीं थे। अब सीधे तुरतुक तक पहुँचा जा सकता है और अनूठी बल्ती तहजीब को आँख भर-भरकर देखा जा सकता है।

तुरतुक में यगबो राजवंश के उत्तराधिकारी यगबो मोहम्मद खान काचो ने अपने पुरखों की तमाम यादों को समेटकर एक छोटा-सा संग्रहालय बना रखा है। इस संग्रहालय को देखना अतीत के उन लम्हों में उतर जाना है, जिनमें गिलगित बल्तिस्थान के गौरवपूर्ण अतीत की इबारतें लिखी हुई हैं। एक तरफ बल्ती संस्कृति, बल्ती समुदाय का जीवन यहाँ देखने को मिलता है, तो दूसरी ओर बल्ती ग़ज़ल, बल्ती लोकगीतों-किस्सों से महकती शामों के साथ चाँदनी रात में तारों भरे आसमान के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारना, तेजी से भागती जाती शयोक के कदमों की आहटों को सुनना ग्रामीण पर्यटन, सांस्कृतिक पर्यटन और साथ ही सिल्क रूट पर्यटन के सुखों को एकसाथ जोड़ देता है।

लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके तुरतुक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने के लिए ‘इनर लाइन परमिट’ की जरूरत पड़ती है। इसे लदाख स्वायत्तशासी परिषद् की वेबसाइट पर जाकर खुद भी बनाया जा सकता है। तुरतुक में कई अच्छे यात्री-निवास, होटल और गेस्ट हाउस हैं, मगर ‘होम-स्टे’ की बात ही अलग है, जहाँ बल्ती व्यंजनों का स्वाद और बल्ती जीवन की ढेर सारी रोचक कथाएँ सरलता से मिल जाती हैं। खुबानियों, जौ के सत्तू और देशी व्यंजनों के साथ पर्यटन का मजा दो गुना हो जाता है। तुरतुक के प्रसिद्ध लकड़ी के पुल पर बना ‘सेल्फी प्वाइंट’ गाहे-ब-गाहे अपनी तरफ खींच ही लेता है। पर्यटकों की सुविधा के लिए लेह में पर्यटक केंद्र है। हाल ही में देस्कित में भी पर्यटक सुविधा केंद्र खोला गया है। एक नए और अनूठे पर्यटक केंद्र के रूप में जितना नुबरा घाटी को जाना जाता है, उससे कहीं अधिक आकर्षण सिल्क रूट के साथ चलते-चलते तुरतुक तक जाने में होता है। यह आकर्षण भारत के मुकुट में जड़ी सुंदर मणि जैसी बल्ती तहजीब को नजदीक से देखकर खुशी से नहीं, गर्व से भी भर देता है।

(संपादकीय पृष्ठ, दैनिक अमृत विचार, लखनऊ-बरेली नगर-बरेली ग्रामीण संस्करण में दिनांक 25 फरवरी, 2020 को प्रकाशित)



Tuesday 1 December 2020

 





शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है...

कहते हैं, पहाड़ी नदियाँ बड़ी शोख़ होती हैं, चंचल होती हैं। लहराना, बल खा-खाकर चलना ऐसा,  कि ‘आधी दुनिया’ को भी इन्हीं से यह हुनर सीखना पड़े। पहाड़ी नदियाँ तो बेशक ऐसी ही होती हैं, मगर कभी हिमानियों से अपना रूप और आकार पाने वाली नदियों के बारे में सोचा है? वैसे तो ये भी पहाड़ों की ही हैं। इसलिए शोख़ी और चंचलता, बाँकपन और अदाकारी इनमें नहीं होगी, ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता है। देख लीजिए अलकनंदा और भागीरथी को, देख लीजिए लोहित और असिक्नी को....., और इनकी जैसी अनेक नदियों को....। एक अलग-सा सौंदर्य, अनूठा अल्हड़पन इनमें नजर आएगा। हिमनदों की इन आत्मजाओं का अनूठा सौंदर्य हिमालय की ऊँचाइयों पर ही देखा जा सकता है। अपने उद्गम से आगे बढ़ते हुए इनकी चंचलता मैदानों तक पहुँचते-पहुँचते गंभीरता में बदल जाती है। ठीक बचपन और बुढ़ापे की तरह...।

हिमनदों की इन चंचल बेटियों में एक शयोक भी है, जो अपनी कुछ अलग ही तासीर रखती है। यह चंद्रा और लोहित की तरह, अलकनंदा की तरह, या फिर भागीरथी की तरह सीधी-सरल और शांत नहीं है। लेह की तरफ से खरदुंग दर्रे को पार करते ही जैसे हम नुबरा घाटी में पहुँचते हैं, हरहराती हुई और तेजी से भागती हुई शयोक जैसे अगवानी करने को तैयार मिलती है। नुबरा घाटी में हम जितने दिन गुजारते हैं, उतने दिनों तक शयोक हमारा पीछा नहीं छोड़ती। नुबरा घाटी में घूमते हुए कई-कई बार हमें इसके साथ, तो कई बार इसे पार करके दर्शनीय स्थलों में पहुँचना होता है। इतना ही नहीं, शयोक अपने प्रवाह के साथ अपनी एक उपघाटी या अपना मैदानी इलाका भी बनाती है।

  अल्हड़ शयोक अपने उद्गम स्थान से निकलकर ‘गप्शन’ तक पश्चिम और दक्षिण तक बहती है और ‘गप्शन’ से ‘मंदरालिङ’ तक पूर्व दिशा में  बहती है। अपने उद्गम से आगे निकलकर यह गलवाँ और चंङ छेनमो नदियों को अपने साथ ले लेती है। इसके साथ ही यह इस इलाके में मंगोलियन तिब्बत और लद्दाख के बीच एक प्राकृतिक विभाजक रेखा भी खींचती है।  ‘मंदरालिङ’ से ‘शयोग’ तक दक्षिण और ‘शयोग’ से ‘हुंदर’ तक पश्चिमोत्तर बहते हुए बाद में पश्चिम दिशा की ओर बहते हुए बल्तिस्थान में प्रवेश कर जाती है। बल्तिस्थान के प्रमुख शहर स्करदो के पूर्व की ओर स्थित ‘केरिस’ के नजदीक सिंधु से मिल जाती है।

कई-कई बार शयोक की अल्हड़ चाल को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह ‘खरदुंग-ला’ से बहुत नाराज हो। ‘खरदुंग-ला’, यानि खरदुंग दर्रा....भोटभाषा में ‘ला’ दर्रे को कहते हैं। ‘ला’ तो ठीक है, लेकिन ‘खरदुंग’ तो ‘खर’ और ‘तुंग’ का मिश्रण समझ में आता है, जो प्रजातियों-पीढ़ियों की जुबानों में घिस-घिसकर ‘खरदुंग’ हो गया है, शायद। एकदम खड़ी-सी, ऊँची और कठिन चढ़ाई वाला तुंग....खरतुंग। आखिर यह शयोक के रास्ते में आया ही क्यों? उत्तर आसान-सा है, सरल-सा ही है...। पहाड़ हमेशा धीर-गंभीर और वीरव्रती ही नहीं होते, ये खलनायक की भूमिका में भी कभी-कभी आ जाते हैं। ऊँचे-ऊँचे दुर्गम और कठिन दर्रों के कारण ही लदाख के लिए कहा जाता है, कि यहाँ पर बहुत घनिष्ठ मित्र या बहुत कट्टर दुश्मन ही पहुँच सकता है। मध्यम स्तर वालों के लिए यहाँ आना सुगम नहीं...संभव नहीं। कारण... पहाड़ ही यहाँ पर चुनौतियों के  द्वार खोलते हैं। शायद इसी कारण शयोक की कथा में खरदुंग-ला किसी खलनायक से कम नजर नहीं आता। ऐसी ही एक कथा लाहुल-स्पीति के लोककंठों में जीवंत मिलती है। इस कथा में बारालाचा की दुर्गम ऊँचाइयाँ चंद्रा और भागा के लिए अवरोधक बनती हैं।

बड़े गहरे उतरे स्नेह-भाव के कारण कुछ लोगों द्वारा बड़ालाचा भी कहे जाने वाले बारालाचा के चंद्रताल से निकली चंद्रमा की बेटी चंद्रा, और सूर्यताल से निकला सूरज का बेटा भागा अपने प्रेम को जल तत्त्व में उतारकर साकार करते हैं। वैसे सूर्य का एक नाम भाकर भी है। भाकर का अंश भागा, और चंद्रमा की चंद्रा...। बारालाचा के शिखर से उनकी यात्रा शुरू होती है, मिलन के लिए...। भागा को कुछ ज्यादा ही भागना पड़ता है, दुर्गम पहाड़ियों के बीच अपना रास्ता बनाना होता है। अंततः ताँदी में दोनों मिलते हैं, और एक प्रयाग, एक संगम वहाँ बन जाता है, आस्था का...प्रेम की पराकाष्ठा का। लाहुल-स्पीति की अनेक लोककथाओं के बीच चंद्रा और भागा की यह प्रेमकथा बड़ी रुचि के साथ सुनी जाती है। ताँदी से आगे चंद्रभागा चेनाब बन जाती है, वैदिककाल की असिक्नी या आज के आम बोलचाल की इशकमती बन जाती है। इसी के किनारे हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल की प्रेमकथाएँ पनपती हैं, पंजाबियों के रीति-रिवाज परवान चढ़ते हैं। चंद्रा और भागा का अमर प्रेम मैदानी इलाकों को अपने रंग में रंग देता है।

यही अमर प्रेम शयोक और सिंधु में भी तो दिखता है, इसी कारण मिलन की राह में खड़े खर-तुंग से नाराज शयोक एकदम अपनी दिशा बदलकर बहने लगती है। इसीलिए खरदुंग-ला के पदतल में, हमें जैसे ही शयोक के दर्शन होते हैं, उसका भर्राया हुआ गला, नाराजगी से भरा स्वर सुनाई देता है। नदियों, पर्वतों, वनस्पतियों में स्वयं को देखने की, मानवीय गुणों और प्रवृत्तियों को देखने की अनूठी भारतीय पंरपरा दुनिया में विलक्षण है, अद्भुत है। इसी कारण शयोक के ही नहीं, हमारे अपने स्वर भी दो प्रेमियों के मिलन की राह में बाधक बनने वाले खलनायक खरदुंग-ला के लिए नाराजगी से भर जाते हैं। बारालाचा में अगर सूरज का बेटा है, तो यहाँ रिमो हिमानी की बेटी है। उधर चंद्रा है, जो बड़ी शालीन और संयत है। इधर शालीनता सिंधु नद के हिस्से में है। वैसे ‘रिमो’ भी भोटभाषा का शब्द है, और धारीदार पहाड़ के लिए इसे प्रयोग किया जाता है। जब माई ही इतनी तीखी है, तो बिटिया शांत-संयत कैसे हो सकती है? कई बार यह विचार शयोक की अल्हड़ चाल के कारणों को खोजते समय मन में उतर पड़ता है।

वैसे शयोक को कुछ और करीब से जानना हो, तो पाँच-छः घंटे का समय निकालकर स्याम गोनबो की लगभग सात-आठ सौ फीट की ऊँचाई पर चढ़ जाइए। धरती के टुकड़े को चाकू से काटती तेज धार की तरह शयोक का बहाव दिखाई पड़ेगा। एक तरफ हिमालय की लदाख पर्वतश्रेणी है, तो दूसरी तरफ काराकोरम पर्वतश्रेणी है। बीच में शयोक है, दो पर्वतश्रेणियों को एक-दूसरे से जुदा करती हुई। यह विभाजन पहाड़ों की बनावट का भी है, और बुनावट का भी...रंग भी दोनों के अलग-अलग...चट्टानें भी अलग और मिट्टी भी अलग। एक तरफ लालिमा है, तो दूसरी ओर कारा जैसी कालिमा...। स्याम गोनबो की ऊँचाई से शयोक को देखकर मन में  सबसे पहला विचार यही आता है, कि, भला हो... शयोक तुम्हारा! जो तुमने  दोनों श्रेणियों को अलग-अलग कर दिया.... कहीं हम एक ही समझ बैठते, तो आखिर क्या होता? यह तो ठीक है, लेकिन क्या तुम्हें एक गति से चलना नहीं आता है?

हे शयोक! हमने भी स्याम गोनबो की ऊँचाइयों से तुम्हें निहारा है। केवल निहारा ही नहीं है, तुम्हारे सानिध्य में पाँच-छः घंटे भी बिताए हैं। सुबह के समय तुम्हारी चाल थमी हुई-सी होती है। उस समय लगता है, कि तुम घुटुरुअन चल रही हो। कोई भी तुम्हारे पास जा सकता है। सिर पर सूरज के चढ़ते-चढ़ते तुम्हारे किनारों के रेतीले मैदानों में नमी पसरने लगती है। कई-कई जलधाराएँ उग आती हैं। साँझ ढलते-ढलते तुम्हारी चाल बहुत तेज हो जाती है। तुम्हारे सहमे-सिकुड़े से किनारे दूर-दूर तक फैल जाते हैं। रात के अँधेरों में भी तुम्हारी तेजी बनी ही रहती है, और सुबह-सवेरे फिर वही वीतरागी मद्धिम चाल....। कहीं तुम्हारे नाम के पीछे तुम्हारी चाल का असर तो नहीं है? अपने ‘ओक’ में, रिमो की गोद में ‘शयन’ कर रहीं तुम आलसियों की तरह दिन चढ़ने पर जागती हो, और देर हो जाने की बदहवासी में तेजी से दौड़ लगा देती हो। तुम्हारी दिन-भर की कलाएँ देखकर ही हमारे मन में ऐसे विचार आते हैं। हो सकता है, दूसरे लोगों के मन में ऐसे विचार आते हों। ‘शय’ और ‘ओक’ के मिलन से बनने वाले तुम्हारे नाम के पीछे भी यही विचार हो सकते हैं।

वैसे यारकंदी लोग शयोक को इस नाम से नहीं जानते। उनके लिए शयोक मौत की नदी है। दरअसल, काराकोरम की विकराल ऊँचाइयों से गुजरने वाले रेशम मार्ग का सहायक मार्ग नुबरा घाटी से जुड़ा हुआ था। लेह को रेशम मार्ग से जोड़ने वाले इस सहायक मार्ग की यात्रा करते समय यारकंदी व्यापारियों को लगभग बीस बार शयोक नदी को पार करना  पड़ता था। गर्मियों में तो इसे पार करना असंभव ही होता था, मगर सर्दियों में भी यह कम कठिन नहीं होता था। अपनी आदत के हिसाब से शयोक एकदम तेजी के साथ बह पड़ती, और यारकंदी व्यापारियों के कारवाँ में शामिल ऊँटों, घोड़ों, आदमियों तक को बहा ले जाती। शयोक के किनारे रहने वाले लोग भी इससे कम डरे हुए नहीं हैं। आज तो तमाम साधन हैं, पुल हैं, सड़कें हैं; लेकिन  गुजरे जमाने में लोग बेबसी को ढोते थे, और वैकल्पिक रास्ते निकालते थे। शयोक के किनारे के कुछ पुराने गाँवों, जैसे हुंदर, हुंदरी, देस्किद और उदमारू आदि के लोग चमरी मृग की खाल से ‘बिप्स’, यानि चमड़े की नाव बनाते थे, और उसके सहारे अपनी जान को जोखिम में  डालकर शयोक को पार करते थे।

भूरी-मटमैली रंग की इस मौत की नदी से नुबरा-शयोक घाटी के लोगों की भी खासी नाराजगी है। जिस शयोक को जीवनदायिनी होना चाहिए, उसके विकराल रूप से आहत लोग अपनी नाराजगी भी बड़ो रोचक अंदाज में व्यक्त करते हैं। आज भी किसी  बूढ़े-बुजर्ग से पूछिए, तो वे कहते हैं कि हम खेती-किसानी के लिए शयोक का पानी लेना नहीं पसंद करते, क्योंकि शयोक हमें जीवन देने वाली नहीं है। शयोक ने अपनी बाढ़ के उफान में कई बार हमारे तटबंधों की मिट्टी बहाई है, हमारी फसलों और पेड़-पौधों को बहाया है। इतना ही नहीं, गाँव के गाँव बहाकर आबादी को मिटाया है। इसलिए हमें शयोक का पानी अपनी फसलों में नहीं डालना है।

ऐसा कहा जाता है कि बल्तिस्थान के यगबो राजवंश की राजधानी काफलू में भयंकर बाढ़ आई थी। इस बाढ़ में शयोक नदी ने काफलू के चंगथंग इलाके को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। यह चंगथंग इलाका मंगोलियन तिब्बत से सटे चंगथंग के लोगों का था, जो रेशम मार्ग में नमक का व्यापार किया करते थे। इस भीषण तबाही से आक्रांत लोगों ने उस इलाके को ही छोड़ दिया। इनमें से कुछ लोग ‘छोरबत’ में बस गए और कुछ लोग नुबरा घाटी से होते हुए लेह के निकट ‘छुशोद’ गाँव में आकर बस गए। छुशोद में इन लोगों को ‘बल्ती’ के तौर पर जाना जाता है।

वैसे शयोक ने केवल बल्तियों को ही विस्थापित नहीं किया, वरन् अतीत के तमाम विस्थापनों को, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों को देखा है, जो इतिहास में आज भी अनजाने हैं, अनछुए और गुमनाम-से हैं। देश के विभाजन के बाद कारगिल से सड़क मार्ग द्वारा स्करदो तक जाना संभव नहीं रहा। अविभाजित लदाख में स्करदो की उतनी ही बड़ी भूमिका होती थी, जितनी लेह की..। डोगरा शासकों के समय में लदाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी स्करदो होती थी। सिंधु नद स्करदो से गुजरते हुए केरिस के पास शयोक से मिलता है। केरिस के पास ही शिगर नदी भी सिंधु में मिलती है। यहाँ त्रिवेणी बन जाती है, संगम बन जाता है। केरिस के निकट ही ऐतिहासिक काफलू शहर है।

अतीत का एक लंबा कालखंड ऐसा भी रहा है, जब सिंधु और शयोक के दोआब में दरद भाषा का व्यवहार हुआ करता था। कारगिल-खलच़े से लगाकर स्करदो-गिलगित-हुंजा से होते हुए मंगोलियाई तिब्बत की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा तक विस्तृत दरदभाषी क्षेत्र अपने अतीत में दरद आर्यों का निवास स्थान रहा है। आज का बल्तिस्थान अतीत में इसी दरद देश के अंतर्गत ही आता था। आज की धार्मिक-सांस्कृतिक विविधताओं के बीच प्रजातिगत एकरूपता अतीत के गौरव की साक्षी है। इस दरद देश का अतीत महाभारत काल से भी जुड़ा है। महाभारत के युद्ध में दरदों ने कौरवों की तरफ से युद्ध किया था, जबकि किरातों ने पांडवों की तरफ से युद्ध किया था। तिब्बती भोटभाषा में किरातों को ‘मोन’ कहा जाता है। इन्हीं मोन लोगों के कारण लदाख का एक नाम ‘मोनयुल’, यानि मोन लोगों का इलाका भी है। सिंधु के तट पर ‘मोन’ या किरातों की, और शयोक के तट पर दरदों की आबादी के सहारे सिंधु-शयोक का दोआब महाभारतकालीन राजनीतिक प्रसंगों का साक्षी बना होगा।

शयोक तो मानव-सभ्यता के विकास की, हिमालय की निर्मिति की साक्षी भी है। शयोक तांतव संधि-क्षेत्र या ‘शयोक स्यूटर जोन’ के तौर पर हम शयोक के प्रवाह को जानते हैं। देश-दुनिया में प्रसिद्ध पङ्गोङ झील की निर्मिति भी शयोक के प्रवाह के कारण हुई। किसी समय टेथिस सागर की लहरों को झेलने वाला शयोक का प्रवाह-क्षेत्र आज भी परवर्ती जुरासिक काल के जीवों के चिन्हों को अपने में छिपाए हुए है। सिंधु नद का अतीत भी इसी तरह परवर्ती जुरासिक काल से जुड़ा हुआ है। इस कारण सिंधु और शयोक से मिलकर सिंधु-शयोक मेखला का निर्माण होता है। इसी कारण सिंधु से मिलना ही शयोक की नियति बन जाती है। यह मिलन केरिस में होता है। सिंधु और शयोक के साथ ही शिगर नदी भी केरिस में मिलती है। अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ केरिस ऐसा संगम बन जाता है, ऐसा जीवंत प्रयाग बन जाता है, जहाँ अतीत के मानव के अस्तित्व का पहला अध्याय लिखा जाता है। जहाँ सभ्यताओं के अस्तित्व और संघर्ष की गाथाएँ गुनी जाती हैं। जहाँ धर्मों-रीतियों-नीतियों के टकराव दर्ज होते हैं। जहाँ भूरी-मटमैली शयोक नदी सिंधु नद से मिलकर अपनी पूर्णता को पाती है, और न पढ़े गए इतिहास के तमाम पन्नों को बाँचती है, उवाचती है। शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है..।

डॉ. राहुल मिश्र

(हिंदी प्रचार-प्रसार सोसायटी अमृतसर की पत्रिका 'बरोह' के दिसंबर, 2019 अंक में प्रकाशित)

Wednesday 12 December 2018

लोसर : परंपरा और संस्कृति का पर्व



लोसर : परंपरा और संस्कृति का पर्व

लदाख अंचल को उसकी अनूठी संस्कृति और धार्मिक परंपराओं से जाना जाता है। लदाख के बारे में ह्वेनसांग, हेरोडोट्स, नोचुर्स, मेगस्थनीज, प्लीनी और टॉलमी जैसे यात्रियों ने बताया है। इससे लदाख के अतीत का पता चलता है। किसी भी क्षेत्र के अतीत का पता इतिहास की किताबों और इतिहासकारों से चलता है। लेकिन किसी क्षेत्र के समाज, संस्कृति और वहाँ के लोगों के जीवन की जानकारी उस क्षेत्र के रीति-रिवाजों और तीज-त्योंहारों से मिलती है। लदाख अंचल की अनूठी संस्कृति, यहाँ के लोगों के विचार और समाज का जीवन लदाख के त्योहारों में दिखाई देता है। लदाख अंचल के प्रमुख त्योहारों में बुद्ध पूर्णिमा और लोसर का नाम आता है। इनमें बुद्ध पूर्णिमा धार्मिक त्योहार होता है। इसमें खास तौर पर पूजा-पाठ होते हैं, जबकि लोसर का त्योहार धार्मिक भी होता है, और सामाजिक भी होता है। इस कारण लोसर के त्योहार में लदाख अंचल के साथ ही सारे हिमालयी परिक्षेत्र के समाज, यहाँ की संस्कृति, प्राचीनता और परंपरा की झलक देखने को मिलती है।
 लदाख अंचल के लिए लोसर का त्योहार बहुत खास होता है, क्योंकि सर्दियाँ शुरू होने के साथ ही यह त्योहार लोगों में नई जिंदगी की रौनक बिखेर देता है। गर्मियों में पर्यटकों से गुलज़ार रहने वाले लदाख में ठंढक के आगमन के साथ ही जीवन बदल-सा जाता है। क्या सर्दियों के आने पर लदाख उदासियाँ ओढ़ लेता है? शायद नहीं। क्योंकि लदाख का नववर्ष सर्दियों की शुरुआत के साथ ही नए जोश को लेकर उपस्थित हो जाता है। लदाख के नववर्ष को ही लोसर कहा जाता है। लोसर भोट भाषा के दो शब्दों- ‘लो’ और ‘त्सर’ से मिलकर बना है। ‘लो’ का अर्थ होता है- वर्ष, और ‘त्सर’ का अर्थ होता है- नया। इस तरह से ज्योतिषीय गणना के अनुसार नए वर्ष का त्योहार ही लोसर कहलाता है।
वैसे तो लोसर का मुख्य पर्व भोट पंचांग के हिसाब से ग्यारहवें महीने की अमावस्या को मनाया जाता है, लेकिन इसकी शुरुआत दसवें महीने में ही हो जाती है। भोट पंचांग के अनुसार दसवें महीने की पंद्रहवीं तिथि से धार्मिक अनुष्ठानों और पूजा-पाठ की शुरुआत हो जाती है, जो ग्यारहवें महीने की पाँचवी तिथि तक चलती रहती है। दसवें महीने की पंद्रहवीं तिथि को होने वाले धार्मिक अनुष्ठान में खास तौर पर विनय के नियमों या सूत्रों का पाठ होता है। इस दिन को विद्वान भिक्षु और महान सिद्ध ग्यालवा लोजंग टकस्पा के स्मृति-दिवस के रूप में भी जाना जाता है। दसवें माह की पच्चीसवीं तिथि को गलदेन ङाछोद का पर्व होता है। यह भी लोसर का पूर्वानुष्ठान होता है। इस तिथि को महासिद्ध चोंखापा की जन्मजयंती और परिनिर्वाण तिथि के रूप में मनाया जाता है। इस दिन महासिद्ध आचार्य चोंखापा को याद करते हुए गोनपाओं में पैंतीस बुद्धों की पूजा की जाती है। भिक्षुगणों द्वारा किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान के साथ ही लोग अपने-अपने घरों में दीपक जलाकर खुशियाँ मनाते हैं। इस दिन छोरतेन, यानि स्तूपों में भी दीप प्रज्ज्वलित किए जाते हैं। ऐसा माना जाता है, कि जिस तरह महासिद्ध चोंखापा ने ज्ञान के प्रकाश से अज्ञानता के अँधेरों को दूर किया था, उसी तरह लोगों के जीवन में ज्ञान का उजाला फैले, समाज से अज्ञानता दूर हो, बुरी शक्तियाँ दूर हों और सभी का जीवन खुशहाल हो।
लोसर में सबसे ज्यादा रोचक और मजेदार आयोजन दसवें माह की उन्तीसवीं तिथि  होता है। इस दिन ‘गु-थुग’ बनाया जाता है। ‘गु-थुग’ एक खास किस्म का व्यंजन होता है, जो लोसर के त्योहार में ही में बनता है। यह थुग्पा जैसा ही होता है, लेकिन इसकी खासियत इसमें पड़ने वाली चीजों के कारण होती है। भोट भाषा में ‘गु’ का अर्थ होता है- नौ। लोसर के पर्व पर बनने वाले थुग्पा में नौ चीजें डाली जाती हैं, इसी कारण इस व्यंजन को ‘गु-थुग’ कहा जाता है । इसमें सने हुए आटे की लोइयों के बीच में कोयला, मिर्च, नमक, चीनी, रुई, अँगूठी, कागज और सूर्य तथा चंद्रमा की आकृतियाँ आदि नौ चीजों को अलग-अलग भरकर थुग्पा में डाला जाता है। आग में पक जाने के बाद ‘गु-थुग’ को सभी के बीच में बाँटते हैं। खाने से पहले सभी लोग देखते हैं, कि उनके हिस्से में कौन-सी चीज आई है। अलग-अलग लोगों के हिस्से में आने वाली चीजों के मुताबिक व्यक्ति के स्वभाव और गुण के बारे में बताया जाता है। अगर किसी व्यक्ति के हिस्से में कोयला आता है, तो यह माना जाता है कि उसका मन काला है, उसके विचार गंदे हैं। जिस व्यक्ति के हिस्से में मिर्च आती है, उसे कड़वा बोलने वाला या कटुभाषी माना जाता है। रुई पाने वाला सात्विक और सरल स्वभाव का होता है। कागज पाने वाला धार्मिक, सूर्य की आकृति पाने वाला यशस्वी, चंद्रमा की आकृति पाने वाला सुंदर और अँगूठी पाने वाला कंजूस माना जाता है। जिस व्यक्ति के हिस्से में अच्छी चीज आती है, उसे सम्मान मिलता है। जिसके हिस्से में बुरी वस्तु आती है, उसे अपमानित होना पड़ता है। इस तरह लोसर के त्योहार में वर्षभर के कामों का ब्यौरा निकलकर आ जाता है। वैसे तो यह मनोरंजन के लिए ही होता है, लेकिन इसके पीछे यह संदेश छिपा होता है, कि साल-भर अच्छे काम ही करने चाहिए, नहीं तो सबके सामने अपमानित होना पड़ेगा। इससे अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिलती है।
इसके अगले दिन, यानि दसवें माह की तीसवीं तिथि या अमावस्या को लोग सुबह-सुबह अपने-अपने घरों से मृतकों या पितृदेवताओं के लिए भोजन लेकर उनके समाधि-स्थल पर जाते हैं। शाम के समय गोनपाओं, छोरतेनों और घरों में दीप जलाए जाते हैं। अमावस्या की रात को जगमगाते दीपकों के बीच लदाख की धरती जगमगा उठती है। इसी दिन शाम के समय हरएक घर से मशाल या ‘मे-तो’ निकाले जाते हैं, जिन्हें लेकर लोग पूरे गाँव या मोहल्ले में घूमते हैं। इन्हें घुमाते हुए लोग आवाज लगाते जाते हैं, कि सारी बुराइयाँ, सारी बुरी और नकारात्मक शक्तियाँ यहाँ से चली जाएँ। ग्यारहवें मास की प्रतिपदा को, अर्थात् पहली तिथि को लोग नए-नए कपड़े पहनकर अपने-अपने इष्टदेव की पूजा करते हैं। सगे-संबंधी और परिचित-मित्र एक-दूसरे के घर शुभकामनाएँ देने जाते हैं। इस मौके में नवविवाहिताएँ भी अपने घर जाकर बड़ों के चरण छूकर प्रणाम करती हैं। इस दिन साल भर पकवान खिलाने वाले चूल्हे को भी प्रणाम किया जाता है, और पूजा की जाती है। लोसर के पर्व पर बच्चों को नए-नए कपड़े मिलते हैं और सभी लोग अपने परिजनों, मित्रों को उपहार भी देते हैं।
ग्यारहवें मास की द्वितीया को, अर्थात् दूसरी तिथि को पङोन, यानि महाभोज का आयोजन होता है, जिसमें सभी लोग बिना किसी भेदभाव के शामिल होते हैं। इस मौके पर स्त्रियों और पुरुषों के बीच छङ-लू नामक प्रतियोगिता होती है। इस मौके पर भक्तिभाव और वीरता के लोकगीत गाए जाते हैं। लोकगीतों द्वारा उन सैनिकों को भी शुभकामनाएँ दी जाती हैं, जो लोसर के त्योहार में अपने घर नहीं पहुँच पाते हैं। लदाख की धरती वीरों की धरती मानी जाती है। आज भी यहाँ के तमाम सैनिक देश की सेवा में लगे हुए हैं। इन वीरों का उत्साह बढ़ाने के लिए ही वीर रस से भरे हुए लोकगीत गाए जाते हैं। इसके पीछे एक ऐतिहासिक घटना भी नज़र आती है।
ऐसा माना जाता है, कि लदाख में लोसर का पर्व तिब्बती पंचांग के अनुसार ही मनाया जाता था, मगर लदाख के प्रतापी शासक राजा जमयङ नमग्याल के साथ जुड़ी एक घटना के कारण लोसर का पर्व तिब्बती लोसर से एक महीने पहले मनाया जाने लगा। मान्यता है, कि सोलहवीं शती. में राजा जमयङ नमग्याल के शासक बनते ही बल्तिस्तान में विद्रोह हो गया। यह घटना लोसर के एक महीने पहले की थी।  ऐसी संभावना थी कि लोसर के पहले युद्ध समाप्त नहीं हो पाएगा। इस कारण राजा जमयङ नमग्याल ने युद्ध में जाने से पहले ही लोसर मनाने की घोषणा कर दी। इस तरह भोट पंचांग के अनुसार दसवें महीने से ही लोसर पर्व के आयोजन की परंपरा चल पड़ी और आज भी इस परंपरा को देखा जा सकता है। उस समय युद्ध में जाने वाले वीर सैनिकों के अंदर जोश भरने के लिए वीरतापूर्ण लोकगीत गाये गए होंगे। आज लोसर में वीर-गीतों को गाने के रिवाज के पीछे भी यही कारण देखा जा सकता है।
ऐसा भी माना जाता है, कि लदाख के ठंढे मौसम और यहाँ की कृषि-व्यवस्था के कारण लोसर पर्व की तिथियों में अंतर है। लदाख में एक फसल ही पैदा होती है और खेती-किसानी का सारा काम अक्टूबर महीने तक पूरा हो जाता है। नवंबर के समाप्त होते-होते नई फसल का अनाज भी घर पहुँच जाता है। नया सत्तू और आटा भी तैयार हो जाता है। इस तरह लोसर में पूजा-पाठ के लिए नई फसल से सामग्री भी तैयार हो जाती है, और काम-काज की व्यस्तता भी नहीं रहती। इस कारण लोसर पर्व का उत्साह दुगुना हो जाता है। कारण चाहे जो भी हों, मगर ठंढक की दस्तक के साथ ही उल्लास और उमंग से भरा यह पर्व पुरातनकाल से ही लदाख अंचल की अपनी विशिष्ट पहचान को, अपनी अनूठी परंपराओं को सँजोए हुए है।
लदाख अंचल भौगोलिक रूप से जितना बड़ा है, उतनी ही विविधताएँ भी यहाँ पर देखी जा सकती हैं। नुबरा, चङथङ, जङ्स्कर और शम आदि क्षेत्रों में लोसर पर्व के साथ जुड़ी लोकपरंपराओं के अलग-अलग रंग देखे जा सकते हैं। इन लोकपरंपराओं में बहुत रोचक है, यहाँ की स्वाँग की परंपरा। प्राचीनकाल में स्वाँग की परंपरा सारे लदाख में अलग-अलग तरीके से मनाई जाती थी, मगर आधुनिक जीवन-शैली के कारण यह परंपरा लदाख अंचल के दूरदराज के गाँवों में ही सिमटकर रह गई है। जिस समय लदाख में मनोरंजन के साधन उपलब्ध नहीं रहे होंगे, उस समय लोगों के मनोरंजन के लिए, और उनकी धार्मिक भावनाओं की पुष्टि के लिए यह लोक-परंपरा बहुत कारगर रही होगी। इसमें लदाख के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग किस्म के स्वाँग करने की परंपरा है। लेह शहर के नजदीक चोगलमसर गाँव में होने वाले अबी-मेमे; ञे, बसगो, अलची गाँवों में होने वाले लामा-जोगी; हेमिशुगपाचन में होने वाले खाछे-कर-नग; स्क्युरबुचन में होने वाले अपो-आपी और वनला में होने वाले दो बाबा नामक स्वाँग बहुत प्रसिद्ध हैं। इन स्वाँगों में लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इन स्वाँगों में नसीहतें ही नहीं, इतिहास की झलक भी देखी जा सकती है और लदाख अंचल के साथ जुड़े धार्मिक-सांस्कृतिक संबंधों को भी देखा जा सकता है। लामा-जोगी नामक स्वाँग में उस पुराने लदाख को देखा जा सकता है, जिसमें कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए आने वाले जोगी या साधु-संन्यासी नजर आते हैं। पुराने ज़माने में बौद्ध भिक्षु, यानि लामाओं जैसी जिंदगी जीने वाले साधु-संन्यासियों को देखकर ही शायद लामा-जोगी स्वाँग का विचार आया होगा। इस स्वाँग में नवमी तिथि को लामा-जोगी अभिमंत्रित अनाज, जैसे गेहूँ-जौ आदि लेकर गाँवों में घूमते हैं और इन्हें छिटककर विघ्न-बाधाओं को दूर करते हैं। वे हरएक घर पर जाते हैं। घर का मुखिया लामा-जोगी के माथे पर सत्तू का तिलक लगाता है और ऊनी मुकुट पर ऊन चढ़ाता है। लामा-जोगी के आशीर्वाद से घर-परिवार, और गाँव में बुरी शक्तियाँ नष्ट होती हैं और सुख समृद्धि आती है। लामा-जोगी का यह स्वाँग प्राचीन लदाख को अतीत के भारत से जोड़ने वाला है। इस स्वाँग के माध्यम से प्राचीन भारत की सिद्ध-श्रावक-श्रमण परंपरा के सुनहरे इतिहास को भी याद किया जा सकता है। यह स्वाँग भारतवर्ष में लदाख अंचल के विशिष्ट और अभिन्न सांस्कृतिक-धार्मिक-सामाजिक सहकार की झलक दिखाता है। इस स्वाँग के माध्यम से लदाख अंचल के स्वर्णिम और गौरवपूर्ण अतीत के पन्ने खुलते चले जाते हैं। भावनात्मक जुड़ाव की झलक पेश करने वाले लामा-जोगी जैसे स्वाँगों का लोसर में विशेष आकर्षण होता है।
लोसर में कुत्ते, बिल्लियों, गाय, बछड़ों आदि को भी खाना खिलाया जाता है। नई फसल का उत्सव भी इसमें होता है। इस तरह लोसर का त्योहार सभी जीवधारियों के प्रति प्रेम के साथ ही सहजीवन और सह-अस्तित्व का भाव भी दिखाता है।
इस तरह लोसर का त्योहार अपनी विविधताओं के साथ, उमंग और उल्लास के साथ सर्दियों की ठिठुरन के बीच नया जोश, नई उमंग भर जाता है। लोसर का त्योहार उल्लास और उमंग के साथ ही लदाख के गौरवपूर्ण अतीत को, विनय की शिक्षाओं को, और नीति-नैतिकता की नसीहतों को साथ लेकर आता है। सीमित संसाधनों के बीच, जीवन की जटिलताओं के बीच लोसर के पर्व पर थिरकते पाँव बताते हैं कि जीना भी एक कला है और अपनी तहजीब के विविध रंगों को समेटकर लोसर के दीपकों की जगमगाहट के बीच बिखेर देना ही कठिन जीवन की कड़ी चुनौतियों के लिए सटीक जवाब है। एक बाल कविता के साथ लोसर की ढेर सारी शुभकामनाएँ-

आया आया लोसर1 आया,
ढेरों  खुशियाँ  संग   लाया,
ठंडक से सहमे  लोगों  को,
मस्ती  का   मौसम   भाया,
आया आया लोसर  आया।
झूम-झूमकर   गाना   गाते,
गाने  के  संग  नाच है सुंदर,
बज उठते हैं दमन2 के बोल,
सुरनाने  उत्साह  बढ़ाया,
आया  आया लोसर  आया।
आचो4    आते     आचे5   आती,
मिलजुल कर सब साथ में होते,
सबके संग कुछ समय  बिताया,
आया   आया   लोसर   आया।
मिट जाते झगड़े झंझट सब
कौन  हैं  मेरे  कौन  तुम्हारे,
बीती  बातें  सभी भुलाकर,
सबको  गले  लगाने  आया,
आया  आया  लोसर आया।
बनती खूब  सिवइयाँ मीठी,
सज जाते  हर घर हर द्वारे,
जगमग जगमग धरती होती,
हर मन को  चमकाने आया,
आया आया लोसर  आया।
नौ तरह  की चीज़  मिलाकर
नौवें    दिन     होता    तैयार
कहते लोग गुथुक6 है जिसको
आमाँ7  ने  सबको  पिलवाया,
आया  आया  लोसर   आया।
किसने  अच्छे  कर्म   किये  हैं,
किसने   बुरे   किये    हैं   काम,
किस्मत अच्छी बुरी है किसकी,
जादू की पुड़िया  को  खोलकर,
अच्छा   बुरा    बताने    आया,
आया   आया   लोसर   आया।
1.तिब्बती पंचांग के अनुसार सर्दियों में मनाया जाने वाला पर्व 2. नगाड़ा जैसा वाद्य यंत्र 3. बीन जैसा वाद्य यंत्र 4. बड़ा भाई (तिब्बती) 5. बड़ी बहन (तिब्बती) 7. लोसर में बनने वाला एक प्रकार का पेय पदार्थ जिसमें मेवे के साथ कोयला आदि नौ चीजें मिलाई जातीं हैं 8. माँ (तिब्बती)
(आकाशवाणी, लेह से दिनांक 11 दिसंबर, 2018 को प्रातः 09 बजकर 10 मिनट पर प्रसारित)
राहुल मिश्र

Monday 9 July 2018

बलखङ चौक से दीवानों की गली तक



बलखङ चौक से दीवानों की गली तक

आज न जाने क्यों धरती के उस निहायत छोटे-से टुकड़े पर लिखने के लिए कलम उठ गई। धरती का वह टुकड़ा, जो इतना छोटा-सा है, कि कुल जमा दो-सवा दो सौ कदमों से नापा जा सकता है। अगर कोई यह समझ बैठे, कि इन दो सौ-सवा दो सौ कदमों को वह ज्यादा से ज्यादा एक घंटे में तय कर लेगा, तो ऐसा भी संभव नहीं है। यह सफ़र सैकड़ों वर्षों का है। ऊन के धागों की तरह उलझे अतीत को सुलझाकर सीधा-सरल करने का है। हमारे जैसे कई लोगों ने सैकड़ों वर्षों के इस सफ़र को सैकड़ों बार तय किया होगा, मगर आज तक यह सफ़र पूरा हो पाया, कहना कठिन है। शायद इसी कारण बलखङ चौक से दीवानों की गली तक के दौ सौ कदमों के सफ़र को शब्दों में नापने की प्रबल इच्छा मुखर हो उठी, फिर पन्नों में बिखर पड़ी।
मध्य एशिया के चौराहे पर स्थित वह बड़ा बाजार, जो आकार में बहुत छोटा है, उसे अगर अपनी आत्मीय निकटता के कारण हमारे जैसे सिरफिरे लोग दुनिया की छत पर स्थित सबसे पुराना बाजार भी कह दें, तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए। इतना ही नहीं, यह पुराना बाजार केवल उत्पादों या वस्तुओं के व्यापार के लिए ही नहीं, वरन् संस्कृतियों-तहजीबों-जीवन जीने के रंग-ढंगों की अदला-बदली के लिए भी अपनी अनूठी पहचान रखता है, फलतः इसे बाजार की परंपरागत परिभाषा तोड़ने वाला अनूठा बाजार भी कहा जा सकता है। अगर इस अनूठे-अतुलनीय बाजार को समूचे लदाख की जीवन-धारा कह दिया जाए, तो शायद शब्दों की बेमानी हो जाएगी। लदाख अंचल का धड़कता हुआ दिल अगर है, तो वह लेह बाजार ही है। इसीलिए सुदूर अतीत से लगाकर आँखों के सामने नजर आते वर्तमान तक लदाख अंचल की हर हरारत को लेह बाजार अपने में गिनता है, गुनता है, बुनता है। इसीलिए बलखङ चौक से लगाकर दीवानों की गली तक का एक फेरा लगाए बिना किसी भी पर्यटक की, किसी भी यात्री की लदाख यात्रा पूरी नहीं मानी जा सकती। इतना ही नहीं, लेह के आसपास के गाँवों में रहने वाला कोई व्यक्ति अगर लेह आया है, तो लेह बाजार का एक फेरा लगाए बिना उसकी यात्रा भी पूर्णता को प्राप्त नहीं होती। लब्बो-लुबाब यह, कि बड़े-बड़े राजाओं-वजीरों से लगाकर जेब में हाथ डाले फोकट टहलने वाले अदने-से लोगों तक के लिए धरती का यह सुंदर-सा, छोटा-सा टुकड़ा आकर्षण का केंद्र रहा है।
बलखङ चौक कहने के लिए तो चौक है, मगर चौक जैसा कुछ नजर आता नहीं है। यहाँ दो तिराहों का मिलन है, और चारों दिशाओं की ओर जाते रास्तों को केवल महसूस किया जा सकता है। वैसे बलखङ चौक में एक बात और भी महसूस होती है, जो इस चौक के अपने नाम के साथ जुड़ी पहचान को खूबसूरत तरीके से सामने लाती है। बलखङ चौक से पूरब की ओर थोड़ा नीचे उतरने पर दाहिनी ओर एक सँकरी-सी गली अंदर जाती दिखती है, जो एकदम से बाजार की शक्ल अख्त़ियार कर लेती है। पुराने ढर्रे की छोटी-बड़ी कई दुकानें, जिनमें बर्तनों के साथ ही फटिंग (सूखी खूबानियाँ), छुरपे (याक के दूध का सूखा पनीर), पाबू (चमड़े के देशी जूते) जैसी लदाखी वस्तुएँ बिकती दिखाई देती हैं। इनके साथ ही देशी होटल, या कहें कि ‘चाय पर चर्चा’ और अड्डेबाजी के लिए मुफीद कुछ दुकानें भी हैं, जो सुबह से शाम तक गुलज़ार रहती हैं। इनमें थुक्पा (लदाखी नमकीन सेवइयाँ), पाबा (जौ के आटे में खड़ी मसूर दाल मिलाकर बनाया गया लदाखी व्यंजन), मोमोस, सोलज़ा (मीठी दूधवाली चाय), गुर-गुर (नमकीन मक्खन वाली चाय), तागी (नानवाई की तंदूरी रोटियाँ) और समोसा जैसे व्यंजनों की उपलब्धता रहती है। महँगे होटलों जैसी परंपरा यहाँ पर नहीं मिलती। एक गुर-गुर चाय के साथ आप घंटों बैठकर यहाँ गप्पें मार सकते हैं। ये दुकानें नुबरा, पुरिग और शम आदि इलाकों के बल्तियों की हैं। लदाख की प्रजातिगत व्यवस्था में मोन, दरद और बल्ती प्रजातियों का प्रभुत्व रहा है। आठवीं शताब्दी के बाद तिब्बत की तरफ से आने वाली भोट प्रजाति का वर्चस्व स्थापित होने के बाद दरद और मोन प्रजातियाँ हाशिये पर सिमटती गईं। बल्ती समुदाय की स्थिति अपेक्षाकृत सुदृढ़ रही।
बल्ती समुदाय को आर्यों की भारतीय-ईरानी शाखा और मंगोलों की मिश्रित प्रजाति का माना जाता है। हालाँकि बल्तियों के नाक-नख़्श-रंग और कद-काठी को देखकर मंगोलों की मिश्रित प्रजाति का कहा जाना उचित प्रतीत नहीं होता है। वैसे तो रेशम मार्ग में होने वाले व्यापार के साथ बल्तियों का वजूद बलखङ में स्थापित हो गया होगा, मगर लदाख में हुई राजनीतिक उथल-पुथल ने बड़े रोचक और रोमांचकारी तरीके से बल्तिस्तान के साथ लदाख को जोड़ दिया। यह घटना है, सन् 1600 ई. के आसपास की, जब बल्तिस्तान में खरच़े के सुलतान और चिगतन के सुलतान के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ी हुई थी; उसी समय लदाख के शासक राजा जमयङ नमग्यल अपने राजनीतिक लाभ के लिए दोनों के बीच कूद पड़े। अंत में हुआ यह, कि सारे बल्ती शासक इकट्ठे हो गए और स्करदो के बल्ती सुलतान अली मीर के नेतृत्व में राजा जमयंग नमग्यल को फोतो-ला दर्रे के पास ही घेर लिया। राजा जमयङ नमग्यल को सुलतान अली मीर ने कैद कर लिया और बल्ती सेना ने लदाख की अनेक धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहरों को तहस-नहस कर डाला। बाद में सुलतान अली मीर ने राजा जमयङ नमग्यल के सामने शर्त रखी, कि अगर वे इस्लाम कुबूल कर लें, सुलतान की पुत्री ग्यल खातून से शादी कर लें और उससे उत्पन्न पहली संतान को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दें, तो उन्हें आजाद कर दिया जाएगा। राजा ने अपनी जान बचाने के लिए इन शर्तों को स्वीकार कर लिया। कहा जा सकता है, कि ये शर्तें निहायत अपमानजनक थीं, किंतु रानी ग्यल खातून की सूझबूझ और महासिद्ध स्तगछ़ङ् रसपा के प्रभाव के कारण यह शर्त आने वाले समय में लदाख के लिए बदलाव की बयार लेकर आई।
बल्ती राजपरिवार से आई रानी ग्यल खातून अत्यंत कलाप्रेमी थी, इस कारण उसके साथ कई बल्ती संगीतकार, चित्रकार आदि भी लदाख पहुँचे। राजा जमयंग नमग्यल के वंशज और रानी ग्यल खातून के पुत्र राजा सेङगे नमग्यल ने सन् 1616 ई. में लदाख का राजपाट सँभाला। उस समय राजा अल्पवयस्क थे, इस कारण रानी ग्यल खातून ही राजकीय कार्यों को संचालित करती थीं। ऐसा माना जा सकता है, कि इस समय बलखङ के आसपास बल्ती व्यापारियों और कलाकारों की बस्ती विधिवत स्थापित हुई होगी। आवास को लदाखी भाषा में ‘खङ’ कहा जाता है। इस तरह बल्तियों के आवास के कारण कहलाए बलखङ से जुड़कर बलखङ चौक प्रसिद्ध हुआ होगा, ऐसा कहा जा सकता है।
बलखङ चौक के दूसरी ओर बने एक बगीचेनुमा खाली मैदान की दीवार के किनारे-किनारे तमाम विक्रेता अपनी परंपरागत वेशभूषा धारण किए हुए फटिंग, काजू, बादाम और देशी मक्खन आदि बेचते दिखाई देते हैं। इनमें से अधिकांश डोगपा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले हैं। डोगपा समुदाय को आर्य प्रजाति के भारतीय-ईरानी समूह का माना जाता है। इन्हें दा-हानु के दरद के रूप में जाना जाता है। ‘दरद’ के रूप में इन्हें पहचानना भी अपने आप में एक रोमांचकारी कल्पना है। श्रीरामकथा-वाचक कैलास के अधिपति शिवजी के रूप-सौंदर्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास श्रीरामचरितमानस में लिखते हैं-
कुंद इंदु दर गौर सरीरा । भुज प्रलंब परिधन मुनि चीरा ।। (01/106/06)
वे शिवजी की देह को दर, अर्थात् शंख के समान वर्ण वाला बताते हैं। संभव है, कि दरदिस्तान के दरदों के लिए यह पहचान उनकी ‘दर देह’, उनके गौरवर्ण, सुगठित-स्वस्थ शरीर, शंख समान सुंदर ग्रीवा आदि के कारण मिली हो। भले ही यह कल्पना-मात्र हो, किंतु इस कल्पना के माध्यम से पुरातन सांस्कृतिक सूत्रों को जोड़ने वाले ये दरद बलखङ चौक में अपनी उपस्थिति से एक सुंदर-सुखद अनुभूति को सहसा उपजा देते हैं। डोगपा समुदाय को आभूषणों और पुष्पों से बहुत प्रेम है, ऐसा सहज ही दिखाई दे जाता है। स्थानीय ‘टूरिस्ट-गाइड’ इनका परिचय भी बड़े रोचक तरीके से ‘गमला पार्टी’ के रूप में कराते हैं। बड़ी लंबी लटकनों वाले आभूषणों के साथ ही रंग-बिरंगी टोपी में कई तरह के फूलों को सजाए डोगपा समुदाय के लोग रास्ते चलते किसी भी व्यक्ति को सहज ही आकर्षित कर लेते हैं। इनके चेहरे पर खिली मुसकान, सर्दी के दिनों में रूखी-सूखी धरती पर सुगंधित पुष्पों की अनुभूति को साझा करती गमलेनुमा टोपी और इनकी सहजता-सरलता हर समय देखी जा सकती है। आप इनके साथ खड़े होकर आसानी से फोटो खिंचवा सकते हैं।
किसी ‘गमला पार्टी’ की दुकान के साथ खड़े होकर पश्चिम की ओर देखें, तो सामने जामा मसजिद अह्ली सुन्नती दिखाई देती है। कहा जाता है कि सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लदाख में तिब्बत की सेना ने हमला कर दिया था। उस समय मुगल सेना ने तिब्बती आक्रांताओं का डटकर मुकाबला किया था और लदाख को बचाया था। इस घटना के बाद दिल्ली के मुगल दरबार की शर्तों के अधीन लेह के मुख्य बाजार में इस जामा मसजिद का निर्माण राजा देलेग नमग्यल के शासनकाल में हुआ। वैसे मुगल दरबार का प्रत्यक्ष और बड़ा हस्तक्षेप लदाख अंचल में नहीं रहा, किंतु इस मसजिद के माध्यम से मुगल साम्राज्य की यादें लदाख अंचल के साथ जुड़ी हुई हैं।
बलखङ चौक से जामा मसजिद तक बिखरी रंग-बिरंगी रौशनियों और चहल-पहल की गवाहियों को दर्ज करती लेह बाजार की मुख्य सड़क है। अतीत से वर्तमान तक अनेक बदलाव इसने देखे हैं। आज का लेह बाजार जितनी गगनचुंबी इमारतों और रंग-बिरंगी रौशनियों से जगमग करता दिखाई देता है, उतना इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दशक से पहले नहीं था। इसका मतलब यह भी नहीं, कि लेह बाजार में रौनक नहीं होती थी। अंतर केवल इतना था, कि उस समय पक्की दुकानें गिनी-चुनी ही थीं, और दो-तीन मंजिला दुकानें तो थी हीं नहीं। इसके विपरीत आज पुरानी अदा वाली कच्ची ईंटों से बनी दुकानें एक या दो ही बची हैं, जो गुजरे अतीत की थोड़ी-सी झलक दिखा जाती हैं। लेह बाजार के सौंदर्यीकरण ने एक नई मादकता को अजीबोगरीब ढंग से बिखेर दिया है। लेह बाजार में घुसते ही एक ऊँचा-सा मंचनुमा प्लेटफार्म बन गया है, जिसका असल काम तो वाहनों के प्रवेश को रोकना है, मगर यह कभी-कभी दूसरी भूमिका भी निभा लेता है। ‘म्यूजिकल कंसर्ट’ और ‘ओपन एयर डांस शो’ जैसे आयातित आयोजनों के लिए यह एक अच्छा मंच बन जाता है। लेह घूमने आने वालों के लिए ऐसे आयोजन रोचक हो जाते हैं।
यह बदलाव भले ही इक्कीसवीं सदी के आधुनिक लेह बाजार को पेश करता हो, मगर बहुत कुछ अब भी नहीं बदला है। आसपास के गाँवों से ताजी हरी सब्जियाँ लेकर आने वाली लदाखी महिलाओं की ‘फुटपाथिया दुकानें’ दोपहर के चढ़ते ही सज जाती हैं। शायद घर के सारे कामकाज निबटाकर, खेतों से सब्जियाँ निकालकर ये महिलाएँ पूरी मुस्तैदी और तरो-ताजगी के साथ उपस्थित होती होंगी। भली बात यह है कि लदाख में अब भी पुराने देशी बीज उपलब्ध हैं, इस कारण देशी टमाटर, महकती धनिया-मेथी, मिठास से भरी मटर और लदाख की अपनी पहचान में शामिल ताजी खूबानियों से सजी दुकानें अपनी तरफ बरबस ही आकृष्ट कर लेती हैं। उम्रदराज दुकानदार को ‘आमा-ले, जूले’ अभिवादन करके आप तसल्ली से बैठकर खरीददारी कर सकते हैं। थोड़ा-बहुत हँसी-मजाक इस खरीददारी को रोचक बना देता है। अपने खेत का ही उत्पाद है, सो ‘आमा-ले’ आपको एक-दो खूबानियाँ या मटर की कुछ फलियाँ यूँ ही खाने के लिए दे सकती हैं। कम से कम इन ‘फुटपाथिया दुकानों’ में व्यावसायिक प्रतिबद्धता की जटिलता देखने को नहीं मिलेगी। वैसे पहाड़ी संस्कृति ऐसी मानी जाती है, जहाँ महिलाएँ ही सबसे ज्यादा खपती हैं, और अपने बूते परिवार की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की ताकत रखती हैं। इससे कहीं आगे अगर महिला सशक्तिकरण के सच्चे-सटीक उदाहरण को खोजना हो, तो इसके लिए लदाख की महिलाओं से बेहतर उदाहरण मिलना कठिन ही लगता है।
बदलाव तो लेह बाजार में स्थित हिंदू धर्मशाला की इमारत में भी देखने को नहीं मिलता है। आसपास की गगनचुंबी इमारतों और आलीशान दुकानों के बीच अपने कच्चे और पुराने ढर्रे के अटारीनुमा भवन के साथ आज भी कायम हिंदू धर्मशाला गौरवपूर्ण अतीत की साक्ष्य प्रतीत होती है। लेह से यारकंद तक का रास्ता रेशम मार्ग या सिल्क रूट का सहायक मार्ग माना जाता था। लेह में होशियारपुर और कुल्लू आदि के व्यापारी भी बड़ी संख्या में आते थे। व्यापारियों के लिए लेह में कई सराय और धर्मशालाएँ रही होंगी, मगर आज लेह में धर्मशाला के नाम पर यही एक धर्मशाला दिखाई पड़ती है। हिंदू धर्मशाला की पुरातनता का बोध इसमें लगे टीन के बोर्ड से भी हो जाता है। बोर्ड के मुताबिक धर्मशाला का अस्तित्व 23 भाद्रों, संवत् 1994 से है। हो सकता है, कि यह बोर्ड जीर्णोद्धार के बाद लगाया गया हो। अगर बोर्ड में उल्लिखित तिथि को ही आधार मान लें, तो अस्सी हिमपात और लदाखी बसंत हिंदू धर्मशाला ने भी देखे हैं। डोगरा शासकों के शासन को, रेशम मार्ग में होने वाली व्यापारिक गतिविधियों के अवसान को, देश की आजादी को, और फिर आज की आधुनिकता में बदलते अपने आसपास के परिवेश को, परिस्थितियों को हिंदू धर्मशाला ने देखा है, सुना है।

यह अलग बात है, कि आज इसकी देखरेख करने वाले लोगों में से बहुत कम ही इसके गौरवपूर्ण अतीत पर कुछ बता पाएँ। प्रसिद्ध घुमक्कड़शास्त्री और हिमालयी धर्म-संस्कृति-अध्यात्म-दर्शन को यत्नपूर्वक खोजकर सामने लाने वाले महापंडित राहुल सांकृत्यायन अपनी लदाख यात्राओं के दौरान इसी हिंदू धर्मशाला में रुका करते थे, ऐसी मान्यता है। इसी धर्मशाला के किसी एकांत कक्ष में बैठकर उन्होंने लदाख के बारे में अपने अनुभवों को लिपिबद्ध किया होगा। अगर सच में ऐसा है, तो हिंदू धर्मशाला घुमक्कड़ी में रुचि रखने वाले लोगों के लिए तीर्थस्थान से कम नहीं।

वैसे एक अद्भुत और अनूठा तीर्थस्थान जामा मसजिद के ठीक पीछे भी है। यह ऐसा तीर्थस्थान है, जहाँ आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व ही पर्यावरण संरक्षण और हरियाली के संवर्धन का संदेश दिया गया था, वह भी लदाख के बर्फीले रेगिस्तान में बैठकर। सन् 1517 ई. में गुरु नानक अपनी दूसरी उदासी के दौरान लदाख पधारे थे, और लेह में भी उन्होंने समय बिताया था। ऐसी मान्यता है कि गुरु नानक ने अपनी दातून को यहाँ पर जमीन में खोंस दिया था, जिसने कालांतर में एक विशाल वृक्ष का रूप ले लिया। उस विशाल वृक्ष को आज भी देखा जा सकता है। गुरु नानक की दातून के कारण इस स्थान को गुरुद्वारा दातून साहिब कहा जाता है। लदाख की धरती भले ही रूखी-सूखी हो, किंतु यहाँ पर क़लम जैसे तनों को धरती में रोप देने पर वे भरे-पूरे वृक्ष का रूप ले लेते हैं। इस विशिष्टता को देखते हुए गुरुद्वारा दातून साहिब के प्रति आस्था बलवती हो जाती है। अगर देखा जाए, जो गुरुद्वारा दातून साहिब अन्य गुरुद्वारों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ गुरु नानक की उपस्थिति को अनुभूत किया जा सकता है, विशालकाय वृक्ष के माध्यम से।
गुरुद्वारा दातून साहिब के आसपास नानवाई की कई दुकाने हैं, जहाँ तंदूरी रोटी बनती है। लदाख के अतिरिक्त देश-भर में इस तरह नानवाई की दुकानें मिलना दुर्लभ हैं, क्योंकि इनका संबंध रेशम मार्ग के व्यापारियों से रहा है। लदाखी में ‘तागी’ के नाम से अपनी पहचान रखने वाली और आज के हिसाब से तंदूरी रोटी का आगमन यारकंद से यहाँ पर हुआ। रेशम मार्ग के व्यापारी अपनी यात्रा के लिए इन्हीं रोटियों को ले जाते थे। इस तरह नानवाई का काम भी यहाँ एक व्यवसाय के रूप में विकसित हो गया। रेशम मार्ग बंद हो जाने के बाद ये यहीं पर बस गए। यहीं पर आज का ‘सेंट्रल एशियन म्यूज़ियम’ भी है, जो रेशम मार्ग के चलन के समय इबातगाह और शरणगाह हुआ करता था। आजादी के बाद के वर्षों में कुछ संस्कृतिप्रेमी जागरूक नागरिकों ने इसे संग्रहालय का रूप दे दिया, जिसमें रेशम मार्ग से जुड़ी अनेक स्मृतियों को संचित करके रखा गया है। ऐसा कहा जाता है, कि आज के ‘सेंट्रल एशियन म्यूजियम’ के आसपास कहीं डोगरा शासकों की कुलदेवी का छोटा-सा मंदिर भी हुआ करता था, जिसे जनरल जोरावर सिंह ने बनवाया था।
स कथा-यात्रा के घुमावदार मोड़ की तरह जामा मसजिद से दाहिनी ओर, और एक बार फिर दाहिनी ओर मुड़कर मोरावियन मिशन चर्च और स्कूल तक पहुँचा जा सकता है। वैसे तो जामा मसजिद के पीछे नानवाई की दुकानों के बीच से होकर भी एक सँकरी-सी गली मोरावियन चर्च और स्कूल तक पहुँचती है। ऐसा माना जाता है कि लदाख में ईसाई मिशनरियों का आगमन 800 ई. के आसपास ही हो गया था, किंतु यहाँ की विषम जलवायु और निरंतर प्रतिकूलता के कारण मिशनरी यहाँ प्रभावहीन ही रहे। समूचे भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन स्थापित हो जाने के बाद प्रोटेस्टेंट ईसाई मिशनरियों का एक दल ‘हिमालयी मिशन’ की महत्त्वाकांक्षी योजना बनाकर लदाख पहुँचा था। उस समय कश्मीर के महाराजा ने इस मिशन को लदाख में चलाने की अनुमति नहीं दी, फलतः ‘मिशनरी’ हिमाचलप्रदेश के लाहुल-स्पीति क्षेत्र के मुख्यालय केलङ में बस गए और वहीं से उन्होंने लदाखी लोगों पर अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया। बाद में ब्रिटिश हुक्मरानों के अनुरोध के बाद महाराज कश्मीर ने अनुमति प्रदान की और सन् 1885 में मोरावियन मिशन की स्थापना लदाख में हुई। आज के मोरावियन मिशन चर्च व स्कूल का बड़ा योगदान लदाख में शिक्षा, विशेषकर आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में रहा है।
मोरावियन स्कूल के आसपास का इलाका चङ्स्पा के नाम से जाना जाता है। अगर बलखङ चौक बल्तियों के नाम से आबाद है, तो चङ्स्पा भी चङ्थङ के लोगों के कारण अपनी पहचान कायम किए हुए है। वैसे ‘चङ्’ का अर्थ होता है- उत्तर। इस तरह उत्तर की दिशा से आने वाले लोगों को भी चङ्स्पा कहा जाता है। चङ्स्पा, यानि चङ्थङ के निवासी घुमंतू होते थे, इस कारण उनकी आबादी यहाँ पर नहीं दिखाई देती है। चङ्थङ के व्यापारी भी लेह बाजार में आते थे। ये मुख्य रूप से नमक और पश्मीना भेड़ की ऊन आदि का व्यापार किया करते थे। चङ्थङ की छ़ोकर और छ़ोरुल झीलों में बनाए जाने वाले नमक का व्यापार करने वाले चङ्स्पा व्यापारियों के तंबुओं से बनने वाली अस्थायी बस्तियाँ शायद रेशम मार्ग के बंद होने के बाद उजड़ गई होंगी, मगर नाम आज भी जिंदा है। आज के चङ्स्पा में बिखरती पर्यटकों की रौनक को देखकर इसके सुनहरे अतीत को कल्पना में सँजोया जा सकता है। बलखङ चौक से चलते हुए दीवानों की गली तक का सफ़र भी यहीं आकर पूरा होता है। देश की आजादी के बाद के वर्षों में लदाख ने बहुत-कुछ बदलता हुआ देखा। इस समय तक रेशम मार्ग का व्यापार भी बंद हो चुका था। सीमाएँ खिंच गईं थीं, जिन्होंने अखंड भारतवर्ष की संततियों को बाँटकर पड़ोसी बना दिया था। जिस समय सारी दुनिया, और विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप तमाम उथल-पुथल और हलचलों में तंग था, उस समय भी चङ्स्पा में कैसी रौनक होती थी, उसका बड़ा मोहक वर्णन लदाख में तैनात तत्कालीन सेना-प्रमुख कर्नल पी. एन. कौल ने अपनी पुस्तक ‘फ्रंटियर कॉलिंग’ में किया है।
कर्नल कौल अतीत की स्मृतियों को सँजोते हुए अपनी पुस्तक में बताते हैं कि मोरावियन मिशन स्कूल के बगल में सेना की छावनी होती थी, और छावनी के बगल से एक झरना बहता था। झरना इसलिए विशेष महत्त्व का था, क्योंकि लेह की आबादी के लिए पीने का पानी उपलब्ध कराने वाला यह इकलौता ठिकाना था। शाम को अपनी-अपनी गगरियाँ लिए पानी भरने को महिलाओं-युवतियों का आगमन यहाँ पर होता था। इसी रंगत और रौनक के कारण कर्नल कौल ने रास्ते को ‘लवर्स लेन’ नाम दे दिया। अब शायद आप भी समझ ही गए होंगे, कि यही वह दीवानों की गली है, जहाँ आज भी अजीब-सी गुलाबी रंगत चढ़ी रहती है।
भारतवर्ष के अनेक गाँवों की अनूठी पहचान उनके पनघट होते हैं। बड़े-बड़े ‘कॉफ़ी हाउसेज़’ और ‘किटी पार्टीज़’ जैसी आयातित व्यवस्थाओं से बहुत पहले महिलाओं के लिए पनघट और पुरुषों के लिए अथाइयाँ-चौपालें अपने सुख-दुःखों को बाँटने, कुछ मनोरंजन करने और भविष्य की तमाम कार्य-योजनाओं को बनाने का सहज-सरल-सरस मंच उपलब्ध करा देती थीं। भारतवर्ष के अनेक गाँवों में जीवित-जीवंत परंपरा को लेह में देखकर कर्नल कौल इसका जिक्र किए बिना नहीं रह सके, ऐसा सरलता के साथ कहा जा सकता है।
आज दीवानों की गली का वह खूबसूरत झरना सिमट गया है। आसपास उग आए सीमेंट-कंक्रीट के बड़े-बड़े होटलों ने यहाँ की नैसर्गिक सुंदरता को सोख लिया है। घरों में चलने वाली ‘वाटर सप्लाई’ ने पनघट के ‘कान्सेप्ट’ को पुराना साबित कर दिया है। बदलाव की बयार ने स्वाभाविक-सरल और सहज आत्मीय मिलन को व्यावसायिक और बनावटी बना दिया है। सर्दियों की दुपहरी और गर्मियों की साँझ में आज भी ‘लवर्स लेन’ या दीवानों की गली गुलज़ार होती है, मगर पहले जैसी बात अब कहाँ?
बलखङ चौक से लगाकर दीवानों की गली तक अब सबकुछ बदला-सा दिखाई देता है। लेह बाजार के ऊपर प्रहरी की तरह खड़ा ‘लेह पैलेस’ अपने निर्माणकर्ता धर्मराज सेङ्गे नमग्यल को आज भी याद करता है। लेह दोसमो-छे, यानि लेह का सालाना धर्मानुष्ठान आज भी मनाया जाता है। उस समय की अनूठी घुड़सवारी और घुड़सवारों के स्वागत में लेह बाजार में छङ् (लदाखी सोमरस) लेकर कतारबद्ध खड़ी होने वाली महिलाओं को अपने वीर योद्धाओं का उत्साहवर्धन करते हुए देखने वाला लेह बाजार आज पर्यटकों के स्वागत में सजा दिखाई देता है। बलखङ चौक से दीवानों की गली, यानि पूरब से चलते हुए पश्चिम तक पहुँचते-पहुँचते लगभग दौ सौ कदमों में हम बदलती भौगौलिक स्थितियों-सामाजिक संरचनाओं से ही नहीं गुज़र जाते, वरन् तहजीबों-संस्कृतियों के कई पड़ावों को भी पार कर जाते हैं। कई बार बलखङ की अड्डेबाजी से किसी बड़े और महँगे ‘कॉफ़ी हाउस’ में भी पहुँच जाते हैं, खुद को आधुनिक दिखाने के फेर में।









डॉ. राहुल मिश्र

(बाँदा, उत्तरप्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘मुक्तिचक्र’ के प्रवेशांक, जून-2018 में प्रकाशित; संपादक- गोपाल गोयल)