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Wednesday 10 December 2014

निर्गुण तथा सगुण पंथ के प्रतिनिधि कवि

सी. बी. खेडगीज् महाविद्यालय, अक्कलकोट, सोलापुर (महाराष्ट्र) में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी, दिनांक- 20-21 दिसंबर, 2013 हेतु विषय स्थापना
निर्गुण तथा सगुण पंथ के प्रतिनिधि कवि
भारत की दक्षिण काशी के नाम से विख्यात सोलापुर के उत्तर की ओर स्थित अहमदनगर और पश्चिम की ओर स्थित सतारा का भक्ति-काव्य परंपरा में अद्वितीय योगदान है। भगवान दत्तात्रेय के अवतार स्वामी समर्थ महाराज की नगरी अक्कलकोट से लगभग 100 किलोमीटर दूर पंढरपुर तीर्थ हिंदी साहित्य की उस परंपरा से जुड़ा हुआ है, जिसकी चर्चा के लिए हम सभी यहाँ उपस्थित हैं। अहमदनगर के आपेगाँव के संत ज्ञानेश्वर और सतारा के नरसीबामणी गाँव के संत नामदेव पंढरपुर की वारी (यात्रा) के माध्यम से प्रचलित हुए वारकरी संप्रदाय के प्रमुख संत माने जाते हैं। मुक्ताबाई, संत तुकाराम और संत एकनाथ ने इस परंपरा को समृद्ध-सशक्त किया। वारकरी संप्रदाय के साथ ही महानुभाव संप्रदाय के प्रवर्तक स्वामी चक्रधर ने भी भक्ति-काव्य परंपरा के विकास में योगदान दिया। इस प्रकार इस क्षेत्र से ऐसी भक्ति परंपरा का उदय हुआ, जिसे विविध संप्रदायों, पंथों- नाथ, महानुभाव, वारकरी, मालकरी आदि में बाँटकर भी देखा जा सकता है और समग्र धारा के रूप में भी देखा जा सकता है। भक्ति-काव्य की इस परंपरा ने संत नामदेव के नेतृत्व में उत्तर भारत में उदित हो रही भक्ति-काव्य परंपरा को सक्षम और समर्थ बनाने में अद्वितीय योगदान दिया।
महानुभाव संप्रदाय में निर्गुण की अपेक्षा सगुण को अधिक महत्त्व दिया गया, जबकि परवर्ती वारकरी संप्रदाय के संतों ने ब्रह्म को अनादि, नित्य, ज्ञानमय, अव्यक्त, निर्गुण और सर्वव्यापक मानते हुए निर्गुण रूप को भी महत्त्व दिया और निर्गुण ईश्वर ही सगुण के रूप में अवतरित होता है, यह कहकर सगुण रूप को भी महत्त्व दिया। इसके साथ ही महाराष्ट्र में संतकाव्य परंपरा के आदिकवि मुकुंदराज (1127-1200 ई.) ने अपने ग्रंथ ‘विवेक सिंधु’ (1190 ई.) में सगुण, निर्गुण, गुरु का महत्त्व, ब्रह्म, जीव, माया आदि विषयों का प्रतिपादन जनसाधारण की भाषा में किया। भारतवर्ष की संतकाव्य परंपरा का यह पहला काव्यग्रंथ माना जाता है।
संत शब्द का सामान्य अर्थ सज्जन होता है। मराठी व बाद में हिंदी कवियों ने ‘संत’ शब्द का अपने वर्ग के लिए इतना अधिक प्रयोग किया कि इस शब्द के साथ उनका गहरा और अभिन्न संबंध स्थापित हो गया। महात्मा चक्रधर, संत नामदेव, संत ज्ञानेश्वर, संत तुकाराम, संत निवृत्तिनाथ, संत सोपानदेव और संत एकनाथ आदि संत कवियों के द्वारा रचित भक्ति-काव्य इसी आधार पर कोई विभाजक रेखा नहीं खींचता है। मराठी संत कवियों द्वारा सृजित भक्ति-काव्य प्रेरणास्रोत बनकर, एक आंदोलन का स्वरूप लेकर जब उत्तर भारत की ओर अपनी यात्रा प्रारंभ करता है, तब बड़ा बदलाव उत्तर भारत की भक्ति-काव्य परंपरा में देखने को मिलता है।
 उपासनाभेद का आश्रय लेकर सगुण और निर्गुण पंथ जैसे दो वर्गों की कल्पना की गई और हिंदी साहित्येतिहासकारों ने इसी आधार पर समग्र भक्ति साहित्य को विभाजित किया। सगुण पंथ में लीलावतार, भगवद्नुग्रह का भरोसा, परलोक या स्वर्ग-नर्क की कल्पना, लीला का माहात्म्य, वर्ण-व्यवस्था की स्वीकार्यता, साकार के प्रति भक्ति और बाह्य लालित्य होता है। निर्गुण पंथ में ब्रह्मानुभूति, आत्मविश्वास का बल, सत्कर्मों द्वारा संसार को ही स्वर्ग बनाना, वर्ण-व्यवस्था का विरोध, निराकार के प्रति भक्ति, अंतःसौंदर्य की गरिमा और विश्वात्मा प्रभु के विश्वव्यापी अस्तित्व में आस्था होती है।
हिंदी साहित्य के इतिहास के अध्ययन में हम सामान्यतः इन्हीं तथ्यों का अध्ययन करते हैं। इसके साथ ही सगुण पंथ के अंतर्गत विष्णु के दो अवतारों- राम और कृष्ण काव्य के आधार पर क्रमशः रामकाव्य परंपरा और कृष्णकाव्य परंपरा का अध्ययन करते हैं। निर्गुण पंथ में संतकाव्य परंपरा या ज्ञानमार्गी शाखा और सूफ़ीकाव्य परंपरा या प्रेममार्गी शाखा के दो वर्गों का अध्ययन करते हैं। कृष्णकाव्य परंपरा  वल्लभ संप्रदाय (श्री वल्लभाचार्य, तेलुगु), चैतन्य संप्रदाय (चैतन्य महाप्रभु, नवद्वीप, बंगाल) और राधावल्लभ संप्रदाय (श्री हित हरिवंश) का आश्रय लेकर विकसित हुई। इसके प्रतिनिधि कवि सूरदास ने ब्रजभाषा में कृष्ण भक्ति, काव्य और संगीत की ऐसी त्रिवेणी का सृजन किया है, जिसमें प्रेम, भक्ति और अध्यात्म एक-दूसरे से मिल जाते हैं। निर्गुण और सगुण का भेद नहीं रह जाता है। महाकवि सूर का कवित्व उच्चता की उस सीमा पर स्थापित है, जहाँ तक पहुँच पाना अन्य के लिए संभव नहीं है। इसी कारण तानसेन कह उठते हैं- किंधौं सूर की सर लग्यौ, किंधौं सूर की पीर, किंधौं सूर को पद सुन्यौ, तन मन धुनत सरीर।
निर्गुण पंथ की प्रेममार्गी शाखा या सूफ़ीकाव्य परंपरा को प्रायः सूफ़ी कवियों, फ़ारसी मसनवियों द्वारा विकसित माना जाता है। वस्तुतः महाभारत की रोमांसिक चेतना के साथ ही हरिवंश पुराण, वृहत्कथा, संस्कृत गद्यकाव्य और अपभ्रंश जैनकाव्य परंपरा के क्रमिक विकास को तथाकथित सूफ़ीकाव्य परंपरा में देखा जा सकता है। इस परंपरा के प्रतिनिधि कवि मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने महाकाव्य पद्मावत में नीति और दर्शन के भारतीय संस्करण को उतारा है। सांप्रदायिक टकराहट से स्वयं को मुक्त रखकर न्याय और अन्याय के स्थूल-सूक्ष्म संघर्ष, मानवीय कर्म और उसकी क्रिया-प्रतिक्रिया की गाथा जायसी को पृथिवी पुत्र (वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार) बना देती है और पद्मावत को लोक से शिष्ट में संक्रमण का काव्य बना देती है।
निर्गुण पंथ की संतकाव्य परंपरा के प्रतिनिधि कवि कबीर और सगुण पंथ की रामकाव्य परंपरा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास हैं, जिनके हिंदी साहित्य में योगदान विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी के शुभ अवसर पर हम सब उपस्थित हैं और जिनके कृतित्व के विविध पक्षों पर व्यापक विचार-विमर्श के सहभागी बन रहे हैं।
सन् 1880 के आसपास रामकुमार विद्यालंकार द्वारा रचित ‘कबिरेर संक्षिप्त जीवनचरित’ के साथ कबीर का व्यवस्थित अध्ययन प्रारंभ होता है। आचार्य क्षितिमोहन सेन कृत ‘कबीर’ (1942), रवींद्रनाथ टैगोर और ऐवेलिन अंडरहिल द्वारा अनूदित ‘वन हंड्रेड पोयम्स ऑफ़ कबीर’ (1914), अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध कृत ‘कबीर वचनावली’ (1916), रेवरेंड अहमदशाह कृत ‘द बीजक ऑफ़ कबीर’ (1917), रेवरेंड एफ. ई. के. कृत ‘कबीर एंड हिज़ फॉलोअर्स’ (1931) और उसके बाद आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कृत ‘कबीर’ (1942), डॉ. श्यामसुंदरदास कृत ‘कबीर ग्रंथावली’ बेल्जियम के निवासी विनान्द एम कैलेवर्त्त के शोध-ग्रंथ ‘द मिलेनियम कबीर वाणी’ आदि रचनाओं की चर्चा कबीर के विस्तृत और व्यवस्थित अध्ययन के संदर्भ में की जा सकती है। इन सभी अध्ययन ग्रंथों को अगर देखें तो यह सरलता के साथ कहा जा सकता है कि हिंदी में कबीर पर अध्ययन-अनुसंधान बहुत बाद में शुरू हुआ और परिमाण की दृष्टि से भी यह कम ही ठहरता है।
हिंदी में कबीर के अध्ययन की शुरुआत के साथ ही कुछ अवधारणाओं का विकास होता है। कबीर के सामान्य अध्ययन में हम सामान्य रूप से यह जानते हैं या जान पाते हैं कि उनके काव्य संस्कार सूफ़ी परंपरा पर आश्रित हैं, जिनमें इस्लाम के एकेश्वरवाद का प्रभाव परिलक्षित होता है। उनके काव्य सृजन में हिंदू परंपरा को कोई रचनात्मक योगदान नहीं है। कबीर के निर्गुण ब्रह्म की उपासना के पीछे पुरातन भक्ति परंपरा की तीक्ष्ण आलोचना है। ज्ञानमार्ग की कट्टरता कबीर की साधना-पद्धति का प्रमुख अंग थी। ऐसी ही अनेक मान्यताएँ कबीर के संदर्भ में प्रचलित हैं, जिनका हम सामान्य तौर पर अध्ययन करते हैं।
वस्तुतः कबीर का सम्यक् मूल्यांकन किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि निर्गुण अद्वैतवाद, सगुण वैष्णव भक्ति, बौद्ध सहजयान, नाथ पंथ, इस्लाम या सूफ़ी मत जैसे किसी भी वर्ग में कबीर को रखना संभव नहीं है। कबीर के काव्य संस्कार में इन सभी का समन्वय देखा जा सकता है। उनके व्यक्तित्व में परस्पर विरोधी तत्त्वों का सामंजस्य इस तरह मिलता है कि विरोधी तत्त्व भी एक-दूसरे के पूरक बन जाते हैं। कबीर में एक ओर अक्खड़पन है तो दूसरी ओर दीनता और हीनता का भाव भी है। बड़े-बड़े दार्शनिकों-चिंतकों के विचारों को ‘कागद की लेखी’ कहकर अक्खड़पन दिखाने वाले कबीर ‘धण मैली पिय ऊजला, लाग सकूँ न पाँव’ कहकर अपनी असीमित दीनता को भी सहजता के साथ प्रकट कर देते हैं।
संकीर्ण भौतिकवाद और यथार्थवाद के विपरीत व्यापक करुणा, सर्वहित की कामना, सच्ची भक्ति-भावना, समाजहित पर केंद्रित विचार और अनुभूति की व्यापकता कबीर की रचनाओं में देखने को मिलती है। कबीर को समझने के लिए ज्ञान की नहीं, अनुभूति की, सच्चे मन और भाव की जरूरत पड़ती है। कबीरदास लिखते हैं-
कबीर का घर सिखर पर, जहाँ सिलहली गैल।
पाँव न टिके पिपीलक, लोगनि लादे बैल।।
संभवतः इसी कारण कबीर की लोकप्रियता हर तरह के बंधनों से मुक्त थी, लोक-व्यवहार में विस्तृत थी। कबीर ने अपनी रचनाधर्मिता का स्वरूप विभिन्न धर्मों, मतों, पंथों का सामान्यीकरण करके, विज्ञानीकरण करके बनाया। इस तरह सभी के लिए अपना-सा लगने वाला, सभी के लिए अपनत्व से, प्रेम से भरा हुआ विश्व धर्म स्थापित करना कबीर के चिंतन की मौलिक उपलब्धि है। इसके लिए वे कभी ज्ञान की आँधी आने की बात कहते हैं तो कभी-
कामी   क्रोधी   लालची,  इनसे भक्ति  न होय।
भक्ति करे कोई सूरमा, जाति वरन कुल खोय।।                                       
कहकर भक्ति के सच्चे स्वरूप की स्थापना करते हैं।  
भक्ति का विलक्षण और उदात्त स्वरूप गोस्वामी तुलसीदास के कृतित्व में भी प्रकट होता है। अपनी समन्वयात्मक दृष्टि को अपनी भक्ति भावना के साथ जोड़कर लोकमंगल की साधना करने वाले गोस्वामी तुलसीदास की स्थिति लोकनायक से कम नहीं आँकी जा सकती। जाने-माने इतिहासकार गोस्वामी तुलसीदास के संदर्भ में अपनी पुस्तक ‘अकबर दि ग्रेट मुगल’ में लिखते हैं- Tulsidas is the tallest tree in the magic garden of medieval Hindu Poesy. वे आगे लिखते हैं- That was the greatest man of his age in India- greater even than Akbar himself in as much as the conquest of the hearts and minds of millions of men and women effected by the poet was an achievement infinitely more lasting and important than any or all the victories gained in war by the Monarch. अपने ग्रंथ Indian Antiquary (1893) में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन लिखते हैं- If we take the influence exercised by him at the present time as our test, he is one of the three or four great writers of Asia….Over the whole Gangetic Valley his great work [ The Ramayan] is better known than Bible is in England.
रूस के प्रसिद्ध विद्वान वरान्निकोव ने रामचरितमानस का रूसी भाषा में पद्यबद्ध अनुवाद किया। रेवरेण्ड एटकिन्स ने अंग्रेजी में मानस का अनुवाद किया। ऐसे ही तमाम अध्ययन-अनुसंधान कार्य तुलसीदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विदेशों में हुए हैं या विदेशी विद्वानों द्वारा हुए हैं। ये तथ्य, ये कथन उस विश्वधर्म की व्यापकता और वैश्विक स्वीकार्यता को इंगित करते हैं, जिसकी स्थापना गोस्वामी तुलसीदास ने की, विशेषकर रामचरितमानस के माध्यम से। भारत वर्ष के धुर देहातों में बहुत से ऐसे लोगों को तुलसी का मानस कंठस्थ है, जिन्हें अक्षरज्ञान भी नहीं है, जो लिख-पढ़ भी नहीं सकते हैं।
भूगोल के बंधनों से, काल के बंधनों से मुक्त बाबा तुलसी का मानस एक ग्रंथ मात्र नहीं है, बल्कि भारतीय संस्कृति के बौद्धिक, कलात्मक और भावुक ग्रंथों का समन्वित रूप है। यह जीवनोपयोगी भी है, गंभीर भी है और बौद्धिक-दार्शनिक तत्त्वों से युक्त भी है। राम की गूढ़ कथा एक ओर निर्गुण, निराकार परमात्मा को हमारे अपने समाज का व्यक्ति बना देती है तो दूसरी ओर परिवार, समाज और राष्ट्र के स्तर पर सत्य और प्रेम की रक्षा की, मर्यादा के पालन की ऐसी सीख दे जाती है, जो अनपढ़ के लिए भी सहज और सुग्राह्य हो जाती है-
कीरति भनिति भूति भल सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।
रामचरितमानस के अतिरिक्त विनयपत्रिका तुलसी की प्रौढ़, सशक्त कृति है। विनयपत्रिका में बाबा तुलसी के जीवन के वृहद-व्यापक अनुभव हैं, तुलसी की विनयमूलक भक्ति का उत्कृष्ट स्वरूप है। मानवतावादी दृष्टिकोण है और गूढ़ दार्शनिक चिंतन भी है। कृष्णगीतावली, दोहावली, बरवै रामायण आदि विविध ग्रंथ भी अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। उनकी सभी कृतियाँ किसी भी युग की सीमाओं में या भौगोलिक क्षेत्र के बंधनों में बँधी हुई नहीं है।
पाश्चात्य जीवन शैली के ‘माइक्रो फैमिली कल्चर’ और टूटती-बिखरती ‘फैमिली वैल्यूज़’ के घातक दुष्परिणामों से बचने के लिए रामचरितमानस के रूप में हमारे पास ऐसा अमोघ अस्त्र है, जिसकी प्रासंगिकता वर्तमान जीवन में उत्तरोत्तर बढ़ रही है। रामकथा को आधार बनाकर अनेक भक्त कवियों ने उत्कृष्ट रचनाएँ की हैं, किंतु रामकथा को लोक-व्यवहार से, लोक-जीवन की मान्यताओं-मर्यादाओं और समाज की मानवीय अपेक्षाओं के अनुरूप बनाने का काम बाबा तुलसी ने ही किया है। बाबा तुलसी ने मानस के माध्यम से समूचे परिवार के मर्यादित आचरण को समग्रता के साथ प्रस्तुत किया है। इसके बाद भी तुलसीदास और उनकी कालजयी कृति ‘रामचरितमानस’ प्रायः दूषित आलोचना के भँवर में फँस जाती है।
अगर कबीर के राम राजा दशरथ के पुत्र राजकुमार राम नहीं, बल्कि निर्गुण ब्रह्म के प्रतीक हैं, तो तुलसी के राम भी दशरथनंदन मात्र नहीं, बल्कि मर्यादा के प्रतीक हैं, मर्यादापुरुषोत्तम हैं। अपने व्यापक अर्थों में कबीर के राम और तुलसी के राम एक ही हैं। दोनों में एक तत्त्व- मर्यादा की उपस्थिति है।
कबीर हरदी पीयरी चूना उज्जल भाइ, रामसनेही यूँ मिले, दून्यू बरन गँवाइ।। (कबीर)
 जाके प्रिय न राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि वैरी सम यद्यपि परम सनेही। (तुलसी)
काव्यशास्त्रीय विभेदों को अलग रखकर, सगुण-निर्गुण की विभाजक रेखा को मिटाकर और ऐसे ही अन्य विभेदों को, प्रचलित भ्रांतियों-धारणाओं को हटाकर विचार किया जाए तो महाराष्ट्र से, पंढरपुर से चलकर उत्तर भारत में और फिर सारे विश्व में प्रचारित-प्रसारित होने वाली विश्वधर्म की संकल्पना के संवाहक के रूप में कबीर और तुलसी की भूमिका अद्वितीय है, अनुपम है।
हिंदी में तुलसी और कबीर के व्यवस्थित, समग्र, सचेत अध्ययन की स्थिति को पूर्ण नहीं कहा जा सकता है। कबीर और तुलसी के संदर्भ में विदेशी विद्वानों के कथनों और उनके द्वारा किए गए कार्यों के आधार पर इस धारणा को पुष्ट किया जा सकता है। कबीर और तुलसी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर अध्ययन-अनुसंधान की शुरुआत के बहुत पहले से इन दोनों का स्थान लोक-व्यवहार में उच्चतम स्थिति पर था। गाँवों-कस्बों में टिमटिमाते दिये की रोशनी में रात-रातभर रामचरितमानस का पाठ करते अनपढ़ लोग, बात-बात पर मानस की चौपाइयों का उल्लेख करके मर्यादित लोकजीवन की स्थापना करते सामान्य जन तुलसी की लोक-स्वीकार्यता का उनके प्रति अगाध श्रद्धा के साक्ष्य हैं। इसी तरह गाँवों की चौपालों में रात-रातभर कबीरी (कबीर के भजन) गाते लोग, गाँवों-कस्बों में स्थापित कबीर गद्दियाँ लोक-जीवन में कबीर के उच्चतम स्थान को प्रकट करतीं हैं। लोक-व्यवहार में, लोक-जीवन में कबीर और तुलसी की स्थिति समाज-सुधारक, चिंतक, पथ-प्रदर्शक और सच्चे संत की थी। वहाँ कबीर और तुलसी आलोचना के पात्र नहीं थे, बल्कि आगाध जन-श्रद्धा और जन-आस्था से जुड़े थे। कबीर और तुलसी के लोक-व्यवहार से शिष्ट साहित्य में आने के साथ ही यह स्थिति बदलने लगी। इन दोनों भक्त कवियों की, विशेषकर तुलसी की ऐसी व्यापक और वीभत्स आलोचना शुरू हुई, जिसने लोक-व्यवहार और शिष्ट साहित्य, दोनों को दिशाहीन कर दिया।
प्रायः विदेशों से आयातित सामग्री या चिंतन या दिशा-निर्देश अपना अलग महत्त्व रखते हैं और प्रायः गर्वानुभूति भी देते हैं। यह प्रायः कच्चे माल का विदेश जाना और वहाँ से निर्मित माल के आयातित होने जैसा है। हम गर्व करते हैं, जब हमें कोई बाहरी यह बताता है कि अमुक मूल्यवान धरोहर हमारे पास है। हम अपनी धरोहर की महत्ता का मूल्यांकन स्वयं नहीं कर पाते। हजारों वर्षों की गुलामी के कारण शायद हमारी मानसिकता में यह दोष लग गया है। इस स्थिति को बदलने की जरूरत है।     
हिंदी के भक्ति-काव्य की चारों धाराओं का, इनके प्रतिनिधि कवियों का अध्ययन पुरानी परिपाटी पर, रटे-रटाए सिद्धांतों पर और घिसी-घिसाई अवधारणाओं पर होता रहा है। युगीन परिस्थितियों के अनुरूप, परिवर्तित मूल्यों के सापेक्ष और अपने मूल्यांकन के स्वतः मूल्यांकन की प्रक्रिया पर चलना जीवंत-जागृत साहित्य का लक्षण होता है। इसी आधार पर सगुण और निर्गुण पंथ के प्रतिनिधि कवियों का मूल्यांकन अपेक्षित है। पाश्चात्य चिंतनधारा में प्रचलित कुछ शब्द, जैसे- आदर्शवाद, यथार्थवाद, मानवतावाद और मूल्यवाद आदि को आयातित करके हम अपनी धरोहर की समृद्धि का विस्मरण कर बैठते हैं। इसी कारण पश्चिम के चश्मे से अपनी धरोहर को देखने का प्रयास करने लगते हैं। संत कबीर और तुलसी के कृतित्व का इसी आधार पर मूल्यांकन आधुनिक संकल्पना की देन है, जबकि पाश्चात्य चिंतनधारा के अनेक तत्त्वों से अधिक और समृद्ध तत्त्व तुलसी और कबीर के कृतित्व में उपलब्ध हैं। मूल्यांकन और अनुसंधान की इस आधुनिक नवोदित परंपरा का अपना महत्त्व है। यह सार्थक और सफल होगा, यदि इसमें पूर्वाग्रह और पक्ष-विपक्ष के निम्नस्तरीय विचारों को अलग ही रखा जाए।
यह अत्यंत सुखद संयोग है कि अक्कलकोट की इस पावन-पुनीत नगरी में तुलसी और कबीर के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा हो रही है। बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र से प्रारंभ हुई भक्ति-काव्य परंपरा ने समूचे देश को, विश्व को प्रभावित किया था। तुलसी और कबीर उसी परंपरा के संवाहक थे। आज नए समय में नई भूमिका के लिए यह परिसंवाद संगोष्ठी अगर इतिहास को दुहरा सकेगी, तो संगोष्ठी की सार्थकता भी स्थापित होगी और मानवता का कल्याण भी हो सकेगा।
डॉ. राहुल मिश्र

Tuesday 1 July 2014

IMPORTANCE OF KALACHAKRA कालचक्र का महत्व

कालचक्र का महत्त्व
कालचक्र अनुष्ठान का बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा में अपना विशेष स्थान है। भारत की पुरातन पूजा परंपरा में कालचक्र का विशेष महत्त्व रहा है। कालचक्र संस्कृत भाषा का शब्द है। भोट भाषा में इसे दुस-खोर-वङ-छेन कहा जाता है। काल का सरल अर्थ समय होता है और चक्र का अर्थ निरंतर गतिमान रहने वाला पहिया होता है। इस तरह कालचक्र का सीधा सा अर्थ समय का चक्र होता है। कालचक्र या समय का चक्र प्रकृति से अपना संबंध बनाए रखते हुए ज्योतिषशास्त्र के द्वारा विचार करके सूक्ष्म आंतरिक ऊर्जा के विकास और आध्यात्मिक चेतना को जगाने के अभ्यास के मेल से बनने वाला तांत्रिक ज्ञान होता है।
बौद्ध धर्म में चार प्रकार की तांत्रिक साधनाएँ बताई गईं हैं। चर्यातंत्र और क्रियातंत्र मूल रूप से तांत्रिक साधनाएँ नहीं हैं, जबकि योगतंत्र और अनुत्तरयोगतंत्र में तांत्रिक साधना होती है। अनुत्तरयोगतंत्र के तीन उपविभाजन होते हैं। इनमें पहला मातृतंत्र या प्रज्ञातंत्र है, दूसरा पितृतंत्र या योगतंत्र है और तीसरा अद्वयतंत्र है। कालचक्रतंत्र अद्वयतंत्र का मूल ग्रंथ माना जाता है। कालचक्रतंत्र के विषय की व्यापकता को देखते हुए इसे कालचक्रयान नाम भी दिया गया है। कालचक्रतंत्र का मूल ग्रंथ संस्कृत में है, जो पाँच खंडों में विभाजित है। बौद्ध तंत्रों में मूलतंत्र, भाष्यतंत्र और लघुतंत्रों की परंपरा मिलती है। कालचक्रतंत्र के अनेक भाष्यतंत्र और लघुतंत्र वर्तमान में उपलब्ध हैं। आचार्य अभयाकर गुप्त, आचार्य धर्माकरशांति, आचार्य विमलप्रभाकर और आचार्य नारोपाद द्वारा कालचक्र पर भाष्यग्रंथ और टीकाएँ लिखी गईं हैं, जिन्हें कालचक्रतंत्र के ज्ञान के लिए प्रमाणिक माना जाता है।
ईसा की तीसरी और छठवीं शताब्दी के बीच बौद्ध धर्म में इन तांत्रिक साधनाओं का उदय हुआ। इन साधनाओं का जन्म दक्षिण भारत में आंध्रप्रदेश के श्रीधान्यकटक क्षेत्र में हुआ। वर्तमान में यह क्षेत्र गुंटूर जिले के अमरावती और धरनीकोटा नामक शहरों के द्वारा जाना जाता है। इसी क्षेत्र में स्थित श्रीपर्वत तांत्रिक साधना का प्रमुख केंद्र बना। संभवतः इसी क्षेत्र में प्रख्यात बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन का जन्म हुआ था। नागार्जुन ने बौद्ध तांत्रिक साधनाओं पर अनेक भाष्य लिखे, अनेक रचनाएँ कीं। महायान परंपरा की शिक्षाओं की अपेक्षा तंत्र साधना की शिक्षा अत्यंत गुप्त रूप से दी जाती थी, और पात्र-अपात्र का विचार करके इन शिक्षाओं को दिया जाता था, इस कारण इसे गुह्यसमाजतंत्र नाम मिला। गुह्यसमाजतंत्र की उत्पत्ति दक्षिण भारत में हुई और दक्षिण भारत के सातवाहन शासकों के साथ ही महा-मेघवाहन, मौर्य, इक्ष्वाकु, पल्लव, सालकायना, विष्णु-कुंदिन, चालुक्य और विजयनगर शासकों ने गुह्यसमाजतंत्र साधना के विस्तार के लिए संसाधन उपलब्ध कराने और पर्याप्त संरक्षण प्रदान करने का कार्य किया। सातवाहन वंश के राजा हाल ने द्वितीय शताब्दी में आर्य नागार्जुन के लिए श्रीपर्वत शिखर पर एक विहार बनवाया था। कृष्णा और गोदावरी नदियों के किनारे बसे नागार्जुनकोंडा, अमरावती और धरनीकोटा नगरों में गुह्यसमाजतंत्र साधना का विस्तार हुआ। नागार्जुनकोंडा में मिले एक अभिलेख से पता चलता है कि इस क्षेत्र में स्थाविरों के संघ बने थे, जिनके माध्यम से कश्मीर, गांधार, चीन, किरात (वर्तमान तिब्बत और उसके आसपास हिमालय की तराई का इलाका), तोसलि (वर्तमान ओडिशा), यवन (वर्तमान अफगानिस्तान) और ताम्रपर्णी द्वीप (वर्तमान श्रीलंका) में बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ। ऐसी मान्यता है कि श्रीधान्यकटक क्षेत्र से ही मूल कालचक्र ज्ञान प्रसारित हुआ था। प्रसिद्ध तिब्बती विद्वान तारानाथ के अनुसार भगवान् बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के अगले वर्ष चैत्र मास की पूर्णिमा को श्रीधान्यकटक के महान स्तूप के पास ही कालचक्र का ज्ञान प्रसारित किया था। उन्होंने इसी स्थान पर कालचक्र मंडलों का सूत्रपात भी किया था। संभवतः इसी कारण जापान के बुश्शोकाई फाउंडेशन और नोरबूलिंगका इंस्टीट्यूट के अनुरोध पर परमपावन दलाई लामा ने भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण की 2550 वीं जयंती पर सन् 2006 में श्रीधान्यकटक में 31 वीं कालचक्र पूजा आयोजित की थी।
श्रीधान्यकटक से गुह्यसमाजतंत्र साधना और कालचक्र पूजा-साधना का विस्तार उत्तर भारत की ओर हुआ। ईसा की आठवीं शताब्दी के मध्य से नौवीं शताब्दी के मध्य तक कालचक्र पूजा-साधना आधुनिक पाकिस्तान की स्वात घाटी के ओड्डियान (उर्ग्यान) तक विकसित हो गई। इसी अवधि में पाल शासकों के संरक्षण में नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों में तंत्र-साधना के अध्ययन की शुरुआत हुई। ईसा की दसवीं शताब्दी के मध्य में कालचक्रतंत्र ग्रंथ की रचना हुई। आठवीं और बारहवीं शताब्दी के मध्य मठों और विश्वविद्यालयों से निकलकर चौरासी सिद्धों के माध्यम से तंत्र-साधना का विकास हुआ। इसी कालखंड में समूचे हिमालय परिक्षेत्र में गुह्यसमाजतंत्र साधना के अंतर्गत कालचक्र पूजा-साधना का विकास हुआ। कालांतर में दक्षिण भारत सहित उत्तर भारत और हिमालयी परिक्षेत्र के अतिरिक्त अन्य हिस्सों में प्रचलित वज्रयान बौद्ध परंपरा सिमटने लगी। जिस समय देश-दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तंत्र-साधना का प्रभाव कम होता जा रहा था, उस समय तिब्बत के धर्मभीरु शासक इस परंपरा को संरक्षण प्रदान कर रहे थे। लदाख अंचल समेत हिमालय की गोद में बसे भारतीय क्षेत्रों और नेपाल-भूटान आदि देशों में इस परंपरा का प्रभाव बना रहा।
बौद्ध ज्योतिषशास्त्र के अनुसार सारा ब्रह्माण्ड या संसार एक चक्र में बँधा हुआ होता है। यह चक्र चार स्थितियों- शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस से मिलकर बना होता है। कालचक्र तीन प्रकार का होता है। बाहरी, आंतरिक और वैकल्पिक कालचक्र। इन तीनों प्रकार के कालचक्र में शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस की स्थितियाँ होती हैं।
कालचक्र का बाहरी स्वरूप समय के मापन पर आधारित होता है। ग्रहों, नक्षत्रों की गति से हम समय के चक्र को जान सकते हैं। इसी तरह जन्म, जीवन और मरण की स्थितियों में काल की गति या समय चक्र चलता है। इस संसार में प्रत्येक जीवधारी काल, अर्थात् समय की गति से बँधा होता है। संसार के अन्य जीवधारियों की तुलना में मनुष्य सबसे अधिक समझदार, ज्ञानवान और विवेकवान होता है। मानव-सभ्यता का विकास भी इसी कारण हुआ है। मानव-सभ्यता के विकास-क्रम में बाहरी परिवेश और आंतरिक स्थितियों को जानने-समझने की चेतना का विकास भी हुआ। अंतरिक्ष विज्ञान और समय की गति को जानने की उत्सुकता भी मानव-सभ्यता के विकास के साथ ही उत्पन्न हुई। सौरमंडल की गति के वैज्ञानिक पक्ष और दार्शनिक पक्ष को कई तरीकों से व्याख्यायित किया गया। इसी से कालचक्र या समयचक्र की अवधारणा का विकास भी हुआ। सूरज का एक नाम कालचक्र भी होता है। सौरमंडल में सूरज के इर्द-गिर्द ग्रहों-उपग्रहों की चक्राकार गति चलती रहती है। सौरमंडल के ग्रहों-नक्षत्रों की गति की तरह सजीव और साथ ही निर्जीव वस्तुओं की गति चलती रहती है। उनकी उत्पत्ति के लिए एक वातावरण का निर्माण होता है, फिर उन्हें उत्पन्न होना होता है, उन्हें एक निश्चित अवधि तक सक्रिय रहना होता है और फिर उन्हें नष्ट हो जाना होता है। कालचक्रतंत्र की शून्य, स्वरूप, अवधि और विध्वंस की स्थितियों को कालचक्र के बाहरी स्वरूप में देखा जा सकता है। जन्म, बचपन, युवावस्था, वृद्धावस्था और मृत्यु का यह चक्र भौतिक जगत् में दिखाई पड़ता है। कालचक्र के बाहरी विधान के अनुरूप हम मौसम के बदलावों का अनुभव करते हैं। मौसम के बदलने के कारण शरीर और मन पर पड़ने वाले प्रभावों का हम अनुभव करते हैं।
संसार में कालचक्र की आंतरिक गति मानव-मन के अलग-अलग भावों और विचारों के लगातार बदलने पर आधारित होती है। आंतरिक जगत् में भी गति होती है। यह गति मानव-मन और विचारों में होती है। बचपन से लगाकर वृद्धावस्था तक ज्ञान, विवेक और समझ के अलग-अलग स्तर इसी गति को प्रकट करते हैं। इसी तरह राग, द्वेष, मद, लोभ, मोह, अहंकार, लालच, क्रोध आदि चित्तवृत्तियाँ भौतिक जगत् की स्थितियों के सापेक्ष मानव-मन में समय-समय पर उत्पन्न होती रहती हैं और नष्ट होती रहती हैं। कालचक्र की आंतरिक गति हमारे कर्मों के प्रभाव से परिवर्तित होती है और उसे हम महसूस करते हैं। इसी तरह मन, वाणी, कर्म की परिशुद्धि करके सम्यक् संबोधि प्राप्त करना भी कालचक्र की आंतरिक गति का लक्षण होता है। काल की इस गति को समझने की चेतना का विकास करने वाले साधक परिवर्तन की प्रक्रिया को जान-समझ पाते हैं। सामान्य मनुष्य इस गति को, इस चक्र को नहीं समझ पाते हैं।
काल के इस चक्र में परस्पर विरोधी तत्त्व शामिल होते हैं। इसमें कल्याणकारी तत्त्व भी होते हैं और अकल्याणकारी तत्त्व भी होते हैं। इन तत्त्वों का प्रभाव और व्यक्ति-विशेष में इन तत्त्वों की उपस्थिति उसके कर्मों के कारण होती है। कर्म का संयोग मन और वाणी से होता है। इनमें सबसे ज्यादा प्रभावशाली तत्त्व मानव-मन होता है। काल के चक्र को समझकर अगर मानव-मन की, आंतरिक जगत् के चक्र की परिशुद्धि कर दी जाए तो वाणी और कर्म की परिशुद्धि का मार्ग सुलभ हो जाता है। कालचक्र की वैकल्पिक गति बाहरी और आंतरिक कालचक्र के बीच तालमेल बनाने और मन, वाणी, कर्म के परिशोधन की इसी जटिल विधि पर आधारित होती है। कालचक्र अनुष्ठान और कालचक्र पूजा का विधान इसी वैकल्पिक गति पर आधारित होता है। मन, वाणी और कर्म की शुद्धि से; काय, वाक् और चित्त की शुद्धि से त्रिस्तरीय साधना सफल हो जाती है और आत्मज्ञान अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है।
साधना के विभिन्न स्वरूप इसी पूर्णता की प्राप्ति के माध्यम बनते हैं। तंत्र के माध्यम से ऐसी साधना का स्वरूप कालचक्र में होता है। कालचक्र पूजा के लिए बनाए जाने वाले रेत मंडल में सारे संसार का स्वरूप बना होता है। इसमें दसों दिशाएँ होतीं हैं। सकारात्मक और नकारात्मक भाव होते हैं। सकारात्मक भावों की रक्षा के लिए रक्षक होते हैं, धर्मपाल होते हैं और नकारात्मक भावों से लड़ने के लिए शक्तिशाली योद्धा भी होते हैं। कालचक्र मंडल में बुद्ध के 722 स्वरूप होते हैं। कालचक्र पूजा-अभिषेक के लिए प्रयोग में लाई जाने वाली रेत और धार्मिक कृत्य के लिए जल का प्रयोग भी अपने प्रतीकात्मक अर्थ रखते हैं। जिस तरह बारीक रेत को मुट्ठी में बंद करके नहीं रखा जा सकता है, वह झर-झर करके बंद मुट्ठी से निकल जाती है, और जिस तरह जल को मुट्ठी में रोककर नहीं रखा जा सकता, उसी तरह का स्वभाव काल का भी होता है, समय का भी होता है। समय की गति को पहचानकर उसका सार्थक उपयोग कालचक्र के प्रतीक आधारित महत्त्व को स्पष्ट करता है।
कालचक्रतंत्र के साथ शंबाला के धर्मभीरु राजाओं का मिथक भी जुड़ा हुआ है। ऐसी मान्यता है कि शंबाला का धर्मराज्य एक बार फिर से कायम होगा, इसके लिए धर्मयुद्ध होगा और विधर्मियों का संसार से सफाया होगा, धर्म का शासन स्थापित होगा। इस मिथक की परमपावन दलाई लामा ने बड़ी स्पष्ट और व्यावहारिक व्याख्या की है। उनका कहना है कि बौद्ध धर्म शांति और अहिंसा को मानने वाला है। इसमें धर्मयुद्ध का मतलब लोगों से युद्ध करना नहीं, बल्कि संसार में फैली बुराइयों से, दूषित चित्तवृत्तियों से लड़कर, उन्हें हराकर मानवता के, विश्वकल्याण के, सत्य-शांति-अहिंसा के धर्म का शासन स्थापित करना है।
ऐसा माना जाता है कि बौद्ध तंत्र-साधना में कालचक्रतंत्र की उत्पत्ति बहुत बाद में हुई। गुह्यसमाजतंत्र के एक अंग के रूप में, अनुत्तरयोगतंत्र की एक शाखा के रूप में कालचक्रतंत्र का उद्भव और विकास हुआ। नालंदा, राजगीर और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के माध्यम से कालचक्रतंत्र का प्रचार-प्रसार हुआ, किंतु कालांतर में कालचक्रतंत्र का महत्त्व बौद्धतंत्रों में लगातार बढ़ता गया। इसी कारण विमलप्रभाकर और अन्य टीकाकारों ने, बौद्ध आचार्यों ने कालचक्रतंत्र को तंत्रराज, आदिबुद्ध और बृहदादिबुद्ध नाम दिए हैं। क्षणभंगवाद, शून्यवाद, अनीश्वरवाद, अनात्मवाद, कर्मवाद, निर्वाण आदि बौद्ध मत, दर्शन और मान्यताएँ कालचक्रतंत्र-साधना में प्रकट होतीं हैं। इसी कारण बौद्ध धर्म के वर्तमान स्वरूप में कालचक्र-साधना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संभवतः इसी कारण परमपावन चौदहवें दलाई लामा ने कालचक्र अनुष्ठान को बौद्ध धर्म की सर्वोच्च पूजा-साधना के रूप में स्थापित किया है। उनके द्वारा कालचक्रतंत्र की जटिल पद्धति का सरल संस्करण तैयार किया गया है। उनके द्वारा कालचक्रतंत्र की व्याख्या वर्तमान वैज्ञानिक युग के अनुरूप की गई है। इस कारण कालचक्र अनुष्ठान के प्रति देश-दुनिया में जनस्वीकार्यता बढ़ी है। जाति-धर्म-क्षेत्र-भाषा के भेदभाव से हटकर कालचक्र अनुष्ठान के साथ देश-दुनिया की आस्था भी इसी कारण जुड़ी है।     
परमपावन चौदहवें दलाई लामा के संरक्षण में भारत की पुरातन परंपरा और हिमालयी परिक्षेत्र की अपनी अनूठी पहचान आज स्वयं को सुरक्षित रख पा रही है। परमपावन दलाई लामा ने विशिष्ट कालचक्र साधना को विश्वकल्याण, विश्वशांति और विश्वबंधुत्व जैसे महान मानवीय मूल्यों के साथ जोड़कर पुरातन-परंपरागत साधना-पद्धति को एक नया आयाम दिया है और इसे विश्वव्यापी भी बनाया है। परमपावन दलाई लामा के संरक्षण में अब तक बत्तीस कालचक्र अनुष्ठान संपन्न हो चुके हैं। इनमें से पहले दो अनुष्ठान तिब्बत की राजधानी ल्हासा के नोरबूलिङका मठ में संपन्न हुए हैं। बारह कालचक्र अनुष्ठान विदेशों में संपन्न हुए हैं और शेष अठारह कालचक्र अनुष्ठान भारत के विभिन्न क्षेत्रों में संपन्न हुए हैं।
दुनिया के तमाम मत, पंथ, संप्रदाय इस बात पर जोर देते हैं कि समाज में आपसी सौहार्द, समन्वय, भाईचारा और बंधुत्व की भावना का विकास हो। इसके लिए सभी मत-संप्रदाय विशेष प्रयास भी करते हैं और धार्मिक विधानों के माध्यम से सौहार्द-समन्वय स्थापित करते हैं। इसके लिए सभी मत-संप्रदाय एक निश्चित क्रम के अनुसार नियत समयांतराल में बड़े धार्मिक आयोजन करते हैं। ऐसे आयोजनों या विधानों में धर्म-विशेष के मानने वाले लोग आपसी भेदभाव को भुलाकर एकसाथ समय गुजारते हैं, धार्मिक आयोजनों में शरीक होते हैं। बौद्ध धर्म में आयोजित होने वाली कालचक्र पूजा के केंद्र में भी इस भावना को देखा जा सकता है। यह धार्मिक पूजा-अनुष्ठान का सामाजिक पक्ष है, जिसके मूल में मानवता की भावना निहित होती है, सामाजिक समरसता की भावना निहित होती है। अन्य धर्मों और मतों के द्वारा वृहद स्तर पर आयोजित किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठानों और आयोजनों-विधानों की तुलना में बौद्ध धर्म की परंपरागत कालचक्र पूजा का स्थान श्रेष्ठ है। अन्य धर्मों की तरह बौद्ध धर्म की कालचक्र पूजा में शामिल होने के लिए जाति-धर्म का कोई बंधन नहीं है। 28 दिसंबर, 2011 से 10 जनवरी, 2012 तक बोधगया में हुई 32 वीं कालचक्र पूजा में हॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता रिचर्ड गेर के साथ ही देश-विदेश के लगभग तीन लाख श्रद्धालु शामिल हुए थे। इन श्रद्धालुओं में बड़ी संख्या दूसरे धर्मों को मानने वाले लोगों की थी। धार्मिक भेदभाव, क्षेत्रीय भेदभाव और भाषाई भेदभाव को भुलाकर सबको इस पूजा में शामिल करने की पवित्र भावना बौद्ध धर्म की श्रेष्ठता को सिद्ध करती है। विश्वकल्याण के लिए, सारे संसार के सुख के लिए, समृद्धि के लिए और सत्य, शांति, अहिंसा, दया, करुणा, क्षमा जैसे महान मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए समर्पित कालचक्र पूजा इसी कारण अपना विशेष महत्त्व रखती है। दुनिया भर में अब तक संपन्न हो चुकी 32 कालचक्र पूजा के आयोजनों के सार्थक और जनकल्याणकारी पक्ष उभरकर सामने आए हैं। सारे संसार में कम से कम इस बात की चर्चा का माहौल तो बना ही है कि इस संसार को बचाने के लिए बौद्ध धर्म के मूल में स्थित भावना को; सत्य, शांति, अहिंसा, करुणा और दया-क्षमा जैसे गुणों को संरक्षित-संवर्धित किया जाए। इस दिशा में कालचक्र पूजा एक ऐसे सशक्त माध्यम के रूप में प्रचारित-प्रसारित हुई है, जिसने सारे संसार को बौद्ध धर्म के मानवतावादी और विश्वकल्याणकारी पक्ष से परिचित कराया है। इसी कारण परमपावन दलाई लामा के संरक्षण में आयोजित किए गए 32 कालचक्र अनुष्ठानों ने उत्तरोत्तर सफलता अर्जित की है और सारे संसार को मानवता के धर्म के साथ जोड़ने में अद्भुत योगदान दिया है। 03 से 14 जुलाई 2014 तक लेह-लदाख में होने वाला 33 वाँ कालचक्र अनुष्ठान सफल और सार्थक होगा, इसमें संदेह नहीं है।     
कालचक्र का धार्मिक महत्त्व जितना अधिक है, उतना ही सामाजिक और सांस्कृतिक महत्त्व भी है। कालचक्र अनुष्ठान एक अवसर है, एक सुखद संयोग है, पुरातन धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं को संरक्षित रखने का। इससे भी बड़ा पक्ष सामाजिक महत्त्व का है। कालचक्र अनुष्ठान के अवसर पर देश-दुनिया के तमाम लोग जाति और धर्म का भेदभाव मिटाकर एकजुट होते हैं। अमीर और गरीब का, ऊँच और नीच का भेद इस अवसर पर मिट जाता है। केवल एक ही ध्येय, केवल एक ही लक्ष्य सामने होता है, मानवता के कल्याण का, विश्व की शांति का, बंधुत्व और भाईचारे का। भौतिकतावाद, जाति-धर्म, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, भाषा-भूषा और सांस्कृतिक विभेद के बंधनों में जकड़े संसार को उसके इन बंधनों से मुक्त होने का रास्ता दिखाने वाली कालचक्र पूजा का सामाजिक पक्ष और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। समाज को एक सूत्र में बाँधने और संपूर्ण आर्यावर्त की पुरातन-परंपरागत विश्वबंधुत्व की भावना को; सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामया की भावना को बल प्रदान करने के लिए और मानवता के उच्च आदर्शों की स्थापना के लिए कालचक्र पूजा का बड़ा महत्त्व है। कालचक्र अनुष्ठान दुनिया-भर के उन लोगों को एकसाथ लाने का महान अनुष्ठान भी है, जो लोग मानवता के पक्षधर हैं, जिनके मन में करुणा, दया, सत्य, शांति और अहिंसा जैसे महान मानवीय मूल्यों के प्रति श्रद्धा है, आस्था है। निश्चित रूप से कालचक्र पूजा-अभिषेक का मानवता के कल्याण में, समस्त चराचर जगत् के कल्याण में योगदान रहा है और आगे आने वाले समय में भी रहेगा। 03 से 14 जुलाई 2014 तक लेह-लदाख में होने वाली 33 वीं कालचक्र पूजा के अवसर पर होने वाले महासंगम के परिणाम कल्याणकारी होंगे और सुखद भी होंगे।    
डॉ. राहुल मिश्र
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी लेह, दिनांक- 30 जून, 2014, प्रातः 0830 बजे प्रसारित)   




Monday 14 April 2014

आल्हा : बुंदेलखंड की अनूठी पहचान
ढोलक की थाप का साथ देती मंजीरे की धुन के साथ गाया जाने वाला वीरगीतात्मक काव्य आल्हा बुंदेलखंड की अनूठी तहजीब का बेमिसाल नगीना है। आल्हा में यूँ तो महोबा के दो वीरों की कथा है, किंतु आल्हा के गायन की अपनी विशिष्ट शैली के कारण यह दूर-दूर तक प्रसिद्धि पाया है।
लौकिक रास परंपरा की आदिकालीन रचना जगनिक कृत परमाल रासो के आधार पर प्रचलित आल्हा गीतों की उत्पत्ति की कथा जितनी रोचक है, उतना ही मर्मस्पर्शी है, इनका विकास और विस्तार भी। गौरवशाली अतीत से परिचित कराने के साथ ही समाज को एक सूत्र में बाँध सकने की क्षमता आल्हा गीतों में है।
जगनिक कृत परमाल रासो की प्राचीन पांडुलिपि अप्राप्य है और इस कारण यह माना जाता है कि जगनिक की यह रचना प्रायः लोक-कंठों में जीवित रही। सन् 1865 के आसपास एक अंग्रेज कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने आल्हा गवैयों की सहायता से वाचिक परंपरा में जीवित आल्हा को लिपिबद्ध    कराया। ऐसा ही प्रयास विसेंट स्मिथ ने किया। बाद में सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के संपादन में सन् 1923 में डब्ल्यू. वाटरफील्ड द्वारा हिंदी से अंग्रेजी में आल्हा का अनूदित संस्करण ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपा। लोकमहाकाव्य आल्हा को लिपिबद्ध करके संरक्षित और संकलित करने का यह संभवतः पहला प्रयास था। इसके बाद आल्हा के कई संस्करण अलग-अलग छापाखानों में छपे। आज भी गँवई-गाँव के मेलों में आल्हा की किताबें बिकती हुई देखी जा सकती हैं।
बनावट के लिहाज से इसमें बावन खंड हैं। संयोगिता स्वयंवर, परमाल का ब्याह, महोबा की लड़ाई, गढ़ मांडो की लड़ाई, नैनागढ़ की लड़ाई, बिदा की लड़ाई, मछलाहरण, मलखान का ब्याह, गंगाघाट की लड़ाई, ब्रह्मा का ब्याह, नरवरगढ़ की लड़ाई, ऊदल की कैद, चंद्रावल की चौथी लड़ाई, चंद्रावल की विदा, इंदलहरण, संगलदीप की लड़ाई, आल्हा की निकासी, लाखन का ब्याह, गाँजर की लड़ाई, पट्टी की लड़ाई, कोट-कामरू की लड़ाई, बंगाले की लड़ाई, अटक की लड़ाई, जिंसी की लड़ाई, रूसनी की लड़ाई, पटना की लड़ाई, अंबरगढ़ की लड़ाई, सुंदरगढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की दूसरी लड़ाई, भुजरियों की लड़ाई, ब्रह्मा की जीत, बौना चोर का ब्याह, धौलागढ़ की लड़ाई, गढ़चक्कर की लड़ाई, देवा का ब्याह, माहिल का ब्याह, सामरगढ़ की लड़ाई, मनोकामना तीरथ की लड़ाई, सुरजावती हरण, जागन का ब्याह, शंकरगढ़ की लड़ाई, आल्हा का मनौआ, बेतवा की लड़ाई, लाखन और पृथ्वीराज की लड़ाई, ऊदल हरण, बेला को गौना, बेला के गौना की लड़ाई, बेला और ताहर की लड़ाई, चंदनबाग की लड़ाई, जैतखंभ की लड़ाई और बेला सती। आल्हा के ये बावन खंड आल्हा गायकों को समग्रतः याद नहीं रहते। वैसे भी अब अल्हैतों की परंपरा सिमटती जा रही है। अब आल्हा के कुछ प्रचलित खंड ही प्रायः गाए जाते हैं।
बनावट की दृष्टि से देखा जाए तो आल्हा में लगभग सत्रह प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है। इसमें कहीं-कहीं संस्कृत के श्लोक हैं तो कहीं पर गद्य का प्रयोग भी हुआ है। वीर रस की प्रधानता होने के कारण इसका गायन भी ओजपूर्ण होता है। हर घटना और युद्ध या वीरता के बखान के लिये सुर और ताल के विशिष्ट उतार-चढ़ाव और अनूठी शैली श्रोताओं को न केवल मंत्रमुग्ध कर देती है, वरन् कथा का सटीक और जीवंत चित्रण भी कर देती है।
लोकमहाकाव्य आल्हा में आल्हा को ही नायकत्व का दर्जा प्राप्त है, क्योंकि वह दूसरे खंड से लेकर बावनवें खंड तक मुख्य भूमिका अदा करता है। वह वीरता, गंभीरता, धैर्य और साहस जैसे उदात्त गुणों का स्वामी है। राजा परमाल का व्यक्तित्व उनकी पदवी से मेल नहीं खाता है। वे राजा होने के बावजूद कायरता, स्वार्थ और भीरुता का प्रदर्शन करते हैं। परमाल की पत्नी मल्हना या मलना, आल्हा-ऊदल की माँ दिवला, मछला और बेला जैसे नारी पात्र भी हैं, जो मध्ययुगीन भारतीय महिलाओं का आदर्श प्रस्तुत करती हैं और वीरांगनाएँ भी हैं। आल्हा, ऊदल, मलखान और इंदल के चरित्र को विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिनके प्रश्रय में कथा का विस्तार होता है।
धर्म, अध्यात्म और संस्कृति का समन्वय आल्हा में स्पष्ट परिलक्षित होता है। आल्हा के गायन की शुरुआत में की जाने वाली स्तुति विभिन्न मत-मतांतरों के मध्य समन्वय स्थापित करती प्रतीत होती है—
सुमिर भवानी दाहिने, सनमुख रहे गनेस ।
पाँच देव रक्षा करें, ब्रह्म, विष्णु, महेस।।  
काली सुमिरौं कलकत्ते की, जगदंबा के चरन मनाय।
अन्नपूर्णा तिरवा वाली, जगमग जोत रही  छहराय।
सुमिर भवानी कलपी वाली, मनिया सुमिर महोबे क्यार।।
स्थानीय देव-देवियों की उपस्थिति आल्हा की लोकग्राह्यता की प्रतीक बन जाती है। यह लोकग्राह्यता वर्ण और जातियों के समन्वय और विभेद को मिटा देने के कारण भी है।
सगुन विचारै बनिया बाटू, बाम्हन लेय साइत विचार,
हम क्षत्रिय लोहा लादे हैं, सो हम बेचें  कौन  बजार।
नाई-बारी हो तुम नाहीं, घर के भइया  लगौ  हमार।
मान महोबै को रख लेबौ, दोनों हाथ  करौ तलवार।।
इसके साथ ही आल्हा में नीति व ज्ञान की बातें भी वर्णित हैं। यथा—
पानी जैसो बुलबुला है जो छन माँहीं जैहे  बिलाय,
सदा तुरैया ना वन फूलै यारों सदा न सावन होय।
सदा न मइया की कुक्षा में धरिहौ बार-बार अवतार,
जस अम्मर कर लेव जुद्ध में, काया छार-छार हुइ जाय।।
ऐसी ज्ञान व नीति की बातें भले ही कथा-विस्तार में महत्त्वपूर्ण स्थान न रखती हों, किंतु नीति व ज्ञान की अनूठी-अनौपचारिक पाठशाला के रूप में समाज के बड़े तबके को व्यावहारिकता सिखाने में बहुत खास भूमिका अदा करती है।
मनोरंजन और समय व्यतीत करने के साधन के रूप में आल्हा का गायन शिक्षाप्रद भी हो जाता था। इसमें अंतर्निहित ढेरों कथाएँ, गल्प और आख्यान प्रकीर्ण साहित्य की महत्त्वपूर्ण धरोहर हैं।
मध्ययुगीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थितियों के चित्र भी आल्हा में उभरते हैं। सिद्ध और नाथ पंथियों का प्रभाव, जादू-टोने, ज्योतिष, तंत्र और स्वप्न-अपशकुन, पुनर्जन्म तथा भूत-प्रेत आदि की उपस्थिति आल्हा को समग्रता प्रदान करती है। यही सब इसकी व्यापकता और स्वीकार्यता के केंद्र में है।
समूचे उत्तर भारत में, बुंदेलखंड, ब्रज, राजस्थान, बैसवारा, अवध और भोजपुर में विभिन्नताओं के साथ आल्हा गायन की, अल्हैती की व्यापक परंपरा प्रचलन में रही है। बरसात के समय, किसानों- मजदूरों के फुर्सत के समय गाँवों की चौपालों, अथाई और बैठकों में होने वाली अल्हैती सभी को एक सूत्र में जोड़ देती थी। आल्हा के तालन सैयद का चरित्र सांप्रदायिक एकता और सौहार्द का प्रतीक है—
राम का मित्तर जामवंत था और पांडों का कृष्ण अवतार,
आल्हा का ताला सैय्यद है, काम करे जो  सोच बिचार।
सैकड़ों वर्षों तक अपने वाचिक माध्यम से लोकमहाकाव्य आल्हा जनपदों, गाँवों और कस्बों में राष्ट्रीयता की अलख जगाने, नीति-विज्ञान सिखाने और मनोरंजन करने का माध्यम बना रहा। इसकी लोकप्रियता तुलसी के मानस के समकक्ष बैठती है। बिना पुस्तकाकार पाए, लोकजीवन में, लोक-कंठों में जीवित और निरंतर जीवंत रहने वाली यह विधा, यह काव्य आज देश के विकास के व्युत्क्रमानुपाती होकर मिट रहा है।

टेलीविज़न, इंटरनेट और अन्य संचार साधनों ने बहुत कुछ बदल दिया है। आज अल्हैते नहीं मिलते, गाँवों में अथाई नहीं लगती, बरसात में भी, आल्हा नहीं सुनाई पड़ता। यह संकट हमारी पहचान का है, हमारे अतीत के गौरव के क्षरण का है, हमारी संपदा के विनाश का है। इसे बचाने, संरक्षित और संवर्द्धित करने का दायित्व आज की पीढ़ी पर है, वरना आने वाली पीढ़ी के लिये आल्हा काव्य ही नहीं, शब्द भी अपरिचित रह जाएगा।
डॉ. राहुल मिश्र
{बुन्देली दरसन, अंक- 3, 2010, नगरपालिका परिषद्, हटा, दमोह (मध्य प्रदेश) में प्रकाशित}



 

Monday 29 April 2013

प्रज्ञा पारमिता, रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह


                         प्रज्ञा पारमिता
         बौद्ध धर्म की महायान-साधना में छः पारमिताओं फारोल-तु-छिन-पा के बारे में बताया गया है। प्रज्ञा पारमिता, दान पारमिता, शील पारमिता, क्षान्ति पारमिता, वीर्य पारमिता और ध्यान पारमिता। प्रज्ञा पारमिता या शेरब-कि-फारोल-तु-छिन-पा को छोड़कर शेष पाँचों पारमिताओं को उपाय, करुणा या पुण्य सम्भार कहा जाता है। प्रज्ञा पारमिता को ज्ञान सम्भार कहा जाता है। ‘पारमिता’ शब्द ‘परम’ से बना है। इसका अर्थ होता है, सबसे ऊँची स्थिति। पारमिता शब्द गुणों के पूरी तरह विकसित होने और सीमाओं-दशाओं-स्थितियों के बंधन से मुक्त होकर व्यापक विस्तार करने के अर्थ में प्रयोग होता है। इस तरह मानव-जीवन के परम लक्ष्य को पाने के लिए, निर्वाण या बुद्धत्व को पाने के लिए ये छः पारमिताएँ आवश्यक होती हैं। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य और ध्यान पारमिताओं को जीवन में उतारने की प्रेरणा देने का काम प्रज्ञा पारमिता के द्वारा होता है। प्रज्ञा की उत्पत्ति और इसका विकास करुणा या उपाय या पुण्य सम्भार के द्वारा होता है। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य और ध्यान पारमिताओं के द्वारा प्रज्ञा पारमिता को पूर्णता प्राप्त होती है। इस तरह ज्ञान सम्भार अर्थात् प्रज्ञा और पुण्य सम्भार अर्थात् दान, शील आदि पाँच पारमिताएँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं। यह अवश्य है कि पुण्य सम्भार के बजाय ज्ञान सम्भार अधिक श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण होता है। ज्ञान सम्भार का स्थान सबसे पहले आता है, क्योंकि यह मानव को असत् से सत् की ओर जाने का रास्ता दिखाता है। यह मानव को आत्म दीपो भव की सीख देता है। यह उस दीपक की तरह बनने की सीख देता है, जो संसार के अंधकार में भटक रहे लोगों को सही रास्ता दिखाता है। इस तरह ज्ञान सम्भार और पुण्य सम्भार दोनों मिलकर निर्वाण के मार्ग बन जाते हैं। निर्वाण प्रज्ञा के विकास की और प्रज्ञा के विकास के परिणाम के रूप में आए बदलाव की परम अवस्था है। निर्वाण शरीर के त्याग की या मृत्यु की स्थिति नहीं है। यह अविद्या या अज्ञान के त्याग की स्थिति है।
     प्रज्ञा के स्वरूप के बारे में विस्तार से बताने का कार्य आचार्य नागार्जुन ने किया है। उन्होने प्रज्ञा के साध्य व साधन स्वरूपों की स्थापना बौद्ध धर्म की महायान शाखा में की है। आर्यशत साहस्रिका प्रज्ञापारमितासूत्र, पञ्चविंशतिसाहस्रिकासूत्र और अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमितासूत्र को क्रमशः बृहद प्रज्ञापारमितासूत्र, मध्यम प्रज्ञापारमितासूत्र और लघु प्रज्ञापारमितासूत्र के रूप में जाना जाता है। इन प्रज्ञापारमितासूत्रों के दर्शन पक्ष के आधार पर आचार्य नागार्जुन ने माध्यमिक दर्शन की स्थापना की। आचार्य नागार्जुन द्वारा रचित मूल माध्यमिक कारिका में प्रज्ञापारमितासूत्रों का दर्शन पक्ष है।
     बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण या बुद्धत्व को प्राप्त करना होता है। निर्वाण या बुद्धत्व को पाने के लिए तीन मार्ग— शील, समाधि और प्रज्ञा बताए गए हैं। शील की परम अवस्था समाधि में होती है और समाधि से प्रज्ञा की प्राप्ति होती है। प्रज्ञा का काम शील का शुद्धिकरण करना होता है। इस प्रकार प्रज्ञा बुद्धत्व या निर्वाण को पाने की पहली सीढ़ी भी है और अंतिम सीढ़ी भी है।
         बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य— दुख, दुख का कारण, दुख का निरोध और दुख निरोध के उपाय में भी प्रज्ञा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दुख को दुख के रूप में समझने की चेतना का विकास प्रज्ञा के माध्यम से ही होता है। यदि दुख को, उसके सही स्वरूप को नहीं समझा जाएगा तब आर्य सत्य को और वास्तविकता को भी नहीं समझा जा सकता है। जब तक दुख के आवरण में छिपे सत्य को जानना संभव नहीं होगा, तब तक  दुख के निरोध की चेतना नहीं उत्पन्न होगी। जब तक इस चेतना का विकास नहीं होगा, तब तक चेतना द्वारा बताए गए दुख के निरोध के उपायों पर अमल करने का विवेक उत्पन्न नहीं होगा। जब तक विवेक उत्पन्न नहीं होगा, तब तक बुद्धत्व या निर्वाण को पाना भी संभव नहीं हो पाएगा। चेतना और विवेक का जन्म प्रज्ञा के विकास से ही होता है। इस कारण प्रज्ञा को महायान साधना का केंद्र माना गया है।
         प्रज्ञा को बुद्धि, मति, धृति, विवेक और ज्ञान भी कहा जाता है। ये सभी एक दूसरे के पर्याय हैं। लेकिन ज्ञान के विशेष, विलक्षण और पारमार्थिक स्वरूप के तौर पर प्रज्ञा अपने अन्य पर्यायों से पूरी तरह अलग और श्रेष्ठ है। उदाहरण के तौर पर किसी व्यक्ति को यदि किसी एक लिपि या भाषा में उपलब्ध विविध क्षेत्रों, जैसे- चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, गणित, दर्शन, इतिहास और साहित्य आदि का बहुत अच्छा ज्ञान है तो उसे ज्ञानी या विद्वान कहा जा सकता है, लेकिन उसे प्रज्ञावान नहीं कहा जा सकता। इसी तरह कई लिपियों या भाषाओं के माध्यम से ज्ञान के एक या कई क्षेत्रों में कोई व्यक्ति अच्छा विद्वान हो सकता है, मगर प्रज्ञावान नहीं हो सकता। यह ज्ञान भौतिक या सांसारिक कार्यों और व्यवहारों पर आधारित होता है। इस ज्ञान से मनुष्य को केवल भौतिक या सांसारिक लाभ ही हो सकता है। इसी तरह यह ज्ञान मानव के जीवन को केवल भौतिक रूप से ही प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यह ज्ञान पारमार्थिक नहीं होता। मुक्ति या मोक्ष या निर्वाण को इस ज्ञान से नहीं पाया जा सकता है।
   भौतिक या सांसारिक लाभ देने वाला यह ज्ञान तो मानव को वासनाओं और दुखों में धकेल देता है। जबकि प्रज्ञा वह आधार है, जो मानव-जीवन के पुण्यकर्मों को, मर्यादा को और मानव-जीवन की सार्थकता को स्थापित करती है। प्रज्ञा के द्वारा मानव को मुक्ति या निर्वाण का रास्ता मिलता है। दर्शन के अलग-अलग सिद्धांतों में प्रज्ञा को, इसके स्वरूप को और इसके संबंधों को बताया गया है।
  बोधिसत्व, करुणा, और निर्वाण, ये तीनों तत्त्व प्रज्ञा से जुड़े हुए हैं। इसी तरह कर्मवाद, कर्मनिष्ठा और कर्मफल भी प्रज्ञा से जुड़े हैं। प्रज्ञावान मानव अपने जीवन की सफलता के लिए इन तत्त्वों का महत्त्व समझता है और इन्ही के अनुसार अपने जीवन के आचरण पक्ष को चलाता है। जबकि विद्वान व्यक्ति इन तत्त्वों के महत्त्व को समझे बिना ही सांसारिक सुखों में ही खुश रह सकता है। इस तरह प्रज्ञावान और विद्वान के बीच के अंतर को समझा जा सकता है।
 किसी भी मानव में प्रज्ञा की उत्पत्ति संभव हो सकती है। इसके लिए विद्वान होना भी आवश्यक नहीं है। इसके बावजूद हर एक मनुष्य के लिए प्रज्ञा को पाना इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि वस्तु या संसार का उसके यथार्थ रूप में परिचय उसे नहीं मिल पाता। इस कारण वह सांसारिकता को उसी दृष्टि से देखते हुए दुख पाता रहता है या फिर दुख को ही सुख समझकर भूलवश अपने जीवन की सार्थकता को निरर्थकता में बदल बैठता है।
      महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन अपने चचेरे भाइयों, गुरु और परिजनों-मित्रों को युद्ध के मैदान में देखकर युद्ध करने से मना कर देते हैं। अपने परिवार के लोगों को मारकर युद्ध जीतना उनके लिए दुख का कारण बन जाता है। अर्जुन को इस तरह मोह और शोक में डूबा हुआ देखकर कृष्ण कहते हैं
                            अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
                        गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति  पण्डिता:।।
      हे अर्जुन! तुम उन लोगों के लिए दुखी हो, जो दुख करने के योग्य नहीं हैं और प्रज्ञावान की तरह बातें कर रहे हो। प्रज्ञावान उनके लिए दुख नहीं करते, जो मर चुके हैं या जो जीवित हैं और मृत्यु की ओर लगातार जा रहे हैं। कृष्ण को अर्जुन की कमजोरी का पता चलता है। वे जानते हैं कि अर्जुन झूठी करुणा के जाल में फँस गया है। उसके मन में मानवता के लिए जो प्रेम है, वह सच्चा नहीं है। यह सच्ची करुणा का भाव नहीं है, यह आध्यात्मिक विकास या सत्व गुण की उत्पत्ति भी नहीं है। यह उस अज्ञान या वासना का परिणाम है, जिसने अर्जुन की प्रज्ञा को ढक लिया है। अर्जुन की अज्ञानता या अविद्या को दूर करने का काम कृष्ण करते हैं।
कृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश सांख्य दर्शन के नाम से जाना जाता है। इसमें संसार को एक रंगमंच की तरह से देखा जा सकता है। जहाँ पर पात्र आते-जाते हैं, जन्म लेते और मरते रहते है। जीवन देने और लेने वाले पात्र अपने-अपने अभिनय को कुशलतापूर्वक करते हुए मंच से बाहर हो जाते हैं, वैसे ही यह संसार भी है। इस संसार को ऐसी दृष्टि से देखने वाले लोग शोक में या मोह में लिप्त नहीं होते। सांसारिक जीवन में ऐसे लोगों को प्रज्ञावान या प्रज्ञाधारण करने वाला कहा जा सकता है।
    सांख्य दर्शन आत्मा को शाश्वत मानता है, जबकि बौद्ध धर्म में आत्मा को क्षणभंगुर माना गया है। दोनों ही दर्शन अपने-अपने तरीके से आत्मा की व्याख्या करके मानव जीवन के आचार पक्ष को प्रज्ञा से जोड़ने का प्रयास करते हैं। इसलिए नित्य और अनित्य के इस भेद को हटाकर यदि कर्मवाद के नजरिये से देखा जाए तो दोनों दर्शन उस कर्म को प्रधानता देते हैं, जो मानव मात्र के कल्याण की भावना को और करुणा की भावना को अपने साथ लेकर चलता हो।
    संसार के कई धर्मों, मतों और संप्रदायों में प्रज्ञा को श्रेष्ठ माना गया है। इसी कारण अनेक विधियों, अनेक कथाओं-उदाहरणों और नीतिवचन-उपदेशों के माध्यम से मानव को उस प्रज्ञा का परिचय देने का प्रयास करते हैं, जो इस संसार को उसके वास्तविक रूप में दिखाने में सक्षम है। संत कवियों ने भी अपनी वाणी में प्रज्ञा को बड़े ही सरल और सहज ढंग से व्यक्त किया है। सरहपा लिखते हैं-
                  जहँ मन पवन न संचरइ, रवि-शशि नाहिं पवेश।
                  तहँ मूढ़ चित्त  विश्राम करु, सरह कहेउ उपदेस।।
प्रज्ञा को जानने के लिए धर्मों, मतों और संप्रदायों में की गई व्यवस्था तीन स्तरों में है। पहली सुनकर, दूसरी सुनकर उस पर चिंतन करते हुए और तीसरी भावना या विचार में बाँधते हुए। इसी कारण सत्संग, भजन, कीर्तन और प्रार्थना का विधान किया गया है। अपने वजूद को, अपने अस्तित्व को शून्य करके अपनी चिंता को संसार की चिंता के साथ जोड़कर चिंतन में लीन होने को श्रेष्ठ माना गया है। अगर सरल अर्थों में कहें तो प्रज्ञा मन और विचारों की वह स्थिति है, जो मानव को मानव से और दूसरे जीवों से प्रेम करना सिखाती है। यह अपने और पराए के अंतर को मिटाती है। यह सारे संसार के प्रति करुणा और प्रेम की भावना का विकास करती है। यह सच्चाई, ईमानदारी, दया, शांति और अहिंसा के भावों को समझाती है। जब प्रज्ञा की साधना अपने उच्चतम स्तर पर पहुँचती है, तब मानव अज्ञान या अविद्या से पार हो जाता है। यह स्थिति प्रज्ञा पारमिता या शेरब-कि-फारोल-तु-छिन-पा की है। देवालयों में स्थित मूर्तियाँ और चित्र सामान्य व्यक्ति को यही शिक्षा देते हैं। इसी कारण अपने परिवार के प्रति प्रेम को ही नहीं, बल्कि विश्वबंधुत्व की भावना को श्रेष्ठ माना गया है। श्रुति, चिंतन और भावना धारण के माध्यम से प्रज्ञा की साधना करने के लिए किसी धर्मकेंद्र की, देवालय या पवित्र स्थान की जरूरत नहीं होती।
शायद इसी कारण श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उस स्थान पर प्रज्ञा का स्वरूप बताया, जहाँ पर संसार की निःसारता और संबंधों-रिश्तों-नातों की कड़वी हकीकत का पर्दाफ़ाश होने वाला था। अर्जुन धनुर्विद्या का महारथी था, राजशास्त्र और नीतिशास्त्र का ज्ञानी भी था, किंतु युद्ध के मैदान में जब श्रीकृष्ण ने उससे कहा कि तुम शोक न करने वालों पर शोक करते हो और ज्ञान की बातें करते हो, तब श्रीकृष्ण के इस कथन से यह अर्थ भी निकल रहा था कि तुम धनुर्विद्या, नीति और राजशास्त्र का ज्ञान रखने के बावजूद पूरी तरह से अज्ञानी हो, बुद्धिहीन हो।
    संभवतः यही कारण रहा होगा, कि भगवान् बुद्ध ने अपना पहला उपदेश मृगदाव के घने जंगल में, टङ-सोङ-लुङ-वा-रि-दक्स-कि-नक़्स, में दिया, जहाँ सुंदर-सुसज्जित मंच न था, सांसारिक जीवन की चकाचौंध न थी, धन-दौलत भी नहीं थी। वह स्थान ऐसा था, जो यह बोध करा रहा था कि सारा संसार एक जंगल की तरह अव्यवस्थित, वीरान और हिंसक पशुओं से भरा हुआ है। यह प्रतीक था, यह सच्ची स्थिति थी, सही स्थान था, जहाँ बैठकर उस प्रज्ञा से साक्षात्कार किया जा सकता था, उस प्रज्ञा की साझेदारी की जा सकती थी, जो इस जंगलनुमा संसार को सुंदर-सजीले उपवन में बदल सकती थी।
वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण या वस्तु के यथार्थ स्वरूप को गलत तरीके से जानने के कारण उपजी अविद्या के आवरण को हटाकर सच्ची विद्या या प्रज्ञा से साक्षात्कार करने हेतु आचार्य शांतिदेव ने निर्वाणकामी, मोक्षकामी लोगों को रास्ता दिखाया है—
                     इमं  परिकरं    सर्वं  प्रज्ञार्थं   हि   मुनिर्जगौ।
                     तस्मादुत्पादयेत् प्रज्ञां दुःखनिवृत्तिकाङ्क्षया।।
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह, दिनांक- 22.04.2013, प्रातः 7 बजकर 35   मिनट पर)
                                                                         डॉ. राहुल मिश्र