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Saturday 19 March 2022

पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

 


पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

पूर्वोत्तर भारत, भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश। किसी समय इस समग्र प्रदेश को ‘नेफा’, यानि ‘नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ के नाम से जाना जाता था। ईशान्य ही ‘नार्थ-ईस्ट’ है। भारतीय वाङ्मय के अंतर्गत आने वाले शिल्पशास्त्र में वास्तुशिल्प का अपना विशिष्ट स्थान है और इसे विधिवत् शास्त्र की संज्ञा दी जाती है। वास्तुशिल्पशास्त्र में ईशान्य का विशेष महत्त्व बताया गया है। ईशान, अर्थात् हरमहेश्वर रुद्र और प्रकृति के आदिपुरुष शिव से भी इस दिशा को पहचान सकते हैं। वास्तुपुरुष मंडल में उत्तर-पूर्व की दिशा मस्तक की होती है। यह ग्रहाधिपति सूर्य की दिशा होने के कारण सर्वाधिक ऊर्जावान होती है। इस कारण प्रवेश-द्वार, द्वारमंडप और ध्यान-पूजा इत्यादि के लिए इस दिशा को सर्वथा उपयुक्त बताया गया है। भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश, या पूर्वोत्तर प्रदेश इसी दृष्टि से अत्यंत समृद्ध, प्राचीन और विशिष्ट है। इसी कारण भक्ति के भावों की व्याप्ति पूर्वोत्तर के कण-कण में है। इसी कारण पूर्वोत्तर के जीवन में भक्ति के भाव रचे-बसे हुए हैं।

भक्ति-साहित्य, स्वंय में एक रूढ़ शब्द है, जो काल-विशेष में रची गई भक्तिपरक रचनाओं का द्योतक है। मध्यकाल के पूर्वार्ध में, सन् 1350 से 1650 ई. के आसपास दक्षिण भारत के भक्तकवियों की रचनाओं के उत्तर भारत में आते प्रभावों के फलस्वरूप उत्तरभारत के भक्तकवियों द्वारा रची गई भक्तिपरक रचनाएँ ही सामान्यतः भक्ति-साहित्य की श्रेणी में रखी जाती हैं। इसी कारण भक्तिकाल और भक्ति-साहित्य एक विशेष कालखंड और उस कालखंड में रची गई रचनाओं के लिए रूढ़ हैं। इस दृष्टि से अगर देखें, तो पूर्वोत्तर भारत के भक्ति-साहित्य के अनुशीलन हेतु एक सीमारेखा बनी हुई प्रतीत होने लगती है, जो स्वयं में संकुचित और अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों-विषयों को अपनी परिधि से बाहर छोड़ देती हुई दिखाई पड़ती है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य को इस सीमारेखा में बाँधकर जानना-परखना इसी कारण उचित नहीं होगा।

इस निश्चित सीमा से अलग हटकर यदि भक्ति के भाव से ओतप्रोत साहित्य को देखें, तो सृष्टि के आदिम काल से ही भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य दिखाई पड़ने लगता है, जिसमें श्रद्धा और प्रेम का सम्मिश्रण मानवीय अभिव्यक्तियों में मुखर होता है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को इसी दृष्टि से यहाँ बताने का प्रयास किया गया है। पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृति अपने स्वरूप और अपने परिचालन में इतनी प्राचीन है, कि उसमें श्रद्धा और प्रेम के भाव, जिन्हें सम्मिलित रूप में भक्ति कह सकते हैं, सृष्टि की दृश्य-अदृश्य शक्तियों के प्रति प्रकट होते रहे हैं। इसका प्रथम दर्शन पूर्वोत्तर के शिष्ट या लिखित साहित्य से कहीं आगे प्रकीर्ण साहित्य में होता है; लोकगीतों, किस्सों-कथाओं, लोकनृत्यों आदि में होता है।

अविभाजित पूर्वोत्तर, अर्थात् भाषायी-जातीय-क्षेत्रीय पहचान के आधार पर आठ अलग राज्यों में बँटे पूर्वोत्तर का प्राचीन स्वरूप ऐसा रहा है, जहाँ जनजातीय समूहों के बीच प्रकृति की पूजा का क्रम अलग-अलग विधि-विधानों के साथ एकसमान रूप से चलता रहा है। यही एक तत्त्व विभिन्न भाषायी-जनजातीय विभेदों को किनारे रखकर समूचे पूर्वोत्तर को एक सूत्र में बाँधे रहा है। प्रकृति की पूजा में भी प्रकृति के आदि पुरुष और प्रकृति की आदिशक्ति, अर्थात् शिव और शक्ति की पूजा होती रही है। असम के बोडो जनजातीय समूह में दिवा और दिवि को आद्य देवी-देवता की मान्यता प्राप्त है। ये शिव और पार्वती के प्रतीक हैं। इसी प्रकार देउरी जनजातीय समूह में गिरा और गिराची की पूजा होती है। लालुंग समूह फा महादेव को अपना आदिदेव मानते हैं और स्वयं को उनका ही वंशज मानते हैं। तिवा (लालुंग) आदिवासियों द्वारा पूजा हेतु स्थापित किया जाने वाला त्रिपद, त्रिनेत्रधारी शिव का ही प्रतीक होता है। पूर्वोत्तर भारत के लगभग सभी जनजातीय समूहों में शिव के अनेक रूप प्रचलित हैं। शिव को शक्ति के साथ ही पूर्णता मिलती है। ये शिव किसी मंदिर में विराजने वाले नहीं हैं, अलौकिक सिंगार करने वाले भी नहीं हैं। आदिम-आदिवासी जीवन में रचे-बसे हुए हैं। इसी कारण पूर्वोत्तर के अनेक लोकगीतों- लोककथाओं में वे पूरी तरह से देशी रूप में, भंग-धतूरे के सेवनकर्ता और फक्कड़ दिखाई देते हैं। शिव का यह स्वरूप आदिवासी जीवन के अत्यंत निकट होने के कारण ही सहजता के साथ जन-स्वीकार्य हो जाता है। शिव का पशुपति रूप भी यहाँ बहुत प्रचलित है। नंदी की उपस्थिति गौवंश के प्रति जनजातीय आस्था को पुष्ट करती है। अनेक रीति-रिवाजों में गौपूजन अनिवार्य होता है।

असम का बिहू पूर्वोत्तर भारत की पहचान से जुड़ा हुआ पर्व है। यह भी गौपूजन के बिना संपन्न नहीं होता है। वस्तुतः यह पर्व प्रकृति के विभिन्न उपादानों के प्रति आस्था और श्रद्धा का पर्व है। बहाग (वैशाख), काति (कार्तिक) और माघ बिहू के तीन बड़े आयोजनों के साथ ही पूर्वोत्तर के अलग-अलग क्षेत्रों में बिहू के कुछ अन्य स्थनीय संस्करण भी होते हैं। बिहू पर्व की इतनी विविधता और पर्व में कृषि के साथ जुड़े उत्सवों की प्रधानता बिहू के प्रकृतिपूजक स्वभाव को व्याख्यायित करती है। जब प्रकृति वसंत के विभिन्न रंगों से रंग जाती है, तब बहाग बिहू अपने स्थानीय नाम, अर्थात् रंगाली बिहू के रूप में मनाया जाता है। काति बिहू का दूसरा नाम कंगाली बिहू भी है, जो कि कार्तिक के समय किसानों के खाली अन्न-भांडारों या कंगाली को प्रकट करता है। रिक्तता का अपना उत्सव है। तुलसी चौरे की पूजा के साथ ही खेतों में दीपक जलाकर अच्छी फसल की कामना करते हुए कंगाली बिहू अनाज के कोठारों को खूब भर देने की कामना के साथ मनाया जाता है। माघ बिहू को भोगाली बिहू भी कहते हैं, जिसमें धन-धान्य से परिपूर्ण भोग-आनंद का उत्सव होता है। फसल की कटाई के साथ कृषि-प्रधान जीवन में उमंग और उल्लास भर जाता है, जो इस पर्व में प्रकट होता है। सोलुंग, सोरी, दारांग, माहोहो, आओलिं मोन्यु, चांग नागा समुदाय का ‘नाक्नयुलेम’ पर्व, लेपचा समुदाय का ‘तेंदोंग-ल्हो-रम-फत’ और मिजो समुदाय का ‘न्हुआई-पुई’ आदि पर्व-अनुष्ठान अलग-अलग तरीकों से प्रकृति पूजा के साथ जुड़े हुए हैं। इन पर्वों-अनुष्ठानों में लोकगीतों, लोककथाओं और लोकनृत्यों का विशेष स्थान होता है। इनके माध्यम से आदिवासी समूह प्रकृति के प्रति अपनी श्रद्धा और अपने प्रेम को प्रकट करते आए हैं। प्रकृति-पूजा के साथ ही इन पर्वों-अनुष्ठानों में आदिवासी समुदायों के आदिपुरुषों, वीर योद्धाओं के जीवन-चरित और उनकी कथाएँ भी जुड़ती चली गईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश में ‘आबो-तानी’ के नाम से ऐसे शक्तिशाली पुरुष को पूजा जाता है, जो लोगों को प्राकृतिक आपदाओं और संकटों से बचाने वाला है। इसी कारण वे ‘आबो-तानी’ को अपना जन्मदाता मानते हैं। ‘आबो-तानी’ की छः संताने हैं, जो अलग-अलग जनजातीय पहचान बना चुकी हैं। इनको तानी वर्ग का जनजातीय समूह कहा जाता है। यह समूह मानता है, कि दोइनि-पोल्लो (सूर्य-चंद्र) आकाश में विराजते हैं और दुनिया के सारे कर्मों-कुकर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। ये अच्छे लोगों का मार्गदर्शन भी करते हैं और बुरे लोगों को दंड भी देते हैं। सूर्य और चंद्रमा की पूजा प्रकृति से जुड़ी हुई है। नदी, तारे, झरने, वन आदि की पूजा पूर्वोत्तर के प्रकृतिपूजक समाज की आस्थाओं को व्याख्यायित करती है।

मणिपुर का मैतेयी जनजातीय समूह ‘सने-मही’ की पूजा करता है। ‘सने-मही’ मुख्य रूप से प्रकृति के देवता हैं। इनके प्रति समूचे पूर्वोत्तर में आस्था देखी जा सकती है। ‘सने-मही’ मत का मैतेयी में लिखा आदिग्रंथ है- पूया। यह वस्तुतः ‘पू’ और ‘याथङ्’ से बना है, जिसका अर्थ है- पूर्वजों द्वारा दिये गए निर्देश। इस ग्रंथ में ‘लाइ-हाइ-लाओबा’, अर्थात् भगवान् के आनंद, के साथ ‘लाइ-हराओबा’ नामक पर्व को जोड़ा गया है। भगवान को आनंद प्रकृति के निर्माण और संचालन में आता है, अपनी सृष्टि को प्रसन्न देखने में आता है। इस कारण ‘लाइ-हराओबा’ सीधे-सीधे सृष्टि की उत्पत्ति की अवधारणा और प्रकृति की पूजा से जुड़ जाता है। यह पर्व अनेक नृत्यों, लोकगीतों और पर्वानुष्ठानों का समन्वित रूप है। इसमें उमंगलाई, अर्थात् वन के देवी-देवताओं की पूजा होती है। पोखरों-तालाबों की पूजा होती है। इसमें तीन सौ से अधिक ग्रामदेवी-देवताओं की पूजा होती है, पूर्वजों की पूजा होती है।

‘लाइ-हराओबा’ के इस दीर्घ नृत्य-नाट्यानुष्ठान में पूर्वोत्तर की उस वैचारिकता की झलक भी मिलती है, जो सृष्टि की उत्पत्ति और मानव के सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों के प्रति सजग रही है। यह धार्मिक नृत्य-नाट्यानुष्ठान इसी कारण प्रेमकथाओं की उपस्थिति के बाद भी विशुद्ध रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष को स्वयं में जीवंत रखता है। सृष्टि के निर्माण और संचालन में नर-नारी की उपस्थित, उनकी लौकिक-ऐहिक भाव-भंगिमाएँ असंयमित नहीं करती हैं; मन में विकृत भावों को, कामोत्तेजना को उत्पन्न नहीं करती हैं। यह समग्र अनुष्ठान पुस्तकीय ज्ञान से इतर सामाजिक-सांस्कृतिक शिक्षा का अद्भुत माध्यम बन जाता है।

‘लाइ-हराओबा’ के नृत्य-नाट्यानुष्ठान का एक महत्त्वपूर्ण अंश होता है- ‘खंबा-थोइबी’ नृत्य। यह भी नाट्य-नृत्य है। इसमें लोककथा भी समाहित है। ‘खंबा’ एक साधारण युवक है, और ‘थोइबी’ राजकुमारी है। मणिपुर का पुरातन नगर है- मोइरङ। यह मोइरङ वंश के 52 प्रतापी शासकों की राजधानी रहा है। ‘खंबा-थोइबी’ की उत्पत्ति भी इसी प्राचीनतम नगर में हुई है, ऐसी मान्यता ‘मोइरङ परब’ नामक मणिपुरी महाकाव्य में व्यक्त हुई है। खंबा-थोइबी 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के ऐसे नायक-नायिका हैं, जिन्होंने प्रेम की अनूठी परिभाषा को समाज के सामने रखा था। अनाथ खंबा की बहन खाममू ने मेहनत-मजदूरी करके, और भीख माँग-माँगकर खंबा को पाला था। थोइबी मोइरङ राजपरिवार की राजकुमारी थी। मोइरङ राजा और उनके भाई के बीच वह इकलौती संतान थी। खंबा और थोइबी के पवित्र प्रेम के बीच कोङ्ग्याङ्बा आ जाता है। वह मोइरङ राजपरिवार के विश्वस्त अधिकारी का बेटा है। तमाम कथा-प्रसंगों के बीच खंबा और थोइबी का प्रेम सफल हो जाता है, किंतु जरा-सी एक भूल होती है, और थोइबी के हाथों खंबा की हत्या हो जाती है। अंत में थोइबी भी आत्महत्या कर लेती है।

इस लोकनाट्य-नृत्य में नटराज की अनेक नृत्यमुद्राएँ आती हैं। इस कारण यह नृत्य-नाट्य शिव के तांडव और नटराज रूप से भी जुड़ जाता है। धूनी रमाने वाले, वन-प्रांतरों में निवास करने वाले शिव को ‘खंबा’ में, और राजा हिमांचल की पुत्री राजकुमारी पार्वती को ‘थोइबी’ में देखते हुए ‘खंबा-थोइबी’ नामक यह लोकनृत्य-नाट्य शिव-पार्वती की कथा से जुड़ जाता है। भले ही शिव और पार्वती के जीवन की कथा पूरी तरह से खंबा-थोइबी की कथा से मेल न खाती हो, फिर भी इस प्रेमकथा में शिव और पार्वती के आगमन से यह ऐसे प्रेमाख्यानक काव्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसे भक्तिकाल की प्रेममार्गी काव्यधारा के पूर्वोत्तरीय संस्करण के रूप में देख सकते हैं। शिव के साथ शक्ति के रौद्र और सौम्य रूप, यथा- कामाख्या और त्रिपुरसुंदरी पूर्वोत्तर में शाक्त-साधना के प्रतीक हैं।

पूर्वोत्तर की एक अन्य प्रमुख जनजाति है- मिकिर। यह स्वयं को ‘करबी’ भी कहती है। ‘करबी’ का स्थानीय बोली में अर्थ होता है- मनुष्य। ये स्वयं को ब्रह्मा से उत्पन्न मानते हैं। इस प्रकार ये देव से उत्पन्न मनुष्य हैं। इस समुदाय के द्वारा पूर्वजों के श्राद्धकर्म के समय लोकगीत गाया जाता है, जिसमें किसी महान पक्षी द्वारा अनेक अंडे दिये जाने का वर्णन मिलता है। मिकिरों या करबियों के अनुसार ये अंडे ब्रह्मा के दिये हुए थे, और इन अंडों में से ही मनुष्यों की अलग-अलग प्रजातियाँ उत्पन्न हुईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश के लोहित जनपद में परशुराम कुंड है। यह कुंड मिशिम प्रदेश के हृदय में स्थित है। अरुणाचल प्रदेश की जनजातीय व्यवस्था में मिश्मी जनजाति की बड़ी संख्या है। पुराने समय में ये परशुराम कुंड की व्यवस्था करने और यात्रियों से कर वसूलने का काम करते थे। मिश्मी लोग स्वयं को कुंडिनपुर के राजा भीष्मक के पुत्र रुक्मि का वंशज मानते हैं। रुक्मिणी के अनुरोध पर श्रीकृष्ण ने शिशुपाल से रुक्मिणी के विवाह को रुकवाया था, और स्वयं विवाह किया था। इस पर रुक्मि और श्रीकृष्ण के मध्य भयंकर संघर्ष भी हुआ। कहा जाता है, कि रुक्मिणी के कहने पर श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का ऐसा प्रहार किया, कि रुक्मिणी के भाई रुक्मि का अजीब तरीके से केश-कर्तन हो गया। इस कारण आज भी मिश्मी समुदाय के लोग बहुत छोटे केश रखते हैं। इसी तरह हार से दुःखी मिश्मी समुदाय के लोग अपने कपाल पर ‘कॉपलि’ नामक चाँदी का पट्टा धारण करते हैं।

आज के नागालैंड का दीमापुर हिडिंबापुर से विकृत होकर बना है, ऐसा माना जाता है। नागालैंड का एक जनजातीय समूह स्वयं को अज्ञातवासी भीम की पत्नी हिडिम्बा का वंशज मानता है। दीमापुर में  स्थित हिडिम्बा के बाड़ा में चौसर खेल की बड़ी-बड़ी गोटियाँ जैसी प्रस्तर आकृतियाँ रखी हैं, जिनसे किसी जमाने में भीम और उनका पुत्र घटोत्कच चौसर खेला करते थे, ऐसी भी मान्यता है।

बृहत् असम, अर्थात् कामरूप अर्थात् प्राग्ज्योतिष का राजा शैलाधिपति भगदत्त अपने किरात सैनिकों, अर्थात् वर्तमान नागालैंड के मूल निवासियों को साथ लेकर कौरवों की तरफ से महाभारत के युद्ध में लड़ने के लिए गया था। कुरुवंशीय राजा ययाति के पुत्र द्रहु की 38वीं पीढ़ी के राजा त्रिपुर से त्रिपुरा को अपना यह नाम मिला था। महाभारत का गंधर्वलोक, अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा का नैहर और अर्जुन के पुत्र बभ्रुवाहन द्वारा संचालित राजवंश का जीवंत साक्ष्य आज का मणिपुर है।

पूर्वोत्तर की तीवा (लालुंग) जनजाति अपने को माता सीता का वंशज मानती है। इसी प्रकार करवी जनजाति स्वयं को बालि और सुग्रीव का वंशज मानती है। पूर्वोत्तर में रामकथा का आगमन वाल्मीकि की रामायण के साथ होता है। इसके अतिरिक्त बंगाल की कृत्तिवासी रामायण का प्रभाव पूर्वोत्तर में पड़ा। 14वीं-15वीं शताब्दी में माधव कंदली द्वारा रचित सप्तकांड रामायण पूर्वोत्तर के लिखित भक्तिसाहित्य का पहला ग्रंथ कहा जा सकता है। यह देववाणी के रूप में नहीं, बल्कि लौकिक कथा के रूप में है, इस कारण बृहत् असम के लोकजीवन और प्रकृति के अनेक चित्र इसमें दिखाई पड़ते हैं। असमीया रामायण में सीता की अग्निपरीक्षा के प्रसंग में राम और सीता का संवाद भी है। इसमें अग्निपरीक्षा के लिए कहने पर सीता बहुत क्रोधित होती हैं। अन्य रामकथाओं की तरह असमीया रामकथा की सीता अबला नहीं दिखती हैं। यह प्रसंग पर्वतीय महिलाओं की संघर्षशीलता और उनके साहस को प्रकट करता है।

तिवा जनजाति में ‘रामायने खरङ्’ नाम से रामकथा का मौखिक रूप प्रचलित रहा है। इसमें वाल्मीकि रामयण के विभिन्न कथा-प्रसंग अलग-अलग लोकगीतों के रूप में आते हैं। ‘लिकछा लामाङ्’ खामति जनजाति की रामकथा है। इसमें बौद्ध प्रभाव है, और जातक कथाओं के प्रसंग भी इसमें आते हैं। करवी समुदाय में ‘छाबिन-आलुन्’ नामक लोकगीत गाए जाते हैं। ये लोकगीत रामकथा के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित होते हैं। चूँकि ये लिखित रूप में नहीं थे, इस कारण अलग-अलग गीत-खंडों में अलग-अलग कथाएँ होती हैं। ‘छाबिन-आलुन्’ का संकलित रूप ही करवी रामायण कहलाता है। इसमें करवी समुदाय का जीवन, उनका रहन-सहन और उनकी सांस्कृतिक विशिष्टताएँ समग्र रूप में समाहित हो गईं हैं। उदाहरण के रूप में, करवी रामायण के राम और लक्ष्मण परंपरागत झूम खेती करते हैं। राजा जनक भी झूम खेती करते हैं। सीता अपने पिता के लिए कलेवा लेकर, साथ ही धान से बनी देशी मदिरा लेकर खेत में जाती है। एक बार सीता अपने घर में साफ-सफाई करते समय भारी-से लोहे के धनुष को उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख देती हैं, और तब जनक यह तय करते हैं कि वे अपनी बेटी का विवाह ऐसे वीर युवक से करेंगे, जो इस धनुष को तोड़ देगा। तिवा, खामति और करवी रामकथाओं के लोक-संस्करणों की तरह अन्य जनजातीय समूहों में रामकथाएँ प्रचलित हैं। इन सभी में एक समानता है, कि इनमें जनजातीय-पर्वतीय जीवन इस तरह से घुला-मिला है, कि रामकथा और राम इन्हीं जनजातीय समूहों के अपने होकर रह गए हैं।

ये पूर्वोत्तर के जनजातीय समाजों के श्रद्धा और प्रेम के भाव ही कहे जाएँगे; जिन्होंने राम, कृष्ण, ब्रह्मा, शिव और शक्ति को अपने में ढाल लिया और उन्हें पूरी तरह से अपना बना लिया। भक्ति का यह ऐसा उदात्त और विलक्षण स्वरूप है, जिसे अन्यत्र खोज पाना जटिल और दुर्लभ है। श्रद्धा और प्रेम के भावों से भक्ति की निर्मिति को शाण्डिल्य और नारद ऋषियों ने बताया है। इसी प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी व्याख्यायित किया है। श्रद्धा और प्रेम के समन्वित भावों से निर्मित भक्ति और इस भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य पूर्वोत्तर की अपनी विशेष पहचान गढ़ता है। अतीत से वर्तमान तक समग्र पूर्वोत्तरीय भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार इसी भावभूमि पर हुआ है।

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक जनजातीय समुदायों का यह विशाल लोकसाहित्य, या कहें भक्तिसाहित्य लोककंठों में ही जीवित रहा। बाद में इसके लिखित संस्करण भी जागरूक साहित्यसेवियों द्वारा तैयार किये गए। सन् 1993 में रूपसिंह देउरी ने ‘रामायने खराङ्’ का असमीया लिपि में मुद्रित संस्करण तैयार किया। इसी प्रकार डॉ. देवेनचंद्र दास ने ‘छाबिन आलुन्’ को देवनागरी में लिपिबद्ध करके सन् 2000 ई. में प्रकाशित कराया। ऐसे अनेक प्रयास पूर्वोत्तर में हुए हैं, और इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है।

समग्रतः; प्रकृति-पूजा, प्रकृति पुरुष शिव और शक्ति से क्रमशः महाभारत-रामकथा के कथा-प्रसंगों ने पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को निर्मित किया। यह आधार मुख्यतः लोकजीवन, लोकसंस्कृति और लोकपरंपराओं-लोककलाओं का है। इसी कारण पौराणिक कथा-प्रसंग लोकसंस्करण में विकसित हुए, विस्तृत हुए। पूर्वोत्तर की यह ऐसी विशिष्टता है, जिसने युगों-युगों तक यहाँ के आस्थावान जनजातीय समूहों को एक सूत्र में बाँधे रखा। भले ही वैचारिक संक्रमणों, उन्माद और बर्बरता की स्थितियों ने, जातीय-क्षेत्रीय-भाषायी अस्मिता के संघर्षों और धार्मिक असंतुलनों ने पूर्वोत्तर की अपनी पुरानी पहचान को, जड़ों को गहराई में दबा दिया हो, मगर इस एक्य के सूत्र को, समन्वय को भक्ति साहित्य के लोकसंस्करणों के माध्यम से पुनर्जीवन दिया जा सकता है।

भक्ति-साहित्य का यह लोक-संस्करण भले ही शिष्ट साहित्य की परिधि से बाहर हो, किंतु इसी के रस-संचय से कालांतर में वैष्णव भक्ति (जात्रा, नामघर आदि) तक भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार पूर्वोत्तर में हुआ है। भक्ति-साहित्य के समग्र स्वरूप को पूर्वोत्तर के संदर्भ में माधवदेव द्वारा रचित निम्न पंक्तियों के आलोक में देखा जा सकता है-

धन्य-धन्य कलिकाल / धन्य नरतनु भाल / धन्य-धन्य भारतबरिषे (बरगीत / माधवदेव)

संदर्भ ग्रंथ-

1. भारत की लोकसंस्कृति, सं. हेमंत कुकरेती, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018,

2. भारतीय साहित्य की पहचान, सं. डॉ. सियाराम तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2015,

3. पूर्वोत्तर भारत का जनजातीय साहित्य, सं. डॉ. अनुशब्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2017,

4. कृतिरूप संघ दर्शन, संकलन व संपादन- हो. वे. शेषाद्रि, सुरुचि प्रकाशन, नयी दिल्ली, अष्टम सं. 2015,

5. असम : लोक-संस्कृति और साहित्य, जोगेश दास, हिंदी अनुवाद कृष्ण गोपाल अग्रवाल, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली, सं. 1976

6. मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में, डॉ. देवराज, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2006 ।

{पूर्वोत्तर भारत का भक्ति साहित्य (पुस्तक), संपादक डॉ. मंदाकिनी शर्मा, प्रकाशक- अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली में प्रकाशित}

-डॉ. राहुल मिश्र


Sunday 22 August 2021

भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

 



भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

यह केवल कहने की बात नहीं है, बल्कि इसे देखा भी जा सकता है, और सुना भी...। इसीलिए बात बहुत मार्के की है। नागिन, सपेरा और बीन...इन तीनों का गठजोड़ बहुत पुराना भी है, और स्थापित भी है। इन तीनों को अन्योन्याश्रय-संबंध के साथ हिंदी के सिनेमा ने भी बढ़-चढ़कर दिखाया है। जरा याद कीजिए उन फिल्मों को; जो नागिन, सपेरा और बीन की तिकड़ी को लेकर बनी हैं, या जिनमें इन तीनों का बहुत बड़ा ‘रोल’ दिखाई देता है। ‘नागिन’ छाप फिल्मों में ‘तेरी मेहरबानियाँ’ जैसा झोल नहीं दिखता, कि पोस्टर किसकी मेहरबानियों की बात कह रहा है? पूरी फिल्म में जब कुत्ता साये की तरह साथ नजर आता है, तब कुत्ते का नाम लिखना आखिर क्यों उचित नहीं...। अपन तो सोचा करते थे, कि फिल्म को अगर ‘कुत्ते की मेहरबानियाँ’ नाम दिया होता, तो शायद फिल्म की पटकथा और फिल्म के पोस्टर के बीच तादात्म्य दिखाई दे जाता।

खैर... बात नागिन की हो रही है, तो यहाँ बेझिझक बताना होगा, कि ‘नागिन’ टाइप फिल्में अपने नाम से भटकती नहीं हैं। इसी कारण ये फिल्में अपना तीखा और तेज असर डालती हैं। एक जमाना ऐसा भी था, जब नागिन का जादू ‘आधी दुनिया’ पर सिर चढ़कर बोला करता था। मोहतरमाएँ नागिन की तरह बल खाती थीं, और सपेरे को डस ही लेंगी जैसी अदा में हर समय दिखती थीं। अनेक शायरों के लिए ‘नागिन-सी चाल’ शेर-बहर की पैदाइश के लिए मुकम्मल माहौल बनाती थी। इस सबके बीच बीन भी कम महत्त्व की नहीं होती थी। बीन की धुन के साथ नागिन और सपेरे का नाच फिल्म से निकलकर सड़क तक कब और कैसे आया, इस पर ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। बात आगे बढ़ाने से पहले यह भी बताना कम रोचक नहीं लगता, कि आज भी हारमोनियम के सीखने वाले नए-नवोढ़े संगीतकारों के लिए नागिन की बीन वाली धुन बजाना खासा चैलेंज होता है, और उससे ही सीखने का क्रम आगे बढ़ता है।

नागिन वाला नाच ऐसा सदाबहार नाच है, जिसके बिना कह सकते हैं कि जयमालाएँ नहीं पड़तीं। दुनिया चाहे कितनी भी मॉडर्न क्यों न हो जाए। बारात भले ही शहर में जा रही हो, या गाँव की कच्ची और ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर...नागिन वाले नाच के बिना उसका सौंदर्य निखरता ही नहीं है। पूरे रंग में बारात चली जा रही है और दूल्हे के सगे सब अलग-अलग अदा में नाच रहे हैं। तभी बीच में से एक नागिन निकलकर जाती है, और ब्रास बैंड पार्टी के मुखिया को, यानि म्यूजिक डाइरेक्टर को हिदायत देती है- ए... नागिन.... बजाओ...। तुरंत ही कैसियो पर उंगलियाँ थिरककर ‘ऊँ..हूँ...हूँ...ऊँ.. हूँ... हूँ... हूँ...’ की धुन निकालने लगती हैं। दूसरी तरफ अलग-अलग नृत्य पद्धतियों में नाच रहे बरियाती सब चौंकन्ने हो जाते हैं। ताल बदलकर मुस्तैद हो जाते हैं और कितनी नागिनें और सपेरे एकदम प्रकट हो गए, गिनना कठिन हो जाता है। कभी-कभी नागिन एक ही होती है, और सपेरे कई। सपेरा बनना भी आसान... पतलून से रूमाल निकाला, और एक कोना मुँह में दबाकर दूसरे कोने को दोनों हाथों से पकड़ा, और बस... सपेरे की बीन भी तैयार....। नागिन को इतना कुछ नहीं करना पड़ता। वह अपनी दोनों हथेलियों को फन की तरह बनाकर सपेरों से मुकाबले के लिए उतर पड़ती है। उसके सामने चैलेंज बड़ा होता है... कई-कई सपेरों से बचने का। इसके लिए उसे बार-बार लोटना पड़ता है, उठना पड़ता है, गिरना पड़ता है। सपेरे भी उसे काबू करने के लिए कम जोर आजमाइश नहीं करते। कैसियो की धुन की तेजी के साथ नागिन और सपेरे इस कदर लहालोट होते हैं, कि अपने तन-वसन की सुध भी भूल जाते हैं। गाँवों की कच्ची सड़कों या पगडंडियों पर नागिन-सपेरा का यह मुकाबला दूर से ही आभास करा देता है, धूल के उठते गुबार के जरिये...। अब देखिये... जनवासे से बढ़िया लकालक क्रीज बने हुए कपड़े पहनकर चली नागिनें और सपेरे दुलहिन के दुआर तक पहुँचते-पहुँचते ऐसे लगने लगते हैं, मानों घूर समेटकर आ रहे हों। यकीन मानिए, कि यह चमत्कार बीन की धुन में ही होता है, जो अपने कपड़ों की क्रीज को कम से कम जयमाल के फंक्शन तक न टूटने देने की बारातियों की प्रतिबद्धता को भंग करा देती है।

इतनी बड़ी अहमियत रखने वाली बीन की तौहीन तब होती है, जब वह भैंस के सामने पहुँचती है- भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय..। वैसे भैंस को लेकर और भी कई बातें हैं, जैसे- काला अक्षर भैंस बराबर और अकल बड़ी या भैंस.. आदि। भैंस के साथ इन लोक-कथनों को सुनकर अकसर यही आभास होता है, कि भैंस का पढ़ने-पढ़ाने या दिमागी कार्य-व्यवहारों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। बीन का अपना शास्त्रीय महत्त्व होता है। संगीत की पुरातन व्यवस्था में बीन नामक संगीत का उपकरण अपना स्थान रखता है। बीन का संबंध मन के आह्लाद से भी होता है, उमंग से भी होता है। इसी कारण बीन की धुन पर वह नागिन भी थिरकने लगती है, जिसके कान तक नहीं होते। सर्प प्रजाति के जीवों के कान नहीं होते। बीन की हरकतों को देखकर नागिन थिरकती है। फिर भी हम संगीत के प्रभाव को नकार नहीं सकते। हम संगीत के सुख में डूबने की स्थितियों को नकार नहीं सकते। संगीत जीवन में उमंग और उल्लास भरता है।

भैंस को संगीत से कोई मतलब नहीं होता। उसके दो कान भी होते हैं, देख भी सकती है, लेकिन न तो बीन की धुन ही उसे उद्वेलित करती है, और न ही बीन की कलात्मक थिरकन....। आँख और कान होते हुए भी उसके लिए उल्लास और उमंग कोई मायने नहीं रखते। जीवन का आह्लाद, जीवन की उमंग से वह कोसों दूर रहती है। एकदम वीतरागी होकर वह बीन के सामने खड़ी रहती है, पगुराती रहती है। संगीत उसके लिए नीरस है, उसके पास अपनी खुशी है, केवल पगुराने में...। उसके पास खुशी का कोई कारण बीन की धुन से खुश होने का नहीं है। ठीक उसी तरह, जिस तरह उसके लिए काला अक्षर होता है। जिस तरह वह अपने आकार-प्रकार से अकल को ‘चैलेंज’ करती है।

भैंस के प्रति ये नकारात्मक विचार कहे जा सकते हैं। भैंस की अपनी संस्कृति, अपनी पहचान की चिंता के पीछे उसके वीतरागी हो जाने की स्थितियों को छिपाया जा सकता है। बेशक भैंस बड़ी होती है। अकल छोटी होती है, क्योंकि अकल तो दिखाई भी नहीं पड़ती। इसी अकल के भरोसे अगर भैंस के चिंतन की गंभीरता का आकलन करें, तो कह सकते हैं, कि उसे बीन के संगीत के सामने अपनी चिंतन की गंभीरता को कुरबान कर देना उचित नहीं लगता। इसी कारण वह चिंतन की अतल गहराइयों में डूबे हुए बीन की धुन को ‘इग्नोर’ करती है। ऐसा करके वह अपनी महानता की, अपनी गंभीरता की, अपने गंभीर चिंतन की लाज रखती है।

अब आप कह सकते हैं, कि फिर उसे पगुराना क्यों होता है, और वह भी खड़े रहकर? दरअसल भैंस का खड़े रहना और पगुराना, दोनों ही उसके व्यक्तित्व से जुड़े हुए पहलू हैं। खड़े रहकर वह अपनी सक्रियता का बोध कराती है। वह यह बताती है, कि उसकी सक्रियता नायाब है। अगर वह बैठ जाएगी, तो उसके साथ सबकुछ बैठ ही जाएगा। एक जागरूक और चिंतनशील ‘परसन’ के लिए खड़े रहना कई कारणों से जरूरी होता है। और पगुराना भैंस का गुणधर्म है। अपनी चिंतनशीलता और अपने विकराल भौतिक व्यक्तित्व के आवरण के पीछे उसे पगुराना होता है, हजम करना होता है, बहुत सारी योजनाओं को, व्यवस्थाओं को, लोगों के सपनों को, विचारों को, कभी-कभी जीवन को...। वह जुगाली नहीं करती, पगुराती है। पगुराना एक क्रिया है, कई पुश्तों के लिए। मौका मिलते ही जल्दी-जल्दी अपने उदर में भर लो, और फिर लंबे समय तक उसे पगुराते रहो। ‘ऊपर की कमाई’ जल्दी-जल्दी खाकर तीन पुश्तों के लिए पगुराने का इंतजाम...। भैंस इसी कारण एक अलग चरित्र गढ़ती है। वह बीन पर ध्यान नहीं देती। उसका ध्यान पगुराने पर होता है। आखिर बीन से उसे क्या हासिल होने वाला है?

राहुल मिश्र


अमृत विचार, बरेली में 13 दिसंबर, 2020 को प्रकाशित


Thursday 20 May 2021

 


अंतिम राय का सच : कहानियों से ज्यादा सच्चाई

‘अंतिम राय का सच’, अपने इस नाम से ही बरबस अपनी ओर खींच लेने वाली कहानियों की नई प्रकाशित पुस्तक त्रिलोक मेहरा की सृजनधर्मी लेखनी की उपज है। यह सन् 2019 में दिल्ली के नमन प्रकाशन केंद्र से प्रकाशित हुई है। त्रिलोक मेहरा का नाम हिमाचलप्रदेश के वरिष्ठ कथाकारों में आता है। हिमाचलप्रदेश के कांगड़ा जनपद के बीजापुर गाँव में सन् 1951 में जन्मे त्रिलोक मेहरा की पारिवारिक पृष्ठभूमि मध्यमवर्गीय रही है। स्वाभाविक रूप से उन्होंने मध्यमवर्गीय परिवारों के संघर्षों और चुनौतियों को उस समय से देखा और भोगा है, जो देश की आजादी के बाद समग्र राष्ट्रीय चरित्र बने रहे हैं। त्रिलोक मेहरा के दो अन्य कहानी-संग्रह- ‘कटे-फटे लोग’ और ‘मम्मी को छुट्टी है’ प्रकाशित हो चुके हैं। इसके साथ ही उनका एक उपन्यास- ‘बिखरते इंद्रधनुष’ भी सन् 2009 में प्रकाशित हो चुका है। कथा-साहित्य के अतिरिक्त हिमाचलप्रदेश की लोकसंस्कृति, लोकजीवन और हिमाचली जन-जीवन के संघर्षों पर आधारित अनेक शोधपरक लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। मेहरा जी की कई रेडियो वार्ताएँ और कहानियाँ आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारित हो चुकी हैं। उनकी निरंतर सक्रियता और साहित्यिक संलग्नता को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है।

त्रिलोक मेहरा जी के साहित्यिक अवदान का परिचय यहाँ पर देना इसलिए आवश्यक लगा, क्योंकि एक रचनाकार का भोगा हुआ यथार्थ, उसका देखा हुआ यथार्थ उसकी रचनाओं की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को स्वतः सिद्ध करता है। साहित्य के साथ ही सामाजिक जीवन में निरंतर संलग्न और सक्रिय रहने के कारण मेहरा जी की यह कृति अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है। इसकी बानगी हमें संग्रह के शीर्षक से ही मिल जाती है। किसी भी कृति का शीर्षक अपना पहला प्रभाव डालता है। अमूमन पुस्तक को खरीदते समय उसका शीर्षक देखकर एक छवि कृति के संबंध में, कृति में संग्रहीत सामग्री के संदर्भ में बनती है। यह पहली दृष्टि अपना विशेष महत्त्व भी रखती है, और प्रभाव भी उत्पन्न करती है। कृति के शीर्षक के आकर्षण का यह पक्ष अंतिम राय का सच में निखरकर आता है। कृति अपनी ओर आकृष्ट करती है- यह ऐसी कौन-सी अंतिम राय है, जिसका सच व्यापक समाज के साथ जुड़ता है, यह प्रश्न एकदम मन में कौंध उठता है।

कहानी-संग्रह का नाम जहाँ अपनी ओर खींचता है, वहीं दूसरी ओर संग्रह की प्रतिनिधि और शीर्षक-कहानी भी कम प्रभावी नहीं है। अंतिम राय का सच कहानी उस अंतिम राय की बात करती है, जिसके बाद सलाह-मशविरों के लिए जगह बचती नहीं है, और केवल निर्णय लेना ही शेष रह जाता है। यही निर्णय कहानी के पात्र रमेश वर्मा और उसके साथियों की गरजती बंदूकों में दिखता है। यह अंतिम राय कैसी है, उसकी बानगी तो कहानी के प्रारंभ में ही मिल जाती है- “वहाँ अपने-अपने सुझावी भाषणों की तश्तरियाँ सभी आगे सरका कर खिसक गए थे, पर काम करने के लिए कोई आगे नहीं आया था, और अगर आया था, तो वह था- रमेश वर्मा।” (पृ. 86) पहाड़ी जीवन में, जंगलों के बीच ग्रामीण इलाके के किसान दयनीय जीवन जी रहे हैं। वे सभी जीवधारियों पर आस्था रखते हैं, सभी जीवों के जीवन का सम्मान करते हैं, लेकिन स्थितियाँ ऐसी जटिल हो चुकी हैं, कि किसानों का अपना जीवन ही संकट में फँसकर रह गया है। उनके अस्तित्व पर ही संकट मँडराने लगा है। ऐसी दशा में उनके लिए सलाह कितनी कारगर है, यह देखने का प्रयास कहानी करती है। नेताओं के पास सलाह के अलावा कुछ भी नहीं है। संसद अपनी अंतिम राय देकर यह मान लेती है, कि उसकी जिम्मेदारियाँ पूरी हो चुकी हैं, लेकिन इस अंतिम राय का सच किसी के हित में नजर नहीं आता है।

संग्रह की शीर्षक-कहानी हिमाचलप्रदेश के सुदूरवर्ती गाँवों की उस जटिल समस्या की ओर संकेत करती है, जिससे निबटने के लिए ग्रामीण समाज अपनी पुरातन परंपरागत जीवन-शैली के विपरीत जाने को विवश होता है। हिमाचलप्रदेश के गाँवों में बंदरों के आतंक से किसानों का जीवन दूभर हो गया है। उनके खेत, उनकी फसलें इतनी बुरी तरह से तबाह हो रहीं हैं, कि उन्हें बंदूक उठाने को विवश होना पड़ रहा है। पर्यावरणप्रेमियों से लगाकर धर्मभीरुओं तक सबकी अपनी दृष्टि है, लेकिन यह कहानी इन सबसे अलग हटकर किसानों के नजरिये से देखती है। यही इस कहानी की विशिष्टता है।

समीक्ष्य कृति में बारह कहानियाँ संकलित हैं। कृति की शीर्षक कहानी के साथ ही अन्य कहानियाँ भी अलग-अलग तरीके से जीवन को देखती हैं, मन के भावों को पकड़ती हैं। संग्रह की पहली कहानी है- घर-बेघर। यह कहानी मोह में बँधे एक ऐसे पिता की विवशताओं को व्यक्त करती है, जिसका पुत्रमोह पिता के साथ ही कई जिंदगियाँ बरबाद करता है। सुंदर, सुशील और कामकाजी जाह्नवी का विवाह मानव से हुआ है। मानव शारीरिक रूप से विकलांग है, क्योंकि उसके एक ही किडनी है। मानव के पिता इस सच्चाई को इसलिए छिपा लेते हैं, ताकि उनके बेटे का विवाह हो सके। जाह्नवी इस सच्चाई को जान जाती है, और अपने भविष्य को देखते हुए  नौकरी नहीं छोड़ना चाहती। यही जिद जाह्नवी के चरित्र पर उंगली उठाने का कारण बनती है। मानव जाह्नवी का भावनात्मक भयादोहन करता है। जाह्नवी इस दबाव में नहीं आती, और अपनी दृढ़ता का परिचय देते हुए अपने निर्णय पर अडिग रहती है। वह मानव को अपनी किडनी नहीं देती। अंततः मानव की माँ उसे अपनी किड़नी देती है। जाह्नवी अपना फर्ज निभाते हुए ससुराल आती है, लेकिन उसके प्रति परिवार के लोगों की मानसिकता बदलती नहीं है। कहानी स्त्री-सशक्तिकरण को एकदम अलग दृष्टि से देखती है। एक ओर जाह्नवी है, और दूसरी ओर मानव की माँ है। यहाँ स्त्री ही स्त्री की विरोधी बन जाती है। जाह्नवी अपने बच्चों के लिए और अपने भविष्य के लिए सजग-सचेत रहती है। उसकी सजगता परिवार को पसंद नहीं आती, दूसरी ओर जाह्नवी अपने साथ हुए धोखे के बाद भी संबंधों को निभाने के लिए सदैव तत्पर रहती है।

समय के साथ कहानी जातिवादी बंधनों में जकड़े समाज की पड़ताल करती है, साथ ही समाज के दोहरे चरित्र को परत-दर-परत उघाड़ती है। कहानी की नायिका हरप्रीत खुले विचारों वाली युवती है। हरप्रीत के पिता भी खुले विचारों वाले हैं, लेकिन केवल अपने लिए...। अपनी बेटी के लिए वे दूसरे मानक गढ़ते हैं, निभाते हैं। हरप्रीत के साथ हरदेव के संबंध को वे पचा नहीं पाते हैं। भुजंगा सिंह ने इसी कारण अनेक वर्जनाएँ गढ़ रखी हैं। वे समाज में तिरस्कृत और अपमानित नहीं होना चाहते। उन्हें इसकी चिंता रहती है। इस कारण वे हरप्रीत पर अपनी गढ़ी हुई वर्जनाओं को लादते हैं। वे हरदेव को अपमानित करने का कोई मौका भी नहीं छोड़ते। कहानी दो पीढ़ियों के वैचारिक टकराव को इतनी सहजता और साफगोई के साथ व्यक्त करती है, कि समाज का कटु यथार्थ खुलकर सामने आ जाता है। कहानी में भुजंगा सिंह की पत्नी सुरिंदर कौर का चरित्र दो पाटों के बीच पिसता हुआ दिखता है। हरदेव के पिता जातिवादी सोच के खिलाफ खड़े दिखते हैं। भुजंगा सिंह अपनी बेटी को इतनी छूट देते हैं, कि वह किसी सरदार से प्रेम करने लगे, लेकिन हरप्रीत की जिद के आगे वे विवश हो जाते हैं। समाज में खिंची जातिवाद की विभाजक रेखाओं की गहराई को कहानी बखूबी आँकती है।

गोल्डी के लिए केवल कहानी अपनी पूर्ववर्ती कहानी से आगे की कथा कहती दिखाई पड़ती है। समाज में एक ओर जातिवाद की गहरी खाइयाँ हैं, जिन्हें पाटने का प्रयास करता युगल समय के साथ कहानी में है। दूसरी तरफ गोल्डी के लिए केवल कहानी में आधुनिकता और उच्छृंखलता का दर्शन होता है। लिव-इन-रिलेशनशिप जैसी आयातित मानसिकता के कारण गोल्डी इस संसार में आता है। हरिओम और रचना के उच्छृंखल संबंध समाज में स्वीकार्य नहीं हैं, फिर भी आधुनिकता के फेर में वे उस स्थिति में पहुँच जाते हैं, जिसका सबसे पहला असर नवजात गोल्डी पर पड़ता है। इसके बाद रचना इस दंश को भोगती है। हरिओम के परिवार से उसे कोई सहारा नहीं मिलता। रचना के लिए समाज के ताने-उलाहने तो हैं ही, साथ ही गोल्डी को पालने की चुनौती भी है। यही चुनौती उसे इतना शातिर बना देती है, कि वह अपनी सीमाएँ लाँघकर ओमप्रकाश के परिवार को बरबाद करने में पीछे नहीं हटती। अपने लिए एक सहारा खोजती महिला दूसरी महिला के सहारे को किस तरह छीन लेती है, उस स्थिति को यह कहानी बड़ी शिद्दत के साथ प्रकट करती है। ओमप्रकाश को उसकी पत्नी सविता से दूर करना रचना का एकमात्र लक्ष्य बन जाता है। ओमप्रकाश का जीवन भी एक समय के बाद ऐसे अवसाद और दुःख से भर जाता है, जो आधुनिकता की उच्छृंखलता के दुष्परिणामों की ओर संकेत भी करता है, सावधान भी करता है। रचना अत्यंत जटिल व्यक्तित्व वाली महिला के रूप में कहानी में दिखाई देती है। विवाहेतर संबंधों की विद्रूपताएँ भी कहानी में दिखाई पड़ती हैं।

उच्छृंखल यौन-संबंधों पर केंद्रित एफ.आई.आर.कहानी की नायिका एक बालिका है। वह कम उम्र की है, और गोल्डी के लिए केवल की पात्र रचना जैसी शातिर नहीं है। इसी कारण वह भावनाओं में बह जाती है, और भानु के छलावे में फँस जाती है। उसका मन एक ओर अपने बूढ़े दादा से धोखेबाजी करते हुए भयभीत होता है, लेकिन दूसरी तरफ उस पर भानु के छलावे का फंदा इतना मजबूत होता है, कि उसके लिए निकल पाना आसान नहीं रह जाता। कहानी कमउम्र बालिका की मनःस्थिति को बखूबी व्यक्त करती है। अंत में उसके द्वारा सारी सच्चाई को ईमानदारी के साथ अपने बूढ़े दादा से बताया जाना आश्वस्त करता है, कि जीवन के संघर्षों से हार मानने के स्थान पर चुनौतियों का डटकर सामना करना अच्छा विकल्प है। जहाँ एक ओर इस कहानी में पारिवारिक संबंधों की सुदृढ़ता है, वहीं दूसरी ओर समीक्ष्य कृति की अन्य कहानी- अखाड़ा में संबंधों के बीच पसरी चालबाजियों की बिसातें हैं। कहानी स्वार्थ में पड़कर आपसी रक्त-संबंधों और पारिवारिक मर्यादाओं को नष्ट कर देने वाली मानसिकता को प्रकट करती है।

अखाड़ा में गाँव के फौजी का दामाद भी फौजी है और उसने अपनी ससुराल में सास-ससुर की जमीन में कब्जा कर रखा है। घर से बेटा और बहू बेदखल हो चुके हैं। बेटे और बहू को अपने दिवंगत पिता के लिए सहानुभूति है, किंतु बड़डेला, यानि फौजी का दामाद उन्हें दूर ही रखना चाहता है। जब वह कहता है, कि- हम लाशों से खेलते आए हैं। क्या हुआ, यह अपने घर की लाश है।तब परिवार और आपसी संबंधों की मर्यादाओं का बिखराव, उनकी टूटन पाठक के अंतस् में उतरकर जम जाती है। कथाकार ने इस स्थिति को बड़ी कुशलता के साथ कहानी में समेटा है।

समीक्ष्य कृति में नखरो नखरा करेगी कहानी एकदम अलग तरीके से समाज का चित्रण करती है। इसमें महिलाएँ हैं, जो बिशनी के नेतृत्व में संगठित हो रही हैं। उनके संगठित होने का कारण समाज में महिला सशक्तिकरण नहीं, बल्कि स्वयं को साक्षर और समर्थ बनाना है। कहानी किसी भी तरह से उस महिला-सशक्तिकरण का परचम नहीं उठाती, जिसके नाम पर बड़े-बड़े आंदोलन चलाए जाते हैं। यहाँ गाँव की महिलाएँ स्वतः प्रेरित हैं, और उन्हें केवल मार्गदर्शन मिल रहा है, वह भी अपने बीच की ही बिशनी के माध्यम से...। बिशनी के सहयोग के लिए नखरो चाची आगे आती हैं। नखरो चाची का व्यक्तित्व भी बहुत साधारण-सा है। वह बिशनी और तोमर से प्रेरित होती है, और केवल इसी कारण महिलाओं को शिक्षित करने के लिए चलाए जाने वाले अभियान से जुड़ती है, बाद में पढ़-लिख भी जाती है।

 समीक्ष्य कृति में हाय कूहल और टिटिहरियाँ एकदम अलग तासीर की कहानियाँ हैं। इन कहानियों में हिमाचलप्रदेश का लोकजीवन ही नहीं झलकता, वरन् हिमाचलप्रदेश में आती बदलाव की बयार के बीच बिखरते प्रतीकों की असह्य-दुःखद पीड़ा भी झलकती है। कूहल और घराट की थमती आवाज के पीछे आधुनिक संसाधनों का पैर पसारना है। दीनानाथ कोहली, जिनका उपनाम कूहल से बना है, आज केवल यही एक पहचान शेष रह गई है, क्योंकि कूहल तो कब के शांत हो गए। घराट भी नहीं बचे। पहाड़ में गरजते बुलडोजर की आवाज लोगों के मन में संदेह पैदा करती है। जिनके घर में पीहण रखा है, वे जरा निश्चिंत दिखते हैं। जिन लोगों के पीहण नहीं पिसे हैं, वे कूहल के लिए चिंतित होते हैं। सभी को कोहली से...घराटी से आशा है, कि वह कुछ करेगा-

क्या करें अब? पीहण, पत्थर और पनिहारिये सब गूँगे, ठगे से पड़े थे। पर कब तक? वे उदास होने के लिए नहीं आए थे। उस चुप्पी को उनमें से किसी ने तोड़ा-

कोई मर गया है क्या? कुछ बोलो।

हाँ, कुछ गाओ। दूसरी आवाज थी।

क्या गाएँ? गाने सारे घराट ने चुरा लिए। अनपीसे पीहण वाला रोया।

तो चिल्लाओ।

दीनानाथ कोहली के सामने चल रहा संवाद उस अंधकारमय भविष्य का खाका खींचता है, जो सबसे ज्यादा घना-गहरा दीनानाथ के सामने है। दीनानाथ उस बड़े वर्ग का प्रतिनिधि है, जिसका जीवन गाँव के देशी-घरेलू उद्योगों के सहारे चलता है। देशी तकनीक के ऊपर चल रहा बुलडोजर गाँव की अपनी पहचान को, घराट को खा चुका है... कूहल के गाने को शांत कर चुका है। अब केवल आधुनिक होते गाँव में परंपरा के टूटने की चिल्लाहट ही शेष बची है।

टिटिहरियाँविकास की अंधी दौड़ की सच्चाई को खोलती है। बाँध का निर्माण विकास के प्रतिमान भले ही गढ़े, लेकिन इसके कारण किसानों को अपनी जमीनों से वंचित होना पड़ रहा है। वन काटे जा रहे हैं। प्राकृतिक सौंदर्य नष्ट हो रहा है। मंगतराम, जगतराम और विश्नो ताई आदि ग्रामीणों ने विकास की जिस कीमत को चुकाया है, उसका पूरा आकलन यह कहानी करती है। किसानों को मुआवजे की रकम के लिए सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाना पड़ रहा है। सरकारी कर्मचारियों और ठेकेदारों का गठजोड़ किसानों के मुआवजे को भी हड़प जाना चाहता है। बच्चों को सरकारी नौकरी जैसे वायदे तो दूर की कौड़ी बन गए हैं। किसानों और बाँध बनने के कारण विस्थापित होने वाले लोगों के विरोध को दबाने के लिए ठेकेदारों के गुर्गों के साथ खाकी वर्दी भी मिल गई है। पूरे परिवेश में विस्थापित जन-समुदाय की निराशा का अंधकार घना होता जा रहा है- हम दुत्कारे हुए जीव थे। आज तक रोते रहे हैं। अब यह लोहदूत हमें पाटने आ गया है। पचास साल कम नहीं होते। काम करने की पूरी जिंदगी होती है। यहाँ बसाने की कतरने अभी भी हमारे पास हैं, इस जगह सो सँवारा है, सजाया है। कहाँ जाएँ अब? यह प्रश्नचिन्ह उन तमाम विस्थापितों के जीवन के सामने लगा हुआ है, जिन्हें अनियंत्रित विकास ने अपनी जड़ों से उखाड़ दिया है। कहानी बड़ी सहजता के साथ आज के इस जटिल प्रश्न को उठाती भी है, और पाठक के मन को उद्वेलित भी करती है।

समीक्ष्य कृति में भ्यागड़ा औरकब्र से बोलूँगा, ऐसी कहानियाँ हैं, जो आतंकवाद के दो अलग-अलग चेहरों को सामने लाती हैं। भ्यागड़ा ऐसे गीत को कहते हैं, जो सुबह के समय गाया जाता है। यह शीर्षक कई अर्थों में कहानी के कथ्य को सामने लाता है। धर्मांधता की काली और अँधेरी रात के बीत जाने के बाद जो सुबह आएगी, उसे भ्यागड़ा के सुर से सजाया जाएगा। यह कहानी एक आशा का संचार करती है, जो आतंक का शमन कर सकेगी। कहानी का पात्र याकूब मागरे भले ही भटकाव में आकर आतंक के साथ हो लिया हो, लेकिन आतंक के कारण उसके जीवन पर कसता शिकंजा उसे सोचने को विवश कर देता है, और फिर वह अपने पुराने जीवन की ओर लौट चलता है। उसकी बाँसुरी फिर से भ्यागड़ा की धुन गुनगुनाने लगती है। धार्मिक कट्टरता के नाम पर गीत-संगीत, वेश-परिवेश पर लगाए जाने वाले बंधनों को, बंदिशों को याकूब नकार देता है।

कब्र से बोलूँगा का याकूब मोहम्मद भी धर्मांधता और आतंकवाद के चंगुल में फँसता है। पहाड़ों में जीवन सरल नहीं होता। वहाँ मजदूरी करने वाले लोगों पर पुलिस भी शक करती है, और छिपे हुए आतंकी भी। इन जटिल स्थितियों के बीच आतंकवाद और आतंकियों से दूर रहने के स्थान पर उनके साथ हो जाने की स्थिति को गाँववाले देखते हैं। सड़क-निर्माण में मजदूरी करने वाला याकूब मोहम्मद आतंकियों की गिरफ्त में इस तरह आता है, कि उसके सोचने-समझने की शक्ति ही समाप्त हो जाती है। रामलीला में सुग्रीव की भूमिका निभाते हुए वह सच में बालि का वध करने को उद्यत हो जाता है। कहानी आतंकवाद की उस मनःस्थिति को परखने की कोशिश करती है, जिसके कारण समाज में मिल-जुलकर रहने वाला सामान्य-सा व्यक्ति भी आतंकी बन जाता है।

समीक्ष्य कृति की अंतिम कहानी है- छोटू। यह कहानी भी कई परतों में समाज की विषमताओं को खोलती है। गाँव में रहने वाले सीधे-सादे छोटू को शहर की चकाचौंध अपनी ओर खींचती है। गाँव को छोड़कर शहर जाने वाला छोटू शहर में संपन्न और शहरी तो नहीं बन पाता, उल्टे घरेलू नौकर बनकर शाह पत्रकार के घर में सिमट जाता है। कहानी उस ज्वलंत मुद्दे को उठाती है, जिसकी चर्चा अकसर सुर्खियों में आ नहीं पाती, लेकिन समाज में ऐसी स्थितियाँ शिद्दत के साथ देखी जा सकती हैं।

संग्रह में संकलित सभी कहानियाँ एक बड़े फलक पर अलग-अलग चित्रों को समेटती हैं। हिमाचल के लोकजीवन को समेटने के साथ ही मन-मानसिकता में आते बदलावों को कहानियों में देखा जा सकता है। कहानीकार त्रिलोक जी ने हिमाचल के लोकजीवन से जुड़े अनेक शब्दों का प्रयोग करके संग्रह को विशिष्ट बनाया है। कूहट, घराट, पीहण, टल्ली, कुकड़ी, टब्बर, छकराट, खिंद और भ्यागड़ा जैसे शब्द हिमाचल की अपनी बोली-बानी के साथ पाठक को जोड़ते हैं।

सरल-सहज और प्रवाहपूर्ण भाषा के साथ ही रोचक शैली के साथ हरएक कहानी अपना विशिष्ट महत्त्व रखती है। भ्यागड़ाऔर कब्र से बोलूँगा कहानियाँ अपना विशिष्ट महत्त्व रखती हैं, क्योंकि ये कहानियाँ अनागत के भाव को व्यक्त करने वाली हैं। कल के सुख की कामना वह विशिष्ट भाव है, जो साहित्य को दिशा-निर्देशक बनाता है। आतंकवाद की विभीषिका के बीच जो सुखद भविष्य दिख रहा है, वह इन कहानियों में महत्त्वपूर्ण है। साहित्य की समकालीन चिंतनधाराओं, प्रवृत्तियों और विमर्शों का अत्यंत सहज रूप इन कहानियों में  दिखता है। कथ्य की विशिष्टता और सामयिक यथार्थ से निकटता समग्र कहानी-संग्रह की निजी विशेषता है। इसी कारण समीक्ष्य कृति पठनीय भी है और संग्रहणीय भी है। 

समीक्ष्य कृति- अंतिम राय का सच / त्रिलोक मेहरा / नमन प्रकाशन, नई दिल्ली / प्रथम संस्करण 2019 / मूल्य 250 रुपये / पृष्ठ-134

(हिमप्रस्थ, शिमला, वर्ष- 64-65, मार्च-मई, 2021, अंक- 11/12/1, संपादक- नर्बदा कँवर)

डॉ. राहुल मिश्र

Wednesday 12 May 2021

छायावाद : अस्पष्टता के काव्य से विचारों की गहनता तक...

 

छायावाद : अस्पष्टता के काव्य से विचारों की गहनता तक...

छायावाद के बारे में यह प्रचलित मजाक था कि जो समझ में न  आवे, अस्पष्ट हो, वह छायावाद है। पुराने अध्यापकों को छायावादी कविताएँ पढ़ाना अब भी अटपटा लगता है और फिर अपनी या अपने छोटे भाई या अपने छात्रों की गवाही दूँ तो सूर, तुलसी, बिहारी और रत्नाकर जैसी स्पष्टता या रस इन कविताओं में प्रारंभ में उपलब्ध नहीं होता। प्रसाद के बारे में तो यह प्रसिद्ध है कि बाद को अपनी किसी कविता का अर्थ वह स्वयं नहीं बता पाए थे। इस तरह आधुनिक हिंदी काव्य के प्रसंग में बोधगम्यता का सवाल छायावादकाल से माना जा सकता है। यह बात एक सहज साहित्यिक स्तर पर उठने वाले सामान्य प्रश्न के लिए कही जा रही है।1

हिंदी के प्रख्यात आलोचक-समीक्षक देवीशंकर अवस्थी की लेखनी से उद्धृत ये विचार हिंदी के छायावाद के संदर्भ में की गईं प्रारंभिक टिप्पणियों से संबद्ध हैं। वे नई कविता और बोधगम्यता के प्रश्न की पड़ताल करते-करते मूल उत्स तक जाने का यत्न करते हैं। अध्यापकों और छात्रों के अलावा रचनाकार, आलोचक और सामान्य पाठकों द्वारा नई कविता के प्रसंग में बोधगम्यता पर उठाए जाने वाले प्रश्नों के संदर्भ में वे अपना मत रखते हैं, कि क्यों न इस प्रश्न को काल की दृष्टि से भी देख लिया जाए। उनकी आलोचनात्मक दृष्टि इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए छायावाद काल में जाकर टिकती है।

आचार्य देवीशंकर अवस्थी छायावाद काल की रचनाओं को अस्पष्ट और बोधगम्यता के स्तर पर जटिल मानने वालों के समर्थन में खड़े नहीं दिखते, वरन् वे इसके पीछे के कारणों को तलाशते हुए स्पष्ट करते हैं, कि- “पहले सहृदय, प्रमाता या रसज्ञ की शिक्षा और संस्कारों पर बल दिया जाता था—रचना दुरूह है यह कोई नहीं कहता था, रसज्ञ असंस्कारी है, यह कहा जाता था। संस्कृत के आचार्य ने बता दिया था, ‘येषां काव्यानुशीलनाभ्यासवशाद् विशदीभूते मनोमुकुरे वर्णनीयतन्मयी भवन योग्यता से स्वहृदयसंवादभाजः सहृदयाः।’ पर आज का पंडित इस संस्कारशीलता पर जोर नहीं देता। वह तो सीधे-सीधे रचना को ही पाठ के स्तर पर ले आना बोधगम्यता मानता है। इस प्रकार बोधगम्यता की बात पाठक से रचना पर आधुनिक काल में आरोपित कर दी गई है।”2

इस प्रकार बोधगम्यता के जिस प्रश्न को नई कविता का पूर्ववर्ती कालखंड, अर्थात् छायावाद का काल देखता है, उसकी बोधगम्यता के प्रश्न और उसकी अस्पष्टता का बहुत तार्किक विश्लेषण आचार्य देवीशंकर अवस्थी द्वारा किया जाता है। उनकी कही बातों के क्रम के साथ ही हिंदी के छायावाद काल के विविध संदर्भों को देखें, तो कमोबेश इन्हीं प्रश्नों के आसपास छायावाद का आरंभिक मूल्यांकन और स्थिति हमें दिखाई देती है। छायावाद का कालखंड अनेक ऐतिहासिक और सम-सामयिक स्थितियों से प्रभावित रहा है, और पहचाना गया है। इसके साथ ही साहित्येतिहास की निर्धारित की गई कालावधियों के मध्य छायावाद की स्थिति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अस्पष्टता और बोधगम्यता के प्रश्न इन स्थितियों से न जुड़े हों, ऐसा नहीं माना जा सकता। भारतेंदु हरिश्चंद के साथ प्रारंभ हुए हिंदी के भारतेंदु युग में खड़ी बोली हिंदी का आगमन होता है, सारे देश की एक भाषा के रूप में इसकी उपस्थिति होती है, किंतु साहित्य के क्षेत्र में खड़ी बोली हिंदी के लिए स्थान बनाना इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि उसमें ‘ठेठपन’ या ‘खरापन’ है। उस समय सामान्य रूप से यह मान्यता थी, कि- ‘खड़ीबोली की कविता ब्रजभाषा के देखे रूखी होती है।’ यह रूखापन सरसता के साथ ही समझ या बोधगम्यता के लिए भी जटिल होता था।

भारतेंदु युग को नवजागरण काल के रूप में भी जानते हैं। यह नवजागरण अपने अतीत के गौरव के प्रति, भाषा के संस्कारों के प्रति, और साथ ही सुषुप्त-अवस्था में छूट गई संस्कृत-संस्कृति को पुनः गौरव प्रदान करने में भी संलग्न हुआ। परिणामस्वरूप नवजागरण काल में विशुद्धतावाद का आगमन हुआ। “इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक हिंदी साहित्य को सर्वप्रथम मार्ग भारतेंदु जी ने ही दिखाया। यदि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को नव-जागरण का प्रधान पोषक मान लें, तो भारतेंदु जी अवश्य ही उसके जन्मदाता थे। काव्य क्षेत्र में द्विवेदी जी ने ही आधुनिक कविता के स्वरूप को प्रतिष्ठित किया। इन्होंने जिस साहित्य की प्रेरणा प्रदान की है वह उपदेश गर्भित तथा सुधारवादी था।”3 द्विवेदी युग में इन विशिष्टताओं को स्थापित करने में हिंदी के मानकीकरण ने भी बहुत बड़ा योगदान दिया। यह अधिक प्रबल तब हुआ, जब साहित्य के लिए प्रयुक्त होने वाली खड़ी बोली हिंदी का मानकीकरण होने लगा, शुद्धीकरण होने लगा। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के विराट व्यक्तित्व और संपादन-कौशल ने खड़ी बोली हिंदी को संस्कृतनिष्ठ, तत्समप्रधान बनाने की शुरुआत की। यह नवजागरण काल से आगे जागरण-सुधार काल के रूप में जाना जाता है। इस कालखंड में नवजागरण की प्रवृत्तियों की सघनता को उसके विशुद्ध रूप के साथ देखा जाने लगा।

इस तरह नवजागरण और स्वाधीनता संग्राम की अभिव्यक्ति की भाषा के रूप में एक ओर खड़ी बोली हिंदी अपना आकार ग्रहण कर रही थी, दूसरी ओर काव्य-सृजन की पुरानी परिपाटी काव्य की सर्वप्रिय ब्रजभाषा में ही चल रही थी। भारतेंदु और द्विवेदी युग में गद्य भले ही खड़ी बोली हिंदी में रचा जा रहा था, किंतु काव्य ब्रजभाषा के मोह से मुक्त नहीं हो पा रहा था। “एक समय ब्रजभाषा के पुराने गौरवशाली काव्य का ऐसा नशा था कि कविता को खड़ी बोली की तरफ खिसकाना कठिन कार्य था। यह अतीत का मोह-बंधन ही न था। आधुनिक युग में किसी समय ब्रजभाषा में ही काव्य-लेखन पर इतना जोर वस्तुतः हिंदी को लेकर तंग नजरिये का सूचक था। इसलिए कविता को ब्रजभाषा से खड़ी बोली की जमीन पर लाने की कोशिशें महज शैली परिवर्तन की नहीं थीं। ये सौंदर्य और मूल्य के एक पूरे संसार को बदलने की लड़ाइयाँ थीं। इनकी वजह से धर्म, शिक्षा, राजनीति और मानवीय संवेदना के एक साथ बहुत सारे मामलों में काफी उथल-पुथल आई।”4

भारतेंदु युग के परवर्ती द्विवेदी युग में गद्य भले ही खड़ी बोली हिंदी में रचा जाने लगा हो, लेकिन प्रतापनारायण मिश्र के द्वारा कही गई उक्ति- ‘खड़ीबोली ब्रजभाषा के देखे रूखी होती है।’, के बंधन से मुक्त नहीं हो पाई थी। इस बंधन को टूटता हुआ देखते हैं- छायावाद के कालखंड में...। कवित्त, सवैया आदि छंदों के लिए खड़ीबोली हिंदी उपयुक्त नहीं रही। ऐसा माना जाता रहा, कि इनकी मृदुल-मंजुल-कोमलकांति खड़ी बोली में नहीं उतर पाई है। छायावाद की भाषा विशुद्ध खड़ीबोली हिंदी थी, लिहाजा हिंदी की कविता में रस के आग्रही और परंपरा का पोषण करने वाले अनेक साहित्यसेवियों के लिए, पाठकों के लिए, अध्येताओं और शिक्षकों-छात्रों के लिए छायावाद की कविता एकदम अलग-अनूठे तरीके से आई, और अस्पष्ट हो गई। देवीशंकर अवस्थी के लिए भी यही स्थिति थी, जिसका उल्लेख उन्होंने अपने आलोचना-आधारित निबंधों में किया।

छायावाद के रूप में आई कविता-क्रांति ने तत्कालीन आलोचकों-समीक्षकों को ऐसा विस्मित किया, कि छायावाद की अनेक रोचक परिभाषाएँ लिखी जाने लगीं। यहाँ गणपतिचंद्र गुप्त के कथन का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। वे लिखते हैं- “हिंदी की कुछ पत्र-पत्रिकाओं— ‘श्री शारदा’ और ‘सरस्वती’—में क्रमशः सन् 1920  और 1921 में मुकुटधर पांडेय और श्री सुशीलकुमार द्वारा दो लेख ‘हिंदी में छायावाद’ शीर्षक से प्रकाशित हुए थे, अतः कहा जा सकता है कि इस नाम का प्रयोग सन् 1920 या उससे पूर्व से होने लग गया था। संभव है कि श्री मुकुटधर पांडेय ने ही इसका सर्व-प्रथम आविष्कार किया हो। यह भी ध्यान रहे, पांडेय जी ने इसका प्रयोग व्यंग्यात्मक रूप में– छायावादी काव्य की अस्पष्टता (छाया) के लिए किया था, किंतु आगे चलकर यही नाम स्वीकृत हो गया। स्वयं छायावादी कवियों ने इस विशेषण को बड़े प्रेम से स्वीकार किया है...।”5 बाद के आलोचकों और हिंदी साहित्येतिहास के अध्येताओं ने छायावाद को अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने के प्रयास किए। किसी ने ‘सूक्ष्म के प्रति स्थूल का विद्रोह’, किसी ने ‘वस्तुवाद और रहस्यवाद के मध्य स्थित वाद’ बताया है। आचार्य रामचंद्र  शुक्ल ने छायावाद को दो अलग-अलग स्तरों पर स्थित बताया है- काव्य-वस्तु के रूप में चित्रमयी भाषा के साथ व्यक्त अज्ञात-अनंत प्रियतम के प्रति अनन्य प्रेम और समर्पण; और काव्य-शैली के रूप में ब्रजभाषा और परंपरागत रचना-विधानों से मुक्त एक नए प्रयोग के रूप में....।

गणपतिचंद्र गुप्त छायावाद के लिए सर्वसम्मत परिभाषा की अनुपलब्धता के लिए छायावाद के ऊपरी लक्षणों या उसके कुछ बाह्य पक्षों को ही देखने की बात कहते हुए सम्यक् मूल्यांकन की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं, और अपना पक्ष भी रखते हैं। वे छायावाद की मूल चेतना को विश्लेषित करते हुए  इसे पाश्चात्य साहित्य के ‘रोमैंटिसिज्म’ या स्वच्छंदता का काव्य बताते हैं। छायावाद को स्वच्छंदतावाद के रूप में अभिहित करने के लिए वे तर्क भी देते हैं- “जिस काव्य में इस प्रकार (बाह्य जगत् की अपेक्षा अंतर्जगत को, बौद्धिकता की अपेक्षा भावात्मकता को, यथार्थ की अपेक्षा कल्पना को, सत्य की अपेक्षा सौंदर्य को, परंपरा की अपेक्षा नूतनता को एवं संघर्ष की अपेक्षा प्रेम को अधिक महत्त्व देने) की अंतर्मुखी चेतना की अभिव्यक्ति होती है, उसे सामान्यतः स्वच्छंदतावाद का नाम दिया जाता है। हिंदी के छायावाद पर भी उपर्युक्त सारी बातें लागू होती हैं।”6 इस तरह छायावाद के संबंध में अस्पष्टता के साथ एक अलग पहचान स्वच्छंदतावाद के रूप में परिलक्षित होती है।

प्रथम विश्वयुद्ध से द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य के कालखंड में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक उथल-पुथल के बीच बांग्ला साहित्य से होकर हिंदी में आ रही साहित्य की नवीन चेतना परिवर्तित अवश्य हुई, और अंग्रेजी या यूरोपीय प्रभाव सीधे हिंदी में आया, किंतु छायावाद पूरी तरह से यूरोपीय साहित्य के प्रभाव से निकला है, या अंग्रेजी साहित्य के ‘रोमैंटिसिज्म’ का असर हिंदी में छायावाद बनकर उभरा है, इसे भी स्वीकार करना तर्कसंगत नहीं लगता है। कुछ विद्वान छायावाद को अंग्रेजी के ‘रोमैंटिसिज्म’ का भारतीय संस्करण कहकर परिभाषित करते हैं, किंतु वस्तुस्थिति इससे विपरीत समझ आती है। जब गणपतिचंद्र गुप्त छायावाद को ‘स्वच्छंदतावाद’ के रूप में व्याख्यायित करते हैं, तब उनका आशय इसे यूरोपीय साहित्य या अंग्रेजी के ‘रोमैंटिसिज्म’ के अनुसरणकर्ता के रूप में बताना नहीं होता। इन बातों के मध्य बारीक विभेद है, जो भ्रम की स्थिति पैदा करता है। डॉ. नगेंद्र स्वयं इस तथ्य को मानते थे, किंतु बाद में उन्होंने अपना मत परिवर्तित किया।7

छायावाद की अस्पष्टता को रहस्य के रूप में देखने के प्रयास भी कम नहीं हुए। यह रहस्य उस बिना रूप-रंग वाले, नाक-नख्श वाले, निराकार प्रेमी के प्रति समर्मण के भाव के रूप में देखा जाता है। प्रेमी अज्ञात है, उसके आदि-अंत का भी कुछ पता नहीं है....। ऐसे प्रेमी के प्रति उपजते भावों को रहस्य के रूप में देखते हुए छायावाद के लिए यह नाम मिलता है। “यह भाव-धारा कवि की समवय तथा रुचियों के अनुसार रंग बदलकर आगे बढ़ती रही, जिसे कहीं रहस्यवाद और कहीं छायावाद के नाम से पुकारा गया, किंतु सबके मूल में प्राचीनता के ऊपर नवीनता का आरोप तथा वर्तमान के हीनतर बंधनों से मुक्त होकर श्रेष्ठतर स्वच्छंदता में विचरण करने के भाव विद्यमान हैं।”8

इस तरह छायावाद के लिए रहस्य, अस्पष्टता और यूरोपीय रोमैंटिसिज्म के प्रभाव से उपजे स्वच्छंदतावाद की गढ़ी गई प्राचीरों के दायरे से बाहर निकलने पर छायावाद के काव्य की भाषा, शिल्प, शब्द-संघटना, छंद-योजना, संरचना, वैचारिकता, भावाभिव्यक्ति की तीव्रता-तरलता, कल्पना की व्यापकता आदि अनेक पक्ष देखने को मिलते हैं। “निराला के मुक्त छंदों का उदाहरण लें, तो कवित्त जैसे छंद में नयी जान फूँक गयी। पंत ने ललित पदावलियों की झड़ी लगा दी। पंत, प्रसाद, निराला और बाद में आईं महादेवी, सबने— किसी ने अधिक तो किसी ने थोड़ा कम- मृदुल मंजुल पदावलियों से कविता खजाना भर दिया। निराला ने पौरुषमय भाषा की रचना में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। संस्कृत कविता में क्या होता था- यानी कालिदास, भवभूति आदि के यहाँ वह अपनी जगह है, लेकिन आधुनिक युग में संस्कृत पदावलियों की असली शक्ति का पता छायावाद में ही चला।”9

छायावाद के साथ स्वच्छंदतावाद और अंग्रेजी साहित्य के रोमैंटिसिज्म के संबंधों पर डॉ. शिवदान सिंह चौहान की टिप्पणी का उल्लेख यहाँ आवश्यक हो जाता है। वे लिखते हैं- “अतः यह कहना जैसे गलत होगा कि फ्रांसीसी धारा, जर्मन धारा के अनुकरण पर चली या अंग्रेजी धारा, फ्रांसीसी धारा की अनुवर्तिनी थी,  उसी तरह यह कहना भी गलत होगा कि हिंदी की छायावादी कविता पाश्चात्य धारा की नकल है और यदि फैशन की नकल की जाती है तो तत्कालीन समसामयिक फैशन की... सौ वर्ष पुराने फैशन की नहीं...। किंतु उस स्वच्छंदतावादी धारा का, जिससे छायावाद की कविता प्रभावित है, सत्तर वर्ष पहले अवसान हो चुका था, और प्रथम महायुद्ध के बाद की पाश्चात्य कविता स्वच्छंदतावाद के अवशिष्ट ह्रासोन्मुख, घोर व्यक्तिवादी, अनास्थावादी और असामाजिक तत्त्वों को ही एकांगी अभिव्यक्ति दे रही थी। छायावादी यदि सहसा उनकी परिपाटी पर चल पड़ते, तो उन पर अनुकरण वृत्ति का आरोप सही उतरता।”10 डॉ. शिवदान सिंह चौहान की यह टिप्पणी छायावाद पर लगे अनुकरण के आरोप का तार्किक खंडन-मात्र नहीं करती, प्रत्युत् छायावाद के सम्यक्-सर्वाङ्गपूर्ण मूल्यांकन की अनिवार्यता को भी प्रकट करती है।

अपनी लगभग बीस वर्षों की अल्प काल-अवधि में ही हिंदी के छायावाद ने आधुनिक हिंदी कविता को जितनी विपुल साहित्य-राशि दी है, जितनी विविधता और व्यापकता से साक्षात् कराया है, उसे अन्यत्र खोजना कठिन है। इस वैविध्य और व्यापकता के साथ ही भावों की सघनता और विचारों की गंभीरता के बल पर छायावाद का काव्य अपनी पूर्ववर्ती काव्य-प्रवृत्तियों के सामने खड़े होने का सामर्थ्य जुटाता है; और आलोचनाओं-प्रतिक्रियाओं के  बाद भी सिद्ध करता है, कि छायावाद अस्पष्ट छाया का सृजन नहीं, बल्कि विचारों की गंभीरता और भावों की सघनता का काव्य है। इसमें प्राचीन भारतीय दर्शन के तत्त्व भी हैं, और आधुनिकता का बोध भी है। परंपरा के प्रति लगाव भी है, और बंधनों से मुक्त होने की छटपटाहट भी है। इसमें विविधता के इतने सारे रंग हैं, कि यह काव्य के आकाश में इंद्रधनुष-सम प्रतीत होता है।

छायावाद की प्रारंभिक अवस्था में, छायावाद के विस्तार में, और उसकी परवर्ती काल-अवधि में छायावाद को अस्पष्टता के काव्य और बोधगम्यता के स्तर पर दुरूह-जटिल काव्य के रूप में प्रस्तुत और प्रकट किए जाने के पीछे परंपरा से चली आ रही व्यवस्था के बंध टूटने और यूरोपीय प्रभावों के प्रति भारतीय जनमानस की विद्रोही वृत्तियों के कारक परिलक्षित होते हैं। जबकि बाद के वर्षों में यह स्थिति इस प्रकार बदली है, कि छायावाद का काव्य-संसार हिंदी के लिए अमूल्य निधि के रूप में अपनी पहचान बना सका है। इतना अवश्य है, कि आलोचना-समीक्षा के क्षेत्र में पुराने गढ़े गए प्रतिमानों से निकलकर छायावाद को नवीन दृष्टि से देखने-लिखे जाने की आवश्यकता अब भी शेष है।

संदर्भ-

1.      देवीशंकर अवस्थी, नई कविता और बोधगम्यता का प्रश्न, रचना और आलोचना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 1995, पृ. 47,

2.      वही, पृ. 48,

3.      डॉ. त्रिभुवन सिंह, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : एक परिचय, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1968, पृ. 224,

4.      शंभुनाथ, हिंदी की धर्मनिरपेक्षता का बिगुल, स्मृति-ग्रंथ : बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री, संपा. सिद्धिनाथ मिश्र, प्रका. अयोध्याप्रसाद खत्री जयंती समारोह समिति, मुजफ्फरपुर, सं. 2007, पृ. 69,

5.      गणपतिचंद्र गुप्त, स्वच्छंदतावादी (छायावादी) काव्य-परंपरा, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खंड, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, बारहवाँ सं. 2010, पृ. 72,

6.      वही, पृ. 73,

7.      वही, पृ. 76,

8.      डॉ. त्रिभुवन सिंह, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : एक परिचय, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1968, पृ. 228,

9.      सुधीर रंजन सिंह, छायावादी काव्य-रूप और परवर्ती कविता, कविता की समझ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018, पृ. 68,

10.     डॉ. शिवकुमार शर्मा, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : युग और प्रवृत्तियाँ, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, सप्तम सं. 1977, पृ. 494 ।


डॉ. राहुल मिश्र

(अनुसंधान, हिंदी एवं आधुनिक भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज उत्तरप्रदेश, संपादक- डॉ. राजेश कुमार गर्ग, वर्ष- 16, अंक- 15-16, जुलाई-दिसंबर 2020 में प्रकाशित)