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Sunday 20 April 2014

हिमालय की तराई की रंगीन मिठास : बहुरंगी मधुपुरी

महापंडित राहुल सांकृत्यायन की कालजयी कृति

हिमालय की तराई की रंगीन मिठास : बहुरंगी मधुपुरी
हिमालय के साथ जुड़ा राहुल सांकृत्यायन का नेह-प्रेम जगजाहिर है। उन्होंने ऊपरी हिमालयी परिक्षेत्र अर्थात् लदाख, तिब्बत और चीन तक कई बार यात्राएँ की हैं और यहाँ के धर्म, संस्कृति तथा ज्ञान को सारी दुनिया के लिए सुलभ बनाने में योगदान दिया है। राहुल जी का जितना लगाव ऊपरी हिमालयी परिक्षेत्र से रहा है, उतना ही लगाव निचले हिमालयी परिक्षेत्र से भी रहा है। देश-दुनिया में आते बदलावों के कारण परिवर्तन की तेज लहर जितनी धीमी गति से हिमालय के ऊपरी परिक्षेत्र में आई, उतनी ही तेजी के साथ परिवर्तन की बयार निचले हिमालयी परिक्षेत्र में आई और उसे प्रभावित किया। निचले हिमालयी परिक्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश का कुछ भाग और दार्जिलिंग-कलिङपोंग का इलाका आता है। इन क्षेत्रों में अंग्रेज हुक्मरानों के आगमन के साथ ही आधुनिकता का विकास हुआ, जो अंग्रेजों के जाने के बाद भी लगातार चलता ही रहा।
राहुल सांकृत्यायन ने ऊपरी हिमालय परिक्षेत्र में फैले ज्ञान के अध्ययन के अतिरिक्त निचले हिमालयी परिक्षेत्र में आते सांस्कृतिक एवं सामाजिक बदलावों का गहन अध्ययन भी किया है। उनका यह अध्ययन उनकी कहानियों में उतरा है। निचले हिमालयी परिक्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों से जुड़ा उनका कहानी-संग्रह है- बहुरंगी मधुपुरी । उनके इस कहानी-संग्रह में इक्कीस कहानियाँ संग्रहीत हैं।
कहानी-संग्रह का शीर्षक ही इन कहानियों की तासीर को बताने के लिये पर्याप्त है। इस संग्रह की प्रत्येक कहानी का अपना अलग रंग है। इन कहानियों में कहीं अमीर लोगों के रहन-सहन को, उनके ऐशो-आराम और विलासिता को प्रकट किया गया है तो कहीं इस क्षेत्र के लोगों के जीवन को प्रकट किया गया है।
मधुपुरी शब्द हिमालय की तराई की प्राकृतिक सुंदरता को, उसकी मधु सदृश मिठास को बताने का काम करता है। राहुल जी ने अपने कहानी-संग्रह बहुरंगी मधुपुरी  की भूमिका में अपनी कथा-भूमि को विलासपुरी भी कहा है। उनके द्वारा यह संबोधन दिया जाना काफी हद तक सही और प्रासंगिक सिद्ध हो जाता है, जब हम उनकी कहानियों को पढ़ते हैं।
भारत में जब अंग्रेज हुक्मरान आए तो उन्हें यहाँ की गर्मी ने बहुत सताया। इसी संकट ने मधुपुरी या विलासपुरी अर्थात् निचले हिमालयी परिक्षेत्र के सौंदर्य से, यहाँ की शीतल-मंद-सुगंधित बयार से अंग्रेज हुक्मरानों को जोड़ दिया। इस तरह अंग्रेज अफसरों ने भारत में भी एक इंग्लैण्ड को पा लिया था और इसी कारण वे इस समूचे क्षेत्र को एक मिनी इंग्लैण्ड की तरह विकसित करने लगे थे। अंग्रेजों की देखा-देखी भारत के अमीर-सेठ-साहूकार और राजे-महाराजे भी इस क्षेत्र की तरफ आकर्षित हुए और इस तरह से यह क्षेत्र विलासपुरी के तौर पर विकसित हो गया। राहुल जी ने अपनी सभी कहानियों में इस स्थिति को पूरे कथा-रस के साथ, रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है।
दूसरी ओर इन कहानियों में इस क्षेत्र के मूल निवासी भी हैं, जो अमीरों के अजीबोगरीब शौकों को देखते हैं, कभी-कभी उनका शिकार भी बनते हैं। अपमानित भी होते हैं और धन भी कमाते हैं।
ब्रिटिश भारत जैसे-जैसे आजादी की राह पर बढ़ रहा था, वैसे-वैसे यह क्षेत्र भी अपना महत्त्व बढ़ा रहा था। विकास के नए-नए आयाम खुलते जा रहे थे। विकास की यह गति बहुरंगी मधुपुरी  की हर-एक कहानी में सीढ़ी-दर-सीढ़ी चलती दिखाई देती है। फिर एक दिन ऐसा भी आता है, जब अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ता है। अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाते हैं और भारत में देशी अंग्रेज रह जाते हैं। वे उसी पुरानी परंपरा को चलाना चाहते हैं। कहानी-संग्रह भी अपने अंत पर पहुँचता है। आखिरी कहानी काठ का साहब  देशी अंग्रेजों की मानसिकता पर आधारित है। इस कहानी में भ्रष्टाचार भी है, शाही-रईसी शौक भी हैं और अमीर गरीब का भेद भी है। इस तरह आखिरी कहानी में हमें निचले हिमालयी क्षेत्र का वर्तमान देखने को मिलता है। वास्तव में यह कहानी-संग्रह इतिहास, संस्कृति और समाज में आते बदलाव को तो बतलाता ही है, साथ ही समाज की कड़वी हकीकत को भी हमारे सामने स्पष्ट कर देता है।
डॉ. राहुल मिश्र

Friday 18 April 2014

निराले हीरे की खोज

निराले हीरे की खोज
महान घुमक्कड़ स्वामी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन को एक पुरातत्त्ववेत्ता, चिंतक-विचारक एवं उपन्यासकार-कथाकार के रूप में जाना जाता है। यह सत्य है कि उन्होंने रूस, जापान, चीन, तिब्बत आदि देशों की यात्राएँ कीं और उन यात्राओं के माध्यम से प्राप्त किए हुए ज्ञान ने उन्हें ज्ञान की इन तमाम विधाओं का महारथी बना दिया। उन्होंने अपनी यात्राओं का बड़ा रोचक वर्णन करके यात्रा-वृत्तांत और यात्रा-साहित्य की विधा को भी साहित्य-जगत् में स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। ये यात्राएँ प्रायः मैदानी और पठारी-पहाड़ी इलाकों की हैं। बहुत कम लोग जानते होंगे कि उन्होंने समुद्री यात्राओं के रोमांच और रहस्य को भी अपने यात्रा-वृत्तांत में शामिल किया है।
समुद्र और समुद्री यात्राएँ आदिकाल से ही मानव के लिए रहस्य और रोमांच का हिस्सा रहीं हैं। राहुल सांकृत्यायन जैसा बहुमुखी प्रतिभावान व्यक्तित्व इस रोमांच से अछूता रह जाए, यह संभव नहीं था। इसी कारण उन्होंने अपनी पुस्तक निराले हीरे की खोज में समुद्र को, समुद्र के रोमांच को इतनी बारीकी से उतारा है कि हकीकत और कल्पना के बीच अंतर करना ही कठिन हो जाता है।
राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक निराले हीरे की खोज में बीस उपशीर्षक हैं, जिनमें समुद्र की यात्राओं से जुड़ी बीस अलग-अलग घटनाएँ हैं, बीस अलग-अलग बाधाएँ हैं, जिन्हें पार करते हुए निराले हीरे की खोज पूरी हो जाती है। पुस्तक का पहला उपशीर्षक ही ‘समुद्र का उपद्रव’ है, जो समुद्र में उठने वाली भीषण समुद्री हवाओं के कारण यात्रा की शुरुआत को ही संकटग्रस्त कर देता है, किंतु समुद्री यात्री हरिकृष्ण, मोहन और विक्रम उससे बच निकलते हैं। इसी तरह यात्रा आगे चलती रहती है। यात्रा के अलग-अलग पड़ावों के रूप में किताब में बने उपशीर्षक भी बड़े मजेदार और आकर्षक हैं— जैसे रेतीली खाड़ी में दो स्टीमर, महागर्त का तल, बंगले वाला आदमी, कप्तान का संदेश, भयंकर बुलबुला, मुर्दों की गुफा, मोहनस्वरूप का भूत, शैतान की आँख, पुष्पक का अंत और जल-भित्तिका आदि।
ये उपशीर्षक भी अपने अंदर छिपे रहस्य-रोमांच में पाठकों को खींच लेते हैं। इन्हीं में बँधकर अद्भुत समुद्री यात्रा का आनंद प्राप्त होता है। इसके साथ ही आपसी सूझ-बूझ, समझदारी, तुरंत निर्णय लेने की शक्ति, समन्वय और एक साथ कार्य करने की भावना जैसी नसीहतें सहजता से ही सीखने को मिल जाती हैं। राहुल सांकृत्यायन की दूरदर्शिता भी समुद्री यात्रा में प्रकट होती है। उन्होने समुद्र के जीवन के हर-एक पक्ष को इस तरह से और बड़ी बारीकी के साथ उतारा है, जैसे वे समुद्री यात्राओं के विशेषज्ञ हैं। कहीं पर भी कोई कमी छूट गई हो, ऐसा भी प्रतीत नहीं होता।
निराले हीरे की खोज में चलने वाली समुद्री यात्रा का आखिरी पड़ाव ‘आँख के जानकार’ के रूप में आता है। इसी पड़ाव में ब्राजील की राजधानी रियो-दी-जेनेरो में पहुँचकर समुद्री यात्रियों हरिकृष्ण, मोहनस्वरूप और उनके साथियों को वह निराला हीरा देखने को मिलता है। वह निराला हीरा विश्व के तमाम प्रसिद्ध हीरों से अलग किस्म का है। संसार के कई बड़े हीरों से भी बड़ा हीरा खोज लिया जाता है। यह हीरा कोहिनूर हीरे से और मुगले आजम हीरे से भी ज्यादा वजनी है, इसका वजन 300 कैरेट है।
इस प्रकार निराले हीरे की खोज पूरी हो जाती है। यदि विश्व साहित्य पर एक नजर डालें तो लगभग हर भाषा के साहित्य में ऐसी रोमांचक यात्राएँ, खोजपूर्ण यात्राएँ मिल जाएँगी। किंतु उनमें से कुछ ही ऐसी यात्राओं को हम पढ़कर अपनी याददाश्त में जिंदा रख पाते हैं, जो वास्तव में रोचक होने के साथ ही तथ्यपूर्ण और विशेष रूप से गुँथी हुई होती हैं। ऐसी ही एक यात्रा ‘गुलिवर इन लिलिपुट’ को सभी जानते होंगे। अगर ‘गुलिवर इन लिलिपुट’ की तुलना राहुल सांकृत्यायन के निराले हीरे की खोज से की जाए तो इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि हिंदी में लिखी हुई यह बहुत महत्त्वपूर्ण, रोचक, ज्ञानवर्धक और साहसिक यात्रा-कथा है। 




डॉ. राहुल मिश्र 

Monday 14 April 2014

आल्हा : बुंदेलखंड की अनूठी पहचान
ढोलक की थाप का साथ देती मंजीरे की धुन के साथ गाया जाने वाला वीरगीतात्मक काव्य आल्हा बुंदेलखंड की अनूठी तहजीब का बेमिसाल नगीना है। आल्हा में यूँ तो महोबा के दो वीरों की कथा है, किंतु आल्हा के गायन की अपनी विशिष्ट शैली के कारण यह दूर-दूर तक प्रसिद्धि पाया है।
लौकिक रास परंपरा की आदिकालीन रचना जगनिक कृत परमाल रासो के आधार पर प्रचलित आल्हा गीतों की उत्पत्ति की कथा जितनी रोचक है, उतना ही मर्मस्पर्शी है, इनका विकास और विस्तार भी। गौरवशाली अतीत से परिचित कराने के साथ ही समाज को एक सूत्र में बाँध सकने की क्षमता आल्हा गीतों में है।
जगनिक कृत परमाल रासो की प्राचीन पांडुलिपि अप्राप्य है और इस कारण यह माना जाता है कि जगनिक की यह रचना प्रायः लोक-कंठों में जीवित रही। सन् 1865 के आसपास एक अंग्रेज कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने आल्हा गवैयों की सहायता से वाचिक परंपरा में जीवित आल्हा को लिपिबद्ध    कराया। ऐसा ही प्रयास विसेंट स्मिथ ने किया। बाद में सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के संपादन में सन् 1923 में डब्ल्यू. वाटरफील्ड द्वारा हिंदी से अंग्रेजी में आल्हा का अनूदित संस्करण ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपा। लोकमहाकाव्य आल्हा को लिपिबद्ध करके संरक्षित और संकलित करने का यह संभवतः पहला प्रयास था। इसके बाद आल्हा के कई संस्करण अलग-अलग छापाखानों में छपे। आज भी गँवई-गाँव के मेलों में आल्हा की किताबें बिकती हुई देखी जा सकती हैं।
बनावट के लिहाज से इसमें बावन खंड हैं। संयोगिता स्वयंवर, परमाल का ब्याह, महोबा की लड़ाई, गढ़ मांडो की लड़ाई, नैनागढ़ की लड़ाई, बिदा की लड़ाई, मछलाहरण, मलखान का ब्याह, गंगाघाट की लड़ाई, ब्रह्मा का ब्याह, नरवरगढ़ की लड़ाई, ऊदल की कैद, चंद्रावल की चौथी लड़ाई, चंद्रावल की विदा, इंदलहरण, संगलदीप की लड़ाई, आल्हा की निकासी, लाखन का ब्याह, गाँजर की लड़ाई, पट्टी की लड़ाई, कोट-कामरू की लड़ाई, बंगाले की लड़ाई, अटक की लड़ाई, जिंसी की लड़ाई, रूसनी की लड़ाई, पटना की लड़ाई, अंबरगढ़ की लड़ाई, सुंदरगढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की दूसरी लड़ाई, भुजरियों की लड़ाई, ब्रह्मा की जीत, बौना चोर का ब्याह, धौलागढ़ की लड़ाई, गढ़चक्कर की लड़ाई, देवा का ब्याह, माहिल का ब्याह, सामरगढ़ की लड़ाई, मनोकामना तीरथ की लड़ाई, सुरजावती हरण, जागन का ब्याह, शंकरगढ़ की लड़ाई, आल्हा का मनौआ, बेतवा की लड़ाई, लाखन और पृथ्वीराज की लड़ाई, ऊदल हरण, बेला को गौना, बेला के गौना की लड़ाई, बेला और ताहर की लड़ाई, चंदनबाग की लड़ाई, जैतखंभ की लड़ाई और बेला सती। आल्हा के ये बावन खंड आल्हा गायकों को समग्रतः याद नहीं रहते। वैसे भी अब अल्हैतों की परंपरा सिमटती जा रही है। अब आल्हा के कुछ प्रचलित खंड ही प्रायः गाए जाते हैं।
बनावट की दृष्टि से देखा जाए तो आल्हा में लगभग सत्रह प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है। इसमें कहीं-कहीं संस्कृत के श्लोक हैं तो कहीं पर गद्य का प्रयोग भी हुआ है। वीर रस की प्रधानता होने के कारण इसका गायन भी ओजपूर्ण होता है। हर घटना और युद्ध या वीरता के बखान के लिये सुर और ताल के विशिष्ट उतार-चढ़ाव और अनूठी शैली श्रोताओं को न केवल मंत्रमुग्ध कर देती है, वरन् कथा का सटीक और जीवंत चित्रण भी कर देती है।
लोकमहाकाव्य आल्हा में आल्हा को ही नायकत्व का दर्जा प्राप्त है, क्योंकि वह दूसरे खंड से लेकर बावनवें खंड तक मुख्य भूमिका अदा करता है। वह वीरता, गंभीरता, धैर्य और साहस जैसे उदात्त गुणों का स्वामी है। राजा परमाल का व्यक्तित्व उनकी पदवी से मेल नहीं खाता है। वे राजा होने के बावजूद कायरता, स्वार्थ और भीरुता का प्रदर्शन करते हैं। परमाल की पत्नी मल्हना या मलना, आल्हा-ऊदल की माँ दिवला, मछला और बेला जैसे नारी पात्र भी हैं, जो मध्ययुगीन भारतीय महिलाओं का आदर्श प्रस्तुत करती हैं और वीरांगनाएँ भी हैं। आल्हा, ऊदल, मलखान और इंदल के चरित्र को विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिनके प्रश्रय में कथा का विस्तार होता है।
धर्म, अध्यात्म और संस्कृति का समन्वय आल्हा में स्पष्ट परिलक्षित होता है। आल्हा के गायन की शुरुआत में की जाने वाली स्तुति विभिन्न मत-मतांतरों के मध्य समन्वय स्थापित करती प्रतीत होती है—
सुमिर भवानी दाहिने, सनमुख रहे गनेस ।
पाँच देव रक्षा करें, ब्रह्म, विष्णु, महेस।।  
काली सुमिरौं कलकत्ते की, जगदंबा के चरन मनाय।
अन्नपूर्णा तिरवा वाली, जगमग जोत रही  छहराय।
सुमिर भवानी कलपी वाली, मनिया सुमिर महोबे क्यार।।
स्थानीय देव-देवियों की उपस्थिति आल्हा की लोकग्राह्यता की प्रतीक बन जाती है। यह लोकग्राह्यता वर्ण और जातियों के समन्वय और विभेद को मिटा देने के कारण भी है।
सगुन विचारै बनिया बाटू, बाम्हन लेय साइत विचार,
हम क्षत्रिय लोहा लादे हैं, सो हम बेचें  कौन  बजार।
नाई-बारी हो तुम नाहीं, घर के भइया  लगौ  हमार।
मान महोबै को रख लेबौ, दोनों हाथ  करौ तलवार।।
इसके साथ ही आल्हा में नीति व ज्ञान की बातें भी वर्णित हैं। यथा—
पानी जैसो बुलबुला है जो छन माँहीं जैहे  बिलाय,
सदा तुरैया ना वन फूलै यारों सदा न सावन होय।
सदा न मइया की कुक्षा में धरिहौ बार-बार अवतार,
जस अम्मर कर लेव जुद्ध में, काया छार-छार हुइ जाय।।
ऐसी ज्ञान व नीति की बातें भले ही कथा-विस्तार में महत्त्वपूर्ण स्थान न रखती हों, किंतु नीति व ज्ञान की अनूठी-अनौपचारिक पाठशाला के रूप में समाज के बड़े तबके को व्यावहारिकता सिखाने में बहुत खास भूमिका अदा करती है।
मनोरंजन और समय व्यतीत करने के साधन के रूप में आल्हा का गायन शिक्षाप्रद भी हो जाता था। इसमें अंतर्निहित ढेरों कथाएँ, गल्प और आख्यान प्रकीर्ण साहित्य की महत्त्वपूर्ण धरोहर हैं।
मध्ययुगीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थितियों के चित्र भी आल्हा में उभरते हैं। सिद्ध और नाथ पंथियों का प्रभाव, जादू-टोने, ज्योतिष, तंत्र और स्वप्न-अपशकुन, पुनर्जन्म तथा भूत-प्रेत आदि की उपस्थिति आल्हा को समग्रता प्रदान करती है। यही सब इसकी व्यापकता और स्वीकार्यता के केंद्र में है।
समूचे उत्तर भारत में, बुंदेलखंड, ब्रज, राजस्थान, बैसवारा, अवध और भोजपुर में विभिन्नताओं के साथ आल्हा गायन की, अल्हैती की व्यापक परंपरा प्रचलन में रही है। बरसात के समय, किसानों- मजदूरों के फुर्सत के समय गाँवों की चौपालों, अथाई और बैठकों में होने वाली अल्हैती सभी को एक सूत्र में जोड़ देती थी। आल्हा के तालन सैयद का चरित्र सांप्रदायिक एकता और सौहार्द का प्रतीक है—
राम का मित्तर जामवंत था और पांडों का कृष्ण अवतार,
आल्हा का ताला सैय्यद है, काम करे जो  सोच बिचार।
सैकड़ों वर्षों तक अपने वाचिक माध्यम से लोकमहाकाव्य आल्हा जनपदों, गाँवों और कस्बों में राष्ट्रीयता की अलख जगाने, नीति-विज्ञान सिखाने और मनोरंजन करने का माध्यम बना रहा। इसकी लोकप्रियता तुलसी के मानस के समकक्ष बैठती है। बिना पुस्तकाकार पाए, लोकजीवन में, लोक-कंठों में जीवित और निरंतर जीवंत रहने वाली यह विधा, यह काव्य आज देश के विकास के व्युत्क्रमानुपाती होकर मिट रहा है।

टेलीविज़न, इंटरनेट और अन्य संचार साधनों ने बहुत कुछ बदल दिया है। आज अल्हैते नहीं मिलते, गाँवों में अथाई नहीं लगती, बरसात में भी, आल्हा नहीं सुनाई पड़ता। यह संकट हमारी पहचान का है, हमारे अतीत के गौरव के क्षरण का है, हमारी संपदा के विनाश का है। इसे बचाने, संरक्षित और संवर्द्धित करने का दायित्व आज की पीढ़ी पर है, वरना आने वाली पीढ़ी के लिये आल्हा काव्य ही नहीं, शब्द भी अपरिचित रह जाएगा।
डॉ. राहुल मिश्र
{बुन्देली दरसन, अंक- 3, 2010, नगरपालिका परिषद्, हटा, दमोह (मध्य प्रदेश) में प्रकाशित}



 

Friday 28 December 2012


समकालीन हिंदी कहानियों में असंगठित क्षेत्र की घरेलू कामकाजी महिलाएं
                                                                                         

आधुनिकीकरण, विश्वव्यापारीकरण, यंत्रीकरण और जीवन-स्तर में आए बदलावों का सुखद पक्ष यह माना जाता है कि देश में समृद्धि आई है, लोगों का जीवन-स्तर ऊपर उठा है। किंतु इसके साथ ही गांवों से पलायन भी बढ़ा है। गांवों के अशिक्षित-अल्पशिक्षित लोगों के सामने बेकारी की समस्या भी पैदा हुई है। गांवों से शहर आने वाले लोग महंगाई के दौर में गुजारा करने के लिए अपनी महिलाओं को संपन्न घरों में काम करने हेतु भेज देते हैं। इसके साथ ही घर की विपन्न आर्थिक स्थिति के कारण या अन्य तमाम कारणों से गांव से शहर भागकर आने वाली महिलाएं घरों में काम करके अपना गुजारा करती हैं।
बंबई-कलकत्ता-दिल्ली तथा बंगलौर की झोपड़पट्टियों पर किये गए शोध के अनुसार गांव से शरणार्थी बनकर शहर आने वाली ऐसी स्त्रियों में से अधिकतर घरों में चूल्हा-चौका करने या निर्माण-कार्यों में दैनिक मजदूरी का काम पकड़ लेती हैं, क्योंकि ऐसे कामों में तनख्वाह कम होने पर भी उनके लिए न्यूनतम अर्हता कुछ नहीं होती। गांठ में पैसा लेकर आईं या भू-स्वामित्व वाली स्त्रियों की तादाद इनमें बहुत कम है अधिकतर के लिए रोज कुआं खोदना रोज पानी पीना, यही सच है। अपने पीछे छोड़े गांव-समाज से इन औरतों का रिश्ता बहुत क्षीण-सा ही रह जाता है लिहाजा उधर से मदद मिलने की भी आशा नहीं होती।1 इस प्रकार इन महिलाओं की जिंदगी अपने मालिकानों के बीच ही केंद्रित होकर रह जाती है। जिन महिलाओं का परिवार नहीं होता, अविवाहित होती हैं या बेसहारा होती हैं उनके साथ यह मजबूरी और अधिक तीव्र होती है। चूंकि कार्य का यह क्षेत्र असंगठित होता है और दूसरी नौकरियों से, काम-धंधे से एकदम अलग किस्म का होता है और घर-परिवार से जुड़ा होता है, इस कारण इस क्षेत्र की कामकाजी महिलाएं कुछ अलग तरीके से शोषण का शिकार होती हैं। 
ऐसे ही शोषण को व्याख्यायित करती, वैचारिकता और भावुकता को उद्वेलित करती कहानी है- प्रख्यात कथाकार यादवेंद्र शर्मा ‘चंद्र’ की ‘लुगाईजात’। कहानी की पात्र गुलाबड़ी अपने बीमार पति के इलाज के लिए धन कमाने के लिए एक सेठ के बच्चे को पालने का काम करने लगती है। उसके इस काम के कारण उसका अपना बच्चा तो भूख से मरता ही है, बीमारी से उसका पति भी मर जाता है। पति और बच्चे की मौत के कारण बेसहारा हो गई गुलाबड़ी के रूप में सेठ को एक विश्वसनीय नौकरानी मिल जाती है, जिसे ‘धाय मां’ का खिताब देकर सेठ, सेठानी और उनके परिवार के लोग उससे जी भर मेहनत कराने लगते हैं। पति और बच्चे की मौत के बाद बेसहारा गुलाबड़ी ‘धाय मां’ के नाम पर सेठ के घर से भावनात्मक रूप से जुड़ जाती है और उसे अपना घर समझने लगती है, जबकि उसकी इस भावना का लाभ उठाकर सेठ-सेठानी और उनके बच्चे उसकी भावनाओं से खेलते हैं और वह सबके ताने-उलाहने भी यह समझकर सहती रहती है कि अब उसका घर यही है। कष्टदायी एकाकी जीवन और ताने-उलाहनों की पराकाष्ठा से तंग आकर जब गुलाबड़ी अखाराम के घर बैठ जाने का निर्णय ले लेती है, तब एक बार फिर से सेठ उसे ‘धाय मां’ होने की भावनाओं में बांधना चाहता है किंतु गुलाबड़ी अपने निर्णय पर दृढ़ रहती है।2
दरअसल, नौकरानी शब्द में जो ‘रानी’ है, वह उस भाव का प्रतिनिधित्व करता है, जो गुलाबड़ी जैसी महिलाओं के छले जाने का कारण बनता है। यह अपने में ऐसा कटु यथार्थ छिपाए हुए है, जिसे जानते हुए भी अनजाना रखा जाता है। वैसे तो घरों में बर्तन धोने वालियों के लिए ‘महरी’ शब्द का इस्तेमाल होता है, किंतु घर के अन्य कार्यों को भी करने वाली नौकरानी कहलाती हैं। इनका एक वर्ग ऐसा होता है, जो दिन भर के काम के बाद अपने परिवार के साथ रहता है, जबकि दूसरा वर्ग पूर्णकालिक होता है और अपने सेवायोजक के घर पर ही रहता है। घरेलू नौकर भी होते हैं, किंतु यह भावनात्मक रूप से घर के सदस्यों के साथ उतनी जल्दी और गहराई तक नहीं जुड़ पाते, जितनी जल्दी नौकरानियां जुड़ जाती हैं। ऐसा संभवतः नारी-सुलभ विशिष्टता के कारण होता है। प्रायः इनको चाची, बुआ, भौजी, बिट्टी, जिज्जी, दाई या ‘आंटी’ जैसे संबोधन भी मिल जाते हैं, जो छद्म भावात्मकता के ऐसे दुर्ग बना देते हैं, जिनके अंदर इन कामकाजी महिलाओं का शोषण होता रहता है। छद्म भावुकता के ऐसे ढोंग प्रायः सभी घरों में होते हैं, जिनको प्रथमदृष्टया समझ पाना सीधी-सादी, अपढ़-अल्पज्ञ ग्रामीण महिलाओं के लिए असंभव होता है। इसका लाभ उठाकर सभ्य समाज के लोगों द्वारा शोषित होना इनकी नियति बन जाता है। चंद्र जी की कहानी सभ्य समाज के इसी कटु यथार्थ को शिद्दत के साथ प्रकट करती है। समकालीन हिंदी कहानी ने स्त्री-विमर्श से जुड़े इस पक्ष को न केवल गहराई में उतरकर देखा है, वरन् बड़ी बेबाकी के साथ पेश भी किया है।
इसी तरह की एक और कहानी है- चारा (नारायण सिंह)। इस कहानी की मालकिन अपने छोटे भाई को प्रेरित करती है कि वह नौकरानी मीठू से प्रेम का चक्कर चलाए ताकि मीठू को भावनाओं में बांधकर उससे अधिक से अधिक काम लिया जा सके, उसका शोषण किया जा सके। मीठू अपनी मालकिन के छोटे भाई द्वारा स्वार्थवश किये जा रहे झूठे प्यार को नहीं समझ पाती और उसके घर को अपना ही घर समझकर जी-जान से घर के काम में जुटी रहती है, परिवार के लोगों को हर तरह से खुश रखने की कोशिश में ही लगी रहती है। किंतु एक दिन जब मीठू को इस सच्चाई का पता चलता है तो वह बहुत दुखी होती है और अंदर से इतना टूट जाती है कि घरों में काम करना ही बंद कर देती है, तब उससे बदला लेने के लिए उसे बदनाम किया जाता है।3 भावनाओं के साथ जुड़ी हुई ऐसी स्थिति और मानवीयता की हदें पार करके किये जाने वाले शोषण के कारण नौकरानियां असहज और लाचार हो जाती हैं।
घरेलू नौकरानियों के साथ लाचारी आर्थिक विपन्नता की भी होती है। गरीबी, अशिक्षा, मां-बाप-पति की बेकारी या घर चलाने जैसी मजबूरियों के चलते महिलाएं और युवतियां घरेलू नौकरानी के तौर पर काम करने को विवश होती हैं। इनकी मजबूरी शोषण का प्रमुख कारण बन जाती है। घरों में खाना बनाने, बर्तन धोने और झाड़ू-पोंछा करने के साथ ही वह सभी कुछ करना उनकी ‘ड्यूटी’ में शामिल होता है, जिसकी दरकार घर के मुखिया से लेकर बच्चों तक किसी को भी होती है या हो सकती है। इस प्रकार संगठित क्षेत्रों की भांति इनके कार्य का दायरा निर्धारित नहीं होता और न ही इनके कार्य की अवधि (ड्यूटी ऑवर्स) ही निर्धारित होती है। सुबह दिन निकलने के साथ ही इनकी सेवा (ड्यूटी) चालू हो जाती है, जो देर रात तक अनथक चलती ही रहती है। अपने अस्तित्व को, अपने वजूद को मिटाकर अपने मालिकों की सेवा में मुस्तैद रहने वाली घरेलू नौकरानियां अपमान भी झेलती हैं, ताने-उलाहने भी सहती हैं, और यह सब उस हद तक होता है, जिसे सभ्य समाज में स्वीकार नहीं किया जा सकता।
इसके बावजूद इनके अंदर विरोध की भावना तब तक नहीं पनपती जब तक स्थितियां हद से बाहर न हो जाएं। इसका प्रमुख कारण आर्थिक असुरक्षा के साथ ही भविष्य की चिंता होती है। प्रायः बेसहारा नौकरानियों के सामने अपने भविष्य का प्रश्न होता है और इसीलिए चंद्र जी की ‘गुलाबड़ी’ जैसी नौकरानियां अपना सहारा तलाशने लगती हैं। युवा नौकरानियों के संदर्भ में यह और भी तीव्र होता है, क्योंकि उनके साथ असुरक्षा का प्रश्न भी जुड़ा होता है। अर्चना वर्मा की कहानी ‘राजपाट’ की गंगा इसी असुरक्षा के कारण घर के ही युवा नौकर बाबूलाल की ओर आकृष्ट होती है। ‘अपना घर’ बनाने का सपना और भविष्य को सुरक्षित करने की चिंता का समाधान वह बाबूलाल में तलाशती है-
‘वैसे बाबूलाल अच्छा है पर गंगा के लिए वर की उतनी नहीं, जितनी घर की बात है।
उसने हिसाब लगा रखा है पूरा। अभी तो बच्चे इतने छोटे हैं कि एक नौकर, एक आया के बिना काम ही नहीं चलेगा। बाद में सिर्फ मर्द नहीं रखा जायेगा यहां। बहू-बेटी का घर है! तब वह चुपचाप बाबूलाल की जगह ले लेगी, बीच-बीच में इसीलिये वह अपने पाक कौशल का प्रमाण देती रहती है और बच्चों की देखभाल के अलावा भी बहुत-सा काम समेट कर जताती रहती है कि जरूरत पड़ने पर वह सारा घर संभाल सकती है।
बस बाबूलाल को साधना है। समझाना है। धीरे-धीरे बांधकर पंख कतरने हैं। सिखाना है कि यही है अपना आसमान।4
गंगा के मन में बैठे हुए सुनहरे भविष्य के सपने पूरे नहीं हो पाते और एक दिन ऐसा भी आता है, जब गंगा की मां उसे लेने आ जाती है। गंगा के मन में उम्मीद जगती है कि शायद उसकी मालकिन उसे रोक लें, क्योंकि वह अपनी मां के साथ नहीं जाना चाहती। वह जानती है कि उसे अपने घर में भी उपेक्षा ही मिलेगी, क्योंकि उसकी मां को केवल उसकी पगार से ही मतलब रहता है। उसको अपना भविष्य शहर में ही दिखाई देता है। बदली हुई स्थितियों को देखकर गंगा की मालकिन भी बदल जाती है। मालकिन को लगता है कि गंगा की अपेक्षा बाबूलाल अधिक उपयोगी है, लिहाजा वह गंगा को घर से जाने के लिए कह देती है। गंगा के सपने बिखर जाते हैं और उस पर दुश्चरित्र होने का आरोप भी मढ़ दिया जाता है। अपने सपनों को साकार करने और अपने भविष्य के सपनों को सच करने की जंग में बाबूलाल और गंगा दोनों ही हार जाते हैं। किंतु भीष्म साहनी की कहानी ‘राधा-अनुराधा’ की राधा अपने भविष्य के लिए संघर्ष करती है और भागकर हमपेशा गढ़वाली नौकर से शादी कर लेती है।
 ‘राधा-अनुराधा’ की राधा अपना पेट काटकर, दिन-रात मेहनत करते हुए अपने परिवार का भरण-पोषण करती है, किंतु जब उसके भविष्य की बात आती है तो उसका बाप उसका हित सोचने के बजाय उसे बेचकर धन कामने की योजना ही नहीं बनाता, उसे कार्यरूप में परिणित भी कर डालता है-
    ‘क्यों बीबीजी, जवान लड़के से मेरा ब्याह करेगा, तो उसे जेब से पैसे देने पड़ेंगे,बूढ़े के साथ करेगा, तो उल्टे उसे पैसे मिलेंगे।..........
वह बूढ़ा मेरठ के पास कहीं रहता है और मेरे बाप को पूरे सतरह सौ रुपये देगा। और दो सौ रुपये तो मेरा बाप उससे ले भी आया है।’5
राधा अपनी मालकिन से भावनात्मक रूप से जुड़ जाती है और उससे अपने सुख-दुख बांटती किंतु जैसे ही उसकी मालकिन को पता चलता है कि राधा ने घर से भागकर शादी की है, वह राधा से जाने के लिए कह देती है। मालकिन को राधा से कोई हमदर्दी नहीं रह जाती। अपने मालिकानों से भी भावनात्मक और नैतिक समर्थन न पाकर राधा जैसी तमाम घरेलू नौकरानियां अलग-थलग पड़ जाती हैं। राधा जैसी तमाम घरेलू नौकरानियां अपनी विवशता, असुरक्षा और भविष्य के प्रति चिंता के कारण अपने घर-परिवार से भी कट जाती हैं, क्योंकि घर के साथ उनका रिश्ता धन कमाने भर तक सीमित रह जाता है। इस संदर्भ में प्रख्यात पत्रकार मृणाल पांडे लिखती हैं-
    ‘कुछ शोधों से यह बात भी सामने आई है, कि प्रवासी पुरुषों की तुलना में प्रवासी कमाऊ स्त्रियां अपने पीछे छोड़े परिवारों की रुपये-पैसे से अधिक मदद करती हैं। और आमदनी का अपेक्षया अधिक बड़ा हिस्सा पेट काटकर घरवालों को लगातार भेजती रहती हैं। फिर भी घरवाले उनको खास महत्व नहीं देते। यदि वे शादी करने घर आती हैं, तो प्रायः अपने ही खर्चे से शादी तथा दहेज का प्रबंध करती हैं। जो नहीं कर पातीं, वे अनब्याही ही रह जाती हैं।’6
समाज और परिवार के साथ संघर्ष करते हुए घरेलू नौकरानियों को पुरुष-प्रधान समाज की गिद्ध दृष्टि से भी संघर्ष करना पड़ता है। भीष्म साहनी की कहानी ‘राधा-अनुराधा’ के बंगाली बाबू राधा की मजबूरी का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं, किंतु इसको सहना राधा की मजबूरी बन जाता है, उसको डर होता है- घर छूट जाने का, बेकार हो जाने का-
    ‘राधा के मन में आया, कह दे, मैं बीबीजी से बता दूंगी। इससे बंगाली बाबू पीछे हट जायेगा, मगर इससे उसकी नौकरी रहेगी? उसने एक बार एक सरदार जी से ऐसे ही कह दिया था, तो दूसरे ही दिन घरवाली ने नौकरी छुड़वा दी थी।’7
इसका दूसरा और महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि घर की मालकिन की मौजूदगी में नौकरानियों का मालिकों द्वारा यौन शोषण कुछ अपवादों को छोड़कर प्रायः नहीं होता और इसकी संभावनाएं भी कम ही होती हैं। जबकि मालकिन और नौकरानी के दिन भर घर में रहने के कारण घरेलू नौकरानियों का शोषण खास तौर पर घर की मालकिनों द्वारा ही होता है। यहां पर एक प्रकार का विशिष्टताबोध और मालिकाना अहं अपनी भूमिका निभाता है। रवीन्द्र वर्मा की कहानी ‘घर में नौकर का घर’ इन्ही स्थितियों को उकेरती है-
    ‘कौशल्या को पहली बार ऐसी कोठी में रहने का मौका मिला था जिसमें सर्वेंट्स क्वार्टर था और इस प्रबंध पर वह मुग्ध थी। उसने आने के पहले ही महीने पति से कहा था कि अब वह हमेशा ऐसे ही घर का इंतजाम करे जिसमें नौकर का घर हो। उसी शाम अग्निहोत्री ने एक घंटी लगवायी थी जो मालती की कोठरी में बोलती थी, मगर जिसका बटन उनके बेड-रूम में था। तब से कौशल्या को यदि हरारत भी हो तो बटन दबाने से मालती और मालती के आने से एक गिलास पानी आ जाता था।’8
कौशल्या अपने मालिकाना अहं के कारण अपनी नौकरानी मालती की विवशताओं को, उसके निजी जीवन की आवश्यकताओं को नहीं देख पाती/देखना चाहती, इसीलिए मालती के सुखद अंतरंग क्षणों को भी छीन लेती है, वैसा ही कौशल्या के साथ भी हो जाता है, जब वह अपने पति का साथ चाह रही होती है और बॉस से डांट खाकर पति का ‘मूड’ उखड़ जाता है।
मालती की तरह गुलाबड़ी, राधा और मीठू अपने साथ होते अन्याय और ‘इमोशनल ब्लैकमेलिंग’ को सहती नहीं रहतीं, संघर्ष की क्षमता और आत्मबल के ऊपर भारी पड़ते पेट के संकट और असुरक्षा के भाव के बावजूद वे प्रतिकार को उद्यत हो उठती हैं, भले ही उन्हें निर्णायक हल मिले या न मिले। संघर्ष की यह चेतना आधुनिक युगबोध को प्रकट करती है, जो समकालीन हिंदी कहानियों में बड़ी शिद्दत के साथ प्रकट हुई है।
इसका एकदम विपरीत पक्ष भी है। कुछ आपराधिक किस्म की नौकरानियां घर के लोगों के विश्वास की आड़ में चोरी या अन्य अपराध भी कर डालती हैं, जिस कारण लोगों का विश्वास टूट जाता है और इन्हें संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। यदि ऐसे अपवादों को छोड़कर विचार किया जाय तो इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि घरेलू कामकाजी महिलाएं दयनीयता की पराकाष्ठा को पार करके अपना जीवन जी रही हैं। काम के बदले कम वेतन और शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक शोषण की स्थितियां इन्हें समाज में उस अधिकार के साथ, सम्मान के साथ नहीं जीने देतीं जिसको पाना प्रत्येक मानव का हक है। इतना ही नहीं पढ़ने-लिखने की उम्र में काम करने वाली कम उम्र की नौकरानियां और घरों का काम करते-करते बूढ़ी हो गई नौकरानियां भी शोषण का शिकार होती हैं। बूढ़ी नौकरानियों के शारारिक रूप से अक्षम हो जाने पर मालिक लोग उनसे छुटकारा पाना चाहते हैं और इसलिए उन्हें कई तरह से प्रताड़ित करते हैं, दूसरी ओर इन नौकरानियों के सामने बुढ़ापे को पार करने का, भविष्य के निर्वहन का संकट खड़ा हो जाता है। इनके पास इतनी जमा पूँजी भी नहीं होती कि वे अपना जीवन गुजार सकें। कम उम्र की नौकरानियां अपने मालिकों के बच्चों को पढ़ते-लिखते देखकर; उनके अच्छे कपड़े, खिलौने, खान-पान आदि देखकर हीनताबोध से ग्रस्त हो जाती हैं। पढ़ाई-लिखाई संभव न हो पाने के कारण जीवनपर्यंत घरेलू नौकरानी बने रह जाना ही उनकी नियति बन जाती है। 
हिंदी कहानियों ने घरेलू कामकाजी महिलाओं के, नौकरानियों के दुख-दर्द को न केवल समझा है, वरन् व्यक्त भी किया है। ऐसी कहानियों की संख्या भले ही कम हो किंतु जितनी भी कहानियां लिखी गई हैं उन सभी में बड़ी गहनता के साथ, स्वाभाविकता और यथार्थ के साथ विषय का प्रतिपादन किया गया है। फिर भी इस संदर्भ में हिंदी कहानियों के लिए संभावनाएं शेष हैं, यथार्थ शेष हैं और इनको पूरा किये बगैर स्त्री विमर्श को भी पूर्ण नहीं कहा जा सकता।

संदर्भ:
1.         महिला शरणार्थी की त्रासदी, परिधि पर स्त्री, मृणाल पांडे, राधाकृष्ण, दिल्ली, 1996
2.         लुगाईजात (कहानी), यादवेंद्र शर्मा चंद्र’, हंस, दिल्ली, जनवरी, 1989
3.         चारा (कहानी), नारायण सिंह, पाटलिप्रभा, धनबाद, मई-दिसंबर, 1993
4.         राजपाट (कहानी), अर्चना वर्मा, हंस, दिल्ली, फरवरी, 1987
5.         राधा-अनुराधा (कहानी), भीष्म साहनी, वाडचू (कहानी संग्रह), राजकमल, दिल्ली, 1978
6.         महिला शरणार्थी की त्रासदी, परिधि पर स्त्री, मृणाल पांडे, राधाकृष्ण, दिल्ली, 1996
7.         राधा-अनुराधा (कहानी), भीष्म साहनी, वाडचू (कहानी संग्रह), राजकमल, दिल्ली, 1978
8.         घर में नौकर का घर (कहानी), रवीन्द्र वर्मा, हंस, दिल्ली, फरवरी, 1989                                                                                                                   
                                                                                     
                                                                                                    डॉ. राहुल मिश्र

Tuesday 7 August 2012

हिमालय की तराई की रंगीन मिठास : बहुरंगी मधुपुरी


महापंडित राहुल सांकृत्यायन की कालजयी कृति

हिमालय की तराई की रंगीन मिठास : बहुरंगी मधुपुरी

हिमालय के साथ जुड़ा राहुल सांकृत्यायन का नेह-प्रेम जगजाहिर है। उन्होने ऊपरी हिमालयी परिक्षेत्र अर्थात् लदाख, तिब्बत और चीन तक कई बार यात्राएँ की हैं और यहाँ के धर्म, संस्कृति तथा ज्ञान को सारी दुनिया के लिये सुलभ बनाने में योगदान दिया है। राहुल जी का जितना लगाव ऊपरी हिमालयी परिक्षेत्र से रहा है, उतना ही लगाव निचले हिमालयी परिक्षेत्र से भी रहा है। देश-दुनिया में आते बदलावों के कारण परिवर्तन की तेज लहर जितनी धीमी गति से हिमालय के ऊपरी परिक्षेत्र में आई, उतनी ही तेजी के साथ परिवर्तन की बयार निचले हिमालयी परिक्षेत्र में आई और उसे प्रभावित किया। निचले हिमालयी परिक्षेत्र में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश का कुछ भाग और दार्जिलिंग-कलिमपोंग का इलाका आता है। इन क्षेत्रों में अंग्रेज हुक्मरानों के आगमन के साथ ही आधुनिकता का विकास हुआ, जो अंग्रेजों के जाने के बाद भी लगातार चलता ही रहा।

राहुल सांकृत्यायन ने ऊपरी हिमालय परिक्षेत्र में फैले ज्ञान के अध्ययन के अतिरिक्त निचले हिमालयी परिक्षेत्र में आते सांस्कृतिक एवं सामाजिक बदलावों का गहन अध्ययन भी किया है। उनका यह अध्ययन उनकी कहानियों में उतरा है। निचले हिमालयी परिक्षेत्र के सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों से उनका कहानी-संग्रह है बहुरंगी मधुपुरी । उनके इस कहानी-संग्रह में इक्कीस कहानियाँ संग्रहीत हैं।

कहानी-संग्रह का शीर्षक ही इन कहानियों की तासीर को बताने के लिये पर्याप्त है। इस संग्रह की प्रत्येक कहानी का अपना अलग रंग है। इन कहानियों में कहीं अमीर लोगों के रहन-सहन को, उनके ऐशो-आराम और विलासिता को प्रकट किया गया है तो कहीं इस क्षेत्र के लोगों के जीवन को प्रकट किया गया है।

मधुपुरी  शब्द हिमालय की तराई की प्राकृतिक सुंदरता को, उसकी मधु सदृश्य मिठास को बताने का काम करता है। राहुल जी ने अपने कहानी-संग्रह बहुरंगी मधुपुरी  की भूमिका में अपनी कथा-भूमि को विलासपुरी भी कहा है। उनके द्वारा यह संबोधन दिया जाना काफी हद तक सही और प्रासंगिक सिद्ध हो जाता है, जब हम उनकी कहानियों को पढ़ते हैं।

भारत में जब अंग्रेज हुक्मरान आये तो उन्हें यहाँ की गर्मी ने बहुत सताया। इसी संकट ने मधुपुरी या विलासपुरी अर्थात् निचले हिमालयी परिक्षेत्र के सौंदर्य से, यहाँ की शीतल-मंद-सुगंधित बयार से अंग्रेज हुक्मरानों को जोड़ दिया। इस तरह अंग्रेज अफसरों ने भारत में भी एक इंग्लैण्ड को पा लिया था और इसी कारण वे इस समूचे क्षेत्र को एक मिनी इंग्लैण्ड की तरह विकसित करने लगे थे। अंग्रेजों की देखा-देखी भारत के अमीर-सेठ-साहूकार और राजे-महराजे भी इस क्षेत्र की तरफ आकर्षित हुए और इस तरह से यह क्षेत्र विलासपुरी के तौर पर विकसित हो गया। राहुल जी ने अपनी सभी कहानियों में इस स्थिति को पूरे कथा-रस के साथ, रोचक तरीके से प्रस्तुत किया है।

दूसरी ओर इन कहानियों में इस क्षेत्र के मूल निवासी भी हैं, जो अमीरों के अजीबोगरीब शौकों को देखते हैं, कभी-कभी उनका शिकार भी बनते हैं। अपमानित भी होते हैं और धन भी कमाते हैं।

ब्रिटिश भारत जैसे-जैसे आजादी की राह पर बढ़ रहा था, वैसे-वैसे यह क्षेत्र भी अपना महत्त्व बढ़ा रहा था। विकास के नए-नए आयाम खुलते जा रहे थे। विकास की यह गति बहुरंगी मधुपुरी  की हर-एक कहानी में सीढ़ी-दर-सीढ़ी चलती दिखाई देती है। फिर एक दिन ऐसा भी आता है, जब अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ता है। अंग्रेज भारत छोड़कर चले जाते हैं और भारत में देशी अंग्रेज रह जाते हैं। वे उसी पुरानी परंपरा को चलाना चाहते हैं। कहानी-संग्रह भी अपने अंत पर पहुँचता है। आखिरी कहानी काठ का साहब देशी अंग्रेजों की मानसिकता पर आधारित है। इस कहानी में भ्रष्टाचार भी है, शाही-रईसी शौक भी हैं और अमीर गरीब का भेद भी है। इस तरह आखिरी कहानी में हमें निचले हिमालयी क्षेत्र का वर्तमान देखने को मिलता है। वास्तव में यह कहानी-संग्रह इतिहास, संस्कृति और समाज में आते बदलाव को तो बतलाता ही है, साथ ही समाज की कड़वी हकीकत को भी हमारे सामने स्पष्ट कर देता है

                                                                                         डॉ. राहुल मिश्र

Tuesday 17 January 2012

अज्ञेय : कठिन परिचय की सरल इबारत


             अज्ञेय : कठिन परिचय की सरल इबारत
  क व्यक्ति था अज्ञेय। सच्चिदानंद, हीरानंद वात्स्यायन। अप्रैल को है से था हो गया। सुंदर, भव्य, विराट, निर्बंध, अभेद्ध, अवेध्य व्यक्तित्व; यानि फूल-मालाओं के बीच सिर्फ़ एक चित्र, उतना ही चुप, उतना ही रहस्यावृत.... अज्ञेय।
हम लोगों ने आँखें खोलते ही उसी रौबदार नाम को अपने आस-पास पाया था... हवा, पानी, नदी, पहाड़ की तरह, आँगन पर छाये एक पेड़ की तरह जो बहुत कुछ देता है और बहुत कुछ छीन लेता है। एक दिन वह नहीं होता तो भाँय-भाँय करता आसमानी रेगिस्तान होता है। खुले आतंकप्रद विस्तार के नीचे हम बहुत छोटे हो जाते हैं....अवसन्न और दिग्भ्रांत.....1
यह पंक्तियाँ हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने अज्ञेय जी के देहांत के बाद हंस के मई, 1987 के संपादकीय में लिखीं थीं। अज्ञेय जी का जीवन संघर्षों और विविधताओं से भरा रहा, सन् 1930 से 1936 तक अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांतिकारी के रूप में जेल यात्राएँ और उन्हीं अंग्रेजों की सेना में सन् 1943 से 1946 तक अधिकारी का दायित्व। अज्ञेय का चित्र देखें— रोबीला चेहरा, गर्वोन्नत भाल, जिजीविषा से भरी खोजी निगाहें, गजब की दृढ़ता; चेहरे की भाव भंगिमा के विपरीत अज्ञेय जी में अपार शालीनता होगी, सरलता और सहजता होगी, इसका अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता।
वस्तुतः ऐसे ही परस्पर विरोधी तत्त्वों के सायुज्य से, विविधताओं से, बड़े सुंदर तरीके से गढ़कर अज्ञेय का व्यक्तित्व बना है। इसी कारण अज्ञेय को जान पाना जितना कठिन है, उतना ही सरल भी है। इसी कारण अज्ञेय जी के साहित्य में विविधता और अनुभव क्षेत्र की व्यापकता के दर्शन जितने विस्तृत फलक पर होते हैं, उतने अन्यत्र ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलते। अज्ञेय के साहित्य की समझ तभी विकसित हो सकती है, जब उनके व्यक्तित्व को, व्यक्तित्व में गहराई तक समाए हुए संतुलन के भाव को गहराई तक समझा जाए।
एक कवि के रूप में वे पारंपरिक भी थे और आधुनिक भी थे, और इनके समन्वय पर भी जोर देते थे— जो कवि अपने को ‘आधुनिक’ कहते या मनवाना चाहते हैं उनके लिए ‘पारम्परिक’ एक अवहेलना-सूचक विशेषण होता है; मेरे लिए वैसा कदापि नहीं है। वाचिक स्थिति पारंपरिक स्थिति थी; उस का कवि उसी में रहकर अपना सम्प्रेषण-धर्म निबाह सकता था। इसलिए इस अर्थ में पारम्परिक होना न केवल दोष नहीं था बल्कि अपने सामाजिक रिश्ते की सही पहचान और कवि-कर्म का सही निष्पादन था। दूसरे, यह भी उल्लेख्य है कि यह परिवर्तन न तो एक सीधी छलांग में सम्पन्न हो गया था, न एकाएक परम्परा को तोड़ कर आधुनिक हो जाने का श्रेय मेरा है। वैसा कहना ऐतिहासिक झूठ भी होगा, अनेक बड़े कवियों के साथ अन्याय  भी होगा, और आधुनिक होने की प्रक्रिया को ग़लत समझना भी होगा।संभवतः इसी कारण अज्ञेय प्रयोग पर जोर देते और नयेपन को स्वीकार भी करते थे। अज्ञेय (कितनी नावों में कितनी बार, 1967; सुनहरे शैवाल, 1967; क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, 1969; पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ, 1974; महावृक्ष के नीचे, 1977; सर्जना के क्षण, 1979 आदि) ने भी ‘नई कविता’ में लिखा, किंतु तथाकथित ‘नए कवियों’ चोट की—
आ, तू आ,
हाँ, आ,
मेरे पैरों की छाप-छाप पर रखता पैर,
मिटाता उसे,
मुझे मुंह भर गाली देता—
आ, तू आ!
जयी, युग नेता, पथ-प्रवर्तक
आ, तू आ,
ओ गतानुगामी!
‘नई कविता’ में अनुभूति का बड़ा जोर था और इन कवियों ने ‘अज्ञेय’ को छोड़कर भिन्न मार्ग ग्रहण किया। उन्होने ‘अज्ञेय’ रूपी सूर्य को ‘अस्त’ हुआ समझ लिया वैसे ‘नई कविता’ के बीज प्रयोगवाद में ही निहित थे।’3
हिंदी की प्रचलित धारा के विपरीत एकदम अलग, नूतन और अभिनव स्थापनाएँ देने और विचार रखने के कारण हिंदी की प्रयोगशील धारा के प्रतिनिधि और प्रवर्तक कवि, यायावर-घुमक्कड़ अज्ञेय का साहित्यिक जीवन आलोचनाओं और विरोधों से भरा रहा। इसके बावजूद वह कभी भी विचलित नहीं हुए। वैचारिक विभेद के बावजूद फ्रायड और मार्क्स से वे प्रभावित हुए। वैचारिक विरोधियों के विरोधों के साथ ही दूसरों के साथ दृष्टि-भेद को स्वीकार करने में अज्ञेय अत्यंत उदार थे। सच्चाई को पूरे मन के साथ स्वीकार करना और उस पर अडिग रहना भी अज्ञेय की विशेषता थी। इन्ही कारणों से अज्ञेय की स्थिति उनके काव्य संग्रहों— ‘भग्नदूत’ और ‘चिंता’ के समय तक उपेक्षित-सी रही, ‘इत्यलम्’ और ‘हरी घास पर क्षण भर’ तक विवादित रही और ‘बावरा अहेरी’ से ‘अरी ओ करुणामय प्रभा’ तक आते-आते वे नई कविता के प्रमुख स्तंभ बन गए। उनके कटु आलोचक भी उनकी काव्य प्रतिभा के दबे मन से ही सही, कायल हो गए थे।
छायावादोत्तर कालीन कवियों में अज्ञेय एक ऐसे कवि हैं, जिनका शहरी और देहाती जीवन की अनुभूतियों पर समान अधिकार नजर आता है। ‘अज्ञेय एक ओर मध्यवर्गीय व्यक्ति-मन की कुंठा-निराशा को, औद्योगिक नगरों की असंगति- भरी सभ्यता को उसकी तीव्रता में पकड़ते हैं, तो दूसरी ओर उन्मुक्त प्रकृति या ग्राम-जीवन की किसी छवि, विषमता या व्यथा को व्यंजित करते हैं या प्रकृति और ग्राम्य-जीवन के बिम्ब लेकर अनुभूति या सौंदर्य का कोई स्वर उभारते हैं।’4 आधुनिक जीवन की विसंगतियों के साथ ही लोक-जीवन की विद्रूपताएँ, प्रकृति का सौंदर्य, क्रांति और विद्रोह का स्वर अज्ञेय की कविताओं में इस प्रकार स्थान पाता है कि जीवन का कोई कोना, संवेदना का कोई रंग या बौद्धिकता का की पक्ष छूट जाना असंभव की हद तक कठिन होता है। अज्ञेय की कविताओं में अनुभूति या संवेदना और बौद्धिकता का सामंजस्य इतने संतुलित रूप में है कि दोनों ही एक दूसरे को नियंत्रित करती और एक दूसरे के अभावों की पूर्ति करती नजर आती हैं। अज्ञेय के कवित्व में कोरी बौद्धिकता और संवेदना ही नहीं व्यंग्य भी शामिल है, देखिए उनकी बहुचर्चित कविता, बानगी के तौर पर—
‘साँप!
तुम सभ्य तो हुए नहीं
नगर में बसना भी तुम्हें नहीं आया।
एक बात पूछूँ— (उत्तर दोगे?)
तब कैसे सीखा डसना—
विष कहाँ पाया?’5
अज्ञेय को अच्छा कवि कहा जाए या गद्यकार, यह समझ पाना भी बहुत कठिन है। ‘शेखर- एक जीवनी’ के प्रकाशित होने के बाद डॉ. नगेंद्र सहित कई आलोचकों ने उन्हें मुख्यतः गद्यकार ही घोषित कर दिया। अज्ञेय के तीन उपन्यास प्रकाशित हुए हैं और तीनों उपन्यास स्वयं में बेजोड़ होने के साथ ही विविधता को, विरोधी तत्त्वों को कुशलता के साथ जोड़े हुए हैं।
अज्ञेय के पहले उपन्यास- शेखर- एक जीवनी (1941) में भारतीयता की अमिट छाप है। उपन्यास के नायक शेखर का झगड़ा अपने पिता से इस बात को लेकर होता है कि वह हिंदी का पक्षधर है और उसके पिता अंग्रेजी के। उनके दूसरे उपन्यास- नदी के द्वीप (1951) के पात्र भुवन, रेखा और गौरा पर अंग्रेजियत का गहरा प्रभाव है। जबकि अज्ञेय के तीसरे उपन्यास- अपने-अपने अजनबी में भारतीयता और अंग्रेजियत का सुंदर तालमेल मिलता है।
अज्ञेय और जैनेंद्र की कथा-भाषा की तुलना करते हुए रामस्वरूप चतुर्वेदी लिखते हैं कि— ‘अज्ञेय की कथा-भाषा के कई रंग हैं, जो जैनेंद्र में इस रूप में नहीं दिखते। शायद यही कारण है जिससे जैनेंद्र के परवर्ती उपन्यासों में एकरसता जैसा भाव आने लगता है, जबकि अज्ञेय में भाषिक प्रयोगों के बीच नयी संभावनाएँ उभरती हैं। ‘शेखर’ की मूलगत भाषा ‘नदी के द्वीप’(1951) की प्रणय-गाथा में और अर्थ-सघन हो उठती है; फिर एकाएक ‘अपने-अपने अजनबी’(1961) में मृत्यु के साक्षात्कार-प्रसंग में अज्ञेय अपनी भाषा को एकदम बेलौस और रंगहीन कर लेते हैं। कथा-भाषा के इस विकास-क्रम में लेखक की उपन्यास-यात्रा प्रतिबिंबित होती दिखती है।’6
विरोधी तत्वों का सुंदर तालमेल अज्ञेय की शब्दावली और भाषा में भी मिलता है। संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दों के साथ ही अंग्रेजी शब्दों, मध्यवर्ग के घरेलू बोलचाल वाले ठेठ शब्दों और भाषा का प्रयोग विरोधी होकर भी इतने गुंथे हुए और परिपक्व रूप में मिलता है कि उसमें कहीं भी झोल नजर नहीं आता।
अज्ञेय के उपन्यासों की अपेक्षा उनकी कहानियों में तत्समता का दबाव कम है; व्यक्ति के आत्मसंघर्ष और परिवेश से संघर्ष में घरेलू, ठेठ देशी अंदाज अधिक मुखर हुआ है। एक ओर फक्कड़पन तो दूसरी ओर गाम्भीर्य और सटीक सम्प्रेषण अज्ञेय की विशेषता है। इसी विशेषता के और विविधता में रचा-बसा हुआ अज्ञेय का समग्र गद्य-साहित्य है। ‘अज्ञेय के कथा-साहित्य में सर्जनात्मक गद्य जैसा बहुस्तरीय है वैसा ही विधान उनके अकाल्पनिक गद्य-साहित्य में मिलता है। निबंध-रेखचित्र-संस्मरण-यात्रावृत्त-जर्नल-आलोचना-विचार-गद्य- पत्रकारिता का वैविध्य उनके लेखन में फैला है। भारतेंदु जैसा गद्य-प्रसार फिर अज्ञेय के यहाँ देखने को मिलता है। और यह आकस्मिक नहीं कि आधुनिकता का एक दौर वैचारिक स्तर पर भारतेंदु से शुरू होता है तो दूसरा दौर रचनात्मक स्तर पर अज्ञेय से।’7
हिंदी साहित्य में अज्ञेय को सामान्यतः क्रांतिकारी माना जाता है। यदि उनके प्रारंभिक साहित्य को देखें तो यह मान्यता सही भी प्रतीत होती है, इसके बावजूद उनकी क्रांति और क्रांतिकारिता के संदर्भ में धारणा एकदम विपरीत थी। अज्ञेय का मानना था कि एक क्रांतिकारी अपने विरोधी विचारों वाले व्यक्ति को बलात् अपने पक्ष में करने की कोशिश में लगा रहता है। अपने विरोधी मत के अस्तित्व को, उसकी स्थिति को शत्रुतापूर्ण दृष्टि से देखते हुए क्रांतिकारी जब अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है तब वह कोई नयापन लाने के बजाय समाज की स्वाभाविक प्रगति को बाधित कर देता है। उनका मानना था कि क्रांति के बाद क्रांति और बदलाव-दर-बदलाव गतिशीलता का पर्याय है और इसको एकांगी/एकपक्षीय बनाकर नहीं रोका जा सकता। अज्ञेय द्वारा रचित इस चौपदी के माध्यम से उनके क्रांति के प्रति विचार अधिक स्पष्ट हो जाते हैं—
‘क्रांति है आवर्त, होगी भूल उसको मानना धारा;
उपप्लव निज में नहीं, उद्दिष्ट हो सकता हमारा।
जो नहीं उपयोज्य वह गति-शक्ति का उत्पाद भर है;
स्वर्ग की हो—माँगती भागीरथी भी है किनारा।।’8
क्रांति के प्रति ऐसी अवधारणा के फलस्वरूप ही वे संभवतः सनातन भारतीय संस्कृति और आध्यात्म की ओर अग्रसर हुए। यद्यपि अज्ञेय को नास्तिक बुद्धिवादी के रूप में जाना जाता है, फिर भी उनकी कविताओं— ‘सागर मुद्रा’, ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ’, आदि में अपने प्रति स्थापित मान्यताओं के विपरीत एक धार्मिक, आस्थावान सर्जक अज्ञेय का दर्शन होता है। आध्यात्मिकता और आस्तिकता के बावजूद धर्म के विषय में उनके विचार स्पष्ट थे। वे धर्म को व्यापार मानने के बजाय आत्मिक शांति का, कर्म के प्रति समर्पण का और सत्कर्म का माध्यम मानते थे। विद्वत्द्वय स्मृतिशेष विष्णुकांत शास्त्री एवं विद्यानिवास मिश्र (साथ ही अपनी पत्नी श्रीमती कपिला वात्स्यायन) के सानिध्य के फलस्वरूप उनका मन धर्म और आध्यात्म की ओर झुका। अनन्तश्री स्वामी अखंडानंद सरस्वती से उनकी भेंट भी संभवतः इसी के फलस्वरूप हुई। स्वामी जी का सानिध्य पाकर वे अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में आध्यात्मिकता की ओर उत्तरोत्तर उन्मुख होते गए। वे प्रायः स्वामी जी से मिलते रहते और जीवनीय ऊर्जा ग्रहण करते। सन् 1980 में ‘वत्सल निधि’ की स्थापना और संचालन भी उन्होने किया। ‘वत्सल निधि’ ने तमाम नए और पुराने साहित्यिकों को, पाठकों को और भारतीय संस्कृति के अध्येताओं को पुरातन भारतीय ज्ञान-संपदा से, भारतीय साहित्य से परिचित कराने वाले महत्त्वपूर्ण मंच की भूमिका अदा की।
युवाओं जैसी ऊर्जा और कर्मठता के साथ समर्पित भाव से अपनी योजनाओं संलग्न रहने वाले अज्ञेय जी स्वयं को एक साहित्यकार से ज्यादा अपने परिवेश का, समाज का एक जिम्मेदार हिस्सा मानते थे और उसी उत्तरदायित्व को पूर्ण करने को महत्त्व देते थे। महान उद्देश्य की पूर्ति के मार्ग में होने वाली क्षति को स्वीकार कर लेना भी उन्हें बखूबी आता था। इसके बावजूद उन पर व्यक्तिवादी होने का, आत्मकेंद्रित होने का आरोप लगाया जाता रहा। सच तो यह है कि अज्ञेय की समाज के प्रति, राष्ट्र के प्रति और समय के प्रति जितनी समर्पित दृष्टि थी, उसके प्रतिमान विरले ही मिलते हैं। उनकी कविताओं में इसके दर्शन होते हैं। देखिए एक बानगी—
‘कब तलक यह आत्मसंचय की कृपणता।
यह घुमड़ना त्रास;
दान कर दो खुले कर से, खुले उर से
होम कर दो स्वयं को समिधा बनाकर!
शून्य होगा, तिमिरमय भी,
तुम यही जानो कि अनुक्षण
मुक्त है आकाश!’9
ऐसा दायित्वबोध अज्ञेय जैसै महान् व्यक्तित्व को सरलता और सहजता के धरातल पर इस प्रकार उतार देता है कि वे केवल कृतिकार ही नहीं रह जाते वरन् कृतिकारों के सर्जक भी बन जाते हैं। अपनी महानता के ऊपर अपने दायित्व को स्थापित कर वे नए रचनाकारों को प्रोत्साहित करने में सक्रिय हो जाते। जिस किसी में उन्हें रचनाधर्मिता नजर आती, संभावना नजर आती, उसे प्रोत्साहित करने में, प्रेरित करने में और परिष्कृत करके निखारने में वे यत्नपूर्वक संलग्न हो जाते थे। उदाहरण के तौर पर मदन वात्स्यायन का जिक्र किया जा सकता है। नया ज्ञानोदय के अप्रैल, 2005 अंक में मदन वात्स्यायन की कुछ कविताएँ छपी हैं, उनके देहांत के बाद। इसकी संपादकीय टिप्पणी का उल्लेख अज्ञेय के संदर्भ में करना समीचीन होगा। अज्ञेय, मदन वात्स्यायन को प्रोत्साहित करते हुए सितंबर, 1951 के ‘प्रतीक’ में लिखते हैं कि— बिहार के इस प्रतिभाशाली लेखक का हम स्वागत करते हैं। ‘शिफ्ट फ़ोरमैन’ के रचयिता का, जिन्होने औद्योगिक रसायन शास्त्र की शिक्षा पाई है... और यंत्र के निकट परिचय और यंत्र संचालक मानव का अदम्य विश्वास उनकी कविताओं में बोल रहा है।10
यहाँ राजेंद्र यादव की स्वीकारोक्ति का उल्लेख करना प्रासंगिक ही नहीं, आवश्यक भी होगा, वे लिखते हैं— ‘बेहद जटिल और अनेक किंवदंतियों का केंद्र था अज्ञेय का चक्रव्यूही व्यक्तित्व। बिना उनके इस बहुआयामी व्यक्तित्व को समझे, उनके साहित्य को नहीं समझा जा सकता और बिना उनके साहित्य को समझे उनके व्यक्तित्व में झाँक सकना मुश्किल है। ऐसे लोगों के साथ प्रायः एक दुर्घटना होती है- व्यक्तित्व के हटते ही रह जाता है उनका साहित्य, कभी अतिरिक्त मूल्यांकित तो कभी उपेक्षित। मालूम नहीं आने वाला समय ‘अज्ञेय’ का मूल्यांकन कैसे करेगा, लेकिन यह सही है कि अगर ‘अज्ञेय’ न होते तो हममें से बहुत लोग इस रूप में न होते, मेरी कहानी ‘खेल-खिलौने’ अज्ञेय ने सन् 51 में ‘प्रतीक’ में छापते हुए लंबी रचना लिखने का आग्रह किया था और उसी उत्साह में मैंने दो महीने में ही ‘प्रेत बोलते हैं’ लिख डाला था। उन्होने प्रशंसा करते हुए प्रारंभ और अंत बदल डालने की सलाह दी थी। तब मैंने नहीं बदला; दस वर्षों बाद दुबारा ‘सारा आकाश’ बनाते समय मुझे ‘अज्ञेय’ के सुझाव सही लगे थे।’11 ऐसा उदारमना व्यक्तित्व, ऐसी सहजता आज के साहित्य जगत् में दुर्लभ है।
संभवतः अज्ञेय जी ने गीता के दर्शन की, बौद्ध धर्म के मध्यम मार्ग की चर्चा अपने संदर्भ में नहीं की है, किंतु उनके व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में ही इनकी अमिट छाप दिखाई पड़ती है। अज्ञेय के व्यक्तित्व में, उनकी वैचारिकता में, उनके जीवन दर्शन में और इसके साथ ही उनके कृतित्व में परस्पर विरोधी तत्त्वों का जैसा सुंदर तालमेल दिखाई देता है, जैसा संतुलन प्रकट होता है वह कहीं न कहीं गीता के दर्शन और मध्यम मार्ग से प्रेरित है। इसी कारण उनका व्यक्तित्व और कृतित्व, उनका समग्र जीवन उस कैनवस की तरह से है, जिसमें विरोधी रंगों को ऐसे भरा गया है, जो विरोध को त्यागकर एक-दूसरे के पूरक बने हुए प्रतीत होते हैं। सच है, उन्हें जान पाना-समझ पाना कठिन भी है और सरल भी। आज के साहित्य की दिशा और दशा को देखते हुए, चुनौतियों को जानते-समझते हुए अज्ञेय के कृतित्व को ही नहीं, उनके व्यक्तित्व को भी समझना होगा, उनसे प्रेरणा लेनी होगी, सीख लेनी होगी।
संदर्भ :
  1. मेरी तेरी उसकी बात (संपादकीय), राजेंद्र यादव. हंस, मई, 1987, पृ. 5
  2. भूमिका, अज्ञेय, सर्जना के क्षण, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ, 1996, पृ. 9
  3. स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, राजपाल एंड संस, दिल्ली, 1996, पृ. 104
  4. छायावादोत्तर काल, डॉ. बच्चन सिंह, हिंदी साहित्य का इतिहास, संपा. डॉ. नगेंद्र, मयूर पेपरबैक्स, दिल्ली, 2004, पृ. 631
  5. साँप (कविता), अज्ञेय, सर्जना के क्षण, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ, 1996, पृ. 46
  6. हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती, इलाहाबाद, 1996, पृ. 109
  7. वही, पृ. 260
  8. शक्ति का उत्पात (कविता), पूर्वा, 1965, पृ. 233
  9. आवरण पृष्ठ, अज्ञेय, सर्जना के क्षण, भारतीय साहित्य प्रकाशन, मेरठ, 1996
  10. संपादकीय टिप्पणी, मदन वात्स्यायन की कविताएँ, नया ज्ञानोदय, अप्रैल, 2005, पृ. 09
  11. मेरी तेरी उसकी बात (संपादकीय), राजेंद्र यादव. हंस, मई, 1987, पृ. 5

     (नूतन वाग्धारा, बाँदा के अज्ञेय विशेषांक, 2011 में प्रकाशित)