Showing posts with label Culture. Show all posts
Showing posts with label Culture. Show all posts

Sunday 18 November 2018

सप्तकल्पक्षये क्षीणे न मृता तेन नर्मदा




सप्तकल्पक्षये क्षीणे न मृता तेन नर्मदा

सप्तकल्पक्षये    क्षीणे      मृता   तेन  नर्मदा ।
नर्मदैकैव      राजेन्द्र       परं     तिष्ठेत्सरिद्वरा ।। 55 ।।
तोयपूर्णा      महाभाग      मुनिसङ्घैरभिष्टुता ।
गंगाद्याः सरितश्चान्याः कल्पे-कल्पे क्षयं गताः ।। 56 ।।
भारतीय संस्कृति और समाज-जीवन में अपना विशेष महत्त्व रखने वाली नर्मदा नदी का सुंदर-रोचक और धर्म-अध्यात्म से परिपूर्ण वर्णन श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में मिलता है। नर्मदा का एक नाम रेवा भी है। श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में नर्मदा नदी का समग्र वैशिष्ट्य प्रदर्शित-परिलक्षित होता है। रेवाखंड में उल्लिखित है कि सात कल्पों का क्षय हो जाने के बाद भी मृत होना, अर्थात् नष्ट होना तो दूर, जो क्षीण भी नहीं होती है, ऐसी श्रेष्ठ नदी ही नर्मदा कहलाती है। श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में मार्कण्डेय ऋषि और धर्मराज युधिष्ठिर के मध्य संवाद चल रहा है। मार्कण्डेय ऋषि धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि- हे राजेंद्र! नर्मदा ही ऐसी श्रेष्ठ नदी है, जो सदा स्थित रहा कहती है, कभी नष्ट नहीं होती है। इस प्रसंग के पूर्व युधिष्ठिर के प्रश्न पर मार्कण्डेय ऋषि बताते हैं- गंगा सब नदियों में श्रेष्ठ है; उसी प्रकार सरस्वती, कावेरी, देविका, सिंधु, सालकुठी, सरयू, शतरुद्रा, यमुना, गोदावरी आदि अनेक नदियाँ समस्त पापों का हरण करने वाली हैं। ये सभी नदियाँ और समुद्र किस कारण से कल्प, कल्प में नष्ट हो जाते हैं, उनके बारे में मैं बताऊँगा। किंतु इन सबसे अलग नर्मदा नदी ऐसी है, जिसका सात कल्पों में भी क्षय नहीं होता, जो अनेक कल्पों तक अनवरत् प्रवाहमान रहती है, जो कालजयी और शाश्वत है। मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को बताते हैं, कि-  हे महाभाग! नर्मदा नदी सदैव जल से परिपूर्ण रहती है। मुनि-संघ, अर्थात् साधु-संन्यासियों और ऋषि-मुनियों के लिए यह नदी सदैव अभीष्टित रही है। इसके तट पर मुनि-संघ तपश्चर्या करने हेतु सदैव प्रेरित होता रहा है। इसका कारण संभवतः नर्मदा नदी का शाश्वत जीवन है, क्योंकि गंगा और उसके सदृश अनेक नदियों का कल्प-कल्प में क्षय हो जाया करता है।
मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम नर्मदा नदी के उद्गम-स्थल के निकट स्थित है, जिसे वर्तमान में मारकुंडी के नाम से जाना जाता है। विंध्य पर्वतश्रेणियों और सतपुड़ा की पहाड़ियों के मध्य नर्मदा नदी का उद्गम अमरकंटक नामक स्थान पर होता है। विंध्य पर्वतश्रेणी का दक्षिणी छोर चित्रकूट परिक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। अतीत से ही चित्रकूट परिक्षेत्र धर्म-साधना का केंद्र रहा है। इस कारण यहाँ पर अनेक प्रसिद्ध ऋषियों के आश्रम रहे हैं और अनेक साधकों ने इस क्षेत्र का अपनी साधना के लिए चयन भी किया है। नर्मदा नदी के उद्गम के साथ शिवजी की साधना का प्रसंग जुड़ा हुआ है। श्रीस्कंद पुराण में मार्कण्डेय ऋषि नर्मदा के शाश्वत जीवन को बताते हुए कहते हैं कि-
पुरा  शिवः  शान्ततनुश्चचारविपुल तपः ।
हितार्थ  सर्वलोकानामुमया  सह शंकरः ।।14।।
ऋक्षशैलं  समारूह्य  तपस्तेपे सुदारुणम् ।
अदृश्यः सर्वभूतानां सर्वंभूतात्मको वशी ।।15।।
तपस्तस्य  देवस्य स्वेदः समभवत्विकल ।
तंगिरिंप्लावयामास     सस्वेदोरुद्रसंभवः ।।16।।
प्राचीनकाल में परम शांत शरीर वाले शिवजी ने उमाजी के साथ अत्यंत कठिन साधना की थी। लोक-कल्याण के लिए उन्होंने यह तप ऋक्षशैल में किया था। यह ऋक्षशैल विंध्य और सतपुड़ा की पर्वश्रेणियों की संगम-स्थली माना जाता है। कठिन तपश्चर्या के कारण शिवजी के शरीर से निकलने वाली पसीने की बूँदें इस ऋक्षशैल पर गिरीं, जिसने शैल को पिघला दिया और इस प्रकार नर्मदा का जन्म हुआ। ऋक्षशैल को रैवतक पर्वत भी कहा जाता है। रैवतक से उत्पन्न होने के कारण नर्मदा को रेवा के नाम से भी जाना जाता है। शिव को सृष्टि के संहारकर्ता के रूप में जाना जाता है। नर्मदा के तट पर शिवजी की कठिना साधना-तपश्चर्या शिव के लोकरक्षक स्वरूप को प्रकट करती है। इसके साथ ही शिवजी के स्वेद से उत्पन्न नर्मदा नदी श्रम की महत्ता और साधना की श्रेष्ठता को स्थापित करती है। श्रीस्कंद पुराण में वर्णित आस्था के पक्ष के साथ नर्मदा के तटीय क्षेत्रों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक-सामाजिक अतीत अपने समग्र गौरव के साथ उपस्थित हो जाता है, जिसे अध्ययन की गहराइयों में उतरकर देखा जा सकता है, जाँचा-परखा जा सकता है।
नर्मदा नदी के किनारे गोंड जनजातीय समूह का विस्तार मिलता है। इसी कारण इस क्षेत्र को आज गोंडवाना के नाम से जाना जाता है। इतिहास में गोंड राजवंश का कालखंड पंद्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। गोंड राजवंश की प्रसिद्धि प्रमुख रूप से रानी दुर्गावती के नाम से अंकित है, जिन्होंने अपने पति राजा दलपतशाह के असामयिक निधन के बाद गोंडवाना का शासन पूरी कुशलता के साथ सँभाला, मुगलों की सेनाओं को कई बार पराजित किया और बाद में वीरगति को प्राप्त किया। किंतु इससे पूर्व गोंड जनजातीय समूह को प्राचीनतम जनजातीय समूह और मानव आबादी के स्रोत के रूप में भी जाना जाता है। गोंडी धर्म की कथाओं में शिव को शंभूशेक या महादेव के रूप में जाना जाता है। गोंडों की धार्मिक कथाओं में महादेव की अठासी पीढ़ियों का उल्लेख मिलता है। इन अठासी पीढ़ियों में शिव के साथ शक्ति का अद्भुत समन्वय देखा जा सकता है। लोकदेवता के रूप में शिव-शक्ति का युगल लोक का कल्याण करता रहा है, ऐसा गोंडवाना की लोककथाओं और लोकगीतों में वर्णित होता है। महादेव की अठासी पीढ़ियों की शुरुआत शंभु-मूला से होती है और अंतिम पीढ़ी में शंभु-पार्वती का उल्लेख मिलता है। इन अठासी पीढ़ियों का अतीत पाँच हजार से लगाकर दस हजार ईसापूर्व तक माना जाता है। गोंडों का अपना धर्म, जिसे गोंडी भाषा में ‘कोया-पुनेम’ कह जाता है, उसका अतीत भी लगभग इतना ही पुराना है।
कोया-पुनेम का शाब्दिक अर्थ होता है- मानव-धर्म। नर्मदा के तट पर बसी गोंडों की अति-प्राचीन बस्तियाँ अपनी आस्थाओं और जीवनीय मान्यताओं के साथ हजारों वर्ष पहले से मानव-धर्म का निर्वहन करती चली आ रही हैं। ‘कोया-पुनेम’ या मानव-धर्म यहाँ के मूल निवासियों की अपनी आस्थाओं, मान्यताओं और धार्मिक क्रिया-कलापों में प्रकट होता रहा है। श्रीस्कंद पुराण में वर्णित शिव-पार्वती की कठिन तपश्चर्या इसी की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति प्रतीत होती है। लोक-कल्याण के लिए, मानव-धर्म को निभाने के लिए गोंडों के आदिपुरुष और गोंडों की आदिशक्ति ने संयुक्त रूप से जिस कठिन तप और साधना से नर्मदा का सृजन किया, उसका धार्मिक स्वरूप श्रम के प्रति आस्थावान होने, साधना के प्रति नतमस्तक होने की सीख देता प्रतीत होता है। इस कारण रैवतक पर्वत की नीलिमा से युक्त रेवा का प्रवाह सदियों से कर्म-सौंदर्य और लोक-कल्याण का गुणगान करता रहा है; श्रम-साधना के प्रति आस्थावान मानव-समुदाय को इन विलक्षण गुणों से जोड़ने हेतु प्रेरित करता रहा है। नर्मदा नदी इसी कारण साधना की प्रतीक है।
रैवतक पर्वत में की गई शिव-पार्वती की तपश्चर्या के संबंध में ऐसी मान्यता है कि यह तपस्या उन्होंने विष्णु के लिए की थी। विष्णु के विभिन्न अवतारों द्वारा अलग-अलग कालखंडों में रक्ष-संहार किया गया। साधना-तपस्या और लोक के कल्याण हेतु संलग्न रहने वाले साधु-संन्यासियों को आतंकित करने वाले क्रूरकर्मा राक्षसों के संहार के लिए विष्णु ने अलग-अलग अवतार धारण किए और धरती पर धर्म की स्थापना की। अलग-अलग कालखंडों में विष्णु द्वारा किए गए संहारों के प्रायश्चित्त के रूप में शिव ने अपनी तपस्या रैवतक पर्वत में की, ऐसा माना जाता है। इस तरह शैव और वैष्णव का अद्भुत समन्वय, अनूठा सामंजस्य नर्मदा के तट पर परिलक्षित होता है। यह नर्मदा का अपना वैशिष्ट्य है, कि शैव-साधना का विशिष्ट केंद्र होकर भी यहाँ वैष्णव भक्ति-भावना के सूत्र जुड़ते हैं।
श्रीस्कंद पुराण में नर्मदा के माहात्म्य को उद्घाटित करने वाले मार्कण्डेय ऋषि जब नर्मदा नदी को सात कल्पों के क्षय हो जाने पर भी क्षीण नहीं होने वाली दुर्लभ नदी कहते हैं, तब बहुधा पुराणकार और कथावाचक के प्रति अतिकाल्पनिक हो जाने का संशय उत्पन्न होने लगता है। पुरातनकाल में आस्थावान लोगों के लिए संशय की स्थितियाँ आज के सदृश नहीं होती थीं। आज की वैज्ञानिक दृष्टि अपनी आस्था को बल देने के लिए तथ्यों को महत्त्व देती है। इस दृष्टि से विचार करने हेतु पुनः गोंड जनजातीय समूहों के अतीत को देखना होगा। आज की भूवैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि पचास करोड़ वर्ष पूर्व धरती में केवल दो महाद्वीप थे। इनमें से एक को ‘लॉरेशिया लैंड’ और दूसरे को ‘गोंडवाना लैंड’ नाम दिया गया है। इन दोनों महाद्वीपों के टूटने पर वर्तमान के पाँच महाद्वीपों का निर्माण हुआ है।
दक्षिणी गोलार्ध में स्थित ‘गोंडवाना लैंड’ का सीधा संबंध नर्मदा नदी के तटीय क्षेत्रों से था। इस कारण आदिमकालीन गोंड जनजातीय समूहों को आदिमानव की बस्तियाँ माना जाता है। भूवैज्ञानिकों का मानना है कि जीवन का सर्वप्रथम विकास नर्मदा नदी के तट पर हुआ है। नर्मदा नदी घाटी में हुए उत्खनन में डायनासोरों के अंडे और जीवाश्म भी मिले हैं। पेंजिया भूखंड के निर्माण के समय, अर्थात् लगभग तेरह करोड़ वर्ष पूर्व आदिमानव की उत्पत्ति भी नर्मदा नदी घाटी में हुई। नर्मदा घाटी में मिलने वाले खारे पानी के स्रोत और आदिमानव द्वारा बनाए गए शैलचित्र नर्मदा नदी घाटी की प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं। गोंडी भाषा में प्रचलित लोकगीतों और लोककथाओं में आदिकालीन मानव के अनेक विविधतापूर्ण चित्र मिलते हैं, जिनके आधार पर भी नर्मदा नदी की प्राचीनता को सिद्ध किया जा सकता है।
सप्तकल्प, अर्थात् लगभग आठ करोड़ चालीस लाख वर्ष गुजर जाने के बाद भी नर्मदा नदी का क्षय नहीं होता, नर्मदा नदी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, ऐसा जब श्रीस्कंद पुराण में कहा जाता है, तब वर्तमान की भूवैज्ञानिक खोजों के आलोक में इस कथन को परखने पर हमारा सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है। जिस समय आज के जैसे आधुनिक उपकरण और परीक्षण की विधियाँ नहीं थीं, उस समय किया गया काल-निर्धारण न केवल आश्चर्य में डाल देने वाला है, वरन् अपने पुरातन ज्ञान-विज्ञान के प्रति असीमित-अपरिमित आस्था की उत्पत्ति करा देने वाला भी है।
विंध्य को उत्तर और दक्षिण का विभाजक माना जाता है। विंध्य और सतपुड़ा के संधि-स्थल से निकलने वाली नर्मदा नदी भी विंध्य की भाँति उत्तर और दक्षिण के मध्य विभाजक रेखा खींचती है। उत्तर और दक्षिण का विभाजन वस्तुतः आर्य और द्रविड़ जातीय समूहों का  विभेद है। इस विभेद को तोड़ने के अनेक प्रयास अतीत से ही होते रहे हैं। विष्णु के हिस्से की तपस्या को रैवतक पर्वत में शिव-पार्वती द्वारा किया जाना, रामेश्वरम् में श्रीराम के द्वारा शिवलिंग की स्थापना करना आदि इसके प्रतीक हैं। ये शैव और वैष्णव के मध्य समन्वय-सौहार्द को स्थापित करने के साथ ही उत्तर और दक्षिण के विभेद को मिटाने के प्रयास भी हैं। भारतीय ऋषि-मुनियों ने, विशेषकर महर्षि अगस्त्य और उनकी पत्नी लोपामुद्रा ने इस कार्य को सक्रियता के साथ किया है। महर्षि अगस्त्य के साथ एक प्रसंग आता है, कि विंध्य को निरंतर ऊँचा होते देखकर उन्होंने विंध्य पर्वत से आग्रह किया, कि उन्हें दक्षिण की ओर जाना है और जब तक वे दक्षिण की यात्रा से लौटकर न आ जाएँ, तब तक वह अपनी ऊँचाई को न बढ़ाए। इस पौराणिक प्रसंग में महर्षि अगस्त्य उत्तर और दक्षिण के मध्य बढ़ती दूरियों को कम करने हेतु प्रयासरत प्रतीत होते हैं। बाद में राम का वनगमन होता है। दक्षिणापथ में अग्रसर होने हेतु राम का पथ-प्रदर्शन अगस्त्य ऋषि द्वारा किया जाता है।
अतीत की यह परंपरा, उत्तर और दक्षिण के मध्य विभेद को कम करने के प्रयासों की अगली कड़ी नर्मदा परिक्रमा में दिखाई पड़ती है। नर्मदा के किनारे-किनारे चलने वाली पदयात्रा इसी कारण अपना धार्मिक महत्त्व-मात्र नहीं रखती, अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक सहकार और सामंजस्य के गुरुतर दायित्व का निर्वहन भी करती है। नर्मदा परिक्रमा का प्रारंभ कब से हुआ, यह बताना कठिन है। यद्यपि कुछ आस्थावान भक्तों द्वारा नर्मदा परिक्रमा के रोचक वृत्तांत को लिपिबद्ध किया गया है। नर्मदा परिक्रमा तीन वर्ष तीन मास और तेरह दिनों में पूर्ण होती है। भगवान दत्तात्रेय के उपासक नर्मदा परिक्रमा को विशेष महत्त्व देते हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा और तेलंगाना आदि प्रांतों के साथ ही नेपाल से आने वाले दत्त संप्रदाय के उपासक बड़ी आस्था के साथ नर्मदा की परिक्रमा करते हैं। इस तरह नर्मदा परिक्रमा में उत्तर से दक्षिण तक, अखंड भारतवर्ष सिमट आता है, ऐसा कहा जा सकता है। आपसी मेल-जोल को बढ़ाने, विविध संस्कृतियों और जीवन-दृष्टियों को अवगाहने के लिए नर्मदा परिक्रमा को किसी लोक-उत्सव से कम नहीं कहा जा सकता है।
लोकजीवन के लिए नर्मदा केवल एक नदी नहीं है, वरन् ‘माई’ है, माता है। इसीलिए नर्मदा स्नान को जाते, नर्मदा की परिक्रमा लगाते आस्थावान नर्मदा-पुत्रों की वाणी में- ‘नरबदा मइया ऐसी तो मिली रे.., जैसे मिले हैं मताई ओर बाप रे....’ जैसे लंबी टेर वाले लमटेरा गीत सुनाई पड़ते रहते हैं। राजा मेकल की सुता, मेकलसुता और सोन नद की कथाओं के साथ ही बाजबहादुर और रानी रूपमती की कथाओं को नरबदा माई अपने में बसाए हुए हैं। गोंडवाना की रानी दुर्गावती और महिष्मती (महेश्वर) की रानी अहिल्याबाई होलकर की वीरता को रेवा ने अपने प्रवाह में सँजोया है।
आज भृगु ऋषि की साधना-स्थली भेड़ाघाट प्रसिद्ध पर्यटन-स्थल के रूप में विकसित हुआ है। आस्था और लोक-परंपरा को साथ लेकर चलने वाली नर्मदा परिक्रमा अब तीन वर्ष तीन माह और तेरह दिन से सिमटकर हवाई मार्ग से मात्र तीन-चार घंटे में ही पूरी हो जाने वाली बन गई है। सप्तकल्पों में भी क्षय नहीं होने वाली नर्मदा नदी के किनारे जन्मे आदिमानव के वंशजों के लिए अतीत का गौरवपूर्ण अध्याय आज के भौतिकता से पूर्ण जीवन में पढ़ा जाना दुष्कर प्रतीत होने लगा है। इसके बावजूद नरबदा माई अपने आँचल में असीमित स्नेह भरे हुए अपने सपूतों को जीवन जीने की दिशा दिखा रही हैं, साधना का पथ बता रही हैं, और कर्म के सौंदर्य को प्रतिष्ठापित कर रही हैं।
संदर्भ-स्रोत-
1.  श्रीस्कंद पुराण, द्वितीय खंड, रेवाखंड, सं. श्रीराम शर्मा आचार्य, संस्कृति संस्थान, बरेली, सं. 1986,
2.  लारेंशिया-गोंडवाना कनेक्शन बिफोर पेंजिया, सं. विक्टर ए. रामोस एवं डंकन कैपी, द जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका, कॉलॉरेडो, सं. 1999,
3.  भारतीय संस्कृति में ऋषियों का योगदान, डॉ. जगतनारायण दुबे, दुर्गा पब्लिकेशंस, दिल्ली, सं. 1989,
4.  संस्कृति-स्रोतस्विनी नर्मदा, अयोध्याप्रसाद द्विवेदी, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, सं. 1987,
5.  जंगल रहे-ताकि नर्मदा बहे, पंकज श्रीवास्तव, नर्मदा संरक्षण पहल, इंदौर, सं. 2007,
6.  हिस्ट्री, ऑर्कियोलॉजी एंड कल्चर ऑफ दि नर्मदा वैली, आर.के. शर्मा, शारदा पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, सं. 2007,
7.  एथनिक ग्रुप्स ऑफ साउथ एशिया एंड दि पैसिफिक : एन इनसाइक्लोपीडिया, जेम्स बी. मिन्हन,  एबीसी-सीएलआईओ, एलएलसी, कैलिफोर्निया, सं. 2012,
8.  विकीपीडिया।
-राहुल मिश्र
(अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास द्वारा श्रीमहेश्वर, मध्यप्रदेश में आयोजित ‘नर्मदा परिक्रमा’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी, दिनांक- 13-14 सितंबर, 2018 की स्मारिका में प्रकाशित, सं. डॉ. मंदाकिनी शर्मा एवं डॉ. आशा वर्मा, प्रका. अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली)

Wednesday 14 November 2018

बळिहारी उण देस री, माथा मोल बिकाय ।





बळिहारी उण देस री, माथा मोल बिकाय ।

धव धावाँ  छकिया  धणाँ, हेली आवै दीठ ।
मारगियो  कँकू  वरण,  लीलौ  रंग  मजीठ ।।
नहँ  पड़ोस  कायर  नराँ,  हेली वास सुहाय ।
बलिहारी उण देस री,  माथा मोल बिकाय ।।
घोड़ै चढ़णौ  सीखिया, भाभी किसड़ै काम ।
बंब  सुणीजै  पार  रौ,  लीजै  हाथ  लगाम ।।
जब राजस्थान की चर्चा होती है, तब वहाँ की लोक-परंपरा में गाए जाने वाले गीतों के ऐसे बोल रोम-रोम में स्फुरण उत्पन्न कर देते हैं। यहाँ वीर नहीं, एक वीरांगना है, जो युद्ध के मैदान से विजयी होकर आते हुए अपने पति को देखती है। वह वीरता का प्रदर्शन करने वाले अपने पति की दशा को देखकर विचलित नहीं होती है। अनेक घावों से बहते रक्त के कारण रक्तरंजित हो गया पति का शरीर उसे भयाक्रांत नहीं करता है। पति के शरीर से बहते रक्त के कारण कुंकुम वर्ण के हो गए रास्ते को वह गर्व के भाव के साथ देखती है। वह अपनी सखी से कहती है कि उसके पति का श्वेत रंग का अश्व भी मजीठ के रंग का हो गया है। वह अपनी सखी से कहती है कि मुझे कायर लोगों के पड़ोस में रहना नहीं सुहाता है। मैं तो वीर पुरुषों की पड़ोसन बनने में ही गर्व महसूस करती हूँ। मुझे कायरों का जीवन पसंद नहीं है। मैं तो उस देश पर खुद को न्योछावर करने के लिए तत्पर रहती हूँ, जहाँ मस्तक मोल बिकते हैं, जहाँ वीर अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से पीछे नहीं हटते हैं। अरे भाभी! मैंने घोड़ा चढ़ना आखिर किस काम के लिए सीखा है? अपने देश की आन-बान-शान की रक्षा के लिए ही न! इसीलिए तो दुश्मन की ललकार सुनते ही घोड़े की लगाम को हाथ में लेकर रणक्षेत्र में उतर पड़ने को मैं तत्पर रहती हूँ।
एक वीरांगना के ये स्वर जब राजस्थान की लोक-गायकी में पूरे जोश के साथ प्रस्फुटित होते हैं, तब यह सिद्ध हो जाता है कि राजस्थान की धरा वीरों की ही नहीं, वीरांगनाओं की वीरता से भी आलोकित है। राजस्थान की लोक-परंपरा में शृंगारपरक उक्तियों के साथ नायिकाभेद, और शृंगार के सुंदर चित्रों के बीच स्त्रियोचित गुणों को अभिव्यक्त करती सुंदरियों के चित्र राजस्थान की लोक-गायकी की पहचान को नहीं गढ़ते हैं। राजस्थान की वीरांगनाओं का चरित-काव्य उनके शौर्यभाव से आलोकित होता है, न कि शृंगारभाव से। इसी कारण उनमें ऊर्जा और वीरत्व का ऐसा गुण प्रस्फुटित होता है, कि वह अपने कुसुम से भी कोमल स्वभाव को वज्र से भी कठोर बनाकर वीरता की अमिट छाप छोड़ने में पीछे नहीं रहती हैं। राजस्थान की लोक-परंपरा में दिखाई पड़ने वाली यह ऐसी अनूठी विशेषता है, जिसे अन्यत्र खोजना बहुत कठिन है। इसी रीति का एक प्रचलित लोकगीत है, जिसमें लोकगायक गाता है-
तात विदेसाँ आवियौ, कौले दीठा हाथ ।
एण बधाई हूलसै, सुत-बू बलिया साथ ।।
इस दोहे के साथ कथा का प्रसंग आता है, कि पिता कहीं बाहर गया था। इतने में ही युद्ध छिड़ गया। युद्ध में बेटे के साथ बहू भी वीरगति को प्राप्त हुई। पिता के घर लौटने पर उसे बेटे-बहू के बारे में बताने वाला कोई नहीं था। उसने कौरी (घर के प्रवेशद्वार के बगल) में लगी हुई हाथ की छापों को देखते ही पिता को सच्चाई का पता चल गया। इन्हें देखकर पिता के मन में शोक का भाव पैदा नहीं होता। उसे तो लगता है, कि ये कुंकुम से बने हस्त-चिन्ह उसे बधाई दे रहे हैं। उसके अंदर इस बात की उमंग पैदा होती है, कि उसके बेटे और बहू ने वीरता का परिचय दिया है। दरवाजे में हस्त-चिन्ह अंकित करने की परंपरा राजस्थान से लगाकर बुंदेलखंड तक देखी जाती है, और यह परंपरा आज भी जिंदा है। कई क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा है कि विवाह के बाद घर आने वाली नववधू को घर में प्रवेश तभी मिलता है, जब उसके द्वारा हाथा लगाने (हस्त-चिन्ह अंकित करने) की रस्म पूरी कर ली जाती है। हाथा लगाना नवविवाहिता के लिए नीति-निर्देशक तत्त्व के समान है, जिसमें आवश्यकता पड़ने पर वीरांगनाओं की परंपरा को निभाने का संदेश निहित होता है। यह परंपरा उसी वीरोचित गुण का स्मरण कराते हुए आज भी अपने अस्तित्व को बनाए हुए है, जिसे राजस्थान की वीरांगनाओं ने निभाया है, और जिसका यशोगान राजस्थान की लोकगायकी में आज भी देखा जाता है।
राजस्थान की लोकगायकी और डिंगल-पिंगल का मेल भी बहुत अनूठा है। लोक-परंपरा से लगाकर शिष्ट साहित्य की धारा तक विस्तृत डिंगल-पिंगल के बिना राजस्थान का वर्णन और साथ ही राजस्थान की शौर्यगाथाओं का वर्णन पूरा नहीं हो सकता। कुल मिलाकर, ये राजस्थान की अपनी पहचान से जुड़ने वाला विषय है। भाषाविज्ञान के अनेक विद्वानों ने डिंगल और पिंगल का बड़ा विश्लेषण अपने-अपने स्तर पर किया है। कुछ विद्वानों के लिए ये भाषाएँ हैं, तो कुछ के लिए ये अलग-अलग शैलियाँ हैं। डिंगल की अपेक्षा पिंगल का साहित्य लिखित रूप में अधिक मिलता है। पिंगल का अपना वैशिष्ट्य और अपने समय की समृद्ध साहित्यिक भाषा- ब्रजभाषा से निकटता के कारण लिखित या शिष्ट साहित्य में पिंगल की उपस्थिति अधिक मिलती है। दूसरी ओर लोक-परंपरा की गायकी में डिंगल का वर्चस्व देखा जा सकता है। युद्धों के वर्णन और वीरो-वीरांगनाओं के शौर्य के वर्णन के कारण डिंगल का तीखापन और इसके लोक-संस्करण की प्रचुरता ने इसे शिष्ट साहित्य में अपेक्षित स्थान नहीं पाने दिया। संभवतः इसी कारण भाषा या शैली के विवाद में डिंगल और साथ ही पिंगल के साहित्य की विशिष्टताओं की ओर वैसी दृष्टि नहीं जा सकी, जैसी कि अपेक्षित थी।
संस्कृत की समृद्धिशाली परंपरा से अपभ्रंश या पुरानी हिंदी की रचनाओं में आने वाले शृंगार तथा प्रेम के भावों के साथ शौर्य और वीरता के भावों का सुंदर मेल इस धारा में देखा जा सकता है। इसी कारण प्राकृत पैंगलम्, मुंजरास, पृथ्वीराज रासो, हम्मीर रासो, वेलि क्रिसन रुकमणी री, दसरथरावउत और बीसलदेव रासो जैसे ग्रंथों में धर्म, अध्यात्म, प्रेम, शृंगार, वीरता और शौर्य का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। यह समन्वय इसलिए भी अनूठा है, क्योंकि इसमें परस्पर विरोधी भावों का समन्वय निहित है। इसमें प्रत्येक भाव का अपना अनूठा और अद्भुत संयोग है। इस प्रकार भक्ति, शृंगार और वीरता के कारण ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणों के अनूठे समन्वय को डिंगल-पिंगल की विशेषता के रूप में देखा जा सकता है।
संस्कृत की परंपरा से आने वाली अपभ्रंशमूलक इन रचनाओं में संस्कृत काव्य-साहित्य के तीन गुणों, ओज-माधुर्य-प्रसाद के अतिरिक्त संस्कृत काव्य-रीतियों और नीति-नैतिकता की शिक्षाओं का विशिष्ट स्वरूप पुरातन परंपरा को निभाता हुआ प्रकट होता है। संस्कृत की परंपरा से आगे पालि और प्राकृत में धर्मोपदेशों और नीति-नैतिकता की चर्चाओं के कारण एक रिक्तता उत्पन्न हो गई थी। यह रिक्तता उस समय और अधिक गहरी हो गई, जिस समय विदेशी आक्रांताओं का खतरा बढ़ने लगा। राजस्थान की भूमि सदैव से ही ऐसी सीमा का निर्माण करती रही है, जिसे विदेशी आक्रांताओं से संघर्ष के लिए तत्पर रहना पड़ता था। आठवीं शती और उसके परवर्ती कालखंड को राजस्थान में उथल-पुथल से भरे विभीषक समय के रूप में जाना जाता है। इस कालखंड में पालि-प्राकृत के उपदेशों को छोड़कर उन गीतों को गाए जाने की सामयिक अनिवार्यता उभरकर सामने आती है, जिनके माध्यम से वीरों को उनके वीरोचित गुणों के प्रदर्शन और सीमाओं की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देने की ललक के लिए प्रवृत्त किया जा सके। इसी भाव से अपभ्रंशमूलक हिंदी से उद्भूत डिंगल ने अपने नैतिक दायित्व के निर्वहन को पूर्ण किया। इसके लिए सबसे पहले चारण आगे आए। शैव-शाक्तपूजक चारण समुदाय के लिए वीरों और युद्धों का वर्णन जीवन के निर्वहन का माध्यम-मात्र नहीं था, वरन् राजस्थान के गौरव के रक्षण के लिए अपने दायित्व के निर्वहन का कारण भी था। वे युद्धों में अपने आश्रयदाता राजाओं के साथ जाते भी थे, और आवश्यकता पड़ने पर युद्ध भी करते थे।
चारण कवियों-गायकों के अतिरिक्त भाट या भट्ट, मोतीसर, राव और ढाढ़ी कवियों-गायकों ने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाने का काम किया। वीर रस में रची-बसी डिंगल की रचनाओं में दिखाई पड़ने वाली स्वाभाविकता और सहजता ऐसा गुण है, जो वीर रस की दूसरी रचनाओं में दिखाई नहीं पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह था, कि चारण, भाट, राव आदि लोक-गायक किसी एकांत में बैठकर वीर रस की साधना नहीं करते थे, वरन् युद्ध के मैदान में वीरों के संग वीरोचित गुणों का प्रदर्शन करते हुए अपनी काव्य-साधना को पूर्ण करते थे। इसी कारण राजपूताने में इन जातियों को बड़े सम्मान के साथ देखा जाता था।
राजस्थान के मारवाड़ अंचल में गीतों के रूप में प्रसिद्ध डिंगल गायकी और पूर्वी राजस्थान से लगाकर ब्रजक्षेत्र तक विस्तृत छंद-पदबद्ध पिंगल गायकी में पिंगल का लिखित साहित्य अपेक्षाकृत अधिक उपलब्ध होता है। अपनी भाषायी विशिष्टता के कारण, और साथ ही अपने विषय-क्षेत्र के कारण पिंगल को शिष्ट साहित्य में अपेक्षाकृत अधिक स्वीकृति और सम्मति मिली। इसके विपरीत डिंगल गायकी में निहित गौड़ीय रीति से संयुक्त भाषा-शैली के रूप में अतीत से आगत संस्कृत काव्य-शास्त्रीय परंपरा के सूत्रों को छोड़ दिया गया और इस कारण डिंगल को शिष्ट साहित्य में अपेक्षित स्थान नहीं मिल सका। इसका सबसे बड़ा कारण उस परंपरित चेतना को अनदेखा कर देना भी है, जो विशेष रूप से डिंगल की अपनी पहचान है। भाषा के स्तर पर बनावट और रचनाकाल के स्तर पर प्रामाणिकता के विषयों पर बल देते हुए इनमें निहित ओज के गुण को विस्मृत करते हुए शिष्ट साहित्य के इतिहास में इनका मूल्यांकन किया जाना इनके लिए न्यायसंगत कतई नहीं बन सकता।
सूफ़ी काव्य-परंपरा में लोक-प्रचलित गाथाओं-किस्सों को लेकर मसनवी शैली में रचनाएँ की गईं। इनमें आने वाली कई रचनाएँ ऐसी भी हैं, जो डिंगल-पिंगल की अपनी रचनाओं के रूप में लोक-प्रचलित थीं। इनका स्वरूप लोक में होने के कारण अलिखित था, जबकि सूफ़ी परंपरा में ये लिखित रूप में आ गईं। इन प्रकार मसनवी शैली में लिखे गए सूफ़ी प्रेमाख्यानक काव्यों में आने वाली लोक-प्रचलित कथाओं-आख्यायिकाओं में शौर्य और ओज के गुण दोयम दर्जे में सिमटे हुए, और प्रेम-शृंगार के भाव अपेक्षाकृत मुखर होते हुए दिखाई पड़ने लगे। इसके भावपक्ष को आध्यात्मिक पुट देने के आशय से जुड़े आत्मा और परमात्मा के संबंधों के वर्णन ने उस स्थिति का सृजन कर दिया था, जिसके फलस्वरूप गौरवपूर्ण अतीत को जानने-समझने के लिए एकदम अलग और नई दृष्टि ही विकसित होने लगी। जिस राजपूताने पर कभी दासता की बेड़ियाँ नहीं पड़ी थीं, उसे इस तरह वैचारिक गुलामी में बाँधकर दिखाए जाने के कारण कालांतर में डिंगल-पिंगल की अपनी धरोहर के रूप में प्रतिष्ठा-प्राप्त शौर्यगाथाएँ अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णनों की काल्पनिक और साहित्येतर रचनाएँ बनकर प्रस्तुत होने लगीं।
हिंदी साहित्य के इतिहास के अनुशीलन में इसी कारण डिंगल-पिंगल की रचनाओं को लेकर कभी भाषा या शैली के विवाद में, तो कभी रचनाकाल की प्रामाणिकता के विवाद में उलझाए रखने की चेष्टाएँ प्रबल होती रहीं। इस अवधि में बहुत कम साहित्येतिहासकारों ने डिंगल-पिंगल की प्रामाणिकता को भक्तिकाल और रीतिकाल के कवियों की रचनाओं के बीच परखने का प्रयास किया। इधर सबसे पहली दृष्टि मसनवी शैली की रचनाओं में जाकर अटकती रही, और दूसरी तरफ बाबा तुलसी के रामचरितमानस के लंकाकांड में डिंगल की शैली में युद्ध का वर्णन विश्लेषण की परिधि से बाहर होता रहा। बाबा तुलसी रामचरितमानस के लंकाकांड में लिखते हैं-
बोल्लहिं  जो जय जय  मुंड रुंड  प्रचंड  सिर बिनु धावहीं ।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं ।।
बानर   निसाचर   निकर   मर्दहिं   राम  बल   दर्पित  भए ।
संग्राम   अंगन  सुभट   सोवहिं  राम  सर  निकरन्हि  हए ।।
भक्तिकाल में बाबा तुलसी की ‘मानस’ के लंकाकांड में युद्ध का वर्णन छंद की अपनी विशिष्ट शैली में होता है। यह वर्णन राजस्थानी गायकी की परंपरा को निभाता हुआ प्रतीत होता है। कहा जा सकता है, कि युद्धों के वर्णन के लिए डिंगल की परंपरा व्यापक और सर्वस्वीकृत रही है। इसी कारण तुलसी के ‘नाना पुराण निगमागम’ के साथ ही आने वाले ‘क्वचिदन्यतोऽपि’ में जिन ‘अन्य’ का उल्लेख हुआ है, उसमें डिंगल की परंपरा का विशेष योग प्रतीत होता है। लंकाकांड की भयंकरता और युद्ध का सटीक-प्रभावपूर्ण वर्णन इस परंपरा के अनुशीलन के बिना बाबा तुलसी के लिए भी कठिन रहा होगा, ऐसा कहा जा सकता है।
युद्धों के वर्णन में प्रयुक्त होने वाली डिंगल की परंपरा रीतिकाल में चुक गई हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। अगर रीतिकाल के प्रमुख कवि भूषण की कृति शिवराज भूषण, शिवा बावनी आदि को, और पद्माकर की कृति हिम्मतबहादुर विरुदावली जैसी रचनाओं को देखें; तो इनमें भी वीररस को व्यंजित करने वाली गौड़ीय रीति से संयुक्त डिंगल की परंपरा के स्पष्ट दर्शन होते हैं। इस तरह संस्कृत काव्य-परंपरा की विशिष्टताओं को लोक-साहित्य, और साथ ही शिष्ट-साहित्य में संरक्षित रखने वाली डिंगल-पिंगल की परंपरा भक्तिकाल, और फिर रीतिकाल में अपने प्रभाव को परिलक्षित करती है।
मध्यकालीन विभीषिकाओं के बीच जो परंपरा अपने दायित्वों का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ कर रही, मूल्यांकन की आधुनिक दृष्टि उसे कालांतर में उचित सम्मान नहीं दिला पाई। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस परंपरा के अंतर्गत आने वाली रचनाओं की प्रवृत्ति और तत्कालीन समय-समाज की स्थिति का आकलन करते हुए इन रचनाओं के कालखंड को वीरगाथाकाल नाम दिया था। बाद में चारणकाल, सिद्ध-सामंतकाल, आदिकाल आदि नाम देकर उन प्रवृत्तियों पर दृष्टिपात करने से बचने का प्रयास किया गया, जिनमें राजस्थान के गौरवपूर्ण अतीत की झलक मिलती है।
इस तरह शिष्ट साहित्य में, विशेषकर हिंदी साहित्येतिहास में वीरगाथाओं की लोक-प्रचलित परंपरा को देश, काल के आधार पर अप्रासंगिक सिद्ध करते हुए भले ही गौरवपूर्ण अतीत के अध्यायों को विस्मृत करने और दीनता-हीनता के बोध को प्रसारित करने का कार्य कतिपय साहित्येतिहासकारों द्वारा किया गया हो, मगर लोक-परंपरा में प्रचलित डिंगल-पिंगल गायकी के स्वर मद्धिम नहीं हुए। इसी कारण लोक-परंपरा में वीरांगनाओं को गौरवपूर्ण स्थान मिला। राजस्थान की धरती पर अपने वीरोचित कर्मों से अमिट छाप छोड़ने वाले वीरों व वीरांगनाओं को मसनवी परंपरा में प्रेम के भाव से रंगकर दिखाने का यत्न करने वाली रीतियों-नीतियों से अलग आज भी सम्मान और आस्था-विश्वास का चटक रंग राजस्थान की धरती के कण-कण में दिखाई देता है। इसी कारण लोक-परंपरा और लोक-आस्था को ठेस पहुँचाने वाली किसी भी गतिविधि के विरोध में लोक-मानस अपनी पूरी शक्ति के साथ खड़ा हो जाता है। राजस्थान की पुण्यश्लोका-वीरप्रसूता धरा की अपनी अनूठी-अनुपम पहचान जिस डिंगल-पिंगल गायकी में समाई हुई है, उसके स्वर आज भी राजस्थान के अलग-अलग अंचलों में सुनाई देते हैं।
भाभी हूँ डोढ़ी खड़ी, लीधां खेटक रूक ।
थे  मनुहारौ  पावणाँ,  मेड़ी झाल बंदूक ।।
-राहुल मिश्र
(साहित्य परिक्रमा, अक्टूबर, 2018, सं. श्रीमती क्रांति कनाटे, प्रका. अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, ग्वालियर (मध्यप्रदेश) के ‘राजस्थान विशेषांक- 2018’, भाग- एक, में प्रकाशित)

Monday 9 July 2018

बलखङ चौक से दीवानों की गली तक



बलखङ चौक से दीवानों की गली तक

आज न जाने क्यों धरती के उस निहायत छोटे-से टुकड़े पर लिखने के लिए कलम उठ गई। धरती का वह टुकड़ा, जो इतना छोटा-सा है, कि कुल जमा दो-सवा दो सौ कदमों से नापा जा सकता है। अगर कोई यह समझ बैठे, कि इन दो सौ-सवा दो सौ कदमों को वह ज्यादा से ज्यादा एक घंटे में तय कर लेगा, तो ऐसा भी संभव नहीं है। यह सफ़र सैकड़ों वर्षों का है। ऊन के धागों की तरह उलझे अतीत को सुलझाकर सीधा-सरल करने का है। हमारे जैसे कई लोगों ने सैकड़ों वर्षों के इस सफ़र को सैकड़ों बार तय किया होगा, मगर आज तक यह सफ़र पूरा हो पाया, कहना कठिन है। शायद इसी कारण बलखङ चौक से दीवानों की गली तक के दौ सौ कदमों के सफ़र को शब्दों में नापने की प्रबल इच्छा मुखर हो उठी, फिर पन्नों में बिखर पड़ी।
मध्य एशिया के चौराहे पर स्थित वह बड़ा बाजार, जो आकार में बहुत छोटा है, उसे अगर अपनी आत्मीय निकटता के कारण हमारे जैसे सिरफिरे लोग दुनिया की छत पर स्थित सबसे पुराना बाजार भी कह दें, तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए। इतना ही नहीं, यह पुराना बाजार केवल उत्पादों या वस्तुओं के व्यापार के लिए ही नहीं, वरन् संस्कृतियों-तहजीबों-जीवन जीने के रंग-ढंगों की अदला-बदली के लिए भी अपनी अनूठी पहचान रखता है, फलतः इसे बाजार की परंपरागत परिभाषा तोड़ने वाला अनूठा बाजार भी कहा जा सकता है। अगर इस अनूठे-अतुलनीय बाजार को समूचे लदाख की जीवन-धारा कह दिया जाए, तो शायद शब्दों की बेमानी हो जाएगी। लदाख अंचल का धड़कता हुआ दिल अगर है, तो वह लेह बाजार ही है। इसीलिए सुदूर अतीत से लगाकर आँखों के सामने नजर आते वर्तमान तक लदाख अंचल की हर हरारत को लेह बाजार अपने में गिनता है, गुनता है, बुनता है। इसीलिए बलखङ चौक से लगाकर दीवानों की गली तक का एक फेरा लगाए बिना किसी भी पर्यटक की, किसी भी यात्री की लदाख यात्रा पूरी नहीं मानी जा सकती। इतना ही नहीं, लेह के आसपास के गाँवों में रहने वाला कोई व्यक्ति अगर लेह आया है, तो लेह बाजार का एक फेरा लगाए बिना उसकी यात्रा भी पूर्णता को प्राप्त नहीं होती। लब्बो-लुबाब यह, कि बड़े-बड़े राजाओं-वजीरों से लगाकर जेब में हाथ डाले फोकट टहलने वाले अदने-से लोगों तक के लिए धरती का यह सुंदर-सा, छोटा-सा टुकड़ा आकर्षण का केंद्र रहा है।
बलखङ चौक कहने के लिए तो चौक है, मगर चौक जैसा कुछ नजर आता नहीं है। यहाँ दो तिराहों का मिलन है, और चारों दिशाओं की ओर जाते रास्तों को केवल महसूस किया जा सकता है। वैसे बलखङ चौक में एक बात और भी महसूस होती है, जो इस चौक के अपने नाम के साथ जुड़ी पहचान को खूबसूरत तरीके से सामने लाती है। बलखङ चौक से पूरब की ओर थोड़ा नीचे उतरने पर दाहिनी ओर एक सँकरी-सी गली अंदर जाती दिखती है, जो एकदम से बाजार की शक्ल अख्त़ियार कर लेती है। पुराने ढर्रे की छोटी-बड़ी कई दुकानें, जिनमें बर्तनों के साथ ही फटिंग (सूखी खूबानियाँ), छुरपे (याक के दूध का सूखा पनीर), पाबू (चमड़े के देशी जूते) जैसी लदाखी वस्तुएँ बिकती दिखाई देती हैं। इनके साथ ही देशी होटल, या कहें कि ‘चाय पर चर्चा’ और अड्डेबाजी के लिए मुफीद कुछ दुकानें भी हैं, जो सुबह से शाम तक गुलज़ार रहती हैं। इनमें थुक्पा (लदाखी नमकीन सेवइयाँ), पाबा (जौ के आटे में खड़ी मसूर दाल मिलाकर बनाया गया लदाखी व्यंजन), मोमोस, सोलज़ा (मीठी दूधवाली चाय), गुर-गुर (नमकीन मक्खन वाली चाय), तागी (नानवाई की तंदूरी रोटियाँ) और समोसा जैसे व्यंजनों की उपलब्धता रहती है। महँगे होटलों जैसी परंपरा यहाँ पर नहीं मिलती। एक गुर-गुर चाय के साथ आप घंटों बैठकर यहाँ गप्पें मार सकते हैं। ये दुकानें नुबरा, पुरिग और शम आदि इलाकों के बल्तियों की हैं। लदाख की प्रजातिगत व्यवस्था में मोन, दरद और बल्ती प्रजातियों का प्रभुत्व रहा है। आठवीं शताब्दी के बाद तिब्बत की तरफ से आने वाली भोट प्रजाति का वर्चस्व स्थापित होने के बाद दरद और मोन प्रजातियाँ हाशिये पर सिमटती गईं। बल्ती समुदाय की स्थिति अपेक्षाकृत सुदृढ़ रही।
बल्ती समुदाय को आर्यों की भारतीय-ईरानी शाखा और मंगोलों की मिश्रित प्रजाति का माना जाता है। हालाँकि बल्तियों के नाक-नख़्श-रंग और कद-काठी को देखकर मंगोलों की मिश्रित प्रजाति का कहा जाना उचित प्रतीत नहीं होता है। वैसे तो रेशम मार्ग में होने वाले व्यापार के साथ बल्तियों का वजूद बलखङ में स्थापित हो गया होगा, मगर लदाख में हुई राजनीतिक उथल-पुथल ने बड़े रोचक और रोमांचकारी तरीके से बल्तिस्तान के साथ लदाख को जोड़ दिया। यह घटना है, सन् 1600 ई. के आसपास की, जब बल्तिस्तान में खरच़े के सुलतान और चिगतन के सुलतान के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ी हुई थी; उसी समय लदाख के शासक राजा जमयङ नमग्यल अपने राजनीतिक लाभ के लिए दोनों के बीच कूद पड़े। अंत में हुआ यह, कि सारे बल्ती शासक इकट्ठे हो गए और स्करदो के बल्ती सुलतान अली मीर के नेतृत्व में राजा जमयंग नमग्यल को फोतो-ला दर्रे के पास ही घेर लिया। राजा जमयङ नमग्यल को सुलतान अली मीर ने कैद कर लिया और बल्ती सेना ने लदाख की अनेक धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहरों को तहस-नहस कर डाला। बाद में सुलतान अली मीर ने राजा जमयङ नमग्यल के सामने शर्त रखी, कि अगर वे इस्लाम कुबूल कर लें, सुलतान की पुत्री ग्यल खातून से शादी कर लें और उससे उत्पन्न पहली संतान को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दें, तो उन्हें आजाद कर दिया जाएगा। राजा ने अपनी जान बचाने के लिए इन शर्तों को स्वीकार कर लिया। कहा जा सकता है, कि ये शर्तें निहायत अपमानजनक थीं, किंतु रानी ग्यल खातून की सूझबूझ और महासिद्ध स्तगछ़ङ् रसपा के प्रभाव के कारण यह शर्त आने वाले समय में लदाख के लिए बदलाव की बयार लेकर आई।
बल्ती राजपरिवार से आई रानी ग्यल खातून अत्यंत कलाप्रेमी थी, इस कारण उसके साथ कई बल्ती संगीतकार, चित्रकार आदि भी लदाख पहुँचे। राजा जमयंग नमग्यल के वंशज और रानी ग्यल खातून के पुत्र राजा सेङगे नमग्यल ने सन् 1616 ई. में लदाख का राजपाट सँभाला। उस समय राजा अल्पवयस्क थे, इस कारण रानी ग्यल खातून ही राजकीय कार्यों को संचालित करती थीं। ऐसा माना जा सकता है, कि इस समय बलखङ के आसपास बल्ती व्यापारियों और कलाकारों की बस्ती विधिवत स्थापित हुई होगी। आवास को लदाखी भाषा में ‘खङ’ कहा जाता है। इस तरह बल्तियों के आवास के कारण कहलाए बलखङ से जुड़कर बलखङ चौक प्रसिद्ध हुआ होगा, ऐसा कहा जा सकता है।
बलखङ चौक के दूसरी ओर बने एक बगीचेनुमा खाली मैदान की दीवार के किनारे-किनारे तमाम विक्रेता अपनी परंपरागत वेशभूषा धारण किए हुए फटिंग, काजू, बादाम और देशी मक्खन आदि बेचते दिखाई देते हैं। इनमें से अधिकांश डोगपा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले हैं। डोगपा समुदाय को आर्य प्रजाति के भारतीय-ईरानी समूह का माना जाता है। इन्हें दा-हानु के दरद के रूप में जाना जाता है। ‘दरद’ के रूप में इन्हें पहचानना भी अपने आप में एक रोमांचकारी कल्पना है। श्रीरामकथा-वाचक कैलास के अधिपति शिवजी के रूप-सौंदर्य का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास श्रीरामचरितमानस में लिखते हैं-
कुंद इंदु दर गौर सरीरा । भुज प्रलंब परिधन मुनि चीरा ।। (01/106/06)
वे शिवजी की देह को दर, अर्थात् शंख के समान वर्ण वाला बताते हैं। संभव है, कि दरदिस्तान के दरदों के लिए यह पहचान उनकी ‘दर देह’, उनके गौरवर्ण, सुगठित-स्वस्थ शरीर, शंख समान सुंदर ग्रीवा आदि के कारण मिली हो। भले ही यह कल्पना-मात्र हो, किंतु इस कल्पना के माध्यम से पुरातन सांस्कृतिक सूत्रों को जोड़ने वाले ये दरद बलखङ चौक में अपनी उपस्थिति से एक सुंदर-सुखद अनुभूति को सहसा उपजा देते हैं। डोगपा समुदाय को आभूषणों और पुष्पों से बहुत प्रेम है, ऐसा सहज ही दिखाई दे जाता है। स्थानीय ‘टूरिस्ट-गाइड’ इनका परिचय भी बड़े रोचक तरीके से ‘गमला पार्टी’ के रूप में कराते हैं। बड़ी लंबी लटकनों वाले आभूषणों के साथ ही रंग-बिरंगी टोपी में कई तरह के फूलों को सजाए डोगपा समुदाय के लोग रास्ते चलते किसी भी व्यक्ति को सहज ही आकर्षित कर लेते हैं। इनके चेहरे पर खिली मुसकान, सर्दी के दिनों में रूखी-सूखी धरती पर सुगंधित पुष्पों की अनुभूति को साझा करती गमलेनुमा टोपी और इनकी सहजता-सरलता हर समय देखी जा सकती है। आप इनके साथ खड़े होकर आसानी से फोटो खिंचवा सकते हैं।
किसी ‘गमला पार्टी’ की दुकान के साथ खड़े होकर पश्चिम की ओर देखें, तो सामने जामा मसजिद अह्ली सुन्नती दिखाई देती है। कहा जाता है कि सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लदाख में तिब्बत की सेना ने हमला कर दिया था। उस समय मुगल सेना ने तिब्बती आक्रांताओं का डटकर मुकाबला किया था और लदाख को बचाया था। इस घटना के बाद दिल्ली के मुगल दरबार की शर्तों के अधीन लेह के मुख्य बाजार में इस जामा मसजिद का निर्माण राजा देलेग नमग्यल के शासनकाल में हुआ। वैसे मुगल दरबार का प्रत्यक्ष और बड़ा हस्तक्षेप लदाख अंचल में नहीं रहा, किंतु इस मसजिद के माध्यम से मुगल साम्राज्य की यादें लदाख अंचल के साथ जुड़ी हुई हैं।
बलखङ चौक से जामा मसजिद तक बिखरी रंग-बिरंगी रौशनियों और चहल-पहल की गवाहियों को दर्ज करती लेह बाजार की मुख्य सड़क है। अतीत से वर्तमान तक अनेक बदलाव इसने देखे हैं। आज का लेह बाजार जितनी गगनचुंबी इमारतों और रंग-बिरंगी रौशनियों से जगमग करता दिखाई देता है, उतना इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दशक से पहले नहीं था। इसका मतलब यह भी नहीं, कि लेह बाजार में रौनक नहीं होती थी। अंतर केवल इतना था, कि उस समय पक्की दुकानें गिनी-चुनी ही थीं, और दो-तीन मंजिला दुकानें तो थी हीं नहीं। इसके विपरीत आज पुरानी अदा वाली कच्ची ईंटों से बनी दुकानें एक या दो ही बची हैं, जो गुजरे अतीत की थोड़ी-सी झलक दिखा जाती हैं। लेह बाजार के सौंदर्यीकरण ने एक नई मादकता को अजीबोगरीब ढंग से बिखेर दिया है। लेह बाजार में घुसते ही एक ऊँचा-सा मंचनुमा प्लेटफार्म बन गया है, जिसका असल काम तो वाहनों के प्रवेश को रोकना है, मगर यह कभी-कभी दूसरी भूमिका भी निभा लेता है। ‘म्यूजिकल कंसर्ट’ और ‘ओपन एयर डांस शो’ जैसे आयातित आयोजनों के लिए यह एक अच्छा मंच बन जाता है। लेह घूमने आने वालों के लिए ऐसे आयोजन रोचक हो जाते हैं।
यह बदलाव भले ही इक्कीसवीं सदी के आधुनिक लेह बाजार को पेश करता हो, मगर बहुत कुछ अब भी नहीं बदला है। आसपास के गाँवों से ताजी हरी सब्जियाँ लेकर आने वाली लदाखी महिलाओं की ‘फुटपाथिया दुकानें’ दोपहर के चढ़ते ही सज जाती हैं। शायद घर के सारे कामकाज निबटाकर, खेतों से सब्जियाँ निकालकर ये महिलाएँ पूरी मुस्तैदी और तरो-ताजगी के साथ उपस्थित होती होंगी। भली बात यह है कि लदाख में अब भी पुराने देशी बीज उपलब्ध हैं, इस कारण देशी टमाटर, महकती धनिया-मेथी, मिठास से भरी मटर और लदाख की अपनी पहचान में शामिल ताजी खूबानियों से सजी दुकानें अपनी तरफ बरबस ही आकृष्ट कर लेती हैं। उम्रदराज दुकानदार को ‘आमा-ले, जूले’ अभिवादन करके आप तसल्ली से बैठकर खरीददारी कर सकते हैं। थोड़ा-बहुत हँसी-मजाक इस खरीददारी को रोचक बना देता है। अपने खेत का ही उत्पाद है, सो ‘आमा-ले’ आपको एक-दो खूबानियाँ या मटर की कुछ फलियाँ यूँ ही खाने के लिए दे सकती हैं। कम से कम इन ‘फुटपाथिया दुकानों’ में व्यावसायिक प्रतिबद्धता की जटिलता देखने को नहीं मिलेगी। वैसे पहाड़ी संस्कृति ऐसी मानी जाती है, जहाँ महिलाएँ ही सबसे ज्यादा खपती हैं, और अपने बूते परिवार की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने की ताकत रखती हैं। इससे कहीं आगे अगर महिला सशक्तिकरण के सच्चे-सटीक उदाहरण को खोजना हो, तो इसके लिए लदाख की महिलाओं से बेहतर उदाहरण मिलना कठिन ही लगता है।
बदलाव तो लेह बाजार में स्थित हिंदू धर्मशाला की इमारत में भी देखने को नहीं मिलता है। आसपास की गगनचुंबी इमारतों और आलीशान दुकानों के बीच अपने कच्चे और पुराने ढर्रे के अटारीनुमा भवन के साथ आज भी कायम हिंदू धर्मशाला गौरवपूर्ण अतीत की साक्ष्य प्रतीत होती है। लेह से यारकंद तक का रास्ता रेशम मार्ग या सिल्क रूट का सहायक मार्ग माना जाता था। लेह में होशियारपुर और कुल्लू आदि के व्यापारी भी बड़ी संख्या में आते थे। व्यापारियों के लिए लेह में कई सराय और धर्मशालाएँ रही होंगी, मगर आज लेह में धर्मशाला के नाम पर यही एक धर्मशाला दिखाई पड़ती है। हिंदू धर्मशाला की पुरातनता का बोध इसमें लगे टीन के बोर्ड से भी हो जाता है। बोर्ड के मुताबिक धर्मशाला का अस्तित्व 23 भाद्रों, संवत् 1994 से है। हो सकता है, कि यह बोर्ड जीर्णोद्धार के बाद लगाया गया हो। अगर बोर्ड में उल्लिखित तिथि को ही आधार मान लें, तो अस्सी हिमपात और लदाखी बसंत हिंदू धर्मशाला ने भी देखे हैं। डोगरा शासकों के शासन को, रेशम मार्ग में होने वाली व्यापारिक गतिविधियों के अवसान को, देश की आजादी को, और फिर आज की आधुनिकता में बदलते अपने आसपास के परिवेश को, परिस्थितियों को हिंदू धर्मशाला ने देखा है, सुना है।

यह अलग बात है, कि आज इसकी देखरेख करने वाले लोगों में से बहुत कम ही इसके गौरवपूर्ण अतीत पर कुछ बता पाएँ। प्रसिद्ध घुमक्कड़शास्त्री और हिमालयी धर्म-संस्कृति-अध्यात्म-दर्शन को यत्नपूर्वक खोजकर सामने लाने वाले महापंडित राहुल सांकृत्यायन अपनी लदाख यात्राओं के दौरान इसी हिंदू धर्मशाला में रुका करते थे, ऐसी मान्यता है। इसी धर्मशाला के किसी एकांत कक्ष में बैठकर उन्होंने लदाख के बारे में अपने अनुभवों को लिपिबद्ध किया होगा। अगर सच में ऐसा है, तो हिंदू धर्मशाला घुमक्कड़ी में रुचि रखने वाले लोगों के लिए तीर्थस्थान से कम नहीं।

वैसे एक अद्भुत और अनूठा तीर्थस्थान जामा मसजिद के ठीक पीछे भी है। यह ऐसा तीर्थस्थान है, जहाँ आज से लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व ही पर्यावरण संरक्षण और हरियाली के संवर्धन का संदेश दिया गया था, वह भी लदाख के बर्फीले रेगिस्तान में बैठकर। सन् 1517 ई. में गुरु नानक अपनी दूसरी उदासी के दौरान लदाख पधारे थे, और लेह में भी उन्होंने समय बिताया था। ऐसी मान्यता है कि गुरु नानक ने अपनी दातून को यहाँ पर जमीन में खोंस दिया था, जिसने कालांतर में एक विशाल वृक्ष का रूप ले लिया। उस विशाल वृक्ष को आज भी देखा जा सकता है। गुरु नानक की दातून के कारण इस स्थान को गुरुद्वारा दातून साहिब कहा जाता है। लदाख की धरती भले ही रूखी-सूखी हो, किंतु यहाँ पर क़लम जैसे तनों को धरती में रोप देने पर वे भरे-पूरे वृक्ष का रूप ले लेते हैं। इस विशिष्टता को देखते हुए गुरुद्वारा दातून साहिब के प्रति आस्था बलवती हो जाती है। अगर देखा जाए, जो गुरुद्वारा दातून साहिब अन्य गुरुद्वारों की अपेक्षा अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ गुरु नानक की उपस्थिति को अनुभूत किया जा सकता है, विशालकाय वृक्ष के माध्यम से।
गुरुद्वारा दातून साहिब के आसपास नानवाई की कई दुकाने हैं, जहाँ तंदूरी रोटी बनती है। लदाख के अतिरिक्त देश-भर में इस तरह नानवाई की दुकानें मिलना दुर्लभ हैं, क्योंकि इनका संबंध रेशम मार्ग के व्यापारियों से रहा है। लदाखी में ‘तागी’ के नाम से अपनी पहचान रखने वाली और आज के हिसाब से तंदूरी रोटी का आगमन यारकंद से यहाँ पर हुआ। रेशम मार्ग के व्यापारी अपनी यात्रा के लिए इन्हीं रोटियों को ले जाते थे। इस तरह नानवाई का काम भी यहाँ एक व्यवसाय के रूप में विकसित हो गया। रेशम मार्ग बंद हो जाने के बाद ये यहीं पर बस गए। यहीं पर आज का ‘सेंट्रल एशियन म्यूज़ियम’ भी है, जो रेशम मार्ग के चलन के समय इबातगाह और शरणगाह हुआ करता था। आजादी के बाद के वर्षों में कुछ संस्कृतिप्रेमी जागरूक नागरिकों ने इसे संग्रहालय का रूप दे दिया, जिसमें रेशम मार्ग से जुड़ी अनेक स्मृतियों को संचित करके रखा गया है। ऐसा कहा जाता है, कि आज के ‘सेंट्रल एशियन म्यूजियम’ के आसपास कहीं डोगरा शासकों की कुलदेवी का छोटा-सा मंदिर भी हुआ करता था, जिसे जनरल जोरावर सिंह ने बनवाया था।
स कथा-यात्रा के घुमावदार मोड़ की तरह जामा मसजिद से दाहिनी ओर, और एक बार फिर दाहिनी ओर मुड़कर मोरावियन मिशन चर्च और स्कूल तक पहुँचा जा सकता है। वैसे तो जामा मसजिद के पीछे नानवाई की दुकानों के बीच से होकर भी एक सँकरी-सी गली मोरावियन चर्च और स्कूल तक पहुँचती है। ऐसा माना जाता है कि लदाख में ईसाई मिशनरियों का आगमन 800 ई. के आसपास ही हो गया था, किंतु यहाँ की विषम जलवायु और निरंतर प्रतिकूलता के कारण मिशनरी यहाँ प्रभावहीन ही रहे। समूचे भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन स्थापित हो जाने के बाद प्रोटेस्टेंट ईसाई मिशनरियों का एक दल ‘हिमालयी मिशन’ की महत्त्वाकांक्षी योजना बनाकर लदाख पहुँचा था। उस समय कश्मीर के महाराजा ने इस मिशन को लदाख में चलाने की अनुमति नहीं दी, फलतः ‘मिशनरी’ हिमाचलप्रदेश के लाहुल-स्पीति क्षेत्र के मुख्यालय केलङ में बस गए और वहीं से उन्होंने लदाखी लोगों पर अपना प्रभाव जमाना शुरू कर दिया। बाद में ब्रिटिश हुक्मरानों के अनुरोध के बाद महाराज कश्मीर ने अनुमति प्रदान की और सन् 1885 में मोरावियन मिशन की स्थापना लदाख में हुई। आज के मोरावियन मिशन चर्च व स्कूल का बड़ा योगदान लदाख में शिक्षा, विशेषकर आधुनिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में रहा है।
मोरावियन स्कूल के आसपास का इलाका चङ्स्पा के नाम से जाना जाता है। अगर बलखङ चौक बल्तियों के नाम से आबाद है, तो चङ्स्पा भी चङ्थङ के लोगों के कारण अपनी पहचान कायम किए हुए है। वैसे ‘चङ्’ का अर्थ होता है- उत्तर। इस तरह उत्तर की दिशा से आने वाले लोगों को भी चङ्स्पा कहा जाता है। चङ्स्पा, यानि चङ्थङ के निवासी घुमंतू होते थे, इस कारण उनकी आबादी यहाँ पर नहीं दिखाई देती है। चङ्थङ के व्यापारी भी लेह बाजार में आते थे। ये मुख्य रूप से नमक और पश्मीना भेड़ की ऊन आदि का व्यापार किया करते थे। चङ्थङ की छ़ोकर और छ़ोरुल झीलों में बनाए जाने वाले नमक का व्यापार करने वाले चङ्स्पा व्यापारियों के तंबुओं से बनने वाली अस्थायी बस्तियाँ शायद रेशम मार्ग के बंद होने के बाद उजड़ गई होंगी, मगर नाम आज भी जिंदा है। आज के चङ्स्पा में बिखरती पर्यटकों की रौनक को देखकर इसके सुनहरे अतीत को कल्पना में सँजोया जा सकता है। बलखङ चौक से चलते हुए दीवानों की गली तक का सफ़र भी यहीं आकर पूरा होता है। देश की आजादी के बाद के वर्षों में लदाख ने बहुत-कुछ बदलता हुआ देखा। इस समय तक रेशम मार्ग का व्यापार भी बंद हो चुका था। सीमाएँ खिंच गईं थीं, जिन्होंने अखंड भारतवर्ष की संततियों को बाँटकर पड़ोसी बना दिया था। जिस समय सारी दुनिया, और विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप तमाम उथल-पुथल और हलचलों में तंग था, उस समय भी चङ्स्पा में कैसी रौनक होती थी, उसका बड़ा मोहक वर्णन लदाख में तैनात तत्कालीन सेना-प्रमुख कर्नल पी. एन. कौल ने अपनी पुस्तक ‘फ्रंटियर कॉलिंग’ में किया है।
कर्नल कौल अतीत की स्मृतियों को सँजोते हुए अपनी पुस्तक में बताते हैं कि मोरावियन मिशन स्कूल के बगल में सेना की छावनी होती थी, और छावनी के बगल से एक झरना बहता था। झरना इसलिए विशेष महत्त्व का था, क्योंकि लेह की आबादी के लिए पीने का पानी उपलब्ध कराने वाला यह इकलौता ठिकाना था। शाम को अपनी-अपनी गगरियाँ लिए पानी भरने को महिलाओं-युवतियों का आगमन यहाँ पर होता था। इसी रंगत और रौनक के कारण कर्नल कौल ने रास्ते को ‘लवर्स लेन’ नाम दे दिया। अब शायद आप भी समझ ही गए होंगे, कि यही वह दीवानों की गली है, जहाँ आज भी अजीब-सी गुलाबी रंगत चढ़ी रहती है।
भारतवर्ष के अनेक गाँवों की अनूठी पहचान उनके पनघट होते हैं। बड़े-बड़े ‘कॉफ़ी हाउसेज़’ और ‘किटी पार्टीज़’ जैसी आयातित व्यवस्थाओं से बहुत पहले महिलाओं के लिए पनघट और पुरुषों के लिए अथाइयाँ-चौपालें अपने सुख-दुःखों को बाँटने, कुछ मनोरंजन करने और भविष्य की तमाम कार्य-योजनाओं को बनाने का सहज-सरल-सरस मंच उपलब्ध करा देती थीं। भारतवर्ष के अनेक गाँवों में जीवित-जीवंत परंपरा को लेह में देखकर कर्नल कौल इसका जिक्र किए बिना नहीं रह सके, ऐसा सरलता के साथ कहा जा सकता है।
आज दीवानों की गली का वह खूबसूरत झरना सिमट गया है। आसपास उग आए सीमेंट-कंक्रीट के बड़े-बड़े होटलों ने यहाँ की नैसर्गिक सुंदरता को सोख लिया है। घरों में चलने वाली ‘वाटर सप्लाई’ ने पनघट के ‘कान्सेप्ट’ को पुराना साबित कर दिया है। बदलाव की बयार ने स्वाभाविक-सरल और सहज आत्मीय मिलन को व्यावसायिक और बनावटी बना दिया है। सर्दियों की दुपहरी और गर्मियों की साँझ में आज भी ‘लवर्स लेन’ या दीवानों की गली गुलज़ार होती है, मगर पहले जैसी बात अब कहाँ?
बलखङ चौक से लगाकर दीवानों की गली तक अब सबकुछ बदला-सा दिखाई देता है। लेह बाजार के ऊपर प्रहरी की तरह खड़ा ‘लेह पैलेस’ अपने निर्माणकर्ता धर्मराज सेङ्गे नमग्यल को आज भी याद करता है। लेह दोसमो-छे, यानि लेह का सालाना धर्मानुष्ठान आज भी मनाया जाता है। उस समय की अनूठी घुड़सवारी और घुड़सवारों के स्वागत में लेह बाजार में छङ् (लदाखी सोमरस) लेकर कतारबद्ध खड़ी होने वाली महिलाओं को अपने वीर योद्धाओं का उत्साहवर्धन करते हुए देखने वाला लेह बाजार आज पर्यटकों के स्वागत में सजा दिखाई देता है। बलखङ चौक से दीवानों की गली, यानि पूरब से चलते हुए पश्चिम तक पहुँचते-पहुँचते लगभग दौ सौ कदमों में हम बदलती भौगौलिक स्थितियों-सामाजिक संरचनाओं से ही नहीं गुज़र जाते, वरन् तहजीबों-संस्कृतियों के कई पड़ावों को भी पार कर जाते हैं। कई बार बलखङ की अड्डेबाजी से किसी बड़े और महँगे ‘कॉफ़ी हाउस’ में भी पहुँच जाते हैं, खुद को आधुनिक दिखाने के फेर में।









डॉ. राहुल मिश्र

(बाँदा, उत्तरप्रदेश से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘मुक्तिचक्र’ के प्रवेशांक, जून-2018 में प्रकाशित; संपादक- गोपाल गोयल)

Sunday 15 October 2017

रघुपति भगति सजीवनि मूरी


रघुपति भगति सजीवनि मूरी

रघुपति भगति सजीवनि मूरी । अनूपान श्रद्धा मति पूरी ।।
(तुलसीदास कहते हैं कि रघुपति की भक्ति संजीवनी की जड़ की तरह है। यह भक्ति कंद या फल की भाँति सामने दिखाई देने वाली नहीं है। इसी कारण इसे आसानी से पाया नहीं जा सकता। इसे जमीन को खोदकर निकालना पड़ा है। जटिल और कठिन परिश्रम करना पड़ता है। इसी कारण रघुपति की भक्ति सरल नहीं है, सभी के लिए सुलभ नहीं है। आखिर ऐसे दुर्लभ और जटिल आराध्य रघुपति कौन हैं? उनकी भक्ति, जो संजीवनी मूल या संजीवनी की जड़ की भाँति दुर्लभ और जटिल है, वह कैसी है, और उसे किस प्रकार पाया जा सकता है? उसे पाने के लिए कौन-से प्रयास करने पड़ते हैं और उसे पाने के लिए किस प्रकार की योग्यता की, किन-किन उपरणों की जरूरत पड़ती है? उसका विशद वर्णन बाबा तुलसी ने इस प्रसंग में किया है।)
पुनि सप्रेम बोलेउ खगराऊ । जौं कृपाल मोहि ऊपर भाऊ ।।
नाथ मोहिं निज सेवक जानी । सप्त प्रस्न मम कहहु बखानी ।।1
हिंदी साहित्येतिहास में भक्तिकाल की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि गोस्वामी तुलसीदास की कीर्ति का अक्षय स्रोत श्रीरामचरितमानस है। युगदृष्टा, क्रांतिदर्शी और कालजयी कवि गोस्वामी तुलसीदास की यह कृति रामभक्ति का एक माध्यम-मात्र नहीं है, वरन् इसमें युगानुरूप चेतना के ऐसे तत्त्व विद्यामान हैं, जो भक्तिकालीन स्थितियों-परिस्थितियों से लगाकर वर्तमान तक अपनी प्रासंगिकता को अक्षुण्ण बनाए हुए हैं। इसी कारण देश और काल की परिधि में मानस को नहीं बाँधा जा सकता है। जब प्रश्न साहित्य की सामर्थ्य का उठता है, और साहित्य की प्रासंगिकता-उपादेयता को देश-काल-परिस्थिति की कसौटी में परखने का यत्न होता है, तो मानस को सदैव और सर्वत्र खरा पाते हैं। यह अलग विषय है, कि आज की विकृत और कुत्सित मानसिकता ने मानस को जाति-धर्म-वर्ग के दायरे में बाँधकर इसके लोकमंगलकारी और लोककल्याणकारी पक्षों को विस्मृत कर दिया है।
श्रीरामचरितमानस का आकार वस्तुतः रामभक्त तुलसी की दास्यभक्ति भावना से पुष्ट होकर बनता है, किंतु मानस के प्रणयन में प्रारंभ से पूर्णता की ओर चलते हुए राम की कथा जैसे-जैसे अपने चरम पर पहुँचती है, वैसे-वैसे क्रमशः नीति-नियम और जीवन की व्यावहारिकताओं के पक्ष उद्घाटित होने लगते हैं। उत्तरकांड तक पहुँचते-पहुँचते हम उस धरातल पर उतरने लगते हैं, जहाँ रामभक्त तुलसी की लेखनी विशालकाय समाज को उसकी दिशाहीनता, पथभ्रष्टता और असहायता से मुक्त कराने के लिए छटपटाती प्रतीत होती है।
श्रीरामचरितमानस का उत्तरकांड इसी कारण अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है। बालकांड से लगाकर लंकाकांड तक जिस मनोभूमि को वे खाद-पानी देकर, उर्वर बनाकर तैयार करते हैं, उसमें बीज बोने का कार्य उत्तरकांड में होता है। यहाँ वे स्वयं उपदेशक की भाँति उपदेश नहीं देते, वरन् संवाद शैली में अपनी बात को रखते हैं। वे उपदेशक, प्रचारक या गुरु के रूप में स्वयं को प्रस्तुत नहीं करते। वे नेपथ्य में रहकर अपनी बात को कहते हैं। उत्तरकांड में संवादों का एक क्रम है। रामकथा से निःसृत नवनीत को लोक तक संप्रेषित करने के क्रम में कागभुशुंडि और लोमश ऋषि का संवाद है, जहाँ सगुण और निर्गुण के मध्य श्रेष्ठता और अश्रेष्ठता का द्वंद्व चर्चा में आता है। इस संवाद के माध्यम से बाबा तुलसी अत्यंत सरलता के साथ यह स्पष्ट करते हैं, कि माया से आच्छादित रहने वाला जड़ जीव ब्रह्म सदृश नहीं हो सकता।2 अतः सगुण रूप की आराधना और उससे मन के विकारों का शमन ही युगानुरूप, सर्वस्वीकार्य और सहज होगा।
इसके अगले क्रम में कागभुशुंडि और गरुड़ का संवाद आता है। लोमश ऋषि और कागभुशुंडि के मध्य संवाद का अगला चरण कागभुशुंडि और गरुड़ के संवाद में प्रत्यक्ष होता है, जहाँ गरुड़ कागभुशुंडि से निवेदन करते हैं, कि यदि आप मुझ पर कृपावान हैं, और मुझे अपना सेवक मानते हैं, तो कृपापूर्वक मेरे सात प्रश्नों के उत्तर दीजिए। गरुड़ जी प्रश्न करते हैं-
प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा । सब तें दुर्लभ कवन सरीरा ।।
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी । सोइ संछेपहिं कहहु बिचारी ।।
संत असंत मरम तुम जानहु । तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु ।।
कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला । कहहु कवन अघ परम कराला ।।
मानस रोग कहहु समुझाई । तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ।।3
गरुड़ प्रश्न करते हैं कि हे नाथ! सबसे दुर्लभ शरीर कौन-सा है। कौन सबसे बड़ा दुःख है। कौन सबसे बड़ा सुख है। साधु और असाधु जन का स्वभाव कैसा होता है। वेदों में बताया गया सबसे बड़ा पाप कौन-सा है। इसके बाद वे सातवें प्रश्न के संबंध में कहते हैं कि मानस रोग समझाकर बतलाएँ, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं।
गरुड़ के प्रश्न के उत्तर में कागभुशुंडि कहते हैं कि मनुष्य का शरीर दुर्लभ और श्रेष्ठ है, क्योंकि इस शरीर के माध्यम से ही ज्ञान, वैराग्य, स्वर्ग, नरक, भक्ति आदि की प्राप्ति होती है।4 वे कहते हैं कि दरिद्र के समान संसार में कोई दुःख नहीं है और संतों (सज्जनों) के मिलन के समान कोई सुख नहीं है।5 मन, वाणी और कर्म से परोपकार करना ही संतों (साधुजनों) का स्वभाव होता है।6 किसी स्वार्थ के बिना, अकारण ही दूसरों का अपकार करने वाले दुष्ट जन होते हैं। वेदों में विदित अहिंसा ही परम धर्म और पुण्य है, और दूसरे की निंदा करने के समान कोई पाप नहीं होता है।7
गरुड़ के द्वारा पूछे गए सातवें प्रश्न का उत्तर अपेक्षाकृत विस्तार के साथ कागभुशुंडि द्वारा दिया जाता है। सातवें और अंतिम प्रश्न के उत्तर में प्रायः वे सभी कारण निहित हैं, जो अनेक प्रकार के दुःखों का कारण बनते हैं। इस कारण बाबा तुलसी मानस रोगों का विस्तार से वर्णन करते हैं।
सुनहु तात अब मानस रोगा । जिन्ह तें दुख पावहिं सब लोगा ।।
मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला । तिन्ह तें पुनि उपजहिं बहु सूला ।।
काम बात कफ लोभ अपारा । क्रोध पित्त नित छाती जारा ।।
प्रीति करहिं जौ तीनिउ भाई । उपजइ सन्यपात दुखदाई ।।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना । ते सब सूल नाम को जाना ।।8
कागभुशुंडि कहते हैं कि मानस रोगों के बारे में सुनिए, जिनके कारण सभी लोग दुःख पाते हैं। सारी मानसिक व्याधियों का मूल मोह है। इसके कारण ही अनेक प्रकार के मनोरोग उत्पन्न होते हैं। शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले वात, कफ और पित्त की भाँति क्रमशः काम, अपार लोभ और क्रोध हैं। जिस प्रकार पित्त के बढ़ने से छाती में जलन होने लगती है, उसी प्रकार क्रोध भी जलाता है। यदि ये तीनों मनोविकार मिल जाएँ, तो कष्टकारी सन्निपात की भाँति रोग लग जाता है। अनेक प्रकार की विषय-वासना रूपी मनोकांक्षाएँ ही वे अनंत शूल हैं, जिनके नाम इतने ज्यादा हैं, कि उन सबको जानना भी बहुत कठिन है।
बाबा तुलसी इस प्रसंग में अनेक प्रकार के मानस रोगों, जैसे- ममता, ईर्ष्या, हर्ष, विषाद, जलन, दुष्टता, मन की कुटिलता, अहंकार, दंभ, कपट, मद, मान, तृष्णा, मात्सर्य (डाह) और अविवेक आदि का वर्णन करते हैं और शारीरिक रोगों के साथ इनकी तुलना करते हुए इन मनोरोगों की विकरालता को स्पष्ट करते हैं।9
यहाँ मनोरोगों की तुलना शारीरिक व्याधियों से इस प्रकार और इतने सटीक ढंग से की गई है, कि किसी भी शारीरिक व्याधि की तीक्ष्णता और जटिलता से मनोरोग की तीक्ष्णता और जटिलता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। शरीर का रोग प्रत्यक्ष होता है और शरीर में परिलक्षित होने वाले उसके लक्षणों को देखकर जहाँ एक ओर उपचार की प्रक्रिया को शुरू किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर व्याधिग्रस्त व्यक्ति को देखकर अन्य लोग उस रोग से बचने की सीख भी ले सकते हैं। सामान्यतः मनोरोग प्रत्यक्ष परिलक्षित नहीं होता, और मनोरोगी भी स्वयं को व्याधिग्रस्त नहीं मानता है। इस कारण से बाबा तुलसी ने मनोरोगों की तुलना शारीरिक रोगों से करके एकदम अलग तरीके से सीख देने का कार्य किया है।
कागभुशुंडि कहते हैं कि एक बीमारी-मात्र से व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और यहाँ तो अनेक असाध्य रोग हैं। मनोरोगों के लिए नियम, धर्म, आचरण, तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान आदि अनेक औषधियाँ हैं, किंतु ये रोग इन औषधियों से भी नहीं जाते हैं।10 इस प्रकार संसार के सभी जीव रोगी हैं। शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग से दुःख की अधिकता हो जाती है। इन तमाम मानस रोगों को विरले ही जान पाते हैं। जानने के बाद ये रोग कुछ कम तो होते हैं, मगर विषय-वासना रूपी कुपथ्य पाकर ये साधारण मनुष्य तो क्या, मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो जाते हैं।11
मनोरोगों की विकरालता का वर्णन करने के उपरांत इन रोगों के उपचार का वर्णन भी होता है। कागभुशुंडि के माध्यम से तुलसीदास कहते हैं कि सद्गुरु रूपी वैद्य के वचनों पर भरोसा करते हुए विषयों की आशा को त्यागकर संयम का पालन करने पर श्रीराम की कृपा से ये समस्त मनोरोग नष्ट हो जाते हैं।12
रघुपति भगति सजीवनि मूरी । अनूपान श्रद्धा मति पूरी ।।13
इन मनोरोगों के उपचार के लिए श्रीराम की भक्ति संजीवनी जड़ की तरह है। श्रीराम की भक्ति को श्रद्धा से युक्त बुद्धि के अनुपात में निश्चित मात्रा के साथ ग्रहण करके मनोरोगों का शमन किया जा सकता है। यहाँ तुलसीदास ने भक्ति, श्रद्धा और मति के निश्चित अनुपात का ऐसा वैज्ञानिक-तर्कसम्मत उल्लेख किया है, जिसे जान-समझकर अनेक लोगों ने मानस को अपने जीवन का आधार बनाया और मनोरोगों से मुक्त होकर जीवन को सुखद और सुंदर बनाया।
यहाँ पर श्रीराम की भक्ति से आशय कर्मकांडों को कठिन और कष्टप्रद तरीके से निभाने, पूजा-पद्धतियों का कड़ाई के साथ पालन करने और इतना सब करते हुए जीवन को जटिल बना लेने से नहीं है। इसी प्रकार श्रद्धा भी अंधश्रद्धा नहीं है। भक्ति और श्रद्धा को संयमित, नियंत्रित और सही दिशा में संचालित करने हेतु मति है। मति को नियंत्रित करने हेतु श्रद्धा और भक्ति है। इन तीनों के सही और संतुलित व्यवहार से श्रीराम का वह स्वरूप प्रकट होता है, जिसमें मर्यादा, नैतिकता और आदर्श है। जिसमें लिप्सा-लालसा नहीं, त्याग और समर्पण का भाव होता है। जिसमें विखंडन की नहीं, संगठन की; सबको साथ लेकर चलने की भावना निहित होती है। जिसमें सभी के लिए करुणा, दया, ममता, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य जैसे उदात्त गुण परिलक्षित होते हैं। श्रद्धा, भक्ति और मति का संगठन जब श्रीराम के इस स्वरूप को जीवन में उतारने का माध्यम बन जाता है, तब असंख्य मनोरोग दूर हो जाते हैं। स्वयं का जीवन सुखद, सुंदर, सरल और सहज हो जाता है। जब अंतर्जगत में, मन में रामराज्य स्थापित हो जाता है, तब बाह्य जगत के संताप प्रभावित नहीं कर पाते हैं।
इसी भाव को लेकर, आत्मसात् करके विसंगतियों, विकृतियों और जीवन के संकटों से जूझने की सामर्थ्य अनगिनत लोगों को तुलसी के मानस से मिलती रही है। यह क्रम आज का नहीं, सैकड़ों वर्षों का है। यह क्रम देश की सीमाओं के भीतर का ही नहीं, वरन् देश से बाहर कभी गिरमिटिया मजदूर बनकर, तो कभी प्रवासी बनकर जाने वाले लोगों के लिए भी रहा है। सैकड़ों वर्षों से लगाकर वर्तमान तक अनेक देशों में रहने वाले लोगों के लिए तुलसी का मानस इसी कारण पथ-प्रदर्शक बनता है, सहारा बनता है। आज के जीवन की सबसे जटिल समस्या ऐसे मनोरोगों की है, मनोविकृतियों की है, जिनका उपचार अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के पास भी उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में तुलसीदास का मानस व्यक्ति से लगाकर समाज तक, सभी को सही दिशा दिखाने, जीवन को सन्मार्ग में चलाने की सीख देने की सामर्थ्य रखता है।
संदर्भ-
1. गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस, लोकभारती टीका, योगेंद्रप्रताप सिंह, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 1999, 7/1-2/121, पृ. 947,
2. वही, 7/111, पृ. 934,
3. वही, 7/3-7/121, पृ. 947,
4. वही, 7/9-10/121, पृ. 947,
5. वही, 7/13/121, पृ. 947,
6. वही, 7/14/121, पृ. 948,
7. वही, 7/22/121, पृ. 948,
8. वही, 7/28-32/121, पृ. 948,
9. वही, 7/33-37/121, पृ. 949,
10.        वही, 7/दोहा 1-2/121, पृ. 949,
11.        वही, 7/1-4/122, पृ. 949-950,
12.        वही, 7/5-6/122, पृ. 950,
13.  वही, 7/7/122, पृ. 950 
डॉ. राहुल मिश्र

(अखिल भारतीय साहित्य परिषद न्यास के जबलपुर अधिवेशन- 2017 में प्रस्तुत एवं साहित्य परिक्रमा के 15वाँ वार्षिक अधिवेशन विशेषांक, अक्टूबर-दिसंबर, 2017 में प्रकाशित)