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Thursday 2 May 2024

हिमगिरि में गुरु रिनपोछे की तंत्र-साधनाएँ और चमत्कार




 

हिमगिरि में गुरु रिनपोछे की तंत्र-साधनाएँ और चमत्कार

‘शिङ्तोग फतिङ्-कुशु, लोपोन पद्मे जिनलब...…’ (खूबानी और सेब गुरु पद्मसंभव के प्रसाद हैं।)

गिलगित बाल्टिस्थान में प्रवाहमान शिगर नदी के तटवर्ती क्षेत्र में पैदा होने वाले सेब और खूबानियाँ बहुत अच्छी प्रजाति की होती हैं। इनका स्वाद बहुत अच्छा होता है। शिगर घाटी गिलगित-बल्टिस्थान में स्थित ऐसी महत्त्वपूर्ण नदी घाटी है, जो काराकोरम पर्वतीय शृंखला के मुख्यद्वार के साथ ही सिंधु की सहायक नदी शिगर द्वारा द्वारा सिंचित है। शिगर घाटी अपनी ऐतिहासिकता के साथ ही मध्य एशिया के विभिन्न स्थानों को जोड़ने वाले एक प्रमुख स्थान के रूप में अपना महत्त्व रखती थी। अविभाजित भारत में यह स्करदो संभाग के अंतर्गत आती थी। स्करदो लद्दाख की शीतकालीन राजधानी हुआ करती थी। शिगर घाटी तिब्बती मूल के बल्टी निवासियों का प्रमुख स्थान थी। इन कारणों से गुरु पद्मसंभव का वहाँ पर जाना और एक प्रकार से धार्मिक क्रांति के रूप में वहाँ के लोगों को अपनी साधना और अपने चमत्कार के माध्यम से प्रभावित करना स्पष्ट होता है। लोकगीतों में आने वाले प्रसंग इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं। गुरु पद्मसंभव की साधना-पद्धति पर आस्थावान जनसमूह ने उनको अपने लोकगीतों में बड़ी श्रद्धा के साथ गाया है।

समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में; हिमाचल प्रदेश, लाहुल-स्पीति, तिब्बत, लद्दाख और गिलगित बल्टिस्थान से लगाकर जांस्कर घाटी तक का संपूर्ण पश्चिमोत्तर हिमालयी भूक्षेत्र गुरु पद्मसंभव की साधना का यशः-गान गाता है। उन्हें गुरु पद्मसंभव, आचार्य पद्मसंभव और गुरु रिनपोछे के साथ ही द्वितीय बुद्ध के रूप में पूजा जाता है। उनके व्यक्तित्व की विराटता और महायान परंपरा के विस्तार हेतु तंत्र-साधना के साथ ही वज्रयान के प्रचार-प्रसार हेतु किए गए कार्यों के कारण उनके प्रति आस्थावान लोगों की कमी नहीं है। आचार्य पद्मसंभव ने अपनी तिब्बत की यात्रा के समय वहाँ पर वज्रयान परंपरा की न केवल स्थापना की, वरन् अनेक लोगों को दीक्षित करके धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी दी।

गुरु पद्मसंभव का अवतरण और उनका जीवन अनेक रहस्यों और चमत्कारों से भरा हुआ है। कहा जाता है, कि उनका जन्म उपपादुक योनि (स्वयंभू, दैवयोनि) में हुआ था। उनके जन्म की बहुत रोचक कथा है। उड्डियान के राजा इंद्रभूति निःसंतान थे, और अपनी निःसंतानता दूर करने के लिए उन्होंने अपना सर्वस्व दान कर दिया। इसके बाद वे चिंतामणि प्राप्त करने हेतु समुद्री यात्रा पर निकल पड़े। चिंतामणि लेकर लौटते समय उड्डियान के निकट एक द्वीप पर विश्राम कर रहे थे, तभी उनके सेवक ने आकर बताया, कि समीप के एक सरोवर के बीच में खिले एक पद्मपुष्प के ऊपर एक आठ वर्षीय बालक विराजमान है। राजा इंद्रभूति ने उस बालक को स्वयं जाकर देखा और बालक से उसके माता-पिता आदि के बारे में पूछा। बालक ने बताया, कि उसके पिता विद्याज्ञान और माता सुखशून्य समंतभद्रा हैं। उसका देश अनुत्पन्न धर्मधातु है और गोत्र विद्याधातु है। बालक ने बताया, कि वह यहाँ पर क्लेशों के विनाश करने की चर्या का अभ्यास कर रहा है। राजा के मन में उस बालक के प्रति असीम श्रद्धा उत्पन्न हुई और भावुक होकर उनकी आँखों से आँसू बह निकले। पहले राजा इंद्रबोधि की दाहिनी आँख की ज्योति नहीं थी, लेकिन इस अवस्था में उनके नेत्रों से बहते आँसुओं के फलस्वरूप उनकी नेत्र-ज्योति लौट आई। इस चमत्कार को जानकर राजा इंद्रबोधि समस्त मंत्रीगणों और प्रजाजनों के साथ श्रद्धावनत हो गए। निःसंतान राजा इंद्रबोधि ने उसी समय घोषणा की, कि वे बालक को अपने पुत्र के रूप में अपनाएँगे। बालक को राजमहल लाकर सुंदर वस्त्र पहनाए गए। पद्मपुष्प में विराजमान होने के कारण बालक को पद्मसंभव नाम दिया गया।

आस्थावान राजा इंद्रबोधि ने पद्मसंभव को राजसिंहासन पर बैठाया। उनके राजसिंहासन पर बैठते ही उड्डियान राज्य का अकाल जाता रहा, राज्य धन-धान्य से संपन्न होने लगा। राज्य के कुछ प्रभावशाली मंत्रियों को पद्मसंभव का राजकुमार के रूप में रहना खटकने लगा। वे पद्मसंभव को राज्य से निष्कासित कराने के बहाने खोजने लगे। कुछ ऐसा दुर्योग हुआ, कि पद्मसंभव के त्रिशूल से एक मंत्री के पुत्र की मृत्यु हो गई। इस घटना को माध्यम बनाकर राजा के ऊपर ऐसा दबाव बनाया गया, कि उन्हें पद्मसंभव को देश निकाला देना पड़ा। गुरु पद्मसंभव ने भारत के विभिन्न प्रमुख स्थानों में जाकर तंत्रसाधना का अभ्यास किया। इसके बाद वे उस सरोवर में भी साधनारत रहे, जहाँ उन्होंने अवतार लिया था। उनकी गहन साधना से प्रसन्न होकर वज्रवाराही ने प्रत्यक्ष दर्शन दिया, और उन्हें अनेक तांत्रिक शक्तियों-सिद्धियों से संपन्न किया। उनकी गहन साधना और फिर तांत्रिक शक्तियों से संपन्न होने पर हिमालयी परिक्षेत्र में ही नहीं, वरन् संपूर्ण आर्यावर्त में उनकी ख्याति महायान और वज्रयान के पारंगत विद्वान एवं महान साधक के रूप में हुई। कहा जाता है, कि उन्होंने बोधगया और फिर मलय पर्वत के सिद्धक्षेत्रों में पहुँचकर योगतंत्र और महामुद्रा आदि की शिक्षा ली।

गुरु पद्मसंभव से पहले तिब्बत में आचार्य शांतिरक्षित पहुँचे थे। उनके द्वारा महायान साधना-पद्धति में लोगों को दीक्षित किए जाने के कार्य किए गए, लेकिन वहाँ अनेक बाधक शक्तियाँ भी थीं, जिनको धर्म से जोड़ने के लिए रौद्र और चमत्कारिक प्रभाव दिखाना आवश्यक था। गुरु पद्मसंभव का तिब्बत पहुँचना इस संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण रहा। ऐसा कहा जाता है, कि यदि गुरु पद्मसंभव तिब्बत नहीं पहुँचते, तो वहाँ सद्धर्म का विकास नहीं हो पाता। आचार्य शांतिरक्षित के द्वारा बताए जाने पर तिब्बत के राजा और मंत्रियों ने गुरु पद्मसंभव से तिब्बत चलकर विधर्मी शक्तियों को पराजित करने और धर्म का शासन स्थापित करने हेतु निवेदन किया। राजा ठ्रिसोङ देचेन के निवेदन पर गुरु पद्मसंभव ने तिब्बत में धर्मशासन स्थापित किया और अपनी तंत्र-सिद्धि के माध्यम से विधर्मी शक्तियों को पराजित किया।

तिब्बत के अतिरिक्त गुरु पद्मसंभव ने उड्डियान, धनकोष, रुक्म, अपर-चामरद्वीप आदि देशों में भी धर्म का शासन स्थापित किया, और इन देशों की जनता को विधर्मी शक्तियों से मुक्त कराया। तिब्बत के अतिरिक्त अन्य देशों में गुरु पद्मसंभव के चमत्कारों और उनके सिद्धि-बल द्वारा किए गए कार्यों के लिखित या लोक-प्रचलित साक्ष्य नहीं मिलते हैं। तिब्बत में गुरु पद्मसंभव के ऋद्धि-सिद्धि बल के प्रति आस्थावान लोगों की कमी नहीं है। गुरु पद्मसंभव के आठ रूप या उनके व्यक्तित्व के आठ अंग प्रायः माने जाते हैं। इनमें से गुरु दोर्जे डोलोद (वज्रक्रोध) के रूप में वे तिब्बत में प्रतिष्ठित हुए। अन्य सात रूपों में धनकोष सरोवर में अवतार लेने वाले, तिब्बत में अंधविश्वासों को दूर करने वाले, आनंद से प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले, उड्डियान में राजा इंद्रबोधि के आमंत्रण पर राजशासन चलाने वाले, अबौद्धों द्वारा ईर्ष्यावश विष दिए जाने पर उसे अमृत करके पी जाने वाले और महायोग तंत्र की साधना करके योग मंडलीय देवताओं का साक्षात् दर्शन करने वाले हैं। ये सभी विग्रह और रूप भारतदेश के विभिन्न स्थानों में स्थापित रहे, जो संप्रति हिमालयी परिक्षेत्र में ही प्राप्त हैं, और पूजे जाते हैं।

गुरु पद्मसंभव के साथ जहोर राज्य की कथा भी जुड़ी हुई है। ऐसा कहा जाता है, कि जहोर राज्य में राजा अर्षधर के शासनकाल में गुरु पद्मसंभव का जाना हुआ। राजा अर्षधर की पुत्री मंदारवा (मंधर्वा गंधर्वपुष्पा) अपनी सोलह वर्ष की श्रीआयु में समस्त साधना-चिन्हों, एवं लक्षणों से युक्त थी। गुरु पद्मसंभव ने राजकुमारी मंदारवा को अपनी आध्यात्मिक साधना एवं तंत्र सिद्धि के लिए मुद्रा (स्त्री-शक्ति) के रूप में सहचारिणी बनाया। वे दोनों पोतलक पर्वत में स्थित एक दिव्य गुफा में अमिताभ की उपासना के लिए गए। वहाँ हठयोग की साधना करते हुए उन्हें अमिताभ के दर्शन मिले। अमिताभ ने स्वयं उनके सिर पर अमृत कलश रखकर उनको वज्रशक्ति से संपन्न किया। अमिताभ ने गुरु पद्मसंभव को हेवज्र और उनकी शक्ति मंदारवा को वज्रवाराही के रूप में अधिष्ठित किया। इस प्रकार तंत्र-साधन में निष्णात् गुरु पद्मसंभव वज्रगुरु के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए।

महायान परंपरा में चार संप्रदाय हैं- निङ्मा, साक्य, कार्ग्युद और गेलुग। इसमें निङ्मा संप्रदाय को सबसे पुराना माना जाता है। निङ्मा संप्रदाय में गुरु पद्मसंभव को विशेष स्थान प्राप्त है। निङ्मा संप्रदाय के मठों में गुरु पद्मसंभव की मूर्ति रौद्र रूप में प्रतिष्ठित होती है। इस संप्रदाय के दीक्षित भक्तजनों के द्वारा गुरु पद्मसंभव को गुरु रिनपोछे का नाम दिया गया है। गुरु रिनपोछे के रूप में आचार्य पद्मसंभव की प्रतिष्ठा लद्दाख में भी है।

गुरु पद्मसंभव तिब्बत से लद्दाख आए, और गिलगित-बल्टिस्थान तक अपने धर्मप्रचार को बढ़ाया। ऐसा कहा जाता है, कि लेह के निमो गाँव के निकट एक ऊँची पहाड़ी पर एक राक्षसी रहती थी, जिसने गुरु पद्मसंभव का पीछा कर लिया। गुरु पद्मसंभव एक चट्टान के पीछे छिप गए। जब वह राक्षसी आगे निकल गई, तो गुरु पद्मसंभव ने उसे पकड़ लिया और समीप की एक पहाड़ी पर उसे हमेशा रहने के लिए कहा। कहा जाता है, कि रात के समय आज भी वहाँ से रोने की आवाजें आती हैं। जिस चट्टान के पीछे गुरु पद्मसंभव छिपे थे, उस चट्टान पर गुरु पद्मसंभव की छाप अंकित हो गई। इस पवित्र चट्टान की पूजा बड़े विधान के साथ की जाती रही है। वर्तमान में यह गुरुद्वारा पत्थर साहिब के रूप में जानी जाती है। यह लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर लेह से लगभग 40 किमी दूर स्थित है। ऐसा माना जाता है, कि यही घटना गुरु नानक के साथ हुई थी, जब वे अपनी एक यात्रा में आए हुए थे। गुरु नानक से जुड़ा गुरुद्वारा दातून साहिब लेह के मुख्य बाजार में स्थित है।

गुरुद्वारा पत्थर साहिब को निङ्मा संप्रदाय के आस्थावान जनों के साथ ही सिख धर्मानुयायी भी पूजते हैं। इस कारण इस गुरुद्वारा के साथ गुरु पद्मसंभव को लामा गुरु नाम मिला है। इन्हें नानक लामा भी कहा जाता है। यह पवित्र स्थल गुरु नानक और गुरु पद्मसंभव के साथ जुड़ा होने के कारण अद्भुत और अनूठा है। गुरु नानक भी अपनी उदासियों के माध्यम से देश-दुनिया के विभिन्न स्थानों की यात्रा करते हुए लोगों को सीख देते रहे, धर्म में प्रवृत्त करते रहे। इसी प्रकार गुरु पद्मसंभव ने भी अनेक स्थानों की यात्राएँ करके धर्मशासन स्थापित किया। आस्थावान लोगों के लिए इसी कारण दोनों गुरुओं के प्रति भक्ति का भाव देखा जा सकता है। एक अन्य रुचिकर प्रसंग यहाँ जोड़ देना समीचीन होगा, कि यह परंपरा लद्दाख से नीचे उतरकर अमृतसर में भी दिखाई दिया करती थी। नानक लामा या लामा गुरु के प्रति आस्थावान भक्तजन अपनी तीर्थयात्राओं में गुरुद्वारा श्री स्वर्ण मंदिर को भी जोड़कर रखते थे, और बड़ी आस्था के साथ स्वर्ण मंदिर के सरोवर में स्नान किया करते थे।

गुरु पद्मसंभव द्वारा जांस्कर घाटी में स्थित कनिका स्तूप के निकट सानी नामक महाश्मशान में अपना चमत्कार दिखाया गया था। इस स्थान पर उन्होंने जटिल तंत्र-साधना की थी। ऐसा माना जाता है, कि गुरु पद्मसंभव ने अपनी आठ लीलाओं में से एक- गुरु नीमा ओदसेर को सानी में दिखाया था। भोटी भाषा में नीमा सूर्य को कहा जाता है, और ओदसेर प्रकाश को कहा जाता है। इस प्रकार उनकी यह लीला सूर्य का प्रकाश बिखेरने के संदर्भ के साथ देखी जा सकती है। अधर्म के अंधकार का शमन करके निज धर्म का प्रकाश उनके द्वारा किया गया। सम्राट कनिष्क के द्वारा स्थापित स्तूप, जिसे कनिका स्तूप के रूप में जाना जाता है, यह सिद्ध करता है, कि इस क्षेत्र में सम्राट कनिष्क का शासन था। इसके निकट सानी नामक महाश्मशान में गुरु पद्मसंभव ने साधना करके दैत्यों, दानवों का दमन किया और डाकिनियों को धर्मोपदेश दिया। इसके बाद ही उनका गुह्य नाम खसपा लोदन पड़ा। यहाँ पर गुरु पद्मसंभव के पदचिन्ह अंकित हैं। उन्होंने दुष्ट आत्माओं का शमन करके धर्म के प्रकाश का विस्तार करने हेतु चारों दिशाओं में अपने चरण बढ़ाए, फलस्वरूप उनके पदचिन्ह चारों दिशाओं में अंकित हैं।

समग्रतः, लद्दाख अंचल के साथ ही लगभग पूरे हिमालयी परिक्षेत्र में गुरु पद्मसंभव के विभिन्न चमत्कारों, साधनाओं, सिद्धियों और धर्म स्थापनाओं के चिन्ह मिलते हैं। विभिन्न धर्मगुरुओं, यथा- आचार्य शांतिरक्षित, आचार्य दिग्नाग, आचार्य दीपांकर श्रीज्ञान अतिशा, आचार्य वसुबंधु आदि विभिन्न महायान परंपरा के आचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों के माध्यम से जहाँ एक ओर हिमालयी परिक्षेत्र में महायान बौद्ध परंपरा का विकास हुआ, वहीं दूसरी ओर गुरु पद्मसंभव की योग-साधनाएँ, तांत्रिक-क्रियाएँ, वज्रयानी अनुष्ठान और चमत्कारिक क्रियाएँ बहुत प्रभावी होकर महायान परंपरा का विकास करती हैं। गुरु पद्मसंभव का विराट व्यक्तित्व अलग-अलग रूपों में परिलक्षित होता है। गुरु पद्मसंभव इसी कारण द्वितीय बुद्ध के रूप में भी प्रतिष्ठित हैं।  सामान्य जनों के लिए, आस्थावान धर्मभीरुओं के लिए वे शांत रूप में प्रतिष्ठित हैं, तो अन्य के लिए उनका रौद्र रूप विधिवत् वज्र और त्रिशूल धारण किए हुए प्रतिष्ठित होता है। हिमालयी परिक्षेत्र में गुरु रिनपोछे के सिद्ध मंत्र की गूँज आज भी गुंजायमान होती है।

-राहुल मिश्र


(त्रिकुटा संकल्प, जम्मू के श्रावण, 2080, अगस्त-2023 के अंक में प्रकाशित)

अमृत महोत्सव से अमृत काल की यात्रा...

 अमृत महोत्सव से अमृत काल की यात्रा...

वैसे तो प्रत्येक भारतवासी के लिए, भारवंशियों के लिए स्वतंत्रता दिवस असीमित गर्व और उल्लास का दिन होता है, फिर भी वर्ष 2023 का स्वतंत्रता दिवस अनेक अर्थों में अपना विशेष महत्त्व रखता है। भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण में इसे न केवल देखा जा सकता है, वरन् अनुभूत भी किया जा सकता है। हमने दो वर्ष पूर्व अपनी स्वाधीनता के 75 वर्ष पूर्ण किए थे। इस अवसर पर भारत के माननीय प्रधानमंत्री मोदी ने अमृत महोत्सव की घोषणा की थी। स्वतंत्रता का यह अमृत महोत्सव वर्ष पर्यंत चलना था, अर्थात् 15 अगस्त, 2022 को अमृत महोत्सव को पूर्ण होना था। लेकिन भारतीयों के अतुलनीय उत्साह और देशभक्ति के भाव ने यह संदेश दिया, कि इस महोत्सव को एक वर्ष की सीमा से आगे बढ़ाकर ले जाना चाहिए।

कहना न होगा कि स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में देश भर में अनेक कार्यक्रम आयोजित किए गए। भारत अमृत महोत्सव में आसेतु हिमालय ऐसा उत्साह जन-जन में दिखा, जिसको शब्दों के माध्यम से बाँधकर व्यक्त कर पाना कठिन है। यह भावना का विषय था, यह देश के प्रति अपने भावों को अभिव्यक्त करने का संदर्भ था, यह स्वातंत्र्य समर में अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले अनेकानेक भारतीयों की स्मृतियों को सँजोने और साझा करने का उपक्रम था। भारत अमृत महोत्सव के वर्ष-पर्यंत चलने वाले कार्यक्रमों का एक बड़ा अंग उन हुतात्माओं को स्मरण करने से संबंधित था, जिन्हें इतिहास की पुस्तकों में स्थान नहीं मिला, जो अज्ञात रह गए, अचर्चित रह गए। हमने देश के उन स्थानों को भी जाना, जहाँ हमारे अनेक क्रांतिवीरों ने अपने शौर्य और पराक्रम की गाथाएँ रचीं। इतिहास के उन पन्नों को पलटा गया जो देश की बड़ी आबादी के लिए अनजाने थे, अज्ञात थे। वर्ष-भर के ऐसे आयोजनों और कार्यक्रमों ने 15 अगस्त, 2022 तक सारे देश को असीमित गर्व से भर दिया था।

देश के अनेक अनाम वीरों और क्रांतिकारियों को खोजने, उन्हें सभी के सामने लाने और उनके प्रति कृतज्ञता अर्पित करने के लिए एक वर्ष का समय पर्याप्त नहीं था। एक क्रम, एक गति देश के साथ जुड़ते हुए, देशभक्ति की भावना में गोते लगाते हुए चल रही थी, जिसे और आगे तक ले जाने की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता को देखते हुए वर्ष 2022 के पंद्रह अगस्त को लाल किले की प्राचीर से भारत के माननीय प्रधानमंत्री ने भारत अमृत महोत्सव को अगले स्वतंत्रता दिवस तक चलाने की घोषणा की थी। भारत अमृत महोत्सव का यह दूसरा वर्ष भी बहुत महत्त्व का रहा। अनेक ऐसी योजनाएँ, जो सारे देश को राष्ट्रीयता की भावना के साथ जोड़ सकें, अमल में लाई गईं। वीरों और क्रांतिकारियों की स्मृतियों को सँजोते-सहेजते हुए देश भर में अनेक व्याख्यानों और आयोजनों के साथ ही स्वाधीनता के अमृत महोत्सव की साक्षी अनेक पुस्तकें भी बनीं, जिनका प्रकाशन वर्ष भर अनेक विश्वविद्यालयों और संस्थाओं से होता रहा। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव से जुड़े एक-दो कार्यक्रमों का उल्लेख यहाँ प्रासंगिक होगा। भारत की ऐसी सीमाएँ, जहाँ वीरों ने अपने प्राणों का बलिदान दिया, उनको सारे देश के साथ जोड़ने के लिए सीमांत पर्यटन योजना बहुत प्रभावी और रोचक सिद्ध हुई है। अनेक सीमांत क्षेत्रों में जा-जाकर लोगों ने इन क्षेत्रों की समस्याओं को समझा और साथ ही देशभक्ति की भावना को अनुभूत किया। ऐसी ही एक योजना वाइब्रेंट विलेज योजना है। इसके साथ ही ‘मेरी माटी मेरा देश’ एक ऐसे अभियान के रूप में इस वर्ष के स्वतंत्रता दिवस के कुछ माह पहले प्रारंभ हुआ, जिसने उन अनेक वीरों, हुतात्माओं और क्रांतिकारियों के साथ समूचे देश को जोड़ा, जो अज्ञात थे, जिनके बारे में लोगों को कम जानकारियाँ थीं।

विभिन्न आदिवासी क्रांतिकारी, जिनको इतिहास में विद्रोही बताकर इतिश्री कर ली गई थी, उनके अप्रतिम योगदान, उनके अतुलनीय बलिदान को नए सिरे से, पूरी सच्चाई के साथ सामने लाने हेतु देश भर के विभिन्न आदिवासी क्षेत्रों से सूचनाएँ और जानकारियाँ एकत्रित की गईं। प्रदर्शनियों और झाँकियों के रूप में इनका देश भर में प्रदर्शन हुआ, चर्चाएँ भी हुईं। क्रांतितीर्थ जैसे आयोजनों के माध्यम से उन वीरांगनाओं को भी सम्मानित करने और कृतज्ञता ज्ञापित करने का कार्य किया गया, जिन्होंने विभिन्न युद्धों व संघर्षों में अपने पति, अपने पुत्र का बलिदान दिया। देश के विभिन्न स्थानों में क्रांतिकारियों के आँगनों से, गाँवों से पवित्र माटी संकलित की गई, ताकि राष्ट्रीय स्मारक में उपयोग करके देश को एक सूत्र में बाँधा जाए और आने वाली पीढ़ियों को अपने वीर बलिदानी पुरखों के बारे में बताया भी जाए।

इन्हीं प्रयासों को साथ लिए हुए, देशभक्ति के भावों से भरकर हमने हाल ही में अपना स्वतंत्रता पर्व मनाया। इस वर्ष 15 अगस्त को भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री ने लाल किले से भाषण देते हुए केंद्र सरकार के विगत लगभग दस वर्षों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा, कि- सन् 2014 में हम वैश्विक अर्थव्यवस्था में 10वें स्थान पर थे। आज 140 करोड़ देशवासियों का पुरुषार्थ रंग लाया है और हम विश्व की 5वीं अर्थव्यवस्था बन चुके हैं। हमने लीकेज बंद करके (अर्थात् भष्टाचार पर लगाम), मजबूत अर्थव्यवस्था बनाकर और गरीबों के कल्याण की अनेक योजनाओं को व्यवहार में उतारकर इस स्थान को पाया है।

इस वर्ष स्वाधीनता दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री देशवासियों को ‘मेरे प्यारे परिवार जन’ कहकर संबोधित कर रहे थे। यह संबोधन 140 करोड़ देशवासियों के साथ ऐसे भावनात्मक जुड़ाव को व्यक्त कर रहा था, जिस जुड़ाव ने एक साथ कदम से कदम मिलाकर देश को वैश्विक स्तर पर मजबूती के साथ खड़ा किया। प्रधानमंत्री मोदी ने लोकतंत्र की शक्ति, युवा जनसंख्या के बल और विविधता की त्रिवेणी का उल्लेख करते हुए कहा, कि इसी त्रिवेणी ने भारत के हर सपने को साकार करने की ताकत दी है। आज इसी के बल पर हमारे युवाओं ने विश्व के पहले तीन ‘स्टार्टअप इकोसिस्टम’ में स्थान दिलाया है। उन्होंने कहा, कि विश्वभर में भारत की चेतना के प्रति विश्वास पैदा हुआ है। मेरी सरकार और मेरे देशवासियों का मान ‘राष्ट्र प्रथम’ के वाक्य से जुड़ा है।

हाल ही में मणिपुर की घटनाओं पर दुःख व्यक्त करते हुए उन्होंने शीघ्र ही स्थितियों के सामान्य होने की कामना की। इसके साथ ही उन्होंने देश की आंतरिक और सीमांत सुरक्षा पर सुदृढ़ और सशक्त नीति का उल्लेख करते हुए कहा, कि- आज देश में आतंकी हमलों में कमी आई है और नक्सली घटनाएँ बीती बातें हो गईं हैं। यह नया भारत है, जो न रुकता है, न हाँफता है।

प्रधानमंत्री मोदी के भाषण का सबसे बड़ा पक्ष भविष्य की कार्ययोजना का था। उन्होंने स्थिर सरकार की कार्यशैली का उल्लेख करते हुए कहा, कि देशवासियों ने स्थिर सरकार ‘फॉर्म’ की, तब मोदी ने ‘रिफार्म’ किया, नौकरशाही ने ‘परफार्म’ किया और जनता जुड़ गई तो ‘ट्रांसफार्म’ किया। इस गति को उन्होंने आगे तक ले जाने की बात कही। वे पिछले 1000 वर्षों से आगामी 1000 वर्षों तक के भारत की यात्रा को व्याख्यायित करते हुए इस स्वतंत्रता दिवस को एक पड़ाव की तरह बताना चाह रहे थे।

इस वर्ष स्वाधीनता के अमृत महोत्सव की पूर्णता के साथ ही सन् 2047 के लिए सभी को एक साथ मिलकर चलने के लिए आह्वान करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने अमृत महोत्सव की पूर्णता से अमृत काल के लिए चल पड़ने की बात कही। उन्होंने कहा, कि- वर्ष 2047 में जब देश स्वाधीनता के 100 वर्षों का उत्सव मना रहा होगा, तब भारत का तिरंगा विकसित भारत का तिरंगा झंड़ा बने, ऐसी कामना है। उन्होंने कहा, कि- हमें खोई हुई समृद्धि का गर्व करते हुए, खोई हुई समृद्धि को प्राप्त करते हुए हमको यह मानकर चलना होगा, कि आज हम जो कदम उठाएँगे, वे अगले एक हजार वर्ष तक की हमारी दिशा तय करेगा।

भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री का नए भारत के लिए, ‘न्यू इंडिया’ के लिए ‘विजन 2047’ अमृत काल से जुड़ा हुआ है। अमृत काल भारतीय वाङ्मय में उस काल को कहा जाता है, जो किसी कार्य को करने के लिए उचित होता है और अपेक्षित सफलता उस काल में प्राप्त होती है। यह एक प्रकार से शुभ मुहूर्त होता है। माननीय प्रधानमंत्री ने अमृत काल के लिए पाँच प्रणों की बात करते हुए इन्हें स्वाधीनता के शताब्दी वर्ष तक पूर्ण करने की बात कही है।

प्रधानमंत्री मोदी के पंच प्रण में पहला संकल्प विकसित भारत का है। इसमें देश के ग्रामीण और शहरी सभी क्षेत्रों को मूलभूत संसाधनों व सुविधाओं से युक्त करने की बात है। दूसरा संकल्प गुलामी से मुक्ति  का है। हमारे मन में गुलामी का एक अंश भी शेष न रह जाए और हम मन व कर्म से स्वाधीन अनुभूत करें। तीसरा संकल्प विरासत पर गर्व का है। हमें अपनी गौरवपूर्ण विरासत पर गर्व की अनुभूति होनी चाहिए। हम विश्व को बहुत कुछ दे सकते हैं। चौथा संकल्प एकता और एकजुटता का है। हमें एक होकर, अपनी विविधताओं को एक सूत्र में बाँधकर भारत की समृद्धि के लिए, विकास के लिए मिलकर प्रयास करने होंगे। पाँचवा संकल्प नागरिकों का कर्तव्य है। देश के सभी नागरिक अपने कर्तव्यों का निष्ठा व लगन के साथ पालन करके देश के विकास में अपना योगदान दें।

स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से हमारे माननीय प्रधानमंत्री का भाषण अमृत महोत्सव से अमृत काल की ओर बढ़ने का संदेश देते हुए असीमित ऊर्जा से भरा हुआ था। एक आत्मविश्वास, जो अपने ‘परिवार जनों’ के साथ संबोधित होते हुए झलकता है, उसे हम अपने मार्गदर्शक की ओजस्वी वाणी में अनुभूत कर रहे थे। निःसंदेह हमारा शीर्ष नेतृत्व अमृत महोत्सव से अमृत काल की ओर अग्रसर होते हुए विकसित भारत की संकल्पना को साकार करता प्रतीत होता है। इस हेतु हम भारतवासी अपने यशस्वी प्रधानमंत्री के प्रति कृतज्ञ हैं।

-राहुल मिश्र

(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र सीमा संघोष के अगस्त, 2023 अंक में प्रकाशित)

नंदी की कौन सुने....

 


नंदी की कौन सुने....

काशी का बाबा विश्वनाथ तीर्थक्षेत्र....। युगयुगीन प्रवाहित भागीरथी के तट पर अनंतकाल से जीवंत-जागृत काशी। काशी के अधिपति बाबा विश्वनाथ का स्थान, स्वयंभू विश्वेश्वर महादेव, और उनके सामने विराजमान नंदी...। अनेक पीढ़ियों ने इस दिव्य दर्शन को पाकर अपने जीवन को धन्य किया। आराधना-पूजा करके अपनी मनोकामनाओं को पूरा होते देखा। यह गौरवपूर्ण अतीत, यह आध्यात्मिक परंपरा, भक्ति की प्रवाहित धारा कब आक्रांताओं के आक्रमणों की भेंट चढ़ी, यह इतिहास का विषय है। इतिहास की पुस्तकों की सच की गहराई का स्तर अतीत की विभीषिका को आँकने का माध्यम अवश्य हो सकता है, किंतु प्रत्यक्ष का प्रमाण अतुलनीय होता है। इसी कारण विश्वेश्वर के नंदी की चर्चा आजकल खूब हो रही है।

हमारा बचपन आँखों के सामने घूम रहा है। हमारे पुराने समय में साधुओं का दल नंदी राजा को लेकर गाँव-गाँव घूमता था। नंदी राजा के आते ही मानों गाँव-जवार में हलचल-सी आ जाती। लोग नंदी राजा के लिए सीधा-पिसान लेकर आ जाते। बड़ी आस्था के साथ पाँव छूते। बड़ी सुंदर-सी झूल पीठ पर डाले, जिसमें कौड़ियों-सीपियों की कढ़ाई होती, तेल से चमचमाते हुए सींग, गठीली देहयष्टि, स्वयं में मगन नंदी राजा लोगों के लिए अनेक आशाएँ लेकर आते, सुनहरे सपनों के पंख लेकर आते...। इसी कारण नंदी राजा को भेंट-चढ़ावा देकर अपना-अपना भविष्य पूछने का क्रम चालू हो जाता। किसी को हाँ में सिर हिलाकर, तो किसी को ना में सिर हिलाकर नंदी राजा भविष्य बताते। लोग आस्था में नतमस्तक होकर नंदी राजा के माध्यम से औढरदानी महादेव तक अपना संदेश भिजवाते।

लोकजीवन इन्हीं बातों से सँवरता है। आस्था की बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ नहीं गढ़ता..., घास-फूस की झोपड़ियों में ही प्रसन्न हो लेता है। शिवालयों में स्थापित नंदी के कान में धीमे से कुछ कहती बूढ़ी माई को देखकर, किसी परीक्षार्थी बच्चे को नंदी के कान में फुसफुसाते देखकर ऐसा ही लगता है। मानों वे नंदी के कान में अपनी याचना सुनाकर स्वयं को मुक्त कर लेते हैं। एक भरोसा अपने अंदर पा जाते हैं, कि गर्भगृह में महादेव से तो कह ही आए हैं, मगर कहीं व्यस्तता के बीच हमारी याचना पर ध्यान न दे पाएँ, तो नंदी राजा उन्हें अवश्य स्मरण करा देंगे। नंदी राजा इसी कारण लोक के अधिक निकट होते हैं। आस्थावान भक्तगण अनेक प्रकार से नंदी की आराधना करते हैं, क्योंकि औढरदानी को स्मरण कराने वाले वे ही हैं। संभावना जहाँ सिमट जाएँ, वहाँ फिर से भरोसा जगा देने वाले नंदी राजा ही हैं।

नंदी राजा भी अपने आराध्य महादेव के भक्तों को खूब पहचानते हैं। वे अपने प्रति आस्था रखने वाले शिवभक्तों को निराश नहीं करते। इन दिनों जिन नंदी की बात चल रही है, उन्हीं से जुड़ा एक प्रसंग महाराष्ट्र में बहुत प्रचलित है। कहते हैं, कि संत ज्ञानदेव जनाबाई के साथ काशी आए थे। ‘पंडित से पंडित मिले भईं-भईं पूछै बात....’ वाले न्याय से काशी के पंडितों ने संत ज्ञानेश्वर से शास्त्रार्थ चालू किया, फिर परीक्षा लेने लगे.....। जरा विश्वनाथ जी के नंदी को चारा खिलाकर दिखाओ, तो जानें...। अभी तक तो बहुत सारी कहानियाँ फैला रखीं हैं। संत ज्ञानेश्वर चिंता में पड़ गए, अब आखिर क्या करें? वे तो संत हैं, जो बातें उनके बारे में चमत्कार की तरह प्रचलित-प्रचारित हैं, उन बातों को उन्होंने स्वयं तो नहीं फैलाया है। उनके आस्थावान अनुयायियों ने कहा, तो वे क्या करें..। अब यहाँ काशी के पंडित प्रत्यक्ष प्रमाण माँगने पर अड़े हुए हैं। संत ज्ञानेश्वर की चिंता गुरु निवृत्तिनाथ से छिपी नहीं थी। संत ज्ञानेश्वर कातर भाव से गुरु निवृत्तिनाथ की ओर देखते हैं, दो आँसू टपक पड़ते हैं। निवृत्तिनाथ कहते हैं, कि नंदी भूखा दिखता है, घास खिला दो...। लोग दौड़कर घास ले आते हैं, और यह क्या... संत ज्ञानेश्वर ने जैसे ही विनत् भाव से चारे का गट्ठर नंदी राजा के आगे किया, वे स्वयं ही मुँह उठाकर चारा खाने लगे। निवृत्तिनाथ, संत नामदेव, जनाबाई और अनेक भक्तों ने नंदी को चारा खिलाया।

यह कथा आज भी महाराष्ट्र से काशी आने वाले भक्तों को भक्ति के भाव में डुबो देती है। उन्हें आज भी नंदी राजा चारा खाने के लिए गरदन मोड़े हुए बैठे दिखाई देते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे पंढरपुर में विठोबा कमर पर दोनों हाथ रखे हुए ईंट पर खड़े दिखाई देते हैं। पंढरपुर में महावैष्णव भक्तराज पुंडलीक अपने माता-पिता की सेवा में अनवरत् लगे रहते थे। ऐसे मातृ-पितृभक्त के दर्शन करने विष्णु के अवतार विट्ठल आते हैं। पुंडलीक से मिलने के लिए कहते हैं। पुंडलीक एक ईंट फेंककर उनसे कहते हैं, कि इसमें बैठकर प्रतीक्षा करें, वे माता-पिता का काम पूरा करके, सेवा-टहल करके मिलने आएँगे। विट्ठल उस ईंट पर खड़े होते हैं, कमर में हाथ रखकर... कुछ इस तरह से, कि मुझे कब तक प्रतीक्षा करनी होगी? भगवान अपने भक्त की प्रतीक्षा कर रहे हैं। अद्भुत हैं पंढरीनाथ.., कब से अपने भक्त की प्रतीक्षा में खड़े हैं।

आस्था और विश्वास का जैसा संयोग पंढरपुर में है, वैसा ही तो काशी में है, काशी के अधिपति विश्वेश्वर महादेव के प्रिय भक्त नंदी के साथ जुड़ा है। संत ज्ञानेश्वर, संत नामदेव, माता जनाबाई आदि अनेक भक्तों-संतों-आस्थावानों के तीर्थक्षेत्र में आते रहने का विधान उसी आस्था व विश्वास की अनंत गाथा को दोहराता है। अनगिनत भक्त अपनी भावनाओं को सहेजकर काशी के बाबा के दर्शन को आते हैं, नंदी राजा के दर्शन को आते हैं..... और अपनी मनोकामनाओं को, अपनी चिंताओं को नंदी राजा के कान में बताकर इस भरोसे के साथ लौटते हैं, कि उनकी मनोकामनाएँ पूरी होंगी, उनके दुःख और चिंताएँ दूर होंगी। बाबा पर भरोसा जो है, वह कभी टूटता भी नहीं है, आस्था के भाव को सदैव दृढ़ करता जाता है।

बाबा विश्वनाथ के भक्त महंत पन्ना ने जब देखा, कि आक्रांताओं-आततायियों की नीयत उनके आराध्य विश्वेश्वर महादेव को अपवित्र करने की है, और तीर्थक्षेत्र भी सुरक्षित नहीं बचा है तब वे भी नंदी के कान में अपनी पीड़ा और अपनी मनोकामना कहकर विश्वेश्वर महादेव के विग्रह को लेकर, शिवलिंग को लेकर ज्ञानवापी में कूद जाते हैं। महंत पन्ना के मन में असीम विश्वास उसी लोक-आस्था का एक अंश दिखता है, जो औढरदानी अविनाशी शिव तक बात पहुँचाने वाले नंदी राजा से अपने भरोसे को जोड़ती है। काशी तीर्थक्षेत्र के परिसर में विश्वेश्वर महादेव के अनन्य भक्त नंदी राजा ने एक वह समय भी देखा, जब आस्थावान भक्तों की भीड़ उनसे अपने दुःख-दर्द कह जाती, अपनी मनोकामनाएँ कह जाती थी। बाद में वह समय भी देखा, जब आततायियों ने अपनी कुत्सित भावनाओं से, आक्रमण और आतंक से सबकुछ तहस-नहस कर डाला। विश्वेश्वर महादेव भक्त पन्ना के साथ ज्ञानवापी कुएँ में भले ही डूब गए हों, लेकिन नंदी राजा अविचल रहे। समय के साक्ष्यों को सहेजते हुए प्रतीक्षारत रहे। नंदी राजा तो सबकी सुनते रहे, महादेव तक सबकी बात पहुँचाते रहे, मगर नंदी की कौन सुने...। नंदी अपनी वेदना किससे कहें। यह प्रश्न समय की गति के साथ, काल के घूमते चक्र के साथ घूमता ही रहा... तिरता-उतराता ही रहा। कितनी पीढ़ियों ने प्रश्न के उत्तर खोजने के यत्न किए। कितने कुचक्र रचे गए, कितनी चालें चली गईं, कैसे ताने-बाने बुने गए... यह सब नियति ने देखा है। इतिहास ने स्वयं में यह सब समेटा है। ऐसी विकट विषमता के लंबे काल में न तो नंदी ने अपनी प्रतीक्षा छोड़ी, ओर न ही महाकाल के भक्तों ने अपनी आस्था व विश्वास को छोड़ा।

समय किस तरह करवट बदलता है, यह आज के समय में दिखाई दे रहा है। नंदी की वर्षों की साधना पूरी होती दिख रही है। नंदी की प्रतीक्षा पूरी हुई...., ऐसा चारों ओर सुनाई देने लगा है। शिवभक्तों की आस्था, उनका भरोसा दृढ़ हुआ है। औढरदानी विश्वेश्वर महादेव अपने भक्तों की प्रतीक्षा में पथराई आँखों में प्रसन्नता की चमक भर रहे हैं। शिव के प्रिय गण नंदी राजा भी अपनी प्रतीक्षा को पूरा होते देख रहे हैं। युगों-युगों से शिवभक्तों की याचनाओं को महादेव तक पहुँचाने वाले नंदी की याचना भी शिव ने सुनी है। इतने वर्षों में अनेक विषमताओं को देखने के लिए विवश नंदी राजा की आँखों से प्रसन्नता के अश्रु बरबस ही बह उठे हैं, ऐसा अनुभूत होता है। यह अनुभूति चितेरों की तूलिकाओं से भी उतरती है। सोशल मीडिया के अनेक पटलों पर घूमते चित्र यही तो बता रहे हैं।

नंदी शिव के भवन के द्वारपाल हैं, कैलास के द्वारपाल हैं। वे बल और शक्ति के प्रतीक भी हैं। वे कर्मठता और संपन्नता के प्रतीक भी हैं। नंदी लोक की आस्थाओं में रचे-बसे हैं। यह कोई आज की बात नहीं, यह कोई आज के भारत की बात नहीं...। दुनिया की अनेक सभ्यताओं में नंदी बसे हैं, समाए हैं। सिंधु घाटी की प्राचीनतम् सभ्यता के साथ ही बेबीलोन, सुमेरु और असीरिया की सभ्यताएँ नंदी के प्रति आस्था को व्यक्त करती हैं। नंदी सनातन की अविरल परंपरा के संवाहक हैं। नंदी केवल लोकजीवन में ही नहीं, धर्म और अध्यात्म की उच्चतम् स्थितियों में भी प्रतिष्ठित हैं। नंदी भारतीय जनजीवन की सुंदर झाँकी गढ़ते हैं। नंदी की प्रतीक्षा सनातन भारतीय जीवन की प्रतीक्षा है। नंदी का उद्घोष भारत की भारतीयता का उद्घोष है।

नंदी शिव के हैं, शिव की सवारी हैं। धेनुएँ, गउएँ कान्हा की हैं, ब्रजक्षेत्र जितना कान्हा की गउओं के रँभाने से सँवरता है, उतना ही नंदियों की हुँकार से गूँजता है। कान्हा के अधरों पर वंशी है, गीत है, संगीत है...। शिव के चरणों में भी तो लय है, ताल है, तांडव है। गीत-संगीत-नृत्य समानधर्मा हैं, लोक की चिंताओं का शमन करने वाले, लोक का रंजन करने वाले हैं। शिव और पार्वती लोकरंजक भी हैं, लोकरक्षक भी...। शिव-पार्वती के लिए लोकरक्षक राम की बाललीला आकर्षक होती है। राम लंका विजय के पहले शिव को पूजते हैं, रामेश्वरम् में...। कान्हा और राम एक ही तो हैं, और शिव इन दोनों से जुड़े हैं। लोक की आस्था, लोक का जीवन इन्हीं जुड़ावों के साथ संलग्न है, अभिन्न भी है। राम की अयोध्या नगरी में सरजू जी का जल यदि निर्मल होता है, तो काशी की गंगा और ब्रज की यमुना भी अपने निर्मल जल के आनंद में लोक को डुबो देना चाहती हैं। नंदी तो लोक की बात कहने वाले हैं, लोक के उद्धारक आशुतोष से..., हर महेश्वर रुद्र से.... सत्य और सुंदर को सहेजने वाले शिव से...। नंदी की प्रतीक्षा लोक के हितार्थ गरल का पान कर लेने वाले हर महेश्वर रुद्र, नीलकंठ महादेव के पुनः लोकहितार्थ जागृत होने के लिए है, भक्तों और आस्थावानों की आशाओं-कामनाओं-याचनाओं की पूर्ति के लिए है, और यह सब नंदी की प्रतीक्षा की पूर्णता के साथ सहज सुलभ दिखता है।

-राहुल मिश्र

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ, आषाढ़-सावन ,2079, जुलाई-2022 के अंक में प्रकाशित)





Thursday 26 August 2021

अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित (लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)

 


अमर हुतात्मा मास्टरजी डुल्लू पंडित

(लद्दाख का एक विस्मृत अध्याय)


डुल्लू पंडित, अर्थात पंडित श्रीधर कौल; यह एक ऐसा नाम है, जिसने न कभी ख्याति चाही, न पद और न ही पैसा-मान-प्रतिष्ठा। एक निष्काम सेवाव्रती की तरह से अपना सारा जीवन, अपनी सारी कर्मठता-सक्रियता लदाख को समर्पित कर दी। इसी कारण श्रीधर कौल के बारे में बहुत ही कम जानकारियाँ आज मिल पाती हैं। लदाख के जाने-माने इतिहासकार और संस्कृतिकर्मी स्वर्गीय आबा टशी  रबग्यस अकसर ही श्रीधर कौल के बारे में बताया करते थे। कथाकार अब्दुल ग़नी शेख और लदाख के वरिष्ठ-वयोवृद्ध चिकित्सक डॉक्टर तंजिन के पास भी डुल्लू पंडित से जुड़ी अनेक बातें और यादें हैं, जिन्हें उन्होंने या तो अपनी रचनाओं में सहेजा है, या फिर वे अपनी स्मृतियों को खंगालते हुए यदा-कदा बताते हैं। आज के लदाख की नई पीढ़ी के लिए डुल्लू पंडित का नाम अनजाना-सा ही होगा। आधुनिक लदाख के निर्माता कहे जाने वाले पूज्यपाद कुशोग बकुल रिनपोछे का तो सामाजिक और राजनीतिक जीवन ही डुल्लू पंडित के सानिध्य में शुरू हुआ था।

श्रीधर कौल ने लदाख में बिताए अपने समय को; जैसा और जितना लदाख को देखा, उन अनुभवों को अपनी एक अधूरी रचना में समेटा था। उनके जीवनकाल में यह रचना पूरी नहीं हो सकी। बाद में उनके पुत्र हृदयनाथ कौल ने कुछ अंश उसमें जोड़े, और ‘लदाख : थ्रू द एजेस, टूवार्ड्स ए न्यू आइडेंटिटी’ के नाम से यह पुस्तक बहुत बाद में, सन् 1992 में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक का प्राक्कथन कुशोग बकुल रिंपोछे ने लिखा है। अपने प्राक्कथन में उन्होंने लिखा है- “इस पुस्तक के लिए चंद पंक्तियाँ लिखना मेरे लिए बहुत खुशी की बात है। इस अवसर का लाभ उठाते हुए मैं अपनी ओर से, साथ ही लदाख की जनता की ओर से श्रीयुत् श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता दर्ज कराना चाहता हूँ। लदाख के लोगों के लिए और लदाख की संस्कृति के लिए उनका अविस्मरणीय योगदान, सन् 1947 के युद्ध में लदाख अंचल के लिए उनकी असाधारण सेवाएँ, और इन सबसे ज्यादा लदाखी लोगों को अपने नागरिक अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति जागरूक करने हेतु किए गए कार्यों के लिए श्रीधर कौल के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ।”

इस पुस्तक का उल्लेख यहाँ पर इसलिए करना समीचीन लगता है, ताकि तथ्यपरक जानकारी का संदर्भ सुलभ हो सके। यह पुस्तक लदाख के अतीत को केवल देखती नहीं है, अनूठे भावनात्मक लगाव को, एक सांस्कृतिक संबंध को व्यक्त ही नहीं करती;  बल्कि महसूस भी कराती है। यह पुस्तक श्रीधर कौल ‘डुल्लू’ के लदाख अंचल के प्रति प्रेम और भावनात्मक लगाव को व्यक्त करने, और साथ ही भारत की पुरातन सांस्कृतिक-धार्मिक जड़ों को लदाख अंचल के कण-कण में देखने का सहज प्रयास भी है। तमाम सिद्धहस्त लेखकों के लदाख-वृत्तांत के सामने यह पुस्तक भले ही साधारण-सी हो, किंतु जिस पक्ष को इस पुस्तक में अनुभूत किया जा सकता है, उसे अन्यत्र खोजना कठिन है। परमपूज्य कुशोग बकुल रिनपोछे ने अपने कथन में मन के भावों की सीधी-सरल अभिव्यक्ति के माध्यम से आधुनिक लदाख के निर्माण की उस नींव को नमन किया है, जिसके साथ बीसवीं सदी के लदाख का निर्माण होता है। इस दृष्टि से पुस्तक का पुरोवाक् अत्यंत महत्त्वपूर्ण है और इसी के सहारे बीसवीं सदी के लदाख को देखा जा सकता है।

सन् 1887 के पहले तक लदाख में आधुनिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। लदाख अंचल के लिए ईसाई मिशनरियों ने ‘मिल-हिल मिशन’ बनाया था। सन् 1888 में कैथोलिक धर्मप्रचारकों ने इसकी शुरुआत कर दी थी। जम्मू-कश्मीर के महाराजा हरि सिंह इस स्थिति से अनजान नहीं थे। कश्मीर के बौद्ध आचार्यों की कर्मभूमि रहे लदाख परिक्षेत्र की सीधी-सादी-सरल जनता के हितों के लिए उनकी चिंता एक ओर गिलगित-स्करदो-बल्टिस्तान के अतीत के साथ जुड़ी थी, तो दूसरी तरफ ईसाई मिशनरियों के साथ आने वाले खतरे को लेकर भी थी। इस कारण उन्होंने ईसाई मिशनरियों को लदाख में आने की अनुमति नहीं दी। लाहुल-स्पीति (हिमाचलप्रदेश) को अपना संपर्क केंद्र बनाकर मिशनरी अपनी गतिविधियों को संचालित करते रहे और लदाख को अपने प्रभाव में लेने के लिए लगातार सक्रिय रहे। संभवतः ब्रिटिश शासकों के भारी दबाव के कारण सन् 1884 में मोरावियन मिशन का आगमन पहली बार लेह में हुआ। अस्पतालों और स्कूलों का संचालन करने के साथ ही कुछ लदाखी युवाओं को चर्च से जोड़कर समाज में पकड़ बनाने की कोशिशों को देखते हुए उस समय यह आवश्यक हो गया था, कि लदाख में ऐसी शिक्षा-व्यवस्था संचालित हो, जो आबादी के आँकड़ों को बड़े बदलाव से बचा सके, साथ ही अतीत की गलतियों के दुहराव को रोक सके।

इस कार्य के लिए श्रीधर कौल से उपयुक्त व्यक्ति कोई नहीं था। श्रीधर कौल शिक्षा के विकास और विस्तार में महाराजा हरि सिंह के न केवल सलाहकार थे, वरन् कश्मीर में शिक्षा के प्रति जागरूकता लाने वाले कर्मठ और समर्पित शिक्षाविद् भी थे। ऐसा उल्लेख मिलता है, कि ‘वीमेंस वेलफेयर ट्रस्ट’ की बैठकों में वे अकसर कहा करते थे, कि- “राज्य में एक इलाका अब भी अशिक्षा से जूझ रहा है।” उनका इशारा लदाख अंचल की ओर होता था। इन चिंताओं को ध्यान में रखकर ही महाराजा काश्मीर ने श्रीनगर में बौद्धसभा का गठन किया था। इसके संस्थापक पंडित श्रीधर कौल थे। इस सभा के अध्यक्ष पूज्य स्तगछङ रिनपोछे थे, और वकील पंडित शंभुनाथ धर थे। बौद्धसभा द्वारा एक रिपोर्ट तैयार की गई थी, जिसे ग्लांसी नामक अंग्रेज अधिकारी की अध्यक्षता में गठित ‘ग्लान्सी कमीशन’ को सौंपा गया था। इस कमीशन की गतिविधियों का उल्लेख लदाख के जाने-माने इतिहासकार-साहित्यकार टशी रबग्यस ने किया है। वे ‘मरयुल लदाख के इतिहास का सर्वप्रकाशकादर्श’ में लिखते हैं, कि- “लदाख के बौद्धों के साथ मित्रता रखने वाले सज्जन मित्र थे, जिन्होंने लदाख के लोगों के लिए उस समय अपना विशेष योगदान दिया, जब लदाख के लोग जागरूक नहीं थे।”

श्रीधर कौल संवेदनशील, कर्मठ और सहृदय व्यक्ति थे, फलतः सन् 1939 में उन्हें शिक्षा अधिकारी बनाकर लदाख भेजा गया। अनेक सुविधाओं से संपन्न आज के लदाख में भी जब किसी अधिकारी का स्थानांतरण होता है, तो उसकी तैनाती को किसी सजा से कम नहीं माना जाता। ऐसी स्थिति में सन् 1939 के लदाख की कल्पना-मात्र ही रोंगटे खड़े कर देने वाली होगी। श्रीनगर की हरी-भरी और तमाम सुख-सविधाओं से युक्त अपनी जन्मभूमि से निकलकर रूखे-सूखे और भयंकर ठंडे लदाख अंचल में कौल जी का आगमन होता है। वे इसे किसी सजा के तौर पर नहीं, बल्कि सौभाग्य के रूप में देखते हैं। शिक्षा के लिए जागरूकता उनके जीवन का ध्येय बन जाता है। उस समय के लदाख में आवागमन के साधन नहीं के बराबर थे। लदाख का क्षेत्रफल भी आज से दुगुना था, क्योंकि उस समय गिलगित-बल्तिस्थान तक लदाख की सीमाएँ होती थीं। दुर्गम पहाड़ी रास्तों को उन्होंने पैदल चलकर, घोड़े पर सवार होकर तय किया और गाँव-गाँव में पहुँचकर लोगों को शिक्षा के लिए जागरूक किया।

लदाख के जाने-माने इतिहासकार और साहित्यकार अब्दुल ग़नी शेख बताते हैं, कि पंडित श्रीधर कौल को लोग एक शिक्षक के रूप में सम्मान देते थे, इस कारण वे लदाख अंचल में ‘मास्टरजी डुल्लू पंडित’ के रूप में जाने जाते थे। उनके अनथक प्रयासों से लदाख अंचल में कई स्कूलों की स्थापना हुई। लोगों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई। मास्टरजी प्रत्येक विद्यालय में पहुँचते थे, और शिक्षकों के विकास के लिए सुझाव देते थे। वे बच्चों को आधुनिक शिक्षा के लिए प्रेरित करते थे, ताकि लदाख अंचल के युवा भी सरकारी तंत्र में शामिल हो सकें, अधिकारों के लिए जागरूक हो सकें और विकास की मुख्यधारा से जुड़ सकें।

श्रीधरजू कौल आर्यसमाज  जुड़े हुए थे। उनके प्रयासों से ही श्रीनगर के रैनाबाड़ी इलाके में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज की स्थापना सन् 1943 में हुई थी। इसके पहले उन्होंने आर्यसमाज की तर्ज पर ‘लदाख बुद्धिस्ट एजूकेशन सोसायटी’ की स्थापना में योगदान दिया था। इस संगठन के माध्यम से लदाख अंचल में शिक्षा के लिए जागरूकता के साथ ही बिगड़ते जनसंख्या संतुलन को सुधारने और अनेक प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक समस्याओं से निपटने के लिए संगठित होने का प्रयास शुरू हुआ था। बाद में यह संगठन ‘यंग मैन बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के रूप में जाना गया। एसोसिएशन के शायद पहले अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन थे। कारपो रिगजिन भी पंडित कौल की तरह समर्पित जनसेवक थे।

मास्टरजी डुल्लू पंडित के लिए नई चुनौती तब सामने आई, जब देश की आजादी निकट आ चुकी थी। सीमांत सुरक्षा की दृष्टि से लदाख की हालत अच्छी नहीं थी। सन् 1947 में देश की आजादी और फिर कश्मीर राज्य में तेजी से बदलती राजनीतिक स्थितियों के बीच डोगरा शासकों के अधीन आने वाला सारा भूभाग दिशाहीन हो चुका था। देश के विभाजन के साथ ही कबाइली आक्रमणकारियों ने गिलगित और स्करदो पर कब्जा कर लिया था। वहाँ की बौद्ध आबादी को विस्थापन और आतंक के कहर से जूझना पड़ रहा था। यही स्थितियाँ बल्तिस्तान से लगने वाली नुबरा घाटी में दुहराई जाने वाली थीं। ऐसी विषम परिस्थितियों में लदाख के युवाओं को संगठित करके ‘नुबरा गार्ड्स’ नामक एक संगठन तैयार किया गया। इसमें बौद्ध युवाओं को जोड़ने का काम ‘यंग बुद्धिस्ट एसोसिएशन’ के अध्यक्ष कारपो छेवांग रिगजिन ने किया। इसके पीछे पंडित डुल्लू कौल की प्रेरणा थी। वे स्वयं भी युवाओं को इसके लिए प्रेरित कर रहे थे, जागरूक कर रहे थे।

उस समय जम्मू-कश्मीर राज्य के भारत में विलय हो जाने के बाद भी लदाख की सुरक्षा के लिए भारतीय फौजें नहीं पहुँच पाई थीं। भारतीय फौजों के लदाख पहुँचने, और लदाख की दुर्गम भौगोलिक स्थितियों के बीच उन्हें सुरक्षा-व्यवस्था मुस्तैद करने में काफी समय लगने वाला था। इसे देखते हुए कारपो छेवांग रिगजिन और पंडित कौल ने श्रीनगर प्रशासन से अनुरोध किया, कि ‘नुबरा गार्ड्स’ को धार्मिक संगठन के स्थान पर सैनिक संगठन का दर्जा दिया जाए, और युवाओं को प्रशिक्षित किया जाए। फलतः नुबरा गार्ड्स ने देश के उत्तरी छोर पर अपना मोर्चा सँभाला।

पंडित कौल ने सन् 1948 में लदाख की रक्षा के लिए एक रिपोर्ट तैयार की थी, जिसे उन्होंने खुद पंडित नेहरू को सौंपा था। लेह-मनाली मार्ग को लदाख के आवागमन के लिए तैयार करने की जरूरत को जिस तरह मास्टरजी डुल्लू कौल ने तत्कालीन रक्षामंत्री सरदार बलदेव सिंह और जनरल के.एम. करिअप्पा के सामने रखा था, उसे एक दूरदर्शी चिंतक की सक्रियता से कम नहीं कहा जा सकता। मास्टरजी के प्रयासों से गठित ‘नुबरा गार्ड्स’ को सन् 1963 में ‘लदाख स्काउट्स’ का नाम मिला और यह सेना की स्वतंत्र इकाई के रूप में आज भी सक्रिय है। इन ‘स्नो वारियर्स’, इन ‘स्नो टाइगर्स’ ने नुबरा घाटी से जुड़े बल्तिस्थान के इलाके में सन् 1947-48 में मचाए गए आतंक का बखूबी जवाब 13 दिसंबर, सन् 1971 को दिया था। उस समय अगर कुछ समय तक युद्ध-विराम की घोषणा नहीं होती, तो बल्तिस्थान के पाँच नहीं, पाँच सैकड़ा गाँव आज पाक अधिकृत कश्मीर में नहीं होते।

पंडित श्रीधर कौल का श्रीनगर के रैनाबाड़ी स्थित आवास उनके अपने घर से कहीं ज्यादा लदाख के लोगों के लिए घर जैसा था। इसी कारण उसे लदाख सराय ही कहा जाने लगा था। ऐसा बताया जाता है कि पंडित कौल ने डोलमा नाम की एक गरीब-अनाथ लदाखी बालिका को अपनी दत्तक पुत्री बनाया था। बाद में उन्होंने ही उसका विवाह कराया। श्रीनगर के रैनाबाड़ी में रहकर पढ़ने वाले तमाम लदाखी बालक-बालिकाओं के रहने-खाने का सारा व्यय मास्टरजी ही वहन करते थे। पंडित श्रीधर कौल की दूरदर्शी दृष्टि ने कुशोग बकुल रिनपोछे में जिस राजनीतिक नेतृत्वशक्ति को देखा था, कालांतर में वह उभरकर सामने आई। आज के लदाख के निर्माणकर्ता के व्यक्तित्व का बड़ा अंश श्रीधर कौल के सानिध्य में निर्मित हुआ।

सन् 1948 तक पंडित श्रीधर कौल लदाख में रहे। इसके बाद भी उनका लदाख से संबंध बना रहा। सन् 1952 में वे लदाख से चले गए, किंतु उनके अविस्मरणीय योगदान को, उनकी कर्तव्यनिष्ठा को, उनके महायान बौद्ध धर्म-दर्शन से लगाव को लदाख की जनता विस्मृत नहीं कर सकी। इसी कारण आजाद भारत में जब लदाख के विकास के लिए किसी मार्गदर्शक की जरूरत महसूस हुई, तो लदाख के लोगों ने श्रीघर कौल पर ही अपना भरोसा जताया। लदाखियों द्वारा सन् 1953 में एक ज्ञापन तत्कालीन मुख्यमंत्री बख्शी गुलाम मोहम्मद को भेजा गया, जिसमें पंडित श्रीधर कौल को लदाख मामलों का विशेष सचिव नियुक्त किए जाने की माँग थी। लदाख के लोगों की यह माँग भले ही पूरी न हो सकी हो, किंतु इसने एक निष्काम सेवाव्रती के प्रति आस्थायुक्त जनभावनाओं को अभिव्यक्त कर दिया था।

सन् 1967 में पंडित श्रीधर कौल अपने रैनाबाड़ी स्थित आवास में चिरनिद्रालीन हो गए। लदाख अंचल को जम्मू और श्रीनगर के समान विकसित और सशक्त होते देखने की कामना करने वाले पंडित श्रीधर कौल की अमूल्य राष्ट्रसेवा विस्मृत नहीं की जा सकती। देश के उत्तरी छोर को एकता के सूत्र से बाँधकर रखने वाले, लदाख अंचल में शिक्षा की अलख जगाने वाले पंडित श्रीधर कौल डुल्लू का निष्काम सेवाभाव नींव के पत्थर की तरह है।

-राहुल मिश्र

(मासिक पत्रिका सीमा संघोष, अगस्त, 2021 अंक में प्रकाशित)





Friday 30 July 2021

कैसे हैं ये ‘पिंजरा तोड़’ वाले लोग....




कैसे हैं ये ‘पिंजरा तोड़’ वाले लोग....

हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा मंजूर की गई एक जमानत की अर्जी के बाद से ही दिल्ली दंगों समेत पिंजरा तोड़ समूह फिर से चर्चा में आ गया है। हालाँकि ये चर्चा में रहें, ऐसी विशिष्टता न तो जमानत पर रिहा हुए पिंजरा तोड़ समूह के सदस्यों देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा की है, और न ही पिंजरा तोड़ समूह की...। फिर भी ‘पिंजरा तोड़’ उस मानसिकता को जानने-समझने के लिए बहुत जरूरी है, जिसे वृहत्तर भारतीय समाज की जड़ों पर लगने वाले दीमक की संज्ञा दी जा सकती है।

हिंदी सिनेमा के साथ ही हिंदी की गीत परंपरा के बहुत ही प्रसिद्ध गीतकार हुए हैं- रामचंद्र नारायण द्विवेदी, जिन्हें कवि प्रदीप के नाम से जाना जाता है। कवि प्रदीप का एक बहुत चर्चित गीत है- पिंजरे के पंछी रे..., तेरा दरद ना जाने कोय...। यह गाना नागमणि फिल्म का है। हालाँकि यह फिल्म देश की आजादी के दस वर्षों बाद, सन् 1957 में रिलीज हुई थी, लेकिन फिल्म का यह गाना देश की पराधीनता की स्थितियों को याद दिलाने के लिए बहुत उपयुक्त लगता है, गुलामी के बंधनों को खुलकर बताता है। इसका दूसरा पक्ष अध्यात्म का है, आध्यात्मिकता से जुड़ा है। भारतीय चिंतन-दर्शन परंपरा में भौतिक शरीर को पिंजरा माना जाता है। इसी से पिंजर या अस्थि-पंजर भी बना है। इसमें बसने वाली आत्मा पिंजरे का पंछी कही जाती है, जिसका ध्येय परमात्मा से मिलना होता है। इस तरह कवि प्रदीप का यह गाना दो अलग अर्थों और संदर्भों को रखता है। यहाँ कवि प्रदीप के ‘पिंजरे के पंछी रे...’ को बताने का उद्देश्य यही था, कि पिंजरा भारतीय समाज-जीवन में अलग और विशेष महत्त्व रखने वाला है।

इधर कुछ वर्षों से देश की राजधानी दिल्ली की हवाओं में पिंजरे को तोड़ने की बातें तैरने लगी हैं। दिल्ली की ये हवाएँ देश के दूसरे बड़े शहरों में भी अपना असर दिखाने में पीछे नहीं रहीं हैं। समाज के कुछ वर्गों में यह ‘पिंजरा तोड़’ बहुत चर्चित रहा, और इसे समग्र भारतीय समाज की आवाज के तौर पर दिखाने की कोशिशें भी लगातार होती रहीं। जबकि सामान्यजन के लिए ‘पिंजरा तोड़’ एक अबूझ पहेली की तरह ही रहा; आखिर कौन-सा पिंजरा, और क्यों इस पिंजरे को तोड़ा जाना है....। वास्तविकता यह है, कि यह पिंजरा न तो देश की पराधीनता को व्याख्यायित करने वाला है, और न ही भारतीय आध्यात्मिक परंपरा से जुड़ा हुआ है। यह पिंजरा ऐसा है, जो विशुद्ध उच्छृंखल और समाज को तोड़ने वाले विचारों से जुड़ा हुआ है।

वर्ष 2015 के अगस्त महीने में ‘पिंजरा तोड़ समूह’ दिल्ली के कुछ विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में चर्चित हुआ था। उच्चशिक्षा केंद्रों में महिलाओं-छात्राओं को उत्पीड़न से बचाने और आपराधिक कृत्य करने वालों को शीघ्र दंडित किए जाने की माँग को लेकर जो आंदोलन खड़ा हुआ था, उसे कुछ राजनीति-प्रेरित तत्त्वों ने अपने कब्जे में ले लिया और इस आंदोलन का स्वरूप बदल गया। शिक्षण-संस्थानों की विसंगतियों को दूर करने के स्थान पर यह आंदोलन तथाकथित पितृसत्तात्मक व्यवस्था की खामियों को गिनाने लगा। इसे नाम भी इसी के अनुरूप दिया गया- पिंजरा तोड़..।

भारतीय सामाजिक संरचना कभी भी ऐसी नहीं रही, जहाँ महिलाएँ या समाज के अन्य वर्गों के लोग उपेक्षित रहे हों। सभी को समानता का अधिकार प्राप्त है। भारतीय संविधान में भी यह व्यवस्था विद्यमान है। इन सबके बावजूद एक वर्ग ऐसा भी है, जो सदैव असंतुष्टि में जीता है। उसके लिए समाज की संरचना और सामाजिक व्यवस्था के अंग असहनीय होते हैं। ऐसे लोग समाज के सूत्रों-तंतुओं को तोड़कर अस्थिरता, अव्यवस्था और अराजकता का वातावरण बनाने के लिए अवसर तलाशते रहते हैं। ‘पिंजरा तोड़ समूह’ का गठन भी इसी को केंद्र में रखकर हुआ। ‘पिंजरा तोड़ समूह’ की गतिविधियाँ और विरोध के तरीके इस तरह के रहे हैं, कि उनको यहाँ पर लिखा जाना भी संभव नहीं। यह समूह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के विरोध का नाम ले-लेकर जिस तरह से महिलाओं-बालिकाओं के मन में जहर भरने का काम करता रहा है, वह भी किसी से छिपा नहीं है। महिलाओं की स्वतंत्रता, उन्हें पुरुषों के समान अधिकार और ऐसे ही तमाम विषयों पर आंदोलन करते-करते अराजकता की सीमा के पार निकल जाने का अतीत भी इस समूह के साथ है। यहाँ यह भी कहना आवश्यक होगा, कि हमारे आसपास अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं को मानने वाले लोगों में कुछ ऐसे भी हैं, जहाँ स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। उन्हें अपने मन के कपड़े पहनकर बाहर निकलने की आजादी नहीं है, उनके लिए तो खुली हवा में साँस लेना भी प्रतिबंधित है...शिक्षा और रोजगार के लिए स्वतंत्र होना तो अलग और दूर की बात है। ऐसी बालिकाओं-स्त्रियों के लिए पिंजरा तोड़ने की बात यह समूह नहीं करता। इस समूह के लिए स्त्री-अधिकारों की बातें भी धर्म-जाति के अनुसार ही निर्धारित होती हैं।

कुछ समय पहले ‘पिंजरा तोड़ समूह’ की गतिविधियों को उस समय खाद-पानी मिला, जब दिल्ली में आजादी माँगने वाले लोग भी सक्रिय हो गए। अगर देखा जाए, तो दोनों का ध्येय एक ही है। एक तरफ पिंजरा तोड़कर आजाद होने की बात है, तो दूसरी तरफ सीधे आजादी माँगी जा रही है। अब यक्ष-प्रश्न तो यही है, कि आखिर आजादी किससे माँगी जा रही है, गुलाम किसने बनाया है और आजादी माँगने का प्रयोजन क्या है? अगर इन तीनों प्रश्नों के उत्तर खोजने की कोशिश करेंगे, तो पूरे देश में तिलमिलाए हुए अलगाववादियों की खीझ आपको दिखाई देगी। वर्ष 2019 में जम्मू-काश्मीर और लद्दाख को केंद्रशासित प्रांत बनाने के बाद तो यह खीझ अपने चरम पर पहुँच गई थी। इसके पहले कई ऐसे कानून, जो महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित करते थे, जो आतंकी-देशविरोधी गतिविधियों को रोकने में बाधक बनते थे, उन सबको संशोधित करने के केंद्र सरकार के निर्णय ने कई आंदोलनजीवी तैयार कर दिए थे। जिन कानूनों से महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा मिले, उनकी वैवाहिक स्थिति अस्थिर होने के स्थान पर सबल हो और इसके माध्यम से समाज में अनाचार रुके, ऐसे कानूनों का संसद से पारित कराया जाना और उन्हें लागू कराया जाना भी कुछ लोगों को सहन नहीं हुआ। हमने ‘अवार्ड वापसी’ करने वाले तमाम लोगों के चरित्र को भी देखा, जिन्हें समाज-जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में बड़ा सम्मान मिलता था। ऐसे लोग अपनी असलियत पर उतरकर समाज के हित के स्थान पर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और राजनीतिक प्रतिबद्धताओं का निर्वहन करते दिखे।

इन तमाम गतिविधियों की पराकाष्ठा वर्ष 2019 में दिल्ली के शाहीन बाग में शुरू हुए ‘सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन’ में दिखी, जब नागरिकता संशोधन अधिनियम- 2019 और राष्ट्रीय नागरिकता पंजीयन (एनआरसी) को लेकर इकट्ठी हुई भीड़ ने सारी दिल्ली की यातायात व्यवस्था को लचर और पंगु बना दिया। इतना ही नहीं, दिल्ली से चलकर यह अराजक आंदोलन देश के कई हिस्सों में फैलने लगा। देश की अखंड़ता, एकता, सुरक्षा और पड़ोसी देशों में धार्मिक अल्पसंख्यक होने के कारण दमनचक्र झेल रहे लोगों को भारत में नागरिकता दिये जाने के विरोध में विभिन्न संगठनों के साथ ही ‘पिंजरा तोड़ समूह’ भी शामिल रहा। हालाँकि इस समूह का कार्यक्षेत्र और गतिविधियाँ किसी भी दशा में शाहीन बाग के आंदोलन से संबंध नही रखती थीं।

दरअसल, देश के ऐसे राजनीतिक दल और धार्मिक संगठन, जो आयातित-विदेशी विचारधाराओं पर भरोसा रखते हैं, उनको देश के शीर्षस्थ राजनीतिक पदों पर बैठे राष्ट्रवादी और देश के प्रति आस्थावान नेतृत्व की उपस्थिति ही सहन नहीं हो रही थी। देश की जनता की जागरूकता और राष्ट्र को सर्वोपरि मानने की धारणा ने जिस नेतृत्व को देश का दायित्व सौंपा है, वह पूरी कार्यकुशलता के साथ, सक्रियता के साथ देश के हित के लिए, सीमाओं की सुरक्षा के लिए, आंतरिक सुरक्षा-व्यवस्था और निष्पक्ष नीतिगत निर्णय लेने के लिए कृतसंकल्पित होकर कार्य कर रही है। यही बात ‘आजादी बचाओ’, ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ और ‘पिंजरा तोड़’ आदि को सहन नहीं हो पा रही है। इसी कारण दिल्ली के नामचीन विश्वविद्यालय पिछले दो-तीन वर्षों से इस तरह की गतिविधियों के बड़े और शुरुआती अड्डों के रूप में पहचान बना चुके हैं।

    नागरिकता संशोधन अधिनियम के विरोध में फरवरी, 2020 में दिल्ली में हुए दंगों के मामले में दिल्ली पुलिस ने आतंकरोधी कानून (यूएपीए) के तहत पिंजरा तोड़ समूह की सदस्य देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और एक युवक आसिफ इकबाल तन्हा को गिरफ्तार किया था। इन दंगों में अलग-अलग जगहों पर लगभग 53 लोगों की जान गई थी। पुलिस ने इस मामले में भड़काऊ और देश-विरोधी भाषण देने, दंगों के लिए लोगों को उकसाने सहित अन्य मामलों में इन तीनों आरोपियों के खिलाफ न केवल सुबूत इकट्ठे करने के बाद कार्यवाही की, वरन् लगभग 750 लोगों के बयान भी दर्ज किए। सीधी सी बात है, कि पुलिस के द्वारा जुटाए गए तमाम साक्ष्य अदालत तक पहुँचे और तीनों आरोपियों को अलग-अलग जमानत भी दे दी। हिल्ली हाईकोर्ट ने किन तथ्यों को आधार बनाकर जमानत की याचिका को स्वीकार किया, उसके अध्ययन के तुरंत बाद ही दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) दायर करके अपना पक्ष रखा।

सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली पुलिस ने दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा जमानत दिए जाने के लिए अपनाए गए दृष्टिकोण पर अपना पक्ष रखा, कि चार्जशीट में लिखे गए विस्तृत साक्ष्यों के स्थान पर सोशल मीडिया कथा को आधार बनाया गया है। दिल्ली पुलिस ने सुप्रीम कोर्ट में यह भी कहा, कि दिल्ली हाईकोर्ट ने जो निष्कर्ष दिए हैं, वे रिकार्ड और मामले की सुनवाई के दौरान की गई दलीलों के विपरीत हैं। दिल्ली पुलिस का यह भी कहना है, कि पूर्व कल्पित तरीके से मामले को निपटाते हुए आरोपियों को जमानत दी गई है। आरोपियों द्वारा किए गए कृत्य को हाईकोर्ट ने बहुत ही सरल और सामान्य-सा मामला मानकर निर्णय दिया है, जबकि तीनों आरोपी 53 लोगों की हत्या सहित देश की संवैधानिक व्यवस्था को बाधित करने के जघन्य अपराध में निरुद्ध किए गए हैं।

दिल्ली पुलिस की इस अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान लेते हुए हाईकोर्ट के जमानत देने के निर्णय की पड़ताल की है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रथम स्तंभ के रूप में न्यायपालिकाओं पर भारत की जनता को हमेशा भरोसा रहा है। कई अवसरों पर न्यायालयों द्वारा देश के लोकतंत्र की, साथ ही देश की संवैधानिक मर्यादा की रक्षा की गई है। इस प्रकरण पर भी दिल्ली उच्चन्यायालय ने अपने दायित्व को निभाया, लेकिन दिल्ली पुलिस के तर्कों को भी झुठलाया नहीं जा सकता। कार्यपालिका के महत्त्वपूर्ण अंग और कानून-व्यवस्था के अनुपालन के लिए पुलिसबल की कार्यप्रणाली और उसकी विश्वसनीयता को संदेह के घेरे में रखा जाना उचित नहीं।

कुल मिलाकर दिल्ली पुलिस की सक्रियता और तत्परता की वजह से ही आज अलगाववाद फैलाने वाले, भड़काऊ भाषण देकर अव्यवस्था उत्पन्न करने वाले कृत्यों पर रोक लग सकी है। दूसरी ओर ‘पिंजरा तोड़’ समूह की मानसिकता है। इसे कुछ लोगों के समूह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इसे संविधान द्वारा दी गई स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आजादी के अंग के रूप में भी नहीं देखा जाना चाहिए, क्योंकि ‘पिंजरा तोड़’ समूह-मात्र नहीं है, बल्कि एक ऐसी विषाक्त वैचारिकता है, जो परिवार से लगाकर समाज तक, देश से लगाकर संवैधानिक व्यवस्था तक हर किसी को कई-कई खंडों-हिस्सों में बाँटने के लिए काम करती है।

राहुल मिश्र

(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र- सीमा संघोष के जुलाई, 2021 अंक में प्रकाशित)

Tuesday 1 December 2020

 





शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है...

कहते हैं, पहाड़ी नदियाँ बड़ी शोख़ होती हैं, चंचल होती हैं। लहराना, बल खा-खाकर चलना ऐसा,  कि ‘आधी दुनिया’ को भी इन्हीं से यह हुनर सीखना पड़े। पहाड़ी नदियाँ तो बेशक ऐसी ही होती हैं, मगर कभी हिमानियों से अपना रूप और आकार पाने वाली नदियों के बारे में सोचा है? वैसे तो ये भी पहाड़ों की ही हैं। इसलिए शोख़ी और चंचलता, बाँकपन और अदाकारी इनमें नहीं होगी, ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता है। देख लीजिए अलकनंदा और भागीरथी को, देख लीजिए लोहित और असिक्नी को....., और इनकी जैसी अनेक नदियों को....। एक अलग-सा सौंदर्य, अनूठा अल्हड़पन इनमें नजर आएगा। हिमनदों की इन आत्मजाओं का अनूठा सौंदर्य हिमालय की ऊँचाइयों पर ही देखा जा सकता है। अपने उद्गम से आगे बढ़ते हुए इनकी चंचलता मैदानों तक पहुँचते-पहुँचते गंभीरता में बदल जाती है। ठीक बचपन और बुढ़ापे की तरह...।

हिमनदों की इन चंचल बेटियों में एक शयोक भी है, जो अपनी कुछ अलग ही तासीर रखती है। यह चंद्रा और लोहित की तरह, अलकनंदा की तरह, या फिर भागीरथी की तरह सीधी-सरल और शांत नहीं है। लेह की तरफ से खरदुंग दर्रे को पार करते ही जैसे हम नुबरा घाटी में पहुँचते हैं, हरहराती हुई और तेजी से भागती हुई शयोक जैसे अगवानी करने को तैयार मिलती है। नुबरा घाटी में हम जितने दिन गुजारते हैं, उतने दिनों तक शयोक हमारा पीछा नहीं छोड़ती। नुबरा घाटी में घूमते हुए कई-कई बार हमें इसके साथ, तो कई बार इसे पार करके दर्शनीय स्थलों में पहुँचना होता है। इतना ही नहीं, शयोक अपने प्रवाह के साथ अपनी एक उपघाटी या अपना मैदानी इलाका भी बनाती है।

  अल्हड़ शयोक अपने उद्गम स्थान से निकलकर ‘गप्शन’ तक पश्चिम और दक्षिण तक बहती है और ‘गप्शन’ से ‘मंदरालिङ’ तक पूर्व दिशा में  बहती है। अपने उद्गम से आगे निकलकर यह गलवाँ और चंङ छेनमो नदियों को अपने साथ ले लेती है। इसके साथ ही यह इस इलाके में मंगोलियन तिब्बत और लद्दाख के बीच एक प्राकृतिक विभाजक रेखा भी खींचती है।  ‘मंदरालिङ’ से ‘शयोग’ तक दक्षिण और ‘शयोग’ से ‘हुंदर’ तक पश्चिमोत्तर बहते हुए बाद में पश्चिम दिशा की ओर बहते हुए बल्तिस्थान में प्रवेश कर जाती है। बल्तिस्थान के प्रमुख शहर स्करदो के पूर्व की ओर स्थित ‘केरिस’ के नजदीक सिंधु से मिल जाती है।

कई-कई बार शयोक की अल्हड़ चाल को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह ‘खरदुंग-ला’ से बहुत नाराज हो। ‘खरदुंग-ला’, यानि खरदुंग दर्रा....भोटभाषा में ‘ला’ दर्रे को कहते हैं। ‘ला’ तो ठीक है, लेकिन ‘खरदुंग’ तो ‘खर’ और ‘तुंग’ का मिश्रण समझ में आता है, जो प्रजातियों-पीढ़ियों की जुबानों में घिस-घिसकर ‘खरदुंग’ हो गया है, शायद। एकदम खड़ी-सी, ऊँची और कठिन चढ़ाई वाला तुंग....खरतुंग। आखिर यह शयोक के रास्ते में आया ही क्यों? उत्तर आसान-सा है, सरल-सा ही है...। पहाड़ हमेशा धीर-गंभीर और वीरव्रती ही नहीं होते, ये खलनायक की भूमिका में भी कभी-कभी आ जाते हैं। ऊँचे-ऊँचे दुर्गम और कठिन दर्रों के कारण ही लदाख के लिए कहा जाता है, कि यहाँ पर बहुत घनिष्ठ मित्र या बहुत कट्टर दुश्मन ही पहुँच सकता है। मध्यम स्तर वालों के लिए यहाँ आना सुगम नहीं...संभव नहीं। कारण... पहाड़ ही यहाँ पर चुनौतियों के  द्वार खोलते हैं। शायद इसी कारण शयोक की कथा में खरदुंग-ला किसी खलनायक से कम नजर नहीं आता। ऐसी ही एक कथा लाहुल-स्पीति के लोककंठों में जीवंत मिलती है। इस कथा में बारालाचा की दुर्गम ऊँचाइयाँ चंद्रा और भागा के लिए अवरोधक बनती हैं।

बड़े गहरे उतरे स्नेह-भाव के कारण कुछ लोगों द्वारा बड़ालाचा भी कहे जाने वाले बारालाचा के चंद्रताल से निकली चंद्रमा की बेटी चंद्रा, और सूर्यताल से निकला सूरज का बेटा भागा अपने प्रेम को जल तत्त्व में उतारकर साकार करते हैं। वैसे सूर्य का एक नाम भाकर भी है। भाकर का अंश भागा, और चंद्रमा की चंद्रा...। बारालाचा के शिखर से उनकी यात्रा शुरू होती है, मिलन के लिए...। भागा को कुछ ज्यादा ही भागना पड़ता है, दुर्गम पहाड़ियों के बीच अपना रास्ता बनाना होता है। अंततः ताँदी में दोनों मिलते हैं, और एक प्रयाग, एक संगम वहाँ बन जाता है, आस्था का...प्रेम की पराकाष्ठा का। लाहुल-स्पीति की अनेक लोककथाओं के बीच चंद्रा और भागा की यह प्रेमकथा बड़ी रुचि के साथ सुनी जाती है। ताँदी से आगे चंद्रभागा चेनाब बन जाती है, वैदिककाल की असिक्नी या आज के आम बोलचाल की इशकमती बन जाती है। इसी के किनारे हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल की प्रेमकथाएँ पनपती हैं, पंजाबियों के रीति-रिवाज परवान चढ़ते हैं। चंद्रा और भागा का अमर प्रेम मैदानी इलाकों को अपने रंग में रंग देता है।

यही अमर प्रेम शयोक और सिंधु में भी तो दिखता है, इसी कारण मिलन की राह में खड़े खर-तुंग से नाराज शयोक एकदम अपनी दिशा बदलकर बहने लगती है। इसीलिए खरदुंग-ला के पदतल में, हमें जैसे ही शयोक के दर्शन होते हैं, उसका भर्राया हुआ गला, नाराजगी से भरा स्वर सुनाई देता है। नदियों, पर्वतों, वनस्पतियों में स्वयं को देखने की, मानवीय गुणों और प्रवृत्तियों को देखने की अनूठी भारतीय पंरपरा दुनिया में विलक्षण है, अद्भुत है। इसी कारण शयोक के ही नहीं, हमारे अपने स्वर भी दो प्रेमियों के मिलन की राह में बाधक बनने वाले खलनायक खरदुंग-ला के लिए नाराजगी से भर जाते हैं। बारालाचा में अगर सूरज का बेटा है, तो यहाँ रिमो हिमानी की बेटी है। उधर चंद्रा है, जो बड़ी शालीन और संयत है। इधर शालीनता सिंधु नद के हिस्से में है। वैसे ‘रिमो’ भी भोटभाषा का शब्द है, और धारीदार पहाड़ के लिए इसे प्रयोग किया जाता है। जब माई ही इतनी तीखी है, तो बिटिया शांत-संयत कैसे हो सकती है? कई बार यह विचार शयोक की अल्हड़ चाल के कारणों को खोजते समय मन में उतर पड़ता है।

वैसे शयोक को कुछ और करीब से जानना हो, तो पाँच-छः घंटे का समय निकालकर स्याम गोनबो की लगभग सात-आठ सौ फीट की ऊँचाई पर चढ़ जाइए। धरती के टुकड़े को चाकू से काटती तेज धार की तरह शयोक का बहाव दिखाई पड़ेगा। एक तरफ हिमालय की लदाख पर्वतश्रेणी है, तो दूसरी तरफ काराकोरम पर्वतश्रेणी है। बीच में शयोक है, दो पर्वतश्रेणियों को एक-दूसरे से जुदा करती हुई। यह विभाजन पहाड़ों की बनावट का भी है, और बुनावट का भी...रंग भी दोनों के अलग-अलग...चट्टानें भी अलग और मिट्टी भी अलग। एक तरफ लालिमा है, तो दूसरी ओर कारा जैसी कालिमा...। स्याम गोनबो की ऊँचाई से शयोक को देखकर मन में  सबसे पहला विचार यही आता है, कि, भला हो... शयोक तुम्हारा! जो तुमने  दोनों श्रेणियों को अलग-अलग कर दिया.... कहीं हम एक ही समझ बैठते, तो आखिर क्या होता? यह तो ठीक है, लेकिन क्या तुम्हें एक गति से चलना नहीं आता है?

हे शयोक! हमने भी स्याम गोनबो की ऊँचाइयों से तुम्हें निहारा है। केवल निहारा ही नहीं है, तुम्हारे सानिध्य में पाँच-छः घंटे भी बिताए हैं। सुबह के समय तुम्हारी चाल थमी हुई-सी होती है। उस समय लगता है, कि तुम घुटुरुअन चल रही हो। कोई भी तुम्हारे पास जा सकता है। सिर पर सूरज के चढ़ते-चढ़ते तुम्हारे किनारों के रेतीले मैदानों में नमी पसरने लगती है। कई-कई जलधाराएँ उग आती हैं। साँझ ढलते-ढलते तुम्हारी चाल बहुत तेज हो जाती है। तुम्हारे सहमे-सिकुड़े से किनारे दूर-दूर तक फैल जाते हैं। रात के अँधेरों में भी तुम्हारी तेजी बनी ही रहती है, और सुबह-सवेरे फिर वही वीतरागी मद्धिम चाल....। कहीं तुम्हारे नाम के पीछे तुम्हारी चाल का असर तो नहीं है? अपने ‘ओक’ में, रिमो की गोद में ‘शयन’ कर रहीं तुम आलसियों की तरह दिन चढ़ने पर जागती हो, और देर हो जाने की बदहवासी में तेजी से दौड़ लगा देती हो। तुम्हारी दिन-भर की कलाएँ देखकर ही हमारे मन में ऐसे विचार आते हैं। हो सकता है, दूसरे लोगों के मन में ऐसे विचार आते हों। ‘शय’ और ‘ओक’ के मिलन से बनने वाले तुम्हारे नाम के पीछे भी यही विचार हो सकते हैं।

वैसे यारकंदी लोग शयोक को इस नाम से नहीं जानते। उनके लिए शयोक मौत की नदी है। दरअसल, काराकोरम की विकराल ऊँचाइयों से गुजरने वाले रेशम मार्ग का सहायक मार्ग नुबरा घाटी से जुड़ा हुआ था। लेह को रेशम मार्ग से जोड़ने वाले इस सहायक मार्ग की यात्रा करते समय यारकंदी व्यापारियों को लगभग बीस बार शयोक नदी को पार करना  पड़ता था। गर्मियों में तो इसे पार करना असंभव ही होता था, मगर सर्दियों में भी यह कम कठिन नहीं होता था। अपनी आदत के हिसाब से शयोक एकदम तेजी के साथ बह पड़ती, और यारकंदी व्यापारियों के कारवाँ में शामिल ऊँटों, घोड़ों, आदमियों तक को बहा ले जाती। शयोक के किनारे रहने वाले लोग भी इससे कम डरे हुए नहीं हैं। आज तो तमाम साधन हैं, पुल हैं, सड़कें हैं; लेकिन  गुजरे जमाने में लोग बेबसी को ढोते थे, और वैकल्पिक रास्ते निकालते थे। शयोक के किनारे के कुछ पुराने गाँवों, जैसे हुंदर, हुंदरी, देस्किद और उदमारू आदि के लोग चमरी मृग की खाल से ‘बिप्स’, यानि चमड़े की नाव बनाते थे, और उसके सहारे अपनी जान को जोखिम में  डालकर शयोक को पार करते थे।

भूरी-मटमैली रंग की इस मौत की नदी से नुबरा-शयोक घाटी के लोगों की भी खासी नाराजगी है। जिस शयोक को जीवनदायिनी होना चाहिए, उसके विकराल रूप से आहत लोग अपनी नाराजगी भी बड़ो रोचक अंदाज में व्यक्त करते हैं। आज भी किसी  बूढ़े-बुजर्ग से पूछिए, तो वे कहते हैं कि हम खेती-किसानी के लिए शयोक का पानी लेना नहीं पसंद करते, क्योंकि शयोक हमें जीवन देने वाली नहीं है। शयोक ने अपनी बाढ़ के उफान में कई बार हमारे तटबंधों की मिट्टी बहाई है, हमारी फसलों और पेड़-पौधों को बहाया है। इतना ही नहीं, गाँव के गाँव बहाकर आबादी को मिटाया है। इसलिए हमें शयोक का पानी अपनी फसलों में नहीं डालना है।

ऐसा कहा जाता है कि बल्तिस्थान के यगबो राजवंश की राजधानी काफलू में भयंकर बाढ़ आई थी। इस बाढ़ में शयोक नदी ने काफलू के चंगथंग इलाके को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। यह चंगथंग इलाका मंगोलियन तिब्बत से सटे चंगथंग के लोगों का था, जो रेशम मार्ग में नमक का व्यापार किया करते थे। इस भीषण तबाही से आक्रांत लोगों ने उस इलाके को ही छोड़ दिया। इनमें से कुछ लोग ‘छोरबत’ में बस गए और कुछ लोग नुबरा घाटी से होते हुए लेह के निकट ‘छुशोद’ गाँव में आकर बस गए। छुशोद में इन लोगों को ‘बल्ती’ के तौर पर जाना जाता है।

वैसे शयोक ने केवल बल्तियों को ही विस्थापित नहीं किया, वरन् अतीत के तमाम विस्थापनों को, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों को देखा है, जो इतिहास में आज भी अनजाने हैं, अनछुए और गुमनाम-से हैं। देश के विभाजन के बाद कारगिल से सड़क मार्ग द्वारा स्करदो तक जाना संभव नहीं रहा। अविभाजित लदाख में स्करदो की उतनी ही बड़ी भूमिका होती थी, जितनी लेह की..। डोगरा शासकों के समय में लदाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी स्करदो होती थी। सिंधु नद स्करदो से गुजरते हुए केरिस के पास शयोक से मिलता है। केरिस के पास ही शिगर नदी भी सिंधु में मिलती है। यहाँ त्रिवेणी बन जाती है, संगम बन जाता है। केरिस के निकट ही ऐतिहासिक काफलू शहर है।

अतीत का एक लंबा कालखंड ऐसा भी रहा है, जब सिंधु और शयोक के दोआब में दरद भाषा का व्यवहार हुआ करता था। कारगिल-खलच़े से लगाकर स्करदो-गिलगित-हुंजा से होते हुए मंगोलियाई तिब्बत की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा तक विस्तृत दरदभाषी क्षेत्र अपने अतीत में दरद आर्यों का निवास स्थान रहा है। आज का बल्तिस्थान अतीत में इसी दरद देश के अंतर्गत ही आता था। आज की धार्मिक-सांस्कृतिक विविधताओं के बीच प्रजातिगत एकरूपता अतीत के गौरव की साक्षी है। इस दरद देश का अतीत महाभारत काल से भी जुड़ा है। महाभारत के युद्ध में दरदों ने कौरवों की तरफ से युद्ध किया था, जबकि किरातों ने पांडवों की तरफ से युद्ध किया था। तिब्बती भोटभाषा में किरातों को ‘मोन’ कहा जाता है। इन्हीं मोन लोगों के कारण लदाख का एक नाम ‘मोनयुल’, यानि मोन लोगों का इलाका भी है। सिंधु के तट पर ‘मोन’ या किरातों की, और शयोक के तट पर दरदों की आबादी के सहारे सिंधु-शयोक का दोआब महाभारतकालीन राजनीतिक प्रसंगों का साक्षी बना होगा।

शयोक तो मानव-सभ्यता के विकास की, हिमालय की निर्मिति की साक्षी भी है। शयोक तांतव संधि-क्षेत्र या ‘शयोक स्यूटर जोन’ के तौर पर हम शयोक के प्रवाह को जानते हैं। देश-दुनिया में प्रसिद्ध पङ्गोङ झील की निर्मिति भी शयोक के प्रवाह के कारण हुई। किसी समय टेथिस सागर की लहरों को झेलने वाला शयोक का प्रवाह-क्षेत्र आज भी परवर्ती जुरासिक काल के जीवों के चिन्हों को अपने में छिपाए हुए है। सिंधु नद का अतीत भी इसी तरह परवर्ती जुरासिक काल से जुड़ा हुआ है। इस कारण सिंधु और शयोक से मिलकर सिंधु-शयोक मेखला का निर्माण होता है। इसी कारण सिंधु से मिलना ही शयोक की नियति बन जाती है। यह मिलन केरिस में होता है। सिंधु और शयोक के साथ ही शिगर नदी भी केरिस में मिलती है। अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ केरिस ऐसा संगम बन जाता है, ऐसा जीवंत प्रयाग बन जाता है, जहाँ अतीत के मानव के अस्तित्व का पहला अध्याय लिखा जाता है। जहाँ सभ्यताओं के अस्तित्व और संघर्ष की गाथाएँ गुनी जाती हैं। जहाँ धर्मों-रीतियों-नीतियों के टकराव दर्ज होते हैं। जहाँ भूरी-मटमैली शयोक नदी सिंधु नद से मिलकर अपनी पूर्णता को पाती है, और न पढ़े गए इतिहास के तमाम पन्नों को बाँचती है, उवाचती है। शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है..।

डॉ. राहुल मिश्र

(हिंदी प्रचार-प्रसार सोसायटी अमृतसर की पत्रिका 'बरोह' के दिसंबर, 2019 अंक में प्रकाशित)