निराला के काव्य की पड़ताल करती एक महत्त्वपूर्ण किताब
(निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना)
बीसवीं सदी के सिद्धहस्त कवि और बहुमुखी प्रतिभा के धनी
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का व्यक्तित्व और कृतित्व उनके नाम के अनुकूल ही है। उनकी
रचनाओं में जैसी विविधता, व्यापकता और समग्रता देखने को मिलती है, वैसी अन्यत्र
दुर्लभ है। इसी कारण स्वनामधन्य कविश्री निराला को समग्रता के साथ मूल्यांकन के
पटल पर उतार पाना कठिन ही नहीं, दुष्कर कार्य भी है। निराला के गद्य में जहाँ एक
ओर समाज का यथातथ्य चित्रण है; वहीं दूसरी ओर मनोभाव, सामयिक प्रश्नाकुलताएँ और
कथ्य की व्यापकता चित्रित होती है। इसी प्रकार निराला के काव्य में एक ओर छायावाद
की प्रवृत्तियों के अनुरूप कल्पना, रहस्य-रोमांच और प्रकृति का सुंदर चित्रण है,
तो दूसरी ओर समाज और राष्ट्र के प्रति एक समर्पित साहित्यिक का जीवन-दर्शन है।
प्रयोगधर्मी निराला कभी किसी स्तर पर एक स्थिति, विचार, विचारधारा या मनोभाव को
पकड़कर नहीं बैठते, वरन् नदी के प्रवाह के समान उनकी वैचारिक गति, भावों-संवेदनाओं
का प्रसार और परिवर्तित-परिवर्धित होतीं भावजन्य अभिव्यक्तियाँ अद्भुत और अनूठेपन
के साथ सहृदय पाठक को अपने साथ ले चलती हैं। इसी कारण सूर्य और निराला के प्रिय
बादल के समयानुकूल संयोजन से आकाश में बन जाने वाले इंद्रधनुष की भाँति निराला का
काव्य-संसार बहुरंगी बन जाता है। इसका एक-एक रंग अपनी विलक्षण प्रभावोत्पादकता से
रोमांचित कर देने वाला है।
निराला के इंद्रधुनष-सम काव्य-संसार की एक रश्मि को अपने
शोध का विषय बनाकर डॉ. स्नेहलता शर्मा ने उस दीप्ति से साक्षात्कार कराने का
प्रयास किया है, जिसके बल पर हिंदी साहित्य गर्वोन्नत है। डॉ. स्नेहलता शर्मा की
कृति- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना इसी प्रयास का पुस्तकाकार
माध्यम है। समीक्ष्य कृति अपनी विशिष्टता भी इसी कारण रखती है, क्योंकि राष्ट्रीय
चेतना के स्वर को, उसके प्रवाह और विस्तार को निराला के समग्र काव्य-संसार में
देखना और उसे विश्लेषित करते हुए एक स्थान पर उपलब्ध कराना सरल कार्य नहीं है।
समीक्ष्य कृति में अतीत के उस गौरवपूर्ण कालखंड को संदर्भ के रूप में प्रस्तुत
किया गया है, जिसकी विनाशलीला को देखकर पुनः जागरण होता है। भारतीय जागरण काल के
साथ अतीत के गौरवपूर्ण कालखंडों का स्मरण भी जुड़ जाता है। निराला की राष्ट्रीय
चेतना से संपृक्त कविताओं का आधार इसी बिंदु पर तैयार होता है। इस प्रकार क्रमबद्ध
और व्यवस्थित सामग्री का संकलन राष्ट्रीय चेतना के पक्षों को केवल स्पष्ट ही नहीं
करता, वरन् अपने व्यापक रूप में, व्यवस्थित-क्रमबद्ध अध्ययन में अनेक ऐसे अनछुए-अनजाने
पक्षों को भी प्रकट कर देता है, जो प्रायः चलन में नहीं होने के कारण विस्मृत हो
चुके हैं। विषय की सटीक प्रस्तुति हेतु समीक्ष्य कृति को पाँच अध्यायों में बाँटा
गया है।
समीक्ष्य कृति का प्रथम अध्याय है- राष्ट्र का स्वरूप :
राष्ट्र के रूप में भारत, इतिहास। इस अध्याय में राष्ट्र को परिभाषित करते हुए
धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एकता के विविध अंगों को; एवं भाषागत, परंपरागत
एकता के संदर्भों को प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार भारतवर्ष के रूप में इस
विशाल भूखंड की निर्मिति को आदिकाल से लगाकर वर्तमान तक देखने का प्रयास हुआ है। राष्ट्रीय
एकता और राष्ट्रीयता के भाव के समग्र प्रस्तुतीकरण का अंदाज इसी बात से लगाया जा
सकता है कि लेखिका ने उन तत्त्वों को भी खुले मन से विश्लेषित किया है, जो अतीत से
लगाकर वर्तमान तक हावी हैं और राष्ट्रीय चिंतनधारा के अवरोधक भी हैं। इसे
विश्लेषित करते हुए उल्लेख किया गया है कि- इस देश में वैर-फूट का यह भाव इतना
प्रबल क्यों रहा, इसके भी कारण हैं। बड़ी-बड़ी नदियों और बड़े-बड़े पहाड़ों के गुण
अनेक हैं, लेकिन उनमें एक अवगुण भी होता है कि वे जहाँ रहते हैं, वहाँ देश के भीतर
अलग-अलग क्षेत्र बना देते हैं और इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के भीतर एक तरह
की प्रांतीयता या क्षेत्रीय जोश पैदा हो जाता है। पहाड़ों और नदियों ने भारत को
भीतर से काटकर उसके अनेक क्षेत्र बना दिए और संयोग की बात है कि कई क्षेत्रों में
ऐसी जनता का जमघट हो गया, जो कोई एक क्षेत्रीय भाषा बोलने वाली थी। (पृष्ठ- 15) इस
विविधता के बीच संस्कृत और संस्कृति के माध्यम से उन सूत्रों को खोजने का काम भी
इस अध्याय में कुशलतापूर्वक हुआ है, जिनके कारण अलग-अलग कालखंडों में विविधता में
एकता कायम हुई और भारतीय नवजागरण के दौरान सारा देश एकसाथ उठ खड़ा हुआ।
समीक्ष्य कृति का द्वितीय अध्याय- भारतीय जागरण काल
है। यह अध्याय भारतीय नवजागरण के विविध पक्षों का मूल्यांकन करता है। राजनीतिक,
सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के विशद-व्यापक विवेचन के साथ ही इनके
माध्यम से उदित होने वाली राष्ट्रीय काव्यधारा की पड़ताल इस अध्याय में की गई है।
‘राष्ट्रीय काव्यधारा के विविध सोपान’ उपशीर्षक के अंतर्गत भारतेंदु युग, द्विवेदी
युग और द्विवेदी युगोत्तर काव्यधारा में राष्ट्रीय चेतना के विविध पक्षों का
सर्वांगपूर्ण प्रस्तुतीकरण इस अध्याय में उल्लेखनीय है। समीक्ष्य कृति का तृतीय
अध्याय है- छायावादी काव्य में राष्ट्रीय चेतना। इस अध्याय में छायावाद की
उत्पत्ति के उन सूत्रों को तलाशने का प्रयास किया गया है, जो प्रायः चर्चा के
केंद्र में नहीं रहे हैं। इसके साथ ही
छायावाद के दो स्तंभों- पंत और निराला की काव्य-साधना के प्रवाह को भी इस अध्याय
में विश्लेषित किया गया है। इसी विश्लेषण के क्रम में पुस्तक बताती है- पंत
वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन के पश्चात एक नए जगत, भौतिक समृद्धि से संबद्ध
विचारधारा प्रधान चिंतनलोक में पदार्पण करते हैं। निराला भी बेला, नए पत्ते,
कुकुरमुत्ता आदि में परिवर्तित दृष्टिकोण लेकर उपस्थित हुए हैं। (पृष्ठ- 141) इसी
अध्याय में उल्लेख है कि- कहीं-कहीं निजी सुख-दुःखात्मक अनुभूति को, छायावादी
कवियों ने, युग को जगाने के लिए शंखनाद में भी परिवर्तित कर दिया है। क्षुद्रता और
निराशा के कुहरे में न डूबकर जीवन के दुःख- द्वंद्वों को चुनौती के रूप में
स्वीकार कर प्राणपण से जूझने की प्रेरणा देने वाले ये विचार छायावादी काव्य का एक
अल्प ज्ञात या किसी सीमा तक उपेक्षित पक्ष भी प्रस्तुत करते हैं। साथ ही जीवन के
मूल-मंत्रों को ध्वनित करने वाले उपयोगी तत्त्व एवं जीवन को उज्ज्वल, महान और
वरेण्य बनाने की प्रेरणा भरने वाले ये अंश छायावादी कवियों के उस महान
उत्तरदायित्व के निर्वाह के सूचक भी हैं, जिसे साहित्यकार होने के नाते स्वयं किया
है। (पृष्ठ- 145) इस प्रकार तृतीय अध्याय तक आते-आते पुस्तक में ऐसे तत्त्व
स्पष्ट होने लगते हैं, जिनका आश्रय पाकर निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना मुखर
होती है।
समीक्ष्य कृति का चतुर्थ अध्याय इसी के अनुरूप है। इस
अध्याय को शीर्षक दिया गया है- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना। इस
अध्याय में निराला की समग्र काव्य-यात्रा को तीन अलग-अलग खंडों में बाँटकर
विश्लेषित किया गया है। निराला की सारा जीवन अभावों और संघर्षों से भरा रहा। इसी
कारण निराला के लिए उस भारत को देखना सुलभ हो सका, जिसके लिए राष्ट्रीय चेतना की
अनिवार्यता थी। और इसी अनिवार्यता को निराला ने अपनी लेखनी का ध्येय बना लिया था। इसी
तथ्य को स्पष्ट करते हुए पुस्तक में उल्लेख किया गया है कि- सूर्यकांत त्रिपाठी
निराला काव्य के शाश्वत माध्यम से जीर्ण-शीर्ण रूढ़ियों को तोड़ने का भगीरथ संकल्प
लेकर ही जन्मे और मानव के जीवन से अभावों को मिटा देने हेतु अनंत संघर्ष करते हुए
जीवित रहे और गरल-पान करते-करते शिवत्व प्राप्त करते हुए स्वर्गवासी हुए। निराला ने
असंतोषपूर्ण वातावरण में रहकर अपनी नूतन काव्याभिव्यक्ति द्वारा विद्रोही स्वर
फूँका और जनजागरण की नवज्योति जगाने का पुनीत कार्य किया। इसी कारण डॉ. रामविलास
शर्मा ने निराला को नई प्रगतिशील धारा का अगुवा कहकर उनके व्यक्तित्व का सम्मान
किया है। निराला का जीवन विभिन्न असमानताओं, असंगतियों एवं अभावों से भरा था,
किंतु परिस्थितयों ने कवि को उद्बुद्ध एवं जागरूक बनाकर उसे अन्याय के प्रति
संघर्ष की शक्ति दी। यही शक्ति निराला में राष्ट्रीय चेतना के रूप में उभरकर आई,
जिसने कवि को राष्ट्रीय गौरव की शाश्वत अभिव्यक्ति की प्रेरणा दी। (पृष्ठ- 195) निराला
की अनेक चर्चित कविताओं के आलोक में राष्ट्रीय चेतना के इस स्वर को विश्लेषित करने
का सटीक और सफल प्रयास इस अध्याय में परिलक्षित होता है। सन1920 से 1961 तक विस्तृत
निराला के काव्य-संसार की व्यापक पड़ताल और गहन मंथन से निःसृत स्थापनाओं को इस
अध्याय में स्थान मिला है। इसके साथ ही निराला की साहित्य-साधना से जुड़े ऐसे
ज्वलंत पक्ष, जो चर्चित नहीं हो सके और जिनको जानना निराला के संदर्भ में आवश्यक
है, उन्हें भी इस अध्याय में विश्लेषित किया गया है।
समीक्ष्य कृति का पंचम अध्याय है- निराला के काव्य में
राष्ट्रीय काव्यधारा की सीमाएँ। इस अध्याय में निराला की काव्यधारा को व्यापक
अर्थों में विश्लेषित किया गया है। यह अध्याय स्थापना देता है कि निराला ही
छायावाद के ऐसे कवि हैं, जिन्होंने अपने पौरुष के बल पर संघर्षों और अभावों से
टक्कर ली है। वे पंत और प्रसाद की परंपरा से अलग संघर्ष के लिए सदैव तत्पर रहे और
संघर्ष की यह चेतना व्यक्ति से उठकर समाज तक, व्यष्टि से समष्टि तक व्यापक होती
जाती है। निराला के लिए उनका निजी जीवन-संघर्ष इसी कारण उनकी कमजोरी नहीं बन पाता
है। एक समय के बाद, विशेषकर अपनी इकलौती पुत्री के देहावसान के बाद विक्षिप्त-से
हो जाने वाले निराला अपने जीवन के संघर्षों को देश-काल-समाज के संघर्षों के साथ
एकाकार कर लेते हैं। इसी कारण उनका अपना भोगा हुआ सत्य जब कागजों पर उतरता है, तो
उसके तीखेपन को पचा पाना सरल नहीं रह जाता है। निराला के काव्य-संसार में
राष्ट्रीय-चेतना की उत्पत्ति और विकास को इसी की परिणति के रूप में भी देखा जा
सकता है।
निराला का कवि राष्ट्रीय चेतना का अपराजेय नायक है। उसका
राष्ट्र-प्रेम केवल अतीत के स्वर्णिम इतिहास को आधार नहीं बनाता और न ही वर्तमान
की विषम परिस्थितियों से त्रस्त होकर वह रो उठता है। अपितु वह पूर्ण निष्ठा एवं
आस्था से असत्य, अशिव एवं असुंदर का ध्वंस करके सत्य, शिव एवं सुंदर का सृजन करता
है। छायावादी कवियों पर ‘पलायनवादी होने का आरोप लगाने वाले आलोचकों के लिए’
निराला का आशावाद एवं कर्मठता प्रश्नचिह्न बन गये हैं। राष्ट्र-चेतना की प्रेरणा
देते हुए निराला का अदम्य स्वर यों गूँजा था-
पशु नहीं, वीर तुम / समर शूर क्रूर नहीं / काल चक्र में हो
दले / आज तुम राज कुँवर / समर सरताज। (पृष्ठ- 271)
समीक्ष्य कृति के अंत में निष्कर्ष के तौर पर पाँचों
अध्यायों का निचोड़ प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही संदर्भ ग्रंथ सूची भी
पुस्तक की प्रामाणिकता को स्थापित करने में योगदान देती है। कुल मिलाकर निराला के
काव्य-संसार को नवीन दृष्टि से देखने का यह अभिनव प्रयास सिद्ध होता है। तथ्यों का
सटीक प्रस्तुतीकरण, तार्किकता और विषय का विवेचन समीक्ष्य कृति को महत्त्वपूर्ण
बना देता है। इस कारण यह कृति शोध-कर्ताओं के साथ ही सहृदय पाठकों के लिए उपयोगी
भी है और संग्रहणीय भी है।
डॉ.
राहुल मिश्र
समीक्षित कृति- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना
डॉ. स्नेहलता शर्मा
प्रथम संस्करण 2013
अन्नपूर्णा प्रकाशन, साकेत नगर, कानपुर- 208 014
मूल्य- 600/-
(नूतनवाग्धारा, बाँदा, संयुक्तांक : 28-29,
वर्ष : 10, मार्च 2017 अंक में प्रकाशित )