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Wednesday 14 November 2018

बळिहारी उण देस री, माथा मोल बिकाय ।





बळिहारी उण देस री, माथा मोल बिकाय ।

धव धावाँ  छकिया  धणाँ, हेली आवै दीठ ।
मारगियो  कँकू  वरण,  लीलौ  रंग  मजीठ ।।
नहँ  पड़ोस  कायर  नराँ,  हेली वास सुहाय ।
बलिहारी उण देस री,  माथा मोल बिकाय ।।
घोड़ै चढ़णौ  सीखिया, भाभी किसड़ै काम ।
बंब  सुणीजै  पार  रौ,  लीजै  हाथ  लगाम ।।
जब राजस्थान की चर्चा होती है, तब वहाँ की लोक-परंपरा में गाए जाने वाले गीतों के ऐसे बोल रोम-रोम में स्फुरण उत्पन्न कर देते हैं। यहाँ वीर नहीं, एक वीरांगना है, जो युद्ध के मैदान से विजयी होकर आते हुए अपने पति को देखती है। वह वीरता का प्रदर्शन करने वाले अपने पति की दशा को देखकर विचलित नहीं होती है। अनेक घावों से बहते रक्त के कारण रक्तरंजित हो गया पति का शरीर उसे भयाक्रांत नहीं करता है। पति के शरीर से बहते रक्त के कारण कुंकुम वर्ण के हो गए रास्ते को वह गर्व के भाव के साथ देखती है। वह अपनी सखी से कहती है कि उसके पति का श्वेत रंग का अश्व भी मजीठ के रंग का हो गया है। वह अपनी सखी से कहती है कि मुझे कायर लोगों के पड़ोस में रहना नहीं सुहाता है। मैं तो वीर पुरुषों की पड़ोसन बनने में ही गर्व महसूस करती हूँ। मुझे कायरों का जीवन पसंद नहीं है। मैं तो उस देश पर खुद को न्योछावर करने के लिए तत्पर रहती हूँ, जहाँ मस्तक मोल बिकते हैं, जहाँ वीर अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से पीछे नहीं हटते हैं। अरे भाभी! मैंने घोड़ा चढ़ना आखिर किस काम के लिए सीखा है? अपने देश की आन-बान-शान की रक्षा के लिए ही न! इसीलिए तो दुश्मन की ललकार सुनते ही घोड़े की लगाम को हाथ में लेकर रणक्षेत्र में उतर पड़ने को मैं तत्पर रहती हूँ।
एक वीरांगना के ये स्वर जब राजस्थान की लोक-गायकी में पूरे जोश के साथ प्रस्फुटित होते हैं, तब यह सिद्ध हो जाता है कि राजस्थान की धरा वीरों की ही नहीं, वीरांगनाओं की वीरता से भी आलोकित है। राजस्थान की लोक-परंपरा में शृंगारपरक उक्तियों के साथ नायिकाभेद, और शृंगार के सुंदर चित्रों के बीच स्त्रियोचित गुणों को अभिव्यक्त करती सुंदरियों के चित्र राजस्थान की लोक-गायकी की पहचान को नहीं गढ़ते हैं। राजस्थान की वीरांगनाओं का चरित-काव्य उनके शौर्यभाव से आलोकित होता है, न कि शृंगारभाव से। इसी कारण उनमें ऊर्जा और वीरत्व का ऐसा गुण प्रस्फुटित होता है, कि वह अपने कुसुम से भी कोमल स्वभाव को वज्र से भी कठोर बनाकर वीरता की अमिट छाप छोड़ने में पीछे नहीं रहती हैं। राजस्थान की लोक-परंपरा में दिखाई पड़ने वाली यह ऐसी अनूठी विशेषता है, जिसे अन्यत्र खोजना बहुत कठिन है। इसी रीति का एक प्रचलित लोकगीत है, जिसमें लोकगायक गाता है-
तात विदेसाँ आवियौ, कौले दीठा हाथ ।
एण बधाई हूलसै, सुत-बू बलिया साथ ।।
इस दोहे के साथ कथा का प्रसंग आता है, कि पिता कहीं बाहर गया था। इतने में ही युद्ध छिड़ गया। युद्ध में बेटे के साथ बहू भी वीरगति को प्राप्त हुई। पिता के घर लौटने पर उसे बेटे-बहू के बारे में बताने वाला कोई नहीं था। उसने कौरी (घर के प्रवेशद्वार के बगल) में लगी हुई हाथ की छापों को देखते ही पिता को सच्चाई का पता चल गया। इन्हें देखकर पिता के मन में शोक का भाव पैदा नहीं होता। उसे तो लगता है, कि ये कुंकुम से बने हस्त-चिन्ह उसे बधाई दे रहे हैं। उसके अंदर इस बात की उमंग पैदा होती है, कि उसके बेटे और बहू ने वीरता का परिचय दिया है। दरवाजे में हस्त-चिन्ह अंकित करने की परंपरा राजस्थान से लगाकर बुंदेलखंड तक देखी जाती है, और यह परंपरा आज भी जिंदा है। कई क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा है कि विवाह के बाद घर आने वाली नववधू को घर में प्रवेश तभी मिलता है, जब उसके द्वारा हाथा लगाने (हस्त-चिन्ह अंकित करने) की रस्म पूरी कर ली जाती है। हाथा लगाना नवविवाहिता के लिए नीति-निर्देशक तत्त्व के समान है, जिसमें आवश्यकता पड़ने पर वीरांगनाओं की परंपरा को निभाने का संदेश निहित होता है। यह परंपरा उसी वीरोचित गुण का स्मरण कराते हुए आज भी अपने अस्तित्व को बनाए हुए है, जिसे राजस्थान की वीरांगनाओं ने निभाया है, और जिसका यशोगान राजस्थान की लोकगायकी में आज भी देखा जाता है।
राजस्थान की लोकगायकी और डिंगल-पिंगल का मेल भी बहुत अनूठा है। लोक-परंपरा से लगाकर शिष्ट साहित्य की धारा तक विस्तृत डिंगल-पिंगल के बिना राजस्थान का वर्णन और साथ ही राजस्थान की शौर्यगाथाओं का वर्णन पूरा नहीं हो सकता। कुल मिलाकर, ये राजस्थान की अपनी पहचान से जुड़ने वाला विषय है। भाषाविज्ञान के अनेक विद्वानों ने डिंगल और पिंगल का बड़ा विश्लेषण अपने-अपने स्तर पर किया है। कुछ विद्वानों के लिए ये भाषाएँ हैं, तो कुछ के लिए ये अलग-अलग शैलियाँ हैं। डिंगल की अपेक्षा पिंगल का साहित्य लिखित रूप में अधिक मिलता है। पिंगल का अपना वैशिष्ट्य और अपने समय की समृद्ध साहित्यिक भाषा- ब्रजभाषा से निकटता के कारण लिखित या शिष्ट साहित्य में पिंगल की उपस्थिति अधिक मिलती है। दूसरी ओर लोक-परंपरा की गायकी में डिंगल का वर्चस्व देखा जा सकता है। युद्धों के वर्णन और वीरो-वीरांगनाओं के शौर्य के वर्णन के कारण डिंगल का तीखापन और इसके लोक-संस्करण की प्रचुरता ने इसे शिष्ट साहित्य में अपेक्षित स्थान नहीं पाने दिया। संभवतः इसी कारण भाषा या शैली के विवाद में डिंगल और साथ ही पिंगल के साहित्य की विशिष्टताओं की ओर वैसी दृष्टि नहीं जा सकी, जैसी कि अपेक्षित थी।
संस्कृत की समृद्धिशाली परंपरा से अपभ्रंश या पुरानी हिंदी की रचनाओं में आने वाले शृंगार तथा प्रेम के भावों के साथ शौर्य और वीरता के भावों का सुंदर मेल इस धारा में देखा जा सकता है। इसी कारण प्राकृत पैंगलम्, मुंजरास, पृथ्वीराज रासो, हम्मीर रासो, वेलि क्रिसन रुकमणी री, दसरथरावउत और बीसलदेव रासो जैसे ग्रंथों में धर्म, अध्यात्म, प्रेम, शृंगार, वीरता और शौर्य का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। यह समन्वय इसलिए भी अनूठा है, क्योंकि इसमें परस्पर विरोधी भावों का समन्वय निहित है। इसमें प्रत्येक भाव का अपना अनूठा और अद्भुत संयोग है। इस प्रकार भक्ति, शृंगार और वीरता के कारण ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणों के अनूठे समन्वय को डिंगल-पिंगल की विशेषता के रूप में देखा जा सकता है।
संस्कृत की परंपरा से आने वाली अपभ्रंशमूलक इन रचनाओं में संस्कृत काव्य-साहित्य के तीन गुणों, ओज-माधुर्य-प्रसाद के अतिरिक्त संस्कृत काव्य-रीतियों और नीति-नैतिकता की शिक्षाओं का विशिष्ट स्वरूप पुरातन परंपरा को निभाता हुआ प्रकट होता है। संस्कृत की परंपरा से आगे पालि और प्राकृत में धर्मोपदेशों और नीति-नैतिकता की चर्चाओं के कारण एक रिक्तता उत्पन्न हो गई थी। यह रिक्तता उस समय और अधिक गहरी हो गई, जिस समय विदेशी आक्रांताओं का खतरा बढ़ने लगा। राजस्थान की भूमि सदैव से ही ऐसी सीमा का निर्माण करती रही है, जिसे विदेशी आक्रांताओं से संघर्ष के लिए तत्पर रहना पड़ता था। आठवीं शती और उसके परवर्ती कालखंड को राजस्थान में उथल-पुथल से भरे विभीषक समय के रूप में जाना जाता है। इस कालखंड में पालि-प्राकृत के उपदेशों को छोड़कर उन गीतों को गाए जाने की सामयिक अनिवार्यता उभरकर सामने आती है, जिनके माध्यम से वीरों को उनके वीरोचित गुणों के प्रदर्शन और सीमाओं की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देने की ललक के लिए प्रवृत्त किया जा सके। इसी भाव से अपभ्रंशमूलक हिंदी से उद्भूत डिंगल ने अपने नैतिक दायित्व के निर्वहन को पूर्ण किया। इसके लिए सबसे पहले चारण आगे आए। शैव-शाक्तपूजक चारण समुदाय के लिए वीरों और युद्धों का वर्णन जीवन के निर्वहन का माध्यम-मात्र नहीं था, वरन् राजस्थान के गौरव के रक्षण के लिए अपने दायित्व के निर्वहन का कारण भी था। वे युद्धों में अपने आश्रयदाता राजाओं के साथ जाते भी थे, और आवश्यकता पड़ने पर युद्ध भी करते थे।
चारण कवियों-गायकों के अतिरिक्त भाट या भट्ट, मोतीसर, राव और ढाढ़ी कवियों-गायकों ने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाने का काम किया। वीर रस में रची-बसी डिंगल की रचनाओं में दिखाई पड़ने वाली स्वाभाविकता और सहजता ऐसा गुण है, जो वीर रस की दूसरी रचनाओं में दिखाई नहीं पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह था, कि चारण, भाट, राव आदि लोक-गायक किसी एकांत में बैठकर वीर रस की साधना नहीं करते थे, वरन् युद्ध के मैदान में वीरों के संग वीरोचित गुणों का प्रदर्शन करते हुए अपनी काव्य-साधना को पूर्ण करते थे। इसी कारण राजपूताने में इन जातियों को बड़े सम्मान के साथ देखा जाता था।
राजस्थान के मारवाड़ अंचल में गीतों के रूप में प्रसिद्ध डिंगल गायकी और पूर्वी राजस्थान से लगाकर ब्रजक्षेत्र तक विस्तृत छंद-पदबद्ध पिंगल गायकी में पिंगल का लिखित साहित्य अपेक्षाकृत अधिक उपलब्ध होता है। अपनी भाषायी विशिष्टता के कारण, और साथ ही अपने विषय-क्षेत्र के कारण पिंगल को शिष्ट साहित्य में अपेक्षाकृत अधिक स्वीकृति और सम्मति मिली। इसके विपरीत डिंगल गायकी में निहित गौड़ीय रीति से संयुक्त भाषा-शैली के रूप में अतीत से आगत संस्कृत काव्य-शास्त्रीय परंपरा के सूत्रों को छोड़ दिया गया और इस कारण डिंगल को शिष्ट साहित्य में अपेक्षित स्थान नहीं मिल सका। इसका सबसे बड़ा कारण उस परंपरित चेतना को अनदेखा कर देना भी है, जो विशेष रूप से डिंगल की अपनी पहचान है। भाषा के स्तर पर बनावट और रचनाकाल के स्तर पर प्रामाणिकता के विषयों पर बल देते हुए इनमें निहित ओज के गुण को विस्मृत करते हुए शिष्ट साहित्य के इतिहास में इनका मूल्यांकन किया जाना इनके लिए न्यायसंगत कतई नहीं बन सकता।
सूफ़ी काव्य-परंपरा में लोक-प्रचलित गाथाओं-किस्सों को लेकर मसनवी शैली में रचनाएँ की गईं। इनमें आने वाली कई रचनाएँ ऐसी भी हैं, जो डिंगल-पिंगल की अपनी रचनाओं के रूप में लोक-प्रचलित थीं। इनका स्वरूप लोक में होने के कारण अलिखित था, जबकि सूफ़ी परंपरा में ये लिखित रूप में आ गईं। इन प्रकार मसनवी शैली में लिखे गए सूफ़ी प्रेमाख्यानक काव्यों में आने वाली लोक-प्रचलित कथाओं-आख्यायिकाओं में शौर्य और ओज के गुण दोयम दर्जे में सिमटे हुए, और प्रेम-शृंगार के भाव अपेक्षाकृत मुखर होते हुए दिखाई पड़ने लगे। इसके भावपक्ष को आध्यात्मिक पुट देने के आशय से जुड़े आत्मा और परमात्मा के संबंधों के वर्णन ने उस स्थिति का सृजन कर दिया था, जिसके फलस्वरूप गौरवपूर्ण अतीत को जानने-समझने के लिए एकदम अलग और नई दृष्टि ही विकसित होने लगी। जिस राजपूताने पर कभी दासता की बेड़ियाँ नहीं पड़ी थीं, उसे इस तरह वैचारिक गुलामी में बाँधकर दिखाए जाने के कारण कालांतर में डिंगल-पिंगल की अपनी धरोहर के रूप में प्रतिष्ठा-प्राप्त शौर्यगाथाएँ अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णनों की काल्पनिक और साहित्येतर रचनाएँ बनकर प्रस्तुत होने लगीं।
हिंदी साहित्य के इतिहास के अनुशीलन में इसी कारण डिंगल-पिंगल की रचनाओं को लेकर कभी भाषा या शैली के विवाद में, तो कभी रचनाकाल की प्रामाणिकता के विवाद में उलझाए रखने की चेष्टाएँ प्रबल होती रहीं। इस अवधि में बहुत कम साहित्येतिहासकारों ने डिंगल-पिंगल की प्रामाणिकता को भक्तिकाल और रीतिकाल के कवियों की रचनाओं के बीच परखने का प्रयास किया। इधर सबसे पहली दृष्टि मसनवी शैली की रचनाओं में जाकर अटकती रही, और दूसरी तरफ बाबा तुलसी के रामचरितमानस के लंकाकांड में डिंगल की शैली में युद्ध का वर्णन विश्लेषण की परिधि से बाहर होता रहा। बाबा तुलसी रामचरितमानस के लंकाकांड में लिखते हैं-
बोल्लहिं  जो जय जय  मुंड रुंड  प्रचंड  सिर बिनु धावहीं ।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं ।।
बानर   निसाचर   निकर   मर्दहिं   राम  बल   दर्पित  भए ।
संग्राम   अंगन  सुभट   सोवहिं  राम  सर  निकरन्हि  हए ।।
भक्तिकाल में बाबा तुलसी की ‘मानस’ के लंकाकांड में युद्ध का वर्णन छंद की अपनी विशिष्ट शैली में होता है। यह वर्णन राजस्थानी गायकी की परंपरा को निभाता हुआ प्रतीत होता है। कहा जा सकता है, कि युद्धों के वर्णन के लिए डिंगल की परंपरा व्यापक और सर्वस्वीकृत रही है। इसी कारण तुलसी के ‘नाना पुराण निगमागम’ के साथ ही आने वाले ‘क्वचिदन्यतोऽपि’ में जिन ‘अन्य’ का उल्लेख हुआ है, उसमें डिंगल की परंपरा का विशेष योग प्रतीत होता है। लंकाकांड की भयंकरता और युद्ध का सटीक-प्रभावपूर्ण वर्णन इस परंपरा के अनुशीलन के बिना बाबा तुलसी के लिए भी कठिन रहा होगा, ऐसा कहा जा सकता है।
युद्धों के वर्णन में प्रयुक्त होने वाली डिंगल की परंपरा रीतिकाल में चुक गई हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। अगर रीतिकाल के प्रमुख कवि भूषण की कृति शिवराज भूषण, शिवा बावनी आदि को, और पद्माकर की कृति हिम्मतबहादुर विरुदावली जैसी रचनाओं को देखें; तो इनमें भी वीररस को व्यंजित करने वाली गौड़ीय रीति से संयुक्त डिंगल की परंपरा के स्पष्ट दर्शन होते हैं। इस तरह संस्कृत काव्य-परंपरा की विशिष्टताओं को लोक-साहित्य, और साथ ही शिष्ट-साहित्य में संरक्षित रखने वाली डिंगल-पिंगल की परंपरा भक्तिकाल, और फिर रीतिकाल में अपने प्रभाव को परिलक्षित करती है।
मध्यकालीन विभीषिकाओं के बीच जो परंपरा अपने दायित्वों का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ कर रही, मूल्यांकन की आधुनिक दृष्टि उसे कालांतर में उचित सम्मान नहीं दिला पाई। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस परंपरा के अंतर्गत आने वाली रचनाओं की प्रवृत्ति और तत्कालीन समय-समाज की स्थिति का आकलन करते हुए इन रचनाओं के कालखंड को वीरगाथाकाल नाम दिया था। बाद में चारणकाल, सिद्ध-सामंतकाल, आदिकाल आदि नाम देकर उन प्रवृत्तियों पर दृष्टिपात करने से बचने का प्रयास किया गया, जिनमें राजस्थान के गौरवपूर्ण अतीत की झलक मिलती है।
इस तरह शिष्ट साहित्य में, विशेषकर हिंदी साहित्येतिहास में वीरगाथाओं की लोक-प्रचलित परंपरा को देश, काल के आधार पर अप्रासंगिक सिद्ध करते हुए भले ही गौरवपूर्ण अतीत के अध्यायों को विस्मृत करने और दीनता-हीनता के बोध को प्रसारित करने का कार्य कतिपय साहित्येतिहासकारों द्वारा किया गया हो, मगर लोक-परंपरा में प्रचलित डिंगल-पिंगल गायकी के स्वर मद्धिम नहीं हुए। इसी कारण लोक-परंपरा में वीरांगनाओं को गौरवपूर्ण स्थान मिला। राजस्थान की धरती पर अपने वीरोचित कर्मों से अमिट छाप छोड़ने वाले वीरों व वीरांगनाओं को मसनवी परंपरा में प्रेम के भाव से रंगकर दिखाने का यत्न करने वाली रीतियों-नीतियों से अलग आज भी सम्मान और आस्था-विश्वास का चटक रंग राजस्थान की धरती के कण-कण में दिखाई देता है। इसी कारण लोक-परंपरा और लोक-आस्था को ठेस पहुँचाने वाली किसी भी गतिविधि के विरोध में लोक-मानस अपनी पूरी शक्ति के साथ खड़ा हो जाता है। राजस्थान की पुण्यश्लोका-वीरप्रसूता धरा की अपनी अनूठी-अनुपम पहचान जिस डिंगल-पिंगल गायकी में समाई हुई है, उसके स्वर आज भी राजस्थान के अलग-अलग अंचलों में सुनाई देते हैं।
भाभी हूँ डोढ़ी खड़ी, लीधां खेटक रूक ।
थे  मनुहारौ  पावणाँ,  मेड़ी झाल बंदूक ।।
-राहुल मिश्र
(साहित्य परिक्रमा, अक्टूबर, 2018, सं. श्रीमती क्रांति कनाटे, प्रका. अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, ग्वालियर (मध्यप्रदेश) के ‘राजस्थान विशेषांक- 2018’, भाग- एक, में प्रकाशित)

Sunday 21 May 2017



निराला के काव्य की पड़ताल करती एक महत्त्वपूर्ण किताब

(निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना)
बीसवीं सदी के सिद्धहस्त कवि और बहुमुखी प्रतिभा के धनी सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का व्यक्तित्व और कृतित्व उनके नाम के अनुकूल ही है। उनकी रचनाओं में जैसी विविधता, व्यापकता और समग्रता देखने को मिलती है, वैसी अन्यत्र दुर्लभ है। इसी कारण स्वनामधन्य कविश्री निराला को समग्रता के साथ मूल्यांकन के पटल पर उतार पाना कठिन ही नहीं, दुष्कर कार्य भी है। निराला के गद्य में जहाँ एक ओर समाज का यथातथ्य चित्रण है; वहीं दूसरी ओर मनोभाव, सामयिक प्रश्नाकुलताएँ और कथ्य की व्यापकता चित्रित होती है। इसी प्रकार निराला के काव्य में एक ओर छायावाद की प्रवृत्तियों के अनुरूप कल्पना, रहस्य-रोमांच और प्रकृति का सुंदर चित्रण है, तो दूसरी ओर समाज और राष्ट्र के प्रति एक समर्पित साहित्यिक का जीवन-दर्शन है। प्रयोगधर्मी निराला कभी किसी स्तर पर एक स्थिति, विचार, विचारधारा या मनोभाव को पकड़कर नहीं बैठते, वरन् नदी के प्रवाह के समान उनकी वैचारिक गति, भावों-संवेदनाओं का प्रसार और परिवर्तित-परिवर्धित होतीं भावजन्य अभिव्यक्तियाँ अद्भुत और अनूठेपन के साथ सहृदय पाठक को अपने साथ ले चलती हैं। इसी कारण सूर्य और निराला के प्रिय बादल के समयानुकूल संयोजन से आकाश में बन जाने वाले इंद्रधनुष की भाँति निराला का काव्य-संसार बहुरंगी बन जाता है। इसका एक-एक रंग अपनी विलक्षण प्रभावोत्पादकता से रोमांचित कर देने वाला है।
निराला के इंद्रधुनष-सम काव्य-संसार की एक रश्मि को अपने शोध का विषय बनाकर डॉ. स्नेहलता शर्मा ने उस दीप्ति से साक्षात्कार कराने का प्रयास किया है, जिसके बल पर हिंदी साहित्य गर्वोन्नत है। डॉ. स्नेहलता शर्मा की कृति- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना इसी प्रयास का पुस्तकाकार माध्यम है। समीक्ष्य कृति अपनी विशिष्टता भी इसी कारण रखती है, क्योंकि राष्ट्रीय चेतना के स्वर को, उसके प्रवाह और विस्तार को निराला के समग्र काव्य-संसार में देखना और उसे विश्लेषित करते हुए एक स्थान पर उपलब्ध कराना सरल कार्य नहीं है। समीक्ष्य कृति में अतीत के उस गौरवपूर्ण कालखंड को संदर्भ के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसकी विनाशलीला को देखकर पुनः जागरण होता है। भारतीय जागरण काल के साथ अतीत के गौरवपूर्ण कालखंडों का स्मरण भी जुड़ जाता है। निराला की राष्ट्रीय चेतना से संपृक्त कविताओं का आधार इसी बिंदु पर तैयार होता है। इस प्रकार क्रमबद्ध और व्यवस्थित सामग्री का संकलन राष्ट्रीय चेतना के पक्षों को केवल स्पष्ट ही नहीं करता, वरन् अपने व्यापक रूप में, व्यवस्थित-क्रमबद्ध अध्ययन में अनेक ऐसे अनछुए-अनजाने पक्षों को भी प्रकट कर देता है, जो प्रायः चलन में नहीं होने के कारण विस्मृत हो चुके हैं। विषय की सटीक प्रस्तुति हेतु समीक्ष्य कृति को पाँच अध्यायों में बाँटा गया है।
समीक्ष्य कृति का प्रथम अध्याय है- राष्ट्र का स्वरूप : राष्ट्र के रूप में भारत, इतिहास। इस अध्याय में राष्ट्र को परिभाषित करते हुए धार्मिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एकता के विविध अंगों को; एवं भाषागत, परंपरागत एकता के संदर्भों को प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार भारतवर्ष के रूप में इस विशाल भूखंड की निर्मिति को आदिकाल से लगाकर वर्तमान तक देखने का प्रयास हुआ है। राष्ट्रीय एकता और राष्ट्रीयता के भाव के समग्र प्रस्तुतीकरण का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि लेखिका ने उन तत्त्वों को भी खुले मन से विश्लेषित किया है, जो अतीत से लगाकर वर्तमान तक हावी हैं और राष्ट्रीय चिंतनधारा के अवरोधक भी हैं। इसे विश्लेषित करते हुए उल्लेख किया गया है कि- इस देश में वैर-फूट का यह भाव इतना प्रबल क्यों रहा, इसके भी कारण हैं। बड़ी-बड़ी नदियों और बड़े-बड़े पहाड़ों के गुण अनेक हैं, लेकिन उनमें एक अवगुण भी होता है कि वे जहाँ रहते हैं, वहाँ देश के भीतर अलग-अलग क्षेत्र बना देते हैं और इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के भीतर एक तरह की प्रांतीयता या क्षेत्रीय जोश पैदा हो जाता है। पहाड़ों और नदियों ने भारत को भीतर से काटकर उसके अनेक क्षेत्र बना दिए और संयोग की बात है कि कई क्षेत्रों में ऐसी जनता का जमघट हो गया, जो कोई एक क्षेत्रीय भाषा बोलने वाली थी। (पृष्ठ- 15) इस विविधता के बीच संस्कृत और संस्कृति के माध्यम से उन सूत्रों को खोजने का काम भी इस अध्याय में कुशलतापूर्वक हुआ है, जिनके कारण अलग-अलग कालखंडों में विविधता में एकता कायम हुई और भारतीय नवजागरण के दौरान सारा देश एकसाथ उठ खड़ा हुआ।
समीक्ष्य कृति का द्वितीय अध्याय- भारतीय जागरण काल है। यह अध्याय भारतीय नवजागरण के विविध पक्षों का मूल्यांकन करता है। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के विशद-व्यापक विवेचन के साथ ही इनके माध्यम से उदित होने वाली राष्ट्रीय काव्यधारा की पड़ताल इस अध्याय में की गई है। ‘राष्ट्रीय काव्यधारा के विविध सोपान’ उपशीर्षक के अंतर्गत भारतेंदु युग, द्विवेदी युग और द्विवेदी युगोत्तर काव्यधारा में राष्ट्रीय चेतना के विविध पक्षों का सर्वांगपूर्ण प्रस्तुतीकरण इस अध्याय में उल्लेखनीय है। समीक्ष्य कृति का तृतीय अध्याय है- छायावादी काव्य में राष्ट्रीय चेतना। इस अध्याय में छायावाद की उत्पत्ति के उन सूत्रों को तलाशने का प्रयास किया गया है, जो प्रायः चर्चा के केंद्र में नहीं  रहे हैं। इसके साथ ही छायावाद के दो स्तंभों- पंत और निराला की काव्य-साधना के प्रवाह को भी इस अध्याय में विश्लेषित किया गया है। इसी विश्लेषण के क्रम में पुस्तक बताती है- पंत वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन के पश्चात एक नए जगत, भौतिक समृद्धि से संबद्ध विचारधारा प्रधान चिंतनलोक में पदार्पण करते हैं। निराला भी बेला, नए पत्ते, कुकुरमुत्ता आदि में परिवर्तित दृष्टिकोण लेकर उपस्थित हुए हैं। (पृष्ठ- 141) इसी अध्याय में उल्लेख है कि- कहीं-कहीं निजी सुख-दुःखात्मक अनुभूति को, छायावादी कवियों ने, युग को जगाने के लिए शंखनाद में भी परिवर्तित कर दिया है। क्षुद्रता और निराशा के कुहरे में न डूबकर जीवन के दुःख- द्वंद्वों को चुनौती के रूप में स्वीकार कर प्राणपण से जूझने की प्रेरणा देने वाले ये विचार छायावादी काव्य का एक अल्प ज्ञात या किसी सीमा तक उपेक्षित पक्ष भी प्रस्तुत करते हैं। साथ ही जीवन के मूल-मंत्रों को ध्वनित करने वाले उपयोगी तत्त्व एवं जीवन को उज्ज्वल, महान और वरेण्य बनाने की प्रेरणा भरने वाले ये अंश छायावादी कवियों के उस महान उत्तरदायित्व के निर्वाह के सूचक भी हैं, जिसे साहित्यकार होने के नाते स्वयं किया है। (पृष्ठ- 145) इस प्रकार तृतीय अध्याय तक आते-आते पुस्तक में ऐसे तत्त्व स्पष्ट होने लगते हैं, जिनका आश्रय पाकर निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना मुखर होती है।
समीक्ष्य कृति का चतुर्थ अध्याय इसी के अनुरूप है। इस अध्याय को शीर्षक दिया गया है- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना। इस अध्याय में निराला की समग्र काव्य-यात्रा को तीन अलग-अलग खंडों में बाँटकर विश्लेषित किया गया है। निराला की सारा जीवन अभावों और संघर्षों से भरा रहा। इसी कारण निराला के लिए उस भारत को देखना सुलभ हो सका, जिसके लिए राष्ट्रीय चेतना की अनिवार्यता थी। और इसी अनिवार्यता को निराला ने अपनी लेखनी का ध्येय बना लिया था। इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए पुस्तक में उल्लेख किया गया है कि- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला काव्य के शाश्वत माध्यम से जीर्ण-शीर्ण रूढ़ियों को तोड़ने का भगीरथ संकल्प लेकर ही जन्मे और मानव के जीवन से अभावों को मिटा देने हेतु अनंत संघर्ष करते हुए जीवित रहे और गरल-पान करते-करते शिवत्व प्राप्त करते हुए स्वर्गवासी हुए। निराला ने असंतोषपूर्ण वातावरण में रहकर अपनी नूतन काव्याभिव्यक्ति द्वारा विद्रोही स्वर फूँका और जनजागरण की नवज्योति जगाने का पुनीत कार्य किया। इसी कारण डॉ. रामविलास शर्मा ने निराला को नई प्रगतिशील धारा का अगुवा कहकर उनके व्यक्तित्व का सम्मान किया है। निराला का जीवन विभिन्न असमानताओं, असंगतियों एवं अभावों से भरा था, किंतु परिस्थितयों ने कवि को उद्बुद्ध एवं जागरूक बनाकर उसे अन्याय के प्रति संघर्ष की शक्ति दी। यही शक्ति निराला में राष्ट्रीय चेतना के रूप में उभरकर आई, जिसने कवि को राष्ट्रीय गौरव की शाश्वत अभिव्यक्ति की प्रेरणा दी। (पृष्ठ- 195) निराला की अनेक चर्चित कविताओं के आलोक में राष्ट्रीय चेतना के इस स्वर को विश्लेषित करने का सटीक और सफल प्रयास इस अध्याय में परिलक्षित होता है। सन1920 से 1961 तक विस्तृत निराला के काव्य-संसार की व्यापक पड़ताल और गहन मंथन से निःसृत स्थापनाओं को इस अध्याय में स्थान मिला है। इसके साथ ही निराला की साहित्य-साधना से जुड़े ऐसे ज्वलंत पक्ष, जो चर्चित नहीं हो सके और जिनको जानना निराला के संदर्भ में आवश्यक है, उन्हें भी इस अध्याय में विश्लेषित किया गया है।
समीक्ष्य कृति का पंचम अध्याय है- निराला के काव्य में राष्ट्रीय काव्यधारा की सीमाएँ। इस अध्याय में निराला की काव्यधारा को व्यापक अर्थों में विश्लेषित किया गया है। यह अध्याय स्थापना देता है कि निराला ही छायावाद के ऐसे कवि हैं, जिन्होंने अपने पौरुष के बल पर संघर्षों और अभावों से टक्कर ली है। वे पंत और प्रसाद की परंपरा से अलग संघर्ष के लिए सदैव तत्पर रहे और संघर्ष की यह चेतना व्यक्ति से उठकर समाज तक, व्यष्टि से समष्टि तक व्यापक होती जाती है। निराला के लिए उनका निजी जीवन-संघर्ष इसी कारण उनकी कमजोरी नहीं बन पाता है। एक समय के बाद, विशेषकर अपनी इकलौती पुत्री के देहावसान के बाद विक्षिप्त-से हो जाने वाले निराला अपने जीवन के संघर्षों को देश-काल-समाज के संघर्षों के साथ एकाकार कर लेते हैं। इसी कारण उनका अपना भोगा हुआ सत्य जब कागजों पर उतरता है, तो उसके तीखेपन को पचा पाना सरल नहीं रह जाता है। निराला के काव्य-संसार में राष्ट्रीय-चेतना की उत्पत्ति और विकास को इसी की परिणति के रूप में भी देखा जा सकता है।
निराला का कवि राष्ट्रीय चेतना का अपराजेय नायक है। उसका राष्ट्र-प्रेम केवल अतीत के स्वर्णिम इतिहास को आधार नहीं बनाता और न ही वर्तमान की विषम परिस्थितियों से त्रस्त होकर वह रो उठता है। अपितु वह पूर्ण निष्ठा एवं आस्था से असत्य, अशिव एवं असुंदर का ध्वंस करके सत्य, शिव एवं सुंदर का सृजन करता है। छायावादी कवियों पर ‘पलायनवादी होने का आरोप लगाने वाले आलोचकों के लिए’ निराला का आशावाद एवं कर्मठता प्रश्नचिह्न बन गये हैं। राष्ट्र-चेतना की प्रेरणा देते हुए निराला का अदम्य स्वर यों गूँजा था-
पशु नहीं, वीर तुम / समर शूर क्रूर नहीं / काल चक्र में हो दले / आज तुम राज कुँवर / समर सरताज। (पृष्ठ- 271)
समीक्ष्य कृति के अंत में निष्कर्ष के तौर पर पाँचों अध्यायों का निचोड़ प्रस्तुत किया गया है। इसके साथ ही संदर्भ ग्रंथ सूची भी पुस्तक की प्रामाणिकता को स्थापित करने में योगदान देती है। कुल मिलाकर निराला के काव्य-संसार को नवीन दृष्टि से देखने का यह अभिनव प्रयास सिद्ध होता है। तथ्यों का सटीक प्रस्तुतीकरण, तार्किकता और विषय का विवेचन समीक्ष्य कृति को महत्त्वपूर्ण बना देता है। इस कारण यह कृति शोध-कर्ताओं के साथ ही सहृदय पाठकों के लिए उपयोगी भी है और संग्रहणीय भी है।
डॉ. राहुल मिश्र
समीक्षित कृति- निराला के काव्य में राष्ट्रीय चेतना
डॉ. स्नेहलता शर्मा
प्रथम संस्करण 2013
अन्नपूर्णा प्रकाशन, साकेत नगर, कानपुर- 208 014
मूल्य- 600/-   
(नूतनवाग्धारा, बाँदा, संयुक्तांक : 28-29, वर्ष : 10, मार्च 2017 अंक में प्रकाशित )

Monday 16 January 2017

बरवा सागर




बरुआ सागर
प्राकृतिक सौंदर्य और शौर्य से परिपूर्ण एक नगर


वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई की नगरी झाँसी से मानिकपुर की ओर जाने वाली सवारी गाड़ी के स्टेशन से रवाना होते ही अधिकांश यात्रियों के अंदर एक नए इंतजार को उपजते देखा जा सकता है। यह इंतजार सफ़र खत्म होने का नहीं है। यह इंतजार झाँसी के बाद आने वाले ओरछा स्टेशन से गाड़ी के आगे बढ़ते ही अपने चरम पर पहुँच जाता है। बेतवा नदी के पुल पर दौड़ती गाड़ी से उपजने वाली तेज आवाजें रेलगाड़ी के कोच में बरबस शुरू हो जाने वाली हलचलों को सुर दे देती हैं और बरुआ सागर स्टेशन पर गाड़ी के खड़े होते न होते दौड़ शुरू हो जाती है। झाँसी से भले ही भरपेट खाकर चले हों, मगर बीस-इक्कीस किलोमीटर के सफर में ही इतनी तगड़ी भूख उपज जाना कि दौड़ लगानी पड़ जाए, स्वयं में रोमांचित कर देने वाला है। स्टेशन पर बने चाय-पानी के स्टॉल में अच्छी-खासी भीड़ जमा हो जाती है। कोई पेड़े, तो कोई समोसे और कोई सब्जी-पूड़ी खा रहा होता है, या फिर खरीदकर ले जा रहा होता है। प्लेटफार्म पर सब्जीवालियों की लंबी कतार अलग आकर्षण रखती है। अदरख और कच्ची हल्दी से लगाकर सभी किस्म की सब्जियाँ यहाँ पर उपलब्ध हैं। अमरूद और मूँगफली के देशी स्टॉल भी कम नहीं होते हैं। विक्रेता महिलाओं की सुमधुर मिश्रित आवाजें गूँजती रहती हैं। अदरख ले लो अदराख...., अमरूद ले लो ताजे-मीठे आमरूद....। लोग समय का सदुपयोग करते नजर आते हैं। जल्दी-जल्दी सौदा पटाने और ढेर सारी सब्जियाँ खरीद लेने की होड़ नजर आती है। रेलगाड़ी के रुकने से लगाकर उसके रवाना होने तक की अवधि में किसने कितनी सब्जी खरीद ली, कितना जलपान कर लिया, जैसे विषय गाड़ी के रवाना होने के साथ ही क्षणिक चर्चा के केंद्र में आ जाते हैं। लोगों के लिए अदरख और कच्ची हल्दी की खरीददारी ज्यादा रोमांचकारी होती है; उसी तरह, जैसे बरुआ सागर के पेड़े खाकर मानो संसार के सर्वोत्कृष्ट मिष्ठान्न को उदरस्थ कर लेने की सफलता से सुख की अनुभूति होती है। पुराने तरीके की बनी स्टेशन की इमारत और सारा स्टेशन परिसर गाड़ी के आगमन के साथ ही भागमभाग और चहल-पहल से भर जाता है। मानिकपुर की ओर से आने वाले रेलयात्रियों के साथ भी यही सब घटता है। रेलगाड़ी जाने के बाद स्टेशन में कैसी उदासियाँ पसरती होंगी और दूसरी गाड़ी के आने के इंतजार की घड़ियाँ कैसे गिनी जाती होंगी, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। दूसरे छोटे स्टेशनों से इतर बरुआ सागर स्टेशन पर कुछ अलग ही परिवेश बन जाता है, इस कारण कल्पनाओं को उड़ान भरने के लिए पंख मिल जाते हैं। स्टेशन के बाहर इस कस्बे का जीवन कैसा होगा, कई बार मन में प्रश्न उपजते हैं। आखिर इस छोटे-से कस्बे में सागर कहाँ से आ गया? अगर सागर है भी, तो कैसा है? लगता है कि जिसने बरुआ नदी में बने बाँध को सागर नाम दिया होगा, उसने शायद सागर देखा ही नहीं होगा, इसीलिए उस विशालकाय ताल को सागर मान लिया। ऐसा भी हो सकता है कि बुंदेलखंड की पथरीली जमीन पर, जहाँ जल का संकट अपना विकराल रूप दिखाने में पीछे नहीं रहता, वहाँ जल-प्रबंधन के ऐसे वृहदाकार निर्माण के प्रति आस्था ने सागर नाम दे दिया हो।

बरुआ सागर कस्बे का नाम बेतवा नदी की सहायक बरुआ नदी पर बने बाँध या वृहदाकार तालनुमा सागर के कारण पड़ा है। बरुआ सागर ताल का क्षेत्रफल लगभग एक हजार एकड़ का है। बुंदेला शासकों द्वारा स्थापित धार्मिक-ऐतिहासिक नगरी ओरछा के प्रतापी शासक राजा उदित सिंह ने सन् 1705 से 1735 के मध्य इस ताल का निर्माण कराया था। इस ताल के निर्माण का शिल्प भी अद्बुत है। आम जनता के लिए ताल का उपयोग सहज और सुलभ हो सके, इस हेतु तालाब में घुमावदार सीढ़ियाँ बनी हैं। ताल पर बना चौड़ा तटबंध पुल का काम भी करता है। ताल में जल-प्रबंधन के साथ ही जल के उच्च स्तर पर पहुँचने पर जल निकास की व्यवस्था भी है। लगभग नब्बे वर्ष पूर्व भीषण बाढ़ ने जल निकासी व्यवस्था को नष्ट कर दिया था, फिर भी यह ताल यहाँ के लोगों के लिए उपयोगी है। खेती के लिए जल संसाधन की उपलब्धता के कारण यहाँ पर खेतों में खूब हरियाली नजर आती है। केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित केन-बेतवा गठजोड़ परियोजना में बरुआ सागर ताल भी शामिल है और इस परियोजना के माध्यम से ताल तक जल पहुँचाने की योजना है।
बरुआ सागर के किनारे पर ऊँची समतल पहाड़ी पर किला भी है। इस किले का निर्माण भी ओरछा के राजा उदित सिंह द्वारा 1689 से 1736 के मध्य कराया गया था। किले की प्राचीर से बरुआ सागर का सुंदर नजारा और चारों तरफ पसरी हुई हरियाली बरबस ही मन को मोह लेती है। यहाँ की अनूठी प्राकृतिक सुंदरता और पठारी भूमि में पसरे धरती के सौंदर्य से अभिभूत होकर ही शायद बुंदेला शासकों ने इस किले को अपना ग्रीष्मकालीन किला बना लिया था। गर्मी के दिनों में वे यहीं पर प्रवास करते थे। संभवतः इसी कारण आज भी बरुआ सागर को बुंदेलखंड की शिमला नगरी भी कहा जाता है। बुंदेला शासकों के यहाँ आने के पहले इस इलाके में आबादी नहीं रही होगी, या बहुत कम संख्या में रही होगी, इस कारण बुंदेला शासकों को किले और ताल के निर्माण कार्य के लिए ओरछा से कामगारों को लाना पड़ा होगा। लगभग 47 वर्षों तक यहाँ पर चले निर्माण कार्य के पूर्ण हो जाने के बाद कामगारों के परिवार यहीं पर बस गए। इसी कारण यहाँ बसे अधिकांश लोग उन कामगारों के वंशज हैं, जो बरुआ सागर और किले के निर्माण हेतु यहाँ लाए गए थे। इनके पास इसी कारण बरुआ सागर से जुड़ी तमाम लोक-प्रचलित कथाएँ भी हैं।
बरुआ सागर की आबादी से लगभग ढाई किलोमीटर पहले एक ऊँचे टीले पर लगभग पाँच-छह फीट ऊँची चहारदीवारी के अंदर लाल बलुए पत्थरों से निर्मित लगभग पैंसठ फीट ऊँचा मंदिर है। इसे जरा का मठ (जरकी मठ) के रूप में जाना जाता है। लोक मान्यताएँ इस मंदिर को भाई-बहन का मंदिर मानती हैं। ऐसी कथा प्रचलित है कि बहन के जिद करने पर भाई ने इस मंदिर को एक रात में बनाकर तैयार कर दिया था। इस मंदिर में शिव-पार्वती की मूर्तियाँ हैं। यह मंदिर चंदेलकालीन है और चंदेलों के मांडलिक प्रतिहार शासकों द्वारा इस मंदिर का निर्माण कराया गया है। अपने स्थापत्य के कारण यह मठ ऐतिहासिक महत्त्व का है। पूर्वाभिमुख मठ में गर्भगृह, फिर अंतराल और फिर मुखमंडप है। मुखमंडल भग्नावस्था में है, जबकि मुख्य मंदिर के उत्तर-पश्चिम और दक्षिण-पश्चिम दिशाओं में स्थित भग्न छोटे मंदिरों से अनुमान लगाया जा सकता है कि मुख्य मंदिर के चारों ओर चार छोटे-छोटे मंदिर रहे होंगे। मंदिर की ऊँचाई या विमान के साथ ही चार छोटे-छोटे मंदिरों से अनुमान लगाया जा सकता है कि मंदिर पंचायतन शैली का है। मंदिर का गर्भगृह आयताकार है। आयताकार चौक प्रायः शेषशायी विष्णु या सप्तमातृका के मंदिरों में होती हैं। शेषशायी विष्णु की मूर्ति यहाँ नहीं है, मगर मंदिर के नाम से स्पष्ट होता है कि यह मंदिर शक्ति-साधना का केंद्र रहा होगा। श्री महाकाली अष्टोत्तर सहस्रनामावली में श्लोक है-
विद्याधरी वसुमती यक्षिणी योगिनी जरा ।
राक्षसी  डाकिनी  वेदमयी  वेदविभूषणा ।।26।।
महाकाली का एक नाम जरा भी है, इस तरह शाक्त-साधना के साथ इस मंदिर के संबंध का प्रमाण मिलता है। मंदिर का प्रवेश द्वार सुसज्जित है। इसमें चार पंक्तियों में नर्तकियों, अष्ट दिग्पालों, वाराहियों और द्वारपालों के साथ ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश,नरसिम्हा, लक्ष्मी-नारायण, सूर्य की प्रस्तर पर उत्कीर्ण मूर्तियाँ हैं। द्वार के दोनों और गंगा और यमुना की मूर्तियाँ हैं। मंदिर के शिखर का एक तिहाई हिस्सा टूटा हुआ है, जिसका जीर्णोद्धार कराया गया प्रतीत होता है। संभवतः बरुआ सागर और किले के निर्माण के दौरान बुंदेला शासकों ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया होगा। बरुआ सागर के समीप ही घुघुआ मठ भी है। यह मठ भी चंदेलकालीन है और पत्थरों पर उकेरी गई सुंदर नक्काशी को यहाँ पर भी देखा जा सकता है। इस मठ में चार दरवाजे हैं। तीन दरवाजों पर गणेश की प्रतिमाएँ हैं और चौथे दरवाजे पर दुर्गा की प्रतिमा है। यह मंदिर शैव-साधना का केंद्र रहा होगा, ऐसा माना जा सकता है।
स्थापत्य की इन बेजोड़ निर्मितियों के अतिरिक्त बरुआ सागर में प्राकृतिक निर्मितियाँ भी हैं। इनमें स्वर्गाश्रम प्रपात प्रमुख है। 1985 के आसपास इस स्थान पर चण्डी स्वामी शरणानंद जी सरस्वती द्वारा एक आश्रम का निर्माण कराया गया था। तब से यह स्थान पर्यटकों के लिए ही नहीं, वरन् श्रद्धालुओं के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया। चारों तरफ फैली हरियाली, विभिन्न प्रकार के वृक्ष और उनकी शीतल छाया में कल-कल निनाद करता प्रपात का औषधियुक्त जल तन और मन, दोनों को सुख देता है। इस प्रपात के निकट तीन कुंड हैं, जिनमें इसका जल संग्रहीत होता है। प्रपात का जल गंधकयुक्त होने के कारण औषधीय गुणों से युक्त है और अनेक व्याधियों के उपचार हेतु लोग इस जल का उपयोग करते हैं। आश्रम के निकट ही हनुमान गुफा नामक एक प्राकृतिक निर्मिति है, जिसमें हनुमान जी की मशक स्वरूप प्रतिमा विराजमान है। यहाँ पर विभिन्न पर्वों में श्रद्धालुओं का आगमन होता रहता है। गर्मी की ऋतु में यहाँ पर पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। दूर्वा का विशाल उद्यान भी लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है।
बरुआ सागर, घुघुआ मठ, जरा का मठ और स्वर्गाश्रम प्रपात बुंदेले और मराठों के संघर्ष के गवाह भी हैं। सन् 1744 में यहाँ पर बुंदेले और मराठों के बीच भयंकर युद्ध हुआ था, जिसमें रानोजी सिंधिया के पुत्र और महाराजा माधोजी सिंधिया के अग्रज ज्योति भाऊ शहीद हुए थे। युद्ध के समापन के बाद पेशवा ने आदेश दिया था कि बरुआ सागर से वसूली जाने वाली लगान से दस हजार सालान का भुगतान शहीद ज्योति भाऊ की पत्नी को किया जाए। आश्चर्यजनक तरीके से यह भुगतान एक सौ ग्यारह वर्षों तक ग्वालियर दरबार को होता रहा। ज्योति भाऊ की बेवा के गुजर जाने के बाद यह रकम उनके परिवार के दूसरे लोगों को मिलती रही। सन् 1855 में, जब झाँसी पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया, तब अंग्रेज हुक्मरानों ने इसे रोकने की कार्यवाही की। अंग्रेजों ने आदेश जारी किया कि अधिकार के रूप में इस धनराशि का पाने का हक ग्वालियर घराने को नहीं है, बशर्ते कृपापूर्वक इसका भुगतान किया जा सकता है। लगभग एक सौ ग्यारह वर्षों तक बरुआ सागर की लगान से ग्वालियर दरबार अपनी जेबें भरता रहा।
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई और उनके पति गंगाधर राव को भी बरुआ सागर से बहुत लगाव रहा है। गंगाधर राव तो अकसर अपना समय यहीं पर गुजारा करते थे। गंगाधर राव के निधन के उपरांत झाँसी का राज्य राजनीतिक अस्थिरता से घिर गया। इसका लाभ उठाकर ओरछा के प्रधानमंत्री नाथे खाँ ने बरुआ सागर पर कब्जा करने की कोशिश की। उसने बरुआ सागर पर कब्जा भी कर लिया और आगे बढ़कर झाँसी के किले को भी घेर लिया। बाद में रानी झाँसी की सूझबूझ और पराक्रम के कारण नाथे खाँ को वहाँ से भागना पड़ा। रानी झाँसी ने अपने पिता मोरोपंत तांबे के नेतृत्व में चार सौ सैनिकों की फौज भेजकर बरुआ सागर को फिर से अपने कब्जे में ले लिया। जिस समय रानी झाँसी अंग्रेजों से संघर्ष कर रही थीं, उस समय बरुआ सागर के आसपास के इलाके में डाकू कुँवर सागर सिंह का आतंक हुआ करता था। वह रानी झाँसी के पराक्रम से इतना प्रभावित हुआ, कि अपने सारे साथियों के साथ रानी झाँसी की फौज में शामिल हो गया। उन दिनों बरुआ सागर क्रांति की ज्वाला से धधक रहा था। अंग्रेजों को जितना खतरा झाँसी में महसूस होता था, उससे कम खतरा बरुआ सागर में महसूस नहीं होता था। इसी कारण अंग्रेजों की तमाम गुप्तचर एजेंसियाँ यहाँ पर सक्रिय रहती थीं। प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लगाकर देश की आजादी तक बरुआ सागर स्वतंत्रता सेनानियों का गढ़ रहा। जिस समय देश के विभिन्न हिस्सों में छापाखानों में समाचारपत्र छपा करते थे और स्वतंत्रता सेनानियों के पास भेजे जाते थे, उस समय बरुआ सागर में रातों-रात हस्तलिखित समाचार पत्र तैयार किए जाते थे और रातों-रात ही उनका वितरण आसपास के इलाकों में, शहरों में किया जाता था। वितरण करने वाले स्वाधीनता सेनानी रात में पत्र लेकर निकलते थे और सुबह होने के पहले ही पत्र बाँटकर वापस आ जाते थे। बरुआ सागर से चलने वाली इस क्रांतिकारी गतिविधि ने अंग्रेजों की नींद उड़ा रखी थी। इस काम को करने वाले सेनानियों को तलाश पाना अंग्रेजों के लिए बहुत कठिन था। अंग्रेजों के गुप्तचर बरुआ सागर में अपना डेरा डाले ही रहते, और क्रंतिकारी अपना काम बखूबी कर ले जाते। अनेक अंग्रेज अधिकारियों ने अपने संस्मरणों में बरुआ सागर का इसी कारण खूब जिक्र किया है।
जाने-माने रंगकर्मी, नाट्य-समीक्षक, समालोचक, पत्रकार, कवि, अनुवादक और शिक्षक पद्मश्री नेमिचंद्र जैन का बचपन बरुआ सागर में ही गुजरा है। वृंदावनलाल वर्मा की रचनाओं में बरुआ सागर का सौंदर्य निखरता है। और भी तमाम कवि, साहित्यकार, इतिहासकार; चाहे वे विदेशी हों, या देशी हों, बरुआ सागर उनके लिए रोमांच से भरा रहा है। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता और यहाँ के कण-कण में बसी अतीत की गाथाएँ उन्हें अपनी खींचती रही हैं।
बरुआ सागर के स्टेशन में रेलगाड़ी के आते ही अचानक बढ़ जाने वाली चहल-पहल ही केवल इसकी पहचान नहीं है। यहाँ की अनूठी प्राकृतिक सुंदरता, यहाँ की ऐतिहासिक विरासत न केवल शासकों को; वरन् जिज्ञासुओं को, श्रद्धालुओं और पर्यटकों को आकर्षित करती रही है। यह अलग बात है कि शिमला जैसे बहुचर्चित और महँगे शहर के आकर्षण में हम अपने बुंदेलखंड के शिमला से भी खूबसूरत इलाके को विस्मृत कर बैठे हों।
बरुआ सागर के स्टेशन में सब्जियाँ, मूँगफली और अमरूद बेचती महिलाएँ आत्मसम्मान के साथ जीने का यत्न करती नजर आती हैं। रानी झाँसी ने प्रण किया था कि अपने जीते जी अपनी झाँसी नहीं दूँगी। उनका आत्मसम्मान, उनका आत्मगौरव, उनका पराक्रम, उनका शौर्य यहाँ कण-कण में, जल की हर-एक बूँद में आज भी बसता है। इसलिए गरीबी और जीवन जीने की विकट जद्दोजहद ने यहाँ की महिलाओं को लाचार-बेबस नहीं बनाया है। यहाँ से गुजरने वाले यात्रियों को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि महिलाएँ सिर पर वजनी टोकरी उठाए सुबह से देर शाम तक गाड़ियों में भाग-भागकर सब्जियाँ, मूँगफली बेचती क्यों नजर आती हैं? यह इस धरती का गुण-धर्म है, यहाँ की पहचान है। अपने अतीत के गौरव से गर्वोन्नत बरुआ सागर से गुजरते हुए इस पुण्यश्लोका धरा को प्रणाम कर लेने का मन होता है। 



डॉ. राहुल मिश्र 

(बुंदेली दरसन- 2016, अंक-09, प्रकाशक- नगरपालिका परिषद, हटा, जिला- दमोह, संपादक- डॉ. एम.एम. पाण्डे)

Tuesday 23 February 2016


रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह
विज्ञान और विकास
मानव सभ्यता के विकास के साथ विज्ञान का गहरा संबंध है। आज विकास के जिन आयामों को हम अपने आसपास देखते हैं, वे सभी विज्ञान के माध्यम से ही संभव हो सके हैं। अपने अंतरिक्ष कार्यक्रमों में हमने चंद्रमा ही नहीं, मंगल ग्रह तक उपस्थिति दर्ज कराई है। नगरों और महानगरों में ऊँची-ऊँची बहुमंजिला इमारतों में, सूचना और संचार क्रांति से समृद्ध नगरों और गाँवों में, उन्नत तकनीक से संपन्न उद्यमों और कृषिकार्यों में नए प्रयोगों को, विज्ञान के प्रभाव को देखा जा सकता है। विकास के ये सारे मानक विज्ञान के माध्यम से ही संभव हो सके हैं। दुनिया-भर में हो रहीं नित नवीन खोजों ने, नए-नए अनुसंधानों ने भौतिक विकास को इतनी गति प्रदान की है कि आज मानव जीवन अनेक सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण हो गया है। विज्ञान की भूमिका को भौतिक विकास के संदर्भ में अपने आसपास होते बदलावों के माध्यम से समझा जा सकता है।

विज्ञान और विकास के संबंध का एक अन्य पक्ष मानव के जिज्ञासु स्वभाव से भी जुड़ा हुआ है। भदंत आनंद कौसल्यायन अपने निबंध संस्कृति में लिखते हैं कि आसमान में चमकते तारों और ग्रह-नक्षत्रों को जानने की जिज्ञासा, मानव-जीवन को संस्कारों व गुणों से सुसंस्कृत करने वाले ज्ञान के प्रति जिज्ञासा ने विकास के उस पक्ष को समृद्ध किया है, जिसकी जरूरत हमेशा ही मानवता के लिए रही है। इस प्रकार विज्ञान की अनिवार्यता केवल भौतिक विकास के लिए ही नहीं रही है, बल्कि आध्यात्मिक और सहज मानवीय गुणों के विकास के लिए भी रही है। इस प्रकार विज्ञान को मानव सभ्यता के विकास की कहानी से जोड़कर भी देखा जा सकता है। आदिमानव या वनमानुष पेड़ों में रहा करता था। जब उसने धरती पर उतरकर मानव का रूप लिया, तब उसे अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा, क्योंकि वह अन्य जीवधारियों की तरह बलशाली नहीं था। उसके पास अन्य जीवधारियों की तरह शिकार करके अपना जीवन चलाने की शक्ति भी नहीं थी। वह शेर की तरह वन का राजा नहीं था। वह हाथी की तरह बलशाली, हिरन की तरह फुर्तीला या पक्षियों की तरह उड़ने में सक्षम भी नहीं था। अन्य जीवधारियों की तुलना में उसके पास जो शक्ति थी, वह थी उसके सोचने-विचारने की ताकत और उसके दो हाथ। मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीवधारी है, जो अपने दो पैरों के बल पर भाग सकता है और अपने दो हाथों से काम कर सकता है। मनुष्य ने अपने सोचने-विचारने की ताकत के बल पर ही न केवल धरती पर एकाधिकार स्थापित किया, वरन् दूसरे ग्रहों तक अपनी पहुँच बनाई। यह विज्ञान का ही चमत्कार है, जिसने आदिमानव को आज के जैसा सभ्य-सुसंस्कृत बनाया।

अगर भारतीय विज्ञान की परंपरा की चर्चा की जाए, तो कहा जा सकता है कि जिस समय यूरोपीय घुमक्कड़ जातियाँ अपनी बस्तियाँ बनाना सीख रही थीं, उस समय भारत में सिंधु घाटी के लोग सुनियोजित ढंग से नगर बनाकर रहने लगे थे। मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, चन्हूदड़ो, बनवाली, सुरकोटड़ा आदि स्थानों पर हुई खुदाई से पता लगता है कि इन नगरों के भवन पक्की ईंटों के बने हुए थे। यहाँ से जहाजों द्वारा विदेशी व्यापार होता था। यहाँ के नागरिक आवागमन के लिए बैलगाड़ियों का प्रयोग करना जानते थे। माप-तौल का उन्हें ज्ञान था। वे काँसे के बने औजारों का उपयोग करते थे। सोने-चाँदी के आभूषणों का प्रयोग किया जाना स्पष्ट करता है कि सिंधु घाटी सभ्यता के विकसित होने तक खनन विद्या की जानकारी भी सुलभ हो चुकी थी। ये लोग सूती और ऊनी वस्त्र बनाना भी भली-भाँति जानते थे। वैदिक काल में भारतीयों को 27 नक्षत्रों का ज्ञान हो चुका था। लगध नामक ऋषि ने ज्योतिष वेदांग में तत्कालीन खगोल विद्या का व्यापक वर्णन किया है। गणित और ज्यामिति के साथ ही वैमानिकी और चिकित्साशास्त्र आदि क्षेत्रों में विज्ञान के व्यापक विस्तार को देखा जा सकता है। आर्यभट, वरःमिहिर, ब्रह्मगुप्त, बोधायन, चरक, सुश्रुत, नागार्जुन, कणाद और सवाई जयसिंह तक प्राचीन भारतीय वैज्ञानिकों की लंबी परंपरा को देखा जा सकता है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति और सभ्यता को उस समय श्रेष्ठता की ऊँचाइयों पर स्थापित किया था। जर्मनी के प्रसिद्ध खगोलविज्ञानी कॉपरनिकस से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व आर्यभट ने पृथ्वी की गोलाकार आकृति और इसके अपनी धुरी पर घूमने की पुष्टि कर दी थी। आइजक न्यूटन द्वारा खोजे गए गुरुत्वाकर्षण के नियम से हजार वर्ष पहले ही आचार्य ब्रह्मगुप्त ने बता दिया दिया था कि धरती में अपना बल होता है, जो वस्तुओं को अपनी ओर खींचे रखता है। यूरोपीय विद्वान ब्रुक टेलर (Brook Taylor) ने गणित का जो ज्ञान सोलहवीं शताब्दी में दिया, उसे वरःमिहिर ने अपने ग्रंथ सूर्य सिद्धांत में छठी शताब्दी में ही बता दिया था। यूरोपीय गणितज्ञ लैम्बर्ट ने सन् 1761 में पाई के तर्कहीन (Irrational) होने का सिद्धांत दिया था, जबकि आर्यभट ने लैम्बर्ट से लगभग ग्यारह सौ वर्ष पूर्व ही वृत्त की परिधि और व्यास के अनुपात (पाई) का मान 3.1416 निकालकर सिद्ध कर दिया था कि पाई का यह मान अतुलनीय (Irrational) है। कणाद ऋषि ने छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ही सिद्ध कर दिया था कि विश्व का हर पदार्थ परमाणुओं से मिलकर बना है। छठी शताब्दी में ही ब्रह्मगुप्त ने शून्य को प्रयोग में लाने के नियम निर्धारित कर दिए थे। पेल इक्वेशन के नाम से प्रसिद्ध वर्ग समीकरण का हल जॉन पेल से लगभग हजार वर्ष पूर्व आचार्य ब्रह्मगुप्त ने दे दिया था।
चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में भी भारत का गौरवशाली अतीत रहा है। चिकित्सा विज्ञान की यह सुदीर्घ परंपरा अथर्ववेद में विकसित हो गई थी। महर्षि चरक द्वारा लिखी गई चरक संहिता काय चिकित्सा का पहला ग्रंथ है। जीवक कौमारभच्च बालरोग विशेषज्ञ थे। अनेक बौद्ध ग्रंथों में उनके चिकित्सा ज्ञान की प्रशंसा मिलती है। वे भगवान बुद्ध के निजी वैद्य भी थे। सुश्रुत संहिता के रचयिता सुश्रुत को आज सारे संसार में प्लास्टिक सर्जरी का जनक माना जाता है। महर्षि पतंजलि ने योग के माध्यम से शरीर को रोगमुक्त रखने का उपाय बताया था। आज सारा संसार योग की शक्ति को स्वीकार कर रहा है। चिकित्सा विज्ञान के साथ ही वास्तु, स्थापत्य और शिल्प के क्षेत्र में भारत की प्रगति को सारा संसार स्वीकार करता है। कुतुबमीनार के निकट स्थापित महरौली का लौह स्तंभ लगभग 1700 वर्षों से ज्यों-का-त्यों खड़ा है। उसमें जंग का नामोनिशान तक नहीं है। कोणार्क के सूर्य मंदिर परिसर में स्थापित लौह स्तंभ भी इसी प्रकार का है।
नालंदा, तक्षशिला और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के साथ ही ओदांतपुरी (वर्तमान बिहार), नागार्जुनकोंडा (वर्तमान आंध्रप्रदेश), जगद्दला (वर्तमान पश्चिम बंगाल), वलभी (वर्तमान गुजरात), वाराणसी (वर्तमान उत्तरप्रदेश), कांचीपुरम (वर्तमान तमिलनाडु), मणिखेत (वर्तमान कर्नाटक), शारदापीठ (वर्तमान कश्मीर), पुष्पगिरि (वर्तमान उड़ीसा) और सोमपुरा (वर्तमान बांग्लादेश) आदि पुरातन भारत के ऐसे महान शिक्षाकेंद्र हैं, जिन्होंने विश्व को अपार ज्ञानराशि वितरित की है। ज्ञान-विज्ञान-दर्शन की अनेक शाखाओं का विस्तार इन्हीं शिक्षाकेंद्रों से हुआ। इसी कारण पाश्चात्य मूर्धन्य मनीषी लुई जैकलिएट ने भारत के प्रति श्रद्धा प्रकट करते हुए कहा है कि- ऐ प्राचीन वसुंधरे! मनुष्य जाति का पालन करने वाली, पोषणदायिनी तुझे प्रणाम है। श्रद्धा, प्रेम, कला और विज्ञान को जन्म देने वाली भारत भूमि को प्रणाम है।’ (संदर्भ- आर्य संस्कृति का प्रथम विश्वविद्यालय विक्रमशिला’, विक्रमशिला का इतिहास, परशुराम ठाकुर ब्रह्मवादी, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2013, पृ. 71)
भारत के संदर्भ में विज्ञान और विकास को, इनके मध्य संबंधों को अतीत से जुड़े इन तथ्यों के माध्यम से समझा जा सकता है। ये तथ्य भारतीय परंपरा में विज्ञान और विकास के अंतःसंबंधों के प्रतिमान हैं। मध्ययुग की शुरुआत और फिर भारत में व्यापारी के रूप में ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन तक का अंतराल अनेक उतार-चढ़ावों से भरा रहा। इस दौर में विज्ञान और विकास का क्रम वैसा स्मरणीय नहीं कहा जा सकता, जैसा अपने अतीत में था। ईस्ट इंडिया कंपनी के आगमन के साथ ही भारत ने उस औद्योगीकरण को जाना, जिसे पश्चिमी देश पहले ही अपना चुके थे। पाश्चात्य देशों के विज्ञान को पुरातन भारतीय परंपरा का ही आयातित संस्करण कहा जा सकता है, क्योंकि प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक परंपरा को प्रायः आधार बनाकर यांत्रिकी या मशीनीकरण का विकास पश्चिमी देशों में हुआ था। प्राचीन भारतीय परंपरा ने विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में अत्यंत तीव्र विकास अवश्य किया था, किंतु यांत्रिक या मशीनी स्तर पर बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं की थी। आधुनिक और पुरातन वैज्ञानिक परंपरा के बीच बड़ा अंतर यांत्रिकी या मशीनीकरण के विकास का था। यांत्रिकी के विकास से विज्ञान में अनेक रास्ते खुले। रसायन, भौतिकी, जीवविज्ञान और चिकित्सा विज्ञान की विभिन्न शाखा-प्रशाखाओं के विस्तार ने एक ओर मानव जीवन को सुखमय बनाया, तो दूसरी ओर विभीषक हथियारों ने, मानवताविरोधी अनुसंधानों ने जीवन को भयग्रस्त भी बना दिया।
स्वाधीन भारत ने आधुनिक विज्ञान को स्वीकार करते हुए अपने विकास के लिए, और वैश्विक स्तर पर अपनी प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए संकल्पबद्ध होकर कार्य किया है। डॉ. होमी जहाँगीर भाभा, डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर, डॉ. सी.वी.रमण, डॉ. एम.एन. साहा, डॉ. जगदीशचंद्र बोस, डॉ. नॉरमन बोरलाग, डॉ. बीरबल साहनी और डॉ. हरगोविंद खुराना से लगाकर डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम तक भारतीय वैज्ञानिकों की ऐसी समृद्ध परंपरा देखी जा सकती है; जिन्होंने कृषि, चिकित्सा, सूचना-संचार, परमाणु ऊर्जा, अंतरिक्ष कार्यक्रम और रक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों को न केवल समृद्ध किया है, वरन् वैश्विक स्तर पर भारत की प्रतिष्ठा को भी स्थापित किया है। अत्यंत कम लागत में मंगल ग्रह की यात्रा करके भारत ने अपनी मेधा से विश्व को चमत्कृत कर दिया है।
विज्ञान का अर्थ होता है- विशिष्ट ज्ञान। यह विशिष्ट ज्ञान ही विकास को गति देता है और विकास की कामना ही विशिष्ट ज्ञान की खोज के लिए प्रेरित करती है। इस तरह विज्ञान और विकास एक-दूसरे के पूरक होते हैं, अन्योन्याश्रित होते हैं। भारतीय परंपरा में विज्ञान और विकास के साथ नीति, मर्यादा, आस्था और धर्मभीरुता जैसे गुण भी जुड़े रहे हैं। भारतीय संदर्भ में विज्ञान की पुरातन परंपरा जहाँ इन गुणों से जुड़ी रही है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक विज्ञान के साथ भी इन गुणों का समावेश देखने को मिलता है। इसी कारण अतीत से लगाकर वर्तमान तक भारतीय परंपरा उस विकास को सदा से नकारती रही है, जो मानवता के लिए, सृष्टि के लिए और धर्म-आस्था के लिए घातक हो। शुद्ध भौतिकता को बढ़ावा देने के प्रश्न पर ही धर्म और विज्ञान में विरोध की बात उठती है। एक ओर भौतिक विकास भी आवश्यक है, तो दूसरी ओर आध्यात्मिक विकास भी अनिवार्य है। पाश्चात्य परंपरा में विज्ञान और विकास के संबंधों की घनिष्ठता के बीच आध्यात्मिक और नैतिक मूल्य दूर ही रह जाते हैं और इसी कारण वहाँ के समाजों में अनेक प्रकार की विसंगतियाँ पैदा होने लगती हैं। आज की जीवनशैली में भारत देश भी अनेक विसंगतियों, सामाजिक समस्याओं और विकृतियों से अगर जूझ रहा है, तो उसके पीछे पाश्चात्य प्रभाव ही है।
हिंदी के जाने-माने साहित्यकार धर्मवीर भारती ने अपने नाटक अंधायुग में व्यास के मुख से ब्रह्मास्त्र के भयानक खतरों का वर्णन कराया है। अंधायुग में व्यास जी कहते हैं कि-
लेकिन नराधम / ये दोनों ब्रह्मास्त्र अभी / नभ में टकरायेंगे / सूरज बुझ जाएगा। / धरा बंजर हो जाएगी।।
इन पंक्तियों में ब्रह्मास्त्र के खतरों का जो संकेत दिया गया है, उसमें आधुनिक युग के विज्ञानबोध को देखा जा सकता है। इन पंक्तियों में खतरा परमाणु हथियारों का है। परमाणु हथियारों का ध्वंसात्मक प्रयोग आज की पीढ़ी के लिए बड़ा खतरा है और धर्मवीर भारती की इन पंक्तियों में इस खतरे को देखा जा सकता है। विज्ञान के माध्यम से ऐसा अंधा विकास भारतीय परंपरा का नहीं है। इसी कारण विज्ञान और विकास के साथ धर्म को जोड़ने की बातें की जाने लगीं हैं। विकास की गति को रोका नहीं जा सकता और विकास के लिए विज्ञान अनिवार्य है। अगर विज्ञान को नैतिकता, मानवता और आध्यात्मिकता के बंधन में नहीं रखा जाएगा, तो उसके परिणाम व्यक्ति से लगाकर समाज और राष्ट्र तक के लिए घातक होंगे। आज 26/11 की विभीषक घटना से लगाकर एक व्यक्ति के मन में पनपती हताशा, कुंठा, हिंसा, आक्रोश और क्रूरता की भावनाएँ विज्ञान और विकास के बीच धर्म के तत्त्व के लुप्त हो जाने के कारण उत्पन्न हो रही हैं। वैश्वीकरण की प्रक्रिया में जिस तरह गाँव-कस्बे से लगाकर नगरों-महानगरों तक, देश के कोने-कोने से विदेशों तक अपसंस्कृति का विस्तार होता जा रहा है, उसके पीछे आधुनिक विज्ञान से संचालित विकास की अनियंत्रित गति के दुष्परिणाम ही हैं। कोरे भौतिकतावाद पर आधारित विज्ञान और उससे होते विकास के दुष्परिणामों को नियंत्रित करने की सामर्थ्य आध्यात्मिकता में ही है। परमपावन चौदहवें दलाई लामा की प्रेरणा से स्थापित माइंड एंड लाइफ इंस्टीट्यूट और साइंस, रिलीजन एंड डेवलपमेंट जैसी परियोजनाएँ इस दिशा में कार्य कर रहीं हैं। सन् 1987 से परमपावन दलाई लामा स्वयं इस दिशा में कार्य कर रहे हैं। उनका कथन है कि विज्ञान, तकनीक और भौतिक विकास हमारी सारी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। हमें अपने भौतिक विकास को करुणा, सहिष्णुता, क्षमा, संतोष और आत्मानुशासन जैसे मानवीय मूल्यों के साथ जोड़ने की आवश्यकता है, जिससे हमारा भौतिक और आंतरिक विकास एकसाथ हो सके। इसी में विकास की पूर्णता है और यही विज्ञान की सार्थकता है। विज्ञान और विकास के संदर्भ में यह पुरातन भारतीय पंरपरा ही विश्व के लिए कल्याण का मार्ग सुलभ करा सकती है।  
डॉ. राहुल मिश्र
        (आकाशवाणी, लेह से दिनांक 09 नवंबर, 2015 को प्रातः 0910 बजे प्रसारित)