प्रात
लेइ जो नाम हमारा....
श्रीरामचरितमानस के सुंदर कांड में अत्यंत
रुचिकर प्रसंग आता है। प्रसंग माता सीता
का पता लगाने के लिए हनुमान जी को लंका भेजने का है। हनुमान अपने बल को भूले हुए बैठे हैं। जामवंत के याद
दिलाने पर उन्हें अपनी शक्ति का अनुभव होता है। वे तुरंत लंका के लिए प्रस्थान
करते हैं। मार्ग में अनेक बाधाएँ और संकट आए, जिनको पार करके भक्तप्रवर हनुमान
लंका पहुँचते हैं। लंका राक्षसों की नगरी है। वहाँ भले लोग कैसे मिलेंगे? एक अजनबी की भाँति हनुमान लंका में प्रवेश करते हैं।
स्थान-स्थान पर बाधाएँ हैं, पहरे हैं, राक्षसों की क्रूरता के चिह्न हैं....। ऐसे
विकट-भयावह स्थान पर माता सीता कैसे जीवन बिता रहीं हैं...., यह चिंता भी हनुमान
को होती है।
सुख और समृद्धि भले ही एक-दूसरे के साथ
जोड़कर व्यवहृत हों, लेकिन समृद्धि होने से सुख सुनिश्चित नहीं हो जाता। लंका नगरी
में संपन्नता की कोई कमी नहीं है। हनुमान जी पूरी लंका नगरी का भ्रमण करते हैं।
बाबा तुलसी ने बहुत संक्षेप में वर्णन किया है, लेकिन आद्यकवि वाल्मीकि ने रामायण
में लंका का विशद-व्यापक वर्णन किया है। लंका नगरी की समृद्धि का वर्णन वाल्मीकि
रामायण में मिलता है। वहाँ समृद्धि के अनेक प्रतिमान हैं, लेकिन सुख की अनुभूति
नहीं मिलती....
उल्लास, उमंग, हर्ष, आत्मिक शांति और जीवंतता नहीं दिखती। आद्यकवि वाल्मीकि ने
संपन्नता का वर्णन करते हुए इस पक्ष को विशेष रूप से इंगित किया है। गोस्वामी जी
केवल संकेत देते हुए आगे बढ़ जाते हैं, और हनुमान-विभीषण संवाद का विस्तृत वर्णन
करते हैं। उनकी दृष्टि सत्संग के वैशिष्ट्य को स्थापित करने में केंद्रित होती है।
गोस्वामी जी हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद के माध्यम से सद्भावना, सहकार, समन्वय
और समरसता को उकेरते हैं।
गोस्वामी जी मानस में वर्णन करते हैं, कि लंका नगरी में भ्रमण करते हुए हनुमान को
कहीं भी भले लोग नहीं दिखते। एक घर ऐसा दिखाई दे जाता है, जो हनुमान जी की धारण को
बदल देता है। उस घर के बाहर रामायुध अंकित है,और तुलसी का चौरा भी है। यह देखकर
हनुमान जी को भरोसा हो जाता है, कि यहाँ संत-सज्जन व्यक्ति का निवास है। वे
पुकारते हैं। विभीषण भी उनके राम-नाम स्मरण को सुनकर हर्षित होते हैं। दोनों
रामभक्त बैठते हैं।
हनुमान और विभीषण
का संवाद वाल्मीकि रामायण में नहीं है... अध्यात्म रामायण में भी नहीं है। गोस्वामी जी सायास इस प्रसंग को लाते हैं। उनका उद्देश्य
भक्ति-भावना की पुष्टि का तो है ही, साथ ही वे सामयिक संदर्भों की ओर भी संकेत
करते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद अत्यंत रुचिकर है। राम के दो अनन्य भक्त
मिलते हैं। विभीषण अपने मन की वेदना कहते हैं। हनुमान उन्हें सांत्वना देते हैं-
कहहु कवन मैं परम
कुलीना । कपि चंचल सबही बिधि हीना ।।
प्रात
लेइ जो नाम हमारा
। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा ।।
अस मैं अधम सखा सुनु मोहूँ पर रघुबीर ।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ।।
मैं कौन-सा बहुत कुलीन व्यक्ति हूँ...। आप
ही बताइए...। मैं तो चंचल कपि हूँ, और सभी स्तरों से हीन हूँ, तुच्छ हूँ। मैं मानव
नहीं हूँ, मैं गुणवान भी नहीं हूँ। मेरी चंचलता ऐसी है, कि जिसके लिए मुझे श्राप
तक दिया जा चुका है...। मैं अधम हूँ, हेय हूँ। मेरा नाम तक लेने से लोग कतराते
हैं। अगर कोई सुबह मेरा नाम ले लेता है, तो उसे उस दिन भोजन तक नहीं मिलता...। ऐसे
अधम और हीन वानर पर भी श्रीराम की कृपा है। श्रीराम की कृपा का स्मरण कर हनुमान के
नयन भावविभोर होकर अश्रु-प्लावित हो जाते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य का संवाद दो
संतों के मध्य हो रही चर्चा के जैसा प्रतीत होता है, सत्संग का रूप ले लेता है। विभीषण
कह रहे हैं-
क्या मुझ अनाथ निशचर के भी- रघुनाथ बनेंगे
नाथ कभी ।
क्या मुझसे अधम दास को भी रक्खेंगे राघव साथ
कभी ।।
विभीषण की वेदना
वानरश्रेष्ठ हनुमान के सम्मुख प्रकट होती है। विभीषण कहते हैं, कि मैं तो लंका
नगरी में वैसे ही रह रहा हूँ, जैसे दाँतों के मध्य जीभ होती है। राधेश्याम कथावाचक
इस वार्ता को रुचिकर बनाते हैं। राधेश्याम रामायण में संवाद चलता है-
कपि बोले मुँह की
बत्तीसी सब टूट फूट गिर जाएगी ।
पर, जिह्वा-जीवनभर
रहकर-श्रीराम-नाम गुण गाएगी ।।
भक्त विभीषण, धन्य
तुम, धन्य तुम्हारा प्रेम !
धन्य तुम्हारी
धारणा, धन्य तुम्हारा नेम !!
जो सज्जन हैं,
सत्संगी है, वे कहीं छिपाए छिपते हैं?
एक ही पन्थ के दो
पन्थी-इस प्रकार देखो मिलते हैं ।।
विभीषण और हनुमान
भ्रातृ-प्रेम में आबद्ध हो जाते हैं। राम का नाम दोनों के मध्य संबंधों को स्थापित
करने का माध्यम बनता है। कबीर का
एक बहुत प्रसिद्ध पद है-
कबीर हरदी पीयरी,
चूना उज्जल भाइ ।
राम सनेही यूँ मिले
दून्यू बरन गँवाइ ।।
संबंधों में
मर्यादा ही तो राम-सनेह है, भगवान श्रीराम मर्यादा के प्रतीक हैं। कर्म की
मर्यादा, धर्म की मर्यादा, नीति-नैतिकता के पालन की मर्यादा ही तो राम से
व्याख्यायित होती है। संबंधों की मर्यादा टूटने पर ही विभीषण अपने घर में तिरस्कृत
हैं। लंका नगरी की समृद्धि अमर्यादित कार्य-व्यवहारों के कारण ही अपनी आभा खो बैठी
है। भौतिक संपन्नता एक ऐसे खोखलेपन के साथ लंका नगरी में देखी जा सकती है, जहाँ उद्दंडता
है, उच्छृंखलता है, मनमानी है, मनमौजीपन है। यह रामकथा के अंत में विशेष रूप से
प्रकट होती है। रावण के वध के उपरांत मंदोदरी विलाप करती है-
राम विमुख अस हाल
तुम्हारा । रहा न कोउ कुल रोवनहारा ।।
गोस्वामी तुलसीदास
यदि चाहते, तो हनुमान और विभीषण की भेंट का सामान्य और प्रसंगानुकूल वर्णन करके
कथा को आगे बढ़ा देते, लेकिन वे ऐसा नहीं करते हैं। उनके सामने हनुमान और विभीषण
की भेंट का प्रसंग कथा के अंतर्गत आने वाले मात्र एक पड़ाव की भाँति नहीं है। बाबा
तुलसी की दृष्टि दूर तक जाती है। गोस्वामी जी रामायण काल तक ही नहीं रहते, वे
वर्तमान से भी जुड़ते हैं। रामकथा को सामयिक बनाते हैं। गोस्वामी जी का समय अनेक
संघर्षों से भरा हुआ था। समूचा भक्ति आंदोलन ही जन-जन को चैतन्य बनाने के लिए था,
क्रूर आक्रांताओं से आहत भारतीय जनसमुदाय के पथ-प्रदर्शक की भूमिका में था।
गोस्वामी जी की दृष्टि भी यही थी। उन्हें समग्र भारतीय समाज को, सनातन परंपरा के
सभी घटकों-अंगों को संगठित करना था, जोड़ना था। इसी कारण वे श्रीराम के ’सर्वभूत
हिते रतः’ के भाव को प्रमुख रूप से प्रस्तुत करते हैं। श्रीराम सभी के हित में
संलग्न हैं, ऐसा इस प्रसंग में ध्वनित होता है। वस्तुतः सुंदरकांड इसी कारण सुंदर
कांड है, क्योंकि इसमें अनेक लोगों की संघटना है, कई लोगों का जुड़ाव है। यहाँ
जाति-प्रजाति का, उत्तर-दक्षिण का, नर-वानर का भेद नहीं है। यहाँ सभी एक होते हैं,
जुटते हैं... और राम काज के लिए जुटते हैं। जिसके पास जो कुछ भी है, उसको लेकर वो
जुटता है, अपना योगदान देता है।
हनुमान भी शापित
हैं। बचपन में उन्हें श्राप मिला था, कि वे अपने बल को भूल जाएँगे। उनकी बाल सुलभ
चंचलता थी, कि उन्होंने सूर्य को अपना ग्रास बना लिया था। साधु-संन्यासियों के
आश्रमों में वे खूब उछल-कूद मचाते थे, जिससे साधनारत संन्यासियों का ध्यानभंग होता
था। फलतः उन्हें श्राप मिला, कि वे बल को भूल जाएँगे और यदि कोई उन्हें स्मरण
कराएगा, तभी वे अपने बल को जानेंगे, और बल का प्रयोग कर सकेंगे। इसे श्राप कहें,
या व्यवहार को संयमित करने की सीख...। इसके बाद हनुमान जी का व्यवहार एकदम बदल
गया। वे संत प्रवृत्ति के हो गए। सुंदरकांड में जब जामवंत ने उन्हें बल का स्मरण
कराया, तो वे अपनी सामर्थ्य को जानकर प्रसन्न हुए और राम-काज में अपनी शक्ति और
सामर्थ्य का उपयोग करने हेतु प्रस्तुत हुए। हनुमान जी के बल का वर्णन प्रायः सभी
रामकथाओं में मिलता है। तमिल में हनुमान का एक नाम ‘तिरुवड़ि’ है। तिरुवड़ि,
अर्थात् विष्णुपाद....। कंब रामायण में प्रसंग आता है, कि समुद्र पार करने के लिए
हनुमान ने विराट रूप धारण किया। जिस तरह धरती को नाप लेने के लिए भगवान विष्णु के
वामन अवतार ने अपना लंबा डग रखा था, वैसे ही यहाँ हनुमान ने रखा है। इसी कारण हनुमान
तिरुवड़ि हैं, विष्णुपाद हैं।
कंब रामायण की
स्थापना के अनुसार हनुमान विष्णु के स्वरूप हैं। उन्हें शिव का अवतार भी माना जाता
है। वैष्णव सी भक्ति और शैव सी शक्ति का समन्वित रूप हनुमान का है। लंका नगरी में
विभीषण के साथ सत्संग में वैष्णव और लंका के ध्वंस में शिव के अवतार हनुमान....।
विभीषण के साथ संवाद में हनुमान राम के अनन्य भक्त और वैष्णव संत के सदृश प्रतीत
होते हैं। वे विभीषण को अपनी ओर से आश्वासन देते हैं, कि राम उन्हें अवश्य स्वीकार
करेंगे। राम और रामादल के मध्य संबंधों की निकटता इतनी है, कि हनुमान को आश्वासन
देने के लिए राम की अनुमति आवश्यकता नहीं होती। राम सभी के लिए सहज हैं, सुलभ हैं।
गोस्वामी तुलसीदास
हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद के माध्यम से संगठन की शक्ति को व्याख्यायित करते
हैं। श्रीराम किसी से किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करते। हनुमान जैसे शापित और
मानवेतर जीव भी राम के लिए प्रिय हैं, अनन्य हैं। और इतने निकट हैं, कि हनुमान
बेधड़क राम की ओर से विभीषण को आश्वासन दे रहे हैं। राम की संगठन-शक्ति सभी को
लेकर बनती है। वहाँ कोई भेदभाव नहीं है। सभी समान हैं, सभी के लिए अधिकार भी समान
हैं।
गोस्वामी जी का
सम-काल अनेक विषमताओं से भरा था। विशेष रूप से म्लेच्छ आक्रांताओं के समक्ष भारतीय
समाज अनेक वर्गों उपवर्गों में बँटा हुआ था। इस कारण भारतीय समाज दिशाहीन होकर,
असंगित रहकर क्रूर आक्रांताओं के आघातों को झेल रहा था, क्षत-विक्षत हो रहा था।
ऐसी विषम स्थिति में सभी को संगठित करने की आवश्यकता थी। मत-पंथ के नाम पर,
जाति-उपजाति के नाम पर भेदभाव के खतरे गोस्वामी जी के सामने स्पष्ट थे। इस कारण वे
सभी विभेदों को दूर करके एक होने की बात कहते हैं। हनुमान और विभीषण के मध्य संवाद
को इसका एक अंग कह सकते हैं। प्रायः गोस्वामी जी पर वर्ण-भेद के आक्षेप लगाए जाते
रहे हैं। यह प्रसंग इन आक्षेपों का भी खुलकर उत्तर देता है। भक्तकवि तुलसीदास के
आराध्य राम समाज के सभी वर्गों के हैं। राम के सम्मुख कोई भेद नहीं है।
श्रीरामचरितमानस की पूरी कथा में स्थान-स्थान पर ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं। सुंदरकांड
विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यहाँ रामादल की संगठन-शक्ति प्रकट होती है। जामवंत,
सुग्रीव, नल, नील, अंगद आदि सभी स्वतः स्फूर्त ऊर्जा से रामकाज में संल्गन होते
हैं। क्रूरकर्मा, आततायी रावण पर विजय पाने के लिए सभी अपनी-अपनी सामर्थ्य-भर योगदान
देते हैं। विभीषण भी रामादल में आ जाते हैं। जब गोस्वामी जी के आराध्य किसी से भेद
नहीं करते, तो गोस्वामी जी कैसे वर्ण-भेद कर सकते हैं?
भक्तकवि गोस्वामी
तुलसीदास के आराध्य श्रीराम सभी को साथ लेकर चलते हैं। गोस्वामी जी इस वैशिष्ट्य
को न केवल उभारते हैं, वरन् अपने समकाल में पनपती विकृतियों विषमताओं के मध्य
संदेश देते हैं, संगठित होने का, समन्वय और सहकार के भाव को साथ लेकर धर्मार्थ
कार्य के लिए संलग्न होने का, बिना विलंब किए हुए विकृति-कुसंगति को त्यागकर धर्मोन्मुख
होने का, और नीति-नैतिकता के मार्ग पर चलने का।
-राहुल मिश्र
(त्रैमासिक साहित्य परिक्रमा के आश्विन-मार्गशीष, युगाब्द 5126 तदनुसार अक्टूबर-दिसंबर, 2024, वर्ष- 25, अंक- 02 में प्रकाशित)