Wednesday, 19 March 2025

प्रात लेइ जो नाम हमारा....

 

प्रात लेइ जो नाम हमारा....

श्रीरामचरितमानस के सुंदर कांड में अत्यंत रुचिकर प्रसंग आता है। प्रसंग माता सीता का पता लगाने के लिए हनुमान जी को लंका भेजने का है। हनुमान अपने बल को भूले हुए बैठे हैं। जामवंत के याद दिलाने पर उन्हें अपनी शक्ति का अनुभव होता है। वे तुरंत लंका के लिए प्रस्थान करते हैं। मार्ग में अनेक बाधाएँ और संकट आए, जिनको पार करके भक्तप्रवर हनुमान लंका पहुँचते हैं। लंका राक्षसों की नगरी है। वहाँ भले लोग कैसे मिलेंगे? एक अजनबी की भाँति हनुमान लंका में प्रवेश करते हैं। स्थान-स्थान पर बाधाएँ हैं, पहरे हैं, राक्षसों की क्रूरता के चिह्न हैं....। ऐसे विकट-भयावह स्थान पर माता सीता कैसे जीवन बिता रहीं हैं...., यह चिंता भी हनुमान को होती है।

सुख और समृद्धि भले ही एक-दूसरे के साथ जोड़कर व्यवहृत हों, लेकिन समृद्धि होने से सुख सुनिश्चित नहीं हो जाता। लंका नगरी में संपन्नता की कोई कमी नहीं है। हनुमान जी पूरी लंका नगरी का भ्रमण करते हैं। बाबा तुलसी ने बहुत संक्षेप में वर्णन किया है, लेकिन आद्यकवि वाल्मीकि ने रामायण में लंका का विशद-व्यापक वर्णन किया है। लंका नगरी की समृद्धि का वर्णन वाल्मीकि रामायण में मिलता है। वहाँ समृद्धि के अनेक प्रतिमान हैं, लेकिन सुख की अनुभूति नहीं मिलती.... उल्लास, उमंग, हर्ष, आत्मिक शांति और जीवंतता नहीं दिखती। आद्यकवि वाल्मीकि ने संपन्नता का वर्णन करते हुए इस पक्ष को विशेष रूप से इंगित किया है। गोस्वामी जी केवल संकेत देते हुए आगे बढ़ जाते हैं, और हनुमान-विभीषण संवाद का विस्तृत वर्णन करते हैं। उनकी दृष्टि सत्संग के वैशिष्ट्य को स्थापित करने में केंद्रित होती है। गोस्वामी जी हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद के माध्यम से सद्भावना, सहकार, समन्वय और समरसता को उकेरते हैं। गोस्वामी जी मानस में वर्णन करते हैं, कि लंका नगरी में भ्रमण करते हुए हनुमान को कहीं भी भले लोग नहीं दिखते। एक घर ऐसा दिखाई दे जाता है, जो हनुमान जी की धारण को बदल देता है। उस घर के बाहर रामायुध अंकित है,और तुलसी का चौरा भी है। यह देखकर हनुमान जी को भरोसा हो जाता है, कि यहाँ संत-सज्जन व्यक्ति का निवास है। वे पुकारते हैं। विभीषण भी उनके राम-नाम स्मरण को सुनकर हर्षित होते हैं। दोनों रामभक्त बैठते हैं।


हनुमान और विभीषण का संवाद वाल्मीकि रामायण में नहीं है... अध्यात्म रामायण में भी नहीं है।
गोस्वामी जी सायास इस प्रसंग को लाते हैं। उनका उद्देश्य भक्ति-भावना की पुष्टि का तो है ही, साथ ही वे सामयिक संदर्भों की ओर भी संकेत करते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद अत्यंत रुचिकर है। राम के दो अनन्य भक्त मिलते हैं। विभीषण अपने मन की वेदना कहते हैं। हनुमान उन्हें सांत्वना देते हैं-

कहहु कवन मैं परम कुलीना । कपि चंचल सबही बिधि हीना ।।

 प्रात  लेइ  जो नाम  हमारा ।  तेहि दिन  ताहि न मिलै अहारा ।।

अस मैं अधम सखा सुनु मोहूँ पर रघुबीर ।

कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ।।

मैं कौन-सा बहुत कुलीन व्यक्ति हूँ...। आप ही बताइए...। मैं तो चंचल कपि हूँ, और सभी स्तरों से हीन हूँ, तुच्छ हूँ। मैं मानव नहीं हूँ, मैं गुणवान भी नहीं हूँ। मेरी चंचलता ऐसी है, कि जिसके लिए मुझे श्राप तक दिया जा चुका है...। मैं अधम हूँ, हेय हूँ। मेरा नाम तक लेने से लोग कतराते हैं। अगर कोई सुबह मेरा नाम ले लेता है, तो उसे उस दिन भोजन तक नहीं मिलता...। ऐसे अधम और हीन वानर पर भी श्रीराम की कृपा है। श्रीराम की कृपा का स्मरण कर हनुमान के नयन भावविभोर होकर अश्रु-प्लावित हो जाते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य का संवाद दो संतों के मध्य हो रही चर्चा के जैसा प्रतीत होता है, सत्संग का रूप ले लेता है। विभीषण कह रहे हैं-

क्या मुझ अनाथ निशचर के भी- रघुनाथ बनेंगे नाथ कभी ।

क्या मुझसे अधम दास को भी रक्खेंगे राघव साथ कभी ।।

विभीषण की वेदना वानरश्रेष्ठ हनुमान के सम्मुख प्रकट होती है। विभीषण कहते हैं, कि मैं तो लंका नगरी में वैसे ही रह रहा हूँ, जैसे दाँतों के मध्य जीभ होती है। राधेश्याम कथावाचक इस वार्ता को रुचिकर बनाते हैं। राधेश्याम रामायण में संवाद चलता है-

कपि बोले मुँह की बत्तीसी सब टूट फूट गिर जाएगी ।

पर, जिह्वा-जीवनभर रहकर-श्रीराम-नाम गुण गाएगी ।।

भक्त विभीषण, धन्य तुम, धन्य तुम्हारा प्रेम !

धन्य तुम्हारी धारणा, धन्य तुम्हारा नेम !!

जो सज्जन हैं, सत्संगी है, वे कहीं छिपाए छिपते हैं?

एक ही पन्थ के दो पन्थी-इस प्रकार देखो मिलते हैं ।।

विभीषण और हनुमान भ्रातृ-प्रेम में आबद्ध हो जाते हैं। राम का नाम दोनों के मध्य संबंधों को स्थापित करने का माध्यम बनता है। कबीर का एक बहुत प्रसिद्ध पद है-

कबीर हरदी पीयरी, चूना उज्जल भाइ ।

राम सनेही यूँ मिले दून्यू बरन गँवाइ ।।

संबंधों में मर्यादा ही तो राम-सनेह है, भगवान श्रीराम मर्यादा के प्रतीक हैं। कर्म की मर्यादा, धर्म की मर्यादा, नीति-नैतिकता के पालन की मर्यादा ही तो राम से व्याख्यायित होती है। संबंधों की मर्यादा टूटने पर ही विभीषण अपने घर में तिरस्कृत हैं। लंका नगरी की समृद्धि अमर्यादित कार्य-व्यवहारों के कारण ही अपनी आभा खो बैठी है। भौतिक संपन्नता एक ऐसे खोखलेपन के साथ लंका नगरी में देखी जा सकती है, जहाँ उद्दंडता है, उच्छृंखलता है, मनमानी है, मनमौजीपन है। यह रामकथा के अंत में विशेष रूप से प्रकट होती है। रावण के वध के उपरांत मंदोदरी विलाप करती है-

राम विमुख अस हाल तुम्हारा । रहा न कोउ कुल रोवनहारा ।।

गोस्वामी तुलसीदास यदि चाहते, तो हनुमान और विभीषण की भेंट का सामान्य और प्रसंगानुकूल वर्णन करके कथा को आगे बढ़ा देते, लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं। उनके सामने हनुमान और विभीषण की भेंट का प्रसंग कथा के अंतर्गत आने वाले मात्र एक पड़ाव की भाँति नहीं है। बाबा तुलसी की दृष्टि दूर तक जाती है। गोस्वामी जी रामायण काल तक ही नहीं रहते, वे वर्तमान से भी जुड़ते हैं। रामकथा को सामयिक बनाते हैं। गोस्वामी जी का समय अनेक संघर्षों से भरा हुआ था। समूचा भक्ति आंदोलन ही जन-जन को चैतन्य बनाने के लिए था, क्रूर आक्रांताओं से आहत भारतीय जनसमुदाय के पथ-प्रदर्शक की भूमिका में था। गोस्वामी जी की दृष्टि भी यही थी। उन्हें समग्र भारतीय समाज को, सनातन परंपरा के सभी घटकों-अंगों को संगठित करना था, जोड़ना था। इसी कारण वे श्रीराम के ’सर्वभूत हिते रतः’ के भाव को प्रमुख रूप से प्रस्तुत करते हैं। श्रीराम सभी के हित में संलग्न हैं, ऐसा इस प्रसंग में ध्वनित होता है। वस्तुतः सुंदरकांड इसी कारण सुंदर कांड है, क्योंकि इसमें अनेक लोगों की संघटना है, कई लोगों का जुड़ाव है। यहाँ जाति-प्रजाति का, उत्तर-दक्षिण का, नर-वानर का भेद नहीं है। यहाँ सभी एक होते हैं, जुटते हैं... और राम काज के लिए जुटते हैं। जिसके पास जो कुछ भी है, उसको लेकर वो जुटता है, अपना योगदान देता है।

गोस्वामी तुलसीदास जब हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद को प्रस्तुत करते हैं, तो उनकी दृष्टि इस जुड़ाव की ओर होती है। विभीषण को लगता है, कि वो कैसे जुड़ पाएँगे। वे तो बहुत दूर पड़े हुए हैं। उनके साथ रावण का नाम जुड़ा हुआ है। क्रूर-आततायी रावण का भाई विभीषण राम का प्रिय कैसे हो सकता है? रावण ने सीता का हरण किया है। सीता लंका में बंदी हैं, और विभीषण लंकेश के भाई....। राम तो कभी भी विभीषण को स्वीकार नहीं करेंगे। विभीषण भले ही स्वयं में सही हैं, सीधे-सच्चे हैं। रावण से उनका सैद्धांतिक मतभेद है। वे रावण की नीतियों के विरुद्ध हैं। इसी कारण लंका में उपेक्षित और तिरस्कृत जीवन जी रहे हैं, लेकिन रावण के साथ संबंध विख्यात है। संगति का असर है, जो विभीषण को भी राक्षसों की श्रेणी में रखता है।

हनुमान भी शापित हैं। बचपन में उन्हें श्राप मिला था, कि वे अपने बल को भूल जाएँगे। उनकी बाल सुलभ चंचलता थी, कि उन्होंने सूर्य को अपना ग्रास बना लिया था। साधु-संन्यासियों के आश्रमों में वे खूब उछल-कूद मचाते थे, जिससे साधनारत संन्यासियों का ध्यानभंग होता था। फलतः उन्हें श्राप मिला, कि वे बल को भूल जाएँगे और यदि कोई उन्हें स्मरण कराएगा, तभी वे अपने बल को जानेंगे, और बल का प्रयोग कर सकेंगे। इसे श्राप कहें, या व्यवहार को संयमित करने की सीख...। इसके बाद हनुमान जी का व्यवहार एकदम बदल गया। वे संत प्रवृत्ति के हो गए। सुंदरकांड में जब जामवंत ने उन्हें बल का स्मरण कराया, तो वे अपनी सामर्थ्य को जानकर प्रसन्न हुए और राम-काज में अपनी शक्ति और सामर्थ्य का उपयोग करने हेतु प्रस्तुत हुए। हनुमान जी के बल का वर्णन प्रायः सभी रामकथाओं में मिलता है। तमिल में हनुमान का एक नाम ‘तिरुवड़ि’ है। तिरुवड़ि, अर्थात् विष्णुपाद....। कंब रामायण में प्रसंग आता है, कि समुद्र पार करने के लिए हनुमान ने विराट रूप धारण किया। जिस तरह धरती को नाप लेने के लिए भगवान विष्णु के वामन अवतार ने अपना लंबा डग रखा था, वैसे ही यहाँ हनुमान ने रखा है। इसी कारण हनुमान तिरुवड़ि हैं, विष्णुपाद हैं।

कंब रामायण की स्थापना के अनुसार हनुमान विष्णु के स्वरूप हैं। उन्हें शिव का अवतार भी माना जाता है। वैष्णव सी भक्ति और शैव सी शक्ति का समन्वित रूप हनुमान का है। लंका नगरी में विभीषण के साथ सत्संग में वैष्णव और लंका के ध्वंस में शिव के अवतार हनुमान....। विभीषण के साथ संवाद में हनुमान राम के अनन्य भक्त और वैष्णव संत के सदृश प्रतीत होते हैं। वे विभीषण को अपनी ओर से आश्वासन देते हैं, कि राम उन्हें अवश्य स्वीकार करेंगे। राम और रामादल के मध्य संबंधों की निकटता इतनी है, कि हनुमान को आश्वासन देने के लिए राम की अनुमति आवश्यकता नहीं होती। राम सभी के लिए सहज हैं, सुलभ हैं।

गोस्वामी तुलसीदास हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद के माध्यम से संगठन की शक्ति को व्याख्यायित करते हैं। श्रीराम किसी से किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करते। हनुमान जैसे शापित और मानवेतर जीव भी राम के लिए प्रिय हैं, अनन्य हैं। और इतने निकट हैं, कि हनुमान बेधड़क राम की ओर से विभीषण को आश्वासन दे रहे हैं। राम की संगठन-शक्ति सभी को लेकर बनती है। वहाँ कोई भेदभाव नहीं है। सभी समान हैं, सभी के लिए अधिकार भी समान हैं।

गोस्वामी जी का सम-काल अनेक विषमताओं से भरा था। विशेष रूप से म्लेच्छ आक्रांताओं के समक्ष भारतीय समाज अनेक वर्गों उपवर्गों में बँटा हुआ था। इस कारण भारतीय समाज दिशाहीन होकर, असंगित रहकर क्रूर आक्रांताओं के आघातों को झेल रहा था, क्षत-विक्षत हो रहा था। ऐसी विषम स्थिति में सभी को संगठित करने की आवश्यकता थी। मत-पंथ के नाम पर, जाति-उपजाति के नाम पर भेदभाव के खतरे गोस्वामी जी के सामने स्पष्ट थे। इस कारण वे सभी विभेदों को दूर करके एक होने की बात कहते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद को इसका एक अंग कह सकते हैं। प्रायः गोस्वामी जी पर वर्ण-भेद के आक्षेप लगाए जाते रहे हैं। यह प्रसंग इन आक्षेपों का भी खुलकर उत्तर देता है। भक्तकवि तुलसीदास के आराध्य राम समाज के सभी वर्गों के हैं। राम के सम्मुख कोई भेद नहीं है। श्रीरामचरितमानस की पूरी कथा में स्थान-स्थान पर ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं। सुंदरकांड विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ रामादल की संगठन-शक्ति प्रकट होती है। जामवंत, सुग्रीव, नल, नील, अंगद आदि सभी स्वतः स्फूर्त ऊर्जा से रामकाज में संल्गन होते हैं। क्रूरकर्मा, आततायी रावण पर विजय पाने के लिए सभी अपनी-अपनी सामर्थ्य-भर योगदान देते हैं। विभीषण भी रामादल में आ जाते हैं। जब गोस्वामी जी के आराध्य किसी से भेद नहीं करते, तो गोस्वामी जी कैसे वर्ण-भेद कर सकते हैं?

भक्तकवि गोस्वामी तुलसीदास के आराध्य श्रीराम सभी को साथ लेकर चलते हैं। गोस्वामी जी इस वैशिष्ट्य को न केवल उभारते हैं, वरन् अपने समकाल में पनपती विकृतियों विषमताओं के मध्य संदेश देते हैं, संगठित होने का, समन्वय और सहकार के भाव को साथ लेकर धर्मार्थ कार्य के लिए संलग्न होने का, बिना विलंब किए हुए विकृति-कुसंगति को त्यागकर धर्मोन्मुख होने का, और नीति-नैतिकता के मार्ग पर चलने का।

-राहुल मिश्र

(त्रैमासिक साहित्य परिक्रमा के आश्विन-मार्गशीष, युगाब्द 5126 तदनुसार अक्टूबर-दिसंबर, 2024, वर्ष- 25, अंक- 02 में प्रकाशित)





Thursday, 1 August 2024

अवध राजु सुर राजु सिहाई...

 

अवध राजु सुर राजु सिहाई...

अवध  राजु सुर राजु सिहाई । दसरथ  धनु सुनि  धनदु लजाई ।

तेंहि पुर बसत भरत बिनु रागा । चंचरीक जिमि चंपक बागा ।।

श्रीरामचरितमानस में प्रसंग आता है...। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन को जा चुके हैं। भरत नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रह रहे हैं। श्रीराम की चरण पादुकाएँ सिंहासन पर रखकर अयोध्या के राजपाट को चला रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास इस प्रसंग पर बल देते हैं। वे भरत के राज की विशेष रूप से व्याख्या करते हैं। बाबा तुलसी की भरत के प्रति अगाध निष्ठा है। वे कहते हैं, कि जिस अयोध्या के राज्य को देखकर देवराज इंद्र ललचाते थे, जिन राजा दशरथ की संपत्ति को सुनकर कुबेर लज्जित होते थे, उसी अयोध्या के राज्य और राजा दशरथ की असीमित संपत्ति की आसक्ति से मुक्त रहकर भरत उसी प्रकार निवास कर रहे हैं, जैसे चंपक के वन में भौंरा रहता है। यहाँ त्याग का अप्रतिम उदाहरण देखते ही बनता है। माता कैकेयी ने मंथरा के कहने पर अपने पुत्र-मोह को उस चरम बिंदु तक पहुँचा दिया था, जहाँ से बिखराव प्रारंभ हो जाता है। विघटन का क्रम चल पड़ता है। राजा दशरथ ने अपने पौरुष से जिस अयोध्या को कुबेर की संपदा से भी अधिक संपन्न बनाया था, वह अयोध्या राम के लिए भी त्याज्य हो गई, और भरत के लिए भी....। चाहे राम हों या भरत, अयोध्या का राजपाट और अकूत संपदा का लोभ-लालच या उसे पाने की लालसा दोनों में से किसी को भी नहीं है। दोनों के बीच का प्रेम-स्नेह इतना प्रगाढ़ है कि धन-संपदा उसे जरा-सा भी प्रभावित नहीं कर पाती है।

जब राम को वनवास जाने के लिए कहा जाता है, तब राम के मन में तनिक भी यह भाव नहीं आता, कि मैं अयोध्या का भावी राजा हूँ। वे हर्षित होते हैं। कारण यहाँ भी स्पष्ट है, इंद्र के मन में भी लालच पैदा कर देने वाली अयोध्या राम के लिए पिता की आज्ञा से बड़ी नहीं है। पिता की आज्ञा का पालन उनके लिए महत्त्वपूर्ण है। गोस्वामी जी लिखते हैं-

नव  गयंदु  रघुबीर   मनु   राजु   अलान  समान ।

छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान ।।

नये पकडे गए हाथी के समान राम का मन है और राज्य गज को बाँधने वाली बेड़ियों के समान है। राम को जब पता चलता है कि उन्हें वनगमन करना है और वे राज्य-संचालन करने की बेड़ियों से मुक्त हो गए हैं, तब उनके हृदय में आनंद का आधिक्य हो जाता है। बाबा तुलसी ने राम के इस मनोभाव का सुंदर चित्रण करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि राम को राज्य-लिप्सा नहीं है। भरत और राम के मध्य अयोध्या का राजपाट कंदुक-सम खेला जा रहा है।

आधुनिकताबोध यह सिद्ध करता है, कि कैकेयी के मन में भी कोई खोट नहीं था। कैकेयी राज्य-संचालन में अत्यंत निपुण थी। कैकेयी को दो वरदान ही युद्ध के मैदान में मिले थे, राजा दशरथ से....। देवासुर संग्राम में इंद्र की दशा बहुत खराब हो गई थी। इंद्र ने राजा दशरथ को सहायता के लिए बुलाया। रानी कैकेयी भी राजा दशरथ के साथ चल पड़ीं, सारथी बनकर....। दुर्योगवश राजा दशरथ के रथ की कील निकल गई और युद्धक्षेत्र में राजा दशरथ के लिए जीवन का संकट आ गया। रानी कैकेयी ने तुरंत अपनी उंगली कील के स्थान पर लगाई। राजा दशरथ को जीवनदान मिला और उन्होंने प्रसन्न होकर कैकेयी को दो वरदान माँगने को कहा। कैकेयी ने यही वरदान माँगे थे। भरत को राजपाट और राम को वनवास....। राम ने पहले भी वन की यात्रा की थी, गुरु विश्वामित्र के साथ और अनेक राक्षसों को मारकर वन प्रांतरों को, वहाँ साधना में लीन ऋषि-मुनियों को भयमुक्त किया था।

पिछली बार गुरु विश्वामित्र हठ करके राजा दशरथ से माँगकर राम और लक्ष्मण को ले गए थे, राजा दशरथ इसके लिए सहमत नहीं थे, लेकिन विवशता थी....। दूसरी बार कैकेयी के सामने राजा दशरथ विवश हो गए...। राम के लिए दोनों बार आज्ञा-पालन का ध्येय था। राम के मन में कोई क्लेश पैदा नहीं होता। वे इसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। इसी कारण राम की नाराजगी कहीं पर भी माता कैकेयी के प्रति प्रकट नहीं होती है। इतना ही नहीं; राम वनवास के प्रसंग में, जब चित्रकूट में राम से भेंट करने के लिए तीनों माताएँ आती हैं, तब राम सबसे पहले माता कैकेयी से भेंट करते हैं। बाबा तुलसी इस प्रसंग का उल्लेख करते हैं, और माता कैकेयी से राम की भेंट को विशेष रूप से उद्धृत करते हैं। कैकेयी के प्रति राम के मन में कोई विद्वेष नहीं है। राम तो भरत को भी डाँट देते हैं, जब वे माता कैकेयी को भला-बुरा करते हैं।

आज के समय में....., आधुनिकता के मानदंड में देखने पर माता कैकेयी का व्यक्तित्व अलग दिखाई देता है। वे अयोध्या के राजपाट के प्रति समर्पित दिखती हैं, क्योंकि राम को वन भेजना भरत को राजपाट दिलाने-मात्र के लिए नहीं था, वरन् राक्षसों के संहार के लिए भी था। राम इसके लिए उपयुक्त थे... गुरु विश्वामित्र के साथ जाकर उन्होंने इस बात को प्रमाणित किया था। गोस्वामी जी माता कैकेयी के लिए राम की श्रद्धा को, उनके निःछल प्रेम को उभारते हैं। राम भरत को सीख देते हैं, कि गुरु, पिता, माता या स्वामी... इनकी सीख आँख बंद करके माननी चाहिए। भले ही ऐसा लगे, कि इनके द्वारा गलत कहा जा रहा है, हम गलत राह पर जा रहे हैं, लेकिन हमारा पग खाले नहीं पड़ता, हमारा काम गलत नहीं होता और भविष्य में परिणाम भी सही आते हैं, अच्छे आते हैं। तात्कालिक रूप से अनुचित लगने पर भी ये निर्देश दीर्घकाल में सही सिद्ध होते हैं। राम कहते हैं, कि ऐसा विचार करते हुए, आज्ञा का पालन करते हुए जाओ और अवधि भर के लिए अयोध्या का पालन करो-

गुरु पितु मातु स्वामि सिख पालें । चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ।।

अस बिचारि  सब सोच  बिहाई ।  पालहु अवध  अवधि भर जाई ।।

एक अन्य वार्तालाप को देखें....। यह भी चित्रकूट में चल रहा है। श्रीराम को अयोध्या वापस ले आने के लिए पूरी अयोध्या नगरी ही गई है। तीनों माताएँ भी हैं। लक्ष्मण की माता सुमित्रा, सीता की माता सुनयना और राम की माता कौशल्या के मध्य वार्तालाप चल रहा है। अत्यंत आर्त स्वर में... रूँधे गले से माता कौशल्या  कह रहीं हैं, कि राम, लक्ष्मण और सीता वन को जाएँ, इसका परिणाम भला है, निकृष्ट नहीं है; किंतु मुझे चिंता भरत के जीवन की है। यहाँ माता कौशल्या के हृदय की वेदना भ्रातृ-प्रेम को बड़ी सहजता से प्रकट कर देती है-

लखनु राम सिय  जाहँ बन भल  परिनाम न  पोचु ।

गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ।।4

माता सुमित्रा ने वन जाते समय लक्ष्मण को सीख दी थी- गुरु, पिता, माता, बंधु, देवता और स्वामी की प्राणों की भाँति सेवा करनी चाहिए। इस कारण सभी के मित्र और स्वार्थहीन व्यक्तित्व वाले श्रीराम के साथ वन को जाकर संसार में जन्म लेने के लाभ को अर्जित करो, अर्थात् अपने कर्मों से जीवन की सार्थकता को सिद्ध करो। भ्राता लक्ष्मण ने माता की सीख को आत्मसात किया, और पूरी निष्ठा के साथ इसका पालन भी किया।

अयोध्या का राजपाट राम के वनगमन के केंद्र में है। सामान्य रूप से तो ऐसा ही प्रतीत होता है, लेकिन गहरे उतरकर विचार करें, तो यह वनगमन प्रसंग परिवार की एकजुटता को भी प्रस्तुत कर देता है। धन-धान्य, समृद्धि, यश, वैभव आदि की लालसा कहीं रह ही नहीं जाती है। लोभ किसी को छू नहीं पाता है। राम को आदेश मिलता है, वन जाने का.... और वे सहर्ष चल देते हैं। भरत को पता चलता है, कि उनके लिए राम को अयोध्या से जाना पड़ा है, तो वे भी अयोध्या को त्याग ही देते हैं... नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहने लगते हैं। परिवार किसी भी दशा में टूटता नहीं है, छूटता नहीं है। भरत जी राम को वापस ले आने के लिए चित्रकूट तक जाते हैं। राम चौदह वर्षो के बाद ही अयोध्या लौटने की बात कहते हैं। लेकिन चित्रकूट में केवल इतना ही नहीं होता... वहाँ रामराज्य की संकल्पना रची जाती है। राजा को कैसा होना चाहिए, शासक के धर्म क्या होते हैं, परिवार से लगाकर समाज और देश-काल में मर्यादाओं की स्थापना, उनका पालन कैसे हो.... इस बात को विस्तार के साथ कहा और सुना जाता है। भरत जी के साथ गई लगभग पूरी ही अयोध्या नगरी पाँच दिनों तक चित्रकूट में अपना डेरा-पड़ाव डाले रहती है। इन पाँच दिनों में अनवरत चलने पाली चर्चाएँ, उपदेश, वार्ताएँ आदि सभी बड़ी महत्त्व की हैं। नीति-नैतिकता के व्यवहार पक्ष हेतु अनेक उपयोगी बातें सामने आती हैं। गोस्वामी जी विस्तार के साथ चित्रकूट प्रसंग को प्रस्तुत करते हैं।

व्यक्ति से ऊपर परिवार है, परिवार से ऊपर समाज है, और समाज से ऊपर राज्य है-राष्ट्र है....। अयोध्या में राम के वनगमन से लगाकर चित्रकूट तक... भरत के राजपाट सँभालने तक, और फिर राम के अयोध्या लौटने तक पूरी कथा के विस्तार में यह तथ्य परिलक्षित होता है, दिखाई पड़ता है। इसके लिए संबंधों की मर्यादाएँ निभाई जाती हैं, संबंधों की गुरुता को-गरिमा को अनुभूत किया जाता है, सम्मान दिया जाता है।

श्रीरामचरितमानस का रचनाकाल भी बहुत महत्त्व रखता है। सामयिक स्थितियों से गोस्वामी जी परिचित थे। वह समय ऐसा था, कि म्लेच्छ आक्रांताओं ने अपनी स्वार्थ लिप्साओं के अनेक उदाहरण प्रस्तुत कर दिए थे। भाई से भाई का वैर, पिता से पुत्र की दुश्मनी के अनेक किस्से सामने आ रहे थे। धन के लिए... सत्ता के लिए परिवार की मर्यादाएँ टूट रहीं थीं। भारतीय समाज के लिए ये स्थितियाँ भयावह थीं। लोग विवश होकर संत समाज की ओर देख रहे थे, कि उनका पथ-प्रदर्शन हो सके, वे सही राह को जान सकें। ऐसी विषमताओं के मध्य गोस्वामी जी ने परिवार की मर्यादाओं से लगाकर समाज व राष्ट्र-राज्य तक की मर्यादाओं की स्थापना की बात कही। विश्व के कल्याण का संदेश दिया। गोस्वामी जी के राम इसका माध्यम बने... अयोध्या का पूरा राज-परिवार ही उदाहरण बन गया। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम मर्यादा के प्रतीक ही बन गए। राम का अर्थ ही मर्यादा हो गया। उसी रूप में श्रीराम को अन्य संतों ने स्वीकारा। कबीर ने भी स्वीकार किया- कबीर हरदी पीयरी चूना उज्जल भाई । राम सनेही यूँ मिले दून्यू बरन गँवाई ।।

सामाजिक मूल्यों का प्रशिक्षण परिवार में ही सबसे पहले मिलता है। स्नेह-प्रेम, सेवा, सद्भाव, सहिष्णुता और समरसता आदि की सीख सबसे पहले परिवार में मिलती है। यदि परिवार ही बिखर जाए, तो समाज, राष्ट्र और समग्र विश्व तक मानवीय मूल्यों, नीति-नौतिकताओं, मर्यादा-आदर्शों आदि के विस्तार को सबल करने वाली, पोष्ण करने वाली व्यवस्था ही सिमट जाएगी.... जड़ ही सूख जाएगी। इस कारण परिवार का महत्त्व है। दैवीय पक्ष को हटाकर यदि विचार करें, तो श्रीरामचरितमानस में परिवार की संरचना केंद्र में दिखाई देती है। यह परिवार क्रमशः विस्तार पाता है। अयोध्या से राम का वनगमन एक घटना-मात्र नहीं रह जाती, वरन् समूची अयोध्या को एक सूत्र में बाँध देने का कारण बन जाती है। भरत जी के नेतृत्व में अयोध्या का विशाल जनसमूह आत्मप्रेरित होकर चल पड़ता है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को पुनः अयोध्या लाने के लिए। यह यात्रा प्रकारांतर से मर्यादा की सामाजिक स्थापना के हेतु प्रती होती है। श्रीराम भले ही अयोध्या न लौटे हों, लेकिन जिन सीख-सिखावनों को, उपदेशों के सार को लेकर अयोध्या का जनसमुदाय लौटा था, उनके सहारे ही रामराज्य की संकल्पना धरातल पर उतरी थी।

व्यक्ति और समाज के मध्य संबंधों को समरसता और सह-अस्तित्व की भूमि पर स्थापित करने का प्रयोग भी मानस में दिखता है। श्रीराम चित्रकूट में रहते हुए उस विशाल समाज को अपने साथ मिला लेते हैं, जो उपेक्षित और तिरस्कृत रहा। व्यक्ति से परिवार और समाज तक विस्तार का यह क्रम राम के चित्रकूट निवास के साथ विस्तार पाता है, दक्षिण की ओर बढ़ते हुए भी इस विस्तार को हम देखते हैं। वनवासी, गिरिजन, बालक, महिलाएँ, वृद्ध और यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी रामादल के साथ हो जाते हैं। एक सूत्र में बँध जाते हैं। जटायु की कथा और गिलहरी के प्रयास रामकथा के महत्त्वपूर्ण अंग हैं, अंश हैं।

यह विस्तार लोक के कल्याण से जुड़ता है। जिस परिवार में भाई का सम्मान न हो, पत्नी की बात न सुनी जाए... अनैतिकता से भरा आचरण हो, उस परिवार की दशा का अनुमान लंकाधिपति की दारुण दशा देखकर लगा सकते हैं। मंदोदरी रावण की मृत्यु पर विलाप करते हुए कहती हैं-

जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई । सुत परिजन बल बरनि न जाई ।।

राम विमुख अस हाल तुम्हारा ।  रहा न  कोउ कुल रोवनिहारा ।।

रावण की प्रभुता सारे संसार को भली-भाँति पता है। संसार रावण के बल को जानता है। पुत्रों और परिजनों के बल का वर्णन नहीं किया जा सकता, लेकिन राम से विमुख होने के कारण रावण के कुल में कोई रोने वाला तक नहीं बचता है। जब मर्यादा टूटती है, तब सर्वनाश ही होता है। रावण के साथ भी यही हुआ। भाई की सीख भी रावण को अच्छी नहीं लगी, अपमानित करके राज्य से निकाल दिया।

अपने लौकिक, सामाजिक, मानवीय और व्यावहारिक संदर्भों में बाबा तुलसी के मानस की यही विशिष्टता है कि वहाँ एक आदर्श परिवार की बात विविध कथा-प्रसंगों के माध्यम से कही जाती है। रामराज्य की परिकल्पना एक आदर्श परिवार से ही निकलती है। लोकमंगल की साधना भी यहीं से अपनी जड़ों को रोपती है। मानस के ऐसे कथा-प्रसंगों से गुजरते हुए कई बार ऐसा अनुभूत होता है कि भविष्यदृष्टा के रूप में बाबा तुलसी ने आज की विषम-जटिल परिस्थितियों को जान लिया था। इसी कारण उत्तरकांड में बाबा तुलसी कागभुशुंडि के पूर्वजन्म की कथा का प्रसंग उठाते हुए कलियुग का वर्णन करते हैं। आज के जीवन की तमाम स्थितियाँ प्रतीक के रूप में, लक्षणों के रूप में कलियुग के वर्णन द्वारा इस प्रकार प्रकट होती हैं, जिन्हें पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा तुलसी ने उस समय ही आज के जीवन को देख लिया था, जान लिया था। वे कलियुग प्रसंग में लिखते हैं-

सब  नर  काम  लोभ  रत  क्रोधी । देव  बिप्र  श्रुति  संत  बिरोधी ।।

गुन  मंदिर  सुंदर  पति   त्यागी । भजहिं  नारि  पर  पुरुष  अभागी ।।

सौभागिनी    बिभूषन    हीना । विधवन्ह    के    सिंगार   नवीना ।।

गुरु सिष  बधिर  अंध का लेखा । एक   सुनइ  एक  नहिं  देखा ।।

हरहिं  सिष्य   धन  सोक  न हरइ । सो  गुरु  घोर  नरक  महुँ  परइ ।।

मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं । उदर भरै सोइ धरम सिखावहिं ।।14

आज का समय उन्हीं लक्षणों से भरा हुआ है, जिनका वर्णन बाबा तुलसी ने उपरोक्त पंक्तियों में किया है। वैश्वीकरण के प्रभाव के रूप में इन्हें देखा जा सकता है। व्यक्ति से लेकर परिवार और फिर समाज तक मर्यादा के पतन की गंभीर स्थितियाँ किसी से छिपी हुई नहीं हैं। शिक्षा-व्यवस्था भी मर्यादा से च्युत होकर दिग्भ्रमित हो गई है। इसी के प्रभाव से आज माता-पिता अपने बच्चों को सदाचारी बनने की सीख देने से ज्यादा प्राथमिकता उस सीख को देते हैं, जिससे वे अपना उदर भर सकें, धन कमा सकें। ऐसी अनेक स्थितियों का वर्णन तुलसीदास ने किया है। यहाँ भी तुलसीदास परिवार को ही केंद्र में रखते हैं।

श्रीरामचरितमानस में औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण और आर्थिक उदरीकरण के कारण उपजने वाले दुष्प्रभावों का शमन करने की सामर्थ्य है, किंतु यह व्यवहार से, दैनंदिन जीवन से दूर होते जाने के कारण अपनी प्रासंगिकता और अनिवार्यता का बोध कराने में विफल हो गई है। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत घर की सीमाओं से बाहर ही होती है। उदारीकरण अर्थ के क्षेत्र में जितना हुआ; उसने मानवीय मूल्यों, मर्यादाओं और नैतिकताओं के संदर्भ में अन-उदारीकृत होना स्वीकार किया। यह स्वीकृति सहज नहीं है, वरन् आर्थिक उदारीकरण के फलस्वरूप अनिवार्य है। अन-उदारता का यह क्रम व्यवसाय और व्यावसायिक हितों को पूरा करते-करते एक समय घर की देहरी पर आ गया, दरवाजे पर ही आ गया.... और आज परिवार तक पैठ चुका है। इसी कारण एक छत के नीचे रहते हुए परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने हितों को साधते और स्वार्थ से पूर्ण प्रतीत होते हैं। परिवारों के विघटन का सबसे बड़ा कारण यही है। यद्यपि विभिन्न संस्कृतियों के आगमन, आधुनिकता के प्रभाव और निरंतर गतिमान विकास के चक्र के फलस्वरूप स्थितियाँ पहले ही अच्छी नहीं थीं, किंतु वैश्वीकरण ने बहुत कुछ बदला है, बहुत तेजी से बदला है। इस अवधि में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ी है। विवाह-व्यवस्था की शुचिता प्रभावित हुई है और ‘लिव इन रिलेशनशिप’ जैसी व्यवस्थाओं ने परिवाररूपी संस्था को तोड़कर रख दिया है। संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है और इतना ही नहीं, अब परिवार के स्थान पर व्यक्ति ही सबसे छोटी इकाई बनने लगा है। ये सारे बदलाव नीति-नैतिकताओं, मर्यादाओं और आदर्शों के तिरोहित हो जाने के कारण हुए हैं। आज वैश्वीकरण के कारण व्यक्ति जितना वैश्वीकृत हुआ है, उतना ही जटिल और संकुचित वृत्त में अपने परिवेश का होकर रह गया है। इसके कारण मनोविकृतियाँ भी बढ़ी हैं और अपराध-अन्याय भी बढ़े हैं।

विकास का यह क्रम अनवरत चलता रहेगा, किंतु जिन पारिवारिक मूल्यों, मर्यादाओं, आदर्शों, नैतिकताओं और उदात्त गुणों की कीमत पर विकास का क्रम संचालित हो रहा है, उनके सिमटने के बाद विकास के नाम पर क्या शेष बचेगा, यह आज का यक्ष प्रश्न है। इस प्रश्न के उत्तर में तुलसीदास के मानस को ही रखा जा सकता है-

रघुबंसभूषन  चरित  यह  नर  कहहिं  सुनहिं जे गावहीं ।

कलिमल मनोमल धोइ बिनु स्रम रामधाम सिधावहीं ।।

-राहुल मिश्र

 

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ के आषाढ़-श्रावण, सं. 2081 तदनुसार जुलाई, 2024 अंक में प्रकाशित)

Saturday, 1 June 2024

लोक के राम, राम का लोक

 

लोक के राम, राम का लोक

राम लखन दोऊ भैया ही भैयासाधू बने चले जायँ मोरे लाल ।
चलत-चलत साधू बागन पहुँचेमालिन ने लए बिलमाए मोरे लाल। राम लखन...

घड़ी एक छाया में बिलमायो साधू, गजरा गुआएँ चले जाओ मोरे लाल। राम लखन...
जब वे साधू तालन पहुँचेधोबिन ने लए बिलमाए मोरे लाल। राम लखन...
चलत-चलत साधू महलन पहुँचेरानी ने लए बिलमाए मोरे लाल। राम लखन...
घड़ी एक छाया में बिलमायो साधूमहलन की शोभा बढ़ाओ मोरे लाल। राम लखन...
    बुंदेलखंड की अत्यंत प्रचलित लोकधुन में गाया जाने वाला यह लोकगीत भी बहुत ही प्रचलित है। आज भी प्रायः इस लोकगीत को सुनकर भाव-विह्वल हो जाना होता है। इस लोकगीत में वन की ओर जाते रामसीता और लक्ष्मण को देखकर बुंदेलखंड के वासी अपने मनोभावों को व्यक्त करते हैं। उनके लिए राम और लक्ष्मण सीधे-सरल राजकुमार हैंजो विपत्ति की मार सह रहे हैं। उन्हें साधु वेश धरकर वन को जाना पड़ रहा है। जिन रास्तों से वे जा रहे हैंउन रास्तों पर अलग-अलग लोग उन्हें देखकर व्यथित हो रहे हैंभावुक हो रहे हैंऔर कुछ क्षण विश्राम कर लेने का अनुरोध कर रहे हैं। इसी तरह बुंदेली में एक भजन भी है-

छैंयाँ बिलमा1 लेव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।

लाला लखनलाल कुम्हलाने, सिय के हुइहैं पाँव पिराने,

तनक बैठ तो जाव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।।

खाओ अचार2, गुलेंदे, महुआ, यहै कुआँ का पानी मिठौआ ।

पानी तो पी लेव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।।

रस्ता तुम्हरी देखी नइयाँ, बीहड़ तऊ पै है बिलगैयाँ3

मृदुल संग लै लेव बटोही, बिरछा तरे बिराजो ।।

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1. आराम करना, 2. चिरौंजी, 3. भटकाने वाली

भजन के ये पद बुंदेलखंड अंचल की अपनी लोक-परंपरा के अभिन्न अंग हैं। अयोध्या नगरी से वन की ओर जा रहे राम, लक्ष्मण और सीता को देखकर बरबस ही मुख से निकल पड़े ये शब्द बुंदेलखंड की प्रभाती गायकी और भजन गायकी की परंपरा में कब से हैं, यह बता पाना कठिन है, किंतु गीत के इन बोलों में छिपे भाव युगों-युगों के जीवन की कथा को कह जाते हैं। बाबा तुलसी ने इसी भाव के साहित्यिक रूप का सर्जन किया है, ‘पुर तें निकसीं रघुवीर वधू, धरि धीर दये मग में डग द्वय...’ कहकर। यहाँ गाँव के सीधे-सरल लोग हैं, जो राजकुमारों के द्वारा वनवासी का वेश धारण करके वन की ओर जाते देखकर उनका सानिध्य पाना चाहते हैं। इसी कारण वे बड़ी सरलता के साथ राम से कहते हैं- थोड़ी देर आराम तो कर लो। ओ पथिक! तुम्हारे साथ चल रहे राजकुमार लक्ष्मण का चेहरा थकान के कारण कुम्हला गया है। सीता जी के पैरों में दर्द होने लगा होगा, इसलिए थोड़ी देर आराम कर लो। हमारे पास आपको खिलाने के लिए राजमहलों में बनने वाले व्यंजन तो नहीं है, मगर वन में मिलने वाले भोज्य पदार्थ आपके लिए सहर्ष प्रस्तुत हैं। चिरौंजी, गुलेंदा, महुआ आदि बुंदेलखंड अंचल में बहुत उपजता है। हम आदिवासियों के लिए यही व्यंजन हैं- महुआ मेवा, बेर कलेवा, गुलगुच बड़ी मिठाई....। अयोध्या के वनगामी राजवंशियों, आप इन्हें ग्रहण करें, और इस मीठे जल वाले कुएँ का पानी पियें। आगे का रास्ता कठिन है, इसलिए यहाँ पर थोड़ा आराम कर लेना आपके लिए उचित होगा।


यही भाव तुलसी के मानस में देखने को मिलते हैं। वहाँ कोल-किरातों को राम के आगमन की सूचना मिलती है, तो वे स्वागत के लिए पहुँच जाते हैं। मानस में तुलसी लिखते हैं-

यह सुधि कोल किरातन्ह पाई । हरषे जनु नव निधि घर आई ।।

कंद मूल फल भरि भरि दोना । चले रंक जनु लूटन सोना ।।

धन्य भूमि बन पंथ पहारा । जहँ जहँ नाथ पाउ तुम धारा ।।

धन्य बिहग मृग काननचारी । सफल जनम भए तुम्हहि निहारी ।।

जब तें आइ रहे रघुनायक । तब तें भयउ बनु मंगलदायकु ।।

फूलहिं फलहिं बिटप बिधि नाना । मंजु बलित बर बेलि बिताना ।।

कोल किरातों के लिए राम, लक्ष्मण और सीता का चित्रकूट के वनक्षेत्र में पहुँचना, चित्रकूट के परिक्षेत्र में आना इस प्रकार है, जैसे कोई नई निधि, नई संपत्ति घर में आ गई हो। वे इस संपत्ति के आ जाने पर इतने हर्षित हैं, कि उन्हें स्वागत करने की विधि भी समझ नहीं आ रही। वे पत्तों से दोना बनाकर उनमें कंद-मूल-फल भरकर लिए जा रहे हैं। बाबा तुलसी सुंदर चित्र खींचते हैं। वनवासी जन इस तरह से उमंग में भरकर जा रहे हैं, जैसे रंक को खजाना ही मिल गया हो। उनके उल्लास का कोई ठिकाना नहीं है। जन समुदाय तो उमंग और उल्लास में भरा हुआ है ही, साथ ही चित्रकूट की पुण्यश्लोका धरा भी मुदित हो गई है। समूचा वनप्रांतर प्रसन्न हो उठा है। बाबा तुलसी कहते हैं, कि जहाँ-जहाँ श्रीराम अपने चरण रख रहे हैं, वहाँ के मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी, धरती-नदी-ताल-सरिता आदि सभी स्वयं को बड़भागी मान रहे हैं। चित्रकूट के वन प्रांतर में श्रीराम को निहारकर पशु-पक्षियों के साथ ही समस्त वनवासी अपने जन्म को सार्थक मान रहे हैं, जन्म को सफल मान रहे हैं। श्रीराम ने जब से चित्रकूट में अपना निवास बनाया है, तब से वन मंगलदायक हो गया है। मनुष्य ही नहीं, वनस्पतियाँ भी उल्लास और उमंग से भर गईं हैं।

बाबा तुलसी ने श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के चित्रकूट निवास की बहुत सुंदर और रुचिकर कथा कही है। एक उत्सव का वातावरण चित्रकूट में बना हुआ प्रतीत होता है। यद्यपि चित्रकूट की महिमा और माहात्म्य श्रीराम के आगमन के पूर्व ही स्थापित था। इसी कारण प्रयाग के तट पर भरद्वाज ऋषि ने श्रीराम के द्वारा निवास हेतु उचित स्थल के संबंध में पूछे जाने पर चित्रकूट में निवास करने के लिए कहा था-

चित्रकूट गिरि करहु निवासू । तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू ।।

सैलु सुहावन कानन चारू । करि केहरि मृग बिहरि बिहारू ।।

बाबा तुलसी के मानस में लोक-परंपरा से रस-संचित अनेक प्रसंग देखने को मिलते हैं। ऐसे अनेक प्रसंगों के बीच वनवासी राम, लक्ष्मण और सीता का प्रसंग सर्वाधिक सौंदर्य के साथ प्रस्तुत होता है। मानस में एक अन्य प्रसंग आता है- केवट और राम के बीच संवाद का। अयोध्या के राजकुमार राम भले ही वनवासी के वेश में हों, किंतु वे अयोध्या राजपरिवार के सम्मानित सदस्य और अयोध्या के भावी राजा हैं। इसके बावजूद जब वे केवट से नाव लाने के लिए कहते हैं, तब केवट उन्हें ऐसी सादगी से उत्तर देता है, कि राजा और प्रजा के बीच का भेद दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं पड़ता है-

पात भरी सहरी, सकल सुत बारे-बारे, केवट की जाति, कछु वेद न पढ़ाइहौं ।।

परिवारे मेरो याहि लागि  राजा जू, हौं  दीन वित्तविहीन, कैसे दूसरी गढ़ाइहौं ।।

गौतम की धरनी ज्यों तरनि तरेंगी मेरी, प्रभु से विवादु ह्वै के वाद ना बढ़ाइहौं ।।

तुलसी के ईस राम रावरे से साँची कहौं, बिना पग धोए नाथ नाव न चढ़ाइहौं।।

यहाँ केवट के कहने का अभिप्राय यह भी है, कि आप भले ही अयोध्या के होने वाले राजा हों, किंतु इस समय आप वनवासी हैं, और मेरी एकमात्र नाव के पत्थर बन जाने पर आपसे भी कोई मदद मुझे नहीं मिल सकेगी। इस कारण मैं आपके चरण धोने के बाद ही आपको नाव में चढ़ने दूँगा। जब कभी राजशाही और मध्ययुगीन बर्बरता की बात आती है, तब राम और केवट संवाद अत्यंत प्रासंगिक हो उठता है। निश्चित रूप से राम और केवट का संवाद भी लोक-परंपरा से शिष्ट साहित्य में, तुलसी के मानस में पहुँचा होगा, क्योंकि लोक-परंपरा में विकसित प्रकीर्ण साहित्य की यह बड़ी विशेषता होती है, कि वहाँ ऊँच-नीच का, राजा-रंक का भेद नहीं होता है। वहाँ समानता-समरसता के दर्शन होते हैं।

केवट और राम के बीच संवाद का लोक-पक्ष अत्यंत रुचिकर है। एक ओर केवट को अपनी नाव की चिंता होती है; वह राम के पाँव पखारकर ही उन्हें नाव में चढ़ाने की बात कहता है, निवेदन करता है। दूसरी ओर नाव में श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के विराजमान हो जाने के बाद जब नाव चलती है, तो बिना किसी बाधा के उन्हें पार उतारने के लिए केवट चिंतित होता है। लोक की दृष्टि इस ओर जाती है।

लोकगीत गाया जाता है-

मोरी नइया में लक्षिमन राम, ओ गंगा मइया धीरे बहो...।

केवट की नैया, भागीरथ की गंगा......, राजा दशरथ के लक्षिमन राम...

गंगा मइया धीरे बहो..., मोरी नइया में लक्षिमन राम..।

रामकथा में दो प्रसंग और आते हैं। पहला अहल्या के उद्धार का है, और दूसरा शबरी की प्रतीक्षा का है। अहल्या का प्रसंग राम वनगमन के पूर्व आता है, जब राम और लक्ष्मण गुरु विश्वामित्र के साथ सिद्धाश्रम में जाते हैं। मार्ग में गुरु विश्वामित्र अहल्या से परिचय कराते हैं। पद्मश्री नरेंद्र कोहली द्वारा अपनी गद्यात्मक रामकथा- ‘अभ्युदय’ में अहल्या उद्धार का तर्कपूर्ण और अत्यंत व्यावहारिक वर्णन किया गया है। गौतम ऋषि के सूने पड़े आश्रम में अहल्या श्रापित जीवन बिता रही है। उसका जीवन प्रायः प्रस्तर-सदृश हो गया है। उसको समाज से बहिष्कृत कर दिया गया है। इंद्र के अपराध का दंड अहल्या को भोगना पड़ रहा है। गौतम ऋषि भी उस दंड को भोग रहे हैं, उनके पुत्र शतानंद भी इस दंड को भोग रहे हैं। गुरु विश्वामित्र अहल्या के साथ हुए अन्याय को जानते थे, और यह भी उन्हें ज्ञात था, कि अयोध्या के राजकुमार और मिथिला के होने वाले जमाई के माध्यम से यदि अहल्या को समाज में पुनः प्रतिष्ठा दिलाई जाएगी, तो सभी को स्वीकार्य होगी। बाद में श्रीराम और लक्ष्मण ने सिद्धाश्रम में राक्षसों का वध करके अपने शौर्य का परिचय दिया था, समाज में आदरपूर्ण स्थान प्राप्त किया था। केवट प्रसंग प्रकारांतर से राम के शौर्यभाव और वीरतापूर्ण कार्य का स्मरण ही था।

इसी प्रकार शबरी के जूठे बेर खाने का प्रसंग भी आता है। शबरी के पास तक राम की ख्याति पहुँची थी। लोकरक्षक, जन-जन के प्रिय श्रीराम उस वृद्धा शबरी की कुटिया में अवश्य पधारेंगे, यह भरोसा लिए शबरी अपना जीवन बिता रही थी। कहीं अपने आराध्य राम को वह खट्टे बेर न खिला दे, इस भाव से वह चखकर उन बेरों को ही राम को दे रही है, जो मीठे हैं, सुस्वादु हैं। यह आत्मीयता, यह लगाव सहज नहीं है, वरन् अनेक अर्थों को स्वयं में समाहित किए हुए है। एक और श्रीराम का शौर्यभाव है, उनका लोकरक्षक स्वरूप है, तो दूसरी ओर श्रीराम के व्यक्तित्व की सहजता है, सरलता है। इसी कारण शबरी के जूठे बेर उन्हें स्वीकार्य होते हैं। इसी कारण केवट की व्यंग्यपूर्ण बातें उन्हें चुभती नहीं हैं। यही कारण है, कि चित्रकूट के वनवासी बेर, गुलेंदा, कचरियाँ, महुआ, कंद, मूल, फल आदि दोनों में भर-भरकर लाते हैं, और राम का स्वागत करते हैं।

तुलसी के मानस में वनवासी राम का सौंदर्य, विशेषकर समरसता-सौहार्द-समन्वय में घुल-मिलकर विकसित हुआ कर्म का सौंदर्य अपने आकर्षण में बरबस ही बाँध लेता है। वनवासी राम की सफलता का श्रेय भी इसी वैशिष्ट्य को जाता है। तुलसी के मानस सहित अन्य रामकथाओं में वनगमन प्रसंग इसी कारण अपना विशेष महत्त्व रखता है। श्रीराम के प्रति लोक का अनुराग, लोक का आत्मीय भाव किसी एक कालखंड या किसी एक युग में सिमटा हुआ नहीं है। इसका विस्तार काल और भूगोल की परिधि से बाहर है, व्यापक है। राम और कृष्ण के प्रति लोक की आस्था तब प्रबल होती है, जब वे लोक से जुड़ते हैं। वनवासी राम के साथ चित्रकूट के वन प्रांतर से लगाकर दंडक वन तक, किष्किंधा तक अपार जनसमुदाय जुड़ता है। राम के पास सेना की ताकत नहीं थी। राम लोक की शक्ति से समृद्ध हुए और रावण जैसे क्रूर, आततायी शासक को परास्त किया। विभिन्न वन्य जातियाँ, वनवासी समूह राम के साथ इस तरह से जुड़े, कि लंका विजय के उपरांत सभी अयोध्या तक पहुँचे और राम के साथ ही जीवन-पर्यंत रहने की कामना करने लगे। राम ने ही उन्हें अपने-अपने घर जाकर कर्म में संलग्न होने के लिए कहा। राम के राज्यभिषेक के बाद सभी बहुत भारी मन से विदा हुए। यह आत्मीय लगाव राम के लोक को गढ़ता है, और लोक के राम इसी आत्मीय भाव से बनते हैं। लोकरक्षक, मर्यादापुरुषोत्तम राम इसी कारण लोक के हैं, लोकजीवन में वे अपनी उपस्थिति से, अपने नाम से श्रेष्ठतम मानवीय आदर्शों और संस्कारों को स्थापित करते हैं। ‘राम-राम’ और ‘जय रामजी की’ जैसे अभिवादन परस्पर संबंधों में शुचिता और मर्यादा की कामना लिए होते हैं। लोकगीतों में, लोककथाओं में, और साथ ही लोकजीवन में राम की उपस्थिति लोक को जीवनीय शक्ति देती है, जीवन का पथ प्रदर्शित करती है। अवधी के आल्हा में पंक्तियाँ आती हैं-

राम का नाम बड़ो जग में, सोई राम के नाम रटै नर नारी ।।

राम के नाम तरी सबरी, बहु तार्यो अजामिल के खल भारी ।।

राम का नाम लियो हनुमान ने, सोने के लंका राख कै डारी ।।

     औ टेम व नेम से नाम जपौ, राम का नाम बड़ा हितकारी ।।

-डॉ. राहुल मिश्र

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ, मासिक पत्रिका के पौष, वि.सं. 2080 तदनुसार जनवरी, 2024 अंक में प्रकाशित)