Showing posts with label संस्कृति. Show all posts
Showing posts with label संस्कृति. Show all posts

Monday 19 May 2014

सुमित्रानंदन पंत : व्यक्तित्व और कृतित्व



सुमित्रानंदन पंत : व्यक्तित्व और कृतित्व

भारत माता
ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला सा आँचल
गंगा यमुना में आँसू जल,
मिट्टी की प्रतिमा
उदासिनी
भारत माता
ग्राम वासिनी
और
धरती का आँगन इठलाता
शस्य श्यामला भू का यौवन
अंतरिक्ष का हृदय लुभाता
जौ गेहूँ की स्वर्णिम बाली
भू का अंचल वैभवशाली
इस अंचल से चिर अनादि से
अंतरंग मानव का नाता...
जैसी सुंदर और मनमोहक कविताएँ लिखने वाले, प्रकृति की सुंदरता को कविताओं में उतारने वाले सुमित्रानंदन पंत हिंदी के जाने-माने कवि रहे हैं। सुमित्रानंदन पंत का जन्म उत्तराखंड में अल्मोड़ा जिले के कौसानी नामक गाँव में 20 मई, सन् 1900 ई. को हुआ था। जन्म के छह घंटे बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। उनकी दादी ने उनका पालन-पोषण किया। वे सात भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। उनके पिता गंगादत्त कौसानी में एक चाय बागान के प्रबंधक थे। उनके बचपन का नाम गुसाई दत्त था। उनकी प्राथमिक शिक्षा कौसानी के वर्नाक्युलर स्कूल में हुई। वे ग्यारह वर्ष की आयु में अल्मोड़ा आ गए, जहाँ गवर्नमेंट कॉलेज में उन्होंने हाईस्कूल में प्रवेश लिया। उन दिनों अल्मोड़ा में साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ लगातार चलती रहती थीं। पंत जी उनमें भाग लेने लगे। उन्होंने अल्मोड़ा से प्रकाशित होने वाली हस्तलिखित पत्रिका सुधाकर और अल्मोड़ा अखबार के लिए रचनाएँ लिखना शुरू कर दिया। वे सत्यदेव जी द्वारा स्थापित शुद्ध साहित्य समिति नामक पुस्तकालय से पुस्तकें लाकर पढ़ते, जिससे उन्हें भारत के विभिन्न विद्वानों के साथ ही विदेशी भाषाओं के साहित्य के अध्ययन का अवसर सुलभ हो गया था। वे शुरुआत में अपने परिचितों और संबंधियों को कविता में चिट्ठियाँ भी लिखा करते थे। अल्मोड़ा में उनका परिचय हिंदी के प्रसिद्ध नाटककार गोविंद वल्लभ पंत से हुआ। इसके साथ ही वे श्यामाचरण दत्त पंत, इलाचंद्र जोशी और हेमचंद्र जोशी के संपर्क में आए। इन साहित्यकारों के संपर्क में आकर सुमित्रानंदन पंत के व्यक्तित्व का विकास हुआ। अल्मोड़ा में पंत जी को ऐसा साहित्यिक वातावरण मिला, जिसमें उनकी वैचारिकता का विकास हुआ। वैचारिकता के विकास के इस क्रम में उन्होंने सबसे पहले अपना नाम बदला। रामकथा के किरदार लक्ष्मण के व्यक्तित्व से, लक्ष्मण के चरित्र से प्रभावित होकर उन्होंने अपना नाम गुसाई दत्त से बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। बाद में पंत जी ने नेपोलियन बोनापार्ट के युवावस्था के चित्र से प्रभावित होकर लंबे और घुंघराले बाल रख लिए।
 सन् 1918 में वे अपने भाई के साथ वाराणसी आ गए और क्वींस कॉलेज में अध्ययन करने लगे। क्वींस कॉलेज से माध्यमिक की परीक्षा पास करके वे इलाहाबाद आ गए और म्योर कॉलेज में इंटरमीडिएट के छात्र के रूप में अध्ययन करने लगे। इलाहाबाद आकर वे गांधी जी के संपर्क में आए। सन् 1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने म्योर कॉलेज को छोड़ दिया और आंदोलन में सक्रिय हो गए। वे घर पर रहकर और अपने प्रयासों से हिंदी, संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेजी साहित्य का अध्ययन करने लगे।
सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति के उपासक और प्रकृति की सुंदरता का वर्णन करने वाले कवि के रूप में जाना जाता है। पंत जी को ऐसी कविताएँ लिखने की प्रेरणा उनकी अपनी जन्मभूमि से ही मिली। जन्म के छह-सात घंटे बाद ही माँ से बिछुड़ जाने के दुख ने पंत जी को प्रकृति के करीब ला दिया था। प्रकृति की रमणीयता ने, प्रकृति की सुंदरता ने पंत जी के जीवन में माँ की कमी को न केवल पूरा किया, बल्कि अपनी ममता भरी छाँह में पंत जी के व्यक्तित्व का विकास किया। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत जीवन-भर प्रकृति के विविध रूपों को, प्रकृति के अनेक आयामों को अपनी कविताओं में उतारते रहे। पंत जी का जीवन-दर्शन, उनकी विचारधारा, उनकी मान्यताएँ और उनकी स्थापनाएँ प्रकृति के विभिन्न रूपों को साथ लेकर पनपती और विकसित होती रहीं। बर्फ से ढके पहाड़ों और उनके नीचे पसरी कत्यूर घाटी की हरी-भरी चादर; पर्वतों से निकलते झरनों; नदियों; आड़ू, खूबानी, चीड़ और बांज के सुंदर पेड़-पौधों और चिड़ियों-भौंरों के गुंजार से भरी-पूरी उनकी मातृभूमि कौसानी ने उन्हें माँ की गोद का जैसा नेह-प्रेम दिया। इन सबके बीच पंत जी का प्रकृति-प्रेमी कवि अपनी अभिव्यक्ति पाया। जिस तरह एक बच्चे के लिए उसकी माँ ही सबकुछ होती है, उसी तरह पंत जी के लिए प्रकृति ही सबकुछ थी। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत को प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है। प्रकृति-प्रेम का ही प्रभाव था कि जब वे चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तब सात वर्ष की उम्र में ही कविताएँ रचने लगे थे। गिरजे का घंटा, बागेश्वर का मेला, वकीलों के धनलोलुप स्वभाव और तंबाकू का धुआँ आदि उनकी शुरुआती दौर की कविताएँ हैं।
सुमित्रानंदन पंत को हिंदी साहित्य के छायावाद युग के प्रमुख कवि के रूप में जाना जाता है। 18वीं शती. के अंत में परंपरावाद की प्रतिक्रिया के रूप में स्वच्छंदतावाद या रोमेंटिसिज़्म का जन्म हुआ। यूरोप में स्वच्छंदतावाद रूसो, वाल्टेयर, गेटे, कीट्स और शैली आदि के द्वारा रचे गए लिरिकल बैलेड्स के माध्यम से विकसित हुआ। अंग्रेजी साहित्य के रोमेंटिसिज़्म का प्रभाव गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के माध्यम से बांग्ला साहित्य पर पड़ा। बांग्ला साहित्य से होता हुआ यह प्रभाव हिंदी साहित्य में आया। रोमेंटिसिज़्म का यह प्रभाव सुमित्रानंदन पंत की काव्य-साधना पर पड़ा। पंत जी के साथ ही जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा की काव्य-साधना पर भी इसका प्रभाव पड़ा। अंग्रेजी साहित्य के रोमेंटिसिज़्म ने भारतीय सांस्कृतिक चेतना के साथ मिलकर हिंदी में एक नए युग की शुरुआत की। सन् 1918 से 1938 तक के कालखंड में हिंदी साहित्य में अपना व्यापक प्रभाव डालने वाला यह युग छायावाद के नाम से जाना जाता है। छायावाद के प्रतिनिधि कवि के रूप में सुमित्रानंदन पंत की कविताओं में भारतीय सांस्कृतिक चेतना का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इसके साथ ही स्वतंत्रता पाने की तीव्र इच्छा, बंधनों से मुक्ति, विद्रोह के स्वर और अपनी बात कहने के नए तरीकों को पंत जी की कविताओं में देखा जा सकता है। छायावाद के अन्य कवियों; जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और महादेवी वर्मा की तरह सुमित्रानंदन पंत की कविताओं में प्रकृति-प्रेम के माध्यम से सौंदर्यवाद और मानववाद की भावनाओं को देखा जा सकता है। पंत जी जब अपनी कविताओं में भारत के ग्रामीण समाज का चित्रण करते हैं, तब वे भारत के ग्रामीण समाज के दुखों, कष्टों, भेदभावों और गाँव के लोगों के सुख-सुविधाविहीन जीवन को भी प्रकट करते हैं। वे अमीर और गरीब के बीच के भेद को मिटाने की बात भी कहते हैं। वे सामाजिक समरसता की स्थापना की बात अपनी कविताओं में कहते हैं। वे अमीर और गरीब का भेद भी मिटाते हैं। वे कहते हैं-
अस्थि  मांस  के इन जीवों का ही यह जग घर,
आत्मा का अधिवास न यह, यह सूक्ष्म अवश्वर।
न्योछावर   है   आत्मा  नश्वर   रक्त   मांस  पर,
जग  का  अधिकारी  है  वह,  जो  है  दुर्बलतर।
पंत जी आज के अभावग्रस्त, शोषित, दलित और साधनविहीन समाज के दुखों और कष्टों को बड़ी गहराई तक उतरकर देखते हैं। इन सबके बीच वे अपराध और आतंक से भरी देश की स्थितियों को भी प्रकट करते हैं। उनकी यह भावधारा राष्ट्रीय स्तर पर भी है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी है। पंत जी की इस भावधारा के पीछे उनके मार्क्सवादी चिंतन को देखा जा सकता है। वे जीवन के विकास के लिए एकता, समता, श्रद्धा, परिश्रमशीलता और मन की निर्मलता को महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे इसके लिए ऐसी क्रांति की बात करते हैं, जो मानवता के धरातल पर विकसित हो। वे ऐसी क्रांति की बात करते हैं, जो विभिन्न प्रकार के मतभेदों को भुलाकर नेह-प्रेम से भरे देश का और साथ ही सारे संसार का निर्माण कर सके। इसी कारण सुमित्रानंदन पंत के काव्य-संसार को सत्यं, शिवं, सुंदरम् की साधना का काव्य कहा जाता है।
छायावाद की प्रमुख कवयित्री महादेवी वर्मा की कविताओं में जिस प्रकार का रहस्यवाद और बौद्ध-दर्शन का प्रभाव है, वैसा भले ही पंत जी की कविताओं में न दिखता हो, फिर भी भारतीय सांस्कृतिक चेतना के रूप में इनकी महत्त्वपूर्ण उपस्थिति पंत जी की कविताओं में दिखाई पड़ती है। सत्य, शांति, अहिंसा, दया, क्षमा और करुणा जैसे मानवीय गुणों की चर्चा बौद्ध धर्म-दर्शन में प्रमुख रूप से होती है। इन्हें पंत जी की कविताओं में भी देखा जा सकता है। वे लिखते हैं-
बिना दुख के सब सुख निस्सार, बिना आँसू के जीवन भार, 
      दीन  दुर्बल  है  रे  संसार,  इसी  से  दया,  क्षमा और प्यार।
इसके साथ ही दो लड़के नामक कविता में वे लिखते हैं-
क्यों न एक हो  मानव मानव सभी परस्पर,
मानवता  निर्माण  करे  जग  में  लोकोत्तर!
जीवन  का  प्रासाद  उठे  भू  पर  गौरवमय,
मानव का साम्राज्य बने,--मानवहित निश्चय।
सुमित्रानंदन पंत ने अध्यात्म और दर्शन के साथ विज्ञान के समन्वय की बात अपनी कविताओं में कही है। इनके आपसी समन्वय के माध्यम से वे मानवता के कल्याण की कामना करते हैं। उनका मानना है कि ये युग-शक्तियाँ हैं और युग-उपकरण हैं, जिनका प्रयोग अगर मानवता के कल्याण के लिए किया जाएगा तो सारे विश्व का कल्याण होगा, दीन-दुखियों और जरूरतमंदों का कल्याण होगा। वे लिखते हैं-
नम्र शक्ति वह, जो सहिष्णु हो, निर्बल को बल करे प्रदान,
मूर्त प्रेम, मानव मानव हों  जिसके लिए  अभिन्न  समान!
वह  पवित्रता, जगती  के  कलुषों  से जो  न  रहे  संत्रस्त,
वह  सुख,  जो   सर्वत्र  सभी   के   लिए   रहे   संन्यस्त!
रीति नीति, जो विश्व प्रगति में बनें नहीं जड़ बंधन-पाश,
--ऐसे उपकरणों  से  हो भव-मानवता का पूर्ण विकास!
सुमित्रानंदन पंत अपनी युवावस्था में ही गांधी जी के सिद्धांतों से प्रभावित हो गए थे। उनकी काव्य-यात्रा में गांधी-दर्शन का प्रभाव इसी कारण प्रमुख रूप से दिखाई देता है। सन् 1964 में पंत द्वारा रचित लोकायतन प्रबंध-काव्य गांधी दर्शन और चिंतन को बड़े ही भावनात्मक ढंग से प्रस्तुत करता है। 12 मार्च, 1930 से शुरू हुए गांधी जी के नमक सत्याग्रह ने पंत जी को सबसे ज्यादा प्रभावित किया था। वे गांधी जी को आधुनिक युग का ऐसा मसीहा मानते थे, जिनके जरिए देश में नई क्रांति आ सकती थी, जिनसे सारे देश को उम्मीद थी। लगभग सात सौ पृष्ठों का यह महाकाव्य पंत जी ने अपने पिता को समर्पित किया। इस महाकाव्य पर उन्हें सोवियतलैंड नेहरू पुरस्कार मिला और उन्हें उत्तरप्रदेश शासन द्वारा भी सम्मानित किया गया। सुमित्रानंदन पंत अपने जीवन में कई दार्शनिकों-चिंतकों के संपर्क में आए। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर और श्री अरविंद के प्रति उनकी आस्था थी। वे अपने समकालीन कवियों- सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और हरिवंशराय बच्चन से भी प्रभावित हुए। हरिवंशराय बच्चन के पुत्र और सदी के महानायक अमिताभ बच्चन को अपना यह नाम भी पंत जी से ही मिला था।
पंत जी की रचनाओं में विचारधारा, दर्शन और चिंतन के स्तर पर ऐसी प्रगतिशीलता नजर आती है, जिसमें प्रकृति के बदलावों की तरह एक नयापन देखा जा सकता है। समकालीन कविता के क्षेत्र में वे एकमात्र कवि हैं, जिनका प्रकृति-चित्रण अनूठा है। उनका प्रकृति-चित्रण प्रगतिशीलता को साथ लेकर चलता है। वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, उत्तरा, युगपथ, चिदंबरा, कला और बूढ़ा चाँद तथा गीतहंस आदि काव्य-कृतियों के साथ ही पंत जी ने कुछ कहानियाँ भी लिखीं हैं। उन्होंने हार शीर्षक से एक उपन्यास की रचना भी की है। इसके साथ ही साठ वर्ष : एक रेखांकन नाम से पंत जी ने आत्मकथा भी लिखी है। सुमित्रानंदन पंत को 1961 में पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया गया। सन् 1968 में चिदंबरा काव्य-कृति पर पंत जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। साहित्य अकादमी पुरस्कार सहित अनेक सम्मानों और पुरस्कारों से पंत जी को सम्मानित किया गया। उन्होंने सन् 1950 से 1957 तक आकाशवाणी, इलाहाबाद में हिंदी चीफ प्रोड्यूसर के रूप में अपनी सेवाएँ दीं। इसके बाद वे साहित्य सलाहकार के रूप में आकाशवाणी से जुड़े रहे। इसी दौरान 15 सितंबर, सन् 1959 को भारत में टेलिविजन इंडिया नाम से भारत में टेलिविजन प्रसारण शुरू हुआ। इसे दूरदर्शन नाम देने वाले भी सुमित्रानंदन पंत ही थे।
हिंदी साहित्य के विलियम वर्ड्सवर्थ और प्रकृति के सुकुमार कवि के रूप में प्रसिद्ध सुमित्रानंदन पंत ने लगभग पचास वर्षों की अपनी साहित्य-सेवा के माध्यम से हिंदी के काव्य-जगत् को समृद्ध किया। आबशारों, नदियों, पेड़-पर्वतों और प्रकृति के ऐसे ही तमाम सुंदर चित्रों के बीच समन्वय, सौहार्द, मानवता, क्रांति और नवजागरण की आवाज उठाने वाले इस ऊर्जावान, युग प्रवर्तक, भावुक और संवेदनशील कवि ने 28 दिसंबर सन् 1977 को इलाहाबाद (उत्तरप्रदेश) में  हमसे हमेशा के लिए विदाई ले ली। सुमित्रानंदन पंत का हिंदी साहित्य में ही नहीं, बल्कि विश्व साहित्य में भी अद्वितीय स्थान है। सुमित्रानंदन पंत की काव्य-चेतना आशा और आस्था के साथ विकास की नई दिशा देने और बिना डरे हुए मानवता के कल्याण की प्रेरणा देती रहेगी।      
नव आशा से कुसुमित हो मग,
नव अभिलाषा से मुखरित पग
नव विकासमय, नवल प्रगतिमय,
निर्भय चरण धरो!
प्राणों में निखरो!


डॉ. राहुल मिश्र

(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह, दिनांक- 19. 05. 2014, प्रातः 0830 बजे)

Monday 14 April 2014

आल्हा : बुंदेलखंड की अनूठी पहचान
ढोलक की थाप का साथ देती मंजीरे की धुन के साथ गाया जाने वाला वीरगीतात्मक काव्य आल्हा बुंदेलखंड की अनूठी तहजीब का बेमिसाल नगीना है। आल्हा में यूँ तो महोबा के दो वीरों की कथा है, किंतु आल्हा के गायन की अपनी विशिष्ट शैली के कारण यह दूर-दूर तक प्रसिद्धि पाया है।
लौकिक रास परंपरा की आदिकालीन रचना जगनिक कृत परमाल रासो के आधार पर प्रचलित आल्हा गीतों की उत्पत्ति की कथा जितनी रोचक है, उतना ही मर्मस्पर्शी है, इनका विकास और विस्तार भी। गौरवशाली अतीत से परिचित कराने के साथ ही समाज को एक सूत्र में बाँध सकने की क्षमता आल्हा गीतों में है।
जगनिक कृत परमाल रासो की प्राचीन पांडुलिपि अप्राप्य है और इस कारण यह माना जाता है कि जगनिक की यह रचना प्रायः लोक-कंठों में जीवित रही। सन् 1865 के आसपास एक अंग्रेज कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने आल्हा गवैयों की सहायता से वाचिक परंपरा में जीवित आल्हा को लिपिबद्ध    कराया। ऐसा ही प्रयास विसेंट स्मिथ ने किया। बाद में सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन के संपादन में सन् 1923 में डब्ल्यू. वाटरफील्ड द्वारा हिंदी से अंग्रेजी में आल्हा का अनूदित संस्करण ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से छपा। लोकमहाकाव्य आल्हा को लिपिबद्ध करके संरक्षित और संकलित करने का यह संभवतः पहला प्रयास था। इसके बाद आल्हा के कई संस्करण अलग-अलग छापाखानों में छपे। आज भी गँवई-गाँव के मेलों में आल्हा की किताबें बिकती हुई देखी जा सकती हैं।
बनावट के लिहाज से इसमें बावन खंड हैं। संयोगिता स्वयंवर, परमाल का ब्याह, महोबा की लड़ाई, गढ़ मांडो की लड़ाई, नैनागढ़ की लड़ाई, बिदा की लड़ाई, मछलाहरण, मलखान का ब्याह, गंगाघाट की लड़ाई, ब्रह्मा का ब्याह, नरवरगढ़ की लड़ाई, ऊदल की कैद, चंद्रावल की चौथी लड़ाई, चंद्रावल की विदा, इंदलहरण, संगलदीप की लड़ाई, आल्हा की निकासी, लाखन का ब्याह, गाँजर की लड़ाई, पट्टी की लड़ाई, कोट-कामरू की लड़ाई, बंगाले की लड़ाई, अटक की लड़ाई, जिंसी की लड़ाई, रूसनी की लड़ाई, पटना की लड़ाई, अंबरगढ़ की लड़ाई, सुंदरगढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की लड़ाई, सिरसागढ़ की दूसरी लड़ाई, भुजरियों की लड़ाई, ब्रह्मा की जीत, बौना चोर का ब्याह, धौलागढ़ की लड़ाई, गढ़चक्कर की लड़ाई, देवा का ब्याह, माहिल का ब्याह, सामरगढ़ की लड़ाई, मनोकामना तीरथ की लड़ाई, सुरजावती हरण, जागन का ब्याह, शंकरगढ़ की लड़ाई, आल्हा का मनौआ, बेतवा की लड़ाई, लाखन और पृथ्वीराज की लड़ाई, ऊदल हरण, बेला को गौना, बेला के गौना की लड़ाई, बेला और ताहर की लड़ाई, चंदनबाग की लड़ाई, जैतखंभ की लड़ाई और बेला सती। आल्हा के ये बावन खंड आल्हा गायकों को समग्रतः याद नहीं रहते। वैसे भी अब अल्हैतों की परंपरा सिमटती जा रही है। अब आल्हा के कुछ प्रचलित खंड ही प्रायः गाए जाते हैं।
बनावट की दृष्टि से देखा जाए तो आल्हा में लगभग सत्रह प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है। इसमें कहीं-कहीं संस्कृत के श्लोक हैं तो कहीं पर गद्य का प्रयोग भी हुआ है। वीर रस की प्रधानता होने के कारण इसका गायन भी ओजपूर्ण होता है। हर घटना और युद्ध या वीरता के बखान के लिये सुर और ताल के विशिष्ट उतार-चढ़ाव और अनूठी शैली श्रोताओं को न केवल मंत्रमुग्ध कर देती है, वरन् कथा का सटीक और जीवंत चित्रण भी कर देती है।
लोकमहाकाव्य आल्हा में आल्हा को ही नायकत्व का दर्जा प्राप्त है, क्योंकि वह दूसरे खंड से लेकर बावनवें खंड तक मुख्य भूमिका अदा करता है। वह वीरता, गंभीरता, धैर्य और साहस जैसे उदात्त गुणों का स्वामी है। राजा परमाल का व्यक्तित्व उनकी पदवी से मेल नहीं खाता है। वे राजा होने के बावजूद कायरता, स्वार्थ और भीरुता का प्रदर्शन करते हैं। परमाल की पत्नी मल्हना या मलना, आल्हा-ऊदल की माँ दिवला, मछला और बेला जैसे नारी पात्र भी हैं, जो मध्ययुगीन भारतीय महिलाओं का आदर्श प्रस्तुत करती हैं और वीरांगनाएँ भी हैं। आल्हा, ऊदल, मलखान और इंदल के चरित्र को विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिनके प्रश्रय में कथा का विस्तार होता है।
धर्म, अध्यात्म और संस्कृति का समन्वय आल्हा में स्पष्ट परिलक्षित होता है। आल्हा के गायन की शुरुआत में की जाने वाली स्तुति विभिन्न मत-मतांतरों के मध्य समन्वय स्थापित करती प्रतीत होती है—
सुमिर भवानी दाहिने, सनमुख रहे गनेस ।
पाँच देव रक्षा करें, ब्रह्म, विष्णु, महेस।।  
काली सुमिरौं कलकत्ते की, जगदंबा के चरन मनाय।
अन्नपूर्णा तिरवा वाली, जगमग जोत रही  छहराय।
सुमिर भवानी कलपी वाली, मनिया सुमिर महोबे क्यार।।
स्थानीय देव-देवियों की उपस्थिति आल्हा की लोकग्राह्यता की प्रतीक बन जाती है। यह लोकग्राह्यता वर्ण और जातियों के समन्वय और विभेद को मिटा देने के कारण भी है।
सगुन विचारै बनिया बाटू, बाम्हन लेय साइत विचार,
हम क्षत्रिय लोहा लादे हैं, सो हम बेचें  कौन  बजार।
नाई-बारी हो तुम नाहीं, घर के भइया  लगौ  हमार।
मान महोबै को रख लेबौ, दोनों हाथ  करौ तलवार।।
इसके साथ ही आल्हा में नीति व ज्ञान की बातें भी वर्णित हैं। यथा—
पानी जैसो बुलबुला है जो छन माँहीं जैहे  बिलाय,
सदा तुरैया ना वन फूलै यारों सदा न सावन होय।
सदा न मइया की कुक्षा में धरिहौ बार-बार अवतार,
जस अम्मर कर लेव जुद्ध में, काया छार-छार हुइ जाय।।
ऐसी ज्ञान व नीति की बातें भले ही कथा-विस्तार में महत्त्वपूर्ण स्थान न रखती हों, किंतु नीति व ज्ञान की अनूठी-अनौपचारिक पाठशाला के रूप में समाज के बड़े तबके को व्यावहारिकता सिखाने में बहुत खास भूमिका अदा करती है।
मनोरंजन और समय व्यतीत करने के साधन के रूप में आल्हा का गायन शिक्षाप्रद भी हो जाता था। इसमें अंतर्निहित ढेरों कथाएँ, गल्प और आख्यान प्रकीर्ण साहित्य की महत्त्वपूर्ण धरोहर हैं।
मध्ययुगीन सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और धार्मिक स्थितियों के चित्र भी आल्हा में उभरते हैं। सिद्ध और नाथ पंथियों का प्रभाव, जादू-टोने, ज्योतिष, तंत्र और स्वप्न-अपशकुन, पुनर्जन्म तथा भूत-प्रेत आदि की उपस्थिति आल्हा को समग्रता प्रदान करती है। यही सब इसकी व्यापकता और स्वीकार्यता के केंद्र में है।
समूचे उत्तर भारत में, बुंदेलखंड, ब्रज, राजस्थान, बैसवारा, अवध और भोजपुर में विभिन्नताओं के साथ आल्हा गायन की, अल्हैती की व्यापक परंपरा प्रचलन में रही है। बरसात के समय, किसानों- मजदूरों के फुर्सत के समय गाँवों की चौपालों, अथाई और बैठकों में होने वाली अल्हैती सभी को एक सूत्र में जोड़ देती थी। आल्हा के तालन सैयद का चरित्र सांप्रदायिक एकता और सौहार्द का प्रतीक है—
राम का मित्तर जामवंत था और पांडों का कृष्ण अवतार,
आल्हा का ताला सैय्यद है, काम करे जो  सोच बिचार।
सैकड़ों वर्षों तक अपने वाचिक माध्यम से लोकमहाकाव्य आल्हा जनपदों, गाँवों और कस्बों में राष्ट्रीयता की अलख जगाने, नीति-विज्ञान सिखाने और मनोरंजन करने का माध्यम बना रहा। इसकी लोकप्रियता तुलसी के मानस के समकक्ष बैठती है। बिना पुस्तकाकार पाए, लोकजीवन में, लोक-कंठों में जीवित और निरंतर जीवंत रहने वाली यह विधा, यह काव्य आज देश के विकास के व्युत्क्रमानुपाती होकर मिट रहा है।

टेलीविज़न, इंटरनेट और अन्य संचार साधनों ने बहुत कुछ बदल दिया है। आज अल्हैते नहीं मिलते, गाँवों में अथाई नहीं लगती, बरसात में भी, आल्हा नहीं सुनाई पड़ता। यह संकट हमारी पहचान का है, हमारे अतीत के गौरव के क्षरण का है, हमारी संपदा के विनाश का है। इसे बचाने, संरक्षित और संवर्द्धित करने का दायित्व आज की पीढ़ी पर है, वरना आने वाली पीढ़ी के लिये आल्हा काव्य ही नहीं, शब्द भी अपरिचित रह जाएगा।
डॉ. राहुल मिश्र
{बुन्देली दरसन, अंक- 3, 2010, नगरपालिका परिषद्, हटा, दमोह (मध्य प्रदेश) में प्रकाशित}



 

Monday 29 April 2013

प्रज्ञा पारमिता, रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह


                         प्रज्ञा पारमिता
         बौद्ध धर्म की महायान-साधना में छः पारमिताओं फारोल-तु-छिन-पा के बारे में बताया गया है। प्रज्ञा पारमिता, दान पारमिता, शील पारमिता, क्षान्ति पारमिता, वीर्य पारमिता और ध्यान पारमिता। प्रज्ञा पारमिता या शेरब-कि-फारोल-तु-छिन-पा को छोड़कर शेष पाँचों पारमिताओं को उपाय, करुणा या पुण्य सम्भार कहा जाता है। प्रज्ञा पारमिता को ज्ञान सम्भार कहा जाता है। ‘पारमिता’ शब्द ‘परम’ से बना है। इसका अर्थ होता है, सबसे ऊँची स्थिति। पारमिता शब्द गुणों के पूरी तरह विकसित होने और सीमाओं-दशाओं-स्थितियों के बंधन से मुक्त होकर व्यापक विस्तार करने के अर्थ में प्रयोग होता है। इस तरह मानव-जीवन के परम लक्ष्य को पाने के लिए, निर्वाण या बुद्धत्व को पाने के लिए ये छः पारमिताएँ आवश्यक होती हैं। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य और ध्यान पारमिताओं को जीवन में उतारने की प्रेरणा देने का काम प्रज्ञा पारमिता के द्वारा होता है। प्रज्ञा की उत्पत्ति और इसका विकास करुणा या उपाय या पुण्य सम्भार के द्वारा होता है। दान, शील, क्षान्ति, वीर्य और ध्यान पारमिताओं के द्वारा प्रज्ञा पारमिता को पूर्णता प्राप्त होती है। इस तरह ज्ञान सम्भार अर्थात् प्रज्ञा और पुण्य सम्भार अर्थात् दान, शील आदि पाँच पारमिताएँ एक-दूसरे की पूरक होती हैं। यह अवश्य है कि पुण्य सम्भार के बजाय ज्ञान सम्भार अधिक श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण होता है। ज्ञान सम्भार का स्थान सबसे पहले आता है, क्योंकि यह मानव को असत् से सत् की ओर जाने का रास्ता दिखाता है। यह मानव को आत्म दीपो भव की सीख देता है। यह उस दीपक की तरह बनने की सीख देता है, जो संसार के अंधकार में भटक रहे लोगों को सही रास्ता दिखाता है। इस तरह ज्ञान सम्भार और पुण्य सम्भार दोनों मिलकर निर्वाण के मार्ग बन जाते हैं। निर्वाण प्रज्ञा के विकास की और प्रज्ञा के विकास के परिणाम के रूप में आए बदलाव की परम अवस्था है। निर्वाण शरीर के त्याग की या मृत्यु की स्थिति नहीं है। यह अविद्या या अज्ञान के त्याग की स्थिति है।
     प्रज्ञा के स्वरूप के बारे में विस्तार से बताने का कार्य आचार्य नागार्जुन ने किया है। उन्होने प्रज्ञा के साध्य व साधन स्वरूपों की स्थापना बौद्ध धर्म की महायान शाखा में की है। आर्यशत साहस्रिका प्रज्ञापारमितासूत्र, पञ्चविंशतिसाहस्रिकासूत्र और अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमितासूत्र को क्रमशः बृहद प्रज्ञापारमितासूत्र, मध्यम प्रज्ञापारमितासूत्र और लघु प्रज्ञापारमितासूत्र के रूप में जाना जाता है। इन प्रज्ञापारमितासूत्रों के दर्शन पक्ष के आधार पर आचार्य नागार्जुन ने माध्यमिक दर्शन की स्थापना की। आचार्य नागार्जुन द्वारा रचित मूल माध्यमिक कारिका में प्रज्ञापारमितासूत्रों का दर्शन पक्ष है।
     बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण या बुद्धत्व को प्राप्त करना होता है। निर्वाण या बुद्धत्व को पाने के लिए तीन मार्ग— शील, समाधि और प्रज्ञा बताए गए हैं। शील की परम अवस्था समाधि में होती है और समाधि से प्रज्ञा की प्राप्ति होती है। प्रज्ञा का काम शील का शुद्धिकरण करना होता है। इस प्रकार प्रज्ञा बुद्धत्व या निर्वाण को पाने की पहली सीढ़ी भी है और अंतिम सीढ़ी भी है।
         बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य— दुख, दुख का कारण, दुख का निरोध और दुख निरोध के उपाय में भी प्रज्ञा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दुख को दुख के रूप में समझने की चेतना का विकास प्रज्ञा के माध्यम से ही होता है। यदि दुख को, उसके सही स्वरूप को नहीं समझा जाएगा तब आर्य सत्य को और वास्तविकता को भी नहीं समझा जा सकता है। जब तक दुख के आवरण में छिपे सत्य को जानना संभव नहीं होगा, तब तक  दुख के निरोध की चेतना नहीं उत्पन्न होगी। जब तक इस चेतना का विकास नहीं होगा, तब तक चेतना द्वारा बताए गए दुख के निरोध के उपायों पर अमल करने का विवेक उत्पन्न नहीं होगा। जब तक विवेक उत्पन्न नहीं होगा, तब तक बुद्धत्व या निर्वाण को पाना भी संभव नहीं हो पाएगा। चेतना और विवेक का जन्म प्रज्ञा के विकास से ही होता है। इस कारण प्रज्ञा को महायान साधना का केंद्र माना गया है।
         प्रज्ञा को बुद्धि, मति, धृति, विवेक और ज्ञान भी कहा जाता है। ये सभी एक दूसरे के पर्याय हैं। लेकिन ज्ञान के विशेष, विलक्षण और पारमार्थिक स्वरूप के तौर पर प्रज्ञा अपने अन्य पर्यायों से पूरी तरह अलग और श्रेष्ठ है। उदाहरण के तौर पर किसी व्यक्ति को यदि किसी एक लिपि या भाषा में उपलब्ध विविध क्षेत्रों, जैसे- चिकित्सा विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, गणित, दर्शन, इतिहास और साहित्य आदि का बहुत अच्छा ज्ञान है तो उसे ज्ञानी या विद्वान कहा जा सकता है, लेकिन उसे प्रज्ञावान नहीं कहा जा सकता। इसी तरह कई लिपियों या भाषाओं के माध्यम से ज्ञान के एक या कई क्षेत्रों में कोई व्यक्ति अच्छा विद्वान हो सकता है, मगर प्रज्ञावान नहीं हो सकता। यह ज्ञान भौतिक या सांसारिक कार्यों और व्यवहारों पर आधारित होता है। इस ज्ञान से मनुष्य को केवल भौतिक या सांसारिक लाभ ही हो सकता है। इसी तरह यह ज्ञान मानव के जीवन को केवल भौतिक रूप से ही प्रभावित करने की क्षमता रखता है। यह ज्ञान पारमार्थिक नहीं होता। मुक्ति या मोक्ष या निर्वाण को इस ज्ञान से नहीं पाया जा सकता है।
   भौतिक या सांसारिक लाभ देने वाला यह ज्ञान तो मानव को वासनाओं और दुखों में धकेल देता है। जबकि प्रज्ञा वह आधार है, जो मानव-जीवन के पुण्यकर्मों को, मर्यादा को और मानव-जीवन की सार्थकता को स्थापित करती है। प्रज्ञा के द्वारा मानव को मुक्ति या निर्वाण का रास्ता मिलता है। दर्शन के अलग-अलग सिद्धांतों में प्रज्ञा को, इसके स्वरूप को और इसके संबंधों को बताया गया है।
  बोधिसत्व, करुणा, और निर्वाण, ये तीनों तत्त्व प्रज्ञा से जुड़े हुए हैं। इसी तरह कर्मवाद, कर्मनिष्ठा और कर्मफल भी प्रज्ञा से जुड़े हैं। प्रज्ञावान मानव अपने जीवन की सफलता के लिए इन तत्त्वों का महत्त्व समझता है और इन्ही के अनुसार अपने जीवन के आचरण पक्ष को चलाता है। जबकि विद्वान व्यक्ति इन तत्त्वों के महत्त्व को समझे बिना ही सांसारिक सुखों में ही खुश रह सकता है। इस तरह प्रज्ञावान और विद्वान के बीच के अंतर को समझा जा सकता है।
 किसी भी मानव में प्रज्ञा की उत्पत्ति संभव हो सकती है। इसके लिए विद्वान होना भी आवश्यक नहीं है। इसके बावजूद हर एक मनुष्य के लिए प्रज्ञा को पाना इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि वस्तु या संसार का उसके यथार्थ रूप में परिचय उसे नहीं मिल पाता। इस कारण वह सांसारिकता को उसी दृष्टि से देखते हुए दुख पाता रहता है या फिर दुख को ही सुख समझकर भूलवश अपने जीवन की सार्थकता को निरर्थकता में बदल बैठता है।
      महाभारत के युद्ध के समय अर्जुन अपने चचेरे भाइयों, गुरु और परिजनों-मित्रों को युद्ध के मैदान में देखकर युद्ध करने से मना कर देते हैं। अपने परिवार के लोगों को मारकर युद्ध जीतना उनके लिए दुख का कारण बन जाता है। अर्जुन को इस तरह मोह और शोक में डूबा हुआ देखकर कृष्ण कहते हैं
                            अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
                        गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति  पण्डिता:।।
      हे अर्जुन! तुम उन लोगों के लिए दुखी हो, जो दुख करने के योग्य नहीं हैं और प्रज्ञावान की तरह बातें कर रहे हो। प्रज्ञावान उनके लिए दुख नहीं करते, जो मर चुके हैं या जो जीवित हैं और मृत्यु की ओर लगातार जा रहे हैं। कृष्ण को अर्जुन की कमजोरी का पता चलता है। वे जानते हैं कि अर्जुन झूठी करुणा के जाल में फँस गया है। उसके मन में मानवता के लिए जो प्रेम है, वह सच्चा नहीं है। यह सच्ची करुणा का भाव नहीं है, यह आध्यात्मिक विकास या सत्व गुण की उत्पत्ति भी नहीं है। यह उस अज्ञान या वासना का परिणाम है, जिसने अर्जुन की प्रज्ञा को ढक लिया है। अर्जुन की अज्ञानता या अविद्या को दूर करने का काम कृष्ण करते हैं।
कृष्ण के द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश सांख्य दर्शन के नाम से जाना जाता है। इसमें संसार को एक रंगमंच की तरह से देखा जा सकता है। जहाँ पर पात्र आते-जाते हैं, जन्म लेते और मरते रहते है। जीवन देने और लेने वाले पात्र अपने-अपने अभिनय को कुशलतापूर्वक करते हुए मंच से बाहर हो जाते हैं, वैसे ही यह संसार भी है। इस संसार को ऐसी दृष्टि से देखने वाले लोग शोक में या मोह में लिप्त नहीं होते। सांसारिक जीवन में ऐसे लोगों को प्रज्ञावान या प्रज्ञाधारण करने वाला कहा जा सकता है।
    सांख्य दर्शन आत्मा को शाश्वत मानता है, जबकि बौद्ध धर्म में आत्मा को क्षणभंगुर माना गया है। दोनों ही दर्शन अपने-अपने तरीके से आत्मा की व्याख्या करके मानव जीवन के आचार पक्ष को प्रज्ञा से जोड़ने का प्रयास करते हैं। इसलिए नित्य और अनित्य के इस भेद को हटाकर यदि कर्मवाद के नजरिये से देखा जाए तो दोनों दर्शन उस कर्म को प्रधानता देते हैं, जो मानव मात्र के कल्याण की भावना को और करुणा की भावना को अपने साथ लेकर चलता हो।
    संसार के कई धर्मों, मतों और संप्रदायों में प्रज्ञा को श्रेष्ठ माना गया है। इसी कारण अनेक विधियों, अनेक कथाओं-उदाहरणों और नीतिवचन-उपदेशों के माध्यम से मानव को उस प्रज्ञा का परिचय देने का प्रयास करते हैं, जो इस संसार को उसके वास्तविक रूप में दिखाने में सक्षम है। संत कवियों ने भी अपनी वाणी में प्रज्ञा को बड़े ही सरल और सहज ढंग से व्यक्त किया है। सरहपा लिखते हैं-
                  जहँ मन पवन न संचरइ, रवि-शशि नाहिं पवेश।
                  तहँ मूढ़ चित्त  विश्राम करु, सरह कहेउ उपदेस।।
प्रज्ञा को जानने के लिए धर्मों, मतों और संप्रदायों में की गई व्यवस्था तीन स्तरों में है। पहली सुनकर, दूसरी सुनकर उस पर चिंतन करते हुए और तीसरी भावना या विचार में बाँधते हुए। इसी कारण सत्संग, भजन, कीर्तन और प्रार्थना का विधान किया गया है। अपने वजूद को, अपने अस्तित्व को शून्य करके अपनी चिंता को संसार की चिंता के साथ जोड़कर चिंतन में लीन होने को श्रेष्ठ माना गया है। अगर सरल अर्थों में कहें तो प्रज्ञा मन और विचारों की वह स्थिति है, जो मानव को मानव से और दूसरे जीवों से प्रेम करना सिखाती है। यह अपने और पराए के अंतर को मिटाती है। यह सारे संसार के प्रति करुणा और प्रेम की भावना का विकास करती है। यह सच्चाई, ईमानदारी, दया, शांति और अहिंसा के भावों को समझाती है। जब प्रज्ञा की साधना अपने उच्चतम स्तर पर पहुँचती है, तब मानव अज्ञान या अविद्या से पार हो जाता है। यह स्थिति प्रज्ञा पारमिता या शेरब-कि-फारोल-तु-छिन-पा की है। देवालयों में स्थित मूर्तियाँ और चित्र सामान्य व्यक्ति को यही शिक्षा देते हैं। इसी कारण अपने परिवार के प्रति प्रेम को ही नहीं, बल्कि विश्वबंधुत्व की भावना को श्रेष्ठ माना गया है। श्रुति, चिंतन और भावना धारण के माध्यम से प्रज्ञा की साधना करने के लिए किसी धर्मकेंद्र की, देवालय या पवित्र स्थान की जरूरत नहीं होती।
शायद इसी कारण श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उस स्थान पर प्रज्ञा का स्वरूप बताया, जहाँ पर संसार की निःसारता और संबंधों-रिश्तों-नातों की कड़वी हकीकत का पर्दाफ़ाश होने वाला था। अर्जुन धनुर्विद्या का महारथी था, राजशास्त्र और नीतिशास्त्र का ज्ञानी भी था, किंतु युद्ध के मैदान में जब श्रीकृष्ण ने उससे कहा कि तुम शोक न करने वालों पर शोक करते हो और ज्ञान की बातें करते हो, तब श्रीकृष्ण के इस कथन से यह अर्थ भी निकल रहा था कि तुम धनुर्विद्या, नीति और राजशास्त्र का ज्ञान रखने के बावजूद पूरी तरह से अज्ञानी हो, बुद्धिहीन हो।
    संभवतः यही कारण रहा होगा, कि भगवान् बुद्ध ने अपना पहला उपदेश मृगदाव के घने जंगल में, टङ-सोङ-लुङ-वा-रि-दक्स-कि-नक़्स, में दिया, जहाँ सुंदर-सुसज्जित मंच न था, सांसारिक जीवन की चकाचौंध न थी, धन-दौलत भी नहीं थी। वह स्थान ऐसा था, जो यह बोध करा रहा था कि सारा संसार एक जंगल की तरह अव्यवस्थित, वीरान और हिंसक पशुओं से भरा हुआ है। यह प्रतीक था, यह सच्ची स्थिति थी, सही स्थान था, जहाँ बैठकर उस प्रज्ञा से साक्षात्कार किया जा सकता था, उस प्रज्ञा की साझेदारी की जा सकती थी, जो इस जंगलनुमा संसार को सुंदर-सजीले उपवन में बदल सकती थी।
वस्तु के यथार्थ स्वरूप को न जानने के कारण या वस्तु के यथार्थ स्वरूप को गलत तरीके से जानने के कारण उपजी अविद्या के आवरण को हटाकर सच्ची विद्या या प्रज्ञा से साक्षात्कार करने हेतु आचार्य शांतिदेव ने निर्वाणकामी, मोक्षकामी लोगों को रास्ता दिखाया है—
                     इमं  परिकरं    सर्वं  प्रज्ञार्थं   हि   मुनिर्जगौ।
                     तस्मादुत्पादयेत् प्रज्ञां दुःखनिवृत्तिकाङ्क्षया।।
(रेडियो वार्त्ता, आकाशवाणी, लेह, दिनांक- 22.04.2013, प्रातः 7 बजकर 35   मिनट पर)
                                                                         डॉ. राहुल मिश्र