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Tuesday 1 December 2020

 





शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है...

कहते हैं, पहाड़ी नदियाँ बड़ी शोख़ होती हैं, चंचल होती हैं। लहराना, बल खा-खाकर चलना ऐसा,  कि ‘आधी दुनिया’ को भी इन्हीं से यह हुनर सीखना पड़े। पहाड़ी नदियाँ तो बेशक ऐसी ही होती हैं, मगर कभी हिमानियों से अपना रूप और आकार पाने वाली नदियों के बारे में सोचा है? वैसे तो ये भी पहाड़ों की ही हैं। इसलिए शोख़ी और चंचलता, बाँकपन और अदाकारी इनमें नहीं होगी, ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता है। देख लीजिए अलकनंदा और भागीरथी को, देख लीजिए लोहित और असिक्नी को....., और इनकी जैसी अनेक नदियों को....। एक अलग-सा सौंदर्य, अनूठा अल्हड़पन इनमें नजर आएगा। हिमनदों की इन आत्मजाओं का अनूठा सौंदर्य हिमालय की ऊँचाइयों पर ही देखा जा सकता है। अपने उद्गम से आगे बढ़ते हुए इनकी चंचलता मैदानों तक पहुँचते-पहुँचते गंभीरता में बदल जाती है। ठीक बचपन और बुढ़ापे की तरह...।

हिमनदों की इन चंचल बेटियों में एक शयोक भी है, जो अपनी कुछ अलग ही तासीर रखती है। यह चंद्रा और लोहित की तरह, अलकनंदा की तरह, या फिर भागीरथी की तरह सीधी-सरल और शांत नहीं है। लेह की तरफ से खरदुंग दर्रे को पार करते ही जैसे हम नुबरा घाटी में पहुँचते हैं, हरहराती हुई और तेजी से भागती हुई शयोक जैसे अगवानी करने को तैयार मिलती है। नुबरा घाटी में हम जितने दिन गुजारते हैं, उतने दिनों तक शयोक हमारा पीछा नहीं छोड़ती। नुबरा घाटी में घूमते हुए कई-कई बार हमें इसके साथ, तो कई बार इसे पार करके दर्शनीय स्थलों में पहुँचना होता है। इतना ही नहीं, शयोक अपने प्रवाह के साथ अपनी एक उपघाटी या अपना मैदानी इलाका भी बनाती है।

  अल्हड़ शयोक अपने उद्गम स्थान से निकलकर ‘गप्शन’ तक पश्चिम और दक्षिण तक बहती है और ‘गप्शन’ से ‘मंदरालिङ’ तक पूर्व दिशा में  बहती है। अपने उद्गम से आगे निकलकर यह गलवाँ और चंङ छेनमो नदियों को अपने साथ ले लेती है। इसके साथ ही यह इस इलाके में मंगोलियन तिब्बत और लद्दाख के बीच एक प्राकृतिक विभाजक रेखा भी खींचती है।  ‘मंदरालिङ’ से ‘शयोग’ तक दक्षिण और ‘शयोग’ से ‘हुंदर’ तक पश्चिमोत्तर बहते हुए बाद में पश्चिम दिशा की ओर बहते हुए बल्तिस्थान में प्रवेश कर जाती है। बल्तिस्थान के प्रमुख शहर स्करदो के पूर्व की ओर स्थित ‘केरिस’ के नजदीक सिंधु से मिल जाती है।

कई-कई बार शयोक की अल्हड़ चाल को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह ‘खरदुंग-ला’ से बहुत नाराज हो। ‘खरदुंग-ला’, यानि खरदुंग दर्रा....भोटभाषा में ‘ला’ दर्रे को कहते हैं। ‘ला’ तो ठीक है, लेकिन ‘खरदुंग’ तो ‘खर’ और ‘तुंग’ का मिश्रण समझ में आता है, जो प्रजातियों-पीढ़ियों की जुबानों में घिस-घिसकर ‘खरदुंग’ हो गया है, शायद। एकदम खड़ी-सी, ऊँची और कठिन चढ़ाई वाला तुंग....खरतुंग। आखिर यह शयोक के रास्ते में आया ही क्यों? उत्तर आसान-सा है, सरल-सा ही है...। पहाड़ हमेशा धीर-गंभीर और वीरव्रती ही नहीं होते, ये खलनायक की भूमिका में भी कभी-कभी आ जाते हैं। ऊँचे-ऊँचे दुर्गम और कठिन दर्रों के कारण ही लदाख के लिए कहा जाता है, कि यहाँ पर बहुत घनिष्ठ मित्र या बहुत कट्टर दुश्मन ही पहुँच सकता है। मध्यम स्तर वालों के लिए यहाँ आना सुगम नहीं...संभव नहीं। कारण... पहाड़ ही यहाँ पर चुनौतियों के  द्वार खोलते हैं। शायद इसी कारण शयोक की कथा में खरदुंग-ला किसी खलनायक से कम नजर नहीं आता। ऐसी ही एक कथा लाहुल-स्पीति के लोककंठों में जीवंत मिलती है। इस कथा में बारालाचा की दुर्गम ऊँचाइयाँ चंद्रा और भागा के लिए अवरोधक बनती हैं।

बड़े गहरे उतरे स्नेह-भाव के कारण कुछ लोगों द्वारा बड़ालाचा भी कहे जाने वाले बारालाचा के चंद्रताल से निकली चंद्रमा की बेटी चंद्रा, और सूर्यताल से निकला सूरज का बेटा भागा अपने प्रेम को जल तत्त्व में उतारकर साकार करते हैं। वैसे सूर्य का एक नाम भाकर भी है। भाकर का अंश भागा, और चंद्रमा की चंद्रा...। बारालाचा के शिखर से उनकी यात्रा शुरू होती है, मिलन के लिए...। भागा को कुछ ज्यादा ही भागना पड़ता है, दुर्गम पहाड़ियों के बीच अपना रास्ता बनाना होता है। अंततः ताँदी में दोनों मिलते हैं, और एक प्रयाग, एक संगम वहाँ बन जाता है, आस्था का...प्रेम की पराकाष्ठा का। लाहुल-स्पीति की अनेक लोककथाओं के बीच चंद्रा और भागा की यह प्रेमकथा बड़ी रुचि के साथ सुनी जाती है। ताँदी से आगे चंद्रभागा चेनाब बन जाती है, वैदिककाल की असिक्नी या आज के आम बोलचाल की इशकमती बन जाती है। इसी के किनारे हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल की प्रेमकथाएँ पनपती हैं, पंजाबियों के रीति-रिवाज परवान चढ़ते हैं। चंद्रा और भागा का अमर प्रेम मैदानी इलाकों को अपने रंग में रंग देता है।

यही अमर प्रेम शयोक और सिंधु में भी तो दिखता है, इसी कारण मिलन की राह में खड़े खर-तुंग से नाराज शयोक एकदम अपनी दिशा बदलकर बहने लगती है। इसीलिए खरदुंग-ला के पदतल में, हमें जैसे ही शयोक के दर्शन होते हैं, उसका भर्राया हुआ गला, नाराजगी से भरा स्वर सुनाई देता है। नदियों, पर्वतों, वनस्पतियों में स्वयं को देखने की, मानवीय गुणों और प्रवृत्तियों को देखने की अनूठी भारतीय पंरपरा दुनिया में विलक्षण है, अद्भुत है। इसी कारण शयोक के ही नहीं, हमारे अपने स्वर भी दो प्रेमियों के मिलन की राह में बाधक बनने वाले खलनायक खरदुंग-ला के लिए नाराजगी से भर जाते हैं। बारालाचा में अगर सूरज का बेटा है, तो यहाँ रिमो हिमानी की बेटी है। उधर चंद्रा है, जो बड़ी शालीन और संयत है। इधर शालीनता सिंधु नद के हिस्से में है। वैसे ‘रिमो’ भी भोटभाषा का शब्द है, और धारीदार पहाड़ के लिए इसे प्रयोग किया जाता है। जब माई ही इतनी तीखी है, तो बिटिया शांत-संयत कैसे हो सकती है? कई बार यह विचार शयोक की अल्हड़ चाल के कारणों को खोजते समय मन में उतर पड़ता है।

वैसे शयोक को कुछ और करीब से जानना हो, तो पाँच-छः घंटे का समय निकालकर स्याम गोनबो की लगभग सात-आठ सौ फीट की ऊँचाई पर चढ़ जाइए। धरती के टुकड़े को चाकू से काटती तेज धार की तरह शयोक का बहाव दिखाई पड़ेगा। एक तरफ हिमालय की लदाख पर्वतश्रेणी है, तो दूसरी तरफ काराकोरम पर्वतश्रेणी है। बीच में शयोक है, दो पर्वतश्रेणियों को एक-दूसरे से जुदा करती हुई। यह विभाजन पहाड़ों की बनावट का भी है, और बुनावट का भी...रंग भी दोनों के अलग-अलग...चट्टानें भी अलग और मिट्टी भी अलग। एक तरफ लालिमा है, तो दूसरी ओर कारा जैसी कालिमा...। स्याम गोनबो की ऊँचाई से शयोक को देखकर मन में  सबसे पहला विचार यही आता है, कि, भला हो... शयोक तुम्हारा! जो तुमने  दोनों श्रेणियों को अलग-अलग कर दिया.... कहीं हम एक ही समझ बैठते, तो आखिर क्या होता? यह तो ठीक है, लेकिन क्या तुम्हें एक गति से चलना नहीं आता है?

हे शयोक! हमने भी स्याम गोनबो की ऊँचाइयों से तुम्हें निहारा है। केवल निहारा ही नहीं है, तुम्हारे सानिध्य में पाँच-छः घंटे भी बिताए हैं। सुबह के समय तुम्हारी चाल थमी हुई-सी होती है। उस समय लगता है, कि तुम घुटुरुअन चल रही हो। कोई भी तुम्हारे पास जा सकता है। सिर पर सूरज के चढ़ते-चढ़ते तुम्हारे किनारों के रेतीले मैदानों में नमी पसरने लगती है। कई-कई जलधाराएँ उग आती हैं। साँझ ढलते-ढलते तुम्हारी चाल बहुत तेज हो जाती है। तुम्हारे सहमे-सिकुड़े से किनारे दूर-दूर तक फैल जाते हैं। रात के अँधेरों में भी तुम्हारी तेजी बनी ही रहती है, और सुबह-सवेरे फिर वही वीतरागी मद्धिम चाल....। कहीं तुम्हारे नाम के पीछे तुम्हारी चाल का असर तो नहीं है? अपने ‘ओक’ में, रिमो की गोद में ‘शयन’ कर रहीं तुम आलसियों की तरह दिन चढ़ने पर जागती हो, और देर हो जाने की बदहवासी में तेजी से दौड़ लगा देती हो। तुम्हारी दिन-भर की कलाएँ देखकर ही हमारे मन में ऐसे विचार आते हैं। हो सकता है, दूसरे लोगों के मन में ऐसे विचार आते हों। ‘शय’ और ‘ओक’ के मिलन से बनने वाले तुम्हारे नाम के पीछे भी यही विचार हो सकते हैं।

वैसे यारकंदी लोग शयोक को इस नाम से नहीं जानते। उनके लिए शयोक मौत की नदी है। दरअसल, काराकोरम की विकराल ऊँचाइयों से गुजरने वाले रेशम मार्ग का सहायक मार्ग नुबरा घाटी से जुड़ा हुआ था। लेह को रेशम मार्ग से जोड़ने वाले इस सहायक मार्ग की यात्रा करते समय यारकंदी व्यापारियों को लगभग बीस बार शयोक नदी को पार करना  पड़ता था। गर्मियों में तो इसे पार करना असंभव ही होता था, मगर सर्दियों में भी यह कम कठिन नहीं होता था। अपनी आदत के हिसाब से शयोक एकदम तेजी के साथ बह पड़ती, और यारकंदी व्यापारियों के कारवाँ में शामिल ऊँटों, घोड़ों, आदमियों तक को बहा ले जाती। शयोक के किनारे रहने वाले लोग भी इससे कम डरे हुए नहीं हैं। आज तो तमाम साधन हैं, पुल हैं, सड़कें हैं; लेकिन  गुजरे जमाने में लोग बेबसी को ढोते थे, और वैकल्पिक रास्ते निकालते थे। शयोक के किनारे के कुछ पुराने गाँवों, जैसे हुंदर, हुंदरी, देस्किद और उदमारू आदि के लोग चमरी मृग की खाल से ‘बिप्स’, यानि चमड़े की नाव बनाते थे, और उसके सहारे अपनी जान को जोखिम में  डालकर शयोक को पार करते थे।

भूरी-मटमैली रंग की इस मौत की नदी से नुबरा-शयोक घाटी के लोगों की भी खासी नाराजगी है। जिस शयोक को जीवनदायिनी होना चाहिए, उसके विकराल रूप से आहत लोग अपनी नाराजगी भी बड़ो रोचक अंदाज में व्यक्त करते हैं। आज भी किसी  बूढ़े-बुजर्ग से पूछिए, तो वे कहते हैं कि हम खेती-किसानी के लिए शयोक का पानी लेना नहीं पसंद करते, क्योंकि शयोक हमें जीवन देने वाली नहीं है। शयोक ने अपनी बाढ़ के उफान में कई बार हमारे तटबंधों की मिट्टी बहाई है, हमारी फसलों और पेड़-पौधों को बहाया है। इतना ही नहीं, गाँव के गाँव बहाकर आबादी को मिटाया है। इसलिए हमें शयोक का पानी अपनी फसलों में नहीं डालना है।

ऐसा कहा जाता है कि बल्तिस्थान के यगबो राजवंश की राजधानी काफलू में भयंकर बाढ़ आई थी। इस बाढ़ में शयोक नदी ने काफलू के चंगथंग इलाके को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। यह चंगथंग इलाका मंगोलियन तिब्बत से सटे चंगथंग के लोगों का था, जो रेशम मार्ग में नमक का व्यापार किया करते थे। इस भीषण तबाही से आक्रांत लोगों ने उस इलाके को ही छोड़ दिया। इनमें से कुछ लोग ‘छोरबत’ में बस गए और कुछ लोग नुबरा घाटी से होते हुए लेह के निकट ‘छुशोद’ गाँव में आकर बस गए। छुशोद में इन लोगों को ‘बल्ती’ के तौर पर जाना जाता है।

वैसे शयोक ने केवल बल्तियों को ही विस्थापित नहीं किया, वरन् अतीत के तमाम विस्थापनों को, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों को देखा है, जो इतिहास में आज भी अनजाने हैं, अनछुए और गुमनाम-से हैं। देश के विभाजन के बाद कारगिल से सड़क मार्ग द्वारा स्करदो तक जाना संभव नहीं रहा। अविभाजित लदाख में स्करदो की उतनी ही बड़ी भूमिका होती थी, जितनी लेह की..। डोगरा शासकों के समय में लदाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी स्करदो होती थी। सिंधु नद स्करदो से गुजरते हुए केरिस के पास शयोक से मिलता है। केरिस के पास ही शिगर नदी भी सिंधु में मिलती है। यहाँ त्रिवेणी बन जाती है, संगम बन जाता है। केरिस के निकट ही ऐतिहासिक काफलू शहर है।

अतीत का एक लंबा कालखंड ऐसा भी रहा है, जब सिंधु और शयोक के दोआब में दरद भाषा का व्यवहार हुआ करता था। कारगिल-खलच़े से लगाकर स्करदो-गिलगित-हुंजा से होते हुए मंगोलियाई तिब्बत की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा तक विस्तृत दरदभाषी क्षेत्र अपने अतीत में दरद आर्यों का निवास स्थान रहा है। आज का बल्तिस्थान अतीत में इसी दरद देश के अंतर्गत ही आता था। आज की धार्मिक-सांस्कृतिक विविधताओं के बीच प्रजातिगत एकरूपता अतीत के गौरव की साक्षी है। इस दरद देश का अतीत महाभारत काल से भी जुड़ा है। महाभारत के युद्ध में दरदों ने कौरवों की तरफ से युद्ध किया था, जबकि किरातों ने पांडवों की तरफ से युद्ध किया था। तिब्बती भोटभाषा में किरातों को ‘मोन’ कहा जाता है। इन्हीं मोन लोगों के कारण लदाख का एक नाम ‘मोनयुल’, यानि मोन लोगों का इलाका भी है। सिंधु के तट पर ‘मोन’ या किरातों की, और शयोक के तट पर दरदों की आबादी के सहारे सिंधु-शयोक का दोआब महाभारतकालीन राजनीतिक प्रसंगों का साक्षी बना होगा।

शयोक तो मानव-सभ्यता के विकास की, हिमालय की निर्मिति की साक्षी भी है। शयोक तांतव संधि-क्षेत्र या ‘शयोक स्यूटर जोन’ के तौर पर हम शयोक के प्रवाह को जानते हैं। देश-दुनिया में प्रसिद्ध पङ्गोङ झील की निर्मिति भी शयोक के प्रवाह के कारण हुई। किसी समय टेथिस सागर की लहरों को झेलने वाला शयोक का प्रवाह-क्षेत्र आज भी परवर्ती जुरासिक काल के जीवों के चिन्हों को अपने में छिपाए हुए है। सिंधु नद का अतीत भी इसी तरह परवर्ती जुरासिक काल से जुड़ा हुआ है। इस कारण सिंधु और शयोक से मिलकर सिंधु-शयोक मेखला का निर्माण होता है। इसी कारण सिंधु से मिलना ही शयोक की नियति बन जाती है। यह मिलन केरिस में होता है। सिंधु और शयोक के साथ ही शिगर नदी भी केरिस में मिलती है। अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ केरिस ऐसा संगम बन जाता है, ऐसा जीवंत प्रयाग बन जाता है, जहाँ अतीत के मानव के अस्तित्व का पहला अध्याय लिखा जाता है। जहाँ सभ्यताओं के अस्तित्व और संघर्ष की गाथाएँ गुनी जाती हैं। जहाँ धर्मों-रीतियों-नीतियों के टकराव दर्ज होते हैं। जहाँ भूरी-मटमैली शयोक नदी सिंधु नद से मिलकर अपनी पूर्णता को पाती है, और न पढ़े गए इतिहास के तमाम पन्नों को बाँचती है, उवाचती है। शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है..।

डॉ. राहुल मिश्र

(हिंदी प्रचार-प्रसार सोसायटी अमृतसर की पत्रिका 'बरोह' के दिसंबर, 2019 अंक में प्रकाशित)

Wednesday 12 December 2018

लोसर : परंपरा और संस्कृति का पर्व



लोसर : परंपरा और संस्कृति का पर्व

लदाख अंचल को उसकी अनूठी संस्कृति और धार्मिक परंपराओं से जाना जाता है। लदाख के बारे में ह्वेनसांग, हेरोडोट्स, नोचुर्स, मेगस्थनीज, प्लीनी और टॉलमी जैसे यात्रियों ने बताया है। इससे लदाख के अतीत का पता चलता है। किसी भी क्षेत्र के अतीत का पता इतिहास की किताबों और इतिहासकारों से चलता है। लेकिन किसी क्षेत्र के समाज, संस्कृति और वहाँ के लोगों के जीवन की जानकारी उस क्षेत्र के रीति-रिवाजों और तीज-त्योंहारों से मिलती है। लदाख अंचल की अनूठी संस्कृति, यहाँ के लोगों के विचार और समाज का जीवन लदाख के त्योहारों में दिखाई देता है। लदाख अंचल के प्रमुख त्योहारों में बुद्ध पूर्णिमा और लोसर का नाम आता है। इनमें बुद्ध पूर्णिमा धार्मिक त्योहार होता है। इसमें खास तौर पर पूजा-पाठ होते हैं, जबकि लोसर का त्योहार धार्मिक भी होता है, और सामाजिक भी होता है। इस कारण लोसर के त्योहार में लदाख अंचल के साथ ही सारे हिमालयी परिक्षेत्र के समाज, यहाँ की संस्कृति, प्राचीनता और परंपरा की झलक देखने को मिलती है।
 लदाख अंचल के लिए लोसर का त्योहार बहुत खास होता है, क्योंकि सर्दियाँ शुरू होने के साथ ही यह त्योहार लोगों में नई जिंदगी की रौनक बिखेर देता है। गर्मियों में पर्यटकों से गुलज़ार रहने वाले लदाख में ठंढक के आगमन के साथ ही जीवन बदल-सा जाता है। क्या सर्दियों के आने पर लदाख उदासियाँ ओढ़ लेता है? शायद नहीं। क्योंकि लदाख का नववर्ष सर्दियों की शुरुआत के साथ ही नए जोश को लेकर उपस्थित हो जाता है। लदाख के नववर्ष को ही लोसर कहा जाता है। लोसर भोट भाषा के दो शब्दों- ‘लो’ और ‘त्सर’ से मिलकर बना है। ‘लो’ का अर्थ होता है- वर्ष, और ‘त्सर’ का अर्थ होता है- नया। इस तरह से ज्योतिषीय गणना के अनुसार नए वर्ष का त्योहार ही लोसर कहलाता है।
वैसे तो लोसर का मुख्य पर्व भोट पंचांग के हिसाब से ग्यारहवें महीने की अमावस्या को मनाया जाता है, लेकिन इसकी शुरुआत दसवें महीने में ही हो जाती है। भोट पंचांग के अनुसार दसवें महीने की पंद्रहवीं तिथि से धार्मिक अनुष्ठानों और पूजा-पाठ की शुरुआत हो जाती है, जो ग्यारहवें महीने की पाँचवी तिथि तक चलती रहती है। दसवें महीने की पंद्रहवीं तिथि को होने वाले धार्मिक अनुष्ठान में खास तौर पर विनय के नियमों या सूत्रों का पाठ होता है। इस दिन को विद्वान भिक्षु और महान सिद्ध ग्यालवा लोजंग टकस्पा के स्मृति-दिवस के रूप में भी जाना जाता है। दसवें माह की पच्चीसवीं तिथि को गलदेन ङाछोद का पर्व होता है। यह भी लोसर का पूर्वानुष्ठान होता है। इस तिथि को महासिद्ध चोंखापा की जन्मजयंती और परिनिर्वाण तिथि के रूप में मनाया जाता है। इस दिन महासिद्ध आचार्य चोंखापा को याद करते हुए गोनपाओं में पैंतीस बुद्धों की पूजा की जाती है। भिक्षुगणों द्वारा किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान के साथ ही लोग अपने-अपने घरों में दीपक जलाकर खुशियाँ मनाते हैं। इस दिन छोरतेन, यानि स्तूपों में भी दीप प्रज्ज्वलित किए जाते हैं। ऐसा माना जाता है, कि जिस तरह महासिद्ध चोंखापा ने ज्ञान के प्रकाश से अज्ञानता के अँधेरों को दूर किया था, उसी तरह लोगों के जीवन में ज्ञान का उजाला फैले, समाज से अज्ञानता दूर हो, बुरी शक्तियाँ दूर हों और सभी का जीवन खुशहाल हो।
लोसर में सबसे ज्यादा रोचक और मजेदार आयोजन दसवें माह की उन्तीसवीं तिथि  होता है। इस दिन ‘गु-थुग’ बनाया जाता है। ‘गु-थुग’ एक खास किस्म का व्यंजन होता है, जो लोसर के त्योहार में ही में बनता है। यह थुग्पा जैसा ही होता है, लेकिन इसकी खासियत इसमें पड़ने वाली चीजों के कारण होती है। भोट भाषा में ‘गु’ का अर्थ होता है- नौ। लोसर के पर्व पर बनने वाले थुग्पा में नौ चीजें डाली जाती हैं, इसी कारण इस व्यंजन को ‘गु-थुग’ कहा जाता है । इसमें सने हुए आटे की लोइयों के बीच में कोयला, मिर्च, नमक, चीनी, रुई, अँगूठी, कागज और सूर्य तथा चंद्रमा की आकृतियाँ आदि नौ चीजों को अलग-अलग भरकर थुग्पा में डाला जाता है। आग में पक जाने के बाद ‘गु-थुग’ को सभी के बीच में बाँटते हैं। खाने से पहले सभी लोग देखते हैं, कि उनके हिस्से में कौन-सी चीज आई है। अलग-अलग लोगों के हिस्से में आने वाली चीजों के मुताबिक व्यक्ति के स्वभाव और गुण के बारे में बताया जाता है। अगर किसी व्यक्ति के हिस्से में कोयला आता है, तो यह माना जाता है कि उसका मन काला है, उसके विचार गंदे हैं। जिस व्यक्ति के हिस्से में मिर्च आती है, उसे कड़वा बोलने वाला या कटुभाषी माना जाता है। रुई पाने वाला सात्विक और सरल स्वभाव का होता है। कागज पाने वाला धार्मिक, सूर्य की आकृति पाने वाला यशस्वी, चंद्रमा की आकृति पाने वाला सुंदर और अँगूठी पाने वाला कंजूस माना जाता है। जिस व्यक्ति के हिस्से में अच्छी चीज आती है, उसे सम्मान मिलता है। जिसके हिस्से में बुरी वस्तु आती है, उसे अपमानित होना पड़ता है। इस तरह लोसर के त्योहार में वर्षभर के कामों का ब्यौरा निकलकर आ जाता है। वैसे तो यह मनोरंजन के लिए ही होता है, लेकिन इसके पीछे यह संदेश छिपा होता है, कि साल-भर अच्छे काम ही करने चाहिए, नहीं तो सबके सामने अपमानित होना पड़ेगा। इससे अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिलती है।
इसके अगले दिन, यानि दसवें माह की तीसवीं तिथि या अमावस्या को लोग सुबह-सुबह अपने-अपने घरों से मृतकों या पितृदेवताओं के लिए भोजन लेकर उनके समाधि-स्थल पर जाते हैं। शाम के समय गोनपाओं, छोरतेनों और घरों में दीप जलाए जाते हैं। अमावस्या की रात को जगमगाते दीपकों के बीच लदाख की धरती जगमगा उठती है। इसी दिन शाम के समय हरएक घर से मशाल या ‘मे-तो’ निकाले जाते हैं, जिन्हें लेकर लोग पूरे गाँव या मोहल्ले में घूमते हैं। इन्हें घुमाते हुए लोग आवाज लगाते जाते हैं, कि सारी बुराइयाँ, सारी बुरी और नकारात्मक शक्तियाँ यहाँ से चली जाएँ। ग्यारहवें मास की प्रतिपदा को, अर्थात् पहली तिथि को लोग नए-नए कपड़े पहनकर अपने-अपने इष्टदेव की पूजा करते हैं। सगे-संबंधी और परिचित-मित्र एक-दूसरे के घर शुभकामनाएँ देने जाते हैं। इस मौके में नवविवाहिताएँ भी अपने घर जाकर बड़ों के चरण छूकर प्रणाम करती हैं। इस दिन साल भर पकवान खिलाने वाले चूल्हे को भी प्रणाम किया जाता है, और पूजा की जाती है। लोसर के पर्व पर बच्चों को नए-नए कपड़े मिलते हैं और सभी लोग अपने परिजनों, मित्रों को उपहार भी देते हैं।
ग्यारहवें मास की द्वितीया को, अर्थात् दूसरी तिथि को पङोन, यानि महाभोज का आयोजन होता है, जिसमें सभी लोग बिना किसी भेदभाव के शामिल होते हैं। इस मौके पर स्त्रियों और पुरुषों के बीच छङ-लू नामक प्रतियोगिता होती है। इस मौके पर भक्तिभाव और वीरता के लोकगीत गाए जाते हैं। लोकगीतों द्वारा उन सैनिकों को भी शुभकामनाएँ दी जाती हैं, जो लोसर के त्योहार में अपने घर नहीं पहुँच पाते हैं। लदाख की धरती वीरों की धरती मानी जाती है। आज भी यहाँ के तमाम सैनिक देश की सेवा में लगे हुए हैं। इन वीरों का उत्साह बढ़ाने के लिए ही वीर रस से भरे हुए लोकगीत गाए जाते हैं। इसके पीछे एक ऐतिहासिक घटना भी नज़र आती है।
ऐसा माना जाता है, कि लदाख में लोसर का पर्व तिब्बती पंचांग के अनुसार ही मनाया जाता था, मगर लदाख के प्रतापी शासक राजा जमयङ नमग्याल के साथ जुड़ी एक घटना के कारण लोसर का पर्व तिब्बती लोसर से एक महीने पहले मनाया जाने लगा। मान्यता है, कि सोलहवीं शती. में राजा जमयङ नमग्याल के शासक बनते ही बल्तिस्तान में विद्रोह हो गया। यह घटना लोसर के एक महीने पहले की थी।  ऐसी संभावना थी कि लोसर के पहले युद्ध समाप्त नहीं हो पाएगा। इस कारण राजा जमयङ नमग्याल ने युद्ध में जाने से पहले ही लोसर मनाने की घोषणा कर दी। इस तरह भोट पंचांग के अनुसार दसवें महीने से ही लोसर पर्व के आयोजन की परंपरा चल पड़ी और आज भी इस परंपरा को देखा जा सकता है। उस समय युद्ध में जाने वाले वीर सैनिकों के अंदर जोश भरने के लिए वीरतापूर्ण लोकगीत गाये गए होंगे। आज लोसर में वीर-गीतों को गाने के रिवाज के पीछे भी यही कारण देखा जा सकता है।
ऐसा भी माना जाता है, कि लदाख के ठंढे मौसम और यहाँ की कृषि-व्यवस्था के कारण लोसर पर्व की तिथियों में अंतर है। लदाख में एक फसल ही पैदा होती है और खेती-किसानी का सारा काम अक्टूबर महीने तक पूरा हो जाता है। नवंबर के समाप्त होते-होते नई फसल का अनाज भी घर पहुँच जाता है। नया सत्तू और आटा भी तैयार हो जाता है। इस तरह लोसर में पूजा-पाठ के लिए नई फसल से सामग्री भी तैयार हो जाती है, और काम-काज की व्यस्तता भी नहीं रहती। इस कारण लोसर पर्व का उत्साह दुगुना हो जाता है। कारण चाहे जो भी हों, मगर ठंढक की दस्तक के साथ ही उल्लास और उमंग से भरा यह पर्व पुरातनकाल से ही लदाख अंचल की अपनी विशिष्ट पहचान को, अपनी अनूठी परंपराओं को सँजोए हुए है।
लदाख अंचल भौगोलिक रूप से जितना बड़ा है, उतनी ही विविधताएँ भी यहाँ पर देखी जा सकती हैं। नुबरा, चङथङ, जङ्स्कर और शम आदि क्षेत्रों में लोसर पर्व के साथ जुड़ी लोकपरंपराओं के अलग-अलग रंग देखे जा सकते हैं। इन लोकपरंपराओं में बहुत रोचक है, यहाँ की स्वाँग की परंपरा। प्राचीनकाल में स्वाँग की परंपरा सारे लदाख में अलग-अलग तरीके से मनाई जाती थी, मगर आधुनिक जीवन-शैली के कारण यह परंपरा लदाख अंचल के दूरदराज के गाँवों में ही सिमटकर रह गई है। जिस समय लदाख में मनोरंजन के साधन उपलब्ध नहीं रहे होंगे, उस समय लोगों के मनोरंजन के लिए, और उनकी धार्मिक भावनाओं की पुष्टि के लिए यह लोक-परंपरा बहुत कारगर रही होगी। इसमें लदाख के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग किस्म के स्वाँग करने की परंपरा है। लेह शहर के नजदीक चोगलमसर गाँव में होने वाले अबी-मेमे; ञे, बसगो, अलची गाँवों में होने वाले लामा-जोगी; हेमिशुगपाचन में होने वाले खाछे-कर-नग; स्क्युरबुचन में होने वाले अपो-आपी और वनला में होने वाले दो बाबा नामक स्वाँग बहुत प्रसिद्ध हैं। इन स्वाँगों में लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इन स्वाँगों में नसीहतें ही नहीं, इतिहास की झलक भी देखी जा सकती है और लदाख अंचल के साथ जुड़े धार्मिक-सांस्कृतिक संबंधों को भी देखा जा सकता है। लामा-जोगी नामक स्वाँग में उस पुराने लदाख को देखा जा सकता है, जिसमें कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए आने वाले जोगी या साधु-संन्यासी नजर आते हैं। पुराने ज़माने में बौद्ध भिक्षु, यानि लामाओं जैसी जिंदगी जीने वाले साधु-संन्यासियों को देखकर ही शायद लामा-जोगी स्वाँग का विचार आया होगा। इस स्वाँग में नवमी तिथि को लामा-जोगी अभिमंत्रित अनाज, जैसे गेहूँ-जौ आदि लेकर गाँवों में घूमते हैं और इन्हें छिटककर विघ्न-बाधाओं को दूर करते हैं। वे हरएक घर पर जाते हैं। घर का मुखिया लामा-जोगी के माथे पर सत्तू का तिलक लगाता है और ऊनी मुकुट पर ऊन चढ़ाता है। लामा-जोगी के आशीर्वाद से घर-परिवार, और गाँव में बुरी शक्तियाँ नष्ट होती हैं और सुख समृद्धि आती है। लामा-जोगी का यह स्वाँग प्राचीन लदाख को अतीत के भारत से जोड़ने वाला है। इस स्वाँग के माध्यम से प्राचीन भारत की सिद्ध-श्रावक-श्रमण परंपरा के सुनहरे इतिहास को भी याद किया जा सकता है। यह स्वाँग भारतवर्ष में लदाख अंचल के विशिष्ट और अभिन्न सांस्कृतिक-धार्मिक-सामाजिक सहकार की झलक दिखाता है। इस स्वाँग के माध्यम से लदाख अंचल के स्वर्णिम और गौरवपूर्ण अतीत के पन्ने खुलते चले जाते हैं। भावनात्मक जुड़ाव की झलक पेश करने वाले लामा-जोगी जैसे स्वाँगों का लोसर में विशेष आकर्षण होता है।
लोसर में कुत्ते, बिल्लियों, गाय, बछड़ों आदि को भी खाना खिलाया जाता है। नई फसल का उत्सव भी इसमें होता है। इस तरह लोसर का त्योहार सभी जीवधारियों के प्रति प्रेम के साथ ही सहजीवन और सह-अस्तित्व का भाव भी दिखाता है।
इस तरह लोसर का त्योहार अपनी विविधताओं के साथ, उमंग और उल्लास के साथ सर्दियों की ठिठुरन के बीच नया जोश, नई उमंग भर जाता है। लोसर का त्योहार उल्लास और उमंग के साथ ही लदाख के गौरवपूर्ण अतीत को, विनय की शिक्षाओं को, और नीति-नैतिकता की नसीहतों को साथ लेकर आता है। सीमित संसाधनों के बीच, जीवन की जटिलताओं के बीच लोसर के पर्व पर थिरकते पाँव बताते हैं कि जीना भी एक कला है और अपनी तहजीब के विविध रंगों को समेटकर लोसर के दीपकों की जगमगाहट के बीच बिखेर देना ही कठिन जीवन की कड़ी चुनौतियों के लिए सटीक जवाब है। एक बाल कविता के साथ लोसर की ढेर सारी शुभकामनाएँ-

आया आया लोसर1 आया,
ढेरों  खुशियाँ  संग   लाया,
ठंडक से सहमे  लोगों  को,
मस्ती  का   मौसम   भाया,
आया आया लोसर  आया।
झूम-झूमकर   गाना   गाते,
गाने  के  संग  नाच है सुंदर,
बज उठते हैं दमन2 के बोल,
सुरनाने  उत्साह  बढ़ाया,
आया  आया लोसर  आया।
आचो4    आते     आचे5   आती,
मिलजुल कर सब साथ में होते,
सबके संग कुछ समय  बिताया,
आया   आया   लोसर   आया।
मिट जाते झगड़े झंझट सब
कौन  हैं  मेरे  कौन  तुम्हारे,
बीती  बातें  सभी भुलाकर,
सबको  गले  लगाने  आया,
आया  आया  लोसर आया।
बनती खूब  सिवइयाँ मीठी,
सज जाते  हर घर हर द्वारे,
जगमग जगमग धरती होती,
हर मन को  चमकाने आया,
आया आया लोसर  आया।
नौ तरह  की चीज़  मिलाकर
नौवें    दिन     होता    तैयार
कहते लोग गुथुक6 है जिसको
आमाँ7  ने  सबको  पिलवाया,
आया  आया  लोसर   आया।
किसने  अच्छे  कर्म   किये  हैं,
किसने   बुरे   किये    हैं   काम,
किस्मत अच्छी बुरी है किसकी,
जादू की पुड़िया  को  खोलकर,
अच्छा   बुरा    बताने    आया,
आया   आया   लोसर   आया।
1.तिब्बती पंचांग के अनुसार सर्दियों में मनाया जाने वाला पर्व 2. नगाड़ा जैसा वाद्य यंत्र 3. बीन जैसा वाद्य यंत्र 4. बड़ा भाई (तिब्बती) 5. बड़ी बहन (तिब्बती) 7. लोसर में बनने वाला एक प्रकार का पेय पदार्थ जिसमें मेवे के साथ कोयला आदि नौ चीजें मिलाई जातीं हैं 8. माँ (तिब्बती)
(आकाशवाणी, लेह से दिनांक 11 दिसंबर, 2018 को प्रातः 09 बजकर 10 मिनट पर प्रसारित)
राहुल मिश्र

Tuesday 27 September 2016


लदाख का धार्मिक नृत्य- छम


हिमालय के उच्चतम शिखरों में फैली बौद्ध धर्म की महायान परंपरा अपनी अनूठी धार्मिक विशिष्टताओं और इन विशेषताओं के साथ मिलकर विकसित हुई अनूठी संस्कृति के कारण युगों-युगों से धर्मभीरुओं को, श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आकर्षित करती रही है। हिमालय में फैली बौद्ध धर्म की महायान परंपरा का जीवित-जीवंत केंद्र लदाख है, जहाँ पर आज भी इस अनूठी संस्कृति की, इसकी धार्मिक व्यवस्था की झलक देखी जा सकती है। यह परंपरा जहाँ एक ओर भारत के गौरवपूर्ण अतीत को अपने में समेटे हुए है, वहीं दूसरी ओर तिब्बत से आने वाली सांस्कृतिक-धार्मिक व्यवस्था यहाँ पर जीवंत हो उठी है। लदाख अपने अतीत से ही देश-दुनिया के लिए जिज्ञासाओं के भंडार की तरह रहा है। देश-दुनिया में होते आधुनिकीकरण से बेखबर लदाख अंचल अपनी अनूठी धार्मिक व्यवस्था को, धार्मिक व्यवस्था में निहित विशेषताओं को बचाए रहा है। लदाख की सामाजिक व्यवस्था आज भी धार्मिक परंपराओं में बँधी हुई है और लदाख का समाज आज भी धर्मभीरु है। धर्म के प्रति आस्था और इस आस्था की दृढ़ता अपनी निरंतर गतिशीलता के साथ आज भी देश-दुनिया के पर्यटकों को, श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है। लदाख में विभिन्न तिथियों में होने वाले धार्मिक आयोजनों, अनुष्ठानों और पर्वों-त्योहारों की लंबी सूची है। महायान बौद्ध परंपरा के सिद्धांतों का भौतिक पक्ष इन अनुष्ठानों, पर्वों और त्योहारों में देखा जा सकता है। लदाख के गृहस्थ बौद्ध धर्मानुयायियों के दैनिक पूजा-कर्म के साथ ही बौद्ध मठों-मंदिरों, अर्थात् गोनपाओं में आयोजित होने वाले पूजा-अनुष्ठानों का अपना विशेष महत्त्व है। लदाख की गोनपाएँ यहाँ की धार्मिक और सांस्कृतिक समृद्धि की प्रतीक हैं। वैसे तो इन गोनपाओं में वर्ष-पर्यंत पूजा-अनुष्ठान होते रहते हैं, मगर वार्षिक अनुष्ठानों का अपना विशेष महत्त्व होता है। लदाख की कुछ प्राचीन और विशिष्ट गोनपाओं में वार्षिक पूजा-अनुष्ठान के दौरान होने वाला धार्मिक नृत्य श्रद्धालुओं और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र होता है। इस नृत्य को छम कहा जाता है। यह धार्मिक नृत्य गोनपाओं के भिक्षुओं द्वारा किया जाता है और इसमें प्रशिक्षित भिक्षुगण विभिन्न प्रकार के मुखौटे लगाकर नृत्य करते हैं। इस कारण इस धार्मिक नृत्य को मुखौटा नृत्य भी कहा जाता है।
छम नृत्य मूल रूप से तांत्रिक अनुष्ठान के अंतर्गत होने वाला नृत्य होता है। यह तांत्रिक नृत्यानुष्ठान महायान बौद्ध परंपरा का विशिष्ट अंग है। महयान परंपरा में वर्णित धर्मरक्षकों, धर्मपालों, देव-देवियों, डाकिनियों और अन्य दैवीय स्वरूपों के प्रतीक के रूप में बने हुए मुखौटे और वस्त्र धारण करके इस विशिष्ट तांत्रिक नृत्यानुष्ठान को संपन्न किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि छम नृत्य की उत्पत्ति भगवान बुद्ध के समय उनके द्वारा ही हुई थी। धर्मग्रंथों में वर्णित है कि कर्नाटक में स्थित श्रीधान्यकटक नामक तीर्थक्षेत्र में भगवान बुद्ध ने महायान परंपरा के विनेयजनों को उपदेश दिया। अपने उपदेश में उन्होंने अनुत्तरयोग तंत्र भूमि-पूजा, जिसे त्सई-छो-ग कहा जाता है, के बारे में बताते हुए नृत्य करने की विधि बताई। यह नृत्य सामान्य नृत्य नहीं, वरन् शत्रु-नाश के लिए देव, डाकिनी, धर्मरक्षकों आदि के मुखौटे एवं वस्त्र धारण करके किया जाने वाला तांत्रिक नृत्यानुष्ठान था। भगवान बुद्ध द्वारा दिए गए उपदेश के अनुरूप राजा इंद्रबोधि ने इस नृत्यानुष्ठान की विधि का प्रचार-प्रसार किया। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान आर्य नागार्जुन के कर्मक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध कर्नाटक के नागार्जुनकोंडा नामक स्थान में हुए उत्खनन में नृत्य के लिए बने प्रांगण के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि तांत्रिक नृत्यानुष्ठान की, छम की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। इसी कालखंड में जैन परंपरा में भी धार्मिक नृत्यानुष्ठान की परंपरा प्रचलित हुई थी। जैन संन्यासी मंदिरों में रात-रातभर नृत्यानुष्ठान किया करते थे। जैन परंपरा में प्रचलित रासग्रंथों में वर्णित कथाओं का नृत्याभिनय जैन परंपरा में साधना-पद्धति के रूप में प्रचलित था। कमोबेश इसी प्रकार की परंपरा छम में देखी जा सकती है। अंतर केवल इतना ही है कि जैन मंदिरों में होने वाला रास तांत्रिकनृत्य नहीं होता, जबकि बौद्ध धर्म की महायान परंपरा में होने वाला छम तांत्रिक नृत्य होता है।
कर्नाटक के श्रीधान्यकटक और नागार्जुनकोंडा से चलकर छम नृत्य की परंपरा तिब्बत में विकसित हुई। नौवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में तिब्बत के शासक ठ्रिसङ्-दे-च़न के आमंत्रण पर आचार्य शांतिरक्षित भारत से तिब्बत गए और वहाँ पर महयान बौद्ध परंपरा का विस्तार करने हेतु एक बौद्ध विहार के निर्माण की शुरुआत की, मगर विहार के निर्माण में अनेक प्रकार की बाधाएँ पैदा होने लगीं। तब उन्होंने गुरु पद्मसंभव को आमंत्रित करने हेतु धर्मराज ठ्रिसङ्-दे-च़न से अनुरोध किया। गुरु पद्मसंभव तंत्रविद्या के प्रकांड विद्वान थे। गुरु पद्मसंभव ने आमंत्रण स्वीकार किया और तिब्बत में पहुँचकर दोर्जे-गुर-छम नामक तांत्रिक नृत्यानुष्ठान करके विहार के निर्माण में बाधक तत्त्वों को समाप्त किया। इस प्रकार तिब्बत में समये नामक बौद्ध विहार की स्थापना हुई, जो तिब्बत में छम नृत्य के विकास का पहला केंद्र बना। कालांतर में संस्कृत ग्रंथों के तिब्बती भाषा में हुए अनुवाद के माध्यम से तिब्बत में छम नृत्यानुष्ठान की विधियों का, इसकी बारीकियों और इसके प्रयोजन का अध्ययन सुलभ हुआ।
लदाख में तिब्बत से आने वाली महायान बौद्ध परंपरा के साथ ही छम या मुखौटा नृत्य की परंपरा प्रचलित हुई। ऐसी मान्यता है कि गुरु पद्मसंभव का लदाख में आगमन हुआ था और उन्होंने वर्तमान करगिल जनपद के जङ्स्कर क्षेत्र में स्थित कनिका स्तूप के निकट तांत्रिक साधना की थी। संभव है कि उन्होंने इस स्थान की नकारात्मक शक्तियों को नष्ट करने के लिए तांत्रिक नृत्यानुष्ठान भी किया हो। इस प्रकार लदाख की विभिन्न प्राचीन गोनपाओं में छम की परंपरा प्रचलित हुई। लदाख की सभी प्रमुख गोनपाओं में वार्षिक पूजा-अनुष्ठान के समय भिक्षुओं द्वारा धर्मरक्षकों, धर्मपालों, रक्षकों, देव, डाकिनियों आदि के मुखौटे लगाकर, उनके हस्त-प्रतीकों को धारण करके छम नृत्यानुष्ठान करने की प्राचीन परंपरा देखने को मिलती है। छम नृत्य की विभिन्न मुद्राएँ धार्मिक कार्यों में बाधा पहुँचाने वाले शत्रुओं को, नकारात्मक शक्तियों का शमन करने की प्रक्रिया प्रदर्शित करती हैं। इनमें नकारात्मक शक्तियों को बाँधना, कुचलना, काटना आदि शामिल होता है। बौद्ध धर्म की महायान साधना परंपरा में चार प्रकार के संप्रदाय हैं। इन्हें सा-क्या, कर्ग्युद, ञिङमा और गेलुग के नाम से जाना जाता है। इन चारों संप्रदायों में सामान्य भिन्नताएँ होती हैं। लदाख में इन चारों संप्रदायों के विशिष्ट जनों द्वारा, रिनपोछे द्वारा छम का प्रारंभ किया गया। लदाख में प्रत्येक संप्रदाय से संबद्ध प्रमुख गोनपाओं में होने वाले छम नृत्यों में भी सामान्य विभेद होता है। यह भिन्नता मुखौटों, नृत्य के दौरान पद संचालन, नर्तकों के आगे-पीछे मुड़ने की विधि, पदचाल की संख्या और वाद्य यंत्रों के प्रयोग की विधियों में होता है। ये विभिन्नताएँ सामान्य दर्शकों को समझ में नहीं आ सकतीं।
लदाख की गोनपाओं में छम नृत्यानुष्ठान प्रायः कृष्णपक्ष की अठारहवीं से उनीसवीं तिथियों में या अठाईसवीं से उनतीसवीं तिथियों में आयोजित किए जाते हैं। इसके पीछे मान्यता है कि जिस तरह कृष्णपक्ष में चंद्रमा की रोशनी क्रमशः घटती जाती है, उसी तरह छम के प्रभाव से नकारात्मक शक्तियों की, धर्मशासन को हानि पहुँचाने वाले शत्रुओं की शक्ति भी क्रमशः घटती जाती है। लदाख में स्थित विभिन्न प्रमुख गोनपाओं में आयोजित होने वाले छम की तिथियाँ अलग-अलग होती हैं, साथ ही छम में प्रदर्शित होने वाले दैवीय स्वरूपों में भी अंतर होता है। भोटी पंचांग के अनुसार पाँचवें माह की नवमी एवं दशमी तिथियों को हेमिस छेसचू के अवसर पर हेमिस गोनपा में छम का आयोजन होता है। हेमिस गोनपा में गुरु छ़नग्यद (अष्टगुरु पद्मसंभव) के साथ ही देव, डाकिनी और धर्मरक्षकों का नृत्यानुष्ठान होता है। भोटी पंचाङ के छठे मास की नवमी एवं दशमी तिथियों में डगथोग गोनपा में छेसचू या दशमी उत्सव के अवसर पर वज्रपाणि तथा गुरु छनग्यद का छम होता है। चेमड़े गोनपा में भोटी पंचाङ के नौवें माह की अट्ठाइसवीं एवं उनतीसवीं तिथि पर वङछोग अनुष्ठान के अवसर पर महाकाल एवं अन्य धर्मरक्षकों का छम होता है। इन्हीं तिथियों में डगथोग गोनपा में होने वाले वङ्छोग अनुष्ठान में वज्रकुमार, युमखोर लोग्यद दनमा, दस रौद्र और ल्हमो आदि का छम होता है। इस तरह लदाख की विभिन्न गोनपाओं में धर्मराज महाकाल के माता-पिता का छम, षड्भुज महाकाल, श्वेत महाकाल, वैश्रवण, हिरण और चमरी आदि का छम होता है। छम नृत्यानुष्ठान में पाई जाने वाली ये विविधताएँ अलग-अलग कथा-सूत्रों के माध्यम से श्रद्धालुओं की धर्मपिपासा को शांत करती हैं।
छम नृत्यानुष्ठान में मुखौटों का विशेष महत्त्व होता है, क्योंकि मुखौटों के माध्यम से ही स्वरूपों का पता चलता है। छम में प्रयुक्त होने वाले मुखौटे लकड़ी या मिट्टी के बने होते हैं। मुखौटों के रंग और उनके आकार धर्मरक्षक, देव, डाकिनी और अन्य दैवीय स्वरूपों के अनुसार होते हैं। मुखौटे प्रायः नीले, पीले, सफेद और लाल रंग के होते हैं। धर्मरक्षकों के लिए कंकाल के आकार वाले मुखौटे और वस्त्र होते हैं। छम नृत्य करने वाले भिक्षुओं के लिए वस्त्र भी विशेष प्रकार के होते हैं। रेशमी छम-वस्त्रों को पङखेब कहा जाता है। छम नृत्य के दौरान तलवार, कपाल, त्रिशूल, कील और धनुष-बाण आदि भी धारण किए जाते हैं। छम के दौरान काली टोपी धारण करने वाले साधक के प्रतीक होते हैं, जो शत्रु-नाशक कपाल के माध्यम से नकारात्मक शक्तियों का विनाश करते हुए दिखते हैं। छम नृत्यानुष्ठाने के लिए संगीत-ध्वनियाँ भी विशिष्ट होती हैं और साथ ही वाद्य-यंत्र भी अलग होते हैं। छम नृत्य के लिए प्रयोग होने वाला रगदोङ ताँबे से बना लंबा-सा तुरहीनुमा वाद्ययंत्र होता है, जिसे दो या तीन हिस्सों में अलग किया जा सकता है। रगदोङ को बजाने के लिए विधिवत् शिक्षा लेनी पड़ती है और परीक्षा भी उत्तीर्ण करनी पड़ती है। रगदोङ की छम नृत्य में मुख्य भूमिका होती है, क्योंकि इसकी धुन पर ही छम नृत्य का संचालन होता है। बुगजल बड़े आकार के मंजीरे या खतल के समान होता है। स्ङा बड़े आकार की गोलाकार लकड़ी का बना हुआ वाद्ययंत्र होता है और इसे एक लंबी धनुषाकार लकड़ी द्वारा बजाया जाता है।
छम नृत्यानुष्ठान गोनपा के विशाल प्रांगण में खुले आसमान के नीचे किया जाता है। यह प्रांगण प्रायः मुख्य मंदिर के सम्मुख होता है। छम नृत्य के दौरान प्रायः उन देवी-देवताओं या धर्मरक्षकों के थङ्का चित्र भी प्रदर्शित किए जाते हैं, जिनका छम होता है। खुले आसमान के नीचे होने वाले इस तांत्रिक अनुष्ठान में प्राकृतिक आपदाएँ, जैसे- बरसात, आँधी आदि न आएँ, इसके लिए भी पूजा की जाती है, तत्पश्चात छम का प्रारंभ होता है। गोनपाओं में आयोजित होने वाले छम नृत्यानुष्ठान को देखने के लिए तमाम श्रद्धालुगण एकत्रित होते हैं। यह नृत्य मनोरंजन के लिए नहीं, वरन् तांत्रिक अनुष्ठान के लिए होता है, इस कारण इसके दर्शन-मात्र से ही व्यक्ति की सारी विघ्न-बाधाएँ दूर हो जाती हैं। छम नृत्य को देखना शुभ माना जाता है। इस कारण आस्थावान श्रद्धालु छम नृत्यानुष्ठान के दर्शन-लाभ के लिए उमड़ पड़ते हैं और खुले आसमान के नीचे श्रद्धाभाव से करबद्ध होकर अपने कल्याण की कामना करते हैं। ऐसी मान्यता है कि देवों और धर्मरक्षकों के मुखौटों के दर्शन से ही जीवन में विघ्न-बाधाएँ दूर हो जाती हैं और चित्त को असीमित शांति मिलती है।
लदाख अंचल की गोनपाओं में अलग-अलग तिथियों में आयोजित होने वाले धार्मिक अनुष्ठान लदाख की धर्मभीरु जनता के लिए जीवन के संघर्षों को, जीवन की जटिलताओं और मुसीबतों को झेलने की ताकत देते हैं। छम नृत्यानुष्ठान के दर्शन-लाभ से उनकी आस्था की पुष्टि ही नहीं होती, वरन् उन्हें जीवन जीने की नई दिशा भी मिलती है। विश्व के कल्याण का भाव, सभी जीवों के कल्याण का बोध; सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा और करुणा जैसे उदात्त गुणों का विकास भी होता है। संभवतः इसी कारण छम नृत्य के प्रति पर्यटकों की जिज्ञासा भी देखने को मिलती है और प्रतिवर्ष अनेक देशी-विदेशी पर्यटक छम नृत्यानुष्ठान का दर्शन करने के लिए लदाख की यात्रा करते हैं। भारत की पुरातन धार्मिक आध्यात्मिक परंपरा के संरक्षित स्वरूप के साथ ही हिमालय अंचल की विशिष्ट धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान के रूप में लदाख में प्रचलित छम नृत्य का अपना अतुलनीय स्थान है।  
कार्यकारी संपादक- नूतनवाग्धारा

       (दूरदर्शन केंद्र, लेह द्वारा वृत्तचित्र निर्माण एवं दिनांक 01 अप्रैल, 2016 को 1730 से 1800 बजे तक प्रसारित।) 

Friday 12 February 2016

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब

वृत्तचित्र, दूरदर्शन केंद्र, लेह-लदाख

गुरुद्वारा श्रीपत्थरसाहिब
भारतमाता के मुकुट कहे जाने वाले हिमालय की बर्फ से ढकी उज्ज्वल पर्वत श्रेणियों के बीच लदाख अंचल स्थित है। लदाख अंचल को भारतमाता के मुकुट में सुशोभित सुंदर मणि कहा जाता है। एक ओर हिमालय, तो दूसरी ओर कराकोरम की पर्वतश्रेणियों के बीच स्थित लदाख से होकर सिंधु नदी गुजरती है। भारतीय संस्कृति, धर्म, अध्यात्म और इतिहास में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाली पवित्र सिंधु नदी-घाटी में बसा लदाख अंचल अपने अतुलनीय-अद्भुत प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विख्यात है। लदाख का शाब्दिक अर्थ दर्रों की भूमि है। दूर-दूर तक नजरों में समाते, कभी ऊँचे उठते, कभी झुकते-जैसे आसमान को छूते विविधवर्णी पर्वतों के बीच नीले रंग के स्वच्छ आकाश में विचरण करते रुई के जैसे बादलों की अद्भुत छटा को समेटे लदाख अंचल अपने प्राकृतिक सौंदर्य से हर आने वाले का मन मोह लेता है। पूर्णिमा की चाँदनी रात में शीतलता से भरी दूधिया रोशनी में चमकती धरती का आकर्षण हर किसी को अपनी ओर खींच लेता है। चारों ओर फैली असीमित शांति के बीच सिंधु के जल का कल-कल निनाद महानगरीय जीवन की आपाधापी से थककर आए पर्यटकों को असीमित सुख देता है, अपरिमित शांति देता है। 
अपनी अनूठी प्राकृतिक विशिष्टता के साथ लदाख अंचल का अपना ऐतिहासिक महत्त्व भी है। हिंदुस्तान को अपना यह नाम भी यहाँ प्रवाहित होने वाली सिंधु नदी से मिला है। लदाख अंचल हमारे पूर्वजों, आदि मानवों के जीवन का गवाह भी है। लदाख में कई स्थानों पर शिलालेख और पत्थरों पर अंकित पाषाणकालीन चित्र मिलते हैं। इन शिलालेखों से पता चलता है कि यह स्थान नव-पाषाणकाल से स्थापित है। पहली शताब्दी के आसपास लदाख कुषाण राज्य का हिस्सा हुआ करता था। लदाख के प्राचीन निवासी मोन और दरद लोगों का वर्णन हेरोडोट्स, नोर्चुस, मेगस्थनीज, प्लीनी और टॉलमी आदि प्रसिद्ध यात्रियों द्वारा लिखे इतिहास में भी मिलता है। सातवीं शताब्दी में बौद्ध यात्री ह्वेनसांग ने भी इस क्षेत्र का वर्णन किया है। इस तरह लदाख अंचल अपना ऐतिहासिक महत्त्व रखता है।
लदाख का मुख्यालय लेह शहर है। लेह भी ऐतिहासिक महत्त्व का नगर रहा है। लेह में यारकंदी व्यापारियों के साथ ही चीनी, तिब्बती और नेपाली व्यापारियों का आवागमन होता रहा है। लेह में पूर्व से आने वाले तिब्बती प्रभाव को, और मध्य एशिया से आए चीन के प्रभाव को देखा जा सकता है। पश्चिम की ओर से कश्मीर और शेष भारत के साथ लेह शहर का जुड़ाव रहा है, जिनका प्रभाव भी यहाँ पर देखा जा सकता है। पुराने समय में यह शहर सिल्क रूट के तौर पर भी जाना जाता था। व्यापारिक गतिविधियों के साथ ही लेह के साथ विभिन्न धर्म-संस्कृतियों का संपर्क भी रहा है। प्राचीनकाल में इस क्षेत्र में बोन धर्म का प्रभाव रहा। यहाँ पर हिंदू और फिर बौद्ध धर्म का प्रभाव कायम हुआ। लेह के उत्तर में स्थित कैलास मानसरोवर हिंदुओं की आस्था से जुड़ा तीर्थस्थान है। कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए प्रति वर्ष हजारों तीर्थयात्रियों का यहाँ आना-जाना रहता था। इस कारण अनेक धर्मगुरुओं, संत-महात्माओं का प्रभाव लदाख अंचल में हमेशा बना रहा है। इसी कारण लेह में विविध धर्म-संस्कृतियों के प्रतीक आज भी देखे जा सकते हैं।
तिब्बती विद्वान रिंचेन जंग्पो और महायान बौद्ध परंपरा में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले गुरु पद्मसंभव के साथ ही विभिन्न धर्माचार्यों, संतों ने अपने आगमन के माध्यम से इस क्षेत्र को कृतार्थ किया है। लदाख की यात्रा में आने वाले धर्माचार्यों में सिख पंथ के प्रवर्तक गुरु नानक का नाम भी आता है। ऐसी मान्यता है कि तिब्बत और फिर मानसरोवर से होते हुए गुरु नानक लेह पधारे थे और यहाँ से करगिल, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम, श्रीनगर होते हुए करतारपुर गए थे।
लेह शहर के मुख्य बाजार में शाही मसजिद के बगल में गुरुद्वारा दातून साहब स्थित है। इसके साथ ही लेह शहर से लगभग 25 किलोमीटर दूर लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित निम्मू गाँव के पास गुरुद्वारा पत्थर साहब है। गुरुद्वारा पत्थर साहब की स्थापना की कथा गुरु नानक की इस यात्रा के प्रसंग के साथ जुड़ी है। गुरुद्वारा पत्थर साहब के अस्तित्व में आने की बड़ी रोचक कथा है। सन् 1970 में लेह-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग का निर्माण सेना और सीमा सड़क संगठन द्वारा किया जा रहा था। उस समय निम्मू गाँव के पास लेह-निम्मू सड़क निर्माण के दौरान बौद्ध प्रार्थना ध्वजों में लिपटा एक बड़ा पत्थर रास्ते में आ गया। सड़क निर्माण के काम में लगे बुलडोजर के ड्राइवर ने पत्थर को रास्ते से हटाने की पूरी कोशिश की और अपनी मशीन पर पूरा जोर दे दिया। ऐसा करने के बावजूद पत्थर अपनी जगह से नहीं हिला, लेकिन बुलडोजर का ब्लेड जरूर टूट गया। इसके बाद, उसी रात बुलडोजर के ड्राइवर ने एक सपना देखा। ड्राइवर ने सपने में एक आवाज सुनी। उसमें ड्राइवर को पत्थर से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करने को कहा गया। अगली सुबह ड्राइवर ने अधिकारियों को अपने सपने के बारे में बताया। अधिकारियों ने उसे इस बात को भूल जाने को कहा और पत्थर को डायनामाइट से उड़ा देने का आदेश दिया। इसके बाद, रात को संबंधित अधिकारियों ने भी ऐसा ही सपना देखा और आवाज सुनी। अगली सुबह रविवार का दिन था। अधिकारियों ने पत्थर से जुड़े तथ्यों की जाँच-पड़ताल करने के लिए कुछ लामाओं को बुलाया। उन लामाओं ने पत्थर वाली जगह का दौरा किया और बताया कि पत्थर पर संत नानक लामा के कंधे का निशान है। इस तरह पत्थर को हटाने का काम बंद हो गया और वहाँ पर पूजा-अर्चना की शुरुआत हो गई।
पत्थर को देखने पहुँचे लामाओं ने पत्थर से जुड़ी कथा भी बताई। जनश्रुतियों में प्रचलित कथा के अनुसार जिस समय गुरु नानक लेह में आए हुए थे, उस समय एक शैतान राक्षस का वहाँ पर बहुत आतंक था। वह लोगों को पकड़कर मार डालता था। उसके कारण लोगों में डर व्याप्त था। उस शैतान राक्षस ने क्षेत्र में ऐसी अशांति मचा रखी थी कि लोगों का जीना दूभर हो गया था। इसी वक्त 1517 में गुरु नानक ने इस स्थान का दौरा किया। गुरु नानक सिक्किम, नेपाल, मानसरोवर झील और तिब्बत का दौरा कर श्रीनगर के रास्ते से पंजाब जा रहे थे। रास्ते में ध्यान लगा रहे गुरु नानक पर उस राक्षस ने पत्थर फेंका। गुरु के संपर्क में आते ही पत्थर ऐसे पिघल गया, मानो वह मोम का बना हो। इसके बाद गुरु के कंधे का निशान उस पत्थर में बन गया। मान्यताओं के अनुरूप और लोकप्रचलित कथाओं के आधार पर जिस पत्थर की कथा लामाओं द्वारा बताई गई, खुदाई में पत्थर का आकार कुछ वैसा ही मिला। इसी जगह पर सेना ने पत्थर साहब गुरुद्वारा का निर्माण कराया और उसके संरक्षण का जिम्मा भी लिया। इस गुरुद्वारे के साथ बौद्ध समुदाय की आस्था भी जुड़ी हुई है।
गुरु नानक की यात्रा के साथ जुड़ी गुरुद्वारा पत्थर साहब की कथा विश्वसनीय भी लगती है, क्योंकि गुरु नानक ऐसे संत थे, जिन्होंने किसी गुफा-कंदरा में बैठकर तपस्या करने के स्थान पर घूम-घूमकर लोगों को सीख दी और मानव-सेवा के माध्यम से अपनी साधना को पूर्ण किया। गुरु नानक के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवनकाल में 28 वर्षों तक केवल यात्राएँ कीं और निरंतर पैदल चलकर देश-दुनिया का भ्रमण किया। अगर इतिहास में देखें, तो इब्ने बतूता के बाद इतनी लंबी पदयात्रा करने वाले गुरु नानक ही थे। गुरु नानक की तुलना लगातार दो वर्षों तक यात्रा करने वाले कोलंबस और तीन वर्षों तक लगातार यात्रा करने वाले वास्को डी गामा से भी होती है। लेकिन इब्ने बतूता, कोलंबस और वास्को डि गामा की यात्राएँ किसी धार्मिक उद्देश्य के लिए या मानवता की सेवा के उच्च आदर्श पर आधारित नहीं थीं।
सिखों के आदि गुरु की जीवनी बड़ी प्रेरणापरक है। जब उन्होंने अपना घर छोड़कर देशाटन का फैसला लिया, तब उनकी माँ को बड़ा दुःख हुआ। नानक के घर छोड़ने से पहले उनकी माँ ने उनसे पूछा कि देशाटन करने से क्या हासिल होगा? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि  देशाटन से कुछ भी नहीं होगा, मगर समाज में प्रचलित बुराइयों को दूर करने के लिए किसी गुफा-कंदरा में बैठकर साधना करने से भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि ऐसा करने पर संसार के उन लोगों का कल्याण नहीं होगा, जो अज्ञानता में पड़े हैं, जिन्हें सच्चा ज्ञान देना जरूरी है। इसके लिए हमें अपने शरीर को ही मंदिर बनाना पड़ेगा। अपने दिमाग को माया के बंधन से मुक्त करना होगा। बुराइयों से मुक्ति पानी होगी। इसके लिए घूम-घूमकर, लोगों के बीच में जाकर उन्हें जागरूक करना होगा, उन्हें नसीहत देनी होगी और उन्हें सच्ची राह दिखानी होगी। अपने इसी उद्देश्य के साथ सत्य का संदेश फैलाने के लिए गुरु नानक ने तीन दशकों में 28 हजार किलोमीटर से अधिक यात्रा की। हर स्थान पर वह किस्से छोड़ते गए, लोगों को अपने व्यावहारिक ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते गए। उनकी यात्राओं से जुड़ी अनेक कहानियाँ श्जनम साखीश् में संकलित हैं और आज भी सुनाई जाती हैं।
गुरु नानक जी के इस महान उद्देश्य में उनका साथी बना मरदाना नाम का उनका शिष्य, जो उनका मित्र भी था और उनका सहयोगी भी था। मरदाना रबाब बजाते चलता और गुरु नानक उसके साथ देश-दुनिया को अपने ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते जाते। उन्होंने अपने शिष्य मरदाना के साथ पाँच बड़ी यात्राएँ कीं, जिन्हें पाँच उदासी (प्रमुख यात्राएँ)  के नाम से जाना जाता है। अपनी पाँच उदासी में उन्होंने करीब 60 शहरों का भ्रमण किया। इन उदासी में उन्होंने दो उप-महाद्वीपों का भ्रमण किया। पहली उदासी में उन्होंने उत्तरी और पूर्वी भारत का भ्रमण किया। दूसरी उदासी के दौरान श्रीलंका और दक्षिण भारत और तीसरी उदासी में उन्होंने तिब्बत, सुमेरु पर्वत, अनंतनाग, मट्टन, बड़गाम और श्रीनगर सहित लेह का भ्रमण किया। चौथी उदासी में गुरु नानक मक्का, मदीना, येरुशलम, दमश्कस, अलेप्पा, पर्सिया, तुर्की, काबुल, पेशावर और बगदाद पहुँचे। नानक जी की आखिरी उदासी 1530 में खत्म हुई, इसमें वह दिल्ली और हरिद्वार जैसे उत्तर भारतीय शहरों में गए। नानक जी जिस जगह पर जाते थे, वहाँ की तहजीब में ढल जाते थे, वहाँ उसी ढंग के परिधान भी धारण करते थे। जब वे बनारस गए तो वहाँ माथे पर चंदन का तिलक लगाए नजर आए और जब वे मक्का-मदीना की यात्रा में गए, तब उन्होंने मुस्लिम परिधानों को धारण किया। ऐसा करने के पीछे उनका उद्देश्य यह संदेश देना था कि परिधान पहनने से जाति-धर्म नहीं बदलता है और जाति-धर्म का भेदभाव न करना ही सच्ची मानवता है। सत्य का संदेश देने के लिए उन्होंने व्यापक तौर पर यात्राएँ कीं। उनका पहला संदेश यही था- न कोई हिंदू है, न कोई मुसलमान। अपने उपदेशों में नानक जी ने तीन संदेश दिए। पहला- ईमानदारी से कमाई करना (किरत करना), दूसरा- भगवान की प्रार्थना करना (नाम जपना) और तीसरा- ईमानदारी से कमाया गया धन जरूरतमंदों के साथ साझा करना (वंड चकना)।
गुरु नानक दार्शनिक, योगी, धर्मसुधारक, समाजसुधारक और सर्वेश्वरवादी थे। उन्होंने रूढ़ियों, आडंबरों का विरोध किया और आंतरिक साधना के माध्यम से, उच्च मानवीय गुणों के पालन के माध्यम से मानवता की सेवा को ही सच्ची भक्ति माना। गुरु नानक जब तिब्बत की यात्रा में गए, उस समय वहाँ पर महायान बौद्ध परंपरा का प्रभाव था। महायान परंपरा भी मानवता की सेवा को, सबके कल्याण की साधना को ही श्रेष्ठ मानती है। संभवतः इसी कारण गुरु नानक के प्रति बौद्ध संतों का आकर्षण उत्पन्न हुआ और उन्हें तिब्बत में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। ऐसी मान्यता है कि महायान परंपरा के निंगमा संप्रदाय में गुरु नानक को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसी कारण गुरु नानक के लेह आगमन पर महायान परंपरा से अनुप्राणित लद्दाख अंचल में उन्हें अपार मान-सम्मान मिला और उन्हें संत नानक लामा के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई।
गुरु नानक सन् 1517 में लेह पधारे थे। गुरुद्वारा दातूनसाहब के बारे में मान्यता है कि उन्होंने वहाँ पर अपनी दातून को जमीन में गाड़ दिया था, जिसने कालांतर में विशालकाय पवित्र वृक्ष का रूप ले लिया। वह वृक्ष आज भी है और उसकी शीतल छाया अद्भुत सुख-शांति का अहसास कराती है। अगर लद्दाख की वनस्पतियों को देखें, तो यहाँ पर पेड़ों की कई प्रजातियाँ कलम लगा देने पर तैयार हो जाती हैं। इस तरह लोकप्रचलित मान्यता को पुष्ट होने का एक आधार मिल जाता है। सन् 1517 में गुरु नानक के आगमन के समय लेह विविध संस्कृतियों के समन्वय के जीवंत साक्ष्य के रुप में समृद्ध था। वक्त गुजरने के साथ सांस्कृतिक विविधताएँ सिमटती गईं और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्थितियों ने बहुत कुछ बदल दिया, परिधियाँ सिकुड़ गईं और अलग-अलग दायरे बँधने लगे। शायद इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब का इतिहास लोगों के सामने नहीं आ पाया। सन् 1970 में सड़क निर्माण के कार्य के साथ लद्दाख के साथ जुड़े उस अतीत का खुलासा हुआ, जिसे वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब के रूप में देख पाने का सौभाग्य आज हमारे साथ है।
इसी कारण गुरुद्वारा पत्थर साहब धार्मिक आस्था का केंद्र मात्र नहीं है, वरन् हिमालय और कराकोरम पर्वत श्रेणियों के बीच गुरु नानक के उपदेशों का जीवंत साक्ष्य है। यह हमारी धरोहर है, जो हमारे पूर्वजों की सहिष्णुता को, उनके द्वारा स्थापित किए गए उच्च मानवीय मूल्यों को, आदर्शों को अपने अस्तित्व से साकार कर रही है। यह ऐसा ऐतिहासिक स्थल भी है, जो रक्तरंजित, आहत हिमालय परिक्षेत्र के वर्तमान को गर्व के साथ बता रहा है कि हम मानवता को पाशविकता से, क्रूरता से ऊपर रखने वाले अतीत के वंशज हैं।
वर्तमान में गुरुद्वारा पत्थर साहब की व्यवस्था और देखरेख की जिम्मेदारी भारतीय सेना के पास है। मान्यता के अनुसार जिस पहाड़ी से शैतानी राक्षस ने पत्थर फेंका था, उस पहाड़ी को नानक पहाड़ी कहा जाता है। सेना ने वहाँ तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनवाई हैं, और लोग उस पहाड़ी में दर्शनार्थ जाते हैं, साथ ही वहाँ से आसपास के सुंदर दृश्यों का आनंद भी उठाते हैं। गुरुद्वारा पत्थर साहब के दाहिनी ओर गुरुगद्दी बनी है। सेना द्वारा यहाँ तक पहुँचने के लिए भी सुगम मार्ग बनाया गया है। ऐसी मान्यता है कि गुरुगद्दी में गुरु नानक एकांतिक साधना करते थे। इसी कारण गुरुगद्दी में पहुँचकर असीमित शांति का अनुभव होता है। भारतीय सेना के सहयोग और अनथक प्रयास के कारण धार्मिक सद्भाव, सहिष्णुता और उच्च मानवीय मूल्यों का प्रकाश देने वाला यह स्थान स्थानीय लोगों के लिए ही नहीं, वरन्, देश-विदेश के पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है, उन्हें नसीहत देता है। शैतान राक्षस जैसी प्रवृत्तियाँ किसी भी व्यक्ति के अंदर हो सकती हैं। जिस तरह गुरु नानक के प्रभाव में आकर शैतान राक्षस अपनी दुष्ट प्रवृत्तियों को त्यागकर भला-सच्चा व्यक्ति बन गया था, वैसी ही धारणा, वैसे ही विचार सबके बनें, सभी मानवता के कल्याण के लिए तमाम भेदभावों को भुलाकर आपसी स्नेह-सद्भाव भाईचारे के साथ रहना सीखें, इसकी नसीहत देने के लिए यह स्थान अतुलनीय है। दूसरी ओर भारतीय सेना के सामाजिक सद्भाव और जन-जुड़ाव का अनूठा पक्ष भी यहाँ पर देखने को मिलता है। सेना के जवानों को उच्च आदर्शों की सीख देने, सेवा और सद्भाव की नसीहत देने के लिए भी इस स्थान का अपना महत्त्व है।



डॉ. राहुल मिश्र
(दूरदर्शन केंद्र, लेह से दिनांक 13 जुलाई, 2015 को सायं 05.30 पर वृत्तचित्र के रूप में प्रसारित)