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Thursday 30 June 2022

सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख

 


सत्तू, तागी और मोमोस जैसे व्यंजनों वाला लद्दाख

मोमोस शब्द और साथ ही इस नाम के व्यंजन का स्वाद आज किसी के लिए अनजाना नहीं है। बड़े-बड़े शहरों में मोमोस बाकायदा ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’ परोसने वाले होटलों में भी मिल जाते हैं, और सड़क के किनारे खड़े चाट के ठेलों पर भी ये सुलभ हो जाते हैं। बड़े शहरों की बात अलग ही है, यहाँ तो सबकुछ मिलना सुलभ-सरल है, लेकिन जरा कस्बाई और गँवई-गाँव के खानपान में उतरकर देखिए... आपको आश्चर्य होगा, कि यहाँ टिकिया, समोसा और कुछ आधुनिक होते समय के चाऊमीन-बरगर के साथ मोमोस भी मिल जाएँगे। हिम-आच्छादित लद्दाख का प्यारा और बहुत स्वादिष्ट व्यंजन- मोमोस... आज देश के कोने-कोने तक पहुँचा हुआ है।

किसी क्षेत्र-विशेष की सांस्कृतिक-सामाजिक पहचान का बड़ा अंग उस क्षेत्र के प्रचलित व्यंजनों से बनता है। क्षेत्र-विशेष अपनी पहचान गढ़ते समय अपने व्यंजनों के चटखारों का स्वाद उतारता है। इडली-डोसा का उल्लेख करते ही दक्षिण भारत का चित्र आँखों के सामने होता है। इसी तरह बुंदेलखंड की बेड़ही-लपसी, पूर्वांचल की बाटी-चोखा और पंजाब की मक्के दी रोटी-सरसों दा साग अलग-अलग भौगौलिक रंग हमारे सामने ले आते हैं। देश की सांस्कृतिक विविधता का यह बड़ा अंग है। देश को जोड़ने वाले व्यंजनों पर अगर बात करें, तो एक अद्भुत रोमांच मन में भर जाता है, जो देश की विवधता में एकता को अनेक बार हमारे सामने ले आता है। लद्दाख भले ही दुर्गम और जटिल हो, लोगों के मन में इस बर्फीले रेगिस्तान को लेकर भले ही अनेक भ्रांतियाँ, भय और आश्चर्यजनक बातें हों; लेकिन लद्दाख के व्यंजनों ने इन मिथों को बखूबी तोड़ा है। इसी कारण देश के सुदूरवर्ती ग्राम्यांचलों में भी लद्दाखी मोमोस की हनक देखने को मिलती है।

वैसे तो लद्दाख की पहचान तीन चीजों से रही है, उसके अपने अतीत में.....। ये तीन चीजें हैं- सत्तू, पट्टू और टट्टू...। आपको यह जानकर निश्चित रूप से आश्चर्य हो सकता है, कि सत्तू जो है, वह लद्दाख की पहचान में शामिल है, जुड़ा हुआ है। बाकी दो में से पट्टू, अर्थात् दुशाला लद्दाख की शीत से बचाने के लिए बहुत आवश्यक है और टट्टू, अर्थात् अश्वों की एक वर्णसंकर प्रजाति लद्दाख की प्राचीन यातायात व्यवस्था का अभिन्न और प्रमुख अंग रहा है। लद्दाख में यातायात व्यवस्था के अंग के रूप में याक (चमरी मृग) और यारकंदी ऊँट (दो कूबड़ वाले) भी आते हैं, लेकिन नाम तो टट्टुओं का ही चलता है। इसका बड़ा कारण यह है, कि स्थानीय आवागमन और सामान ढुलाई के लिए टट्टू ही अधिकतर उपयोग में आते थे, जबकि यारकंदी ऊँट और याक की भूमिका प्रायः लंबी और दर्रों को पार करने वाली पहाड़ी यात्राओं में विशेष रूप से होती थी। ये सारी बातें इसलिए कहीं, कि सत्तू का महत्त्व भी कुछ इसी प्रकार का देखा जा सकता है, लद्दाख के जटिल जीवन में...।

लद्दाख में जौ की फसल पर्याप्त मात्रा में होती है। इस कारण लद्दाख में जौ का सत्तू चलन में है। भारत के मैदानी क्षेत्रों, जैसे- मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और बिहार आदि में चने का सत्तू चलता है। लद्दाख में चने की पैदावार नहीं है, लेकिन सत्तू बनाने की विधि है, सत्तू भी है... भले ही जौ का ही क्यों न हो..। जौ का सत्तू न केवल पौष्टिक होता है, वरन् इसकी तासीर गर्म होती है, जबकि चने के सत्तू की तासीर ठंडी होती है। यह भी एक बड़ा कारण लद्दाख में जौ के सत्तू के चलन के पीछे है। यह देखन बहुत रोचक है, कि सत्तू, जिसे लद्दाखी भाषा में ‘फे’ बोलते हैं, उसका प्रयोग क तरीके से रसोईघर और अतिथिगृह में होता है। कुछ व्यंजनों में इसका उपयोग किया जाता है, पूजा-पाठ में भी इसका उपयोग होता है। इसके अतिरिक्त यह सबसे अधिक चाय के साथ खाया या पिया जाता है।

लद्दाख में पानी पीना किसी चुनौती से कम नहीं, इस कारण भारत के मैदानी क्षेत्रों की तरह यहाँ पर अतिथियों के आगमन पर उन्हें पानी के लिए नहीं पूछा जाता है, चाय के लिए पूछा जाता है। चाय भी कई तरह की...., जैसे- गुरगुर चाय, लिप्टन चाय, ग्रीन टी और कहवा आदि। ग्रीन टी और कहवा से तो सभी परिचित होंगे, वैसे परिचित तो लिप्टन चाय से भी होंगे.... भ्रम केवल नाम के कारण हो सकता है। लिप्टन चाय दरअसल दूध वाली मीठी या शर्करामुक्त चाय के लिए प्रयोग होने वाला नाम है। इस नाम के माध्यम से लद्दाखी लोग चाय का एक भेद गढ़कर अतिथि को उसके चाय-चयन में मदद दे देते हैं। सबसे अधिक प्रचलित और प्रिय गुरगुर चाय है, लद्दाख में। यह पसंद तिब्बत तक बिखरी हुई है..., कह सकते हैं, कि समूचे हिमालयी परिक्षेत्र में गुरगुर चाय का चलन है।

गुरगुर चाय वस्तुतः मक्खन डालकर बनाई गई नमकीन चाय है। इसके अपना नाम भी इसके बनाने में होने वाली ध्वनि से मिला है। लंबे बेलनाकार बरतन में मथानी जैसे डंडे से मथकर यह बनती है, और मथते समय गुरगुर की आवाज होती है। थोड़ी-सी चायपत्ती और मक्खन से बनी गुरगुर चाय में अनूठा-सा सोंधापन होता है। यह शरीर में नमक और पानी की मात्रा संतुलित करती है। गुरगुर चाय की प्याली के साथ सत्तू भी परोसा जाता है। अतिथिगण चाय की प्याली में सत्तू घोलकर या तो पी जाते हैं, या फिर खा लेते हैं। सत्तू ऐसा आहार है, जिसे आप तैयार खाद्य या ‘फास्ट फूड’ की श्रेणी में भी आसानी से रख सकते हैं। किसी भी यात्रा के लिए यह साथ ले जाने वाला सर्वोत्तम आहार है। कहीं पर भी खाया जा सकता है, कैसे भी खाया जा सकता है। मध्यभारत में तो सत्तू-नमक लेकर ढूँढ़ना... जैसे मुहावरे भी बने है। सत्तू यात्राओं के लिए बहुत उपयुक्त रहा है, विशेषकर जटिल-कठिन यात्राओं के लिए...।

लद्दाख यात्राओं के मार्ग का पड़ाव जैसा है। लद्दाख के ऊपरी हिस्से से होकर रेशम मार्ग निकलता है। लद्दाख की नुबरा घाटी रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए एक आरामगाह जैसी रही है। इसके साथ ही भारत के अन्य हिस्सों के लिए उतरने वाले संपर्क मार्गों के कारण लद्दाख एक बड़े व्यापारिक केंद्र व ठहराव के रूप में अपनी भूमिका निभाता रहा है। होशियारपुर के अनेक व्यापारियों के ठिकाने आज भी लेह में देखे जा सकते हैं। गुरु नानक अपनी यात्राओं के क्रम में लद्दाख भी पधारे थे। लेह के निकट गुरुद्वारा दातून साहिब और लेह-श्रीनगर राजमार्ग पर गुरुद्वारा पत्थरसाहिब उनकी यात्रा की अविस्मरणीय गाथा को आज भी गाते हैं।

एक समय ऐसा भी था, जब लेह बाजार में मध्य एशिया के हर हिस्से का प्रतिनिधित्व दिखाई देता था; व्यापारियों, क्रेता-विक्रेताओं, पहनावों और बिकते व्यंजनों के रूप में...। लेह बाजार में गुरुद्वारा दातून साहिब के पास ही नहीं, प्रायः पूरे लद्दाख में एक वर्ग ऐसा मिलेगा, जो तंदूरी रोटी बनाने-बेचने का काम करता है। इन्हें स्थानीय भाषा में नानवाई कहते हैं। इनके द्वारा बनाई तंदूरी रोटी लद्दाखी भाषा में ‘तागी’ कही जाती है। यह तागी कब रेशम मार्ग से उतरकर लद्दाख की ‘तागी’ और फिर पंजाब की ‘तंदूरी’ बनकर सारे देश और दुनिया में फैली...., जानना बहुत रोचक और रोमांचकारी होगा।

रेशम मार्ग पर चलने वाले यात्रियों और व्यापारियों के लिए दाना-पानी कितना जटिल रहा होगा, इसका अनुमान लगाना भी कठिन है। रेशम मार्ग में यात्रा करने के लिए पूरा का पूरा लाव-लश्कर होता था, जिसमें दो कूबड़ वाले ऊँटों पर चमड़े के बने थैलों में पानी, तागी या तंदूरी रोटी आदि के चलते-फिरते भंडार भी होते थे। इनके साथ ही समोसा जैसे व्यंजन भी होते थे, जो आटे के अंदर तीखा-चटपटा मसाला भरकर बनाए जाते थे। समोसा की उत्पत्ति भी यहीं से हुई, ऐसा कह सकते हैं। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था, बल्कि दर्शन-चिंतन-वैचारिकता की अनेक बातें भी इस मार्ग से आती जाती रहीं हैं। अनेक अध्येताओं ने इस रास्ते से चलकर ज्ञान की खोज की है। संस्कृतियों के आदान-प्रदान के साथ ही खान-पान की आदते और व्यंजन भी रेशम मार्ग से आए-गए हैं। और इन सबका प्रभाव आज भी लद्दाख में देखा जा सकता है। लद्दाख को यूँ ही नहीं मध्य एशिया का बड़ा केंद्र कहा जाता...।

प्रायः भौगोलिक परिस्थितियाँ और जलवायु के कारक क्षेत्र-विशेष के आहार-विहार को प्रभावित करते हैं। लद्दाख में यह पक्ष प्रमुख रूप से दिखता है। इसी कारण लद्दाखी व्यंजन देश के अन्य भागों के व्यंजनों से अलग बनते हैं। लद्दाखी व्यंजन स्थानीय आवश्यकता के अनुसार प्रायः पर्याप्त तरल होते हैं। अकसर सूप तरलता को बढ़ाने का काम करते हैं। मैदानी क्षेत्रों में मोमोस को भले ही चटनी के साथ खाने का चलन हो, लेकिन लद्दाख में मोमोस सूप के साथ ही खाए जाते हैं। मोमोस के अतिरिक्त थुक्पा में भी पर्याप्त सूप होता है। थुक्पा व्यंजन में मोटी सेवइयाँ जैसी होती हैं, जिन्हें खूब रसेदार सूप में डालकर पकाया जाता है, और गरम-गरम पी लिया जाता है। इससे शरीर में गरमी भी आती है, और पानी की कमी भी साथ-साथ पूरी होती जाती है। ‘स्क्यू’ भी कुछ इसी तरह का व्यंजन होता है। इसमें ढेर सारी सब्जियाँ- पालक, मंगोल, लाल मटर आदि डालकर खूब तरल करके पकाया जाता है, और खौलती हुई तरल सब्जी में आटे के गोल-चौकोर टुकड़े जैसे डालकर उबाला जाता है। इसे भी रसेदार बनाते हैं और इसे भी सूप की तरह से पीते हुए खाया जाता है।

खोलक एकदम अलग तरह का व्यंजन है। लद्दाख में चपातियाँ बनाने का विधान नहीं है। चपाती के रूप में अगर कहें, तो ‘तागी’ ही है, जिसका उल्लेख पूर्व में किया गया है। एक रोचक बात ‘तागी’ के बारे में बताना यहाँ आवश्यक लगती है। लद्दाख में एक कहावत कही जाती है- ‘बेचारा रोटी खाकर जिंदा है..।’ यह कहावत गरीब-दीन-हीन व्यक्ति के लिए कही जाती है। लद्दाख में चावल विशिष्ट और कुलीन वर्ग का आहार माना जाता था। लद्दाख में चावल पैदा नहीं होता था, जिस कारण चावल बहुत महँगा बिकता था। दूसरी तरफ नानवाई की रोटियाँ सहज सुलभ थीं, हर वर्ग के व्यक्ति के लिए..। आज स्थिति ऐसी नहीं है, लेकिन अतीत की यादें जीवंत हैं। हम बात कर रहे थे, लद्दाखी व्यंजन खोलक की..। यह एक तरह से चपाती का ही रूप है, लेकिन इसे सीधे आँच में नहीं पकाया जाता। मैदा या आटा को सानकर उसका कलात्मक लड्डू जैसा आकार बनाकर भाप में पकाया जाता है। फिर उसे दाल में डालकर या सब्जी के साथ खाया जाता है।

लद्दाख की जलवायु के अनुसार यहाँ के प्रायः सभी व्यंजन कम मसालेदार और भाप में पके हुए होते हैं। इनको पकाने के लिए अलग तरह के बरतन भी होते हैं। वैसे लद्दाखी रसोई भी कम कलात्मक नहीं होती। लद्दाखी घरों में रसोई केवल खाना पकाने के लिए नहीं होती, वरन् खाना खाने और घंटों बैठकर गपशप करने के लिए भी होती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लद्दाख और तिब्बत की अपनी यात्राओं के साथ यहाँ के रसोईघरों का भी रोचक वर्णन किया है। वे यह भी लिखते हैं, कि बाहरी व्यक्ति के लिए रसोई तक पहुँचना कठिन नहीं होता। रसोईघर में चूल्हा कुछ इस तरह का होता है, कि उसके निकट बैठकर शीत से बचाव किया जा सकता है। इस तरह पूरा परिवार और अतिथिगण भी रसोई में बैठकर गरमागरम भोजन का आनंद ले सकते हैं, शीत से स्वयं को बचाते हुए। यह व्यवस्था एक तरह से कम संसाधनों का उपयोग करते हुए जीवन जीने की कला भी सिखाती है।

विश्वग्राम की संकल्पना ने सारी दुनिया को एक जगह पर समेट दिया है। जिस तरह मोमोस लद्दाख से निकलकर सुदूरवर्ती गाँवों तक पहुँचे हैं, उसी तरह से चोखा-बाटी, इडली-डोसा, जलेबी-टिकिया आदि लद्दाख में भी सुलभ हैं। इतना ही नहीं लद्दाख के बड़े होटलों के साथ ही छोटे-छोटे होटलों और रेस्टोरेंट्स में ‘इंटरकांटिनेंटल डिशेज़’ भी खूब मिलती हैं। लद्दाख उभरते हुए पर्यटन केंद्र के रूप में देश ही नहीं विश्व में अपनी पहचान बना चुका है। इस कारण देश-दुनिया के पर्यटकों के साथ देश-दुनिया की खान-पान की आदतें और व्यंजन भी लद्दाख पहुँचे हैं। आज के समय में सत्तू लद्दाख के दूर-दराज के गाँवों में सरलता से मिल सकता है, अपेक्षाकृत लद्दाख के शहरी  क्षेत्रों के...। आधुनिकता ने बहुत कुछ बदला है। यह बदलाव खान-पान में भी आया है। यह सांस्कृतिक संक्रमण का समय है। लद्दाख के ठंड से ठिठुरते समय में बैठकर मसाला डोसा खाना एकदम अलग अनुभव देता है। किसी गाँव के चाट के ठेले में खड़े होकर मोमोस खाना भी अलग ही लगता है। अगर गहरे उतरकर सोचें, तो कई-कई बार यह अनुभूत होता है, कि हम व्यंजन नहीं, देश को एक सूत्र में पिरोने वाले सूत्रों का सुख व आनंद अपने अंदर उतार रहे हैं।

-राहुल मिश्र (आचार्य अनामय)

(कश्फ, अर्धवार्षिकी, संयुक्तांक दिसंबर, 2021 से जून, 2022, वर्ष- 20-21, संपादक- डॉ. विनोद तनेजा, अमृतसर में प्रकाशित)

Saturday 19 March 2022

पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

 


पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

पूर्वोत्तर भारत, भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश। किसी समय इस समग्र प्रदेश को ‘नेफा’, यानि ‘नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ के नाम से जाना जाता था। ईशान्य ही ‘नार्थ-ईस्ट’ है। भारतीय वाङ्मय के अंतर्गत आने वाले शिल्पशास्त्र में वास्तुशिल्प का अपना विशिष्ट स्थान है और इसे विधिवत् शास्त्र की संज्ञा दी जाती है। वास्तुशिल्पशास्त्र में ईशान्य का विशेष महत्त्व बताया गया है। ईशान, अर्थात् हरमहेश्वर रुद्र और प्रकृति के आदिपुरुष शिव से भी इस दिशा को पहचान सकते हैं। वास्तुपुरुष मंडल में उत्तर-पूर्व की दिशा मस्तक की होती है। यह ग्रहाधिपति सूर्य की दिशा होने के कारण सर्वाधिक ऊर्जावान होती है। इस कारण प्रवेश-द्वार, द्वारमंडप और ध्यान-पूजा इत्यादि के लिए इस दिशा को सर्वथा उपयुक्त बताया गया है। भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश, या पूर्वोत्तर प्रदेश इसी दृष्टि से अत्यंत समृद्ध, प्राचीन और विशिष्ट है। इसी कारण भक्ति के भावों की व्याप्ति पूर्वोत्तर के कण-कण में है। इसी कारण पूर्वोत्तर के जीवन में भक्ति के भाव रचे-बसे हुए हैं।

भक्ति-साहित्य, स्वंय में एक रूढ़ शब्द है, जो काल-विशेष में रची गई भक्तिपरक रचनाओं का द्योतक है। मध्यकाल के पूर्वार्ध में, सन् 1350 से 1650 ई. के आसपास दक्षिण भारत के भक्तकवियों की रचनाओं के उत्तर भारत में आते प्रभावों के फलस्वरूप उत्तरभारत के भक्तकवियों द्वारा रची गई भक्तिपरक रचनाएँ ही सामान्यतः भक्ति-साहित्य की श्रेणी में रखी जाती हैं। इसी कारण भक्तिकाल और भक्ति-साहित्य एक विशेष कालखंड और उस कालखंड में रची गई रचनाओं के लिए रूढ़ हैं। इस दृष्टि से अगर देखें, तो पूर्वोत्तर भारत के भक्ति-साहित्य के अनुशीलन हेतु एक सीमारेखा बनी हुई प्रतीत होने लगती है, जो स्वयं में संकुचित और अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों-विषयों को अपनी परिधि से बाहर छोड़ देती हुई दिखाई पड़ती है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य को इस सीमारेखा में बाँधकर जानना-परखना इसी कारण उचित नहीं होगा।

इस निश्चित सीमा से अलग हटकर यदि भक्ति के भाव से ओतप्रोत साहित्य को देखें, तो सृष्टि के आदिम काल से ही भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य दिखाई पड़ने लगता है, जिसमें श्रद्धा और प्रेम का सम्मिश्रण मानवीय अभिव्यक्तियों में मुखर होता है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को इसी दृष्टि से यहाँ बताने का प्रयास किया गया है। पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृति अपने स्वरूप और अपने परिचालन में इतनी प्राचीन है, कि उसमें श्रद्धा और प्रेम के भाव, जिन्हें सम्मिलित रूप में भक्ति कह सकते हैं, सृष्टि की दृश्य-अदृश्य शक्तियों के प्रति प्रकट होते रहे हैं। इसका प्रथम दर्शन पूर्वोत्तर के शिष्ट या लिखित साहित्य से कहीं आगे प्रकीर्ण साहित्य में होता है; लोकगीतों, किस्सों-कथाओं, लोकनृत्यों आदि में होता है।

अविभाजित पूर्वोत्तर, अर्थात् भाषायी-जातीय-क्षेत्रीय पहचान के आधार पर आठ अलग राज्यों में बँटे पूर्वोत्तर का प्राचीन स्वरूप ऐसा रहा है, जहाँ जनजातीय समूहों के बीच प्रकृति की पूजा का क्रम अलग-अलग विधि-विधानों के साथ एकसमान रूप से चलता रहा है। यही एक तत्त्व विभिन्न भाषायी-जनजातीय विभेदों को किनारे रखकर समूचे पूर्वोत्तर को एक सूत्र में बाँधे रहा है। प्रकृति की पूजा में भी प्रकृति के आदि पुरुष और प्रकृति की आदिशक्ति, अर्थात् शिव और शक्ति की पूजा होती रही है। असम के बोडो जनजातीय समूह में दिवा और दिवि को आद्य देवी-देवता की मान्यता प्राप्त है। ये शिव और पार्वती के प्रतीक हैं। इसी प्रकार देउरी जनजातीय समूह में गिरा और गिराची की पूजा होती है। लालुंग समूह फा महादेव को अपना आदिदेव मानते हैं और स्वयं को उनका ही वंशज मानते हैं। तिवा (लालुंग) आदिवासियों द्वारा पूजा हेतु स्थापित किया जाने वाला त्रिपद, त्रिनेत्रधारी शिव का ही प्रतीक होता है। पूर्वोत्तर भारत के लगभग सभी जनजातीय समूहों में शिव के अनेक रूप प्रचलित हैं। शिव को शक्ति के साथ ही पूर्णता मिलती है। ये शिव किसी मंदिर में विराजने वाले नहीं हैं, अलौकिक सिंगार करने वाले भी नहीं हैं। आदिम-आदिवासी जीवन में रचे-बसे हुए हैं। इसी कारण पूर्वोत्तर के अनेक लोकगीतों- लोककथाओं में वे पूरी तरह से देशी रूप में, भंग-धतूरे के सेवनकर्ता और फक्कड़ दिखाई देते हैं। शिव का यह स्वरूप आदिवासी जीवन के अत्यंत निकट होने के कारण ही सहजता के साथ जन-स्वीकार्य हो जाता है। शिव का पशुपति रूप भी यहाँ बहुत प्रचलित है। नंदी की उपस्थिति गौवंश के प्रति जनजातीय आस्था को पुष्ट करती है। अनेक रीति-रिवाजों में गौपूजन अनिवार्य होता है।

असम का बिहू पूर्वोत्तर भारत की पहचान से जुड़ा हुआ पर्व है। यह भी गौपूजन के बिना संपन्न नहीं होता है। वस्तुतः यह पर्व प्रकृति के विभिन्न उपादानों के प्रति आस्था और श्रद्धा का पर्व है। बहाग (वैशाख), काति (कार्तिक) और माघ बिहू के तीन बड़े आयोजनों के साथ ही पूर्वोत्तर के अलग-अलग क्षेत्रों में बिहू के कुछ अन्य स्थनीय संस्करण भी होते हैं। बिहू पर्व की इतनी विविधता और पर्व में कृषि के साथ जुड़े उत्सवों की प्रधानता बिहू के प्रकृतिपूजक स्वभाव को व्याख्यायित करती है। जब प्रकृति वसंत के विभिन्न रंगों से रंग जाती है, तब बहाग बिहू अपने स्थानीय नाम, अर्थात् रंगाली बिहू के रूप में मनाया जाता है। काति बिहू का दूसरा नाम कंगाली बिहू भी है, जो कि कार्तिक के समय किसानों के खाली अन्न-भांडारों या कंगाली को प्रकट करता है। रिक्तता का अपना उत्सव है। तुलसी चौरे की पूजा के साथ ही खेतों में दीपक जलाकर अच्छी फसल की कामना करते हुए कंगाली बिहू अनाज के कोठारों को खूब भर देने की कामना के साथ मनाया जाता है। माघ बिहू को भोगाली बिहू भी कहते हैं, जिसमें धन-धान्य से परिपूर्ण भोग-आनंद का उत्सव होता है। फसल की कटाई के साथ कृषि-प्रधान जीवन में उमंग और उल्लास भर जाता है, जो इस पर्व में प्रकट होता है। सोलुंग, सोरी, दारांग, माहोहो, आओलिं मोन्यु, चांग नागा समुदाय का ‘नाक्नयुलेम’ पर्व, लेपचा समुदाय का ‘तेंदोंग-ल्हो-रम-फत’ और मिजो समुदाय का ‘न्हुआई-पुई’ आदि पर्व-अनुष्ठान अलग-अलग तरीकों से प्रकृति पूजा के साथ जुड़े हुए हैं। इन पर्वों-अनुष्ठानों में लोकगीतों, लोककथाओं और लोकनृत्यों का विशेष स्थान होता है। इनके माध्यम से आदिवासी समूह प्रकृति के प्रति अपनी श्रद्धा और अपने प्रेम को प्रकट करते आए हैं। प्रकृति-पूजा के साथ ही इन पर्वों-अनुष्ठानों में आदिवासी समुदायों के आदिपुरुषों, वीर योद्धाओं के जीवन-चरित और उनकी कथाएँ भी जुड़ती चली गईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश में ‘आबो-तानी’ के नाम से ऐसे शक्तिशाली पुरुष को पूजा जाता है, जो लोगों को प्राकृतिक आपदाओं और संकटों से बचाने वाला है। इसी कारण वे ‘आबो-तानी’ को अपना जन्मदाता मानते हैं। ‘आबो-तानी’ की छः संताने हैं, जो अलग-अलग जनजातीय पहचान बना चुकी हैं। इनको तानी वर्ग का जनजातीय समूह कहा जाता है। यह समूह मानता है, कि दोइनि-पोल्लो (सूर्य-चंद्र) आकाश में विराजते हैं और दुनिया के सारे कर्मों-कुकर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। ये अच्छे लोगों का मार्गदर्शन भी करते हैं और बुरे लोगों को दंड भी देते हैं। सूर्य और चंद्रमा की पूजा प्रकृति से जुड़ी हुई है। नदी, तारे, झरने, वन आदि की पूजा पूर्वोत्तर के प्रकृतिपूजक समाज की आस्थाओं को व्याख्यायित करती है।

मणिपुर का मैतेयी जनजातीय समूह ‘सने-मही’ की पूजा करता है। ‘सने-मही’ मुख्य रूप से प्रकृति के देवता हैं। इनके प्रति समूचे पूर्वोत्तर में आस्था देखी जा सकती है। ‘सने-मही’ मत का मैतेयी में लिखा आदिग्रंथ है- पूया। यह वस्तुतः ‘पू’ और ‘याथङ्’ से बना है, जिसका अर्थ है- पूर्वजों द्वारा दिये गए निर्देश। इस ग्रंथ में ‘लाइ-हाइ-लाओबा’, अर्थात् भगवान् के आनंद, के साथ ‘लाइ-हराओबा’ नामक पर्व को जोड़ा गया है। भगवान को आनंद प्रकृति के निर्माण और संचालन में आता है, अपनी सृष्टि को प्रसन्न देखने में आता है। इस कारण ‘लाइ-हराओबा’ सीधे-सीधे सृष्टि की उत्पत्ति की अवधारणा और प्रकृति की पूजा से जुड़ जाता है। यह पर्व अनेक नृत्यों, लोकगीतों और पर्वानुष्ठानों का समन्वित रूप है। इसमें उमंगलाई, अर्थात् वन के देवी-देवताओं की पूजा होती है। पोखरों-तालाबों की पूजा होती है। इसमें तीन सौ से अधिक ग्रामदेवी-देवताओं की पूजा होती है, पूर्वजों की पूजा होती है।

‘लाइ-हराओबा’ के इस दीर्घ नृत्य-नाट्यानुष्ठान में पूर्वोत्तर की उस वैचारिकता की झलक भी मिलती है, जो सृष्टि की उत्पत्ति और मानव के सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों के प्रति सजग रही है। यह धार्मिक नृत्य-नाट्यानुष्ठान इसी कारण प्रेमकथाओं की उपस्थिति के बाद भी विशुद्ध रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष को स्वयं में जीवंत रखता है। सृष्टि के निर्माण और संचालन में नर-नारी की उपस्थित, उनकी लौकिक-ऐहिक भाव-भंगिमाएँ असंयमित नहीं करती हैं; मन में विकृत भावों को, कामोत्तेजना को उत्पन्न नहीं करती हैं। यह समग्र अनुष्ठान पुस्तकीय ज्ञान से इतर सामाजिक-सांस्कृतिक शिक्षा का अद्भुत माध्यम बन जाता है।

‘लाइ-हराओबा’ के नृत्य-नाट्यानुष्ठान का एक महत्त्वपूर्ण अंश होता है- ‘खंबा-थोइबी’ नृत्य। यह भी नाट्य-नृत्य है। इसमें लोककथा भी समाहित है। ‘खंबा’ एक साधारण युवक है, और ‘थोइबी’ राजकुमारी है। मणिपुर का पुरातन नगर है- मोइरङ। यह मोइरङ वंश के 52 प्रतापी शासकों की राजधानी रहा है। ‘खंबा-थोइबी’ की उत्पत्ति भी इसी प्राचीनतम नगर में हुई है, ऐसी मान्यता ‘मोइरङ परब’ नामक मणिपुरी महाकाव्य में व्यक्त हुई है। खंबा-थोइबी 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के ऐसे नायक-नायिका हैं, जिन्होंने प्रेम की अनूठी परिभाषा को समाज के सामने रखा था। अनाथ खंबा की बहन खाममू ने मेहनत-मजदूरी करके, और भीख माँग-माँगकर खंबा को पाला था। थोइबी मोइरङ राजपरिवार की राजकुमारी थी। मोइरङ राजा और उनके भाई के बीच वह इकलौती संतान थी। खंबा और थोइबी के पवित्र प्रेम के बीच कोङ्ग्याङ्बा आ जाता है। वह मोइरङ राजपरिवार के विश्वस्त अधिकारी का बेटा है। तमाम कथा-प्रसंगों के बीच खंबा और थोइबी का प्रेम सफल हो जाता है, किंतु जरा-सी एक भूल होती है, और थोइबी के हाथों खंबा की हत्या हो जाती है। अंत में थोइबी भी आत्महत्या कर लेती है।

इस लोकनाट्य-नृत्य में नटराज की अनेक नृत्यमुद्राएँ आती हैं। इस कारण यह नृत्य-नाट्य शिव के तांडव और नटराज रूप से भी जुड़ जाता है। धूनी रमाने वाले, वन-प्रांतरों में निवास करने वाले शिव को ‘खंबा’ में, और राजा हिमांचल की पुत्री राजकुमारी पार्वती को ‘थोइबी’ में देखते हुए ‘खंबा-थोइबी’ नामक यह लोकनृत्य-नाट्य शिव-पार्वती की कथा से जुड़ जाता है। भले ही शिव और पार्वती के जीवन की कथा पूरी तरह से खंबा-थोइबी की कथा से मेल न खाती हो, फिर भी इस प्रेमकथा में शिव और पार्वती के आगमन से यह ऐसे प्रेमाख्यानक काव्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसे भक्तिकाल की प्रेममार्गी काव्यधारा के पूर्वोत्तरीय संस्करण के रूप में देख सकते हैं। शिव के साथ शक्ति के रौद्र और सौम्य रूप, यथा- कामाख्या और त्रिपुरसुंदरी पूर्वोत्तर में शाक्त-साधना के प्रतीक हैं।

पूर्वोत्तर की एक अन्य प्रमुख जनजाति है- मिकिर। यह स्वयं को ‘करबी’ भी कहती है। ‘करबी’ का स्थानीय बोली में अर्थ होता है- मनुष्य। ये स्वयं को ब्रह्मा से उत्पन्न मानते हैं। इस प्रकार ये देव से उत्पन्न मनुष्य हैं। इस समुदाय के द्वारा पूर्वजों के श्राद्धकर्म के समय लोकगीत गाया जाता है, जिसमें किसी महान पक्षी द्वारा अनेक अंडे दिये जाने का वर्णन मिलता है। मिकिरों या करबियों के अनुसार ये अंडे ब्रह्मा के दिये हुए थे, और इन अंडों में से ही मनुष्यों की अलग-अलग प्रजातियाँ उत्पन्न हुईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश के लोहित जनपद में परशुराम कुंड है। यह कुंड मिशिम प्रदेश के हृदय में स्थित है। अरुणाचल प्रदेश की जनजातीय व्यवस्था में मिश्मी जनजाति की बड़ी संख्या है। पुराने समय में ये परशुराम कुंड की व्यवस्था करने और यात्रियों से कर वसूलने का काम करते थे। मिश्मी लोग स्वयं को कुंडिनपुर के राजा भीष्मक के पुत्र रुक्मि का वंशज मानते हैं। रुक्मिणी के अनुरोध पर श्रीकृष्ण ने शिशुपाल से रुक्मिणी के विवाह को रुकवाया था, और स्वयं विवाह किया था। इस पर रुक्मि और श्रीकृष्ण के मध्य भयंकर संघर्ष भी हुआ। कहा जाता है, कि रुक्मिणी के कहने पर श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का ऐसा प्रहार किया, कि रुक्मिणी के भाई रुक्मि का अजीब तरीके से केश-कर्तन हो गया। इस कारण आज भी मिश्मी समुदाय के लोग बहुत छोटे केश रखते हैं। इसी तरह हार से दुःखी मिश्मी समुदाय के लोग अपने कपाल पर ‘कॉपलि’ नामक चाँदी का पट्टा धारण करते हैं।

आज के नागालैंड का दीमापुर हिडिंबापुर से विकृत होकर बना है, ऐसा माना जाता है। नागालैंड का एक जनजातीय समूह स्वयं को अज्ञातवासी भीम की पत्नी हिडिम्बा का वंशज मानता है। दीमापुर में  स्थित हिडिम्बा के बाड़ा में चौसर खेल की बड़ी-बड़ी गोटियाँ जैसी प्रस्तर आकृतियाँ रखी हैं, जिनसे किसी जमाने में भीम और उनका पुत्र घटोत्कच चौसर खेला करते थे, ऐसी भी मान्यता है।

बृहत् असम, अर्थात् कामरूप अर्थात् प्राग्ज्योतिष का राजा शैलाधिपति भगदत्त अपने किरात सैनिकों, अर्थात् वर्तमान नागालैंड के मूल निवासियों को साथ लेकर कौरवों की तरफ से महाभारत के युद्ध में लड़ने के लिए गया था। कुरुवंशीय राजा ययाति के पुत्र द्रहु की 38वीं पीढ़ी के राजा त्रिपुर से त्रिपुरा को अपना यह नाम मिला था। महाभारत का गंधर्वलोक, अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा का नैहर और अर्जुन के पुत्र बभ्रुवाहन द्वारा संचालित राजवंश का जीवंत साक्ष्य आज का मणिपुर है।

पूर्वोत्तर की तीवा (लालुंग) जनजाति अपने को माता सीता का वंशज मानती है। इसी प्रकार करवी जनजाति स्वयं को बालि और सुग्रीव का वंशज मानती है। पूर्वोत्तर में रामकथा का आगमन वाल्मीकि की रामायण के साथ होता है। इसके अतिरिक्त बंगाल की कृत्तिवासी रामायण का प्रभाव पूर्वोत्तर में पड़ा। 14वीं-15वीं शताब्दी में माधव कंदली द्वारा रचित सप्तकांड रामायण पूर्वोत्तर के लिखित भक्तिसाहित्य का पहला ग्रंथ कहा जा सकता है। यह देववाणी के रूप में नहीं, बल्कि लौकिक कथा के रूप में है, इस कारण बृहत् असम के लोकजीवन और प्रकृति के अनेक चित्र इसमें दिखाई पड़ते हैं। असमीया रामायण में सीता की अग्निपरीक्षा के प्रसंग में राम और सीता का संवाद भी है। इसमें अग्निपरीक्षा के लिए कहने पर सीता बहुत क्रोधित होती हैं। अन्य रामकथाओं की तरह असमीया रामकथा की सीता अबला नहीं दिखती हैं। यह प्रसंग पर्वतीय महिलाओं की संघर्षशीलता और उनके साहस को प्रकट करता है।

तिवा जनजाति में ‘रामायने खरङ्’ नाम से रामकथा का मौखिक रूप प्रचलित रहा है। इसमें वाल्मीकि रामयण के विभिन्न कथा-प्रसंग अलग-अलग लोकगीतों के रूप में आते हैं। ‘लिकछा लामाङ्’ खामति जनजाति की रामकथा है। इसमें बौद्ध प्रभाव है, और जातक कथाओं के प्रसंग भी इसमें आते हैं। करवी समुदाय में ‘छाबिन-आलुन्’ नामक लोकगीत गाए जाते हैं। ये लोकगीत रामकथा के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित होते हैं। चूँकि ये लिखित रूप में नहीं थे, इस कारण अलग-अलग गीत-खंडों में अलग-अलग कथाएँ होती हैं। ‘छाबिन-आलुन्’ का संकलित रूप ही करवी रामायण कहलाता है। इसमें करवी समुदाय का जीवन, उनका रहन-सहन और उनकी सांस्कृतिक विशिष्टताएँ समग्र रूप में समाहित हो गईं हैं। उदाहरण के रूप में, करवी रामायण के राम और लक्ष्मण परंपरागत झूम खेती करते हैं। राजा जनक भी झूम खेती करते हैं। सीता अपने पिता के लिए कलेवा लेकर, साथ ही धान से बनी देशी मदिरा लेकर खेत में जाती है। एक बार सीता अपने घर में साफ-सफाई करते समय भारी-से लोहे के धनुष को उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख देती हैं, और तब जनक यह तय करते हैं कि वे अपनी बेटी का विवाह ऐसे वीर युवक से करेंगे, जो इस धनुष को तोड़ देगा। तिवा, खामति और करवी रामकथाओं के लोक-संस्करणों की तरह अन्य जनजातीय समूहों में रामकथाएँ प्रचलित हैं। इन सभी में एक समानता है, कि इनमें जनजातीय-पर्वतीय जीवन इस तरह से घुला-मिला है, कि रामकथा और राम इन्हीं जनजातीय समूहों के अपने होकर रह गए हैं।

ये पूर्वोत्तर के जनजातीय समाजों के श्रद्धा और प्रेम के भाव ही कहे जाएँगे; जिन्होंने राम, कृष्ण, ब्रह्मा, शिव और शक्ति को अपने में ढाल लिया और उन्हें पूरी तरह से अपना बना लिया। भक्ति का यह ऐसा उदात्त और विलक्षण स्वरूप है, जिसे अन्यत्र खोज पाना जटिल और दुर्लभ है। श्रद्धा और प्रेम के भावों से भक्ति की निर्मिति को शाण्डिल्य और नारद ऋषियों ने बताया है। इसी प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी व्याख्यायित किया है। श्रद्धा और प्रेम के समन्वित भावों से निर्मित भक्ति और इस भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य पूर्वोत्तर की अपनी विशेष पहचान गढ़ता है। अतीत से वर्तमान तक समग्र पूर्वोत्तरीय भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार इसी भावभूमि पर हुआ है।

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक जनजातीय समुदायों का यह विशाल लोकसाहित्य, या कहें भक्तिसाहित्य लोककंठों में ही जीवित रहा। बाद में इसके लिखित संस्करण भी जागरूक साहित्यसेवियों द्वारा तैयार किये गए। सन् 1993 में रूपसिंह देउरी ने ‘रामायने खराङ्’ का असमीया लिपि में मुद्रित संस्करण तैयार किया। इसी प्रकार डॉ. देवेनचंद्र दास ने ‘छाबिन आलुन्’ को देवनागरी में लिपिबद्ध करके सन् 2000 ई. में प्रकाशित कराया। ऐसे अनेक प्रयास पूर्वोत्तर में हुए हैं, और इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है।

समग्रतः; प्रकृति-पूजा, प्रकृति पुरुष शिव और शक्ति से क्रमशः महाभारत-रामकथा के कथा-प्रसंगों ने पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को निर्मित किया। यह आधार मुख्यतः लोकजीवन, लोकसंस्कृति और लोकपरंपराओं-लोककलाओं का है। इसी कारण पौराणिक कथा-प्रसंग लोकसंस्करण में विकसित हुए, विस्तृत हुए। पूर्वोत्तर की यह ऐसी विशिष्टता है, जिसने युगों-युगों तक यहाँ के आस्थावान जनजातीय समूहों को एक सूत्र में बाँधे रखा। भले ही वैचारिक संक्रमणों, उन्माद और बर्बरता की स्थितियों ने, जातीय-क्षेत्रीय-भाषायी अस्मिता के संघर्षों और धार्मिक असंतुलनों ने पूर्वोत्तर की अपनी पुरानी पहचान को, जड़ों को गहराई में दबा दिया हो, मगर इस एक्य के सूत्र को, समन्वय को भक्ति साहित्य के लोकसंस्करणों के माध्यम से पुनर्जीवन दिया जा सकता है।

भक्ति-साहित्य का यह लोक-संस्करण भले ही शिष्ट साहित्य की परिधि से बाहर हो, किंतु इसी के रस-संचय से कालांतर में वैष्णव भक्ति (जात्रा, नामघर आदि) तक भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार पूर्वोत्तर में हुआ है। भक्ति-साहित्य के समग्र स्वरूप को पूर्वोत्तर के संदर्भ में माधवदेव द्वारा रचित निम्न पंक्तियों के आलोक में देखा जा सकता है-

धन्य-धन्य कलिकाल / धन्य नरतनु भाल / धन्य-धन्य भारतबरिषे (बरगीत / माधवदेव)

संदर्भ ग्रंथ-

1. भारत की लोकसंस्कृति, सं. हेमंत कुकरेती, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018,

2. भारतीय साहित्य की पहचान, सं. डॉ. सियाराम तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2015,

3. पूर्वोत्तर भारत का जनजातीय साहित्य, सं. डॉ. अनुशब्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2017,

4. कृतिरूप संघ दर्शन, संकलन व संपादन- हो. वे. शेषाद्रि, सुरुचि प्रकाशन, नयी दिल्ली, अष्टम सं. 2015,

5. असम : लोक-संस्कृति और साहित्य, जोगेश दास, हिंदी अनुवाद कृष्ण गोपाल अग्रवाल, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली, सं. 1976

6. मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में, डॉ. देवराज, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2006 ।

{पूर्वोत्तर भारत का भक्ति साहित्य (पुस्तक), संपादक डॉ. मंदाकिनी शर्मा, प्रकाशक- अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली में प्रकाशित}

-डॉ. राहुल मिश्र


Thursday 4 February 2021

भारत में भी है ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ का मजा

 

भारत में भी है ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ का मजा

मध्यकालीन व्यापारिक गतिविधियों की रोचक और साहसिक कथाएँ सिल्क रूट या रेशम मार्ग में बिखरी पड़ी हैं। सिल्क रूट का सबसे चर्चित हिस्सा, यानि उत्तरी रेशम मार्ग 6500 किलोमीटर लंबा है। दुनिया-भर में बदलती स्थितियों के कारण सिल्क रूट तो बंद हो गया, मगर उसकी रोचक स्मृतियाँ कई देशों के मन से ओझल नहीं हो पाईं। इस कारण चीन, कज़ाकिस्तान और किर्गिस्तान सहित दूसरे देशों के प्रस्ताव पर रेशम मार्ग को यूनेस्को ने विश्व विरासत का दर्जा दे दिया। इसके बाद ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ के तौर पर अंतरराष्ट्रीय पर्यटन का नया क्षेत्र खुला है।

पर्यटन के शौकीन लोगों के लिए सिल्क रूट टूरिज़्म जितना रोचक और रोमांचकारी है, उतना ही महँगा भी है। मगर आपको यह जानकर ताज्जुब होगा, कि कम खर्च में भी सिल्क रूट टूरिज़्म का मजा लिया जा सकता है, और वह भी देश से बाहर जाए बिना...। भले ही इस बात पर एकदम से भरोसा न हो, लेकिन यह हकीक़त है, जो देश के धुर उत्तरी छोर पर आपके स्वागत के लिए तैयार नज़र आती है।

जम्मू व कश्मीर के लदाख अंचल का उत्तरी इलाका, यानि नुबरा घाटी क्षेत्र सिल्क रूट से जुड़ा हुआ है। लदाख के मुख्यालय लेह से लगभग चालीस किलोमीटर की यात्रा के बाद मिलता है, खरदुंग दर्रा, जिसे दुनिया की सबसे ऊँची सड़क के लिए भी जाना जाता है। खरदुंग-ला के पार शुरू होती है, नुबरा घाटी, यानि फूलों की घाटी। सिल्क रूट के टकलामकान रेगिस्तान में नख़लिस्तान की तरह...। नुबरा के मुख्यालय देस्कित पहुँचने से पहले ही नुबरा नदी शयोक नदी से मिलती दिखाई पड़ती है। शयोक नदी के किनारे-किनारे पश्चिम की तरफ चलते हुए एक तरफ लदाख पर्वतमाला और दूसरी तरफ काराकोरम की पर्वतश्रेणियाँ अपने अलग-अलग रंग-ढंग को साथ लिए चलती हुई नजर आती हैं। देस्कित को पार करते ही हुंदर गाँव आता है। यह गाँव दो कूबड़ वाले ऊँटों की सवारी के लिए जाना जाता है। ये बैक्ट्रियन या यारकंदी ऊँट सिल्क रूट के शहंशाह कहे जा सकते हैं। सिल्क रूट के बंद हो जाने के बाद इनकी प्रजाति हुंदर में उन परिवारों के पास सुरक्षित है, जो किसी जमाने में सिल्क रूट व्यापार में माल ढुलाई और ‘शटल सेवा’ का काम किया करते थे। हुंदर का राजमहल, जो अब एक बौद्धमठ की शक्ल अख्तियार कर चुका है, किसी जमाने में सिल्क रूट के व्यापार पर नजर रखने की जिम्मेदारी निभाया करता था। हुंदर गाँव तक पहुँचने वाले पर्यटकों के लिए जितनी रोमांचक यारकंदी ऊँटों की सवारी होती है, उतना ही आकर्षण उनके लिए हुंदर राजमहल को देखने में होता है। अनूठी देशी बनावट वाले इस महल से आगे पश्चिम की तरफ बढ़ते हुए काराकोरम पर्वतश्रेणियों की ऊँचाई में वह रास्ता दिखाई पड़ने लगता है, जो कभी सिल्क रूट के सहायक मार्ग के तौर पर जाना जाता था। शयोक नदी के दोनों तरफ ऊँचे पहाड़ों पर सीधी लकीरों की तरह दिखने वाले सिल्क रूट के साथ-साथ चलते हुए चालुंका पहुँचते हैं। यह बल्तिस्थान का पहला गाँव है, जो यहाँ के लोगों के रंग-रूप, नाक-नक्श और अनूठी तहजीब के कारण एक नए संसार के खुल जाने का अहसास करा देता है।

चालुंका से बोगदंग और फिर तुरतुक तक बलखाती-इठलाती शयोक नदी, दोनों किनारों पर अलग-अलग रंगों को बदलती पर्वतराशियाँ, सियाचिन ग्लोशियर से टकराकर आते शीतल-मंद पवन के झोंके और इन सबके साथ असीमित पसरी शांति पर्यटन के एकदम नए और अनूठे अहसास को साथ लिए दिल में गहरे उतर जाती है। देश की सीमा का आखिरी गाँव है- तुरतुक। दो-तीन वर्ष पहले तक हुंदर के आगे पर्यटकों को जाने की इजाजत नहीं थी। इस कारण बल्ती संस्कृति के अनूठे दर्शन पर्यटकों के लिए सुलभ नहीं थे। अब सीधे तुरतुक तक पहुँचा जा सकता है और अनूठी बल्ती तहजीब को आँख भर-भरकर देखा जा सकता है।

तुरतुक में यगबो राजवंश के उत्तराधिकारी यगबो मोहम्मद खान काचो ने अपने पुरखों की तमाम यादों को समेटकर एक छोटा-सा संग्रहालय बना रखा है। इस संग्रहालय को देखना अतीत के उन लम्हों में उतर जाना है, जिनमें गिलगित बल्तिस्थान के गौरवपूर्ण अतीत की इबारतें लिखी हुई हैं। एक तरफ बल्ती संस्कृति, बल्ती समुदाय का जीवन यहाँ देखने को मिलता है, तो दूसरी ओर बल्ती ग़ज़ल, बल्ती लोकगीतों-किस्सों से महकती शामों के साथ चाँदनी रात में तारों भरे आसमान के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारना, तेजी से भागती जाती शयोक के कदमों की आहटों को सुनना ग्रामीण पर्यटन, सांस्कृतिक पर्यटन और साथ ही सिल्क रूट पर्यटन के सुखों को एकसाथ जोड़ देता है।

लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके तुरतुक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने के लिए ‘इनर लाइन परमिट’ की जरूरत पड़ती है। इसे लदाख स्वायत्तशासी परिषद् की वेबसाइट पर जाकर खुद भी बनाया जा सकता है। तुरतुक में कई अच्छे यात्री-निवास, होटल और गेस्ट हाउस हैं, मगर ‘होम-स्टे’ की बात ही अलग है, जहाँ बल्ती व्यंजनों का स्वाद और बल्ती जीवन की ढेर सारी रोचक कथाएँ सरलता से मिल जाती हैं। खुबानियों, जौ के सत्तू और देशी व्यंजनों के साथ पर्यटन का मजा दो गुना हो जाता है। तुरतुक के प्रसिद्ध लकड़ी के पुल पर बना ‘सेल्फी प्वाइंट’ गाहे-ब-गाहे अपनी तरफ खींच ही लेता है। पर्यटकों की सुविधा के लिए लेह में पर्यटक केंद्र है। हाल ही में देस्कित में भी पर्यटक सुविधा केंद्र खोला गया है। एक नए और अनूठे पर्यटक केंद्र के रूप में जितना नुबरा घाटी को जाना जाता है, उससे कहीं अधिक आकर्षण सिल्क रूट के साथ चलते-चलते तुरतुक तक जाने में होता है। यह आकर्षण भारत के मुकुट में जड़ी सुंदर मणि जैसी बल्ती तहजीब को नजदीक से देखकर खुशी से नहीं, गर्व से भी भर देता है।

(संपादकीय पृष्ठ, दैनिक अमृत विचार, लखनऊ-बरेली नगर-बरेली ग्रामीण संस्करण में दिनांक 25 फरवरी, 2020 को प्रकाशित)



Tuesday 1 December 2020

 





शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है...

कहते हैं, पहाड़ी नदियाँ बड़ी शोख़ होती हैं, चंचल होती हैं। लहराना, बल खा-खाकर चलना ऐसा,  कि ‘आधी दुनिया’ को भी इन्हीं से यह हुनर सीखना पड़े। पहाड़ी नदियाँ तो बेशक ऐसी ही होती हैं, मगर कभी हिमानियों से अपना रूप और आकार पाने वाली नदियों के बारे में सोचा है? वैसे तो ये भी पहाड़ों की ही हैं। इसलिए शोख़ी और चंचलता, बाँकपन और अदाकारी इनमें नहीं होगी, ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता है। देख लीजिए अलकनंदा और भागीरथी को, देख लीजिए लोहित और असिक्नी को....., और इनकी जैसी अनेक नदियों को....। एक अलग-सा सौंदर्य, अनूठा अल्हड़पन इनमें नजर आएगा। हिमनदों की इन आत्मजाओं का अनूठा सौंदर्य हिमालय की ऊँचाइयों पर ही देखा जा सकता है। अपने उद्गम से आगे बढ़ते हुए इनकी चंचलता मैदानों तक पहुँचते-पहुँचते गंभीरता में बदल जाती है। ठीक बचपन और बुढ़ापे की तरह...।

हिमनदों की इन चंचल बेटियों में एक शयोक भी है, जो अपनी कुछ अलग ही तासीर रखती है। यह चंद्रा और लोहित की तरह, अलकनंदा की तरह, या फिर भागीरथी की तरह सीधी-सरल और शांत नहीं है। लेह की तरफ से खरदुंग दर्रे को पार करते ही जैसे हम नुबरा घाटी में पहुँचते हैं, हरहराती हुई और तेजी से भागती हुई शयोक जैसे अगवानी करने को तैयार मिलती है। नुबरा घाटी में हम जितने दिन गुजारते हैं, उतने दिनों तक शयोक हमारा पीछा नहीं छोड़ती। नुबरा घाटी में घूमते हुए कई-कई बार हमें इसके साथ, तो कई बार इसे पार करके दर्शनीय स्थलों में पहुँचना होता है। इतना ही नहीं, शयोक अपने प्रवाह के साथ अपनी एक उपघाटी या अपना मैदानी इलाका भी बनाती है।

  अल्हड़ शयोक अपने उद्गम स्थान से निकलकर ‘गप्शन’ तक पश्चिम और दक्षिण तक बहती है और ‘गप्शन’ से ‘मंदरालिङ’ तक पूर्व दिशा में  बहती है। अपने उद्गम से आगे निकलकर यह गलवाँ और चंङ छेनमो नदियों को अपने साथ ले लेती है। इसके साथ ही यह इस इलाके में मंगोलियन तिब्बत और लद्दाख के बीच एक प्राकृतिक विभाजक रेखा भी खींचती है।  ‘मंदरालिङ’ से ‘शयोग’ तक दक्षिण और ‘शयोग’ से ‘हुंदर’ तक पश्चिमोत्तर बहते हुए बाद में पश्चिम दिशा की ओर बहते हुए बल्तिस्थान में प्रवेश कर जाती है। बल्तिस्थान के प्रमुख शहर स्करदो के पूर्व की ओर स्थित ‘केरिस’ के नजदीक सिंधु से मिल जाती है।

कई-कई बार शयोक की अल्हड़ चाल को देखकर ऐसा लगता है, जैसे वह ‘खरदुंग-ला’ से बहुत नाराज हो। ‘खरदुंग-ला’, यानि खरदुंग दर्रा....भोटभाषा में ‘ला’ दर्रे को कहते हैं। ‘ला’ तो ठीक है, लेकिन ‘खरदुंग’ तो ‘खर’ और ‘तुंग’ का मिश्रण समझ में आता है, जो प्रजातियों-पीढ़ियों की जुबानों में घिस-घिसकर ‘खरदुंग’ हो गया है, शायद। एकदम खड़ी-सी, ऊँची और कठिन चढ़ाई वाला तुंग....खरतुंग। आखिर यह शयोक के रास्ते में आया ही क्यों? उत्तर आसान-सा है, सरल-सा ही है...। पहाड़ हमेशा धीर-गंभीर और वीरव्रती ही नहीं होते, ये खलनायक की भूमिका में भी कभी-कभी आ जाते हैं। ऊँचे-ऊँचे दुर्गम और कठिन दर्रों के कारण ही लदाख के लिए कहा जाता है, कि यहाँ पर बहुत घनिष्ठ मित्र या बहुत कट्टर दुश्मन ही पहुँच सकता है। मध्यम स्तर वालों के लिए यहाँ आना सुगम नहीं...संभव नहीं। कारण... पहाड़ ही यहाँ पर चुनौतियों के  द्वार खोलते हैं। शायद इसी कारण शयोक की कथा में खरदुंग-ला किसी खलनायक से कम नजर नहीं आता। ऐसी ही एक कथा लाहुल-स्पीति के लोककंठों में जीवंत मिलती है। इस कथा में बारालाचा की दुर्गम ऊँचाइयाँ चंद्रा और भागा के लिए अवरोधक बनती हैं।

बड़े गहरे उतरे स्नेह-भाव के कारण कुछ लोगों द्वारा बड़ालाचा भी कहे जाने वाले बारालाचा के चंद्रताल से निकली चंद्रमा की बेटी चंद्रा, और सूर्यताल से निकला सूरज का बेटा भागा अपने प्रेम को जल तत्त्व में उतारकर साकार करते हैं। वैसे सूर्य का एक नाम भाकर भी है। भाकर का अंश भागा, और चंद्रमा की चंद्रा...। बारालाचा के शिखर से उनकी यात्रा शुरू होती है, मिलन के लिए...। भागा को कुछ ज्यादा ही भागना पड़ता है, दुर्गम पहाड़ियों के बीच अपना रास्ता बनाना होता है। अंततः ताँदी में दोनों मिलते हैं, और एक प्रयाग, एक संगम वहाँ बन जाता है, आस्था का...प्रेम की पराकाष्ठा का। लाहुल-स्पीति की अनेक लोककथाओं के बीच चंद्रा और भागा की यह प्रेमकथा बड़ी रुचि के साथ सुनी जाती है। ताँदी से आगे चंद्रभागा चेनाब बन जाती है, वैदिककाल की असिक्नी या आज के आम बोलचाल की इशकमती बन जाती है। इसी के किनारे हीर-रांझा, सोहनी-महिवाल की प्रेमकथाएँ पनपती हैं, पंजाबियों के रीति-रिवाज परवान चढ़ते हैं। चंद्रा और भागा का अमर प्रेम मैदानी इलाकों को अपने रंग में रंग देता है।

यही अमर प्रेम शयोक और सिंधु में भी तो दिखता है, इसी कारण मिलन की राह में खड़े खर-तुंग से नाराज शयोक एकदम अपनी दिशा बदलकर बहने लगती है। इसीलिए खरदुंग-ला के पदतल में, हमें जैसे ही शयोक के दर्शन होते हैं, उसका भर्राया हुआ गला, नाराजगी से भरा स्वर सुनाई देता है। नदियों, पर्वतों, वनस्पतियों में स्वयं को देखने की, मानवीय गुणों और प्रवृत्तियों को देखने की अनूठी भारतीय पंरपरा दुनिया में विलक्षण है, अद्भुत है। इसी कारण शयोक के ही नहीं, हमारे अपने स्वर भी दो प्रेमियों के मिलन की राह में बाधक बनने वाले खलनायक खरदुंग-ला के लिए नाराजगी से भर जाते हैं। बारालाचा में अगर सूरज का बेटा है, तो यहाँ रिमो हिमानी की बेटी है। उधर चंद्रा है, जो बड़ी शालीन और संयत है। इधर शालीनता सिंधु नद के हिस्से में है। वैसे ‘रिमो’ भी भोटभाषा का शब्द है, और धारीदार पहाड़ के लिए इसे प्रयोग किया जाता है। जब माई ही इतनी तीखी है, तो बिटिया शांत-संयत कैसे हो सकती है? कई बार यह विचार शयोक की अल्हड़ चाल के कारणों को खोजते समय मन में उतर पड़ता है।

वैसे शयोक को कुछ और करीब से जानना हो, तो पाँच-छः घंटे का समय निकालकर स्याम गोनबो की लगभग सात-आठ सौ फीट की ऊँचाई पर चढ़ जाइए। धरती के टुकड़े को चाकू से काटती तेज धार की तरह शयोक का बहाव दिखाई पड़ेगा। एक तरफ हिमालय की लदाख पर्वतश्रेणी है, तो दूसरी तरफ काराकोरम पर्वतश्रेणी है। बीच में शयोक है, दो पर्वतश्रेणियों को एक-दूसरे से जुदा करती हुई। यह विभाजन पहाड़ों की बनावट का भी है, और बुनावट का भी...रंग भी दोनों के अलग-अलग...चट्टानें भी अलग और मिट्टी भी अलग। एक तरफ लालिमा है, तो दूसरी ओर कारा जैसी कालिमा...। स्याम गोनबो की ऊँचाई से शयोक को देखकर मन में  सबसे पहला विचार यही आता है, कि, भला हो... शयोक तुम्हारा! जो तुमने  दोनों श्रेणियों को अलग-अलग कर दिया.... कहीं हम एक ही समझ बैठते, तो आखिर क्या होता? यह तो ठीक है, लेकिन क्या तुम्हें एक गति से चलना नहीं आता है?

हे शयोक! हमने भी स्याम गोनबो की ऊँचाइयों से तुम्हें निहारा है। केवल निहारा ही नहीं है, तुम्हारे सानिध्य में पाँच-छः घंटे भी बिताए हैं। सुबह के समय तुम्हारी चाल थमी हुई-सी होती है। उस समय लगता है, कि तुम घुटुरुअन चल रही हो। कोई भी तुम्हारे पास जा सकता है। सिर पर सूरज के चढ़ते-चढ़ते तुम्हारे किनारों के रेतीले मैदानों में नमी पसरने लगती है। कई-कई जलधाराएँ उग आती हैं। साँझ ढलते-ढलते तुम्हारी चाल बहुत तेज हो जाती है। तुम्हारे सहमे-सिकुड़े से किनारे दूर-दूर तक फैल जाते हैं। रात के अँधेरों में भी तुम्हारी तेजी बनी ही रहती है, और सुबह-सवेरे फिर वही वीतरागी मद्धिम चाल....। कहीं तुम्हारे नाम के पीछे तुम्हारी चाल का असर तो नहीं है? अपने ‘ओक’ में, रिमो की गोद में ‘शयन’ कर रहीं तुम आलसियों की तरह दिन चढ़ने पर जागती हो, और देर हो जाने की बदहवासी में तेजी से दौड़ लगा देती हो। तुम्हारी दिन-भर की कलाएँ देखकर ही हमारे मन में ऐसे विचार आते हैं। हो सकता है, दूसरे लोगों के मन में ऐसे विचार आते हों। ‘शय’ और ‘ओक’ के मिलन से बनने वाले तुम्हारे नाम के पीछे भी यही विचार हो सकते हैं।

वैसे यारकंदी लोग शयोक को इस नाम से नहीं जानते। उनके लिए शयोक मौत की नदी है। दरअसल, काराकोरम की विकराल ऊँचाइयों से गुजरने वाले रेशम मार्ग का सहायक मार्ग नुबरा घाटी से जुड़ा हुआ था। लेह को रेशम मार्ग से जोड़ने वाले इस सहायक मार्ग की यात्रा करते समय यारकंदी व्यापारियों को लगभग बीस बार शयोक नदी को पार करना  पड़ता था। गर्मियों में तो इसे पार करना असंभव ही होता था, मगर सर्दियों में भी यह कम कठिन नहीं होता था। अपनी आदत के हिसाब से शयोक एकदम तेजी के साथ बह पड़ती, और यारकंदी व्यापारियों के कारवाँ में शामिल ऊँटों, घोड़ों, आदमियों तक को बहा ले जाती। शयोक के किनारे रहने वाले लोग भी इससे कम डरे हुए नहीं हैं। आज तो तमाम साधन हैं, पुल हैं, सड़कें हैं; लेकिन  गुजरे जमाने में लोग बेबसी को ढोते थे, और वैकल्पिक रास्ते निकालते थे। शयोक के किनारे के कुछ पुराने गाँवों, जैसे हुंदर, हुंदरी, देस्किद और उदमारू आदि के लोग चमरी मृग की खाल से ‘बिप्स’, यानि चमड़े की नाव बनाते थे, और उसके सहारे अपनी जान को जोखिम में  डालकर शयोक को पार करते थे।

भूरी-मटमैली रंग की इस मौत की नदी से नुबरा-शयोक घाटी के लोगों की भी खासी नाराजगी है। जिस शयोक को जीवनदायिनी होना चाहिए, उसके विकराल रूप से आहत लोग अपनी नाराजगी भी बड़ो रोचक अंदाज में व्यक्त करते हैं। आज भी किसी  बूढ़े-बुजर्ग से पूछिए, तो वे कहते हैं कि हम खेती-किसानी के लिए शयोक का पानी लेना नहीं पसंद करते, क्योंकि शयोक हमें जीवन देने वाली नहीं है। शयोक ने अपनी बाढ़ के उफान में कई बार हमारे तटबंधों की मिट्टी बहाई है, हमारी फसलों और पेड़-पौधों को बहाया है। इतना ही नहीं, गाँव के गाँव बहाकर आबादी को मिटाया है। इसलिए हमें शयोक का पानी अपनी फसलों में नहीं डालना है।

ऐसा कहा जाता है कि बल्तिस्थान के यगबो राजवंश की राजधानी काफलू में भयंकर बाढ़ आई थी। इस बाढ़ में शयोक नदी ने काफलू के चंगथंग इलाके को पूरी तरह नष्ट कर दिया था। यह चंगथंग इलाका मंगोलियन तिब्बत से सटे चंगथंग के लोगों का था, जो रेशम मार्ग में नमक का व्यापार किया करते थे। इस भीषण तबाही से आक्रांत लोगों ने उस इलाके को ही छोड़ दिया। इनमें से कुछ लोग ‘छोरबत’ में बस गए और कुछ लोग नुबरा घाटी से होते हुए लेह के निकट ‘छुशोद’ गाँव में आकर बस गए। छुशोद में इन लोगों को ‘बल्ती’ के तौर पर जाना जाता है।

वैसे शयोक ने केवल बल्तियों को ही विस्थापित नहीं किया, वरन् अतीत के तमाम विस्थापनों को, राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों को देखा है, जो इतिहास में आज भी अनजाने हैं, अनछुए और गुमनाम-से हैं। देश के विभाजन के बाद कारगिल से सड़क मार्ग द्वारा स्करदो तक जाना संभव नहीं रहा। अविभाजित लदाख में स्करदो की उतनी ही बड़ी भूमिका होती थी, जितनी लेह की..। डोगरा शासकों के समय में लदाख की ग्रीष्मकालीन राजधानी स्करदो होती थी। सिंधु नद स्करदो से गुजरते हुए केरिस के पास शयोक से मिलता है। केरिस के पास ही शिगर नदी भी सिंधु में मिलती है। यहाँ त्रिवेणी बन जाती है, संगम बन जाता है। केरिस के निकट ही ऐतिहासिक काफलू शहर है।

अतीत का एक लंबा कालखंड ऐसा भी रहा है, जब सिंधु और शयोक के दोआब में दरद भाषा का व्यवहार हुआ करता था। कारगिल-खलच़े से लगाकर स्करदो-गिलगित-हुंजा से होते हुए मंगोलियाई तिब्बत की दक्षिणी-पश्चिमी सीमा तक विस्तृत दरदभाषी क्षेत्र अपने अतीत में दरद आर्यों का निवास स्थान रहा है। आज का बल्तिस्थान अतीत में इसी दरद देश के अंतर्गत ही आता था। आज की धार्मिक-सांस्कृतिक विविधताओं के बीच प्रजातिगत एकरूपता अतीत के गौरव की साक्षी है। इस दरद देश का अतीत महाभारत काल से भी जुड़ा है। महाभारत के युद्ध में दरदों ने कौरवों की तरफ से युद्ध किया था, जबकि किरातों ने पांडवों की तरफ से युद्ध किया था। तिब्बती भोटभाषा में किरातों को ‘मोन’ कहा जाता है। इन्हीं मोन लोगों के कारण लदाख का एक नाम ‘मोनयुल’, यानि मोन लोगों का इलाका भी है। सिंधु के तट पर ‘मोन’ या किरातों की, और शयोक के तट पर दरदों की आबादी के सहारे सिंधु-शयोक का दोआब महाभारतकालीन राजनीतिक प्रसंगों का साक्षी बना होगा।

शयोक तो मानव-सभ्यता के विकास की, हिमालय की निर्मिति की साक्षी भी है। शयोक तांतव संधि-क्षेत्र या ‘शयोक स्यूटर जोन’ के तौर पर हम शयोक के प्रवाह को जानते हैं। देश-दुनिया में प्रसिद्ध पङ्गोङ झील की निर्मिति भी शयोक के प्रवाह के कारण हुई। किसी समय टेथिस सागर की लहरों को झेलने वाला शयोक का प्रवाह-क्षेत्र आज भी परवर्ती जुरासिक काल के जीवों के चिन्हों को अपने में छिपाए हुए है। सिंधु नद का अतीत भी इसी तरह परवर्ती जुरासिक काल से जुड़ा हुआ है। इस कारण सिंधु और शयोक से मिलकर सिंधु-शयोक मेखला का निर्माण होता है। इसी कारण सिंधु से मिलना ही शयोक की नियति बन जाती है। यह मिलन केरिस में होता है। सिंधु और शयोक के साथ ही शिगर नदी भी केरिस में मिलती है। अपने गौरवपूर्ण अतीत के साथ केरिस ऐसा संगम बन जाता है, ऐसा जीवंत प्रयाग बन जाता है, जहाँ अतीत के मानव के अस्तित्व का पहला अध्याय लिखा जाता है। जहाँ सभ्यताओं के अस्तित्व और संघर्ष की गाथाएँ गुनी जाती हैं। जहाँ धर्मों-रीतियों-नीतियों के टकराव दर्ज होते हैं। जहाँ भूरी-मटमैली शयोक नदी सिंधु नद से मिलकर अपनी पूर्णता को पाती है, और न पढ़े गए इतिहास के तमाम पन्नों को बाँचती है, उवाचती है। शयोक! तुम्हें पढ़ा जाना अभी शेष है..।

डॉ. राहुल मिश्र

(हिंदी प्रचार-प्रसार सोसायटी अमृतसर की पत्रिका 'बरोह' के दिसंबर, 2019 अंक में प्रकाशित)

Wednesday 8 January 2020

बुंदेलखंड से सूरीनाम तक की यात्रा-कथा (एक गिरमिटिया की गौरवगाथा)


बुंदेलखंड से सूरीनाम तक की यात्रा-कथा
(एक गिरमिटिया की गौरवगाथा)
अगर यह पता चले, कि रामलीला देखने का शौक भी किसी के लिए मुसीबत का सबब बन सकता है, और रामलीला देखने के लिए जाना ही किसी व्यक्ति के जीवन में ऐसी ‘रामलीला’ का रूप ले सकता है, कि चौदह वर्षों के बजाय जीवन-भर का वनवास मिल जाए, तो सुनकर निश्चित तौर पर अजीब लगेगा। इसके बाद अगर पता चले, कि यह वनवास उस व्यक्ति के लिए संकट का लंबा समय लेकर जरूर आया, मगर संकटों-विपत्तियों से भरे कालखंड ने उस व्यक्ति को ऐसी बड़ी जिम्मेदारी सौंप दी, जिसने कालांतर में उस व्यक्ति को एक देश का जनकवि ही नहीं राष्ट्रकवि बना दिया, तो बेशक आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहेगा। इस तमाम बातों के साथ ही अगर यह कह दें, कि वह महान व्यक्ति अपने बुंदेलखंड का बाँका नौजवान था, तब क्या कहेंगे? शायद जुबाँ पर शब्द नहीं आ पाएँगे, केवल और केवल गर्व की अनुभूति होगी...निःशब्द रहकर....।
बुंदेलखंड से सूरीनाम तक की यह यात्रा-कथा उसी गर्वानुभूति की ओर ले जाने वाली है, जिसमें बुंदेलखंड का एक बाँका नौजवान तमाम मुश्किलों-कष्टों को सहते हुए, संघर्ष करते हुए न केवल अपना नाम रोशन करता है, वरन् समूचे बुंदेलखंड का गौरव बढ़ाता है। निश्चित तौर पर उसके संघर्ष के पीछे, उसकी जिजीविषा के पीछे बुंदेलखंड के पानीदार पानी और जुझारू जमीन के तमाम गुणों ने अपना असर दिखाया था।
यहाँ जिस बाँके बुंदेलखंडी नौजवान की सूरीनाम पहुँचने और वहाँ के क्रांतिकारी जनकवि बनने यात्रा-कथा है, उसने अपने जीवन के संघर्षों को, साथ ही अपने गिरमिटिया साथियों के संघर्षों को डायरी में उकेरा, जिसने बाद में आत्मकथा का रूप ले लिया। संघर्ष के कठिन समय में लिखी गई उनकी डायरी के अस्त-व्यस्त पन्नों को समेटकर जुटाई गई जानकारी और उनकी दो पुस्तकों से एक व्यक्ति का ही नहीं, एक युग का, एक देश का अतीत परत-दर-परत खुलता है। उनकी दैनंदिनी के पन्नों को समेटकर सन् 2005 में ‘आटोबायोग्राफी ऑफ एन इंडेंचर्ड लेबर- मुंशी रहमान खान’ नामक पुस्तक का प्रकाशन हुआ था।
मुंशी रहमान खान अपने बारे में परिचय देते हुए अपनी कृति- ज्ञान प्रकाश में लिखते हैं-
कमिश्नरी इलाहाबाद में जिला हमीरपुर नाम ।
बिंवार थाना है, मेरा मुकाम भरखरी ग्राम ।।
सिद्ध निद्धि वसु भूमि की वर्ष ईस्वी पाय ।
मास शत्रु तिथि तेरहवीं डच-गैयाना आय ।।
गिरमिट काटी पाँच वर्ष की, कोठी रूस्तम लोस्त ।
सर्दार रहेउँ वहँ बीस वर्ष लों, लीचे मनयर होर्स्त ।।
अग्नि व्योम इक खंड भुईं ईस्वी आय ।
मास वर्ग तिथि तेरहवीं गिरमिट बीती भाय ।।
खेत का नंबर चार है, देइक फेल्त मम ग्राम ।
सुरिनाम देश में वास है, रहमानखान निज नाम ।।
मुंशी रहमान खान ने अपने बारे में लगभग सारी बातें इन पंक्तियों में बता दीं, किंतु उनका सूरीनाम तक का सफर इतना भी सरल नहीं था। मोहम्मद खान के पुत्र मुंशी रहमान खान का जन्म हमीरपुर जिले के बिंवार थाना में आने वाले भरखरी गाँव में सन् 1874 ई. को हुआ था। मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे एक सरकारी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गए थे। बचपन से ही जिज्ञासु और कलाप्रेमी मुंशी रहमान खान को रामलीलाओं से बड़ा लगाव था। संभवतः इसी कारण वे अध्यापन-कार्य से बचने वाले समय का सदुपयोग रामलीला आदि देखने में किया करते थे।
सन् 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम के बाद बुंदेलखंड अंचल में भी अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था, और वर्तमान बुंदेलखंड का हमीरपुर जनपद संयुक्तप्रांत के अंतर्गत आ गया था। हमीरपुर से लगा हुआ कानपुर नगर बड़े व्यावसायिक केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था और अंग्रेजों के लिए बड़ा व्यावसायिक केंद्र था। दूसरी तरफ, कानपुर का अपना ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्त्व भी रहा है। सचेंडी के राजा हिंदू सिंह ने कानपुर में रामलीलाओं के मंचन की शुरुआत सन् 1774 ई. में की थी। इसके बाद कानपुर के अलग-अलग इलाकों, जैसे- जाजमऊ, परेड, गोविंदनगर, पाल्हेपुर (सरसौल) आदि की रामलीलाओं के कारण कानपुर की अपनी प्रसिद्धि रही है। रामलीला के अंतर्गत आने वाली धनुषयज्ञ की लीला का जन्म ही बुंदेलखंड में हुआ था, जो कालांतर में कानपुर तक प्रसिद्ध हुई। इन कारणों से तमाम लीलाप्रेमियों के लिए कानपुर जाकर रामलीला देखना अनूठे शग़ल की तरह होता था। मुंशी रहमान खान भी इसी शौक के कारण कानपुर पहुँच गए। कानपुर में उनकी मुलाकात दो अंग्रेज दलालों से हुई, जो कानपुर और बुंदेलखंड के आसपास के इलाकों से किसानों-कामगारों को दूसरे ब्रिटिश उपनिवेशों में कामगार मजदूर के तौर पर ले जाते थे।
कानपुर, मद्रास, कलकत्ता और बंबई; चार ऐसे बड़े केंद्र थे, जहाँ आसपास के ऐसे किसानों-मजदूरों को पकड़कर ले जाया जाता था, जो प्रायः लगान नहीं चुका पाते थे। हालाँकि मुंशी रहमान खान के सामने ऐसा संकट नहीं था, किंतु वे भी अंग्रेज दलालों के झाँसे में आ गए और गिरमिटिया मजदूर के रूप में उन्हें सूरीनाम भेजने का बंदोबस्त कर दिया गया। वस्तुतः, गिरमिटिया शब्द अंग्रेजी के ‘एग्रीमेंट’ से विकृत होकर बना है। ‘एग्रीमेंट’ या करार के तहत विदेश भेजे जाने वाले मजदूर ही ‘एग्रीमेंटिया’ और फिर गिरमिटिया बन गए थे।
सन् 1898 ई. में 24 वर्ष की आयु में मुंशी रहमान खान को गिरमिटिया मजदूर के तौर पर कानपुर से कलकत्ता, और फिर सूरीनाम के लिए जहाज से रवाना किया गया। दक्षिण अमेरिका के उत्तर में स्थित सूरीनाम अंग्रेजों का उपनिवेश था, जिसमें बड़ी संख्या में गिरमिटिया मजदूरों को अंग्रेजों ने बसाया था। भारत से सूरीनाम तक की जहाज की यात्रा भी बहुत कष्टसाध्य और लंबी होती थी। इस यात्रा में कई मजदूर रास्ते में ही दम तोड़ देते थे। इन विषम स्थितियों के बीच जब मुंशी रहमान खान ने समुद्री यात्रा शुरू की, तब उन्होंने दो बातें अच्छी तरह से समझ ली थीं। पहली यह, कि अब वे शायद कभी लौटकर नहीं आ सकेंगे, और दूसरी यह, कि उनके साथ जहाज में सवार अनपढ़-असहाय गिरमिटिया मजदूरों के कल्याण के लिए भी उन्हें समर्पित होना पड़ेगा।
समूचे मध्य भारत के लिए श्रीरामचरितमानस के प्रति ऐसे आदर्श और पवित्र ग्रंथ की मान्यता रही है, जो विपत्ति के समय रास्ता दिखा सकता था। आज भी ऐसा ही माना जाता है। इसी कारण पढ़े-लिखे, और साथ ही अनपढ़ों के पास भी मानस की प्रति जरूर होती थी। बुंदेलखंड के गाँवों में आज भी तमाम ऐसे लोग मिल जाएँगे, जिनको मानस कंठस्थ है। गिरमिटिया मजदूरों के लिए भी परदेश में, आपद-विपद में मानस का ही सहारा था। संकट केवल इतना था, कि मानस की पुस्तक साथ में होते हुए भी उसे पढ़ पाना जहाज में सवार अनपढ़ गिरमिटिया मजदूरों के लिए संभव नहीं था। जहाज में मुंशी रहमान खान के अलावा कोई भी पढ़ा-लिखा नहीं था। अपने सहयात्रियों को संबल-साहस देने के लिए मुंशी रहमान खान ने रामायण का पाठ करना शुरू कर दिया। वे नियमित रूप से ऐसा करते, और मानस को सुनकर गिरमिटिया मजदूरों को संकट से जूझने की नई ताकत मिलती थी।
सूरीनाम पहुँचने के बाद भी यह क्रम निरंतर चलता रहा, और इसी कारण मुंशी रहमान खान को  ‘कथावाचक’ की उपाधि मिल गई। सरकारी स्कूल में शिक्षक होने के कारण उन्हें ‘मुंशीजी’ कहा जाता था। कहीं-कहीं ऐसा भी बताया जाता है, कि वे सरकारी शिक्षक नहीं थे। वे गिरमिटिया मजदूरों के बच्चों को पढ़ाया करते थे, इस कारण लोग उन्हें सम्मान से ‘मुंशीजी’ कहने लगे थे। कारण चाहे जो भी रहे हों, किंतु उन्होंने अपनी नैतिक जिम्मेदारी को बहुत अच्छी तरह से निभाया। मुंशी रहमान खान को उर्दू लिखना नहीं आता था, इस कारण उन्होंने नागरी लिपि में ही रचनाएँ कीं। उन्होंने देशी भाषा में, और साथ ही दोहा-चौपाई छंदों में रचनाएँ कीं। इस कारण उनकी रचनाएँ सूरीनाम में रहने वाले गिरमिटिया मजदूरों के बीच बहुत प्रसिद्ध हुईं। इन रचनाओं में अकसर नीति-नैतिकता की शिक्षाएँ भी होती थीं। भारत से सूरीनाम पहुँचने वाले गिरमिटिया मजदूरों में सभी जातियों के लोग थे। उनमें हिंदू भी थे, और मुस्लिम भी थे। परदेस में सभी एक रहें, मिल-जुलकर रहें और अंग्रेजों के अन्याय-अत्याचार से संघर्ष हेतु एकजुट रहें, इस पर भी मुंशी रहमान खान ने बहुत जोर दिया, और रचनाएँ कीं। इसी कारण वे सूरीनाम में जनकवि के रूप में विख्यात हो गए। एक बानगी के तौर पर उनके द्वारा रचित चंद पंक्तियाँ-
दुई जाति भारत से आये । हिंदू मुसलमान कहलाये ।।
रही प्रीति दोनहुँ में भारी । जस दुइ बंधु एक महतारी ।।
सब बिधि भूपति कीन्हि भलाई । दुःख अरु विपति में भयो सहाई ।।
हिलमिल कर निशि वासर रहते । नहिं अनभल कोइ किसी का करते ।।
बाढ़ी अस दोनहुँ में प्रीति । मिल गये दाल भात की रीति ।।
खान पियन सब साथै होवै । नहीं विघ्न कोई कारज होवै ।।
सब बिधि करें सत्य व्यवहारा । जस पद होय करें सत्कारा ।।
मुंशी रहमान खान ने सूरीनाम में पाँच वर्षों तक गिरमिटिया मजदूर के रूप में काम किया, बाद में उनकी लोकप्रियता और उनकी काबिलियत को देखते हुए अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें मजदूरों के एक समूह का सरदार बना दिया। पहले गिरमिटिया मजदूर के तौर पर, और उसके बाद बीस वर्षों तक मजदूरों के सरदार के तौर पर वे अपने काम को करने के साथ ही सारे समूह को एकसाथ जोड़े रखने के लिए लगातार काम करते रहे। इस दौरान उनकी लेखनी भी नहीं रुकी। इसी के परिणामस्वरूप उनकी दोनों पुस्तकें- दोहा शिक्षावली और ज्ञान प्रकाश, क्रमशः सन् 1953 और 1954 ई. में तैयार हो गई थीं। उन दिनों सूरीनाम में हिंदी की पुस्तकों की छपाई भी बहुत कठिन रही होगी। इन पुस्तकों की छपाई आदि के संबंध में अधिक जानकारी तो नहीं मिलती, किंतु मुंशी रहमान खान द्वारा ‘ज्ञान प्रकाश’ में दिए गए विवरण से पता चलता है, कि उनकी ख्याति तत्कालीन राजपरिवार तक पहुँच चुकी थी, और रानी युलियान द्वारा उन्हें सम्मानित भी किया गया था-
लेतरकेंदख स्वर्ण पद दीन्ह क्वीन युलियान ।
अजरु अमर दंपत्ति रहैं, प्रिंस देंय भगवान ।।
स्वर्ण पदक दूजो दियो मिल सन्नुतुल जमात ।
यह बरकत है दान की, की विद्या खैरात ।।
मुंशी रहमान खान ने इन दोनों सम्मानों का विस्तृत वर्णन अपनी पुस्तकों में किया है। उनकी तीसरी पुस्तक का नाम है- जीवन प्रकाश, जो उनकी आत्मकथा है। इस पुस्तक में चार खंड हैं। इसके पहले खंड में उन्होंने अपने गाँव और अपने परिवार का परिचय देते हुए भारत की साझी संस्कृति को बड़े रोचक तरीके से लिखा है। इस खंड में ही उन्होंने सूरीनाम तक की अपनी यात्रा और वहाँ गिरमिटिया मजदूरों के जीवन का विशद वर्णन किया है। दूसरे खंड में उन्होंने सूरीनाम में अपने काम के बारे में बताया है। इस खंड में उन्होंने अंग्रेज अधिकारियों से हुए झगड़ों के बारे में, अंग्रेजों द्वारा उन्हें मजदूरों का सरदार बनाए जाने के बारे में और साथ ही अपने जीवन-संघर्षों के बारे में बताया है। तीसरे खंड में उनके विविध संस्मरण हैं, जिनमें सूरीनाम के बदलते हालात भी हैं, देश-दुनिया के तमाम बदलावों की बातें भी हैं, सूरीनाम में सशक्त-सक्षम होते गिरमिटिया मजदूरों की जिंदगी भी है, और साथ ही भारत में चलते स्वाधीनता आंदोलन की झलक भी है। सन् 1931 में सूरीनाम की राजधानी पारामारिबो में सूरीनाम नदी के किनारे डिजवेल्ड इलाके में उन्होंने अपना मकान बनवाया, जहाँ वे अपने पाँच बेटों के साथ रहने लगे। उनकी आत्मकथा के चौथे खंड में बदलते सूरीनाम की दुःखद तस्वीर यक्साँ है। इसमें धर्म और जाति के नाम पर शुरू होने वाले झगड़े हैं, जो मुंशी रहमान खान के लिए बहुत कष्टप्रद दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि उन्होंने सदैव जाति-धर्म के झगड़ों को दूर करके एकता की बात कही, मेल-मिलाप की बात कही। उनके लिए राम और कृष्ण का भारत सदैव पूज्य रहा। उनके लिए सभी भारतवंशी एक माँ की संतान की तरह रहे। इस कारण बाद के वर्षों में बदलती स्थितियों के कारण उन्हें बहुत कष्ट हुआ, जो उनकी आत्मकथा के चौथे हिस्से में खुलकर उभरता है।
भारत में चल रहे स्वाधीनता आंदोलन की खबरें भी मुंशी रहमान खान तक पहुँचती रहती थीं। अपने वतन से हजारों किलोमीटर दूर, एक तरह से कालापानी की सजा भोगते हुए भी उनके लिए अपने वतन के प्रति लगाव था। वे भारतदेश को आजाद देखना चाहते थे। भारत की आजादी की लड़ाई दुनिया के दूसरे उपनिवेशों के लिए प्रेरणा का स्रोत थी। मुंशी रहमान खान की कविताओं में इसी कारण भारत की आजादी की लड़ाई की झलक दिखाई पड़ती है, देश के स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के प्रति आस्था और सम्मान का भाव दिखाई देता है। इस सबके बीच वे अपनी बुंदेली बोली-बानी को भी नहीं भूल पाते हैं। उनकी दूसरी रचनाओं से कहीं अधिक बुंदेली की मिठास आजादी से संबंधित रचनाओं में उभरती है। एक बानगी-
नौरोजी, मिस्टर गोखले, गंगाधर आजाद,
मोतीलाल, पति, मालवी इनकी रही मर्याद,
इनकी रही मर्याद, बीज इनहीं कर बोयो,
भारत लह्यो स्वराज नाम गिरमिट का खोयो,
कहें रहमान कार्य शूरन के कीन्ह साज बिनु फौजी,
मुहम्मद, शौकत अली अरु चंद्र बोस, नौरोजी ।।
इन पंक्तियों में जहाँ एक ओर भारत की आजादी के आंदोलन के महानायकों का विवरण मिलता है, वहीं इन सेनानियों से प्रेरणा लेकर अपने देश को आजाद कराने का संदेश भी मुखर होता है। मुंशी रहमान खान सूरीनाम के गिरमिटिया मजदूरों को बड़ी सरलता और सादगी के साथ संदेश देते हैं, कि अब सूरीनाम ही हमारा वतन है। हमें इसको भी आजाद कराना है, और इसे आजादी दिलाने के लिए हमें भारत के स्वाधीनता सेनानियों से सीख लेकर गिरमिट या ‘एग्रीमेंट’ की दासता से मुक्त होना है।
सन् 1972 ई. में 98 साल की श्रीआयु पूरी करके मुंशी रहमान खान ने सूरीनाम में अपनी जीवन-लीला समाप्त की। वे भले ही सूरीनाम की आजादी नहीं देख पाए हों, किंतु उनके प्रयास निरर्थक नहीं गए। सूरीनाम की धरती पर अपने कदम रखने के बाद से ही जिस महामना ने सदैव लोगों को जोड़ने का, एकजुट होने का संदेश दिया; जिसने सदैव नीति-नैतिकता की शिक्षा दी, पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया, और फिर दुनिया में बदलते हालात के अनुरूप बदलते हुए सूरीनाम की आजादी की अलख जगाई, उसके प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की आस्थाएँ आज भी देखी जा सकती हैं। उन्हें सूरीनाम का राष्ट्रकवि माना जाता है। ऐसे महामना का संबंध जब बुंदेलखंड से जुड़ता है, तो असीमित-अपरिमित गर्व की अनुभूति होती है।
मुंशी रहमान खान अगर चाहते, तो पाँच साल का ‘एग्रीमेंट’ पूरा करके, गिरमिटिया का तमगा उतारकर अपने देश आ सकते थे, किंतु तमाम दूसरे गिरमिटिया मजदूरों की तरह वे नहीं आए। उन्होंने सूरीनाम को ही अपना देश मान लिया, वहाँ अपना परिवार बसाया। इतना ही नहीं भारतीय संस्कृति को, बुंदेलखंड की संघर्षशील-कर्मठ-जुझारू धरती के गुणों को सूरीनाम में अपने निर्वासित साथियों के बीच पुष्पित-पल्लवित किया। इस कारण मुंशी रहमान खान भारतीय संस्कृति के, बुंदेलखंड की तहजीब के संवाहक हैं; सांस्कृतिक दूत हैं। मुंशी रहमान खान की तीसरी पीढ़ी सहित अनेक गिरमिटिया मजदूरों की तीसरी-चौथी पीढ़ी आज सूरीनाम में फल-फूल रही है, और जिस आजादी को अनुभूत कर रही है, उसमें बहुत बड़ा योगदान बुंदेलखंड के इस बाँके नौजवान का है। हमें गर्व है, कि हमारी उर्वर बुंदेली धरा ने ऐसा हीरा उपजाया है।
(बुंदेली दरसन- 2019, बसारी, छतरपुर. मध्यप्रदेश में प्रकाशित)
राहुल मिश्र