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Sunday 25 September 2016

लदाख की थङ्का चित्रकला

लदाख की थङ्का चित्रकला

हिमालय के ऊँचे-ऊँचे पहाड़, आसमान को छूते हुए। पहाड़ों की चोटियों पर चमकती सफेद बर्फ। साफ, धुले हुए जैसे दिखने वाले नीले गगन में तैरते रूई के गोलों जैसे बादलों के झुंड। सूरज की रोशनी में लालिमा से भरी बादलों की टुकड़ियाँ। प्रकृति के इस मनमोहक नजारे को लदाख की धरती पर देखा जा सकता है। लदाख में प्रचलित चित्रकलाओं में प्रकृति के ऐसे नज़ारे देखने को मिलते हैं। लदाख धर्म और साधना की भूमि रही है, इसलिए यहाँ की अधिकांश चित्रकला भी धार्मिक आस्था से जुड़ी हुई है। धार्मिक कार्यों में प्रयुक्त होने वाले चित्र इस क्षेत्र में बहुत पुराने समय से प्रचलित रहे होंगे, इसलिए लदाख की गोनपाओं में सुशोभित पट्टचित्र, जिन्हें स्थानीय भाषा में थङ्का कह जाता है, उनमें ऐसे प्राकृतिक सौंदर्य को देखा जा सकता है। मोटे कपड़े में बने हुए बुद्ध, बोधिसत्व, तांत्रिक देवी-देवताओं और तांत्रिक मंडलों आदि के चित्रों को थङ्का कहा जाता है। अगर अतीत में उतरकर देखें, तो इन पट्टचित्रों या थङ्काओं में लदाख के अतीत की झाँकी देखने को मिलती है।
लदाख के इस प्राकृतिक सौंदर्य के बीच जीवन की जटिलता भी कम नहीं है। आवागमन के साधनों की, संसाधनों की और दैनिक जीवन के लिए उपयोगी वस्तुओं की कमी यहाँ के जीवन को जटिल बना देती है। जब जीवन कठिन हो जाता है और जीवन की कठिनाइयों से जूझने के लिए कोई बाहरी रास्ता नज़र नहीं आता, तब एक ही रास्ता बचता है- आस्था का। अतीत में, जब जीवन की जटिलताएँ बहुत ज्यादा थीं, उस समय आस्था भी प्रबल थी। इसी कारण पूजा और साधना के लिए विविध माध्यमों का विकास हुआ। साधकों और तपस्वियों के लिए साधना के अलग रूप हो सकते हैं, मगर आम जनता के लिए उन कठिन रास्तों को अपनाना कठिन होता है। शायद इसी जरूरत ने आम जनता के लिए आस्था के फलने-फूलने के माध्यमों का विकास किया। बौद्ध धर्म में इसी कारण मूर्तियों, स्तूपों, चित्रों, देवालयों और मठों को पूजा एवं साधना में विशेष स्थान मिला। संस्कृत में श्लोक है-
संबुद्धचित्र-  मूर्त्यादिस्तूपसद्धर्मसंमुखः ।
पुष्पैः धूपैः पदार्थैश्च यथाप्राप्तैः सुपूजयेत् ।।
अर्थात्, भगवान् बुद्ध के चित्र, मूर्ति, स्तूप आदि सद्धर्म के प्रतिरूप हैं। इनके समक्ष अपनी भक्ति-भावना को प्रकट करना ही सच्चा धर्म है। इसलिए पुष्प, धूप और अन्य पूजा-सामग्री के साथ पूरी आस्था के साथ इनकी पूजा करनी चाहिए। इससे पुण्य का लाभ होता है। इसी कारण भगवान् बुद्ध की मूर्तियाँ, उनके चित्र और स्तूप आदि की पूजा का विशेष विधान लदाख अंचल में देखने को मिलता है। विभिन्न परंपराओं तथा शैलियों से संपन्न ये कलाएँ  बोधिप्राप्ति के लिए उपयोगी बनकर लदाख के जनजीवन में गहराई तक उतरी हुई हैं। बौद्ध धर्म में शमथ, अर्थात् मन की शांति पाने का प्रयास ही साधना के प्रथम चरण में होता है। इस प्रकार शमथ या मन की शांति ही साधना की पहली सीढ़ी है, जिसे पाने के बाद अभिज्ञा बल, अर्थात् समझने-विचारने की शक्ति प्राप्त होती है। इस अभिज्ञा बल की साधना से सम्बोधि की प्राप्ति होती है। इस प्रकार सम्बोधि के स्तर तक पहुँचने के लिए साधकों को शमथ की पहली सीढ़ी चढ़नी होती है, जो मूर्ति तथा चित्रकलाओं के माध्यम से पाई जा सकती है। आचार्य दीपांकर श्रीज्ञान अतिशा ने इसी कारण शमथ की साधना हेतु मूर्ति तथा चित्रकलाओं के महत्त्व पर बल दिया है।
लदाख अंचल अपने अतीत से ही बौद्ध साधना का प्रमुख केंद्र रहा है और यहाँ पर अनेक कलाओं का विकास भी होता रहा है, जिनका महत्त्व बौद्ध धर्म की साधनाओं में, विभिन्न साधना-पद्धतियों में है। स्तूपों, मूर्तियों और भित्तिचित्रों के साथ ही लदाख अंचल में प्रचलित थङ्का चित्रकला इसी कारण अपना विशेष महत्त्व रखती है। लदाख में थङ्का चित्रकला के विकास का इतिहास भी बहुत रोचक और विविधता से भरा हुआ है। भोट भाषा में एक धर्मशासक जिग-तुल का उल्लेख मिलता है, जिन्हें भारतीय परंपरा में राजा भयजित के रूप में जाना जाता है। राजा भयजित ने एक ब्राह्मण के दिवंगत बेटे को पुनः जीवित करने के लिए ब्रह्मा जी के कहने पर ब्राह्मण के बेटे का चित्र बनाया और ब्रह्मा जी ने उसे जीवन दिया। इस प्रकार राजा भयजित को संसार के पहले चित्रकार के रूप में जाना गया। राजा भयजित या जिग-तुल से ब्रह्मा जी ने कहा कि जिस तरह पर्वतों में मेरु श्रेष्ठ है, पक्षियों में गरुड़ श्रेष्ठ है, उसी तरह विभिन्न कलाओं में चित्रकला श्रेष्ठ है, इसलिए चित्रकला को प्रोत्साहित करो। इसके उपरांत ही ब्रह्मलोक के राजा और विश्वकर्मा जी ने चित्रकला की शिक्षा उपलब्ध कराई और इसके लाभ को, इससे होने वाले धर्मार्थ को जनता के लिए सुलभ कराया। चित्रकला की उत्पत्ति एवं विकास से संबंधित इस लोककथा का वर्णन बौद्ध ग्रंथ तंग्युर में मिलता है। एक अन्य लोककथा के अनुसार चित्रकला का उद्भव वर्तमान बिहार के मगध राज्य में हुआ। यहाँ के राजा बिंबिसार और राजा उत्तायण घनिष्ठ मित्र थे और एक-दूसरे को बहुमूल्य उपहार भेजा करते थे। एक बार उत्तायण ने बहुमूल्य मणि बिबिंसार को भेजी। बदले में बिंबिसार ने उन्हें भगवान बुद्ध का चित्र भेजना सुनिश्चित किया। भगवान बुद्ध की अलौकिक छवि से ऐसी विलक्षण किरणें निकलने लगीं कि चित्रकारों को चित्र बनाना ही कठिन हो गया और तब भगवान बुद्ध ने कहा कि कपड़े पर पड़ रही मेरी छाया को ही रंग दो। इस तरह बने हुए चित्र को बिंबिसार ने अपने मित्रको उपहारस्वरूप भेजा और यहीं से चित्रकला की शुरुआत हुई। बौद्ध ग्रंथों में भी भगवान बुद्ध के चित्र बनाने की कला का वर्णन मिलता है। इन ग्रंथों में विनय सूक्त, मंजुश्री मूलकल्प और समवरोदया तंत्र आदि का उल्लेख किया जा सकता है। लदाख में थङ्का चित्रकला के विकास को इन कथाओं और ग्रंथों में देखा जा सकता है।


लदाख में थङ्का चित्रकला के विस्तार की एक धारा कश्मीर से आई। कहा जा सकता है कि लदाख अंचल में चित्रकला का प्रारंभिक आगमन कश्मीर से ही हुआ। कश्मीर में हर्ष के समय से ही कुछ ऐसे चित्रकार थे, जिन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त था। कश्मीर में नाग शैली के साथ ही गौड़ीय और कोंकणी शैली भी प्रचलित थी, जो लदाख अंचल के निचले इलाकों में प्रचलित हुई। लदाख में थङ्का चित्रकला की दूसरी धारा तिब्बत से आई। तिब्बत में थङ्का चित्रकला की परंपरा नेपाल और चीन से पहुँची। सातवीं शताब्दी में तिब्बत के राजा स्रोंङ्-चेन-गम्पो ने नेपाल की राजकुमारी भृकुटी देवी और चीन की राजकुमारी कोंग-जोङ् से विवाह किया था। इन दोनों के साथ ही नेपाली चित्रकला शैली और चीनी चित्रकला शैली का तिब्बत में विस्तार हुआ। इस कारण दोनों रानियों को तारादेवी के अवतार के रूप में प्रतिष्ठा भी प्राप्त हुई है। नेपाली और चीनी चित्रकला परंपरा मूलतः भारतीय ही थी, जो स्थान और समय के अनुरूप अपने परिवर्तित रूप में तिब्बत में विकसित हुई। ग्यारहवीं शताब्दी में तिब्बत के प्रख्यात अनुवादक लोचावा रिंचेन जङ्पो के साथ कश्मीरी चित्रकला परंपरा भी तिब्बत पहुँची। इस तरह तिब्बत में कश्मीरी, पाल, चीनी, नेपाली, मंगोलियाई और खोतानी चित्रकलाओं के संगम से एक नई चित्रकला परंपरा का उदय हुआ। तिब्बत में विकसित हुई इस चित्रकला परंपरा में दो प्रमुख पद्धतियाँ प्रचलित हुईं। इनमें मन्-रिस् चित्रकला परंपरा का विकास नेपाल की शैली के प्रभाव में हुआ। इसमें नीले, हरे और सुनहरे चटक रंगों का प्रयोग किया जाता है। करमा-गरङिस् या गरचित्र परंपरा का विकास चीनी शैली से हुआ। इसमें हलके रंगों का प्रयोग होता है। तिब्बत का त्सङ् नामक स्थान थङ्का चित्रकला के अध्ययन-अध्यापन एवं निर्माण के लिए प्रसिद्ध था और यहाँ पर विकसित हुई थङ्का चित्रकला शैली को स्थान-नाम के अनुसार त्सङ्-रिस् नाम मिला। लदाख के भिक्षुगणों ने प्रायः यहीं से अध्ययन करके लदाख में त्सङ्-रिस् नामक चित्रकला शैली को विकसित किया। इस कारण लदाख में त्सङ्-रिस् थङ्का चित्रकला अपेक्षाकृत अधिक देखने को मिलती है।    
जिस समय कश्मीर सहित दुनिया के तमाम देशों में बौद्ध धर्म की महायान परंपरा का अस्तित्व सिमट रहा था, उस समय तिब्बत में यह परंपरा फल-फूल रही थी। लदाख अंचल के अनेक भिक्षु और बौद्ध विद्वान ज्ञानार्जन के लिए तिब्बत जाते थे। लदाख से तिब्बत आवागमन का यह क्रम तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के आसपास अपने चरम पर था। चूँकि महायान साधना पद्धति में चित्रकला का महत्त्वपूर्ण स्थान था, इस कारण लदाख के भिक्षुओं को चित्रकला का ज्ञान अनिवार्य रूप से प्राप्त करना होता था। वे लदाख लौटते समय थङ्का चित्रों के साथ ही इनके निर्माण का ज्ञान भी अपने साथ लाए और कालांतर में लदाख में थङ्का चित्रकला की उस परंपरा का विकास हुआ, जिसे आज हम जीवंत रूप में लदाख की धार्मिक परंपराओं और रिवाजों में देखते हैं। लदाख में विभिन्न कलाओं का विकास पंद्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में हुआ। इसी अवधि में लदाख में थङ्का चित्रकला भी विकसित हुई। लदाख की अनेक गोनपाओं में इस अवधि के थङ्का चित्रों को देखा जा सकता है। इनमें से कई थङ्का चित्र अत्यंत दुर्लभ हैं और धार्मिक महत्त्व के साथ ही यहाँ के निवासियों की कलाप्रियता को भी प्रदर्शित करते हैं।
थङ्का चित्रों को बनाना अत्यंत पुनीत और धार्मिक कार्य माना जाता है। इस कारण थङ्का चित्रकारों को बौद्ध धर्म में बताए गए शील और विनय का पालन करना अनिवार्य होता है। बदलते परिवेश में भले ही नियमों में शिथिलता आई हो, गमर आज भी तङ्का चित्रकार बड़ी सरल और विनम्र जीवन-शैली व्यतीत करते देखे जा सकते हैं। थङ्का चित्रों को बनाने के लिए जिस मोटे कपड़े का प्रयोग होता है, उसे काशिका कहा जाता है। काशी से आने के कारण ही संभवतः इसे काशिका कहा जाता है। कपड़े को चित्रांकन के लिए तैयार करने से पहले गुनगुने पानी में गोंद और चूना मिलाकर भिगोया जाता है, फिर उसे लकड़ी के बने साँचे में कस दिया जाता है। इसे धूप में सुखाने के बाद चूने का पानी छिड़ककर घिसा जाता है। कड़ी मेहनत के बाद यह चित्रांकन के लिए तैयार होता है। थङ्का चित्रों के निर्माण के लिए शास्त्रीय विधि से माप और रंगों का चयन किया जाता है। देवी-देवताओं, धर्मपालों और मंडलों के चित्र-निर्माण हेतु निश्चित माप और रंग-संयोजन होता है। माप और रंग-संयोजन के आधार पर थङ्का चित्र कई प्रकार के होते हैं। लदाख में विभिन्न प्रकार के थङ्का चित्रों को बनाने का प्रचलन है। इनमें त्सोन-थङ् थङ्का विभिन्न प्रकार के तैलीय रंगों को सफेद पृष्ठभूमि में उकेरकर करके बनाई जाती है। सेर-थङ् थङ्का में सोने की परत पर सिंदूरी रंग से चित्रण किया जाता है। ङुल-थङ् में छोन-थङ् और सेर-थङ् का मिश्रण होता है। नग-थङ् थङ्का का निर्माण सफेद कपड़े पर काले रंग की पृष्ठभूमि देकर सुनहरे रंग के साथ रंगकर किया जाता है। थग-डुब थङ्का का निर्माण सोने और चाँदी के धागों से किया जाता है। छ़ेम-डुब थङ्का का निर्माण अनेक धागों की कढ़ाई के द्वारा किया जाता है। रेशमी वस्त्र पर गोस-डु थङ्का का निर्माण होता है, जबकि लेन-देबस् थङ्का में सफेद कपड़े पर कपड़ों के रंग-बिरंगे टुकड़ों को चिपकाकर चित्राकृति दी जाती है। तैलीय रंगों के प्रयोग की सुगमता के कारण वर्तमान में त्सोन-थङ् थङ्का के निर्माण का प्रचलन देखा जा सकता है।
थङ्का निर्माण की प्रकिया में सबसे पहले खाका बनाने का काम होता है, जिसे नक्-च्यत् कहा जाता है। खाके में रंग भरने के काम को त्सोन कहते हैं। रंगों के संयोजन और उनके विस्तार को शिब-छा कहते हैं। चित्र में रंगों को गहरा करके छाया दर्शाने का काम कम-म्दंग्स (skam mdangs) कहलाता है। चित्र में सोने की जैसी चमक पैदा करने हेतु ग्जी (gzi) और सुनहरे रंग से किनारा करने के लिए सेर-च्यत् का कार्य संपन्न किया जाता है और अंत में आँखों के निर्माण स्च्यन-फस के साथ चित्र अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। बने हुए चित्र को उपयोग के लिए तैयार करने और सुरक्षित रखने हेतु सुंदर-से रंग-बिरंगे आयताकार कपड़े कोङ्-शम् में बीचोबीच सिल दिया जाता है। कपड़े के दोनों किनारों पर सुंदर नक्काशीदार बेलनाकार लकड़ी लगाई जाती है, जिस पर कपड़े को लपेटा जा सके। इस प्रकार थङ्का चित्र तैयार हो जाता है।

लदाख की धार्मिक परंपराओं में थङ्का चित्रों का बहुत महत्त्व होता है। इन्हें गोनपाओं में प्रदर्शित किया जाता है। लदाख की अनेक प्रमुख प्राचीन गोनपाओं में अनेक बहुमूल्य थङ्काएँ हैं। इनमें से कई थङ्काएँ पाँच से दस मीटर तक लंबी भी हैं। ये प्राचीन बहुमूल्य थङ्काएँ गोनपाओं के वार्षिक पूजा-अनुष्ठान के समय श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ प्रदर्शित की जाती हैं। बेशकीमती थङ्काओं के साथ ही विभिन्न देवी-देवताओं, अर्हतों, धर्मपालों, तांत्रिक मंडलों की अनेक थङ्काएँ भी गोनपाओं में श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ प्रदर्शित की जाती हैं। लदाख की लोकपरंपरा में थङ्का चित्रकलाओं को जीवित-जीवंत रखने के लिए अनूठी व्यवस्था की गई है। समाज के धनी व्यक्ति अकसर गंभीर बीमारियों से बचने के लिए या किसी गंभीर बीमारी से बच जाने पर थङ्का चित्र का निर्माण कराकर गोनपा में भेंट करते हैं। इसके साथ ही अपने दिवंगत प्रियजन की आत्मा की शांति के लिए भी लोग थङ्का चित्रों का निर्माण कराते हैं और उन्हें गोनपाओं में चढ़ाते हैं। लोकपरंपरा में जीवित रहने के कारण थङ्का चित्रों के निर्माण की पुरानी परंपरा आज भी जीवित है। लदाख अंचल में थङ्का चित्रकला को संरक्षित एवं सवर्द्धित करने हेतु जम्मू-कश्मीर के हस्तशिल्प विभाग द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है। आजकल परंपरागत थङ्का चित्रकला के साथ चित्रांकन की आधुनिक पद्धतियों के संयोजन से चित्रांकन की नई तकनीक विकसित हुई है, जिसकी आजकल बहुत माँग है। लदाख में आने वाले देशी-विदेशी पर्यटकों को भी थङ्का चित्र बहुत प्रभावित करते हैं और वे भी अत्यंत आस्था के साथ इन्हें खरीदते हैं।
इस प्रकार लदाख अंचल में थङ्का चित्रकला अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ लदाख में बौद्ध धर्म की अपनी अनूठी धार्मिक पहचान को सहेजे हुए है। लदाख की थङ्का चित्रकला के माध्यम से एक ओर भारतीय चित्रकला संरक्षित है, तो दूसरी ओर यह थङ्का चित्रकला देश-दुनिया को अपने अनोखे आध्यात्मिक ज्ञान से आलोकित भी कर रही है।
कार्यकारी संपादक- नूतनवाग्धारा


      (दूरदर्शन केंद्र, लेह-लदाख द्वारा वृत्तचित्र-निर्मा एवं दिनांक 13 नवंबर, 2015 को 1800 बजे प्रसारित)
(एक तिब्बती थङ्का चित्रकार)
                   

Tuesday 23 February 2016


रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह
विज्ञान और विकास
मानव सभ्यता के विकास के साथ विज्ञान का गहरा संबंध है। आज विकास के जिन आयामों को हम अपने आसपास देखते हैं, वे सभी विज्ञान के माध्यम से ही संभव हो सके हैं। अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों में हमने चंद्रमा ही नहीं, मंगल ग्रह तक उपस्थिति दर्ज कराई है। नगरों और महानगरों में ऊँची-ऊँची बहुमंजिला इमारतों में, सूचना और संचार क्रांति से समृद्ध नगरों और गाँवों में, उन्नत तकनीक से संपन्न उद्यमों और कृषिकार्यों में नए प्रयोगों को, विज्ञान के प्रभाव को देखा जा सकता है। विकास के ये सारे मानक विज्ञान के माध्यम से ही संभव हो सके हैं। दुनिया-भर में हो रहीं नित नवीन खोजों ने, नए-नए अनुसंधानों ने भौतिक विकास को इतनी गति प्रदान की है कि आज मानव जीवन अनेक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण हो गया है। विज्ञान की भूमिका को भौतिक विकास के संदर्भ में अपने आसपास होते बदलावों के माध्यम से समझा जा सकता है।

विज्ञान और विकास के संबंध का एक अन्य पक्ष मानव के जिज्ञासु स्वभाव से भी जुड़ा हुआ है। भदंत आनंद कौसल्यायन अपने निबंध संस्कृति में लिखते हैं कि आसमान में चमकते तारों और ग्रह-नक्षत्रों को जानने की जिज्ञासा, मानव-जीवन को संस्कारों व गुणों से सुसंस्कृत करने वाले ज्ञान के प्रति जिज्ञासा ने विकास के उस पक्ष को समृद्ध किया है, जिसकी जरूरत हमेशा ही मानवता के लिए रही है। इस प्रकार विज्ञान की अनिवार्यता केवल भौतिक विकास के लिए ही नहीं रही है, बल्कि आध्यात्मिक और सहज मानवीय गुणों के विकास के लिए भी रही है। इस प्रकार विज्ञान को मानव सभ्यता के विकास की कहानी से जोड़कर भी देखा जा सकता है। आदिमानव या वनमानुष पेड़ों में रहा करता था। जब उसने धरती पर उतरकर मानव का रूप लिया, तब उसे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि वह अन्य जीवधारियों की तरह बलशाली नहीं था। उसके पास अन्य जीवधारियों की तरह शिकार करके अपना जीवन चलाने की शक्ति भी नहीं थी। वह शेर की तरह वन का राजा नहीं था। वह हाथी की तरह बलशाली, हिरन की तरह फुर्तीला या पक्षियों की तरह उड़ने में सक्षम भी नहीं था। अन्य जीवधारियों की तुलना में उसके पास जो शक्ति थी, वह थी उसके सोचने-विचारने की ताकत और उसके दो हाथ। मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीवधारी है, जो अपने दो पैरों के बल पर भाग सकता है और अपने दो हाथों से काम कर सकता है। मनुष्य ने अपने सोचने-विचारने की ताकत के बल पर ही न केवल धरती पर एकाधिकार स्थापित किया, वरन् दूसरे ग्रहों तक अपनी पहुँच बनाई। यह विज्ञान का ही चमत्कार है, जिसने आदिमानव को आज के जैसा सभ्य-सुसंस्कृत बनाया।

अगर भारतीय विज्ञान की परंपरा की चर्चा की जाए, तो कहा जा सकता है कि जिस समय यूरोपीय घुमक्कड़ जातियाँ अपनी बस्तियाँ बनाना सीख रही थीं, उस समय भारत में सिंधु घाटी के लोग सुनियोजित ढंग से नगर बनाकर रहने लगे थे। मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, चन्हूदड़ो, बनवाली, सुरकोटड़ा आदि स्थानों पर हुई खुदाई से पता लगता है कि इन नगरों के भवन पक्की ईंटों के बने हुए थे। यहाँ से जहाजों द्वारा विदेशी व्यापार होता था। यहाँ के नागरिक आवागमन के लिए बैलगाड़ियों का प्रयोग करना जानते थे। माप-तौल का उन्हें ज्ञान था। वे काँसे के बने औजारों का उपयोग करते थे। सोने-चाँदी के आभूषणों का प्रयोग किया जाना स्पष्ट करता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के विकसित होने तक खनन विद्या की जानकारी भी सुलभ हो चुकी थी। ये लोग सूती और ऊनी वस्त्र बनाना भी भली-भाँति जानते थे। वैदिक काल में भारतीयों को 27 नक्षत्रों का ज्ञान हो चुका था। लगध नामक ऋषि ने ज्योतिष वेदांग में तत्कालीन खगोल विद्या का व्यापक वर्णन किया है। गणित और ज्यामिति के साथ ही वैमानिकी और चिकित्साशास्त्र आदि क्षेत्रों में विज्ञान के व्यापक विस्तार को देखा जा सकता है। आर्यभट, वरःमिहिर, ब्रह्मगुप्त, बोधायन, चरक, सुश्रुत, नागार्जुन, कणाद और सवाई जयसिंह तक प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों की लंबी परंपरा को देखा जा सकता है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति और सभ्यता को उस समय श्रेष्ठता की ऊँचाइयों पर स्थापित किया था। जर्मनी के प्रसिद्ध खगोलविज्ञानी कॉपरनिकस से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व आर्यभट ने पृथ्वी की गोलाकार आकृति और इसके अपनी धुरी पर घूमने की पुष्टि कर दी थी। आइजक न्यूटन द्वारा खोजे गए गुरुत्वाकर्षण के नियम से हजार वर्ष पहले ही आचार्य ब्रह्मगुप्त ने बता दिया दिया था कि धरती में अपना बल होता है, जो वस्तुओं को अपनी ओर खींचे रखता है। यूरोपीय विद्वान ब्रुक टेलर (Brook Taylor) ने गणित का जो ज्ञान सोलहवीं शताब्दी में दिया, उसे वरःमिहिर ने अपने ग्रंथ सूर्य सिद्धांत में छठी शताब्दी में ही बता दिया था। यूरोपीय गणितज्ञ लैम्बर्ट ने सन् 1761 में पाई के तर्कहीन (Irrational) होने का सिद्धांत दिया था, जबकि आर्यभट ने लैम्बर्ट से लगभग ग्यारह सौ वर्ष पूर्व ही वृत्त की परिधि और व्यास के अनुपात (पाई) का मान 3.1416 निकालकर सिद्ध कर दिया था कि पाई का यह मान अतुलनीय (Irrational) है। कणाद ऋषि ने छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ही सिद्ध कर दिया था कि विश्व का हर पदार्थ परमाणुओं से मिलकर बना है। छठी शताब्दी में ही ब्रह्मगुप्त ने शून्य को प्रयोग में लाने के नियम निर्धारित कर दिए थे। पेल इक्वेशन के नाम से प्रसिद्ध वर्ग समीकरण का हल जॉन पेल से लगभग हजार वर्ष पूर्व आचार्य ब्रह्मगुप्त ने दे दिया था।
चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत का गौरवशाली अतीत रहा है। चिकित्सा विज्ञान की यह सुदीर्घ परंपरा अथर्ववेद में विकसित हो गई थी। महर्षि चरक द्वारा लिखी गई चरक संहिता काय चिकित्सा का पहला ग्रंथ है। जीवक कौमारभच्च बालरोग विशेषज्ञ थे। अनेक बौद्ध ग्रंथों में उनके चिकित्सा ज्ञान की प्रशंसा मिलती है। वे भगवान बुद्ध के निजी वैद्य भी थे। सुश्रुत संहिता के रचयिता सुश्रुत को आज सारे संसार में प्लास्टिक सर्जरी का जनक माना जाता है। महर्षि पतंजलि ने योग के माध्यम से शरीर को रोगमुक्त रखने का उपाय बताया था। आज सारा संसार योग की शक्ति को स्वीकार कर रहा है। चिकित्सा विज्ञान के साथ ही वास्तु, स्थापत्य और शिल्प के क्षेत्र में भारत की प्रगति को सारा संसार स्वीकार करता है। कुतुबमीनार के निकट स्थापित महरौली का लौह स्तंभ लगभग 1700 वर्षों से ज्यों-का-त्यों खड़ा है। उसमें जंग का नामोनिशान तक नहीं है। कोणार्क के सूर्य मंदिर परिसर में स्थापित लौह स्तंभ भी इसी प्रकार का है।
नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के साथ ही ओदांतपुरी (वर्तमान बिहार), नागार्जुनकोंडा (वर्तमान आंध्रप्रदेश), जगद्दला (वर्तमान पश्चिम बंगाल), वलभी (वर्तमान गुजरात), वाराणसी (वर्तमान उत्तरप्रदेश), कांचीपुरम (वर्तमान तमिलनाडु), मणिखेत (वर्तमान कर्नाटक), शारदापीठ (वर्तमान कश्मीर), पुष्पगिरि (वर्तमान उड़ीसा) और सोमपुरा (वर्तमान बांग्लादेश) आदि पुरातन भारत के ऐसे महान शिक्षाकेंद्र हैं, जिन्होंने विश्व को अपार ज्ञानराशि वितरित की है। ज्ञान-विज्ञान-दर्शन की अनेक शाखाओं का विस्तार इन्हीं शिक्षाकेंद्रों से हुआ। इसी कारण पाश्चात्य मूर्धन्य मनीषी लुई जैकलिएट ने भारत के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए कहा है कि- ऐ प्राचीन वसुंधरे! मनुष्य जाति का पालन करने वाली, पोषणदायिनी तुझे प्रणाम है। श्रद्धा, प्रेम, कला और विज्ञान को जन्म देने वाली भारत भूमि को प्रणाम है।’ (संदर्भ- आर्य संस्कृति का प्रथम विश्वविद्यालय विक्रमशिला’, विक्रमशिला का इतिहास, परशुराम ठाकुर ब्रह्मवादी, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2013, पृ. 71)
भारत के संदर्भ में विज्ञान और विकास को, इनके मध्य संबंधों को अतीत से जुड़े इन तथ्यों के माध्यम से समझा जा सकता है। ये तथ्य भारतीय परंपरा में विज्ञान और विकास के अंतःसंबंधों के प्रतिमान हैं। मध्ययुग की शुरुआत और फिर भारत में व्यापारी के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन तक का अंतराल अनेक उतार-चढ़ावों से भरा रहा। इस दौर में विज्ञान और विकास का क्रम वैसा स्मरणीय नहीं कहा जा सकता, जैसा अपने अतीत में था। ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के साथ ही भारत ने उस औद्योगीकरण को जाना, जिसे पश्चिमी देश पहले ही अपना चुके थे। पाश्चात्य देशों के विज्ञान को पुरातन भारतीय परंपरा का ही आयातित संस्करण कहा जा सकता है, क्योंकि प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक परंपरा को प्रायः आधार बनाकर यांत्रिकी या मशीनीकरण का विकास पश्चिमी देशों में हुआ था। प्राचीन भारतीय परंपरा ने विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में अत्यंत तीव्र विकास अवश्य किया था, किंतु यांत्रिक या मशीनी स्तर पर बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की थी। आधुनिक और पुरातन वैज्ञानिक परंपरा के बीच बड़ा अंतर यांत्रिकी या मशीनीकरण के विकास का था। यांत्रिकी के विकास से विज्ञान में अनेक रास्ते खुले। रसायन, भौतिकी, जीवविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान की विभिन्न शाखा-प्रशाखाओं के विस्तार ने एक ओर मानव जीवन को सुखमय बनाया, तो दूसरी ओर विभीषक हथियारों ने, मानवताविरोधी अनुसंधानों ने जीवन को भयग्रस्त भी बना दिया।
स्वाधीन भारत ने आधुनिक विज्ञान को स्वीकार करते हुए अपने विकास के लिए, और वैश्विक स्तर पर अपनी प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए संकल्पबद्ध होकर कार्य किया है। डॉ. होमी जहाँगीर भाभा, डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर, डॉ. सी.वी.रमण, डॉ. एम.एन. साहा, डॉ. जगदीशचंद्र बोस, डॉ. नॉरमन बोरलाग, डॉ. बीरबल साहनी और डॉ. हरगोविंद खुराना से लगाकर डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तक भारतीय वैज्ञानिकों की ऐसी समृद्ध परंपरा देखी जा सकती है; जिन्होंने कृषि, चिकित्सा, सूचना-संचार, परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष कार्यक्रम और रक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों को न केवल समृद्ध किया है, वरन् वैश्विक स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा को भी स्थापित किया है। अत्यंत कम लागत में मंगल ग्रह की यात्रा करके भारत ने अपनी मेधा से विश्व को चमत्कृत कर दिया है।
विज्ञान का अर्थ होता है- विशिष्ट ज्ञान। यह विशिष्ट ज्ञान ही विकास को गति देता है और विकास की कामना ही विशिष्ट ज्ञान की खोज के लिए प्रेरित करती है। इस तरह विज्ञान और विकास एक-दूसरे के पूरक होते हैं, अन्योन्याश्रित होते हैं। भारतीय परंपरा में विज्ञान और विकास के साथ नीति, मर्यादा, आस्था और धर्मभीरुता जैसे गुण भी जुड़े रहे हैं। भारतीय संदर्भ में विज्ञान की पुरातन परंपरा जहाँ इन गुणों से जुड़ी रही है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक विज्ञान के साथ भी इन गुणों का समावेश देखने को मिलता है। इसी कारण अतीत से लगाकर वर्तमान तक भारतीय परंपरा उस विकास को सदा से नकारती रही है, जो मानवता के लिए, सृष्टि के लिए और धर्म-आस्था के लिए घातक हो। शुद्ध भौतिकता को बढ़ावा देने के प्रश्न पर ही धर्म और विज्ञान में विरोध की बात उठती है। एक ओर भौतिक विकास भी आवश्यक है, तो दूसरी ओर आध्यात्मिक विकास भी अनिवार्य है। पाश्चात्य परंपरा में विज्ञान और विकास के संबंधों की घनिष्ठता के बीच आध्यात्मिक और नैतिक मूल्य दूर ही रह जाते हैं और इसी कारण वहाँ के समाजों में अनेक प्रकार की विसंगतियाँ पैदा होने लगती हैं। आज की जीवनशैली में भारत देश भी अनेक विसंगतियों, सामाजिक समस्याओं और विकृतियों से अगर जूझ रहा है, तो उसके पीछे पाश्चात्य प्रभाव ही है।
हिंदी के जाने-माने साहित्यकार धर्मवीर भारती ने अपने नाटक अंधायुग में व्यास के मुख से ब्रह्मास्त्र के भयानक खतरों का वर्णन कराया है। अंधायुग में व्यास जी कहते हैं कि-
लेकिन नराधम / ये दोनों ब्रह्मास्त्र अभी / नभ में टकरायेंगे / सूरज बुझ जाएगा। / धरा बंजर हो जाएगी।।
इन पंक्तियों में ब्रह्मास्त्र के खतरों का जो संकेत दिया गया है, उसमें आधुनिक युग के विज्ञानबोध को देखा जा सकता है। इन पंक्तियों में खतरा परमाणु हथियारों का है। परमाणु हथियारों का ध्वंसात्मक प्रयोग आज की पीढ़ी के लिए बड़ा खतरा है और धर्मवीर भारती की इन पंक्तियों में इस खतरे को देखा जा सकता है। विज्ञान के माध्यम से ऐसा अंधा विकास भारतीय परंपरा का नहीं है। इसी कारण विज्ञान और विकास के साथ धर्म को जोड़ने की बातें की जाने लगीं हैं। विकास की गति को रोका नहीं जा सकता और विकास के लिए विज्ञान अनिवार्य है। अगर विज्ञान को नैतिकता, मानवता और आध्यात्मिकता के बंधन में नहीं रखा जाएगा, तो उसके परिणाम व्यक्ति से लगाकर समाज और राष्ट्र तक के लिए घातक होंगे। आज 26/11 की विभीषक घटना से लगाकर एक व्यक्ति के मन में पनपती हताशा, कुंठा, हिंसा, आक्रोश और क्रूरता की भावनाएँ विज्ञान और विकास के बीच धर्म के तत्त्व के लुप्त हो जाने के कारण उत्पन्न हो रही हैं। वैश्वीकरण की प्रक्रिया में जिस तरह गाँव-कस्बे से लगाकर नगरों-महानगरों तक, देश के कोने-कोने से विदेशों तक अपसंस्कृति का विस्तार होता जा रहा है, उसके पीछे आधुनिक विज्ञान से संचालित विकास की अनियंत्रित गति के दुष्परिणाम ही हैं। कोरे भौतिकतावाद पर आधारित विज्ञान और उससे होते विकास के दुष्परिणामों को नियंत्रित करने की सामर्थ्य आध्यात्मिकता में ही है। परमपावन चौदहवें दलाई लामा की प्रेरणा से स्थापित माइंड एंड लाइफ इंस्टीट्यूट और साइंस, रिलीजन एंड डेवलपमेंट जैसी परियोजनाएँ इस दिशा में कार्य कर रहीं हैं। सन् 1987 से परमपावन दलाई लामा स्वयं इस दिशा में कार्य कर रहे हैं। उनका कथन है कि विज्ञान, तकनीक और भौतिक विकास हमारी सारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। हमें अपने भौतिक विकास को करुणा, सहिष्णुता, क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन जैसे मानवीय मूल्यों के साथ जोड़ने की आवश्यकता है, जिससे हमारा भौतिक और आंतरिक विकास एकसाथ हो सके। इसी में विकास की पूर्णता है और यही विज्ञान की सार्थकता है। विज्ञान और विकास के संदर्भ में यह पुरातन भारतीय पंरपरा ही विश्व के लिए कल्याण का मार्ग सुलभ करा सकती है।  
डॉ. राहुल मिश्र
        (आकाशवाणी, लेह से दिनांक 09 नवंबर, 2015 को प्रातः 0910 बजे प्रसारित)












Friday 12 February 2016

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब

वृत्तचित्र, दूरदर्शन केंद्र, लेह-लदाख

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब
भारतमाता के मुकुट कहे जाने वाले हिमालय की बर्फ से ढकी उज्ज्वल पर्वत श्रेणियों के बीच लदाख अंचल स्थित है। लदाख अंचल को भारतमाता के मुकुट में सुशोभित सुंदर मणि कहा जाता है। एक ओर हिमालय, तो दूसरी ओर कराकोरम की पर्वतश्रेणियों के बीच स्थित लदाख से होकर सिंधु नदी गुजरती है। भारतीय संस्कृति, धर्म, अध्यात्म और इतिहास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाली पवित्र सिंधु नदी-घाटी में बसा लदाख अंचल अपने अतुलनीय-अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात है। लदाख का शाब्दिक अर्थ दर्रों की भूमि है। दूर-दूर तक नजरों में समाते, कभी ऊँचे उठते, कभी झुकते-जैसे आसमान को छूते विविधवर्णी पर्वतों के बीच नीले रंग के स्वच्छ आकाश में विचरण करते रुई के जैसे बादलों की अद्भुत छटा को समेटे लदाख अंचल अपने प्राकृतिक सौंदर्य से हर आने वाले का मन मोह लेता है। पूर्णिमा की चाँदनी रात में शीतलता से भरी दूधिया रोशनी में चमकती धरती का आकर्षण हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है। चारों ओर फैली असीमित शांति के बीच सिंधु के जल का कल-कल निनाद महानगरीय जीवन की आपाधापी से थककर आए पर्यटकों को असीमित सुख देता है, अपरिमित शांति देता है। 
अपनी अनूठी प्राकृतिक विशिष्टता के साथ लदाख अंचल का अपना ऐतिहासिक महत्त्व भी है। हिंदुस्तान को अपना यह नाम भी यहाँ प्रवाहित होने वाली सिंधु नदी से मिला है। लदाख अंचल हमारे पूर्वजों, आदि मानवों के जीवन का गवाह भी है। लदाख में कई स्थानों पर शिलालेख और पत्थरों पर अंकित पाषाणकालीन चित्र मिलते हैं। इन शिलालेखों से पता चलता है कि यह स्थान नव-पाषाणकाल से स्थापित है। पहली शताब्दी के आसपास लदाख कुषाण राज्य का हिस्सा हुआ करता था। लदाख के प्राचीन निवासी मोन और दरद लोगों का वर्णन हेरोडोट्स, नोर्चुस, मेगस्थनीज, प्लीनी और टॉलमी आदि प्रसिद्ध यात्रियों द्वारा लिखे इतिहास में भी मिलता है। सातवीं शताब्दी में बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने भी इस क्षेत्र का वर्णन किया है। इस तरह लदाख अंचल अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है।
लदाख का मुख्यालय लेह शहर है। लेह भी ऐतिहासिक महत्त्व का नगर रहा है। लेह में यारकंदी व्यापारियों के साथ ही चीनी, तिब्बती और नेपाली व्यापारियों का आवागमन होता रहा है। लेह में पूर्व से आने वाले तिब्बती प्रभाव को, और मध्य एशिया से आए चीन के प्रभाव को देखा जा सकता है। पश्चिम की ओर से कश्मीर और शेष भारत के साथ लेह शहर का जुड़ाव रहा है, जिनका प्रभाव भी यहाँ पर देखा जा सकता है। पुराने समय में यह शहर सिल्क रूट के तौर पर भी जाना जाता था। व्यापारिक गतिविधियों के साथ ही लेह के साथ विभिन्न धर्म-संस्कृतियों का संपर्क भी रहा है। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र में बोन धर्म का प्रभाव रहा। यहाँ पर हिंदू और फिर बौद्ध धर्म का प्रभाव कायम हुआ। लेह के उत्तर में स्थित कैलास मानसरोवर हिंदुओं की आस्था से जुड़ा तीर्थस्थान है। कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए प्रति वर्ष हजारों तीर्थयात्रियों का यहाँ आना-जाना रहता था। इस कारण अनेक धर्मगुरुओं, संत-महात्माओं का प्रभाव लदाख अंचल में हमेशा बना रहा है। इसी कारण लेह में विविध धर्म-संस्कृतियों के प्रतीक आज भी देखे जा सकते हैं।
तिब्बती विद्वान रिंचेन जंग्पो और महायान बौद्ध परंपरा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले गुरु पद्मसंभव के साथ ही विभिन्न धर्माचार्यों, संतों ने अपने आगमन के माध्यम से इस क्षेत्र को कृतार्थ किया है। लदाख की यात्रा में आने वाले धर्माचार्यों में सिख पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक का नाम भी आता है। ऐसी मान्यता है कि तिब्बत और फिर मानसरोवर से होते हुए गुरु नानक लेह पधारे थे और यहाँ से करगिल, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम, श्रीनगर होते हुए करतारपुर गए थे।
लेह शहर के मुख्य बाजार में शाही मसजिद के बगल में गुरुद्वारा दातून साहब स्थित है। इसके साथ ही लेह शहर से लगभग 25 किलोमीटर दूर लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित निम्मू गाँव के पास गुरुद्वारा पत्थर साहब है। गुरुद्वारा पत्थर साहब की स्थापना की कथा गुरु नानक की इस यात्रा के प्रसंग के साथ जुड़ी है। गुरुद्वारा पत्थर साहब के अस्तित्व में आने की बड़ी रोचक कथा है। सन् 1970 में लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण सेना और सीमा सड़क संगठन द्वारा किया जा रहा था। उस समय निम्मू गाँव के पास लेह-निम्मू सड़क निर्माण के दौरान बौद्ध प्रार्थना ध्वजों में लिपटा एक बड़ा पत्थर रास्ते में आ गया। सड़क निर्माण के काम में लगे बुलडोजर के ड्राइवर ने पत्थर को रास्ते से हटाने की पूरी कोशिश की और अपनी मशीन पर पूरा जोर दे दिया। ऐसा करने के बावजूद पत्थर अपनी जगह से नहीं हिला, लेकिन बुलडोजर का ब्लेड जरूर टूट गया। इसके बाद, उसी रात बुलडोजर के ड्राइवर ने एक सपना देखा। ड्राइवर ने सपने में एक आवाज सुनी। उसमें ड्राइवर को पत्थर से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करने को कहा गया। अगली सुबह ड्राइवर ने अधिकारियों को अपने सपने के बारे में बताया। अधिकारियों ने उसे इस बात को भूल जाने को कहा और पत्थर को डायनामाइट से उड़ा देने का आदेश दिया। इसके बाद, रात को संबंधित अधिकारियों ने भी ऐसा ही सपना देखा और आवाज सुनी। अगली सुबह रविवार का दिन था। अधिकारियों ने पत्थर से जुड़े तथ्यों की जाँच-पड़ताल करने के लिए कुछ लामाओं को बुलाया। उन लामाओं ने पत्थर वाली जगह का दौरा किया और बताया कि पत्थर पर संत नानक लामा के कंधे का निशान है। इस तरह पत्थर को हटाने का काम बंद हो गया और वहाँ पर पूजा-अर्चना की शुरुआत हो गई।
पत्थर को देखने पहुँचे लामाओं ने पत्थर से जुड़ी कथा भी बताई। जनश्रुतियों में प्रचलित कथा के अनुसार जिस समय गुरु नानक लेह में आए हुए थे, उस समय एक शैतान राक्षस का वहाँ पर बहुत आतंक था। वह लोगों को पकड़कर मार डालता था। उसके कारण लोगों में डर व्याप्त था। उस शैतान राक्षस ने क्षेत्र में ऐसी अशांति मचा रखी थी कि लोगों का जीना दूभर हो गया था। इसी वक्त 1517 में गुरु नानक ने इस स्थान का दौरा किया। गुरु नानक सिक्किम, नेपाल, मानसरोवर झील और तिब्बत का दौरा कर श्रीनगर के रास्ते से पंजाब जा रहे थे। रास्ते में ध्यान लगा रहे गुरु नानक पर उस राक्षस ने पत्थर फेंका। गुरु के संपर्क में आते ही पत्थर ऐसे पिघल गया, मानो वह मोम का बना हो। इसके बाद गुरु के कंधे का निशान उस पत्थर में बन गया। मान्यताओं के अनुरूप और लोकप्रचलित कथाओं के आधार पर जिस पत्थर की कथा लामाओं द्वारा बताई गई, खुदाई में पत्थर का आकार कुछ वैसा ही मिला। इसी जगह पर सेना ने पत्थर साहब गुरुद्वारा का निर्माण कराया और उसके संरक्षण का जिम्मा भी लिया। इस गुरुद्वारे के साथ बौद्ध समुदाय की आस्था भी जुड़ी हुई है।
गुरु नानक की यात्रा के साथ जुड़ी गुरुद्वारा पत्थर साहब की कथा विश्वसनीय भी लगती है, क्योंकि गुरु नानक ऐसे संत थे, जिन्होंने किसी गुफा-कंदरा में बैठकर तपस्या करने के स्थान पर घूम-घूमकर लोगों को सीख दी और मानव-सेवा के माध्यम से अपनी साधना को पूर्ण किया। गुरु नानक के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में 28 वर्षों तक केवल यात्राएँ कीं और निरंतर पैदल चलकर देश-दुनिया का भ्रमण किया। अगर इतिहास में देखें, तो इब्ने बतूता के बाद इतनी लंबी पदयात्रा करने वाले गुरु नानक ही थे। गुरु नानक की तुलना लगातार दो वर्षों तक यात्रा करने वाले कोलंबस और तीन वर्षों तक लगातार यात्रा करने वाले वास्को डी गामा से भी होती है। लेकिन इब्ने बतूता, कोलंबस और वास्को डि गामा की यात्राएँ किसी धार्मिक उद्देश्य के लिए या मानवता की सेवा के उच्च आदर्श पर आधारित नहीं थीं।
सिखों के आदि गुरु की जीवनी बड़ी प्रेरणापरक है। जब उन्होंने अपना घर छोड़कर देशाटन का फैसला लिया, तब उनकी माँ को बड़ा दुःख हुआ। नानक के घर छोड़ने से पहले उनकी माँ ने उनसे पूछा कि देशाटन करने से क्या हासिल होगा? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि  देशाटन से कुछ भी नहीं होगा, मगर समाज में प्रचलित बुराइयों को दूर करने के लिए किसी गुफा-कंदरा में बैठकर साधना करने से भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि ऐसा करने पर संसार के उन लोगों का कल्याण नहीं होगा, जो अज्ञानता में पड़े हैं, जिन्हें सच्चा ज्ञान देना जरूरी है। इसके लिए हमें अपने शरीर को ही मंदिर बनाना पड़ेगा। अपने दिमाग को माया के बंधन से मुक्त करना होगा। बुराइयों से मुक्ति पानी होगी। इसके लिए घूम-घूमकर, लोगों के बीच में जाकर उन्हें जागरूक करना होगा, उन्हें नसीहत देनी होगी और उन्हें सच्ची राह दिखानी होगी। अपने इसी उद्देश्य के साथ सत्य का संदेश फैलाने के लिए गुरु नानक ने तीन दशकों में 28 हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की। हर स्थान पर वह किस्से छोड़ते गए, लोगों को अपने व्यावहारिक ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते गए। उनकी यात्राओं से जुड़ी अनेक कहानियाँ श्जनम साखीश् में संकलित हैं और आज भी सुनाई जाती हैं।
गुरु नानक जी के इस महान उद्देश्य में उनका साथी बना मरदाना नाम का उनका शिष्य, जो उनका मित्र भी था और उनका सहयोगी भी था। मरदाना रबाब बजाते चलता और गुरु नानक उसके साथ देश-दुनिया को अपने ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते जाते। उन्होंने अपने शिष्य मरदाना के साथ पाँच बड़ी यात्राएँ कीं, जिन्हें पाँच उदासी (प्रमुख यात्राएँ)  के नाम से जाना जाता है। अपनी पाँच उदासी में उन्होंने करीब 60 शहरों का भ्रमण किया। इन उदासी में उन्होंने दो उप-महाद्वीपों का भ्रमण किया। पहली उदासी में उन्होंने उत्तरी और पूर्वी भारत का भ्रमण किया। दूसरी उदासी के दौरान श्रीलंका और दक्षिण भारत और तीसरी उदासी में उन्होंने तिब्बत, सुमेरु पर्वत, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम और श्रीनगर सहित लेह का भ्रमण किया। चौथी उदासी में गुरु नानक मक्का, मदीना, येरुशलम, दमश्कस, अलेप्पा, पर्सिया, तुर्की, काबुल, पेशावर और बगदाद पहुँचे। नानक जी की आखिरी उदासी 1530 में खत्म हुई, इसमें वह दिल्ली और हरिद्वार जैसे उत्तर भारतीय शहरों में गए। नानक जी जिस जगह पर जाते थे, वहाँ की तहजीब में ढल जाते थे, वहाँ उसी ढंग के परिधान भी धारण करते थे। जब वे बनारस गए तो वहाँ माथे पर चंदन का तिलक लगाए नजर आए और जब वे मक्का-मदीना की यात्रा में गए, तब उन्होंने मुस्लिम परिधानों को धारण किया। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य यह संदेश देना था कि परिधान पहनने से जाति-धर्म नहीं बदलता है और जाति-धर्म का भेदभाव न करना ही सच्ची मानवता है। सत्य का संदेश देने के लिए उन्होंने व्यापक तौर पर यात्राएँ कीं। उनका पहला संदेश यही था- न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान। अपने उपदेशों में नानक जी ने तीन संदेश दिए। पहला- ईमानदारी से कमाई करना (किरत करना), दूसरा- भगवान की प्रार्थना करना (नाम जपना) और तीसरा- ईमानदारी से कमाया गया धन जरूरतमंदों के साथ साझा करना (वंड चकना)।
गुरु नानक दार्शनिक, योगी, धर्मसुधारक, समाजसुधारक और सर्वेश्वरवादी थे। उन्होंने रूढ़ियों, आडंबरों का विरोध किया और आंतरिक साधना के माध्यम से, उच्च मानवीय गुणों के पालन के माध्यम से मानवता की सेवा को ही सच्ची भक्ति माना। गुरु नानक जब तिब्बत की यात्रा में गए, उस समय वहाँ पर महायान बौद्ध परंपरा का प्रभाव था। महायान परंपरा भी मानवता की सेवा को, सबके कल्याण की साधना को ही श्रेष्ठ मानती है। संभवतः इसी कारण गुरु नानक के प्रति बौद्ध संतों का आकर्षण उत्पन्न हुआ और उन्हें तिब्बत में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। ऐसी मान्यता है कि महायान परंपरा के निंगमा संप्रदाय में गुरु नानक को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसी कारण गुरु नानक के लेह आगमन पर महायान परंपरा से अनुप्राणित लद्दाख अंचल में उन्हें अपार मान-सम्मान मिला और उन्हें संत नानक लामा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
गुरु नानक सन् 1517 में लेह पधारे थे। गुरुद्वारा दातूनसाहब के बारे में मान्यता है कि उन्होंने वहाँ पर अपनी दातून को जमीन में गाड़ दिया था, जिसने कालांतर में विशालकाय पवित्र वृक्ष का रूप ले लिया। वह वृक्ष आज भी है और उसकी शीतल छाया अद्भुत सुख-शांति का अहसास कराती है। अगर लद्दाख की वनस्पतियों को देखें, तो यहाँ पर पेड़ों की कई प्रजातियाँ कलम लगा देने पर तैयार हो जाती हैं। इस तरह लोकप्रचलित मान्यता को पुष्ट होने का एक आधार मिल जाता है। सन् 1517 में गुरु नानक के आगमन के समय लेह विविध संस्कृतियों के समन्वय के जीवंत साक्ष्य के रुप में समृद्ध था। वक्त गुजरने के साथ सांस्कृतिक विविधताएँ सिमटती गईं और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्थितियों ने बहुत कुछ बदल दिया, परिधियाँ सिकुड़ गईं और अलग-अलग दायरे बँधने लगे। शायद इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब का इतिहास लोगों के सामने नहीं आ पाया। सन् 1970 में सड़क निर्माण के कार्य के साथ लद्दाख के साथ जुड़े उस अतीत का खुलासा हुआ, जिसे वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब के रूप में देख पाने का सौभाग्य आज हमारे साथ है।
इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब धार्मिक आस्था का केंद्र मात्र नहीं है, वरन् हिमालय और कराकोरम पर्वत श्रेणियों के बीच गुरु नानक के उपदेशों का जीवंत साक्ष्य है। यह हमारी धरोहर है, जो हमारे पूर्वजों की सहिष्णुता को, उनके द्वारा स्थापित किए गए उच्च मानवीय मूल्यों को, आदर्शों को अपने अस्तित्व से साकार कर रही है। यह ऐसा ऐतिहासिक स्थल भी है, जो रक्तरंजित, आहत हिमालय परिक्षेत्र के वर्तमान को गर्व के साथ बता रहा है कि हम मानवता को पाशविकता से, क्रूरता से ऊपर रखने वाले अतीत के वंशज हैं।
वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब की व्यवस्था और देखरेख की जिम्मेदारी भारतीय सेना के पास है। मान्यता के अनुसार जिस पहाड़ी से शैतानी राक्षस ने पत्थर फेंका था, उस पहाड़ी को नानक पहाड़ी कहा जाता है। सेना ने वहाँ तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनवाई हैं, और लोग उस पहाड़ी में दर्शनार्थ जाते हैं, साथ ही वहाँ से आसपास के सुंदर दृश्यों का आनंद भी उठाते हैं। गुरुद्वारा पत्थर साहब के दाहिनी ओर गुरुगद्दी बनी है। सेना द्वारा यहाँ तक पहुँचने के लिए भी सुगम मार्ग बनाया गया है। ऐसी मान्यता है कि गुरुगद्दी में गुरु नानक एकांतिक साधना करते थे। इसी कारण गुरुगद्दी में पहुँचकर असीमित शांति का अनुभव होता है। भारतीय सेना के सहयोग और अनथक प्रयास के कारण धार्मिक सद्भाव, सहिष्णुता और उच्च मानवीय मूल्यों का प्रकाश देने वाला यह स्थान स्थानीय लोगों के लिए ही नहीं, वरन्, देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है, उन्हें नसीहत देता है। शैतान राक्षस जैसी प्रवृत्तियाँ किसी भी व्यक्ति के अंदर हो सकती हैं। जिस तरह गुरु नानक के प्रभाव में आकर शैतान राक्षस अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों को त्यागकर भला-सच्चा व्यक्ति बन गया था, वैसी ही धारणा, वैसे ही विचार सबके बनें, सभी मानवता के कल्याण के लिए तमाम भेदभावों को भुलाकर आपसी स्नेह-सद्भाव भाईचारे के साथ रहना सीखें, इसकी नसीहत देने के लिए यह स्थान अतुलनीय है। दूसरी ओर भारतीय सेना के सामाजिक सद्भाव और जन-जुड़ाव का अनूठा पक्ष भी यहाँ पर देखने को मिलता है। सेना के जवानों को उच्च आदर्शों की सीख देने, सेवा और सद्भाव की नसीहत देने के लिए भी इस स्थान का अपना महत्त्व है।



डॉ. राहुल मिश्र
(दूरदर्शन केंद्र, लेह से दिनांक 13 जुलाई, 2015 को सायं 05.30 पर वृत्तचित्र के रूप में प्रसारित)