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Wednesday 16 August 2023

ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह


 ऊँट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह

 

“गुरु जी! यह ऊँट मनाली नहीं जा सकता है। वहाँ ठंडक हो, तो बनी रहे। इसे जो खाने को चाहिए, वह तो मनाली में मिलेगा नहीं... यहाँ की जैसी ठंडक भी नहीं......। चार-पाँच साल पहले कुछ लोगों ने इस ऊँट की नस्ल को मनाली तक पहुँचाने की कोशिश की थी। इसके लिए वे ऊँटों के जोड़े लेकर गए, लेकिन मनाली पहुँचते ही ऊँट जिंदा नहीं रह पाए।”

इतना सुनने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक ही था, कि आखिर वे लोग इस ऊँट को मनाली क्यों ले जाना चाहते थे? मैं भी इस प्रश्न को उसी तरह अपने अंदर रोक नहीं सका, जिस तरह आप नहीं रोक पा रहे थे, अभी एक क्षण पहले...। मैंने तुरंत ही अपना सवाल उनके सामने रख दिया।

वे बोले- “टूरिजम, टूरिज्म़ के ‘डेज़र्ट सफ़ारी’ में इन ऊँटों का बड़ा ‘रोल’ है।” उनके इस उत्तर ने मेरे सामने चित्र को बहुत-कुछ स्पष्ट कर दिया। पिछले दिन, जब हम दुनिया के सबसे ऊँचे रास्ते को खरदुंग-ला में पार कर रहे थे, तब वहाँ तमाम पर्यटक फोटो खिंचाने में व्यस्त थे। लेह से नुबरा घाटी की ओर जाने वाले रास्ते में खरदुंग-ला पड़ता है, जिसकी ऊँचाई समुद्रतल से लगभग 18,380 फीट है। लदाख आने वाले पर्यटकों के लिए यह विशेष आकर्षण का केंद्र होता है। खरदुंग-ला की ‘कॉफ़ी शॉप’ से लगाकर शिव मंदिर तक तमाम पर्यटकों की चहल-पहल थी। कुछ खरदुंग की ऊँची चोटी पर चढ़कर फोटो खिंचा रहे थे, और कुछ चुपचाप बैठे प्रकृति के इस सौंदर्य का रसपान कर रहे थे। बातचीत से लग रहा था, कि उन पर्यटकों में बड़ी संख्या महाराष्ट्र, गुजरात और दक्षिण भारत के दूसरे हिस्से के लोगों की है। जिज्ञासावश किनारे बैठे एक मराठी पर्यटक से मैंने पूछा, कि- आपको यहाँ के पर्यटन में क्या देखना सबसे ज्यादा रोमांचित करता है। उसका जवाब था, कि पहले तो बर्फ और फिर दो कूबड़ वाले ऊँट की सवारी का रोमांच ही उसे यहाँ तक ले आया है। उस मराठी पर्यटक के उत्तर और आज की बातचीत के तालमेल को बिठाते हुए मेरे सामने स्पष्ट हो गया, कि मनाली में पर्यटकों को लदाख की ‘फीलिंग’ देते हुए कमाई करने के उद्देश्य से यारकंदी ऊँटों को यहाँ से ले जाने की कोशिशें की गई होंगी। इन्हीं का जिक्र नोरबू साहब मुझसे कर रहे थे।

सन् 2017 के अगस्त महीने में दूसरी बार मेरा नुबरा घाटी में जाना हुआ था। इससे पहले शायद 2011 में नुबरा जाना हुआ था। उस समय दो कूबड़ वाले ऊँटों के बारे में केवल सुना था, देखने का मौका नहीं मिल पाया था। इस बार पूरी तरह से तय कर लिया था, कि दो कूबड़ वाले ऊँटों के दर्शन जरूर करने हैं। खास तौर से इस कारण भी, कि देश और दुनिया के कोने-कोने से लोग तमाम जहमत उठाकर नुबरा घाटी आते हैं और हम लदाख में रहते हुए भी अगर लदाख की इस प्रसिद्धि से साक्षात्कार नहीं कर पाए, तो शायद समय भी हमें माफ नहीं कर पाएगा। यही जोश और जज्बा था, कि जिसके बूते हम यारकंदी ऊँटों के सामने खड़े थे। इनके बारे में बहुत-कुछ पढ़ा भी था, मगर यहाँ नोरबू साहब से जो जानकारी मिल रही थी, वह शायद अब तक किताबों या ‘विकीपीडिया’ जैसी ‘अंतर्जालिक’ तकनीकों में उपलब्ध नहीं हो पाई थी। मेरे विस्मित हो जाने का बड़ा कारण भी यही था। दरअसल नोरबू साहब के पास बीस यारकंदी उँट थे, जिनमें पर्यटकों को सैर कराने का व्यवसाय वे करते थे।मेरे एक शिष्य के पिता होने के नाते नोरबू साहब ने बड़ी आत्मीयता के साथ मुझसे मुलाकात की थी। मैं वहाँ पहुँचने वाला हूँ, यह सूचना मेरे शिष्य ने उन्हें दे रखी थी।

जब नोरबू साहब ने मुझे यारकंदी ऊँटों के बारे में बताना शुरू किया, तब अतीत की बातें परत-दर-परत ऐसी खुलती चली गईं, जिन्होंने विचारों को पंख दे दिए। नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खान-पान की आदतों से लगाकर उनके रहने के तौर-तरीकों तक के बारे में विस्तार से बताया। नोरबू साहब ने रेशम मार्ग, यानि ‘सिल्क रूट’ में यारकंदी ऊँटों के योगदान को भी इतने विस्तार से बताया, कि कालिदास और विद्योत्तमा के जीवन में ऊँट का योगदान भी बरबस ही मेरे विचारों में कौंध पड़ा। विद्वान आचार्यों ने विदुषी विद्योत्तमा को मजा चखाने के लिए बुद्धिहीन कालिदास के साथ धोखे से विवाह करा दिया। भला हो, ऊँटों का....., जो वे एक दिन विद्योत्तमा की हवेली के बाहर से गुजर पड़े और मूढ़ कालिदास उन्हें उट्र-उट्र कहकर चिल्लाने लगे। तब कहीं जाकर विद्योत्तमा को पता लगा, कि मेरे पतिदेव तो निहायत मूढ़-मगज हैं। तब क्या था, उपचार शुरू हो गया और इस तरह ‘उपमा कालिदासस्य’, अर्थात् अपनी विलक्षण-अद्बुत उपमाओं के लिए संस्कृत साहित्य के उज्ज्वल नक्षत्र के समान कालिदास का प्राकट्य हुआ।

विद्योत्तमा और कालिदास के जीवन को बदलने वाले ऊँट बेशक यारकंद वाले नहीं थे, मगर ऊँट किस तरह जीवन बदल देते हैं, अपनी करवट से ऊँट कैसे हालात बदल देते हैं, यह जरूर स्पष्ट था। यारकंदी ऊँटों ने भी अनेक लोगों के जीवन को बदला है। प्राचीनकाल ही नहीं मध्यकाल में, और फिर रेशम मार्ग से यातायात के बंद हो जाने के बाद आज के समय में ‘डेजर्ट सफ़ारी’ के रूप में यारकंदी ऊँटों के योगदान को देखा जा सकता है। चीन के रेशम से अपना नाम पाने वाला पूरा रेशम मार्ग लगभग दस हजार किलोमीटर का होगा, मगर आज रेशम मार्ग के उत्तरी छोर को ही प्रमुख रूप से जाना जाता है। उत्तरी रेशम मार्ग या ‘सिल्क रूट’ लगभग 6500 किलोमीटर लंबा था। इसका संबंध मुख्य रूप से हिमालय की कराकोरम श्रेणी से रहा है। यह चीन की प्राचीन राजधानी शिआन से पश्चिम की ओर चलते हुए टकलामकान रेगिस्तान से निकलकर मध्य एशिया के बैक्ट्रिया और पर्शिया राज्यों तक जाता था। इसके आगे का रास्ता बढ़कर ईरान और रोम तक पहुँचता था। टकलामकान, जैसा कि अपने नाम से ही स्पष्ट कर देता है, कि मध्य एशिया का ऐसा रेगिस्तान था, जो एकदम उजाड़ और डरावना था। पुराने जमाने में ऐसा माना जाता था, कि जो टकलामकान रेगिस्तान में घुस जाता है, वह बाहर नहीं आ पाता है। इसी डर के कारण रेशम मार्ग के व्यापारी इस रेगिस्तान को उत्तर या दक्षिण दिशा से पार किया करते थे। दोनों दिशाओं से आने वाले रास्ते काश्गर के नख़लिस्तान में मिलते थे, और फिर आगे कराकोरम श्रेणी की तरफ चल पड़ते थे। शायद इसी के कारण किसी गंजे व्यक्ति को टकला कहा जाना और किसी उजाड़-वीरान जगह पर अचानक रौनक बिखर जाने पर उसे नख़लिस्तान कहा जाना प्रचलन में आया होगा। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था; वरन् इसमें अध्यात्म, धर्म, दर्शन, संस्कृति, वैचारिकता भी अपनी यात्राएँ करती थीं। जिस तरह रेशम मार्ग के व्यापारी थोड़ी-थोड़ी दूरी पर अपने सामानों की अदला-बदली करके व्यापार को चलाते थे, उसी तरह सांस्कृतिक गतिविधियाँ भी आदान-प्रदान के माध्यम से चलती रहती थीं।

टकलामकान के बर्फीले रेगिस्तान से लगाकर उसके आगे मध्य एशिया के सर्द-बर्फीले इलाकों के लिए यारकंदी ऊँटों से बेहतर सवारी कोई नहीं हो सकती थी। इसी कारण 6500 किलोमीटर के इस लंबे रास्ते के अतीत की चर्चा भी यारकंदी ऊँटों के बिना पूरी नहीं हो सकती है। यारकंद या बैक्ट्रिया में पाए जाने वाले दो कूबड़ वाले ऊँटों को क्षेत्र के हिसाब से यारकंदी या बैक्ट्रियन ऊँट कहा जाता है। ये थार के रेगिस्तान में मिलने वाले ऊँटों से कम लंबे होते हैं और इनके दो कूबड़ होते हैं। इस कारण इन्हें सामान्य रूप से दो कूबड़ वाले ऊँट के तौर पर जाना जाता है। इनके शरीर में बाल भी बहुत होते हैं, जो इन्हें भीषण सर्दी और बर्फीली हवाओं से बचाते हैं।

मेरे मन में तमाम विचार एकसाथ चल रहे थे। बर्फीले रेगिस्तान को अपनी पदचापों से जीतने के लिए मनुष्य ने कैसे इन यारकंदी ऊँटों को अपना हमसफ़र बना लिया, और इनकी पीठ पर लदकर वस्तुओं के साथ ही संस्कृति-विचार व जीवन के रंग-ढंग भी भूगोल की सीमाओं को कैसे तोड़ देते हैं, यह सोचना ही अपने आप में बहुत रोमांचकारी है। लदाख अंचल में नानवाई की दुकानें चलाने वाले यारकंदी व्यवसायियों के वंशजों को अपने पूर्वजों का वह सफ़र आज शायद ही याद होगा, जो कभी इन यारकंदी ऊँटों की पीठ पर बैठकर तय किया गया होगा। समोसा खाते समय शायद ही हमें याद आता होगा, कि आज भारत के सर्वाधिक प्रिय और देशव्यापी समोसा ने इन्हीं यारकंदी ऊँटों में बैठकर भारतवर्ष तक का सफ़र किया होगा। समोसे की दुकानें तो देश-भर में मिल जाएँगी, मगर नानवाई की दुकानें लदाख की अपनी निजी पहचान हैं। नानवाई तंदूर में रोटियाँ बनाते हैं, जिन्हें लदाखी में ‘तागी’ कहा जाता है। तंदूरी रोटी के रूप में होशियारपुर के व्यापारियों के साथ पंजाब, और फिर देश के दूसरे हिस्सों में पहुँचने वाली लदाखी ‘तागी’ भी यारकंद की सौगात है।

मेरे विचारों की कड़ियों में दखल देते हुए जब नोरबू साहब ने यारकंदी ऊँटों की खानपान की आदतों के बारे में बताया, तो एकबारगी यह भी महसूस हुआ, कि यारकंदी ऊँटों से ज्यादा धैर्यवान और सहनशील जीव धरती पर खोजना बहुत कठिन है। जरा-से पानी या थोड़ी-सी बर्फ से अपने शरीर में जल का स्तर बनाए रखकर और कँटीली झाड़ियों को खाकर अपना पेट भर लेने वाले ऊँट मानव के लिए आत्मबलिदान ही तो करते रहे हैं.......शायद। उनकी पीठ पर चमड़े के बड़े-बड़े थैलों में भरा पानी, तंदूर में बनी नानवाई की रोटियों से भरे बंडल और रेगिस्तान के सफ़र में चटखारेदार भोजन की कमी को पूरा करने वाले समोसेनुमा व्यंजन से भरे पात्रों को लादकर रेशम मार्ग में चलने वाले ऊँटों के हिस्से में लेह बेरी जैसी कँटीली झाड़ियाँ ही आती रही होंगी।

यारकंदी ऊँट छः मन, यानि लगभग ढाई क्विंटल तक भार उठा सकते हैं। इनके लिए समतल रेगिस्तान में चलना तो आसान होता है, मगर घाटियों की चढ़ाई-उतराई और बर्फीली चट्टानों पर चलना कठिन होता है। नोरबू साहब के द्वारा दी गई इस जानकारी के बाद महसूस हुआ, कि रेशम मार्ग में पड़ने वाले लदाख के पनामिग गाँव से आगे तुरतुग-बोगदंग आदि बल्तिस्तानी गाँवों की तरफ चलने पर शयोग नदी के एक ओर कराकोरम और दूसरी ओर लदाख रेंज के पहाड़ों की दुर्गम ऊँचाइयों पर सिल्क रूट के ध्वंसावशेष पतली-सी लकीरों की तरह दिखाई पड़ते हैं। इनमें यातायात के अनुशासन को देखते हुए आने, और जाने के रास्ते भी बाकायदा अलग-अलग समझ में आते हैं। नोरबू साहब से ही पता लगा, कि याक, घोड़े और टट्टू ‘शटल’ सेवा की तरह सिल्क रूट में प्रयुक्त होते थे। हिमनदों और विकराल दर्रों को पार कराने में जहाँ याक विश्वसनीय होते थे, वहीं ऊँचाई पर चढ़ने और तेजी के साथ सामान की ढुलाई करने में घोड़ों और टट्टुओं का उपयोग किया जाता था। इस तरह अलग-अलग स्थानों पर किराए से इन भारवाहकों को उपलब्ध कराने वाले किरायाकशों की बस्तियाँ भी होती थीं।

नोरबू साहब ने बड़े गर्व के साथ बताया, कि सिल्क रूट में चलने वाले कारवाँ के कारण नुबरा घाटी गुलजार रहती थी। उन दिनों नुबरा घाटी लेह के आसपास के इलाकों से कहीं ज्यादा संपन्न थी। हमारे पुरखों के लिए समरकंद, बुखारा दुर्गम नहीं थे। पनामिग गाँव में उस समय मध्य एशियाई व्यापारियों के लिए बेहतर शरणगाह होती थी। यह एक तिराहा जैसा भी था, जहाँ से लेह के लिए संपर्क मार्ग बना हुआ था। हुंदर का राजमहल रेशम मार्ग के यातायात में नजर रखने के लिए बनवाया गया था। इसके भौगौलिक और सामरिक महत्त्व को देखते हुए कई आक्रमणकारियों ने इसे जीतने की कोशिश भी की। वे बताते हैं, कि नुबरा, यानि फूलों की घाटी सिल्क रूट में किसी नख़लिस्तान से कम नहीं थी। सिल्क रूट में व्यापार बंद हो जाने के बाद लंबे समय तक नुबरा घाटी उपेक्षित रही है।

वैसे उपेक्षा तो यारकंदी ऊँटों की भी हुई है। उनका स्वर्णिम अतीत, जो उन्हें सिल्क रूट के शहंशाह का खिताब दिलाता था, आज केवल किताबों में सिमट गया है। सन् 1870 में कुछ यारकंदी ऊँटों को लदाख के मुख्यालय लेह में पहुँचाया गया। पुराने समय में इनका उपयोग माल ढोने के लिए स्थानीय स्तर पर होता रहा, किंतु सड़कों के बन जाने और यातायात के साधनों के सुलभ हो जाने के बाद इनकी उपयोगिता नहीं रही। लेह से लगभग दस किलोमीटर दूर छुशोद नामक गाँव में एक ठिकाना यारकंदी ऊँटों के लिए बनवाया गया है। इस गाँव में अरगोन समूह के लोग भी रहते हैं, जिनका अपना अतीत सिल्क रूट व्यापार से जुड़ा रहा है। किराए पर भारवाहक पशुओं को उपलब्ध कराने और व्यापारियों को रास्ता दिखाने के अलावा ये व्यापार में भी थोड़ा-बहुत हाथ आजमा लेते थे। सिल्क रूट का व्यापार बंद हो जाने के बाद अरगोन और यारकंदी ऊँट, दोनों का जीवन बदल गया।

अपनी दो कूबड़ वाली पीठ पर मानव के जीवन को सैकड़ों वर्षों तक ढोने वाले यारकंदी ऊँटों के लिए अब शिआन से बैक्ट्रिया या वाह्लीक प्रांत का विशाल भूभाग, पामीर से हिंदुकुश या पारियात्र पर्वतश्रेणी तक की महान-पवित्र धरती अलग-अलग हिस्सों में बँट गई है। यहाँ के रहवासी अब यह भूल चुके हैं, कि वे कभी एक सूत्र से जुड़े हुए थे। रेशम मार्ग अब अतीत की रोचक पहेली की तरह आने वाली संततियों को शायद यह बता सकेगा, कि हिमालय में ऐसे कारवाँ भी कभी चलते रहे हैं, जिन्होंने आज के दर्जनों देशों तक व्यापारिक वस्तुएँ ही नहीं पहुँचाई हैं; वरन् संस्कृति, अध्यात्म, दर्शन और वैचारिकता के ऐसे आदान-प्रदान भी किए हैं, जिनके कारण ‘वसुधैव-कुटुंबकम्’ के भाव सही अर्थों में स्थापित हुए। इन सबके पीछे केवल मानव रहा, यह कहना नितांत अतार्किक होगा। इसके लिए यारकंदी ऊँटों के प्रति कृतज्ञता का भाव उसी प्रकार उत्पन्न हो जाता है, जिस प्रकार चेतक और बेंदुला के लिए होता है।

नोरबू साहब अब भी यारकंदी ऊँटों की ढेरों बातें बताते जा रहे थे। घड़ी की सुई दोपहर का एक बज गया है, ऐसा बता रही थी। नोरबू साहब के कथनानुसार अब ऊँटों के लंच का समय हो गया था। सामान्य-से कर्मचारियों की तरह ऊँटों को भी दो घंटे की छुट्टी मिली थी, पर्यटकों को मौज-मस्ती कराने के काम से। उनकी पीठ पर पड़ी झूलों को उतारा जा रहा था। उनकी नकेल को आजाद किया जा रहा था। अभ्यस्त दिनचर्या के अनुरूप सभी चल रहे थे। मेरे सामने यारकंदी ऊँटों की तीन पीढ़ियाँ थीं। इनमें बुजुर्गों से लगाकर युवाओं तक, और बच्चों की तरह उछल-कूद करते, अपनी ‘ड्यूटी’ से अनजान उष्ट्र शावकों में से किसी को भी यह अहसास नहीं होगा, कि एक जमाने में यहाँ उनके पुरखों की तूती बोलती थी। एक जमाने में वे सिल्क रूट के शहंशाह हुआ करते थे। यह अहसास तो उन पर्यटकों को भी नहीं होगा, जो दो कूबड़ वाले ऊँटों की सवारी करने की उत्कट अभिलाषा लिए वहाँ पर मौजूद थे, और ‘शहंशाहों’ के अपनी नौकरी पर वापस लौटने का इंतजार कर रहे थे।

-राहुल मिश्र


(साहित्य संस्कार, त्रैमासिकी, जबलपुर के प्रवेशांक, जनवरी, 2019 में प्रकाशित)


Thursday 3 August 2023

सीमांत पर्यटन : देश से जुड़ती सीमाएँ

 


सीमांत पर्यटन : देश से जुड़ती सीमाएँ

हाल ही में जम्मू-काश्मीर राज्य प्रशासन द्वारा समृद्ध सीमा योजना के अंतर्गत सीमांत पर्यटन के लिए बजट के प्राविधान के साथ ही विगत वर्ष से चल रही सीमांत पर्यटन योजना के विस्तार को नया आयाम दिया गया है। यह जानना आवश्यक होगा, कि जम्मू-काश्मीर राज्य भारतदेश का ऐसा सीमावर्ती प्रदेश है, जिसकी अंतरराष्ट्रीय सीमाएँ सबसे अधिक चर्चा में रहती हैं। भारतदेश की सीमाएँ बहुत विस्तृत हैं, और साथ ही अनेक विविधताएँ भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में देखी जा सकती हैं। ये विविधताएँ संस्कृति से लगाकर भौगौलिक, सामाजिक और भू-राजनीतिक हैं। इन सभी विविधताओं की बानगी जम्मू-काश्मीर राज्य में देखी जा सकती है। इन विविधताओं के साथ ही जम्मू-काश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों में वर्ष भर अराजकता और आतंक का साया मँडराता रहता है। आए दिन के समाचार एक ऐसी धारणा आमजन के मन में बना देते हैं, कि उसमें भय के अतिरिक्त कुछ भी सोचने और जानने के लिए शेष नहीं रह जाता है।

वर्ष 2019 में जम्मू-काश्मीर के केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद स्थितियाँ बदली हैं। लद्दाख केंद्रशासित प्रदेश के रूप में अलग से अस्तित्व में आया है। इन बदली हुई स्थितियों का एक बड़ा, प्रभावी और सशक्त पक्ष सीमांत पर्यटन योजना के रूप में देखा जा सकता है। यद्यपि ‘बार्डर टूरिज्म योजना’ केवल जम्मू-काश्मीर के लिए ही नहीं है। यह योजना लद्दाख में भी है, उत्तराखंड और देश के अन्य सीमावर्ती राज्यों के सीमांत क्षेत्रों के लिए भी है। लेकिन इस योजना के सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रभावी पक्ष को, इसके सर्वाधिक सकारात्मक प्रभाव को जम्मू-काश्मीर राज्य में विशेष रूप से देखा जा सकता है, इस कारण जम्मू-काश्मीर के सीमांत पर्यटन से बात को प्रारंभ करना प्रासंगिक और समीचीन लगता है।

देश के अन्य भागों में रहने वाले नागरिकों के लिए सीमांतक्षेत्र का जीवन एक रहस्यमयी दुनिया जैसा ही है। वे अपने देश की सीमाओं को भले ही मानचित्र में पहचान लें, लेकिन उनके लिए सीमांतक्षेत्र के लोगों के जीवन, वहाँ की संस्कृति, सामाजिक संरचना और भौतिक स्थिति के साथ ही प्राकृतिक विशिष्टता को जानना-समझना सरल नहीं। लंबे समय तक सुरक्षा कारणों से, राजनीतिक कारणों से, साथ ही अंतरराष्ट्रीय नीतियों, पड़ोसियों के साथ संबंधों आदि के कारण ये सीमांतक्षेत्र मुख्यधारा के अंग नहीं बन सके। जैसा कि कहा जाता है, कि परिधि सदैव केंद्र से दूर रहती है, वैसे ही हमारे देश की सीमाओं में बसने वाले लोग केंद्र से दूर रहे। यह सुखद है, यह अभूतपूर्व भी है, कि गणितीय विधान को भारतीयता और राष्ट्रीयता के उदात्त भावों की भूमि पर सरल किया गया है। आज केंद्र परिधि के निकट है। आज दिल्ली अपने आसपास का ही नहीं सोच रही, वरन् परिधि तक जा रही है। देश अपनी सीमाओं को जान रहा है, अपने सीमांत क्षेत्र के भारतीयों को, नागरिकों को जान रहा है, उनके साथ खड़ा है। इसी ध्येय को लेकर विगत वर्ष केंद्र सरकार की ‘बार्डर टूरिज्म योजना’ अस्तित्व में आई थी, और बहुत कम अंतराल में ही इस योजना के सकारात्मक पक्ष न केवल सामने हैं, वरन् राष्ट्र के गौरव की श्रीवृद्धि भी कर रहे हैं, भारतीयता की अलख भी जगा रहे हैं।

इस वर्ष बदरीनाथ-केदारनाथजी की यात्रा के साथ एक स्थान की यात्रा भी बहुत चर्चित रही। कह सकते हैं, कि जितने यात्री केदारनाथ धाम की यात्रा पर गए, लगभग सभी तीर्थयात्री भारत के सीमावर्ती अंतिम गाँव माणा तक भी गए। पहले यहाँ एक ‘साइन बोर्ड’ लगा होता था- भारत का आखिरी गाँव... माणा। इसी वर्ष मई माह में बड़ी अनूठी पहल करते हुए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने वह ‘साइन बोर्ड’ बदलवा दिया। अब उस ‘साइन बोर्ड’ में ‘भारत का आखिरी गाँव- माणा’ के स्थान पर ‘भारत का पहला गाँव- माणा’ लिखा है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की यह पहल, उनका यह कार्य है तो बहुत सामान्य-सा, लेकिन इसके निहितार्थ को समझकर देखिए....। इस बदलाव को माणा गाँव के रहवासियों की दृष्टि से जानकर तो देखिए....। आपको बहुत अच्छा लगेगा, गर्व की अनुभूति होगी। जो लोग अपने को आखिरी पायदान पर मानकर हीनबोध से ग्रस्त हो जाते रहे होंगे, उन्हें एक छोटे-से बदलाव ने पहली पंक्ति पर ला दिया, अग्रिम स्थान दे दिया। यह सच भी है, कि सीमा पर माणा गाँव है, तो वह स्वाभाविक रूप से पहला ही होगा..., लेकिन अंतर केवल सोच में था, जिसे बदला गया है।

देवभूमि उत्तराखंड में भारत का पहला गाँव- माणा अब तीर्थयात्रियों की पहली पसंद भी है। बदरीनाथ धाम से मात्र 3 किमी की दूरी पर माणा गाँव के किसी छोर में एक चाय की छोटी-सी दुकान भी है। उस दुकान में एक कप चाय पीना और फोटो खींचकर या सेल्फी लेकर उसे बड़े गर्व के साथ सोशल नेटवर्किंग के पटल पर, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि पर डाल देना किसी ‘पैशन’ से कम नहीं... किसी जोश से कम नहीं। इस वर्ष ये चित्र खूब देखे गए। लोगों के लिए बदरी-केदार की तीर्थयात्रा इस दृष्टि से देशाटन से कम नहीं ठहरती, भगवद्भक्ति के साथ देशभक्ति, देशानुराग का यह दुर्लभ संयोग देवभूमि में साकार हुआ है। माणा गाँव आज किसी तीर्थ से कम नहीं कहा जा सकता। निश्चित रूप से माणा होकर आने वाले तीर्थयात्रियों के मन में जिस उत्साह को, देश के प्रति गौरव के भाव को देखा है, वह सीमांत पर्यटन योजना की सफलता के शताधिक प्रतिमानों को उच्चतम स्तर पर छूता है। भारतदेश को देखने का यह अनूठा कार्य सिद्ध होता है।

इसी वर्ष लगभग तीन माह पहले उत्तराखंड के उत्तरकाशी जनपद के हरसिल गाँव के निकट जादुंग गाँव को नया पर्यटन स्थल बनाया गया है। भारत-तिब्बत सीमा पर स्थित जादुंग गाँव को माणा की तरह भारत का पहला गाँव कहा जाता है। कुछ समय पहले तक हरसिल पर्यटन केंद्र के रूप में पर्यटकों की पसंद होता था। इससे आगे सीमा सुरक्षा के कारण जाने की अनुमति नहीं होती थी। अब पर्यटकों के लिए यह गाँव सुलभ हो गया है।

चाहे माणा गाँव हो, या जादुंग गाँव हो...। सीमावर्ती इन गाँवों में जुट जाने वाले सारे देश को, देश के हर भाग से..., उत्तर से लगाकर दक्षिण और पूरब से लगाकर पश्चिम तक देश के हर कोने से जब माणा और जादुंग आदि गाँवों में लोग पहुँचते होंगे, तो गाँव के लोगों की प्रसन्नता की क्या सीमा होती होगी, हमारे लिए केवल कल्पना का ही विषय हो सकता है। इतना अवश्य है, कि पिछले कई वर्षों में पृथक और एकाकी जैसा जीवन बिताने को विवश इन सीमावर्ती गाँवों के लोग कभी तो यह सोचते ही होंगे, कि आखिर हमारा देश कैसा है, कौन-सा है, जो हमारी सुधि ही नहीं लेता, कभी...। उनकी यह व्यथा, उनके मन का यह भाव टीस की तरह उभरता तो अवश्य ही होगा। सीमांत पर्यटन योजना ने इस दर्द को समेटा है। चाहे उत्तराखंड की सरकार हो, या केंद्र की मोदी सरकार हो, इस दर्द को अनुभूत किया है, देश के छोर पर बैठे आमजन की व्यथा को समझा है। इस दृष्टि से भी सीमांत पर्यटन योजना अपना विशेष महत्त्व रखती है।

कल्पना करें, जम्मू व काश्मीर के उन सीमावर्ती क्षेत्रों की...., जहाँ यह पता नहीं होता, कि कब गोले बरसने लगेंगे और कब ताबड़तोड़ गोलीबारी होने लगेगी। हम अपनी सीमाओं में शांति के पक्षधर हैं, लेकिन अशांति ही जिनको रास आती है, वे कहाँ चुप रहने वाले हैं। ऐसी दशा में रहने-जीने वाले सीमावर्ती गाँवों के रहवासियों के जटिल जीवन की कल्पना-मात्र ही रोंगटे खड़े कर देती है। अनेक संकट और बाधाएँ सहकर भी वे अपनी धरती नहीं छोड़ते। देश के प्रति उनका लगाव कम नहीं होता। वे सेना और सैनिकों की सहायता को अपना धर्म समझते हैं। इसके बदले वे कोई अपेक्षा नहीं रखते, कोई लाभ नहीं माँगते। इन सीमावर्ती गाँवों के लोग किसी सैनिक से कम नहीं, इनकी देशभक्ति, इनका जज्बा किसी से कम नहीं। ऐसी पुण्यश्लोका धरा, जिसने ऐसे वीर सपूतों को जन्म दिया है; ऐसी गौरवशाली धरती, जो इन कर्मठ भारतीयजनों को पालती-पोसती है, उसके दर्शन के लिए हर भारतीय को जाना चाहिए, जाना ही चाहिए। प्रायः यह भाव और विचार जम्मू-काश्मीर की समृद्ध सीमा योजना और सीमांत पर्यटन योजना में परिलक्षित होता है, दिखता है।


जम्मू-काश्मीर में सीमांत पर्यटन योजना को तेजी के साथ धरातल पर उतारा जा रहा है। अनेक ऐसे गाँवों में संसाधनों का विकास किया जा रहा है। सड़कों से लगाकर बिजली और पानी के साथ ही इंटरनेट की सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा रहीं हैं। लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, कि वे पर्यटन को अपने रोजगार का माध्यम बनाएँ। यद्यपि पूरे प्रदेश की आय का बड़ा भाग पर्यटन से संबंधित है, तथापि सीमांत पर्यटन ने लोगों के लिए नए आयाम सृजित किए हैं, नई दिशाएँ दी हैं। इसके सकारात्मक प्रभाव सामने आने लगे हैं। जम्मू-काश्मीर से अलग होकर अस्तित्व में आए लद्दाख केंद्रशासित प्रदेश में भी सीमांत पर्यटन की असीमित संभावनाएँ हैं। सियाचिन हिमानी, चंगथंग का मैदान, तुरतुक और बोगदंग आदि गाँव नए पर्यटन-केंद्र के रूप में उभरे हैं। तुरतुक, त्याक्शी, चालुंका, बोगदंग और थांग गाँव लद्दाख की उत्तर-पश्चिमी सीमा में हैं। हमारी सेना के शौर्य और पराक्रम की गाथाएँ यहाँ के कण-कण में बसी हैं। एकदम अलग संस्कृति, बल्टी तहजीब यहाँ देखने को मिलती है। सीमांत पर्यटन योजना के अंतर्गत ये गाँव नए पर्यटन केंद्र के रूप में विकसित हुए हैं। यहाँ के लोगों की आय के नए रास्ते खुले हैं। देश भर के अलग-अलग भागों से आने वाले पर्यटक इस भूमि का दर्शन करके देशानुराग को अनुभूत करते हैं, गौरवान्वित होते हैं।

सीमांत पर्यटन योजना के अंतर्गत केवल हिमालयी परिक्षेत्र ही नहीं; कच्छ का रन, बंगाल की खाड़ी, भारतमाता के पाँव पखारता सिंधुसागर भी सीमांत पर्यटन योजना से जुड़ता है। अनेक विविधताओं को, संस्कृतियों के अलग-अलग रंगों को एक में समेटे, एकात्मता का राग गाते भारतदेश की सीमाएँ ही यदि घूम ली जाएँ....., सीमांत क्षेत्रों का पर्यटन ही कर लिया जाए, तो देश की तमाम सांस्कृतिक झाँकियों से साक्षात्कार हो जाता है। भारत देश की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर पर, वैविध्य में समाहित एकात्मता पर गर्व का भान हो जाता है। भारतीयता का पाठ पढ़ने-पढ़ाने के लिए सीमांत दर्शन योजना, सीमांत पर्यटन योजना अद्भुत है, अनुपम है, अतुल्य है।

-डॉ. राहुल मिश्र



(सीमा संघोष, नई दिल्ली के जुलाई, 2023 अंक में प्रकाशित)

Monday 17 April 2023

लद्दाख : कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र

 

लद्दाख : कलात्मक मूर्तिकला का अद्भुत केंद्र

लदाख का नाम आते ही एकदम अलग तरह की छवि मन में बनने लगती है। शीत की अधिकता के बीच किस तरह जीवन बीतता होगा, यह चिंता हर किसी के मन में आ जाती है। शीत की अधिकता के बीच, वीरान-सी पर्वतमालाओं के बीच, जहाँ हरियाली और चहल-पहल दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती, वहाँ मन का रंजन, कलात्मकता का विस्तार आखिर कैसे होता होगा? यह प्रश्न हर किसी के मन में उठता है। वस्तुतः सच्चाई इसके विपरीत है। भले ही जीवन की रंगीनियाँ, चहल-पहल लद्दाख में कम हों, लेकिन कलात्मकता में लद्दाख बेजोड़ है, अनुपम है।

लद्दाख एक समय में सिल्क रूट या रेशम मार्ग का हिस्सा होता था। इस कारण अनेक संस्कृतियाँ, सभ्यताएँ यहाँ से गुजरीं और ठहर-ठहर कर इस बर्फीले रेगिस्तान में अपनी छवियाँ बिखेरती रहीं हैं। भारतीय संस्कृति से अनुप्रणित लद्दाख में न केवल बौद्ध धर्म की सर्वस्तिवादी शाखा का विस्तार हुआ, वरन् कालांतर में तिब्बत से होते हुए महायान परंपरा का विस्तार भी हुआ। हिमाचलप्रदेश के रिवाल्सल (रिवरसल) से गुरु पद्मसंभव का धार्मिक अनुष्ठान न केवल तिब्बत तक गया, वरन् लद्दाख अंचल में भी विस्तृत हुआ।

लद्दाख में भारतीय बौद्ध परंपरा ही नहीं आई, अनेक कला शैलियाँ और स्थापत्य का भी आगमन हुआ। इसी कारण आज के लद्दाख में जगह-जगह कलात्मक मूर्तियाँ देखने को मिलती हैं। बौद्ध मंदिरों-मठों, जिन्हें लद्दाख में गनपा कहा जाता है, अनेक प्रकार के देवी देवताओं की मूर्तियों से सुसज्जित होकर आस्था के केंद्र के रूप में जाने जाते हैं। लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों के साथ ही धातु से बनी, संगमरमर आदि कीमती पत्थरों से बनी मूर्तियाँ देखी जा सकती हैं।

अगर लद्दाख की मूर्तिकला के अतीत में उतरकर देखें, तो पता चलता है कि लद्दाख में सबसे पहले पाषाण मूर्तिकला का प्रचार हुआ। लदाख में इस कला का प्रचार-प्रसार काश्मीर शासक ललितादित्य (724-760) के समय या इसके आस-पास  हुआ। दसवीं शताब्दी में प्रसिद्ध अनुवादक लोचावा रिनछेन जङ्पो (958-1055) तिब्बत से काश्मीर आए और वापस लौटते समय अपने साथ काश्मीर से अनेक कलाकारों को लेते आए। लोचावा रिंचेन जङ्पो के प्रयासों से लद्दाख में मिट्टी की मूर्तियों के साथ ही काष्ठ-मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ हुआ। उनकी जीवनी से ज्ञात होता है, कि उन्होंने अपने पिता की स्मृति में काश्मीर में भीधक नामक एक कुशल शिल्पकार से अपने पिता के शरीर के बराबर महाकारुणिक आर्यावलोकितेश्वर की एक मूर्ति का निर्माण करवाया, जिसका प्रतिष्ठापन गुरु श्रद्धाकर वर्मा ने किया था। इस मूर्ति का निर्माण धातु को पिघलाकर किया गया था।

लोचावा रिनछेन जङ्पो काश्मीर से अपने साथ बत्तीस कलाकारों को लेकर लद्दाख आए थे। इन कलाकारों में मृण्मूर्ति, काष्ठ-मूर्ति, धातु की मूर्ति बनाने वाले कुशल शिल्पकारों के अतिरिक्त कुशल चित्रकार भी सम्मिलित थे। ये कलाकार लद्दाख के अलग-अलग स्थानों में बस गए और अपनी कला की अनेक बानगियाँ यहाँ बिखेरते रहे। लोचावा रिंचेन जङ्पो द्वारा आज से लगभग 1000 वर्ष पहले बनवाया गया अलची बौद्ध विहार न केवल लद्दाख, वरन् पुरातन भारतीय स्थापत्य कला की अद्भुत निशानी है। लोचावा के साथ आए कलाकारों द्वारा यहाँ अनेक देवी-देवताओं की भव्य मूर्तियाँ बनाई गईं हैं। साथ ही भित्तिचित्र भी बनाए गए हैं। इनमें पत्थर के परंपरात रंगों का प्रयोग किया गया है। भवन की निर्मिति भी ऐसी है, कि अनेक वर्षों तक मौसम की मार झेलकर भी अपने स्थापत्य के सौंदर्य को, अपनी मूर्तिकला की धरोहर को सहेजे हुए है।

लोचावा रिनछेन सङ्पो के पश्चात लद्दाख के कलाप्रिय और धर्मभीरु राजाओं ने मूर्ति-निर्माण कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। प्रस्तर और धातु की मूर्तियों के साथ ही मृण्मूर्तियों के निर्माण का प्रचलन लद्दाख में आया। मिट्टी से बनी मूर्तियाँ धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष अंग बनने लगीं। धर्मराज ल्हछेन ङोसडुब गोन, धर्मराज डगपा बुम दे, राजा टशी नमग्याल, धर्मराज सेङ्गे नमग्याल और धर्मराज देलदन नमग्याल ने अपने राज्यकाल में अनेक मूर्तियों का निर्माण कराया, जो वर्तमान में लद्दाख के विभिन्न अंचलों के बौद्ध मठों-मंदिरों (गोनपाओं) में स्थापित हैं, और लद्दाख की मूर्तिकला के वैशिष्ट्य का प्रदर्शन कर रहीं हैं।

लद्दाख में बनने वाली मृण्मूर्तियों में काश्मीर की मूर्तिकला के साथ ही प्राचीन गांधार शैली के दर्शन होते हैं। लद्दाख में प्रमुख रूप से बुद्ध, बोधिसत्व, आर्य अवलोकितेश्वर, आर्य मंजुश्री, मैत्रेय, वज्रपाणि के साथ ही तंत्रयान के देवी, देवता, रक्षक आदि की मूर्तियों का निर्माण होता है। मूर्ति-निर्माण से संबंधित विभिन्न ग्रंथों की रचना भारतीय शास्त्रों के आधार पर की गई है। स्तनग्युर में बौद्ध कला और शिल्प के रूप में ये पृथक ग्रंथ के रूप में संग्रहीत हैं। मूर्ति-निर्माण परंपरा यहाँ गुरु-शिष्य के रूप में चलती है। एक गुरु के अनेक शिष्य इस कला को विस्तार देते हैं। मूर्तियों के निर्माण के लिए पुराने समय में मूर्तिकारों द्वारा ही सामग्री तैयार की जाती थी। वर्तमान में भी यह परंपरा चल रही है। लद्दाख में पाई जाने वाली चिकनी पीली मिट्टी के साथ ही मोटा कपड़ा और धागा-साँचा आदि प्रयोग में लाया जाता है। मूर्ति का साँचा बनाकर उसमें लेपन करके फिर रंग भरे जाते हैं।

बौद्ध शास्त्रों के अनुसार मूर्ति के शीर्ष मुकुट से लगाकर चरण तक अलग-अलग मंत्र हैं, जिन्हें लिखकर मूर्ति के निश्चित भागों में डालना होता है। इसे धारणी कहते हैं। धारणी के अतिरिक्त धातु,अन्न, वस्त्र आदि भी मूर्ति के अंदर डाले जाते हैं। इसके पश्चात् बौद्ध आचार्यगण मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। लद्दाख के विभिन्न मठों-मंदिरों में अनेक प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं। इसके साथ ही विभिन्न स्थानों पर स्थापित की गईं मूर्तियाँ लद्दाख की मूर्तिकला के वैशिष्ट्य को दिखाती हैं। समय के बदलाव के साथ सीमेंट और प्लास्टर आफ पेरिस से भी मूर्तियाँ बनाने का चलन लद्दाख में आया है। इसमें तैलीय रंगों का प्रयोग भी नया है।

कुल मिलाकर लद्दाख की पहचान का एक बड़ा हिस्सा लद्दाख की विशिष्ट मूर्तिकला से बना है। लद्दाख में अनेक कलात्मक मूर्तियों का निर्माण होता है, जो देश ही नहीं दुनिया के अनेक हिस्सों में सजावट के लिए जाती रहती हैं।



(मासिक पत्रिका हस्ताक्षर, इंदौर, मध्यप्रदेश के अप्रैल, 2023 अंक में प्रकाशित)

Thursday 30 June 2022

सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख

 


सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख

मोमोस शब्द और साथ ही इस नाम के व्यंजन का स्वाद आज किसी के लिए अनजाना नहीं है। बड़े-बड़े शहरों में मोमोस बाकायदा ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’ परोसने वाले होटलों में भी मिल जाते हैं, और सड़क के किनारे खड़े चाट के ठेलों पर भी ये सुलभ हो जाते हैं। बड़े शहरों की बात अलग ही है, यहाँ तो सबकुछ मिलना सुलभ-सरल है, लेकिन जरा कस्बाई और गँवई-गाँव के खानपान में उतरकर देखिए... आपको आश्चर्य होगा, कि यहाँ टिकिया, समोसा और कुछ आधुनिक होते समय के चाऊमीन-बरगर के साथ मोमोस भी मिल जाएँगे। हिम-आच्छादित लद्दाख का प्यारा और बहुत स्वादिष्ट व्यंजन- मोमोस... आज देश के कोने-कोने तक पहुँचा हुआ है।

किसी क्षेत्र-विशेष की सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान का बड़ा अंग उस क्षेत्र के प्रचलित व्यंजनों से बनता है। क्षेत्र-विशेष अपनी पहचान गढ़ते समय अपने व्यंजनों के चटखारों का स्वाद उतारता है। इडली-डोसा का उल्लेख करते ही दक्षिण भारत का चित्र आँखों के सामने होता है। इसी तरह बुंदेलखंड की बेड़ही-लपसी, पूर्वांचल की बाटी-चोखा और पंजाब की मक्के दी रोटी-सरसों दा साग अलग-अलग भौगौलिक रंग हमारे सामने ले आते हैं। देश की सांस्कृतिक विविधता का यह बड़ा अंग है। देश को जोड़ने वाले व्यंजनों पर अगर बात करें, तो एक अद्भुत रोमांच मन में भर जाता है, जो देश की विवधता में एकता को अनेक बार हमारे सामने ले आता है। लद्दाख भले ही दुर्गम और जटिल हो, लोगों के मन में इस बर्फीले रेगिस्तान को लेकर भले ही अनेक भ्रांतियाँ, भय और आश्चर्यजनक बातें हों; लेकिन लद्दाख के व्यंजनों ने इन मिथों को बखूबी तोड़ा है। इसी कारण देश के सुदूरवर्ती ग्राम्यांचलों में भी लद्दाखी मोमोस की हनक देखने को मिलती है।

वैसे तो लद्दाख की पहचान तीन चीजों से रही है, उसके अपने अतीत में.....। ये तीन चीजें हैं- सत्तू, पट्टू और टट्टू...। आपको यह जानकर निश्चित रूप से आश्चर्य हो सकता है, कि सत्तू जो है, वह लद्दाख की पहचान में शामिल है, जुड़ा हुआ है। बाकी दो में से पट्टू, अर्थात् दुशाला लद्दाख की शीत से बचाने के लिए बहुत आवश्यक है और टट्टू, अर्थात् अश्वों की एक वर्णसंकर प्रजाति लद्दाख की प्राचीन यातायात व्यवस्था का अभिन्न और प्रमुख अंग रहा है। लद्दाख में यातायात व्यवस्था के अंग के रूप में याक (चमरी मृग) और यारकंदी ऊँट (दो कूबड़ वाले) भी आते हैं, लेकिन नाम तो टट्टुओं का ही चलता है। इसका बड़ा कारण यह है, कि स्थानीय आवागमन और सामान ढुलाई के लिए टट्टू ही अधिकतर उपयोग में आते थे, जबकि यारकंदी ऊँट और याक की भूमिका प्रायः लंबी और दर्रों को पार करने वाली पहाड़ी यात्राओं में विशेष रूप से होती थी। ये सारी बातें इसलिए कहीं, कि सत्तू का महत्त्व भी कुछ इसी प्रकार का देखा जा सकता है, लद्दाख के जटिल जीवन में...।

लद्दाख में जौ की फसल पर्याप्त मात्रा में होती है। इस कारण लद्दाख में जौ का सत्तू चलन में है। भारत के मैदानी क्षेत्रों, जैसे- मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और बिहार आदि में चने का सत्तू चलता है। लद्दाख में चने की पैदावार नहीं है, लेकिन सत्तू बनाने की विधि है, सत्तू भी है... भले ही जौ का ही क्यों न हो..। जौ का सत्तू न केवल पौष्टिक होता है, वरन् इसकी तासीर गर्म होती है, जबकि चने के सत्तू की तासीर ठंडी होती है। यह भी एक बड़ा कारण लद्दाख में जौ के सत्तू के चलन के पीछे है। यह देखन बहुत रोचक है, कि सत्तू, जिसे लद्दाखी भाषा में ‘फे’ बोलते हैं, उसका प्रयोग क तरीके से रसोईघर और अतिथिगृह में होता है। कुछ व्यंजनों में इसका उपयोग किया जाता है, पूजा-पाठ में भी इसका उपयोग होता है। इसके अतिरिक्त यह सबसे अधिक चाय के साथ खाया या पिया जाता है।

लद्दाख में पानी पीना किसी चुनौती से कम नहीं, इस कारण भारत के मैदानी क्षेत्रों की तरह यहाँ पर अतिथियों के आगमन पर उन्हें पानी के लिए नहीं पूछा जाता है, चाय के लिए पूछा जाता है। चाय भी कई तरह की...., जैसे- गुरगुर चाय, लिप्टन चाय, ग्रीन टी और कहवा आदि। ग्रीन टी और कहवा से तो सभी परिचित होंगे, वैसे परिचित तो लिप्टन चाय से भी होंगे.... भ्रम केवल नाम के कारण हो सकता है। लिप्टन चाय दरअसल दूध वाली मीठी या शर्करामुक्त चाय के लिए प्रयोग होने वाला नाम है। इस नाम के माध्यम से लद्दाखी लोग चाय का एक भेद गढ़कर अतिथि को उसके चाय-चयन में मदद दे देते हैं। सबसे अधिक प्रचलित और प्रिय गुरगुर चाय है, लद्दाख में। यह पसंद तिब्बत तक बिखरी हुई है..., कह सकते हैं, कि समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में गुरगुर चाय का चलन है।

गुरगुर चाय वस्तुतः मक्खन डालकर बनाई गई नमकीन चाय है। इसके अपना नाम भी इसके बनाने में होने वाली ध्वनि से मिला है। लंबे बेलनाकार बरतन में मथानी जैसे डंडे से मथकर यह बनती है, और मथते समय गुरगुर की आवाज होती है। थोड़ी-सी चायपत्ती और मक्खन से बनी गुरगुर चाय में अनूठा-सा सोंधापन होता है। यह शरीर में नमक और पानी की मात्रा संतुलित करती है। गुरगुर चाय की प्याली के साथ सत्तू भी परोसा जाता है। अतिथिगण चाय की प्याली में सत्तू घोलकर या तो पी जाते हैं, या फिर खा लेते हैं। सत्तू ऐसा आहार है, जिसे आप तैयार खाद्य या ‘फास्ट फूड’ की श्रेणी में भी आसानी से रख सकते हैं। किसी भी यात्रा के लिए यह साथ ले जाने वाला सर्वोत्तम आहार है। कहीं पर भी खाया जा सकता है, कैसे भी खाया जा सकता है। मध्यभारत में तो सत्तू-नमक लेकर ढूँढ़ना... जैसे मुहावरे भी बने है। सत्तू यात्राओं के लिए बहुत उपयुक्त रहा है, विशेषकर जटिल-कठिन यात्राओं के लिए...।

लद्दाख यात्राओं के मार्ग का पड़ाव जैसा है। लद्दाख के ऊपरी हिस्से से होकर रेशम मार्ग निकलता है। लद्दाख की नुबरा घाटी रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए एक आरामगाह जैसी रही है। इसके साथ ही भारत के अन्य हिस्सों के लिए उतरने वाले संपर्क मार्गों के कारण लद्दाख एक बड़े व्यापारिक केंद्र व ठहराव के रूप में अपनी भूमिका निभाता रहा है। होशियारपुर के अनेक व्यापारियों के ठिकाने आज भी लेह में देखे जा सकते हैं। गुरु नानक अपनी यात्राओं के क्रम में लद्दाख भी पधारे थे। लेह के निकट गुरुद्वारा दातून साहिब और लेह-श्रीनगर राजमार्ग पर गुरुद्वारा पत्थरसाहिब उनकी यात्रा की अविस्मरणीय गाथा को आज भी गाते हैं।

एक समय ऐसा भी था, जब लेह बाजार में मध्य एशिया के हर हिस्से का प्रतिनिधित्व दिखाई देता था; व्यापारियों, क्रेता-विक्रेताओं, पहनावों और बिकते व्यंजनों के रूप में...। लेह बाजार में गुरुद्वारा दातून साहिब के पास ही नहीं, प्रायः पूरे लद्दाख में एक वर्ग ऐसा मिलेगा, जो तंदूरी रोटी बनाने-बेचने का काम करता है। इन्हें स्थानीय भाषा में नानवाई कहते हैं। इनके द्वारा बनाई तंदूरी रोटी लद्दाखी भाषा में ‘तागी’ कही जाती है। यह तागी कब रेशम मार्ग से उतरकर लद्दाख की ‘तागी’ और फिर पंजाब की ‘तंदूरी’ बनकर सारे देश और दुनिया में फैली...., जानना बहुत रोचक और रोमांचकारी होगा।

रेशम मार्ग पर चलने वाले यात्रियों और व्यापारियों के लिए दाना-पानी कितना जटिल रहा होगा, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। रेशम मार्ग में यात्रा करने के लिए पूरा का पूरा लाव-लश्कर होता था, जिसमें दो कूबड़ वाले ऊँटों पर चमड़े के बने थैलों में पानी, तागी या तंदूरी रोटी आदि के चलते-फिरते भंडार भी होते थे। इनके साथ ही समोसा जैसे व्यंजन भी होते थे, जो आटे के अंदर तीखा-चटपटा मसाला भरकर बनाए जाते थे। समोसा की उत्पत्ति भी यहीं से हुई, ऐसा कह सकते हैं। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था, बल्कि दर्शन-चिंतन-वैचारिकता की अनेक बातें भी इस मार्ग से आती जाती रहीं हैं। अनेक अध्येताओं ने इस रास्ते से चलकर ज्ञान की खोज की है। संस्कृतियों के आदान-प्रदान के साथ ही खान-पान की आदते और व्यंजन भी रेशम मार्ग से आए-गए हैं। और इन सबका प्रभाव आज भी लद्दाख में देखा जा सकता है। लद्दाख को यूँ ही नहीं मध्य एशिया का बड़ा केंद्र कहा जाता...।

प्रायः भौगोलिक परिस्थितियाँ और जलवायु के कारक क्षेत्र-विशेष के आहार-विहार को प्रभावित करते हैं। लद्दाख में यह पक्ष प्रमुख रूप से दिखता है। इसी कारण लद्दाखी व्यंजन देश के अन्य भागों के व्यंजनों से अलग बनते हैं। लद्दाखी व्यंजन स्थानीय आवश्यकता के अनुसार प्रायः पर्याप्त तरल होते हैं। अकसर सूप तरलता को बढ़ाने का काम करते हैं। मैदानी क्षेत्रों में मोमोस को भले ही चटनी के साथ खाने का चलन हो, लेकिन लद्दाख में मोमोस सूप के साथ ही खाए जाते हैं। मोमोस के अतिरिक्त थुक्पा में भी पर्याप्त सूप होता है। थुक्पा व्यंजन में मोटी सेवइयाँ जैसी होती हैं, जिन्हें खूब रसेदार सूप में डालकर पकाया जाता है, और गरम-गरम पी लिया जाता है। इससे शरीर में गरमी भी आती है, और पानी की कमी भी साथ-साथ पूरी होती जाती है। ‘स्क्यू’ भी कुछ इसी तरह का व्यंजन होता है। इसमें ढेर सारी सब्जियाँ- पालक, मंगोल, लाल मटर आदि डालकर खूब तरल करके पकाया जाता है, और खौलती हुई तरल सब्जी में आटे के गोल-चौकोर टुकड़े जैसे डालकर उबाला जाता है। इसे भी रसेदार बनाते हैं और इसे भी सूप की तरह से पीते हुए खाया जाता है।

खोलक एकदम अलग तरह का व्यंजन है। लद्दाख में चपातियाँ बनाने का विधान नहीं है। चपाती के रूप में अगर कहें, तो ‘तागी’ ही है, जिसका उल्लेख पूर्व में किया गया है। एक रोचक बात ‘तागी’ के बारे में बताना यहाँ आवश्यक लगती है। लद्दाख में एक कहावत कही जाती है- ‘बेचारा रोटी खाकर जिंदा है..।’ यह कहावत गरीब-दीन-हीन व्यक्ति के लिए कही जाती है। लद्दाख में चावल विशिष्ट और कुलीन वर्ग का आहार माना जाता था। लद्दाख में चावल पैदा नहीं होता था, जिस कारण चावल बहुत महँगा बिकता था। दूसरी तरफ नानवाई की रोटियाँ सहज सुलभ थीं, हर वर्ग के व्यक्ति के लिए..। आज स्थिति ऐसी नहीं है, लेकिन अतीत की यादें जीवंत हैं। हम बात कर रहे थे, लद्दाखी व्यंजन खोलक की..। यह एक तरह से चपाती का ही रूप है, लेकिन इसे सीधे आँच में नहीं पकाया जाता। मैदा या आटा को सानकर उसका कलात्मक लड्डू जैसा आकार बनाकर भाप में पकाया जाता है। फिर उसे दाल में डालकर या सब्जी के साथ खाया जाता है।

लद्दाख की जलवायु के अनुसार यहाँ के प्रायः सभी व्यंजन कम मसालेदार और भाप में पके हुए होते हैं। इनको पकाने के लिए अलग तरह के बरतन भी होते हैं। वैसे लद्दाखी रसोई भी कम कलात्मक नहीं होती। लद्दाखी घरों में रसोई केवल खाना पकाने के लिए नहीं होती, वरन् खाना खाने और घंटों बैठकर गपशप करने के लिए भी होती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लद्दाख और तिब्बत की अपनी यात्राओं के साथ यहाँ के रसोईघरों का भी रोचक वर्णन किया है। वे यह भी लिखते हैं, कि बाहरी व्यक्ति के लिए रसोई तक पहुँचना कठिन नहीं होता। रसोईघर में चूल्हा कुछ इस तरह का होता है, कि उसके निकट बैठकर शीत से बचाव किया जा सकता है। इस तरह पूरा परिवार और अतिथिगण भी रसोई में बैठकर गरमागरम भोजन का आनंद ले सकते हैं, शीत से स्वयं को बचाते हुए। यह व्यवस्था एक तरह से कम संसाधनों का उपयोग करते हुए जीवन जीने की कला भी सिखाती है।

विश्वग्राम की संकल्पना ने सारी दुनिया को एक जगह पर समेट दिया है। जिस तरह मोमोस लद्दाख से निकलकर सुदूरवर्ती गाँवों तक पहुँचे हैं, उसी तरह से चोखा-बाटी, इडली-डोसा, जलेबी-टिकिया आदि लद्दाख में भी सुलभ हैं। इतना ही नहीं लद्दाख के बड़े होटलों के साथ ही छोटे-छोटे होटलों और रेस्टोरेंट्स में ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’ भी खूब मिलती हैं। लद्दाख उभरते हुए पर्यटन केंद्र के रूप में देश ही नहीं विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। इस कारण देश-दुनिया के पर्यटकों के साथ देश-दुनिया की खान-पान की आदतें और व्यंजन भी लद्दाख पहुँचे हैं। आज के समय में सत्तू लद्दाख के दूर-दराज के गाँवों में सरलता से मिल सकता है, अपेक्षाकृत लद्दाख के शहरी  क्षेत्रों के...। आधुनिकता ने बहुत कुछ बदला है। यह बदलाव खान-पान में भी आया है। यह सांस्कृतिक संक्रमण का समय है। लद्दाख के ठंड से ठिठुरते समय में बैठकर मसाला डोसा खाना एकदम अलग अनुभव देता है। किसी गाँव के चाट के ठेले में खड़े होकर मोमोस खाना भी अलग ही लगता है। अगर गहरे उतरकर सोचें, तो कई-कई बार यह अनुभूत होता है, कि हम व्यंजन नहीं, देश को एक सूत्र में पिरोने वाले सूत्रों का सुख व आनंद अपने अंदर उतार रहे हैं।

-राहुल मिश्र (आचार्य अनामय)

(कश्फ, अर्धवार्षिकी, संयुक्तांक दिसंबर, 2021 से जून, 2022, वर्ष- 20-21, संपादक- डॉ. विनोद तनेजा, अमृतसर में प्रकाशित)

Thursday 4 February 2021

भारत में भी है ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ का मजा

 

भारत में भी है ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ का मजा

मध्यकालीन व्यापारिक गतिविधियों की रोचक और साहसिक कथाएँ सिल्क रूट या रेशम मार्ग में बिखरी पड़ी हैं। सिल्क रूट का सबसे चर्चित हिस्सा, यानि उत्तरी रेशम मार्ग 6500 किलोमीटर लंबा है। दुनिया-भर में बदलती स्थितियों के कारण सिल्क रूट तो बंद हो गया, मगर उसकी रोचक स्मृतियाँ कई देशों के मन से ओझल नहीं हो पाईं। इस कारण चीन, कज़ाकिस्तान और किर्गिस्तान सहित दूसरे देशों के प्रस्ताव पर रेशम मार्ग को यूनेस्को ने विश्व विरासत का दर्जा दे दिया। इसके बाद ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ के तौर पर अंतरराष्ट्रीय पर्यटन का नया क्षेत्र खुला है।

पर्यटन के शौकीन लोगों के लिए सिल्क रूट टूरिज़्म जितना रोचक और रोमांचकारी है, उतना ही महँगा भी है। मगर आपको यह जानकर ताज्जुब होगा, कि कम खर्च में भी सिल्क रूट टूरिज़्म का मजा लिया जा सकता है, और वह भी देश से बाहर जाए बिना...। भले ही इस बात पर एकदम से भरोसा न हो, लेकिन यह हकीक़त है, जो देश के धुर उत्तरी छोर पर आपके स्वागत के लिए तैयार नज़र आती है।

जम्मू व कश्मीर के लदाख अंचल का उत्तरी इलाका, यानि नुबरा घाटी क्षेत्र सिल्क रूट से जुड़ा हुआ है। लदाख के मुख्यालय लेह से लगभग चालीस किलोमीटर की यात्रा के बाद मिलता है, खरदुंग दर्रा, जिसे दुनिया की सबसे ऊँची सड़क के लिए भी जाना जाता है। खरदुंग-ला के पार शुरू होती है, नुबरा घाटी, यानि फूलों की घाटी। सिल्क रूट के टकलामकान रेगिस्तान में नख़लिस्तान की तरह...। नुबरा के मुख्यालय देस्कित पहुँचने से पहले ही नुबरा नदी शयोक नदी से मिलती दिखाई पड़ती है। शयोक नदी के किनारे-किनारे पश्चिम की तरफ चलते हुए एक तरफ लदाख पर्वतमाला और दूसरी तरफ काराकोरम की पर्वतश्रेणियाँ अपने अलग-अलग रंग-ढंग को साथ लिए चलती हुई नजर आती हैं। देस्कित को पार करते ही हुंदर गाँव आता है। यह गाँव दो कूबड़ वाले ऊँटों की सवारी के लिए जाना जाता है। ये बैक्ट्रियन या यारकंदी ऊँट सिल्क रूट के शहंशाह कहे जा सकते हैं। सिल्क रूट के बंद हो जाने के बाद इनकी प्रजाति हुंदर में उन परिवारों के पास सुरक्षित है, जो किसी जमाने में सिल्क रूट व्यापार में माल ढुलाई और ‘शटल सेवा’ का काम किया करते थे। हुंदर का राजमहल, जो अब एक बौद्धमठ की शक्ल अख्तियार कर चुका है, किसी जमाने में सिल्क रूट के व्यापार पर नजर रखने की जिम्मेदारी निभाया करता था। हुंदर गाँव तक पहुँचने वाले पर्यटकों के लिए जितनी रोमांचक यारकंदी ऊँटों की सवारी होती है, उतना ही आकर्षण उनके लिए हुंदर राजमहल को देखने में होता है। अनूठी देशी बनावट वाले इस महल से आगे पश्चिम की तरफ बढ़ते हुए काराकोरम पर्वतश्रेणियों की ऊँचाई में वह रास्ता दिखाई पड़ने लगता है, जो कभी सिल्क रूट के सहायक मार्ग के तौर पर जाना जाता था। शयोक नदी के दोनों तरफ ऊँचे पहाड़ों पर सीधी लकीरों की तरह दिखने वाले सिल्क रूट के साथ-साथ चलते हुए चालुंका पहुँचते हैं। यह बल्तिस्थान का पहला गाँव है, जो यहाँ के लोगों के रंग-रूप, नाक-नक्श और अनूठी तहजीब के कारण एक नए संसार के खुल जाने का अहसास करा देता है।

चालुंका से बोगदंग और फिर तुरतुक तक बलखाती-इठलाती शयोक नदी, दोनों किनारों पर अलग-अलग रंगों को बदलती पर्वतराशियाँ, सियाचिन ग्लोशियर से टकराकर आते शीतल-मंद पवन के झोंके और इन सबके साथ असीमित पसरी शांति पर्यटन के एकदम नए और अनूठे अहसास को साथ लिए दिल में गहरे उतर जाती है। देश की सीमा का आखिरी गाँव है- तुरतुक। दो-तीन वर्ष पहले तक हुंदर के आगे पर्यटकों को जाने की इजाजत नहीं थी। इस कारण बल्ती संस्कृति के अनूठे दर्शन पर्यटकों के लिए सुलभ नहीं थे। अब सीधे तुरतुक तक पहुँचा जा सकता है और अनूठी बल्ती तहजीब को आँख भर-भरकर देखा जा सकता है।

तुरतुक में यगबो राजवंश के उत्तराधिकारी यगबो मोहम्मद खान काचो ने अपने पुरखों की तमाम यादों को समेटकर एक छोटा-सा संग्रहालय बना रखा है। इस संग्रहालय को देखना अतीत के उन लम्हों में उतर जाना है, जिनमें गिलगित बल्तिस्थान के गौरवपूर्ण अतीत की इबारतें लिखी हुई हैं। एक तरफ बल्ती संस्कृति, बल्ती समुदाय का जीवन यहाँ देखने को मिलता है, तो दूसरी ओर बल्ती ग़ज़ल, बल्ती लोकगीतों-किस्सों से महकती शामों के साथ चाँदनी रात में तारों भरे आसमान के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारना, तेजी से भागती जाती शयोक के कदमों की आहटों को सुनना ग्रामीण पर्यटन, सांस्कृतिक पर्यटन और साथ ही सिल्क रूट पर्यटन के सुखों को एकसाथ जोड़ देता है।

लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके तुरतुक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने के लिए ‘इनर लाइन परमिट’ की जरूरत पड़ती है। इसे लदाख स्वायत्तशासी परिषद् की वेबसाइट पर जाकर खुद भी बनाया जा सकता है। तुरतुक में कई अच्छे यात्री-निवास, होटल और गेस्ट हाउस हैं, मगर ‘होम-स्टे’ की बात ही अलग है, जहाँ बल्ती व्यंजनों का स्वाद और बल्ती जीवन की ढेर सारी रोचक कथाएँ सरलता से मिल जाती हैं। खुबानियों, जौ के सत्तू और देशी व्यंजनों के साथ पर्यटन का मजा दो गुना हो जाता है। तुरतुक के प्रसिद्ध लकड़ी के पुल पर बना ‘सेल्फी प्वाइंट’ गाहे-ब-गाहे अपनी तरफ खींच ही लेता है। पर्यटकों की सुविधा के लिए लेह में पर्यटक केंद्र है। हाल ही में देस्कित में भी पर्यटक सुविधा केंद्र खोला गया है। एक नए और अनूठे पर्यटक केंद्र के रूप में जितना नुबरा घाटी को जाना जाता है, उससे कहीं अधिक आकर्षण सिल्क रूट के साथ चलते-चलते तुरतुक तक जाने में होता है। यह आकर्षण भारत के मुकुट में जड़ी सुंदर मणि जैसी बल्ती तहजीब को नजदीक से देखकर खुशी से नहीं, गर्व से भी भर देता है।

(संपादकीय पृष्ठ, दैनिक अमृत विचार, लखनऊ-बरेली नगर-बरेली ग्रामीण संस्करण में दिनांक 25 फरवरी, 2020 को प्रकाशित)



Tuesday 1 December 2020

 





शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है...

कहते हैं, पहाड़ी नदियाँ बड़ी शोख़ होती हैं, चंचल होती हैं। लहराना, बल खा-खाकर चलना ऐसा,  कि ‘आधी दुनिया’ को भी इन्हीं से यह हुनर सीखना पड़े। पहाड़ी नदियाँ तो बेशक ऐसी ही होती हैं, मगर कभी हिमानियों से अपना रूप और आकार पाने वाली नदियों के बारे में सोचा है? वैसे तो ये भी पहाड़ों की ही हैं। इसलिए शोख़ी और चंचलता, बाँकपन और अदाकारी इनमें नहीं होगी, ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता है। देख लीजिए अलकनंदा और भागीरथी को, देख लीजिए लोहित और असिक्नी को....., और इनकी जैसी अनेक नदियों को....। एक अलग-सा सौंदर्य, अनूठा अल्हड़पन इनमें नजर आएगा। हिमनदों की इन आत्मजाओं का अनूठा सौंदर्य हिमालय की ऊँचाइयों पर ही देखा जा सकता है। अपने उद्गम से आगे बढ़ते हुए इनकी चंचलता मैदानों तक पहुँचते-पहुँचते गंभीरता में बदल जाती है। ठीक बचपन और बुढ़ापे की तरह...।

हिमनदों की इन चंचल बेटियों में एक शयोक भी है, जो अपनी कुछ अलग ही तासीर रखती है। यह चंद्रा और लोहित की तरह, अलकनंदा की तरह, या फिर भागीरथी की तरह सीधी-सरल और शांत नहीं है। लेह की तरफ से खरदुंग दर्रे को पार करते ही जैसे हम नुबरा घाटी में पहुँचते हैं, हरहराती हुई और तेजी से भागती हुई शयोक जैसे अगवानी करने को तैयार मिलती है। नुबरा घाटी में हम जितने दिन गुजारते हैं, उतने दिनों तक शयोक हमारा पीछा नहीं छोड़ती। नुबरा घाटी में घूमते हुए कई-कई बार हमें इसके साथ, तो कई बार इसे पार करके दर्शनीय स्थलों में पहुँचना होता है। इतना ही नहीं, शयोक अपने प्रवाह के साथ अपनी एक उपघाटी या अपना मैदानी इलाका भी बनाती है।

  अल्हड़ शयोक अपने उद्गम स्थान से निकलकर ‘गप्शन’ तक पश्चिम और दक्षिण तक बहती है और ‘गप्शन’ से ‘मंदरालिङ’ तक पूर्व दिशा में  बहती है। अपने उद्गम से आगे निकलकर यह गलवाँ और चंङ छेनमो नदियों को अपने साथ ले लेती है। इसके साथ ही यह इस इलाके में मंगोलियन तिब्बत और लद्दाख के बीच एक प्राकृतिक विभाजक रेखा भी खींचती है।  ‘मंदरालिङ’ से ‘शयोग’ तक दक्षिण और ‘शयोग’ से ‘हुंदर’ तक पश्चिमोत्तर बहते हुए बाद में पश्चिम दिशा की ओर बहते हुए बल्तिस्थान में प्रवेश कर जाती है। बल्तिस्थान के प्रमुख शहर स्करदो के पूर्व की ओर स्थित ‘केरिस’ के नजदीक सिंधु से मिल जाती है।

कई-कई बार शयोक की अल्हड़ चाल को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह ‘खरदुंग-ला’ से बहुत नाराज हो। ‘खरदुंग-ला’, यानि खरदुंग दर्रा....भोटभाषा में ‘ला’ दर्रे को कहते हैं। ‘ला’ तो ठीक है, लेकिन ‘खरदुंग’ तो ‘खर’ और ‘तुंग’ का मिश्रण समझ में आता है, जो प्रजातियों-पीढ़ियों की जुबानों में घिस-घिसकर ‘खरदुंग’ हो गया है, शायद। एकदम खड़ी-सी, ऊँची और कठिन चढ़ाई वाला तुंग....खरतुंग। आखिर यह शयोक के रास्ते में आया ही क्यों? उत्तर आसान-सा है, सरल-सा ही है...। पहाड़ हमेशा धीर-गंभीर और वीरव्रती ही नहीं होते, ये खलनायक की भूमिका में भी कभी-कभी आ जाते हैं। ऊँचे-ऊँचे दुर्गम और कठिन दर्रों के कारण ही लदाख के लिए कहा जाता है, कि यहाँ पर बहुत घनिष्ठ मित्र या बहुत कट्टर दुश्मन ही पहुँच सकता है। मध्यम स्तर वालों के लिए यहाँ आना सुगम नहीं...संभव नहीं। कारण... पहाड़ ही यहाँ पर चुनौतियों के  द्वार खोलते हैं। शायद इसी कारण शयोक की कथा में खरदुंग-ला किसी खलनायक से कम नजर नहीं आता। ऐसी ही एक कथा लाहुल-स्पीति के लोककंठों में जीवंत मिलती है। इस कथा में बारालाचा की दुर्गम ऊँचाइयाँ चंद्रा और भागा के लिए अवरोधक बनती हैं।

बड़े गहरे उतरे स्नेह-भाव के कारण कुछ लोगों द्वारा बड़ालाचा भी कहे जाने वाले बारालाचा के चंद्रताल से निकली चंद्रमा की बेटी चंद्रा, और सूर्यताल से निकला सूरज का बेटा भागा अपने प्रेम को जल तत्त्व में उतारकर साकार करते हैं। वैसे सूर्य का एक नाम भाकर भी है। भाकर का अंश भागा, और चंद्रमा की चंद्रा...। बारालाचा के शिखर से उनकी यात्रा शुरू होती है, मिलन के लिए...। भागा को कुछ ज्यादा ही भागना पड़ता है, दुर्गम पहाड़ियों के बीच अपना रास्ता बनाना होता है। अंततः ताँदी में दोनों मिलते हैं, और एक प्रयाग, एक संगम वहाँ बन जाता है, आस्था का...प्रेम की पराकाष्ठा का। लाहुल-स्पीति की अनेक लोककथाओं के बीच चंद्रा और भागा की यह प्रेमकथा बड़ी रुचि के साथ सुनी जाती है। ताँदी से आगे चंद्रभागा चेनाब बन जाती है, वैदिककाल की असिक्नी या आज के आम बोलचाल की इशकमती बन जाती है। इसी के किनारे हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल की प्रेमकथाएँ पनपती हैं, पंजाबियों के रीति-रिवाज परवान चढ़ते हैं। चंद्रा और भागा का अमर प्रेम मैदानी इलाकों को अपने रंग में रंग देता है।

यही अमर प्रेम शयोक और सिंधु में भी तो दिखता है, इसी कारण मिलन की राह में खड़े खर-तुंग से नाराज शयोक एकदम अपनी दिशा बदलकर बहने लगती है। इसीलिए खरदुंग-ला के पदतल में, हमें जैसे ही शयोक के दर्शन होते हैं, उसका भर्राया हुआ गला, नाराजगी से भरा स्वर सुनाई देता है। नदियों, पर्वतों, वनस्पतियों में स्वयं को देखने की, मानवीय गुणों और प्रवृत्तियों को देखने की अनूठी भारतीय पंरपरा दुनिया में विलक्षण है, अद्भुत है। इसी कारण शयोक के ही नहीं, हमारे अपने स्वर भी दो प्रेमियों के मिलन की राह में बाधक बनने वाले खलनायक खरदुंग-ला के लिए नाराजगी से भर जाते हैं। बारालाचा में अगर सूरज का बेटा है, तो यहाँ रिमो हिमानी की बेटी है। उधर चंद्रा है, जो बड़ी शालीन और संयत है। इधर शालीनता सिंधु नद के हिस्से में है। वैसे ‘रिमो’ भी भोटभाषा का शब्द है, और धारीदार पहाड़ के लिए इसे प्रयोग किया जाता है। जब माई ही इतनी तीखी है, तो बिटिया शांत-संयत कैसे हो सकती है? कई बार यह विचार शयोक की अल्हड़ चाल के कारणों को खोजते समय मन में उतर पड़ता है।

वैसे शयोक को कुछ और करीब से जानना हो, तो पाँच-छः घंटे का समय निकालकर स्याम गोनबो की लगभग सात-आठ सौ फीट की ऊँचाई पर चढ़ जाइए। धरती के टुकड़े को चाकू से काटती तेज धार की तरह शयोक का बहाव दिखाई पड़ेगा। एक तरफ हिमालय की लदाख पर्वतश्रेणी है, तो दूसरी तरफ काराकोरम पर्वतश्रेणी है। बीच में शयोक है, दो पर्वतश्रेणियों को एक-दूसरे से जुदा करती हुई। यह विभाजन पहाड़ों की बनावट का भी है, और बुनावट का भी...रंग भी दोनों के अलग-अलग...चट्टानें भी अलग और मिट्टी भी अलग। एक तरफ लालिमा है, तो दूसरी ओर कारा जैसी कालिमा...। स्याम गोनबो की ऊँचाई से शयोक को देखकर मन में  सबसे पहला विचार यही आता है, कि, भला हो... शयोक तुम्हारा! जो तुमने  दोनों श्रेणियों को अलग-अलग कर दिया.... कहीं हम एक ही समझ बैठते, तो आखिर क्या होता? यह तो ठीक है, लेकिन क्या तुम्हें एक गति से चलना नहीं आता है?

हे शयोक! हमने भी स्याम गोनबो की ऊँचाइयों से तुम्हें निहारा है। केवल निहारा ही नहीं है, तुम्हारे सानिध्य में पाँच-छः घंटे भी बिताए हैं। सुबह के समय तुम्हारी चाल थमी हुई-सी होती है। उस समय लगता है, कि तुम घुटुरुअन चल रही हो। कोई भी तुम्हारे पास जा सकता है। सिर पर सूरज के चढ़ते-चढ़ते तुम्हारे किनारों के रेतीले मैदानों में नमी पसरने लगती है। कई-कई जलधाराएँ उग आती हैं। साँझ ढलते-ढलते तुम्हारी चाल बहुत तेज हो जाती है। तुम्हारे सहमे-सिकुड़े से किनारे दूर-दूर तक फैल जाते हैं। रात के अँधेरों में भी तुम्हारी तेजी बनी ही रहती है, और सुबह-सवेरे फिर वही वीतरागी मद्धिम चाल....। कहीं तुम्हारे नाम के पीछे तुम्हारी चाल का असर तो नहीं है? अपने ‘ओक’ में, रिमो की गोद में ‘शयन’ कर रहीं तुम आलसियों की तरह दिन चढ़ने पर जागती हो, और देर हो जाने की बदहवासी में तेजी से दौड़ लगा देती हो। तुम्हारी दिन-भर की कलाएँ देखकर ही हमारे मन में ऐसे विचार आते हैं। हो सकता है, दूसरे लोगों के मन में ऐसे विचार आते हों। ‘शय’ और ‘ओक’ के मिलन से बनने वाले तुम्हारे नाम के पीछे भी यही विचार हो सकते हैं।

वैसे यारकंदी लोग शयोक को इस नाम से नहीं जानते। उनके लिए शयोक मौत की नदी है। दरअसल, काराकोरम की विकराल ऊँचाइयों से गुजरने वाले रेशम मार्ग का सहायक मार्ग नुबरा घाटी से जुड़ा हुआ था। लेह को रेशम मार्ग से जोड़ने वाले इस सहायक मार्ग की यात्रा करते समय यारकंदी व्यापारियों को लगभग बीस बार शयोक नदी को पार करना  पड़ता था। गर्मियों में तो इसे पार करना असंभव ही होता था, मगर सर्दियों में भी यह कम कठिन नहीं होता था। अपनी आदत के हिसाब से शयोक एकदम तेजी के साथ बह पड़ती, और यारकंदी व्यापारियों के कारवाँ में शामिल ऊँटों, घोड़ों, आदमियों तक को बहा ले जाती। शयोक के किनारे रहने वाले लोग भी इससे कम डरे हुए नहीं हैं। आज तो तमाम साधन हैं, पुल हैं, सड़कें हैं; लेकिन  गुजरे जमाने में लोग बेबसी को ढोते थे, और वैकल्पिक रास्ते निकालते थे। शयोक के किनारे के कुछ पुराने गाँवों, जैसे हुंदर, हुंदरी, देस्किद और उदमारू आदि के लोग चमरी मृग की खाल से ‘बिप्स’, यानि चमड़े की नाव बनाते थे, और उसके सहारे अपनी जान को जोखिम में  डालकर शयोक को पार करते थे।

भूरी-मटमैली रंग की इस मौत की नदी से नुबरा-शयोक घाटी के लोगों की भी खासी नाराजगी है। जिस शयोक को जीवनदायिनी होना चाहिए, उसके विकराल रूप से आहत लोग अपनी नाराजगी भी बड़ो रोचक अंदाज में व्यक्त करते हैं। आज भी किसी  बूढ़े-बुजर्ग से पूछिए, तो वे कहते हैं कि हम खेती-किसानी के लिए शयोक का पानी लेना नहीं पसंद करते, क्योंकि शयोक हमें जीवन देने वाली नहीं है। शयोक ने अपनी बाढ़ के उफान में कई बार हमारे तटबंधों की मिट्टी बहाई है, हमारी फसलों और पेड़-पौधों को बहाया है। इतना ही नहीं, गाँव के गाँव बहाकर आबादी को मिटाया है। इसलिए हमें शयोक का पानी अपनी फसलों में नहीं डालना है।

ऐसा कहा जाता है कि बल्तिस्थान के यगबो राजवंश की राजधानी काफलू में भयंकर बाढ़ आई थी। इस बाढ़ में शयोक नदी ने काफलू के चंगथंग इलाके को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। यह चंगथंग इलाका मंगोलियन तिब्बत से सटे चंगथंग के लोगों का था, जो रेशम मार्ग में नमक का व्यापार किया करते थे। इस भीषण तबाही से आक्रांत लोगों ने उस इलाके को ही छोड़ दिया। इनमें से कुछ लोग ‘छोरबत’ में बस गए और कुछ लोग नुबरा घाटी से होते हुए लेह के निकट ‘छुशोद’ गाँव में आकर बस गए। छुशोद में इन लोगों को ‘बल्ती’ के तौर पर जाना जाता है।

वैसे शयोक ने केवल बल्तियों को ही विस्थापित नहीं किया, वरन् अतीत के तमाम विस्थापनों को, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों को देखा है, जो इतिहास में आज भी अनजाने हैं, अनछुए और गुमनाम-से हैं। देश के विभाजन के बाद कारगिल से सड़क मार्ग द्वारा स्करदो तक जाना संभव नहीं रहा। अविभाजित लदाख में स्करदो की उतनी ही बड़ी भूमिका होती थी, जितनी लेह की..। डोगरा शासकों के समय में लदाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी स्करदो होती थी। सिंधु नद स्करदो से गुजरते हुए केरिस के पास शयोक से मिलता है। केरिस के पास ही शिगर नदी भी सिंधु में मिलती है। यहाँ त्रिवेणी बन जाती है, संगम बन जाता है। केरिस के निकट ही ऐतिहासिक काफलू शहर है।

अतीत का एक लंबा कालखंड ऐसा भी रहा है, जब सिंधु और शयोक के दोआब में दरद भाषा का व्यवहार हुआ करता था। कारगिल-खलच़े से लगाकर स्करदो-गिलगित-हुंजा से होते हुए मंगोलियाई तिब्बत की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा तक विस्तृत दरदभाषी क्षेत्र अपने अतीत में दरद आर्यों का निवास स्थान रहा है। आज का बल्तिस्थान अतीत में इसी दरद देश के अंतर्गत ही आता था। आज की धार्मिक-सांस्कृतिक विविधताओं के बीच प्रजातिगत एकरूपता अतीत के गौरव की साक्षी है। इस दरद देश का अतीत महाभारत काल से भी जुड़ा है। महाभारत के युद्ध में दरदों ने कौरवों की तरफ से युद्ध किया था, जबकि किरातों ने पांडवों की तरफ से युद्ध किया था। तिब्बती भोटभाषा में किरातों को ‘मोन’ कहा जाता है। इन्हीं मोन लोगों के कारण लदाख का एक नाम ‘मोनयुल’, यानि मोन लोगों का इलाका भी है। सिंधु के तट पर ‘मोन’ या किरातों की, और शयोक के तट पर दरदों की आबादी के सहारे सिंधु-शयोक का दोआब महाभारतकालीन राजनीतिक प्रसंगों का साक्षी बना होगा।

शयोक तो मानव-सभ्यता के विकास की, हिमालय की निर्मिति की साक्षी भी है। शयोक तांतव संधि-क्षेत्र या ‘शयोक स्यूटर जोन’ के तौर पर हम शयोक के प्रवाह को जानते हैं। देश-दुनिया में प्रसिद्ध पङ्गोङ झील की निर्मिति भी शयोक के प्रवाह के कारण हुई। किसी समय टेथिस सागर की लहरों को झेलने वाला शयोक का प्रवाह-क्षेत्र आज भी परवर्ती जुरासिक काल के जीवों के चिन्हों को अपने में छिपाए हुए है। सिंधु नद का अतीत भी इसी तरह परवर्ती जुरासिक काल से जुड़ा हुआ है। इस कारण सिंधु और शयोक से मिलकर सिंधु-शयोक मेखला का निर्माण होता है। इसी कारण सिंधु से मिलना ही शयोक की नियति बन जाती है। यह मिलन केरिस में होता है। सिंधु और शयोक के साथ ही शिगर नदी भी केरिस में मिलती है। अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ केरिस ऐसा संगम बन जाता है, ऐसा जीवंत प्रयाग बन जाता है, जहाँ अतीत के मानव के अस्तित्व का पहला अध्याय लिखा जाता है। जहाँ सभ्यताओं के अस्तित्व और संघर्ष की गाथाएँ गुनी जाती हैं। जहाँ धर्मों-रीतियों-नीतियों के टकराव दर्ज होते हैं। जहाँ भूरी-मटमैली शयोक नदी सिंधु नद से मिलकर अपनी पूर्णता को पाती है, और न पढ़े गए इतिहास के तमाम पन्नों को बाँचती है, उवाचती है। शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है..।

डॉ. राहुल मिश्र

(हिंदी प्रचार-प्रसार सोसायटी अमृतसर की पत्रिका 'बरोह' के दिसंबर, 2019 अंक में प्रकाशित)