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Friday, 5 September 2025

हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में गांधी जी के विचारों का प्रभाव


हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में गांधी जी के विचारों का प्रभाव


हिंदी साहित्य के वर्तमान में उपन्यास विधा की उत्पत्ति और विकास सर्वथा नवीन भावबोध और भारतीय नवजागरण के प्रयासों से अनुप्राणित है। इस कारण भारतीय नवजागरण से संबद्ध विचारकों-समाजसेवकों के प्रयासों और उनके विचारों का उपन्यास विधा में प्रतिफलित होना भी सर्वथा प्रासंगिक और युक्तिपूर्ण है। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यास प्रायः अंग्रेजी और बांगला से अनूदित थे और उनमें इसी अनुरूप कथ्य का प्रतिपादन भी किया गया था। हिंदी के प्रारंभिक मौलिक उपन्यासों का क्रम प्रायः 1900 ई. से शुरू होता है और 1950 ई. तक के उपन्यासों को हिंदी के प्रारंभिक मौलिक उपन्यास कहा जा सकता है। सन् 1900 से 1915-16 की अवधि में एक ओर तिलिस्मी-ऐयारी-जासूसी कथानक वाले उपन्यासों का प्रभाव देखने को मिलता है, तो दूसरी ओर भारतीय नवजागरण के प्रभावों के फलस्वरूप सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित नीतिवादी-शिक्षाप्रद-उपदेशात्मक उपन्यासों का। इस अवधि के उपन्यासों में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरोध के स्थान पर उसके कारण उपजी समस्याओं को उच्च मध्यवर्गीय समाज के सीमित दायरे में रखकर चित्रित किया गया है। “इस अवधि का उपन्यास देश के उस विशाल जनसमुदाय से कटा हुआ है, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के शोषणचक्र में पिस रहा था। यह जनसमुदाय किसानों का था, जो मुख्यतः गाँवों में रहता था और विदेशी सरकार, जमींदार, महाजन और पुरोहित, सबका भक्ष्य बना हुआ था। किशोरीलाल गोस्वामी, भुवनेश्वर मिश्र, महता लज्जाराम शर्मा आदि कुछ उपन्यासकारों ने किसानों पर जमींदारों के अत्याचार, ग्रामीणों की निर्धनता, अशिक्षा तथा उनकी दीनहीन स्थिति का यत्रतत्र चित्रण किया है, किंतु यथार्थ के इस ज्वलंत पक्ष पर उनकी सर्जनात्मक दृष्टि नहीं पड़ी।”1 गोपालकृष्ण गोखले द्वारा स्थापित भारत सेवक समाज, जी. के. देवघर द्वारा स्थापित सेवासदन, राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज और केशवचंद्र सेन की प्रेरणा से स्थापित प्रार्थना समाज सहित दयानंद सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज ने धार्मिक प्रेरणा और अतीत के गौरवपूर्ण सांस्कृतिक स्वरूप का समाज-सुधार के क्षेत्र में प्रयोग किया, जो इस अवधि के उपन्यासों में परिलक्षित होता रहा।

इस प्रकार 1900 से 1915-16 की अवधि में नवजागरण की दिशा और दशा सामाजिक सुधार बनाम राजनीतिक सक्रियता के दो अलग-अलग वर्गों में बँटी थी। इसके परिणामस्वरूप एक ओर बालगंगाधर तिलक और उनके समर्थकों ने राजनीतिक सक्रियता को प्रश्रय दिया, तो दूसरी ओर गोपालकृष्ण गोखले जैसे राजनीतिज्ञों ने समाज-कार्य को। एक लक्ष्य की ओर चलती दो परस्पर विरोधी विचारधाराएँ समाज को सही दिशा देने के स्थान पर दिग्भ्रम जैसी स्थितियों का सर्जन कर रही थीं। ऐसे समय में आगमन होता है, महात्मा गांधी का। दक्षिण अफ्रीका से संत बनकर लौटे गांधी जी ने परस्पर विरोधी तत्त्वों को समीप लाने और उन्हें अपनी ताकत बनाने का प्रयोग किया। “गांधी जी ने सामाजिक समस्याओं तथा राजनीतिक प्रश्नों को एक समन्वित रूप दे दिया था। इसीलिए गांधी जी खादी, हिंदू-मुसलिम एकता तथा अछूतोद्धार, स्वराज्य के तीन स्तंभ मानते थे।”2 तत्कालीन भारतीय राजनीति और भारतीय समाजनीति पर गांधी जी की स्वराज्य की अवधारणा न केवल स्थापित हुई, वरन् तीव्रता के साथ जनस्वीकार्य भी हुई। साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा। गांधी जी के विचारों एवं जीवन-दृष्टि के आधार पर औपन्यासिक चरित्रों का प्रतिरूप बनाया गया, गांधी जी के जीवन की घटनाओं का प्रतिबिंब प्रस्तुत किया गया, गांधी जी द्वारा प्रवर्तित राष्ट्रीय आंदोलनों का चित्ररूप दर्शन कराया गया, गांधी जी के कुछ सिद्धांतों की मीमांसा करने के लिए कथाओं की संरचना की गई। उदाहरणस्वरूप- हृदय-परिवर्तन, अहिंसक प्रतिरोध, सत्य का स्वरूप-विवेचन, ट्रस्टीशिप की परिकल्पना, औद्योगिक विकास के दौरान बढ़ने वाली अनैतिकता, दलित-पीड़ित-पतित-शोषित समाज के प्रति सहानुभूति आदि।”3 हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों के द्वितीय सोपान में गांधी-दर्शन और गांधीवाद के आगमन को साहित्य और समाज में बड़े क्रांतिकारी बदलाव से कम नहीं कहा जा सकता है।

‘परीक्षागुरु’ से ‘सेवासदन’ तक, अर्थात् 1882 से 1916 तक हिंदी उपन्यास साहित्य को प्रयोगकाल कहा जा सकता है। इस काल के उपन्यासों की सृष्टि किसी साहित्यिक उद्देश्य को सम्मुख रखकर नहीं की गई थी, वरन् नीति, शिक्षा, प्रेम, रोमांस, तिलिस्म और जासूसी प्रवृत्तियों का चित्रण करके जनता का मनोरंजन करना अथवा कौतूहल की सृष्टि करना मात्र था।4 ‘सेवासदन’ के साथ प्रेमचंद द्वारा हिंदी उपन्यास-लेखन का प्रारंभ किया जाना और राजनीतिक-समाजसेवक के रूप में महात्मा गांधी का भारत में आगमन, दो ऐसी घटनाएँ हैं, जिन्हें हिंदी साहित्य और भारतीय समाज, दोनों के लिए युगांतकारी कहा जा सकता है।

प्रेमचंद का उपन्यास ‘सेवासदन’ सन् 1918 में हिंदी में प्रकाशित हुआ और समाज में उपेक्षित ‘आधी दुनिया’ के जटिल यथार्थ को पहली बार देखने का प्रयास हुआ। गांधी जी महिलाओं की दयनीय दशा को लेकर चिंतित थे, और वे महिलाओं को पुरुषों के समान सामाजिक मान-प्रतिष्ठा और अधिकार दिलाने के प्रबल पक्षधर थे। इसी कारण उन्होंने स्त्री-अशिक्षा और बाल-विवाह जैसी कुरीतियों का विरोध किया। “1930 ई. में गांधी जी ने स्त्रियों को विदेशी वस्तुओं की दुकानों, शराबघरों और सरकारी संस्थानों पर धरना देने का संदेश दिया। इस आह्वान पर हजारों स्त्रियों ने स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया और जेल गयीं। खुद प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी भी जेल गयीं। इसका असर प्रेमचंद के उपन्यासों के नारी पात्रों पर भी दिखाई देता है।”5 इसी कारण दहेज प्रथा और वेश्यावृत्ति जैसी सामाजिक समस्याओं को केंद्र में रखकर लिखा गया ‘सेवासदन’ गांधी जी के विचारों के समीप का प्रकट होता है। प्रेमचंद के उपन्यासों में ‘सेवासदन’ की शांता; ‘गोदान’ की मालती; ‘कर्मभूमि’ की सुखदा, मुन्नी, नैना, रेणुका देवी, पठानिन और सकीना तथा ‘प्रेमाश्रम’ की श्रद्धा और विद्या आदि ऐसी नारी-पात्र हैं, जिनके माध्यम से प्रेमचंद ने प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से गांधी जी के नारी-विषयक विचारों को प्रकट करने का प्रयास किया है।

प्रेमचंद अपने उपन्यासों के नारी पात्रों के साथ ही अन्य पात्रों के माध्यम से भी गांधीवादी चिंतन और तत्कालीन आंदोलनों के प्रभावों को प्रकट करते हैं। “गांधी विदेशी शिक्षा-प्रणाली, विदेशी औद्योगीकरण, शहरीकरण के प्रबल विरोधी थे, प्रेमचंद ने ज़मींदार-किसान, अमीर-गरीब का भेद तो दिखाया है, लेकिन उसे वर्ग-भेद का रूप नहीं दिया है और न ही वर्ग-संघर्ष और क्रांति के जरिये उसका समाधान प्रस्तुत किया। अहिंसात्मक सत्याग्रह और हृदय परिवर्तन ही उनके समाज-परिवर्तन के साधन रहे थे। जहाँ ऐसा होने की संभावना नहीं है, वहाँ उन्होंने यथार्थ का दामन नहीं छोड़ा है, लेकिन हिंसा को प्रश्रय नहीं दिया है। प्रेमचंद गांधी के ‘वर्ग-समन्वय’ के सिद्धांत पर, ‘ट्रस्टीशिप’ के सिद्धांत पर भी यकीन करते थे।”6 प्रेमचंद के लगभग सभी उपन्यासों में गांधीवाद के दर्शन होते हैं। यहाँ ‘प्रेमाश्रम’ के प्रेमशंकर, ‘कर्मभूमि’ के अमरकांत, ‘रंगभूमि’ के सूरदास और ‘कायाकल्प’ के चक्रधर का उल्लेख किया जा सकता है, जिनके माध्यम से प्रेमचंद गांधी जी के विचारों को स्थापित करने का प्रयास करते हैं।

प्रेमचंद ने जिस राजनीतिक-सामाजिक चेतना को व्यक्त करने की परंपरा की शुरुआत की, उसे आगे बढ़ाने का कार्य उनके समकालीन और परवर्ती उपन्यासकारों ने किया। हिंदी उपन्यास के क्षेत्र में प्रेमचंद पहले ऐसे उपन्यासकार भी थे, जिन्होंने गांधीवाद को उपन्यास विधा में स्थापित करने का सफल प्रयास किया। प्रेमचंद के साथ ही उनके समकालीन श्री नाथ सिंह ने गांधीवादी दृष्टिकोण से अनेक उपन्यासों की रचना की। उनके ‘उलझन’, ‘जागरण’, ‘प्रभावती’, ‘प्रजामण्डल’ आदि उपन्यासों में ग्राम-सुधार, नारी उद्धार, अछूतोद्धार जैसे विषय हैं।7 गांधीवादी विचारधारा को कविताओं के साथ ही उपन्यासों में उतारने वाले सियारामशरण गुप्त के दो उपन्यासों का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। ‘गोद’ उपन्यास में उन्होंने नारी की दयनीय सामाजिक स्थिति का चित्रण करते हुए नारी स्वातंत्र्य के विषय को गांधीवादी विचारधारा के अनुरूप प्रकट किया है। उनके दूसरे उपन्यास ‘अंतिम आकांक्षा’ में सामाजिक विषमता के प्रश्न को उठाया गया है। इस उपन्यास में रामलाल निर्धन, निम्नवर्गीय पात्र है, जिसके प्रति समाज के अभिजात्य वर्ग की मानवीय सहानुभूति का उपजना गुप्त जी के गांधीवादी दृष्टिकोण को संकेतित करता है।8 

गुरुदत्त ने अपने उपन्यास ‘स्वराज्य दान’ में अहिंसा के महत्त्व को स्थापित करने का प्रयास किया है, साथ ही उनके ‘स्वाधीनता के पथ पर’, ‘पथिक’ और ‘भावुकता का मूल्य’ आदि उपन्यासों में विभिन्न सामाजिक समस्याओं का चित्रण है। जगदीश झा विमल के उपन्यास ‘खरा सोना’, ‘आशा पर पानी’, ‘लीलावती’ और ‘गरीब’, जहाँ एक ओर प्रेमचंद की परंपरा को आगे बढ़ाते हैं, वहीं दूसरी ओर गांधी जी के विचारों को भी प्रकट करते हैं। प्रतापनारायण श्रीवास्तव ने ‘विजय’, ‘विकास’ और ‘बयालीस’ आदि उपन्यासों में राजनीतिक-सामाजिक समस्याओं का हल गांधीवादी विचारधारा के अनुरूप प्रस्तुत करके हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में गांधी जी के विचारों की उपस्थिति को दृढ़ता प्रदान की है। ऋषभचरण जैन का उपन्यास ‘सत्याग्रह’ दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के सत्याग्रह आंदोलन के जरिए गांधीवादी विचारों को प्रकट करता है। उनके अन्य उपन्यासों में ‘मयखाना’ और ‘तीन इक्के’ भी उल्लेखनीय हैं, जिनमें शराबखोरी और जुआखोरी के दुर्गुणों का चित्रण हुआ है।

उस दौर के अन्य प्रसिद्ध उपन्यासकार, ‘उग्र’ पर नग्नता का आरोप लगता रहा है, किंतु उन्होंने पूरी ईमानदारी के साथ गांधीवादी विचारों का चित्रण अपने उपन्यासों में किया है। “पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ राजनीतिक धरातल पर गांधी जी के विचारों से प्रभावित थे। वह दो उपन्यासों, ‘चन्द हसीनों के खतूत’ तथा ‘सरकार तुम्हारी आँखों में’, हिंदू-मुसलिम एकता के उद्देश्य से लिखते हैं। ‘शराबी’ उपन्यास मद्यनिषेध विषय पर लिखा गया है, जो राष्ट्रीय कांग्रेस का मुख्य रचनात्मक कार्यक्रम था। ‘मनुष्यानंद’ उपन्यास में अछूतोद्धार आंदोलन चलता है।”9 उषादेवी मित्रा के उपन्यासों, ‘वचन का मोल’, ‘जीवन की मुसकान’ और ‘पथचारी’ में नारी-जीवन की ऐसी विषमताएँ उभरती हैं, जिनका सीधा संबंध गांधी जी के नारी-विषयक विचारों से जुड़ा है। “परिवार से सामाजिक आंदोलनों की ओर आती भारतीय स्त्री की संक्रमणकालीन मनोदशाओं का अंकन उषादेवी मित्रा ने पर्याप्त विश्वसनीय रूप में किया है।”10

इसी प्रकार निराला कृत ‘अलका’, जयशंकर प्रसाद कृत ‘तितली’ और ‘कंकाल’, वृंदावनलाल वर्मा  कृत ‘प्रत्यागत’ और ‘कुण्डली-चक्र’, भगवतीप्रसाद वाजपेयी कृत ‘पतिता की साधना’, जैनेन्द्र कृत ‘सुनीता’, चतुरसेन शास्त्री कृत ‘आत्मदाह’, भवानीदयाल कृत ‘नेटाली हिंदू’ और मन्नन द्विवेदी कृत ‘कल्याणी’ में गांधी जी के विचार कहीं सीधे तौर पर, तो कहीं प्रतीकात्मक रूप में स्थापित होते हैं। कृष्णलाल वर्मा कृत ‘पुनरुत्थान’, धनीराम प्रेम कृत ‘मेरा देश’, मोहिनी मोहन कृत ‘देशोद्धार’ और छविनाथ पांडेय कृत ‘प्रोत्साहन’ आदि उपन्यासों में स्वाधीनता आंदोलन तथा गांधीवादी विचारों का खुला प्रतिपादन किया गया है।11 यहाँ उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि प्रयोगवाद की अवधारणा के जनक अज्ञेय का उपन्यास ‘शेखर : एक जीवनी’, गांधी जी के अछूतोद्धार के विचार को नए प्रयोग के साथ प्रकट करता है। इस उपन्यास का नायक शेखर है। “विद्रोही शेखर ब्राह्मण छात्रों का छात्रावास छोड़कर अछूत छात्रों के छात्रावास में रहने लगता है। वह सदाशिव, राघवन आदि अछूत छात्रों की सहायता से अछूतोद्धार-समिति का निर्माण करता है, तथा अछूत बालकों के लिए स्कूल खोलकर स्वयं पढ़ाता है। सवर्ण एवं रूढ़िवादी वर्ग से संघर्ष संगठित रूप में ही किया जा सकता है, लेकिन शेखर वैयक्तिक धरातल पर समाज को चुनौती देता है।”12

गांधी जी और गांधीवादी विचारधारा के संबंध में प्रेमचंद अपनी पत्नी शिवरानी देवी से कहते हैं कि- “दुनिया में मैं महात्मा गांधी को सबसे बड़ा मानता हूँ। उनका ध्येय भी यही है कि मजदूर और किसान सुखी हों। वह इन लोगों को आगे बढ़ाने के लिए आंदोलन चला रहे हैं, मैं लिखकर उनकी हिमायत कर रहा हूँ।”13 संभवतः इसी कारण हिंदी उपन्यासों के क्षेत्र में प्रेमचंद ऐसे पहले उपन्यासकार बने, जिन्होंने गांधी जी के विचारों को हिंदी उपन्यासों में प्रतिष्ठापित करने का कार्य किया। प्रेमचंद के समकालीन और उनके परवर्ती उपन्यासकारों ने इस परंपरा को विकसित करने में योगदान दिया। हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासों में, सन् 1916 से 1950 ई. तक हिंदी उपन्यासों में जितनी शिद्दत के साथ गांधी जी के सिद्धांत और उनकी विचारधारा प्रकट होती है, उसका दर्शन परवर्ती कालखंडों में दुर्लभ होता गया, यही इस कालखंड की विशेषता है, विशिष्टता है।

संदर्भ-

1.    गोपाल राय, रोमांस, पाठक और उपन्यास, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 123-124,

2.    डॉ. चण्डीप्रसाद जोशी, हिंदी उपन्यास : समाजशास्त्रीय अध्ययन, अनुसंधान प्रकाशन, कानपुर, प्रथम सं. 1962, पृ. 109,

3.    वेब रेफ़रेंस- http://www.hindi.mkgandhi.org/gmarg/chap20.htm

4.    डॉ. सरोजनी त्रिपाठी, प्रेमचंद के हिंदी उपन्यासों में वस्तु-विन्यास का विकास, आधुनिक हिंदी उपन्यास में वस्तु-विन्यास, ग्रन्थम, कानपुर, प्रथम सं. 1973, पृ. 108,

5.    गोपाल राय, यथार्थ के नये स्वर, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 136,

6.    राजम नटराजम पिल्लै, प्रेमचंद और गांधीवादी दर्शन, प्रेमचंद के आयाम, संपादक- ए. अरविंदाक्षन, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2006, पृ. 264,

7.    डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त, हिंदी उपन्यास का विकास, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, बारहवाँ सं. 2010, पृ. 426,

8.    गोपाल राय, यथार्थ के नये स्वर, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 157,

9.    डॉ. चण्डीप्रसाद जोशी, हिंदी उपन्यास : समाजशास्त्रीय अध्ययन, अनुसंधान प्रकाशन, कानपुर, प्रथम सं. 1962, पृ. 262,

10.         मधुरेश प्रेमचंद युगीन अन्य उपन्यासकार, हिंदी उपन्यास का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम सं. 2009, पृ. 65,

11.         गोपाल राय, यथार्थ के नये स्वर, हिंदी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2002, पृ. 166,

12.         डॉ. चण्डीप्रसाद जोशी, हिंदी उपन्यास : समाजशास्त्रीय अध्ययन, अनुसंधान प्रकाशन, कानपुर, प्रथम सं. 1962, पृ. 368,

13.         क़मर रईस, प्रेमचंद : विचार-यात्रा, प्रेमचंद : विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता, संपादक- मुरली मनोहर प्रसाद सिंह एवं रेखा अवस्थी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2006, पृ. 452 ।


-राहुल मिश्र


(हिंदुस्तानी प्रचार सभा, मुंबई द्वारा प्रकाशित होने वाली पत्रिका हिंदुस्तानी ज़बान के मार्च, 2025 अंक में प्रकाशित)

Wednesday, 14 May 2025





बदलते नामों और छाँह की दीवार का एक गाँव


चलिए, अब दोबारा कभी मिलना होगा....।

फिर कभी ऐसा संयोग बनेगा, तो मिलेंगे...। यादें साथ रह जाती हैं।

हमारा इतना कहना हुआ, कि तुरंत ही करनल साहब ने बड़े दार्शनिक अंदाज में उत्तर दिया- “साहब! जिंदगी में ऐसे ही मोड़ आते हैं, लोग मिलते हैं, बिछड़ जाते हैं.....। यह तो एक पड़ाव है, ठिकाना है। जिंदगी भी ऐसी ही है, साहब।”

करनल साहब की बात सुनकर हमें बड़ा आश्चर्य हुआ। पिछले तीन दिनों में हमने करनल सिंह को इतने दार्शनिकाना अंदाज में नहीं देखा था। परिचय भी तीन दिन ही पुराना था। निःसंदेह किसी आदमी को एक बार में नहीं जाना जा सकता.... और यहाँ कुल जमा तीन दिन यानि पैंसठ-सत्तर घंटे...। लोग तो बरसों-बरस साथ रहकर भी एक-दूसरे को नहीं जान पाते हैं। खैर, करनल साहब को समझने के लिए हमें इतने लंबे समय की आवश्यकता नहीं थी। खुला हुआ और सीधा-सपाट स्वभाव करनल सिंह का था। जटिलता नहीं थी, जिस कारण बातें सरल और सहज थीं। तब आखिर यह दार्शनिकाना अंदाज कहाँ से आ गया? प्रश्न मन में उठा, उत्तर भी कौंध गया।

वस्तुतः, यह स्थान का प्रभाव बोल रहा था। करनल सिंह जम्मू-काश्मीर पुलिस के संभवतः हवलदार रैंक के कर्मी थे। किसी सरकारी काम ने हमारे साथ करनल सिंह को तैनात कर दिया था, जिस कारण करनल सिंह तीन दिनों तक हमारे साथ थे। हम जिस स्थान पर थे, वह हमारे अनुमान से अतीत के एक रोचक अध्याय से कम न था। उसी स्थान का प्रभाव करनल सिंह के सिर चढ़कर बोल रहा था, ऐसा हमको अनुभूत हुआ, उनके इस कथन को सुनकर।

क्यागर, तिगर, टाईगर, टिगर जैसे नाम...। ये अलग-अलग नाम एक ही गाँव के हैं, जहाँ हम लोग पिछले तीन दिनों से डेरा डाले हुए थे, और आज की सुबह चल पड़ने के लिए तैयार खड़े थे। गाड़ी वाला गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने गया था, क्योंकि हमें लंबा रास्ता तय करना था, और ऊपर से खरदुंग ला को भी पार करना था। खरदुंग हमारे लिए खर तुंग है, जिसकी बड़ी तीव्र चढ़ाई-उतराई है..., तुंग है। विश्व की सबसे ऊँची ‘मोटरेबल रोड’ भी यही है। गाड़ी वाले के आने तक चारों ओर एक बार फिर से नजर दौड़ाकर पूरे क्यागर गाँव की सुंदरता को, इसके आकर्षण को अपनी स्मृतियों के लिए सँजो लेना चाहते थे।

क्यागर गाँव आज भले ही बड़ा शांत और ठहरा हुआ-सा दिख रहा हो, लेकिन अतीत की कल्पनाओं में मन उतरा, तो बहुत गहरे उतरता चला गया। रेशम मार्ग से लगा हुआ क्यागर गाँव एक समय में रेशम मार्ग के यात्रियों के लिए बड़ा ठिकाना हुआ करता था। समरकंद बुखारा से लगाकर ईरान-ईराक-अफगानिस्तान तक चला जाने वाला यह रेशम मार्ग अपने साथ न जाने कितने लोगों को जोड़ता रहा, अनुमान लगाना कठिन है। अनुमान तो इसका भी नहीं लगाया जा सकता, कि कितनी संस्कृतियाँ, कितने विचार, कितने व्यवहार और कितनी प्रजातियाँ इस रेशम मार्ग से होकर आईं-गई-फैलीं-पसरीं और विचरीं...। इन अनेक यात्राओं के साक्षी रेशम मार्ग के किनारे बसे कितने गाँव और नगर होंगे, यह भी सहज ही नहीं जाना जा सकता।

क्यागर गाँव में न जाने कितने लोग आए होंगे, ठहरे होंगे, कुछ समय के लिए डेरा डाला होगा, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़े होंगे... ठीक वैसे ही, जैसे हम चल पड़ने को तैयार खड़े थे। हर बार जब किसी बटोही ने चल पड़ने के लिए अपना सामान बाँधा होगा, अपने साथियों से भावुक होकर फिर मिलने के वायदे किए होंगे, तब हर बार किसी साथी ने करनल सिंह की तरह दार्शिकाना अंदाज में उत्तर दिया होगा।

पिछले तीन दिनों से जिस आकर्षण में क्यागर ने बाँध रखा था, वह अब तक की हमारी यात्राओं से एकदम अलग था। इसकी गहनता बहुत थी, जो हर बार उस अतीत की कल्पनाओं में उतार रही थी, जिसे आज के समय में मात्र अनुभूत किया जा सकता है। रेशम मार्ग प्राचीन और मध्यकालीन व्यापारिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र रहा है। लगभग सारी दुनिया ही इस मार्ग की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़ी थी। अनेक छोटे-बड़े व्यापारिक मार्ग भी इससे जुड़कर रेशम मार्ग के नाम से जाने जाते थे। यह चीन से मध्य एशिया और फिर योरोप तक जाता था। समरकंद, बुखारा से यारकंद तक जाने वाले रेशम मार्ग को भारत के साथ जोड़ने वाला उपमार्ग क्यागर से होकर जाता था। क्यागर से हुंदर, पनामिक, दिस्किद, खालसर और फिर लेह तक जाने वाला रास्ता भले ही रेशम मार्ग का संपर्क मार्ग हो, लेकिन भारत की व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े होने के कारण यह मार्ग बहुत महत्त्व का था। क्यागर रेशम मार्ग के यात्रियों-व्यापारियों के लिए बड़ा ठिकाना हुआ करता था, और एक प्रकार से यह रेशम मार्ग के सबसे निकट का गाँव था। स्वाभाविक ही है, कि इस अतीत को जानकर और अधिक जानने की इच्छा उत्पन्न हो जाए। हमारे जैसे लोगों के लिए तो यह बहुत रोमांचकारी था। एक-एक कण हमें मानों अनेक-अनेक इतिहास की परतों को सँजोए हुए दिख रहा था। पूरे रास्ते भर यही मन में चलता रहा, कि अगर समय से पहुँच जाएँगे, तो आज से ही जिज्ञासा-शमन के प्रयास चालू कर देंगे, दो-चार लोगों से तो मिल ही लेंगे। लेकिन क्यागर तक पहुँचते-पहुँचते धुँधलका हो चुका था। लद्दाख में धुँधलका होना आधी रात हो जाने जैसा ही होता है, क्योंकि सूरज के ढलते ही लोग अपने-अपने घरों में दुबक जाते हैं। हमें तो प्रायः यही लगा, कि भीषण सर्दियों की आदतें गर्मियों के मौसम में भी बनी ही रह जाती हैं।


मई-जून का महीना लद्दाख में बहुत ठंडा नहीं होता। रात सात-आठ बजे तक घर के बाहर आसानी से रहा जा सकता है, लेकिन क्यागर में  ऐसा नहीं दिखा। रास्ते में आते समय लोगों को अपनी गायें, बकरियाँ आदि घर की तरफ ले जाते देखा था। हमारे क्यागर पहुँचने तक क्या जानवर और क्या आदमी... सभी अपने दड़बों में पहुँच चुके थे। हमारे पास केवल


विश्राम करने का विकल्प शेष था। भला हो श्रीमान टाशी जी का, वे अचानक ही प्रकट हो उठे थे। उनसे कुछ जानकारी मिल सकती है, ऐसा हमें भरोसा भी हो चुका था। टाशी आंगचुक सेना से रिटायर होकर अपने गाँव में रह रहे थे। प्राथमिक परिचय के बाद उनसे यही सवाल किया, कि आप लेह में क्यों नहीं बस गए? उत्तर मिला, गाँव का प्रेम खींच लाया है। नौकरी भर तो बाहर ही रहे हैं। अब गाँव में रहना अच्छा लगता है।

तो आपको अपने गाँव का अतीत भी पता होगा, कुछ गाँव के बारे में बताइए, तो....।

टाशी जी बोले, इतिहास तो बहुत पता नहीं है, लेकिन छाँह की दीवार के बारे में अपने बड़े-बूढ़ों से सुना है। गाँव सिल्क रूट से जुड़ा था, और बहुत संपन्न था, बस इतना ही पता है। लेकिन आपको कल अपने गाँव के मुखिया और राजपरिवार से संबंध रखने वाले एक महाशय से मिलाने के लिए जरूर ले जा सकते हैं। उनसे आपको बहुत कुछ जानने को मिलेगा। परंपरागत रसोईघर भी आप देख सकेंगे।

श्रीमान टाशी का यह प्रस्ताव मनोनुकूल था। तुरंत ही हामी भर दी। साथ में करनल सिंह भी इन बातों को सुन रहे थे, लेकिन उनकी इसमें कोई रुचि नहीं थी। करनल सिंह खाने की जुगत लगा रहे थे, और फिर उनका विश्राम करने का मन हो रहा था। ऐसा वो दो बार हमें बता चुके थे। टाशी जी भी घर जाना चाह रहे थे। लिहाजा तय हुआ, कि कल सुबह टाशी जी आएँगे और उनके साथ श्रीमान सोनम टुंडुप जी से मिलने के लिए जाएँगे। भोजन के उपरांत विश्राम के क्षणों में भी विचारों का मंथन चलता रहा। रह रहकर छाँह की दीवार, पुरानी रसोई, काराकोरम की गहन कृष्णता के मध्य बिंदु-सदृश आभासित महल के ध्वंसावशेष अपने साथ विगत की यात्रा पर मानों ले जाना चाह रहे थे। रास्ते की थकान कभी इन पर भारी पड़ती, तो कभी ये थकान पर....। कुल मिलाकर रात ऐसे ही कटी और भोर के उजास ने नई ऊर्जा का संचार किया। कल-कल निनाद करती नुबरा नदी का मद्धिम स्वर नीलांबर की वीतरागी शांति को भंग करता-सा लग रहा था। दूर-दूर तक काराकोरम की शृंखलाएँ अलग-अलग रंगों में पसरी हुई-सी ऐसी लग रहीं थीं, मानों तंद्रा में हैं और सुबह के आलस से निकल नहीं पाईं हैं। इन्हीं विचारों में खोए हुए थे, कि टाशी जी ने आकर बताया, कि हमें श्रीमान टुंडुप जी से मिलने चलना है। वे कहीं जाने वाले हैं, इसलिए अभी ही जाना होगा। हम भी तुरंत तैयार होकर चल पड़े।

गाँव के भीतर की गलियाँ अपेक्षाकृत चौड़ी और साफ-सुथरी थीं। घरों को बहुत करीने से सजाया-सँवारा गया था। सोनम टुंडुप जी का घर किसी गढ़ी के जैसा था। बहुत विशाल...। एक ओर जानवरों को बाँधने के लिए क्रम से कोठरियाँ बनी हुई थीं। मुख्य द्वार पर रिग्-सुम (तीन स्तूप) बने हुए थे। उनके नीचे से निकलकर घर में प्रवेश करना था। बड़े-से दरवाजे के दोनों ओर विशालकाय भंडारगृहों में जलाऊ लकड़ी को बड़े व्यवस्थित और कलात्मक क्रम से रखा गया था। पहले माले पर जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं, जिनसे होकर हम ऊपर पहुँचे। बड़े-से विश्राम कक्ष में अनेक सजावटी वस्तुएँ, जिन्हें दुर्लभ की श्रेणी में रखा जा सकता है, सहेजी गईं थीं। टुंडुप जी ने बहुत उत्साह के साथ स्वागत किया।

टाशी आंगचुक पहले ही हमारे बारे में बता चुके थे, इस कारण हमको बहुत बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी। महाशय टुंडुप जी ने बात क्यागर के बारे में बताते हुए ही प्रारंभ की-- “आज का क्यागर पहले यहाँ नहीं था। यहाँ से पहले तीन जगहों में इसकी बसावट थी। पहले लुंगदो में यह हुआ करता था। लुंगदो से फिर जङ्लम में आकर बसा और इसके बाद जिम्सखङ गोङ्मा बसा।“

टुंडुप जी के बताने पर हम उस ध्वसांवशेष की पहचान कर सके, जिसे काराकोरम की विशाल शृंखलाओं के मध्य एक सफेद बिंदु की भाँति चमकते हुए देखा था। टुंडुप जी बता रहे थे.... 2015 के पहले तक वह महल देखने में ठीक-ठाक था। पहले आसपास तमाम घर भी थे। ये बसावट महल के साथ ही थी। महल को जिम्सखङ कहते थे। यह वास्तव में वंशावली का नाम है, जिससे हमारा खानदान पहचाना जाता है। 2015 की तबाही के बाद इधर सड़क के साथ लोग बस गए।

टुंडुप जी की बातों का क्रम रेशम मार्ग की ओर चल पड़ा था। हमारे साथ बैठे आंगचुक जी भी रेशम मार्ग से जुड़ी बातों को सुनने के लिए जरा सावधान होकर बैठ गए थे। वैसे तो टुंडुप जी ने रेशम मार्ग की गतिविधियों को नहीं देखा, लेकिन उनके पास बड़े-बूढ़ों से सुनी हुई बातों के सहारे अच्छा खासा स्मृतियों का भंडार था, जिसका आस्वाद आज हमको भी मिलने वाला था।

“पहले यहाँ यारकंद से आने वाले व्यापारी ठहरा करते थे। यहाँ पर घास के बड़े मैदान होते थे, जिनमें अलफा-अलफा घास बहुत पैदा होती थी। इसे हमारी भाषा में ओल बोला जाता है। व्यापारी अपने घोड़ों, ऊँटों आदि जानवरों को चराने के लिए यहाँ रुकते थे। व्यापारी सासोमा से तकशा और पनामिक होते हुए इस तरफ को आते थे, दो-तीन दिन रुकते थे और डिगर दर्रा पार करके लेह की तरफ चल पड़ते थे। वापसी भी ऐसे ही होती थी।“ टुंडुप जी इतना बताते हुए थोड़ा रुके, और फिर बड़ी गंभीर भंगिमा में बोल पड़े.... अब तो ओल दिखती ही नहीं हैं... पहले बड़े बुजुर्ग बताते थे कि ऊपर पहाड़ों तक में ओल हुआ करती थी....। अब समय बदल गया है।

“सिल्क रोड के साथ ही अलफा-अलफा भी खतम हो गया...।“ टुंडुप जी का यह कथन बड़ी वेदना में डूबा हुआ था।

रेशम मार्ग कभी देशों की सीमाओं में नहीं बँधा। इसी कारण अनेक संस्कृतियाँ, साहित्य, विचार, चिंतन, दर्शन, विज्ञान, विचार और व्यवहार आदि न जाने कितनी विधाएँ लंबी यात्राएँ करके आती रहीं, जाती रहीं और विस्तार पाती रहीं हैं। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही मार्ग नहीं था। बहुत कुछ इसके साथ जुड़ा है, जिसे समेकित रूप में मानव सभ्यता के विकास-विस्तार के क्रम में जोड़ा जा सकता है। केवल अलफा-अलफा घास ही नहीं, ओल ही नहीं... बहुत कुछ उजड़ा है, रेशम मार्ग के रुक जाने के बाद....। हमारी सीमाएँ बन गईं हैं....।

हमारे मन में एक ओर ये विचार चल रहे थे, और दूसरी ओर टुंडुप जी धाराप्रवाह बोलते जा रहे थे।

“आप चाय लेंगे, या दूध....” इस विकल्प के साथ आई एक आवाज ने हम दोनों को ही रोक दिया था। हमारे विचारों की गति भी रुक गई और टुंडुप जी भी रुक गए। कुल मिलाकर तय हुआ, कि बढ़िया दूध एक-एक गिलास पिया जाए। गाँव में गौवंश की कोई कमी नहीं थी। शुद्ध दूध-घी-मक्खन तो वैसे भी गाँवों में ही मिल पाते हैं। खैर....। बातों का क्रम फिर आगे बढ़ा...।

अब टुंडुप जी हमें अपनी वंशावली के बारे में बता रहे थे- “हमारा घर का नाम जिम्सखङ है। यह हमारी पहचान कराता है। जिम्सखङ की शाखा ही दिस्किद, हुंदर और खलसर में है। वहाँ पर हमारे वंश का कोई नहीं बचा है। केवल क्यागर में ही है। लेह में कलोन (प्रधानमंत्री) होता है, जो राजा के नीचे होता है। इसके बाद लोनपो (क्षत्रप) होते हैं। इन्हें जिम्सखङ भी कहते हैं।“

टुंडुप जी के इतना बताने के बाद हमारे सामने स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी। लेह राजवंश का शासन यहाँ तक था, बगल में स्करदो और गिलगित-बल्टिस्थान आदि थे। हुंदर, दिस्किद, खालसर और क्यागर आदि क्षत्रपों के अधीन पूरी व्यवस्था यहाँ पर चलती थी। कुछ स्थानों पर सुरक्षा चौकियाँ जैसी भी होती थीं, जहाँ से व्यापारिक गतिविधियों की निगरानी हुआ करती थी। आज वे सब नहीं हैं। लेकिन खंडहरों में दबे अतीत को आज भी अनुभूत कर सकते हैं।

रास्ते में आते समय मील के पत्थरों पर टाइगर नाम लिखा हुआ देखा था। जिज्ञासावश इस प्रश्न को टुंडुप जी के सामने रखा, कि यह कोई दूसरी जगह है, या क्यागर विकृत होकर टाइगर बन गया है.....। हमारे इस प्रश्न ने टुंडुप जी की वेदना को ही मानों उखाड़ दिया था......।

“ये ग्रीफ वाले भी ना....। जाने बिना ही किलोमीटर में लिख देते हैं। यह नाम तो गलत है, लेकिन इस नाम से भी जगह को जानते हैं।“

आखिर यह नाम कब बदल गया? मेरे इस प्रश्न पर तुरंत ही टुंडुप जी बोले... बस ऐसे ही यह गाँव बदलते नामों वाला हो गया है....। कोई टाइगर कहता है, तो कोई टिगर कहता है, तो कोई तिगर कहता है.....। किसको क्या कहें......।

तो फिर सही क्या है? हमने पूछा।

सही तो क्यागर ही है....। हमारी भाषा में सफेद को करपो बोलते हैं। वो जो जिम्सखङ महल है ना.... वो दूर से सफेद नजर आता था, इस कारण करपो से क्यागर बन गया, यानि सफेद महल....।      

क्या कोई गाव ऐसा भी होता है जो अपने नाम बदला करे और अगर ऐसे किसी गाव का पता चले जो बदलते नामों वाला गाव है, तो सुनकर आश्चर्य तो अवश्य ही होगा....। हमको भी जब यह पता चला था, तो अलग ही रोमांच हुआ था।  टुंडुप जी के कहे अनुसार समझ में आ रहा था, कि गाँव में सड़क पहुँची, तो बहुत कुछ बदल गया....। यहाँ तक कि गाँव का नाम भी....। वैसे यह विषय बहुत भावुक कर देने वाला था। समय और स्थितियाँ कैसे बदला करती हैं, आज साक्षात् देख रहे थे। एक जमाने में अपनी हनक से पूरे क्षेत्र को प्रभावित करने वाला जिम्सखङ आज ध्वंसावशेष है...। टुंडुप जी बता रहे थे, कि जिम्सखङ की वंशावली में लोनपो सोनम जोलदन को लोग आज भी याद करते हैं। उनके कामों को आज भी याद किया जाता है। मने खङ, गोनपा आदि के निर्माण के साथ ही लोगों के लिए भी उन्होंने बहुत काम किया है। सोनम जोलदन के बाद सोनम तरग्यास, सोनम दोरजे, सोनम रिगजिन, रिगजिन आंगमो...। महाशय टुंडुप जी रिगजिन आंगमो के दामाद हैं।

लद्दाख में महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी है। धर्मराज सेङ्गे नामग्याल की माँ ग्यल खातून, सेङ्गे नामग्याल की पत्नी कलसङ डोलमा और राजा देस्क्योङ नमग्याल की रानी ञिलस़ा वङमो सहित अनेक ऐसी महिलाओं का नाम गिनाया जा सकता है, जिन्होंने राजपरिवार की सीमा से निकलकर सीधे प्रजा से अपने को जोड़ा है। यह जानकर अच्छा लगा, कि क्यागर के लोनपो परिवार की उत्तराधिकारी रिगजिन अंगमो हुईं, और यह क्रम उनकी बेटी ने आगे बढ़ाया है।

टुंडुप जी बता रहे थे, कि एक समय में यहाँ चूना भट्टी भी हुआ करती थी, जिसमें पकी ईंटे बनाई जाती थीं। पूरे लद्दाख में कम से कम हमने तो ऐसी चूना भट्टी नहीं ही देखी थी। लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर एकदम सीमा पर ऐसी व्यवस्था का पाया जाना सिद्ध कर रहा था, कि अपने समय में यह क्षेत्र बहुत समृद्ध रहा होगा। रेशम मार्ग के व्यापार की बंदी ने, फिर प्राकृतिक आपदाओं ने, और फिर सीमांत क्षेत्र के हिस्से आई उपेक्षाओं ने क्यागर सहित अनेक गाँवों को अपने हाल पर छोड़ दिया....।

टुंडुप जी अब छाँह की दीवार के बारे में बता रहे थे- “क्या पता चूना भट्टी से पकाई गई ईंटों से छाँह की दीवार बनाई गई हो.....।“

अब वह दीवार तो नहीं दिखती, लेकिन स्मृतियाँ जीवंत हैं। दूर-दूर तक फैले मैदान में छाँह ढूँढ़ना संभव नहीं...। नुबरा घाटी तो वैसे भी बर्फ का रेगिस्तान कही जाती है। हुंदर के आसपास रेगिस्तान जैसी आकृतियाँ मिलती हैं। संभवतः किसी शासक ने नया प्रयोग किया हो, और धूप से बचने के लिए छाँह की दीवार बनवा दी हो, जिसमें यात्री और जानवर दोनों ही ठहर सकें। धर्मशालाएँ और प्याऊ जैसे धर्मार्थ कार्य तो बहुत सुने होंगे, लेकिन यह काम अनूठा लगा...। टुंडुप जी छाँह की दीवार के बारे में बहुत तो नहीं बता सके, लेकिन इतना अवश्य संकेत दिया, कि जाते समय चूना भट्टी के खंडहरों को देखते हुए जाएँ। उस जगह को संरक्षित स्मारक के रूप में रखा गया है। सरकारी बोर्ड भी लगा है।

क्यागर गाँव की परिधि में बड़ा चरागाह हुआ करता था। समरकंद, बुखारा, यारकंद, लेह आदि से आने वाले व्यापारी यहाँ के लोगों से किराए पर चरागाह लेकर अपने जानवरों को चारा खिलाते थे। एक-दो दिन इसी बहाने रुकते थे, और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ते थे।

महाशय टुंडुप जी से लंबी वार्ता हो चुकी थी। परंपरागत रसोई भी देखी जा चुकी थी, जिसमें कलात्मक आकृतियों वाले ताँबे और पीतल के बर्तन सहेजे हुए थे। पुराने अंदाज का चूल्हा भी था, जिसके आसपास बैठकर भोजन के आस्वाद के साथ ही बतकही का आनंद लिया जा सकता था। शीत की विकरालता के समय रसोई लद्दाख के लोगों के लिए बड़ा सहारा हुआ करती थी। क्यागर गाँव में आज भी ऐसा ही है, यह जानकर मन को बड़ी तसल्ली मिली, कि परंपराएँ अभी भी जीवंत हैं।

महाशय टुंडुप जी से विदा लेकर हम और आंगचुक जी वापस लौट रहे थे। रास्ते भर हमलोग बतियाते चले आए। हमारे लिए अनुभूत करना सहज हुआ, कि कैसे यहाँ व्यापारी रुकते रहे होंगे, किस तरह अलग-अलग संस्कृतियों का मिलन होता रहा होगा....। न जाने कितने चित्र मन में चलते चले गए...। चित्रपट की तरह...। आंगचुक जी थोड़ी देर बाद आने को कहकर चले गए।

लौटने पर देखा, तो करनल जी प्रतीक्षा में बैठे हुए थे। साहब.... बहुत समय लगा दिया...। भोजन का समय हो गया है....। क्या करेंगे?

करनल जी के लिए यह रुचि का विषय नहीं है, इसलिए साथ ले जाना उचित नहीं समझा था। देर तो हो ही चुकी थी, साथ ही अपने काम में भी लगना था, जिसके लिए यहाँ आए थे....। अतः करनल जी से कहा, कि भोजन कर लेते हैं।

“रसोइया नहीं आया था, वह किसी जरूरी काम से अचानक ही चला गया है। किसी दूसरे को भेजने के लिए कह रहा था, तो मैंने ही मना कर दिया....।“ करनल सिंह ने बताया।

.....आज साहब को अपने हाथ का बना चावल खिलाना है।

हमने कहा, ठीक है....।

साहब! लेकिन आपको पसंद न आया, तो क्या करेंगे?

हमने कहा, चलो देखते हैं...।

करनल जी ने गरमागरम चावल निकाले, जो केवल प्याज से छौंक कर एकदम अलग तरीके से बनाए गए थे। सुंगध बरबस खींच रही। हमने पूछा, कि यह कौन-सा व्यंजन है?

करनल साहब ने बताया.... पुलाव है....।

हमने कहा, पुलाव तो ऐसा नहीं होता...। स्वाद भी अलग-सा है।

करनल जी ने कहा, कि हो सकता है.....।

हमने कहा, तो इस पुलाव को अलग नाम दे देते हैं....।

पनीर के कई सारे व्यंजन होते हैं, जैसे पनीर पसंदा, पनीर पक्का, पनीर टिक्का आदि....। वैसे ही पुलाव के भी कई नाम हो सकते हैं....।

करनल जी इस पर कुछ नहीं बोले, और उनके मौन को सहमति मानते हुए हमने इस विशेष विधि से बनाए गए पुलाव को करनल पुलाव नाम दे दिया...।

करनल पुलाव.....। हा! हा!...... साहब आप भी बड़े मजाकिया हैं....। करनल जी बोले...।

हमने कहा, इसी बहाने आपको, इस सुस्वादु भोजन को, इस स्थान को, आज के दिन को याद रखेंगे.....।

ठीक है, साहब...। कहकर करनल सिंह ने अपनी थाली में ध्यान केंद्रित कर लिया।

हमने भी तुरंत भोजन समाप्त किया और अपने काम में लग गए।

अगला दिन व्यस्तताओं भरा रहा, लेकिन क्यागर के अतीत में जब भी उतरने का अवसर मिलता, क्षण भर का ही सही... अवसर पाते ही मन उतर पड़ता। गाँव के कई लोगों से मिलना हुआ, तरह-तरह की बातें जानने को मिलीं...। गाँव के युवा शहरों को जा चुके थे, अधेड़ और वृद्धों की संख्या ही अधिक दिखती थी। सैलानियों की गाड़ियों से चहल-पहल बनी रहती थी। फिर भी एक रिक्तता, एक अजीब-सा वीरानापन, सूनापन अनुभूत होता था। शब्दों में जिसे बाँध पाना कठिन लगता है। मेहमानों के चले जाने पर घर जिस तरह सूना हो जाता है, कुछ वैसा ही...।

अगली सुबह यहाँ से हमें भी निकलना है। यह भी तब ध्यान में आया, जब करनल सिंह ने बताया, कि अब रात भर बितानी है....।

दरअसल करनल सिंह को तीन दिन बड़ी कठिनाई के लगे थे। नगरों-महानगरों की जैसी चहल-पहल यहाँ नहीं थी। बहुत धीमे-धीमे सब चल रहा था, रात भी धीरे-धीरे बीती...सुबह भी हो गई, और करनल साहब कील-काँटा, वर्दी-बूट दुरुस्त करके सुबह से ही तैनात हो गए थे। हमको ही कुछ देर हुई थी...।

भला हो, गाड़ी वाले का, कि निकलने से पहले गाड़ी की हवा आदि दुरुस्त कराने के लिए निकल गया था, सो हमें भी कुछ समय मिल गया....। खैर.... तैयार होकर गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे और पिछले तीन दिनों का घटनाक्रम चित्रपट की भाँति चल रहा था। कब गाड़ी वाला गाड़ी लेकर आ गया और सामान रखकर चलने को तैयार हो गया, पता ही नहीं चला....।

“चलें, साहब...। गाड़ी आ गई है, सामान भी रख गया ....।“ करनल सिंह ने कहा...।

हम भी उठे, और चल पड़े...।

केवल विदा करने वाले का मन भारी नहीं होता, विदा लेने वाले का मन भी भारी हो जाता है...। रास्ते में टाशी आंगचुक मिल गए थे...। उनसे विदाई ली...। फिर मिलेंगे, यह वायदा किया। गाड़ी चल पड़ी...। तेजी के साथ क्यागर गाँव का वह धवलाभ ध्वंसावशेष पीछे छूटता जा रहा था। काराकोरम की ऊँचाइयों पर कहीं रेशम मार्ग की छाप दिखाई दे रही थी। ऐसे ही सैकड़ों वर्षों से ये डेरा-पड़ाव लगते उखड़ते रहे होंगे...। लोग मिलते बिछुड़ते रहे होंगे...। अनगिनत कहानियाँ बनती रहीं होंगी...। बदलते नाम और छाँह की दीवार के इस गाँव ने अपने साथ कितने ही किस्से सहेज रखे होंगे...। और हमने करनल सिंह के साथ करनल पुलाव को भी जोड़ लिया, ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे...।

-राहुल मिश्र

(राजस्थान साहित्य अकादमी की मुखपत्रिका मधुमती, वर्ष- 65, अंक- 03, मार्च 2025 में प्रकाशित)

 

Thursday, 1 August 2024

अवध राजु सुर राजु सिहाई...

 

अवध राजु सुर राजु सिहाई...

अवध  राजु सुर राजु सिहाई । दसरथ  धनु सुनि  धनदु लजाई ।

तेंहि पुर बसत भरत बिनु रागा । चंचरीक जिमि चंपक बागा ।।

श्रीरामचरितमानस में प्रसंग आता है...। श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन को जा चुके हैं। भरत नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रह रहे हैं। श्रीराम की चरण पादुकाएँ सिंहासन पर रखकर अयोध्या के राजपाट को चला रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास इस प्रसंग पर बल देते हैं। वे भरत के राज की विशेष रूप से व्याख्या करते हैं। बाबा तुलसी की भरत के प्रति अगाध निष्ठा है। वे कहते हैं, कि जिस अयोध्या के राज्य को देखकर देवराज इंद्र ललचाते थे, जिन राजा दशरथ की संपत्ति को सुनकर कुबेर लज्जित होते थे, उसी अयोध्या के राज्य और राजा दशरथ की असीमित संपत्ति की आसक्ति से मुक्त रहकर भरत उसी प्रकार निवास कर रहे हैं, जैसे चंपक के वन में भौंरा रहता है। यहाँ त्याग का अप्रतिम उदाहरण देखते ही बनता है। माता कैकेयी ने मंथरा के कहने पर अपने पुत्र-मोह को उस चरम बिंदु तक पहुँचा दिया था, जहाँ से बिखराव प्रारंभ हो जाता है। विघटन का क्रम चल पड़ता है। राजा दशरथ ने अपने पौरुष से जिस अयोध्या को कुबेर की संपदा से भी अधिक संपन्न बनाया था, वह अयोध्या राम के लिए भी त्याज्य हो गई, और भरत के लिए भी....। चाहे राम हों या भरत, अयोध्या का राजपाट और अकूत संपदा का लोभ-लालच या उसे पाने की लालसा दोनों में से किसी को भी नहीं है। दोनों के बीच का प्रेम-स्नेह इतना प्रगाढ़ है कि धन-संपदा उसे जरा-सा भी प्रभावित नहीं कर पाती है।

जब राम को वनवास जाने के लिए कहा जाता है, तब राम के मन में तनिक भी यह भाव नहीं आता, कि मैं अयोध्या का भावी राजा हूँ। वे हर्षित होते हैं। कारण यहाँ भी स्पष्ट है, इंद्र के मन में भी लालच पैदा कर देने वाली अयोध्या राम के लिए पिता की आज्ञा से बड़ी नहीं है। पिता की आज्ञा का पालन उनके लिए महत्त्वपूर्ण है। गोस्वामी जी लिखते हैं-

नव  गयंदु  रघुबीर   मनु   राजु   अलान  समान ।

छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान ।।

नये पकडे गए हाथी के समान राम का मन है और राज्य गज को बाँधने वाली बेड़ियों के समान है। राम को जब पता चलता है कि उन्हें वनगमन करना है और वे राज्य-संचालन करने की बेड़ियों से मुक्त हो गए हैं, तब उनके हृदय में आनंद का आधिक्य हो जाता है। बाबा तुलसी ने राम के इस मनोभाव का सुंदर चित्रण करके यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि राम को राज्य-लिप्सा नहीं है। भरत और राम के मध्य अयोध्या का राजपाट कंदुक-सम खेला जा रहा है।

आधुनिकताबोध यह सिद्ध करता है, कि कैकेयी के मन में भी कोई खोट नहीं था। कैकेयी राज्य-संचालन में अत्यंत निपुण थी। कैकेयी को दो वरदान ही युद्ध के मैदान में मिले थे, राजा दशरथ से....। देवासुर संग्राम में इंद्र की दशा बहुत खराब हो गई थी। इंद्र ने राजा दशरथ को सहायता के लिए बुलाया। रानी कैकेयी भी राजा दशरथ के साथ चल पड़ीं, सारथी बनकर....। दुर्योगवश राजा दशरथ के रथ की कील निकल गई और युद्धक्षेत्र में राजा दशरथ के लिए जीवन का संकट आ गया। रानी कैकेयी ने तुरंत अपनी उंगली कील के स्थान पर लगाई। राजा दशरथ को जीवनदान मिला और उन्होंने प्रसन्न होकर कैकेयी को दो वरदान माँगने को कहा। कैकेयी ने यही वरदान माँगे थे। भरत को राजपाट और राम को वनवास....। राम ने पहले भी वन की यात्रा की थी, गुरु विश्वामित्र के साथ और अनेक राक्षसों को मारकर वन प्रांतरों को, वहाँ साधना में लीन ऋषि-मुनियों को भयमुक्त किया था।

पिछली बार गुरु विश्वामित्र हठ करके राजा दशरथ से माँगकर राम और लक्ष्मण को ले गए थे, राजा दशरथ इसके लिए सहमत नहीं थे, लेकिन विवशता थी....। दूसरी बार कैकेयी के सामने राजा दशरथ विवश हो गए...। राम के लिए दोनों बार आज्ञा-पालन का ध्येय था। राम के मन में कोई क्लेश पैदा नहीं होता। वे इसे सहर्ष स्वीकार करते हैं। इसी कारण राम की नाराजगी कहीं पर भी माता कैकेयी के प्रति प्रकट नहीं होती है। इतना ही नहीं; राम वनवास के प्रसंग में, जब चित्रकूट में राम से भेंट करने के लिए तीनों माताएँ आती हैं, तब राम सबसे पहले माता कैकेयी से भेंट करते हैं। बाबा तुलसी इस प्रसंग का उल्लेख करते हैं, और माता कैकेयी से राम की भेंट को विशेष रूप से उद्धृत करते हैं। कैकेयी के प्रति राम के मन में कोई विद्वेष नहीं है। राम तो भरत को भी डाँट देते हैं, जब वे माता कैकेयी को भला-बुरा करते हैं।

आज के समय में....., आधुनिकता के मानदंड में देखने पर माता कैकेयी का व्यक्तित्व अलग दिखाई देता है। वे अयोध्या के राजपाट के प्रति समर्पित दिखती हैं, क्योंकि राम को वन भेजना भरत को राजपाट दिलाने-मात्र के लिए नहीं था, वरन् राक्षसों के संहार के लिए भी था। राम इसके लिए उपयुक्त थे... गुरु विश्वामित्र के साथ जाकर उन्होंने इस बात को प्रमाणित किया था। गोस्वामी जी माता कैकेयी के लिए राम की श्रद्धा को, उनके निःछल प्रेम को उभारते हैं। राम भरत को सीख देते हैं, कि गुरु, पिता, माता या स्वामी... इनकी सीख आँख बंद करके माननी चाहिए। भले ही ऐसा लगे, कि इनके द्वारा गलत कहा जा रहा है, हम गलत राह पर जा रहे हैं, लेकिन हमारा पग खाले नहीं पड़ता, हमारा काम गलत नहीं होता और भविष्य में परिणाम भी सही आते हैं, अच्छे आते हैं। तात्कालिक रूप से अनुचित लगने पर भी ये निर्देश दीर्घकाल में सही सिद्ध होते हैं। राम कहते हैं, कि ऐसा विचार करते हुए, आज्ञा का पालन करते हुए जाओ और अवधि भर के लिए अयोध्या का पालन करो-

गुरु पितु मातु स्वामि सिख पालें । चलेहुँ कुमग पग परहिं न खालें ।।

अस बिचारि  सब सोच  बिहाई ।  पालहु अवध  अवधि भर जाई ।।

एक अन्य वार्तालाप को देखें....। यह भी चित्रकूट में चल रहा है। श्रीराम को अयोध्या वापस ले आने के लिए पूरी अयोध्या नगरी ही गई है। तीनों माताएँ भी हैं। लक्ष्मण की माता सुमित्रा, सीता की माता सुनयना और राम की माता कौशल्या के मध्य वार्तालाप चल रहा है। अत्यंत आर्त स्वर में... रूँधे गले से माता कौशल्या  कह रहीं हैं, कि राम, लक्ष्मण और सीता वन को जाएँ, इसका परिणाम भला है, निकृष्ट नहीं है; किंतु मुझे चिंता भरत के जीवन की है। यहाँ माता कौशल्या के हृदय की वेदना भ्रातृ-प्रेम को बड़ी सहजता से प्रकट कर देती है-

लखनु राम सिय  जाहँ बन भल  परिनाम न  पोचु ।

गहबरि हियँ कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु ।।4

माता सुमित्रा ने वन जाते समय लक्ष्मण को सीख दी थी- गुरु, पिता, माता, बंधु, देवता और स्वामी की प्राणों की भाँति सेवा करनी चाहिए। इस कारण सभी के मित्र और स्वार्थहीन व्यक्तित्व वाले श्रीराम के साथ वन को जाकर संसार में जन्म लेने के लाभ को अर्जित करो, अर्थात् अपने कर्मों से जीवन की सार्थकता को सिद्ध करो। भ्राता लक्ष्मण ने माता की सीख को आत्मसात किया, और पूरी निष्ठा के साथ इसका पालन भी किया।

अयोध्या का राजपाट राम के वनगमन के केंद्र में है। सामान्य रूप से तो ऐसा ही प्रतीत होता है, लेकिन गहरे उतरकर विचार करें, तो यह वनगमन प्रसंग परिवार की एकजुटता को भी प्रस्तुत कर देता है। धन-धान्य, समृद्धि, यश, वैभव आदि की लालसा कहीं रह ही नहीं जाती है। लोभ किसी को छू नहीं पाता है। राम को आदेश मिलता है, वन जाने का.... और वे सहर्ष चल देते हैं। भरत को पता चलता है, कि उनके लिए राम को अयोध्या से जाना पड़ा है, तो वे भी अयोध्या को त्याग ही देते हैं... नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहने लगते हैं। परिवार किसी भी दशा में टूटता नहीं है, छूटता नहीं है। भरत जी राम को वापस ले आने के लिए चित्रकूट तक जाते हैं। राम चौदह वर्षो के बाद ही अयोध्या लौटने की बात कहते हैं। लेकिन चित्रकूट में केवल इतना ही नहीं होता... वहाँ रामराज्य की संकल्पना रची जाती है। राजा को कैसा होना चाहिए, शासक के धर्म क्या होते हैं, परिवार से लगाकर समाज और देश-काल में मर्यादाओं की स्थापना, उनका पालन कैसे हो.... इस बात को विस्तार के साथ कहा और सुना जाता है। भरत जी के साथ गई लगभग पूरी ही अयोध्या नगरी पाँच दिनों तक चित्रकूट में अपना डेरा-पड़ाव डाले रहती है। इन पाँच दिनों में अनवरत चलने पाली चर्चाएँ, उपदेश, वार्ताएँ आदि सभी बड़ी महत्त्व की हैं। नीति-नैतिकता के व्यवहार पक्ष हेतु अनेक उपयोगी बातें सामने आती हैं। गोस्वामी जी विस्तार के साथ चित्रकूट प्रसंग को प्रस्तुत करते हैं।

व्यक्ति से ऊपर परिवार है, परिवार से ऊपर समाज है, और समाज से ऊपर राज्य है-राष्ट्र है....। अयोध्या में राम के वनगमन से लगाकर चित्रकूट तक... भरत के राजपाट सँभालने तक, और फिर राम के अयोध्या लौटने तक पूरी कथा के विस्तार में यह तथ्य परिलक्षित होता है, दिखाई पड़ता है। इसके लिए संबंधों की मर्यादाएँ निभाई जाती हैं, संबंधों की गुरुता को-गरिमा को अनुभूत किया जाता है, सम्मान दिया जाता है।

श्रीरामचरितमानस का रचनाकाल भी बहुत महत्त्व रखता है। सामयिक स्थितियों से गोस्वामी जी परिचित थे। वह समय ऐसा था, कि म्लेच्छ आक्रांताओं ने अपनी स्वार्थ लिप्साओं के अनेक उदाहरण प्रस्तुत कर दिए थे। भाई से भाई का वैर, पिता से पुत्र की दुश्मनी के अनेक किस्से सामने आ रहे थे। धन के लिए... सत्ता के लिए परिवार की मर्यादाएँ टूट रहीं थीं। भारतीय समाज के लिए ये स्थितियाँ भयावह थीं। लोग विवश होकर संत समाज की ओर देख रहे थे, कि उनका पथ-प्रदर्शन हो सके, वे सही राह को जान सकें। ऐसी विषमताओं के मध्य गोस्वामी जी ने परिवार की मर्यादाओं से लगाकर समाज व राष्ट्र-राज्य तक की मर्यादाओं की स्थापना की बात कही। विश्व के कल्याण का संदेश दिया। गोस्वामी जी के राम इसका माध्यम बने... अयोध्या का पूरा राज-परिवार ही उदाहरण बन गया। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम मर्यादा के प्रतीक ही बन गए। राम का अर्थ ही मर्यादा हो गया। उसी रूप में श्रीराम को अन्य संतों ने स्वीकारा। कबीर ने भी स्वीकार किया- कबीर हरदी पीयरी चूना उज्जल भाई । राम सनेही यूँ मिले दून्यू बरन गँवाई ।।

सामाजिक मूल्यों का प्रशिक्षण परिवार में ही सबसे पहले मिलता है। स्नेह-प्रेम, सेवा, सद्भाव, सहिष्णुता और समरसता आदि की सीख सबसे पहले परिवार में मिलती है। यदि परिवार ही बिखर जाए, तो समाज, राष्ट्र और समग्र विश्व तक मानवीय मूल्यों, नीति-नौतिकताओं, मर्यादा-आदर्शों आदि के विस्तार को सबल करने वाली, पोष्ण करने वाली व्यवस्था ही सिमट जाएगी.... जड़ ही सूख जाएगी। इस कारण परिवार का महत्त्व है। दैवीय पक्ष को हटाकर यदि विचार करें, तो श्रीरामचरितमानस में परिवार की संरचना केंद्र में दिखाई देती है। यह परिवार क्रमशः विस्तार पाता है। अयोध्या से राम का वनगमन एक घटना-मात्र नहीं रह जाती, वरन् समूची अयोध्या को एक सूत्र में बाँध देने का कारण बन जाती है। भरत जी के नेतृत्व में अयोध्या का विशाल जनसमूह आत्मप्रेरित होकर चल पड़ता है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम को पुनः अयोध्या लाने के लिए। यह यात्रा प्रकारांतर से मर्यादा की सामाजिक स्थापना के हेतु प्रती होती है। श्रीराम भले ही अयोध्या न लौटे हों, लेकिन जिन सीख-सिखावनों को, उपदेशों के सार को लेकर अयोध्या का जनसमुदाय लौटा था, उनके सहारे ही रामराज्य की संकल्पना धरातल पर उतरी थी।

व्यक्ति और समाज के मध्य संबंधों को समरसता और सह-अस्तित्व की भूमि पर स्थापित करने का प्रयोग भी मानस में दिखता है। श्रीराम चित्रकूट में रहते हुए उस विशाल समाज को अपने साथ मिला लेते हैं, जो उपेक्षित और तिरस्कृत रहा। व्यक्ति से परिवार और समाज तक विस्तार का यह क्रम राम के चित्रकूट निवास के साथ विस्तार पाता है, दक्षिण की ओर बढ़ते हुए भी इस विस्तार को हम देखते हैं। वनवासी, गिरिजन, बालक, महिलाएँ, वृद्ध और यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी रामादल के साथ हो जाते हैं। एक सूत्र में बँध जाते हैं। जटायु की कथा और गिलहरी के प्रयास रामकथा के महत्त्वपूर्ण अंग हैं, अंश हैं।

यह विस्तार लोक के कल्याण से जुड़ता है। जिस परिवार में भाई का सम्मान न हो, पत्नी की बात न सुनी जाए... अनैतिकता से भरा आचरण हो, उस परिवार की दशा का अनुमान लंकाधिपति की दारुण दशा देखकर लगा सकते हैं। मंदोदरी रावण की मृत्यु पर विलाप करते हुए कहती हैं-

जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई । सुत परिजन बल बरनि न जाई ।।

राम विमुख अस हाल तुम्हारा ।  रहा न  कोउ कुल रोवनिहारा ।।

रावण की प्रभुता सारे संसार को भली-भाँति पता है। संसार रावण के बल को जानता है। पुत्रों और परिजनों के बल का वर्णन नहीं किया जा सकता, लेकिन राम से विमुख होने के कारण रावण के कुल में कोई रोने वाला तक नहीं बचता है। जब मर्यादा टूटती है, तब सर्वनाश ही होता है। रावण के साथ भी यही हुआ। भाई की सीख भी रावण को अच्छी नहीं लगी, अपमानित करके राज्य से निकाल दिया।

अपने लौकिक, सामाजिक, मानवीय और व्यावहारिक संदर्भों में बाबा तुलसी के मानस की यही विशिष्टता है कि वहाँ एक आदर्श परिवार की बात विविध कथा-प्रसंगों के माध्यम से कही जाती है। रामराज्य की परिकल्पना एक आदर्श परिवार से ही निकलती है। लोकमंगल की साधना भी यहीं से अपनी जड़ों को रोपती है। मानस के ऐसे कथा-प्रसंगों से गुजरते हुए कई बार ऐसा अनुभूत होता है कि भविष्यदृष्टा के रूप में बाबा तुलसी ने आज की विषम-जटिल परिस्थितियों को जान लिया था। इसी कारण उत्तरकांड में बाबा तुलसी कागभुशुंडि के पूर्वजन्म की कथा का प्रसंग उठाते हुए कलियुग का वर्णन करते हैं। आज के जीवन की तमाम स्थितियाँ प्रतीक के रूप में, लक्षणों के रूप में कलियुग के वर्णन द्वारा इस प्रकार प्रकट होती हैं, जिन्हें पढ़कर ऐसा प्रतीत होता है कि बाबा तुलसी ने उस समय ही आज के जीवन को देख लिया था, जान लिया था। वे कलियुग प्रसंग में लिखते हैं-

सब  नर  काम  लोभ  रत  क्रोधी । देव  बिप्र  श्रुति  संत  बिरोधी ।।

गुन  मंदिर  सुंदर  पति   त्यागी । भजहिं  नारि  पर  पुरुष  अभागी ।।

सौभागिनी    बिभूषन    हीना । विधवन्ह    के    सिंगार   नवीना ।।

गुरु सिष  बधिर  अंध का लेखा । एक   सुनइ  एक  नहिं  देखा ।।

हरहिं  सिष्य   धन  सोक  न हरइ । सो  गुरु  घोर  नरक  महुँ  परइ ।।

मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं । उदर भरै सोइ धरम सिखावहिं ।।14

आज का समय उन्हीं लक्षणों से भरा हुआ है, जिनका वर्णन बाबा तुलसी ने उपरोक्त पंक्तियों में किया है। वैश्वीकरण के प्रभाव के रूप में इन्हें देखा जा सकता है। व्यक्ति से लेकर परिवार और फिर समाज तक मर्यादा के पतन की गंभीर स्थितियाँ किसी से छिपी हुई नहीं हैं। शिक्षा-व्यवस्था भी मर्यादा से च्युत होकर दिग्भ्रमित हो गई है। इसी के प्रभाव से आज माता-पिता अपने बच्चों को सदाचारी बनने की सीख देने से ज्यादा प्राथमिकता उस सीख को देते हैं, जिससे वे अपना उदर भर सकें, धन कमा सकें। ऐसी अनेक स्थितियों का वर्णन तुलसीदास ने किया है। यहाँ भी तुलसीदास परिवार को ही केंद्र में रखते हैं।

श्रीरामचरितमानस में औद्योगीकरण, आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण और आर्थिक उदरीकरण के कारण उपजने वाले दुष्प्रभावों का शमन करने की सामर्थ्य है, किंतु यह व्यवहार से, दैनंदिन जीवन से दूर होते जाने के कारण अपनी प्रासंगिकता और अनिवार्यता का बोध कराने में विफल हो गई है। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत घर की सीमाओं से बाहर ही होती है। उदारीकरण अर्थ के क्षेत्र में जितना हुआ; उसने मानवीय मूल्यों, मर्यादाओं और नैतिकताओं के संदर्भ में अन-उदारीकृत होना स्वीकार किया। यह स्वीकृति सहज नहीं है, वरन् आर्थिक उदारीकरण के फलस्वरूप अनिवार्य है। अन-उदारता का यह क्रम व्यवसाय और व्यावसायिक हितों को पूरा करते-करते एक समय घर की देहरी पर आ गया, दरवाजे पर ही आ गया.... और आज परिवार तक पैठ चुका है। इसी कारण एक छत के नीचे रहते हुए परिवार के सभी सदस्य अपने-अपने हितों को साधते और स्वार्थ से पूर्ण प्रतीत होते हैं। परिवारों के विघटन का सबसे बड़ा कारण यही है। यद्यपि विभिन्न संस्कृतियों के आगमन, आधुनिकता के प्रभाव और निरंतर गतिमान विकास के चक्र के फलस्वरूप स्थितियाँ पहले ही अच्छी नहीं थीं, किंतु वैश्वीकरण ने बहुत कुछ बदला है, बहुत तेजी से बदला है। इस अवधि में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ी है। विवाह-व्यवस्था की शुचिता प्रभावित हुई है और ‘लिव इन रिलेशनशिप’ जैसी व्यवस्थाओं ने परिवाररूपी संस्था को तोड़कर रख दिया है। संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है और इतना ही नहीं, अब परिवार के स्थान पर व्यक्ति ही सबसे छोटी इकाई बनने लगा है। ये सारे बदलाव नीति-नैतिकताओं, मर्यादाओं और आदर्शों के तिरोहित हो जाने के कारण हुए हैं। आज वैश्वीकरण के कारण व्यक्ति जितना वैश्वीकृत हुआ है, उतना ही जटिल और संकुचित वृत्त में अपने परिवेश का होकर रह गया है। इसके कारण मनोविकृतियाँ भी बढ़ी हैं और अपराध-अन्याय भी बढ़े हैं।

विकास का यह क्रम अनवरत चलता रहेगा, किंतु जिन पारिवारिक मूल्यों, मर्यादाओं, आदर्शों, नैतिकताओं और उदात्त गुणों की कीमत पर विकास का क्रम संचालित हो रहा है, उनके सिमटने के बाद विकास के नाम पर क्या शेष बचेगा, यह आज का यक्ष प्रश्न है। इस प्रश्न के उत्तर में तुलसीदास के मानस को ही रखा जा सकता है-

रघुबंसभूषन  चरित  यह  नर  कहहिं  सुनहिं जे गावहीं ।

कलिमल मनोमल धोइ बिनु स्रम रामधाम सिधावहीं ।।

-राहुल मिश्र

 

(राष्ट्रधर्म, लखनऊ के आषाढ़-श्रावण, सं. 2081 तदनुसार जुलाई, 2024 अंक में प्रकाशित)