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Tuesday 1 June 2021

कोरोना काल में संकट-मोचक भारतीय सेना

 


कोरोना काल में संकट-मोचक भारतीय सेना


समाचार-1. कोविड सैंपलिंग और टीकाकरण अभियान में अपना योगदान देते हुए समोट, राजौरी (जम्मू व काश्मीर) स्थित सेना की राष्ट्रीय राइफल बटालियन ने प्राथमिक स्वास्थकेंद्र कंडी में कोविड सैंपल संग्रह और टीकाकरण केंद्र स्थापित किया। इसके साथ ही चिकित्सा कर्मियों और स्थानीय लोगों के लिए 500 लीटर क्षमता की जल भंडारण सुविधा को भी तैयार किया। (21 मई, 2021)

समाचार-2. भारतीय सेना के पूर्वी कमांड ने तीन दिन के अंदर ही असम के तेजपुर स्थित मेडिकल कॉलेज में 05 आईसीयू और 45 ऑक्सीजन बेड की कोविड केयर इकाई तैयार की। (14 मई, 2021)

समाचार- 3. भारतीय थलसेना ने उत्तर-पूर्व के राज्यों से अपने दो फील्ड अस्पताल एयरलिफ्ट करके पटना पहुँचा दिए और वहाँ पर 500 बिस्तरों का एक कोविड केंद्र तुरंत बनकर तैयार हो गया। (06 मई, 2021)

समाचार- 4. बेंगलुरू में कोविड-19 के बढ़ते मामलों को देखते हुए भारतीय वायुसेना जालाहल्ली वायुसेना स्टेशन में आम लोगों के लिए सौ बिस्तरों वाले कोविड देखभाल केंद्र का निर्माण करेगी। इसके पहले चरण में ऑक्सीजन कंसंट्रेटर के साथ दो दिन के अंदर ही बीस बिस्तर तैयार हो जाएँगे। बाकी 80 बिस्तर 20 मई तक तैयार हो जाएँगे। इस देखभाल केंद्र में भारतीय वायुसेना के बेंगलुरू कमान अस्पताल के विशेषज्ञ, स्टाफ नर्स और अन्य पैरामेडिकल कर्मचारी तैनात होंगे। (04 मई, 2021)

ये समाचार बानगी के रूप में यहाँ पर उद्धृत किए गए हैं। वर्तमान कोरोना-संकट के समय भारतीय सेना के कामों और जनसेवा के लिए किए जा रहे प्रयासों से जुड़े समाचारों को समेटकर रखा जाए, तो उनकी गिनती करना भी कठिन होगा। कहने का आशय यह है, कि देश के उत्तरी छोर से लगाकर धुर दक्षिण तक और पूरब से लगाकर पश्चिम तक देश के हर एक हिस्से में भारतीय सेना के तीनों अंगों ने; जल, थल, वायु सेना ने जितनी तेजी और तत्परता के साथ काम किया है, वह अभिनंदनीय है।

भारतीय सेना के शौर्य को हमने पिछले वर्ष गालवान में देखा था। सर्जिकल स्ट्राइक में हमने अपनी सेना के पराक्रम को देखा है। इतना ही नहीं, सीमा पर होने वाली हर छोटी-बड़ी घटना पर भारतीय सेना की सक्रियता और देश की सीमाओं की सुरक्षा के लिए रात-दिन की मुस्तैदी हमें गर्व से भर देती है। भारत की सेना दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सैन्य-बल में गिनी जाती है। सामान्य तौर पर सेना का दायित्व सीमांत सुरक्षा का होता है। शांति और स्थिरता के दिनों में सेना लोकहित के कामों में संलग्न होती है, लेकिन भारतीय सेना के लिए ये स्थितियाँ सहज-सुलभ नहीं हैं। हम बहुत अच्छी तरह से जानते हैं, कि हमारे सीमावर्ती देश, विशेषकर पाकिस्तान और चीन की सीमाएँ सुर्खियों में रहती हैं। पिछले वर्ष जब से चीन के वुहान से होकर सारी दुनिया में फैला कोरोना वायरस भारत के लिए संकट बनकर खड़ा हुआ था, उसी समय से चीन ने भारत की सीमाओं पर भी अपनी हरकतें इस तरह से शुरू की थीं, मानों उसे अच्छा मौका मिल गया हो। यह स्थितियाँ पिछले वर्ष भले ही शांत हो गईं हों, लेकिन इस वर्ष जब भारत में कोरोना संकट की दूसरी लहर ने अपना तांडव मचाना शुरू किया था, उस समय अच्छा अवसर जानकर चीन ने लद्दाख की सीमा पर अपनी हरकतें फिर से शुरू कर दी हैं। चीन का सैन्य युद्धाभ्यास भारत की उस शांति की पहल के एकदम विपरीत है, जिसमें चीन ने पहल की थी और शांति-वार्ता, सैनिकों को पीछे हटाने आदि पर सहमति जताई थी।

कहने का आशय यह, कि भारत की आंतरिक स्थिति ऐसी है, जहाँ कोरोना की दूसरी लहर की विभीषिका के साथ ही ऑक्सीजन, अस्पताल, दवा और चिकित्सकों की कमी को लेकर एक वर्ग भय का वातावरण बना रहा था। हालात नियंत्रण से बाहर हो रहे थे, और दूसरी तरफ तिब्बत सीमा पर चीन की हरकतें और पाक अधिकृत काश्मीर सहित भारत-पाकिस्तान सीमा पर आतंकी गतिविधियाँ भी तेज हो गईं। भारत की सेना के लिए यह निश्चित रूप से परीक्षा की घड़ी थी। ऐसी विषम स्थिति में भारतीय सेना केवल सीमाओं की सुरक्षा तक ही अपनी जिम्मेदारी को नहीं समेटती, वरन् देश की सीमाओं की सुरक्षा के साथ ही देशवासियों के जीवन की सुरक्षा के लिए भी पूरी तत्परता और सक्रियता के साथ आगे आती है।

पिछले वर्ष, लगभग इन्हीं दिनों भारतीय सेना ने कोरोना के संकट की शुरुआत को देखते हुए ‘ऑपरेशन नमस्ते’ की घोषणा की थी। मार्च, 2020 में जब भारत में कोरोना के नए मामले मिलना शुरू हुए थे, उस समय बहुत बड़ी आवश्यकता इस बात की थी, कि जनता को एक-दूसरे से दूरी बनाकर रखे, ताकि संक्रमण की कड़ी टूट सके। इसके लिए जन-जागरूकता और सद्भावना को केंद्र में रखकर सेना-प्रमुख मनोज मुकुंद नरवणे ने इस अभियान को पूरी ऊर्जा के साथ संचालित करते हुए सेना के जन-सरोकारों को स्पष्ट किया था। उस समय सेना द्वारा कई स्थानों पर एकांतवास केंद्रों की स्थापना की गई थी। विभिन्न सुदूरवर्ती क्षेत्रों से मरीजों और जरूरतमंदों को अस्पतालों तक पहुँचाने, चिकित्सीय सुविधाएँ आदि उपलब्ध कराने के लिए अनथक प्रयास किए गए थे। भारतीय सेना का काम करने का अपना अनूठा तरीका है। देश पर आने वाले किसी भी संकट का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए सेना विधिवत् अभियान चलाती है। इन अभियानों की सफलता के लिए, सैनिकों को प्रोत्साहित करने के लिए और संगठित होकर काम करने के लिए सेना द्वारा चलाए जाने वाले अभियानों को ऐसे नाम दिए जाते हैं। कोरोना की दूसरी लहर के साथ ही भारतीय सेना ने पुनः एक नए नाम के साथ कोरोना को हराने के लिए कमर कसी है। कोरोना की दूसरी लहर का मुकाबला करने के लिए भारतीय सेना ने अपने अभियान को ‘ऑपरेशन को-जीत’ नाम दिया है।

वर्ष 2021 में कोरोना संकट की दूसरी लहर पहले से कहीं अधिक तीव्र और घातक सिद्ध हुई। ऐसी स्थिति में भारतीय सेना एक बार फिर से दुगुनी ऊर्जा के साथ देश के लोगों की सहायता के लिए सामने आई। कहा जाता है, कि परिवार के मुखिया की सक्रियता, उसकी तत्परता और समर्पित प्रतिबद्धता सारे परिवार को न केवल सशक्त, समर्थ करती है, वरन् असीमित ऊर्जा के साथ लक्ष्य प्राप्ति के लिए सारे परिवार को संलग्न करती है। इस दृष्टि से भारत के माननीय रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की सक्रियता अभूतपूर्व है। उनके द्वारा एक लेख अप्रैल माह में लिखा गया था। लेख का शीर्षक था- अदृश्य दुश्मन से जंग : रक्षा मंत्रालय का कोविड-19 को जवाब’ यह लेख जितना भावुक कर देने वाला था, उतना ही प्रेरक था। इस लेख पर देश के माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रोत्साहनपरक टिप्पणी ने भी भारतीय सेना क जोश से भर दिया।

जिस समय देश में ऑक्सीजन की कमी को लेकर स्थितियाँ नियंत्रण से बाहर हो गईं थीं, उस समय भारतीय वायुसेना ने ऑक्सीजन उत्पादक क्षेत्रों से ऑक्सीजन के टैंकर, ऑक्सीजन उत्पादक संयंत्र और अन्य उपकरणों को तेजी के साथ जरूरत वाले नगरों-प्रदेशों में पहुँचाया। देश के अंदर विभिन्न दुर्गम स्थानों, जैसे पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में, लद्दाख के दुर्गम क्षेत्रों में भारतीय वायुसेना ने परीक्षण प्रयोगशाला संयंत्रों, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर्स, चिकित्सीय उपकरणों और दवाइयों के साथ ही मरीजों को ‘एयरलिफ्ट’ करने में पूरी सक्रियता दिखाई। भारतीय वायुसेना के परिवहन वायुयानों ने विदेशों से चिकित्सा-सामग्री लाने में भी पूरी तत्परता दिखाई। सिंगापुर, ऑस्ट्रेलिया, बेल्जियम और बैंकाक आदि देशों से खाली क्रायोजैनिक ऑक्सीजन कंटेनर लाने का काम भारतीय वायुसेना ने बखूबी किया। देश में टीकाकरण अभियान को मजबूत करने के लिए विदेशों से टीकों की खेप लाने के साथ ही देश के अंदर विभिन्न स्थानों में टीकों की खेप पहुँचाने में वायुसेना की सक्रियता अतुलनीय है।

भारतीय वायुसेना के सी-17 ग्लोबमास्टर वायुयान विगत महीने भर से तरल ऑक्सीजन और अन्य संयंत्रों को देश के विभिन्न स्थानों में पहुँचाने के लिए लगातार काम कर रहे हैं। पूरे देश में वायुसेना के सभी प्रमुख हवाई अड्डे, वायुसेना के सभी बेड़े, सभी श्रेणियों के परिवहन विमान पूरी मुस्तैदी के साथ चौबीसों घंटे तैनात हैं। इसका असर हमें देश में तेजी से सुधरती स्थितियों में दिखाई देता है। आज देश में ऑक्सीजन की कमी की खबरें अगर नहीं सुनाई देतीं, तो इसके पीछे बड़ा कारण भारतीय वायुसेना की तत्परता है। भारतीय वायुसेना ने इस काम को कुशलतापूर्वक करने के लिए एक स्वतंत्र ‘एयर सपोर्ट सेल’ बनाया हुआ है। यह प्रकोष्ठ देश के विभिन्न राज्यों की प्रशासनिक इकाइयों के साथ ही केंद्रीय प्रशासनिक इकाइयों और चिकित्सा मंत्रालय के साथ समन्वय स्थापित करके देश की चिकित्सा सुविधाओं को मजबूत करने के लिए अनवरत सक्रिय है। नौसेना और थलसेना द्वारा भी अलग-अलग सहायता प्रकोष्ठ स्थापित किए गए हैं। ये प्रकोष्ठ अपने स्तर पर स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप राज्य सरकारों, नागरिक संगठनों आदि को सहायता उपलब्ध कराने हेतु दिन-रात सक्रिय हैं।

भारतीय नौ सेना के युद्धपोतों ने विदेशों से ऑक्सीजन सिलेंडर और टैंक आदि की खेप लाकर देश में ऑक्सीजन की कमी को नियंत्रित करने में बहुत बड़ा योगदान दिया। भारतीय नौसेना के कमान अस्पतालों में कार्यरत विशेषज्ञों, चिकित्सकों और पैरामेडिकल स्टाफ को दिल्ली, अहमदाबाद, पटना आदि अधिक संक्रमित स्थानों पर चिकित्सीय सहायता देने के लिए नियुक्त किया गया है। पश्चिमी नौसेना कमान ने प्रवासी कामगारों के लिए तीन बड़े अस्पतालों को तैयार करने के साथ ही प्रवासी कामगारों को आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध कराकर पलायन को रोकने हेतु कार्य किए।

भारतीय थल सेना के लगभग सभी चिकित्सालय सेवानिवृत्त सैनिकों के परिवारों और आम जनता को चिकित्सीय सहायता उपलब्ध कराने के लिए कार्य कर रहे हैं। भारतीय सेना ने देश के विभिन्न दूरदराज के इलाकों में छोटे-छोटे स्वास्थ्य केंद्रों के परिचालन के साथ ही विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा संचालित प्राथमिक स्वास्थ केंद्रों में चिकित्सा सुविधाएँ बढ़ाने में योगदान दिया है।

भारतीय सेना की चिकित्सा शाखा और अनुसंधान शाखा के कामों का उल्लेख किए बिना कोरोना के संकटकाल में भारतीय सेना के प्रयासों पर बात पूरी नहीं हो सकेगी। भारतीय सेना की चिकित्सा शाखा के सेवारत चिकित्साकर्मियों और सहयोगी कर्मियों की बड़ी संख्या देश के अलग-अलग हिस्सों में आम नागरिकों के लिए चिकित्सा-सेवाएँ सुलभ करा रही है। इसके साथ ही चिकित्साक्षेत्र में स्वास्थ्यकर्मियों की कमी को देखते हुए सेना ने अपने सेवानिवृत्त चिकित्सकों और स्वास्थ्यकर्मियों को पुनः नियुक्त किया है। यह सेना की अनुशासन-बद्ध कार्यशैली का ही प्रभाव है, कि अपनी चिंता किए बिना बड़ी संख्या में सेवानिवृत्त चिकित्साकर्मी भी देश की सेवा के लिए आगे आए हैं।

भारतीय सेना की शोध-अनुसंधान शाखाओं में से रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) का नाम आजकल चर्चा में है। इसमें कोई दो-राय नहीं, कि इस संगठन में अनेक कार्यकुशल और उच्चकोटि के वैज्ञानिक कार्यरत हैं, किंतु इनकी सक्रियता और कार्यकुशलता कोरोना के संकटकाल में खुलकर तब सामने आई, जब डीआरडीओ द्वारा 2-डीऑक्सी-डी-ग्लूकोज दवा को कोरोना संक्रमितों के उपचार के लिए तैयार कर दिया गया। इस दवा को ‘2-डीजी’ के नाम से जाना जाता है। यह कोरोना के मरीजों के शरीर में ऑक्सीजन की मात्रा को संतुलित करने के साथ ही सार्स-कोविड वायरस के विस्तार को रोकती है। इस दवा के साथ ही डीआरडीओ ने ‘डिपकोवॉन’ नामक एक किट भी तैयार की है, जिसके द्वारा केवल 75-80 मिनट के अंदर शरीर की प्रतिरोधक क्षमता का स्तर जाँचा जा सकता है। ये दोनों दवाएँ बहुत ही कम मूल्य पर आज बाजार में उपलब्ध हैं और हजारों कोरोना मरीजों के लिए जीवन-रक्षक बनी हुई हैं।

पिछले लगभग पंद्रह महीनों से भारत में व्याप्त कोरोना-संकट के बीच भारतीय सेना की सक्रियता और उसके अनथक प्रयासों का विस्तार असीमित है, जिसके अंश-मात्र का उल्लेख ही यहाँ पर हो सका है। भारतीय सेना के लिए चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। एक साथ चार मोर्चों पर कुशलता के साथ संघर्ष करते हुए हम अपने वीर सैनिकों को देखते हैं। तिब्बत सीमा पर चीन की चालबाजियों के साथ, पाक सीमा पर आतंकियों की हरकतों के साथ, देश के अंदर कोरोना के संकट के साथ, और देश के ‘जयचंदों’ के कुचक्रों के साथ भारतीय सेना संघर्षरत है। अपने पराक्रम, अपने शौर्य, अपने अनुशासन, अपने संगठित प्रयास, अपनी तत्परता, अपने साहस के साथ ही भारतीय सेना ने कोरोना के संकटकाल में अपने अनथक सेवाभाव से यह सिद्ध कर दिया है, कि वह सीमाओं की रक्षक ही नहीं, देश की संकट-मोचक भी है।

(सीमा जागरण मंच के मुखपत्र- सीमा संघोष के मई, 2021 अंक में प्रकाशित)

डॉ. राहुल मिश्र


Thursday 4 February 2021

भारत में भी है ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ का मजा

 

भारत में भी है ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ का मजा

मध्यकालीन व्यापारिक गतिविधियों की रोचक और साहसिक कथाएँ सिल्क रूट या रेशम मार्ग में बिखरी पड़ी हैं। सिल्क रूट का सबसे चर्चित हिस्सा, यानि उत्तरी रेशम मार्ग 6500 किलोमीटर लंबा है। दुनिया-भर में बदलती स्थितियों के कारण सिल्क रूट तो बंद हो गया, मगर उसकी रोचक स्मृतियाँ कई देशों के मन से ओझल नहीं हो पाईं। इस कारण चीन, कज़ाकिस्तान और किर्गिस्तान सहित दूसरे देशों के प्रस्ताव पर रेशम मार्ग को यूनेस्को ने विश्व विरासत का दर्जा दे दिया। इसके बाद ‘सिल्क रूट टूरिज़्म’ के तौर पर अंतरराष्ट्रीय पर्यटन का नया क्षेत्र खुला है।

पर्यटन के शौकीन लोगों के लिए सिल्क रूट टूरिज़्म जितना रोचक और रोमांचकारी है, उतना ही महँगा भी है। मगर आपको यह जानकर ताज्जुब होगा, कि कम खर्च में भी सिल्क रूट टूरिज़्म का मजा लिया जा सकता है, और वह भी देश से बाहर जाए बिना...। भले ही इस बात पर एकदम से भरोसा न हो, लेकिन यह हकीक़त है, जो देश के धुर उत्तरी छोर पर आपके स्वागत के लिए तैयार नज़र आती है।

जम्मू व कश्मीर के लदाख अंचल का उत्तरी इलाका, यानि नुबरा घाटी क्षेत्र सिल्क रूट से जुड़ा हुआ है। लदाख के मुख्यालय लेह से लगभग चालीस किलोमीटर की यात्रा के बाद मिलता है, खरदुंग दर्रा, जिसे दुनिया की सबसे ऊँची सड़क के लिए भी जाना जाता है। खरदुंग-ला के पार शुरू होती है, नुबरा घाटी, यानि फूलों की घाटी। सिल्क रूट के टकलामकान रेगिस्तान में नख़लिस्तान की तरह...। नुबरा के मुख्यालय देस्कित पहुँचने से पहले ही नुबरा नदी शयोक नदी से मिलती दिखाई पड़ती है। शयोक नदी के किनारे-किनारे पश्चिम की तरफ चलते हुए एक तरफ लदाख पर्वतमाला और दूसरी तरफ काराकोरम की पर्वतश्रेणियाँ अपने अलग-अलग रंग-ढंग को साथ लिए चलती हुई नजर आती हैं। देस्कित को पार करते ही हुंदर गाँव आता है। यह गाँव दो कूबड़ वाले ऊँटों की सवारी के लिए जाना जाता है। ये बैक्ट्रियन या यारकंदी ऊँट सिल्क रूट के शहंशाह कहे जा सकते हैं। सिल्क रूट के बंद हो जाने के बाद इनकी प्रजाति हुंदर में उन परिवारों के पास सुरक्षित है, जो किसी जमाने में सिल्क रूट व्यापार में माल ढुलाई और ‘शटल सेवा’ का काम किया करते थे। हुंदर का राजमहल, जो अब एक बौद्धमठ की शक्ल अख्तियार कर चुका है, किसी जमाने में सिल्क रूट के व्यापार पर नजर रखने की जिम्मेदारी निभाया करता था। हुंदर गाँव तक पहुँचने वाले पर्यटकों के लिए जितनी रोमांचक यारकंदी ऊँटों की सवारी होती है, उतना ही आकर्षण उनके लिए हुंदर राजमहल को देखने में होता है। अनूठी देशी बनावट वाले इस महल से आगे पश्चिम की तरफ बढ़ते हुए काराकोरम पर्वतश्रेणियों की ऊँचाई में वह रास्ता दिखाई पड़ने लगता है, जो कभी सिल्क रूट के सहायक मार्ग के तौर पर जाना जाता था। शयोक नदी के दोनों तरफ ऊँचे पहाड़ों पर सीधी लकीरों की तरह दिखने वाले सिल्क रूट के साथ-साथ चलते हुए चालुंका पहुँचते हैं। यह बल्तिस्थान का पहला गाँव है, जो यहाँ के लोगों के रंग-रूप, नाक-नक्श और अनूठी तहजीब के कारण एक नए संसार के खुल जाने का अहसास करा देता है।

चालुंका से बोगदंग और फिर तुरतुक तक बलखाती-इठलाती शयोक नदी, दोनों किनारों पर अलग-अलग रंगों को बदलती पर्वतराशियाँ, सियाचिन ग्लोशियर से टकराकर आते शीतल-मंद पवन के झोंके और इन सबके साथ असीमित पसरी शांति पर्यटन के एकदम नए और अनूठे अहसास को साथ लिए दिल में गहरे उतर जाती है। देश की सीमा का आखिरी गाँव है- तुरतुक। दो-तीन वर्ष पहले तक हुंदर के आगे पर्यटकों को जाने की इजाजत नहीं थी। इस कारण बल्ती संस्कृति के अनूठे दर्शन पर्यटकों के लिए सुलभ नहीं थे। अब सीधे तुरतुक तक पहुँचा जा सकता है और अनूठी बल्ती तहजीब को आँख भर-भरकर देखा जा सकता है।

तुरतुक में यगबो राजवंश के उत्तराधिकारी यगबो मोहम्मद खान काचो ने अपने पुरखों की तमाम यादों को समेटकर एक छोटा-सा संग्रहालय बना रखा है। इस संग्रहालय को देखना अतीत के उन लम्हों में उतर जाना है, जिनमें गिलगित बल्तिस्थान के गौरवपूर्ण अतीत की इबारतें लिखी हुई हैं। एक तरफ बल्ती संस्कृति, बल्ती समुदाय का जीवन यहाँ देखने को मिलता है, तो दूसरी ओर बल्ती ग़ज़ल, बल्ती लोकगीतों-किस्सों से महकती शामों के साथ चाँदनी रात में तारों भरे आसमान के प्राकृतिक सौंदर्य को निहारना, तेजी से भागती जाती शयोक के कदमों की आहटों को सुनना ग्रामीण पर्यटन, सांस्कृतिक पर्यटन और साथ ही सिल्क रूट पर्यटन के सुखों को एकसाथ जोड़ देता है।

लेह से लगभग दो सौ किलोमीटर की यात्रा करके तुरतुक पहुँचा जा सकता है। यहाँ जाने के लिए ‘इनर लाइन परमिट’ की जरूरत पड़ती है। इसे लदाख स्वायत्तशासी परिषद् की वेबसाइट पर जाकर खुद भी बनाया जा सकता है। तुरतुक में कई अच्छे यात्री-निवास, होटल और गेस्ट हाउस हैं, मगर ‘होम-स्टे’ की बात ही अलग है, जहाँ बल्ती व्यंजनों का स्वाद और बल्ती जीवन की ढेर सारी रोचक कथाएँ सरलता से मिल जाती हैं। खुबानियों, जौ के सत्तू और देशी व्यंजनों के साथ पर्यटन का मजा दो गुना हो जाता है। तुरतुक के प्रसिद्ध लकड़ी के पुल पर बना ‘सेल्फी प्वाइंट’ गाहे-ब-गाहे अपनी तरफ खींच ही लेता है। पर्यटकों की सुविधा के लिए लेह में पर्यटक केंद्र है। हाल ही में देस्कित में भी पर्यटक सुविधा केंद्र खोला गया है। एक नए और अनूठे पर्यटक केंद्र के रूप में जितना नुबरा घाटी को जाना जाता है, उससे कहीं अधिक आकर्षण सिल्क रूट के साथ चलते-चलते तुरतुक तक जाने में होता है। यह आकर्षण भारत के मुकुट में जड़ी सुंदर मणि जैसी बल्ती तहजीब को नजदीक से देखकर खुशी से नहीं, गर्व से भी भर देता है।

(संपादकीय पृष्ठ, दैनिक अमृत विचार, लखनऊ-बरेली नगर-बरेली ग्रामीण संस्करण में दिनांक 25 फरवरी, 2020 को प्रकाशित)



Wednesday 12 December 2018

लोसर : परंपरा और संस्कृति का पर्व



लोसर : परंपरा और संस्कृति का पर्व

लदाख अंचल को उसकी अनूठी संस्कृति और धार्मिक परंपराओं से जाना जाता है। लदाख के बारे में ह्वेनसांग, हेरोडोट्स, नोचुर्स, मेगस्थनीज, प्लीनी और टॉलमी जैसे यात्रियों ने बताया है। इससे लदाख के अतीत का पता चलता है। किसी भी क्षेत्र के अतीत का पता इतिहास की किताबों और इतिहासकारों से चलता है। लेकिन किसी क्षेत्र के समाज, संस्कृति और वहाँ के लोगों के जीवन की जानकारी उस क्षेत्र के रीति-रिवाजों और तीज-त्योंहारों से मिलती है। लदाख अंचल की अनूठी संस्कृति, यहाँ के लोगों के विचार और समाज का जीवन लदाख के त्योहारों में दिखाई देता है। लदाख अंचल के प्रमुख त्योहारों में बुद्ध पूर्णिमा और लोसर का नाम आता है। इनमें बुद्ध पूर्णिमा धार्मिक त्योहार होता है। इसमें खास तौर पर पूजा-पाठ होते हैं, जबकि लोसर का त्योहार धार्मिक भी होता है, और सामाजिक भी होता है। इस कारण लोसर के त्योहार में लदाख अंचल के साथ ही सारे हिमालयी परिक्षेत्र के समाज, यहाँ की संस्कृति, प्राचीनता और परंपरा की झलक देखने को मिलती है।
 लदाख अंचल के लिए लोसर का त्योहार बहुत खास होता है, क्योंकि सर्दियाँ शुरू होने के साथ ही यह त्योहार लोगों में नई जिंदगी की रौनक बिखेर देता है। गर्मियों में पर्यटकों से गुलज़ार रहने वाले लदाख में ठंढक के आगमन के साथ ही जीवन बदल-सा जाता है। क्या सर्दियों के आने पर लदाख उदासियाँ ओढ़ लेता है? शायद नहीं। क्योंकि लदाख का नववर्ष सर्दियों की शुरुआत के साथ ही नए जोश को लेकर उपस्थित हो जाता है। लदाख के नववर्ष को ही लोसर कहा जाता है। लोसर भोट भाषा के दो शब्दों- ‘लो’ और ‘त्सर’ से मिलकर बना है। ‘लो’ का अर्थ होता है- वर्ष, और ‘त्सर’ का अर्थ होता है- नया। इस तरह से ज्योतिषीय गणना के अनुसार नए वर्ष का त्योहार ही लोसर कहलाता है।
वैसे तो लोसर का मुख्य पर्व भोट पंचांग के हिसाब से ग्यारहवें महीने की अमावस्या को मनाया जाता है, लेकिन इसकी शुरुआत दसवें महीने में ही हो जाती है। भोट पंचांग के अनुसार दसवें महीने की पंद्रहवीं तिथि से धार्मिक अनुष्ठानों और पूजा-पाठ की शुरुआत हो जाती है, जो ग्यारहवें महीने की पाँचवी तिथि तक चलती रहती है। दसवें महीने की पंद्रहवीं तिथि को होने वाले धार्मिक अनुष्ठान में खास तौर पर विनय के नियमों या सूत्रों का पाठ होता है। इस दिन को विद्वान भिक्षु और महान सिद्ध ग्यालवा लोजंग टकस्पा के स्मृति-दिवस के रूप में भी जाना जाता है। दसवें माह की पच्चीसवीं तिथि को गलदेन ङाछोद का पर्व होता है। यह भी लोसर का पूर्वानुष्ठान होता है। इस तिथि को महासिद्ध चोंखापा की जन्मजयंती और परिनिर्वाण तिथि के रूप में मनाया जाता है। इस दिन महासिद्ध आचार्य चोंखापा को याद करते हुए गोनपाओं में पैंतीस बुद्धों की पूजा की जाती है। भिक्षुगणों द्वारा किए जाने वाले धार्मिक अनुष्ठान के साथ ही लोग अपने-अपने घरों में दीपक जलाकर खुशियाँ मनाते हैं। इस दिन छोरतेन, यानि स्तूपों में भी दीप प्रज्ज्वलित किए जाते हैं। ऐसा माना जाता है, कि जिस तरह महासिद्ध चोंखापा ने ज्ञान के प्रकाश से अज्ञानता के अँधेरों को दूर किया था, उसी तरह लोगों के जीवन में ज्ञान का उजाला फैले, समाज से अज्ञानता दूर हो, बुरी शक्तियाँ दूर हों और सभी का जीवन खुशहाल हो।
लोसर में सबसे ज्यादा रोचक और मजेदार आयोजन दसवें माह की उन्तीसवीं तिथि  होता है। इस दिन ‘गु-थुग’ बनाया जाता है। ‘गु-थुग’ एक खास किस्म का व्यंजन होता है, जो लोसर के त्योहार में ही में बनता है। यह थुग्पा जैसा ही होता है, लेकिन इसकी खासियत इसमें पड़ने वाली चीजों के कारण होती है। भोट भाषा में ‘गु’ का अर्थ होता है- नौ। लोसर के पर्व पर बनने वाले थुग्पा में नौ चीजें डाली जाती हैं, इसी कारण इस व्यंजन को ‘गु-थुग’ कहा जाता है । इसमें सने हुए आटे की लोइयों के बीच में कोयला, मिर्च, नमक, चीनी, रुई, अँगूठी, कागज और सूर्य तथा चंद्रमा की आकृतियाँ आदि नौ चीजों को अलग-अलग भरकर थुग्पा में डाला जाता है। आग में पक जाने के बाद ‘गु-थुग’ को सभी के बीच में बाँटते हैं। खाने से पहले सभी लोग देखते हैं, कि उनके हिस्से में कौन-सी चीज आई है। अलग-अलग लोगों के हिस्से में आने वाली चीजों के मुताबिक व्यक्ति के स्वभाव और गुण के बारे में बताया जाता है। अगर किसी व्यक्ति के हिस्से में कोयला आता है, तो यह माना जाता है कि उसका मन काला है, उसके विचार गंदे हैं। जिस व्यक्ति के हिस्से में मिर्च आती है, उसे कड़वा बोलने वाला या कटुभाषी माना जाता है। रुई पाने वाला सात्विक और सरल स्वभाव का होता है। कागज पाने वाला धार्मिक, सूर्य की आकृति पाने वाला यशस्वी, चंद्रमा की आकृति पाने वाला सुंदर और अँगूठी पाने वाला कंजूस माना जाता है। जिस व्यक्ति के हिस्से में अच्छी चीज आती है, उसे सम्मान मिलता है। जिसके हिस्से में बुरी वस्तु आती है, उसे अपमानित होना पड़ता है। इस तरह लोसर के त्योहार में वर्षभर के कामों का ब्यौरा निकलकर आ जाता है। वैसे तो यह मनोरंजन के लिए ही होता है, लेकिन इसके पीछे यह संदेश छिपा होता है, कि साल-भर अच्छे काम ही करने चाहिए, नहीं तो सबके सामने अपमानित होना पड़ेगा। इससे अच्छे कर्म करने की प्रेरणा मिलती है।
इसके अगले दिन, यानि दसवें माह की तीसवीं तिथि या अमावस्या को लोग सुबह-सुबह अपने-अपने घरों से मृतकों या पितृदेवताओं के लिए भोजन लेकर उनके समाधि-स्थल पर जाते हैं। शाम के समय गोनपाओं, छोरतेनों और घरों में दीप जलाए जाते हैं। अमावस्या की रात को जगमगाते दीपकों के बीच लदाख की धरती जगमगा उठती है। इसी दिन शाम के समय हरएक घर से मशाल या ‘मे-तो’ निकाले जाते हैं, जिन्हें लेकर लोग पूरे गाँव या मोहल्ले में घूमते हैं। इन्हें घुमाते हुए लोग आवाज लगाते जाते हैं, कि सारी बुराइयाँ, सारी बुरी और नकारात्मक शक्तियाँ यहाँ से चली जाएँ। ग्यारहवें मास की प्रतिपदा को, अर्थात् पहली तिथि को लोग नए-नए कपड़े पहनकर अपने-अपने इष्टदेव की पूजा करते हैं। सगे-संबंधी और परिचित-मित्र एक-दूसरे के घर शुभकामनाएँ देने जाते हैं। इस मौके में नवविवाहिताएँ भी अपने घर जाकर बड़ों के चरण छूकर प्रणाम करती हैं। इस दिन साल भर पकवान खिलाने वाले चूल्हे को भी प्रणाम किया जाता है, और पूजा की जाती है। लोसर के पर्व पर बच्चों को नए-नए कपड़े मिलते हैं और सभी लोग अपने परिजनों, मित्रों को उपहार भी देते हैं।
ग्यारहवें मास की द्वितीया को, अर्थात् दूसरी तिथि को पङोन, यानि महाभोज का आयोजन होता है, जिसमें सभी लोग बिना किसी भेदभाव के शामिल होते हैं। इस मौके पर स्त्रियों और पुरुषों के बीच छङ-लू नामक प्रतियोगिता होती है। इस मौके पर भक्तिभाव और वीरता के लोकगीत गाए जाते हैं। लोकगीतों द्वारा उन सैनिकों को भी शुभकामनाएँ दी जाती हैं, जो लोसर के त्योहार में अपने घर नहीं पहुँच पाते हैं। लदाख की धरती वीरों की धरती मानी जाती है। आज भी यहाँ के तमाम सैनिक देश की सेवा में लगे हुए हैं। इन वीरों का उत्साह बढ़ाने के लिए ही वीर रस से भरे हुए लोकगीत गाए जाते हैं। इसके पीछे एक ऐतिहासिक घटना भी नज़र आती है।
ऐसा माना जाता है, कि लदाख में लोसर का पर्व तिब्बती पंचांग के अनुसार ही मनाया जाता था, मगर लदाख के प्रतापी शासक राजा जमयङ नमग्याल के साथ जुड़ी एक घटना के कारण लोसर का पर्व तिब्बती लोसर से एक महीने पहले मनाया जाने लगा। मान्यता है, कि सोलहवीं शती. में राजा जमयङ नमग्याल के शासक बनते ही बल्तिस्तान में विद्रोह हो गया। यह घटना लोसर के एक महीने पहले की थी।  ऐसी संभावना थी कि लोसर के पहले युद्ध समाप्त नहीं हो पाएगा। इस कारण राजा जमयङ नमग्याल ने युद्ध में जाने से पहले ही लोसर मनाने की घोषणा कर दी। इस तरह भोट पंचांग के अनुसार दसवें महीने से ही लोसर पर्व के आयोजन की परंपरा चल पड़ी और आज भी इस परंपरा को देखा जा सकता है। उस समय युद्ध में जाने वाले वीर सैनिकों के अंदर जोश भरने के लिए वीरतापूर्ण लोकगीत गाये गए होंगे। आज लोसर में वीर-गीतों को गाने के रिवाज के पीछे भी यही कारण देखा जा सकता है।
ऐसा भी माना जाता है, कि लदाख के ठंढे मौसम और यहाँ की कृषि-व्यवस्था के कारण लोसर पर्व की तिथियों में अंतर है। लदाख में एक फसल ही पैदा होती है और खेती-किसानी का सारा काम अक्टूबर महीने तक पूरा हो जाता है। नवंबर के समाप्त होते-होते नई फसल का अनाज भी घर पहुँच जाता है। नया सत्तू और आटा भी तैयार हो जाता है। इस तरह लोसर में पूजा-पाठ के लिए नई फसल से सामग्री भी तैयार हो जाती है, और काम-काज की व्यस्तता भी नहीं रहती। इस कारण लोसर पर्व का उत्साह दुगुना हो जाता है। कारण चाहे जो भी हों, मगर ठंढक की दस्तक के साथ ही उल्लास और उमंग से भरा यह पर्व पुरातनकाल से ही लदाख अंचल की अपनी विशिष्ट पहचान को, अपनी अनूठी परंपराओं को सँजोए हुए है।
लदाख अंचल भौगोलिक रूप से जितना बड़ा है, उतनी ही विविधताएँ भी यहाँ पर देखी जा सकती हैं। नुबरा, चङथङ, जङ्स्कर और शम आदि क्षेत्रों में लोसर पर्व के साथ जुड़ी लोकपरंपराओं के अलग-अलग रंग देखे जा सकते हैं। इन लोकपरंपराओं में बहुत रोचक है, यहाँ की स्वाँग की परंपरा। प्राचीनकाल में स्वाँग की परंपरा सारे लदाख में अलग-अलग तरीके से मनाई जाती थी, मगर आधुनिक जीवन-शैली के कारण यह परंपरा लदाख अंचल के दूरदराज के गाँवों में ही सिमटकर रह गई है। जिस समय लदाख में मनोरंजन के साधन उपलब्ध नहीं रहे होंगे, उस समय लोगों के मनोरंजन के लिए, और उनकी धार्मिक भावनाओं की पुष्टि के लिए यह लोक-परंपरा बहुत कारगर रही होगी। इसमें लदाख के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग किस्म के स्वाँग करने की परंपरा है। लेह शहर के नजदीक चोगलमसर गाँव में होने वाले अबी-मेमे; ञे, बसगो, अलची गाँवों में होने वाले लामा-जोगी; हेमिशुगपाचन में होने वाले खाछे-कर-नग; स्क्युरबुचन में होने वाले अपो-आपी और वनला में होने वाले दो बाबा नामक स्वाँग बहुत प्रसिद्ध हैं। इन स्वाँगों में लोग बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। इन स्वाँगों में नसीहतें ही नहीं, इतिहास की झलक भी देखी जा सकती है और लदाख अंचल के साथ जुड़े धार्मिक-सांस्कृतिक संबंधों को भी देखा जा सकता है। लामा-जोगी नामक स्वाँग में उस पुराने लदाख को देखा जा सकता है, जिसमें कैलास मानसरोवर की यात्रा के लिए आने वाले जोगी या साधु-संन्यासी नजर आते हैं। पुराने ज़माने में बौद्ध भिक्षु, यानि लामाओं जैसी जिंदगी जीने वाले साधु-संन्यासियों को देखकर ही शायद लामा-जोगी स्वाँग का विचार आया होगा। इस स्वाँग में नवमी तिथि को लामा-जोगी अभिमंत्रित अनाज, जैसे गेहूँ-जौ आदि लेकर गाँवों में घूमते हैं और इन्हें छिटककर विघ्न-बाधाओं को दूर करते हैं। वे हरएक घर पर जाते हैं। घर का मुखिया लामा-जोगी के माथे पर सत्तू का तिलक लगाता है और ऊनी मुकुट पर ऊन चढ़ाता है। लामा-जोगी के आशीर्वाद से घर-परिवार, और गाँव में बुरी शक्तियाँ नष्ट होती हैं और सुख समृद्धि आती है। लामा-जोगी का यह स्वाँग प्राचीन लदाख को अतीत के भारत से जोड़ने वाला है। इस स्वाँग के माध्यम से प्राचीन भारत की सिद्ध-श्रावक-श्रमण परंपरा के सुनहरे इतिहास को भी याद किया जा सकता है। यह स्वाँग भारतवर्ष में लदाख अंचल के विशिष्ट और अभिन्न सांस्कृतिक-धार्मिक-सामाजिक सहकार की झलक दिखाता है। इस स्वाँग के माध्यम से लदाख अंचल के स्वर्णिम और गौरवपूर्ण अतीत के पन्ने खुलते चले जाते हैं। भावनात्मक जुड़ाव की झलक पेश करने वाले लामा-जोगी जैसे स्वाँगों का लोसर में विशेष आकर्षण होता है।
लोसर में कुत्ते, बिल्लियों, गाय, बछड़ों आदि को भी खाना खिलाया जाता है। नई फसल का उत्सव भी इसमें होता है। इस तरह लोसर का त्योहार सभी जीवधारियों के प्रति प्रेम के साथ ही सहजीवन और सह-अस्तित्व का भाव भी दिखाता है।
इस तरह लोसर का त्योहार अपनी विविधताओं के साथ, उमंग और उल्लास के साथ सर्दियों की ठिठुरन के बीच नया जोश, नई उमंग भर जाता है। लोसर का त्योहार उल्लास और उमंग के साथ ही लदाख के गौरवपूर्ण अतीत को, विनय की शिक्षाओं को, और नीति-नैतिकता की नसीहतों को साथ लेकर आता है। सीमित संसाधनों के बीच, जीवन की जटिलताओं के बीच लोसर के पर्व पर थिरकते पाँव बताते हैं कि जीना भी एक कला है और अपनी तहजीब के विविध रंगों को समेटकर लोसर के दीपकों की जगमगाहट के बीच बिखेर देना ही कठिन जीवन की कड़ी चुनौतियों के लिए सटीक जवाब है। एक बाल कविता के साथ लोसर की ढेर सारी शुभकामनाएँ-

आया आया लोसर1 आया,
ढेरों  खुशियाँ  संग   लाया,
ठंडक से सहमे  लोगों  को,
मस्ती  का   मौसम   भाया,
आया आया लोसर  आया।
झूम-झूमकर   गाना   गाते,
गाने  के  संग  नाच है सुंदर,
बज उठते हैं दमन2 के बोल,
सुरनाने  उत्साह  बढ़ाया,
आया  आया लोसर  आया।
आचो4    आते     आचे5   आती,
मिलजुल कर सब साथ में होते,
सबके संग कुछ समय  बिताया,
आया   आया   लोसर   आया।
मिट जाते झगड़े झंझट सब
कौन  हैं  मेरे  कौन  तुम्हारे,
बीती  बातें  सभी भुलाकर,
सबको  गले  लगाने  आया,
आया  आया  लोसर आया।
बनती खूब  सिवइयाँ मीठी,
सज जाते  हर घर हर द्वारे,
जगमग जगमग धरती होती,
हर मन को  चमकाने आया,
आया आया लोसर  आया।
नौ तरह  की चीज़  मिलाकर
नौवें    दिन     होता    तैयार
कहते लोग गुथुक6 है जिसको
आमाँ7  ने  सबको  पिलवाया,
आया  आया  लोसर   आया।
किसने  अच्छे  कर्म   किये  हैं,
किसने   बुरे   किये    हैं   काम,
किस्मत अच्छी बुरी है किसकी,
जादू की पुड़िया  को  खोलकर,
अच्छा   बुरा    बताने    आया,
आया   आया   लोसर   आया।
1.तिब्बती पंचांग के अनुसार सर्दियों में मनाया जाने वाला पर्व 2. नगाड़ा जैसा वाद्य यंत्र 3. बीन जैसा वाद्य यंत्र 4. बड़ा भाई (तिब्बती) 5. बड़ी बहन (तिब्बती) 7. लोसर में बनने वाला एक प्रकार का पेय पदार्थ जिसमें मेवे के साथ कोयला आदि नौ चीजें मिलाई जातीं हैं 8. माँ (तिब्बती)
(आकाशवाणी, लेह से दिनांक 11 दिसंबर, 2018 को प्रातः 09 बजकर 10 मिनट पर प्रसारित)
राहुल मिश्र

Sunday 18 November 2018

सप्तकल्पक्षये क्षीणे न मृता तेन नर्मदा




सप्तकल्पक्षये क्षीणे न मृता तेन नर्मदा

सप्तकल्पक्षये    क्षीणे      मृता   तेन  नर्मदा ।
नर्मदैकैव      राजेन्द्र       परं     तिष्ठेत्सरिद्वरा ।। 55 ।।
तोयपूर्णा      महाभाग      मुनिसङ्घैरभिष्टुता ।
गंगाद्याः सरितश्चान्याः कल्पे-कल्पे क्षयं गताः ।। 56 ।।
भारतीय संस्कृति और समाज-जीवन में अपना विशेष महत्त्व रखने वाली नर्मदा नदी का सुंदर-रोचक और धर्म-अध्यात्म से परिपूर्ण वर्णन श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में मिलता है। नर्मदा का एक नाम रेवा भी है। श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में नर्मदा नदी का समग्र वैशिष्ट्य प्रदर्शित-परिलक्षित होता है। रेवाखंड में उल्लिखित है कि सात कल्पों का क्षय हो जाने के बाद भी मृत होना, अर्थात् नष्ट होना तो दूर, जो क्षीण भी नहीं होती है, ऐसी श्रेष्ठ नदी ही नर्मदा कहलाती है। श्रीस्कंद पुराण के रेवाखंड में मार्कण्डेय ऋषि और धर्मराज युधिष्ठिर के मध्य संवाद चल रहा है। मार्कण्डेय ऋषि धर्मराज युधिष्ठिर से कहते हैं कि- हे राजेंद्र! नर्मदा ही ऐसी श्रेष्ठ नदी है, जो सदा स्थित रहा कहती है, कभी नष्ट नहीं होती है। इस प्रसंग के पूर्व युधिष्ठिर के प्रश्न पर मार्कण्डेय ऋषि बताते हैं- गंगा सब नदियों में श्रेष्ठ है; उसी प्रकार सरस्वती, कावेरी, देविका, सिंधु, सालकुठी, सरयू, शतरुद्रा, यमुना, गोदावरी आदि अनेक नदियाँ समस्त पापों का हरण करने वाली हैं। ये सभी नदियाँ और समुद्र किस कारण से कल्प, कल्प में नष्ट हो जाते हैं, उनके बारे में मैं बताऊँगा। किंतु इन सबसे अलग नर्मदा नदी ऐसी है, जिसका सात कल्पों में भी क्षय नहीं होता, जो अनेक कल्पों तक अनवरत् प्रवाहमान रहती है, जो कालजयी और शाश्वत है। मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को बताते हैं, कि-  हे महाभाग! नर्मदा नदी सदैव जल से परिपूर्ण रहती है। मुनि-संघ, अर्थात् साधु-संन्यासियों और ऋषि-मुनियों के लिए यह नदी सदैव अभीष्टित रही है। इसके तट पर मुनि-संघ तपश्चर्या करने हेतु सदैव प्रेरित होता रहा है। इसका कारण संभवतः नर्मदा नदी का शाश्वत जीवन है, क्योंकि गंगा और उसके सदृश अनेक नदियों का कल्प-कल्प में क्षय हो जाया करता है।
मार्कण्डेय ऋषि का आश्रम नर्मदा नदी के उद्गम-स्थल के निकट स्थित है, जिसे वर्तमान में मारकुंडी के नाम से जाना जाता है। विंध्य पर्वतश्रेणियों और सतपुड़ा की पहाड़ियों के मध्य नर्मदा नदी का उद्गम अमरकंटक नामक स्थान पर होता है। विंध्य पर्वतश्रेणी का दक्षिणी छोर चित्रकूट परिक्षेत्र के रूप में प्रसिद्ध है। अतीत से ही चित्रकूट परिक्षेत्र धर्म-साधना का केंद्र रहा है। इस कारण यहाँ पर अनेक प्रसिद्ध ऋषियों के आश्रम रहे हैं और अनेक साधकों ने इस क्षेत्र का अपनी साधना के लिए चयन भी किया है। नर्मदा नदी के उद्गम के साथ शिवजी की साधना का प्रसंग जुड़ा हुआ है। श्रीस्कंद पुराण में मार्कण्डेय ऋषि नर्मदा के शाश्वत जीवन को बताते हुए कहते हैं कि-
पुरा  शिवः  शान्ततनुश्चचारविपुल तपः ।
हितार्थ  सर्वलोकानामुमया  सह शंकरः ।।14।।
ऋक्षशैलं  समारूह्य  तपस्तेपे सुदारुणम् ।
अदृश्यः सर्वभूतानां सर्वंभूतात्मको वशी ।।15।।
तपस्तस्य  देवस्य स्वेदः समभवत्विकल ।
तंगिरिंप्लावयामास     सस्वेदोरुद्रसंभवः ।।16।।
प्राचीनकाल में परम शांत शरीर वाले शिवजी ने उमाजी के साथ अत्यंत कठिन साधना की थी। लोक-कल्याण के लिए उन्होंने यह तप ऋक्षशैल में किया था। यह ऋक्षशैल विंध्य और सतपुड़ा की पर्वश्रेणियों की संगम-स्थली माना जाता है। कठिन तपश्चर्या के कारण शिवजी के शरीर से निकलने वाली पसीने की बूँदें इस ऋक्षशैल पर गिरीं, जिसने शैल को पिघला दिया और इस प्रकार नर्मदा का जन्म हुआ। ऋक्षशैल को रैवतक पर्वत भी कहा जाता है। रैवतक से उत्पन्न होने के कारण नर्मदा को रेवा के नाम से भी जाना जाता है। शिव को सृष्टि के संहारकर्ता के रूप में जाना जाता है। नर्मदा के तट पर शिवजी की कठिना साधना-तपश्चर्या शिव के लोकरक्षक स्वरूप को प्रकट करती है। इसके साथ ही शिवजी के स्वेद से उत्पन्न नर्मदा नदी श्रम की महत्ता और साधना की श्रेष्ठता को स्थापित करती है। श्रीस्कंद पुराण में वर्णित आस्था के पक्ष के साथ नर्मदा के तटीय क्षेत्रों का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक-सामाजिक अतीत अपने समग्र गौरव के साथ उपस्थित हो जाता है, जिसे अध्ययन की गहराइयों में उतरकर देखा जा सकता है, जाँचा-परखा जा सकता है।
नर्मदा नदी के किनारे गोंड जनजातीय समूह का विस्तार मिलता है। इसी कारण इस क्षेत्र को आज गोंडवाना के नाम से जाना जाता है। इतिहास में गोंड राजवंश का कालखंड पंद्रहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। गोंड राजवंश की प्रसिद्धि प्रमुख रूप से रानी दुर्गावती के नाम से अंकित है, जिन्होंने अपने पति राजा दलपतशाह के असामयिक निधन के बाद गोंडवाना का शासन पूरी कुशलता के साथ सँभाला, मुगलों की सेनाओं को कई बार पराजित किया और बाद में वीरगति को प्राप्त किया। किंतु इससे पूर्व गोंड जनजातीय समूह को प्राचीनतम जनजातीय समूह और मानव आबादी के स्रोत के रूप में भी जाना जाता है। गोंडी धर्म की कथाओं में शिव को शंभूशेक या महादेव के रूप में जाना जाता है। गोंडों की धार्मिक कथाओं में महादेव की अठासी पीढ़ियों का उल्लेख मिलता है। इन अठासी पीढ़ियों में शिव के साथ शक्ति का अद्भुत समन्वय देखा जा सकता है। लोकदेवता के रूप में शिव-शक्ति का युगल लोक का कल्याण करता रहा है, ऐसा गोंडवाना की लोककथाओं और लोकगीतों में वर्णित होता है। महादेव की अठासी पीढ़ियों की शुरुआत शंभु-मूला से होती है और अंतिम पीढ़ी में शंभु-पार्वती का उल्लेख मिलता है। इन अठासी पीढ़ियों का अतीत पाँच हजार से लगाकर दस हजार ईसापूर्व तक माना जाता है। गोंडों का अपना धर्म, जिसे गोंडी भाषा में ‘कोया-पुनेम’ कह जाता है, उसका अतीत भी लगभग इतना ही पुराना है।
कोया-पुनेम का शाब्दिक अर्थ होता है- मानव-धर्म। नर्मदा के तट पर बसी गोंडों की अति-प्राचीन बस्तियाँ अपनी आस्थाओं और जीवनीय मान्यताओं के साथ हजारों वर्ष पहले से मानव-धर्म का निर्वहन करती चली आ रही हैं। ‘कोया-पुनेम’ या मानव-धर्म यहाँ के मूल निवासियों की अपनी आस्थाओं, मान्यताओं और धार्मिक क्रिया-कलापों में प्रकट होता रहा है। श्रीस्कंद पुराण में वर्णित शिव-पार्वती की कठिन तपश्चर्या इसी की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति प्रतीत होती है। लोक-कल्याण के लिए, मानव-धर्म को निभाने के लिए गोंडों के आदिपुरुष और गोंडों की आदिशक्ति ने संयुक्त रूप से जिस कठिन तप और साधना से नर्मदा का सृजन किया, उसका धार्मिक स्वरूप श्रम के प्रति आस्थावान होने, साधना के प्रति नतमस्तक होने की सीख देता प्रतीत होता है। इस कारण रैवतक पर्वत की नीलिमा से युक्त रेवा का प्रवाह सदियों से कर्म-सौंदर्य और लोक-कल्याण का गुणगान करता रहा है; श्रम-साधना के प्रति आस्थावान मानव-समुदाय को इन विलक्षण गुणों से जोड़ने हेतु प्रेरित करता रहा है। नर्मदा नदी इसी कारण साधना की प्रतीक है।
रैवतक पर्वत में की गई शिव-पार्वती की तपश्चर्या के संबंध में ऐसी मान्यता है कि यह तपस्या उन्होंने विष्णु के लिए की थी। विष्णु के विभिन्न अवतारों द्वारा अलग-अलग कालखंडों में रक्ष-संहार किया गया। साधना-तपस्या और लोक के कल्याण हेतु संलग्न रहने वाले साधु-संन्यासियों को आतंकित करने वाले क्रूरकर्मा राक्षसों के संहार के लिए विष्णु ने अलग-अलग अवतार धारण किए और धरती पर धर्म की स्थापना की। अलग-अलग कालखंडों में विष्णु द्वारा किए गए संहारों के प्रायश्चित्त के रूप में शिव ने अपनी तपस्या रैवतक पर्वत में की, ऐसा माना जाता है। इस तरह शैव और वैष्णव का अद्भुत समन्वय, अनूठा सामंजस्य नर्मदा के तट पर परिलक्षित होता है। यह नर्मदा का अपना वैशिष्ट्य है, कि शैव-साधना का विशिष्ट केंद्र होकर भी यहाँ वैष्णव भक्ति-भावना के सूत्र जुड़ते हैं।
श्रीस्कंद पुराण में नर्मदा के माहात्म्य को उद्घाटित करने वाले मार्कण्डेय ऋषि जब नर्मदा नदी को सात कल्पों के क्षय हो जाने पर भी क्षीण नहीं होने वाली दुर्लभ नदी कहते हैं, तब बहुधा पुराणकार और कथावाचक के प्रति अतिकाल्पनिक हो जाने का संशय उत्पन्न होने लगता है। पुरातनकाल में आस्थावान लोगों के लिए संशय की स्थितियाँ आज के सदृश नहीं होती थीं। आज की वैज्ञानिक दृष्टि अपनी आस्था को बल देने के लिए तथ्यों को महत्त्व देती है। इस दृष्टि से विचार करने हेतु पुनः गोंड जनजातीय समूहों के अतीत को देखना होगा। आज की भूवैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि पचास करोड़ वर्ष पूर्व धरती में केवल दो महाद्वीप थे। इनमें से एक को ‘लॉरेशिया लैंड’ और दूसरे को ‘गोंडवाना लैंड’ नाम दिया गया है। इन दोनों महाद्वीपों के टूटने पर वर्तमान के पाँच महाद्वीपों का निर्माण हुआ है।
दक्षिणी गोलार्ध में स्थित ‘गोंडवाना लैंड’ का सीधा संबंध नर्मदा नदी के तटीय क्षेत्रों से था। इस कारण आदिमकालीन गोंड जनजातीय समूहों को आदिमानव की बस्तियाँ माना जाता है। भूवैज्ञानिकों का मानना है कि जीवन का सर्वप्रथम विकास नर्मदा नदी के तट पर हुआ है। नर्मदा नदी घाटी में हुए उत्खनन में डायनासोरों के अंडे और जीवाश्म भी मिले हैं। पेंजिया भूखंड के निर्माण के समय, अर्थात् लगभग तेरह करोड़ वर्ष पूर्व आदिमानव की उत्पत्ति भी नर्मदा नदी घाटी में हुई। नर्मदा घाटी में मिलने वाले खारे पानी के स्रोत और आदिमानव द्वारा बनाए गए शैलचित्र नर्मदा नदी घाटी की प्राचीनता को प्रमाणित करते हैं। गोंडी भाषा में प्रचलित लोकगीतों और लोककथाओं में आदिकालीन मानव के अनेक विविधतापूर्ण चित्र मिलते हैं, जिनके आधार पर भी नर्मदा नदी की प्राचीनता को सिद्ध किया जा सकता है।
सप्तकल्प, अर्थात् लगभग आठ करोड़ चालीस लाख वर्ष गुजर जाने के बाद भी नर्मदा नदी का क्षय नहीं होता, नर्मदा नदी का अस्तित्व समाप्त नहीं होता, ऐसा जब श्रीस्कंद पुराण में कहा जाता है, तब वर्तमान की भूवैज्ञानिक खोजों के आलोक में इस कथन को परखने पर हमारा सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है। जिस समय आज के जैसे आधुनिक उपकरण और परीक्षण की विधियाँ नहीं थीं, उस समय किया गया काल-निर्धारण न केवल आश्चर्य में डाल देने वाला है, वरन् अपने पुरातन ज्ञान-विज्ञान के प्रति असीमित-अपरिमित आस्था की उत्पत्ति करा देने वाला भी है।
विंध्य को उत्तर और दक्षिण का विभाजक माना जाता है। विंध्य और सतपुड़ा के संधि-स्थल से निकलने वाली नर्मदा नदी भी विंध्य की भाँति उत्तर और दक्षिण के मध्य विभाजक रेखा खींचती है। उत्तर और दक्षिण का विभाजन वस्तुतः आर्य और द्रविड़ जातीय समूहों का  विभेद है। इस विभेद को तोड़ने के अनेक प्रयास अतीत से ही होते रहे हैं। विष्णु के हिस्से की तपस्या को रैवतक पर्वत में शिव-पार्वती द्वारा किया जाना, रामेश्वरम् में श्रीराम के द्वारा शिवलिंग की स्थापना करना आदि इसके प्रतीक हैं। ये शैव और वैष्णव के मध्य समन्वय-सौहार्द को स्थापित करने के साथ ही उत्तर और दक्षिण के विभेद को मिटाने के प्रयास भी हैं। भारतीय ऋषि-मुनियों ने, विशेषकर महर्षि अगस्त्य और उनकी पत्नी लोपामुद्रा ने इस कार्य को सक्रियता के साथ किया है। महर्षि अगस्त्य के साथ एक प्रसंग आता है, कि विंध्य को निरंतर ऊँचा होते देखकर उन्होंने विंध्य पर्वत से आग्रह किया, कि उन्हें दक्षिण की ओर जाना है और जब तक वे दक्षिण की यात्रा से लौटकर न आ जाएँ, तब तक वह अपनी ऊँचाई को न बढ़ाए। इस पौराणिक प्रसंग में महर्षि अगस्त्य उत्तर और दक्षिण के मध्य बढ़ती दूरियों को कम करने हेतु प्रयासरत प्रतीत होते हैं। बाद में राम का वनगमन होता है। दक्षिणापथ में अग्रसर होने हेतु राम का पथ-प्रदर्शन अगस्त्य ऋषि द्वारा किया जाता है।
अतीत की यह परंपरा, उत्तर और दक्षिण के मध्य विभेद को कम करने के प्रयासों की अगली कड़ी नर्मदा परिक्रमा में दिखाई पड़ती है। नर्मदा के किनारे-किनारे चलने वाली पदयात्रा इसी कारण अपना धार्मिक महत्त्व-मात्र नहीं रखती, अपितु सामाजिक-सांस्कृतिक सहकार और सामंजस्य के गुरुतर दायित्व का निर्वहन भी करती है। नर्मदा परिक्रमा का प्रारंभ कब से हुआ, यह बताना कठिन है। यद्यपि कुछ आस्थावान भक्तों द्वारा नर्मदा परिक्रमा के रोचक वृत्तांत को लिपिबद्ध किया गया है। नर्मदा परिक्रमा तीन वर्ष तीन मास और तेरह दिनों में पूर्ण होती है। भगवान दत्तात्रेय के उपासक नर्मदा परिक्रमा को विशेष महत्त्व देते हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा और तेलंगाना आदि प्रांतों के साथ ही नेपाल से आने वाले दत्त संप्रदाय के उपासक बड़ी आस्था के साथ नर्मदा की परिक्रमा करते हैं। इस तरह नर्मदा परिक्रमा में उत्तर से दक्षिण तक, अखंड भारतवर्ष सिमट आता है, ऐसा कहा जा सकता है। आपसी मेल-जोल को बढ़ाने, विविध संस्कृतियों और जीवन-दृष्टियों को अवगाहने के लिए नर्मदा परिक्रमा को किसी लोक-उत्सव से कम नहीं कहा जा सकता है।
लोकजीवन के लिए नर्मदा केवल एक नदी नहीं है, वरन् ‘माई’ है, माता है। इसीलिए नर्मदा स्नान को जाते, नर्मदा की परिक्रमा लगाते आस्थावान नर्मदा-पुत्रों की वाणी में- ‘नरबदा मइया ऐसी तो मिली रे.., जैसे मिले हैं मताई ओर बाप रे....’ जैसे लंबी टेर वाले लमटेरा गीत सुनाई पड़ते रहते हैं। राजा मेकल की सुता, मेकलसुता और सोन नद की कथाओं के साथ ही बाजबहादुर और रानी रूपमती की कथाओं को नरबदा माई अपने में बसाए हुए हैं। गोंडवाना की रानी दुर्गावती और महिष्मती (महेश्वर) की रानी अहिल्याबाई होलकर की वीरता को रेवा ने अपने प्रवाह में सँजोया है।
आज भृगु ऋषि की साधना-स्थली भेड़ाघाट प्रसिद्ध पर्यटन-स्थल के रूप में विकसित हुआ है। आस्था और लोक-परंपरा को साथ लेकर चलने वाली नर्मदा परिक्रमा अब तीन वर्ष तीन माह और तेरह दिन से सिमटकर हवाई मार्ग से मात्र तीन-चार घंटे में ही पूरी हो जाने वाली बन गई है। सप्तकल्पों में भी क्षय नहीं होने वाली नर्मदा नदी के किनारे जन्मे आदिमानव के वंशजों के लिए अतीत का गौरवपूर्ण अध्याय आज के भौतिकता से पूर्ण जीवन में पढ़ा जाना दुष्कर प्रतीत होने लगा है। इसके बावजूद नरबदा माई अपने आँचल में असीमित स्नेह भरे हुए अपने सपूतों को जीवन जीने की दिशा दिखा रही हैं, साधना का पथ बता रही हैं, और कर्म के सौंदर्य को प्रतिष्ठापित कर रही हैं।
संदर्भ-स्रोत-
1.  श्रीस्कंद पुराण, द्वितीय खंड, रेवाखंड, सं. श्रीराम शर्मा आचार्य, संस्कृति संस्थान, बरेली, सं. 1986,
2.  लारेंशिया-गोंडवाना कनेक्शन बिफोर पेंजिया, सं. विक्टर ए. रामोस एवं डंकन कैपी, द जियोलॉजिकल सोसायटी ऑफ अमेरिका, कॉलॉरेडो, सं. 1999,
3.  भारतीय संस्कृति में ऋषियों का योगदान, डॉ. जगतनारायण दुबे, दुर्गा पब्लिकेशंस, दिल्ली, सं. 1989,
4.  संस्कृति-स्रोतस्विनी नर्मदा, अयोध्याप्रसाद द्विवेदी, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल, सं. 1987,
5.  जंगल रहे-ताकि नर्मदा बहे, पंकज श्रीवास्तव, नर्मदा संरक्षण पहल, इंदौर, सं. 2007,
6.  हिस्ट्री, ऑर्कियोलॉजी एंड कल्चर ऑफ दि नर्मदा वैली, आर.के. शर्मा, शारदा पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, सं. 2007,
7.  एथनिक ग्रुप्स ऑफ साउथ एशिया एंड दि पैसिफिक : एन इनसाइक्लोपीडिया, जेम्स बी. मिन्हन,  एबीसी-सीएलआईओ, एलएलसी, कैलिफोर्निया, सं. 2012,
8.  विकीपीडिया।
-राहुल मिश्र
(अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास द्वारा श्रीमहेश्वर, मध्यप्रदेश में आयोजित ‘नर्मदा परिक्रमा’ विषयक राष्ट्रीय संगोष्ठी, दिनांक- 13-14 सितंबर, 2018 की स्मारिका में प्रकाशित, सं. डॉ. मंदाकिनी शर्मा एवं डॉ. आशा वर्मा, प्रका. अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली)

Wednesday 14 November 2018

बळिहारी उण देस री, माथा मोल बिकाय ।





बळिहारी उण देस री, माथा मोल बिकाय ।

धव धावाँ  छकिया  धणाँ, हेली आवै दीठ ।
मारगियो  कँकू  वरण,  लीलौ  रंग  मजीठ ।।
नहँ  पड़ोस  कायर  नराँ,  हेली वास सुहाय ।
बलिहारी उण देस री,  माथा मोल बिकाय ।।
घोड़ै चढ़णौ  सीखिया, भाभी किसड़ै काम ।
बंब  सुणीजै  पार  रौ,  लीजै  हाथ  लगाम ।।
जब राजस्थान की चर्चा होती है, तब वहाँ की लोक-परंपरा में गाए जाने वाले गीतों के ऐसे बोल रोम-रोम में स्फुरण उत्पन्न कर देते हैं। यहाँ वीर नहीं, एक वीरांगना है, जो युद्ध के मैदान से विजयी होकर आते हुए अपने पति को देखती है। वह वीरता का प्रदर्शन करने वाले अपने पति की दशा को देखकर विचलित नहीं होती है। अनेक घावों से बहते रक्त के कारण रक्तरंजित हो गया पति का शरीर उसे भयाक्रांत नहीं करता है। पति के शरीर से बहते रक्त के कारण कुंकुम वर्ण के हो गए रास्ते को वह गर्व के भाव के साथ देखती है। वह अपनी सखी से कहती है कि उसके पति का श्वेत रंग का अश्व भी मजीठ के रंग का हो गया है। वह अपनी सखी से कहती है कि मुझे कायर लोगों के पड़ोस में रहना नहीं सुहाता है। मैं तो वीर पुरुषों की पड़ोसन बनने में ही गर्व महसूस करती हूँ। मुझे कायरों का जीवन पसंद नहीं है। मैं तो उस देश पर खुद को न्योछावर करने के लिए तत्पर रहती हूँ, जहाँ मस्तक मोल बिकते हैं, जहाँ वीर अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से पीछे नहीं हटते हैं। अरे भाभी! मैंने घोड़ा चढ़ना आखिर किस काम के लिए सीखा है? अपने देश की आन-बान-शान की रक्षा के लिए ही न! इसीलिए तो दुश्मन की ललकार सुनते ही घोड़े की लगाम को हाथ में लेकर रणक्षेत्र में उतर पड़ने को मैं तत्पर रहती हूँ।
एक वीरांगना के ये स्वर जब राजस्थान की लोक-गायकी में पूरे जोश के साथ प्रस्फुटित होते हैं, तब यह सिद्ध हो जाता है कि राजस्थान की धरा वीरों की ही नहीं, वीरांगनाओं की वीरता से भी आलोकित है। राजस्थान की लोक-परंपरा में शृंगारपरक उक्तियों के साथ नायिकाभेद, और शृंगार के सुंदर चित्रों के बीच स्त्रियोचित गुणों को अभिव्यक्त करती सुंदरियों के चित्र राजस्थान की लोक-गायकी की पहचान को नहीं गढ़ते हैं। राजस्थान की वीरांगनाओं का चरित-काव्य उनके शौर्यभाव से आलोकित होता है, न कि शृंगारभाव से। इसी कारण उनमें ऊर्जा और वीरत्व का ऐसा गुण प्रस्फुटित होता है, कि वह अपने कुसुम से भी कोमल स्वभाव को वज्र से भी कठोर बनाकर वीरता की अमिट छाप छोड़ने में पीछे नहीं रहती हैं। राजस्थान की लोक-परंपरा में दिखाई पड़ने वाली यह ऐसी अनूठी विशेषता है, जिसे अन्यत्र खोजना बहुत कठिन है। इसी रीति का एक प्रचलित लोकगीत है, जिसमें लोकगायक गाता है-
तात विदेसाँ आवियौ, कौले दीठा हाथ ।
एण बधाई हूलसै, सुत-बू बलिया साथ ।।
इस दोहे के साथ कथा का प्रसंग आता है, कि पिता कहीं बाहर गया था। इतने में ही युद्ध छिड़ गया। युद्ध में बेटे के साथ बहू भी वीरगति को प्राप्त हुई। पिता के घर लौटने पर उसे बेटे-बहू के बारे में बताने वाला कोई नहीं था। उसने कौरी (घर के प्रवेशद्वार के बगल) में लगी हुई हाथ की छापों को देखते ही पिता को सच्चाई का पता चल गया। इन्हें देखकर पिता के मन में शोक का भाव पैदा नहीं होता। उसे तो लगता है, कि ये कुंकुम से बने हस्त-चिन्ह उसे बधाई दे रहे हैं। उसके अंदर इस बात की उमंग पैदा होती है, कि उसके बेटे और बहू ने वीरता का परिचय दिया है। दरवाजे में हस्त-चिन्ह अंकित करने की परंपरा राजस्थान से लगाकर बुंदेलखंड तक देखी जाती है, और यह परंपरा आज भी जिंदा है। कई क्षेत्रों में आज भी यह परंपरा है कि विवाह के बाद घर आने वाली नववधू को घर में प्रवेश तभी मिलता है, जब उसके द्वारा हाथा लगाने (हस्त-चिन्ह अंकित करने) की रस्म पूरी कर ली जाती है। हाथा लगाना नवविवाहिता के लिए नीति-निर्देशक तत्त्व के समान है, जिसमें आवश्यकता पड़ने पर वीरांगनाओं की परंपरा को निभाने का संदेश निहित होता है। यह परंपरा उसी वीरोचित गुण का स्मरण कराते हुए आज भी अपने अस्तित्व को बनाए हुए है, जिसे राजस्थान की वीरांगनाओं ने निभाया है, और जिसका यशोगान राजस्थान की लोकगायकी में आज भी देखा जाता है।
राजस्थान की लोकगायकी और डिंगल-पिंगल का मेल भी बहुत अनूठा है। लोक-परंपरा से लगाकर शिष्ट साहित्य की धारा तक विस्तृत डिंगल-पिंगल के बिना राजस्थान का वर्णन और साथ ही राजस्थान की शौर्यगाथाओं का वर्णन पूरा नहीं हो सकता। कुल मिलाकर, ये राजस्थान की अपनी पहचान से जुड़ने वाला विषय है। भाषाविज्ञान के अनेक विद्वानों ने डिंगल और पिंगल का बड़ा विश्लेषण अपने-अपने स्तर पर किया है। कुछ विद्वानों के लिए ये भाषाएँ हैं, तो कुछ के लिए ये अलग-अलग शैलियाँ हैं। डिंगल की अपेक्षा पिंगल का साहित्य लिखित रूप में अधिक मिलता है। पिंगल का अपना वैशिष्ट्य और अपने समय की समृद्ध साहित्यिक भाषा- ब्रजभाषा से निकटता के कारण लिखित या शिष्ट साहित्य में पिंगल की उपस्थिति अधिक मिलती है। दूसरी ओर लोक-परंपरा की गायकी में डिंगल का वर्चस्व देखा जा सकता है। युद्धों के वर्णन और वीरो-वीरांगनाओं के शौर्य के वर्णन के कारण डिंगल का तीखापन और इसके लोक-संस्करण की प्रचुरता ने इसे शिष्ट साहित्य में अपेक्षित स्थान नहीं पाने दिया। संभवतः इसी कारण भाषा या शैली के विवाद में डिंगल और साथ ही पिंगल के साहित्य की विशिष्टताओं की ओर वैसी दृष्टि नहीं जा सकी, जैसी कि अपेक्षित थी।
संस्कृत की समृद्धिशाली परंपरा से अपभ्रंश या पुरानी हिंदी की रचनाओं में आने वाले शृंगार तथा प्रेम के भावों के साथ शौर्य और वीरता के भावों का सुंदर मेल इस धारा में देखा जा सकता है। इसी कारण प्राकृत पैंगलम्, मुंजरास, पृथ्वीराज रासो, हम्मीर रासो, वेलि क्रिसन रुकमणी री, दसरथरावउत और बीसलदेव रासो जैसे ग्रंथों में धर्म, अध्यात्म, प्रेम, शृंगार, वीरता और शौर्य का अद्भुत समन्वय देखने को मिलता है। यह समन्वय इसलिए भी अनूठा है, क्योंकि इसमें परस्पर विरोधी भावों का समन्वय निहित है। इसमें प्रत्येक भाव का अपना अनूठा और अद्भुत संयोग है। इस प्रकार भक्ति, शृंगार और वीरता के कारण ओज, माधुर्य और प्रसाद गुणों के अनूठे समन्वय को डिंगल-पिंगल की विशेषता के रूप में देखा जा सकता है।
संस्कृत की परंपरा से आने वाली अपभ्रंशमूलक इन रचनाओं में संस्कृत काव्य-साहित्य के तीन गुणों, ओज-माधुर्य-प्रसाद के अतिरिक्त संस्कृत काव्य-रीतियों और नीति-नैतिकता की शिक्षाओं का विशिष्ट स्वरूप पुरातन परंपरा को निभाता हुआ प्रकट होता है। संस्कृत की परंपरा से आगे पालि और प्राकृत में धर्मोपदेशों और नीति-नैतिकता की चर्चाओं के कारण एक रिक्तता उत्पन्न हो गई थी। यह रिक्तता उस समय और अधिक गहरी हो गई, जिस समय विदेशी आक्रांताओं का खतरा बढ़ने लगा। राजस्थान की भूमि सदैव से ही ऐसी सीमा का निर्माण करती रही है, जिसे विदेशी आक्रांताओं से संघर्ष के लिए तत्पर रहना पड़ता था। आठवीं शती और उसके परवर्ती कालखंड को राजस्थान में उथल-पुथल से भरे विभीषक समय के रूप में जाना जाता है। इस कालखंड में पालि-प्राकृत के उपदेशों को छोड़कर उन गीतों को गाए जाने की सामयिक अनिवार्यता उभरकर सामने आती है, जिनके माध्यम से वीरों को उनके वीरोचित गुणों के प्रदर्शन और सीमाओं की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर देने की ललक के लिए प्रवृत्त किया जा सके। इसी भाव से अपभ्रंशमूलक हिंदी से उद्भूत डिंगल ने अपने नैतिक दायित्व के निर्वहन को पूर्ण किया। इसके लिए सबसे पहले चारण आगे आए। शैव-शाक्तपूजक चारण समुदाय के लिए वीरों और युद्धों का वर्णन जीवन के निर्वहन का माध्यम-मात्र नहीं था, वरन् राजस्थान के गौरव के रक्षण के लिए अपने दायित्व के निर्वहन का कारण भी था। वे युद्धों में अपने आश्रयदाता राजाओं के साथ जाते भी थे, और आवश्यकता पड़ने पर युद्ध भी करते थे।
चारण कवियों-गायकों के अतिरिक्त भाट या भट्ट, मोतीसर, राव और ढाढ़ी कवियों-गायकों ने भी इस परंपरा को आगे बढ़ाने का काम किया। वीर रस में रची-बसी डिंगल की रचनाओं में दिखाई पड़ने वाली स्वाभाविकता और सहजता ऐसा गुण है, जो वीर रस की दूसरी रचनाओं में दिखाई नहीं पड़ता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह था, कि चारण, भाट, राव आदि लोक-गायक किसी एकांत में बैठकर वीर रस की साधना नहीं करते थे, वरन् युद्ध के मैदान में वीरों के संग वीरोचित गुणों का प्रदर्शन करते हुए अपनी काव्य-साधना को पूर्ण करते थे। इसी कारण राजपूताने में इन जातियों को बड़े सम्मान के साथ देखा जाता था।
राजस्थान के मारवाड़ अंचल में गीतों के रूप में प्रसिद्ध डिंगल गायकी और पूर्वी राजस्थान से लगाकर ब्रजक्षेत्र तक विस्तृत छंद-पदबद्ध पिंगल गायकी में पिंगल का लिखित साहित्य अपेक्षाकृत अधिक उपलब्ध होता है। अपनी भाषायी विशिष्टता के कारण, और साथ ही अपने विषय-क्षेत्र के कारण पिंगल को शिष्ट साहित्य में अपेक्षाकृत अधिक स्वीकृति और सम्मति मिली। इसके विपरीत डिंगल गायकी में निहित गौड़ीय रीति से संयुक्त भाषा-शैली के रूप में अतीत से आगत संस्कृत काव्य-शास्त्रीय परंपरा के सूत्रों को छोड़ दिया गया और इस कारण डिंगल को शिष्ट साहित्य में अपेक्षित स्थान नहीं मिल सका। इसका सबसे बड़ा कारण उस परंपरित चेतना को अनदेखा कर देना भी है, जो विशेष रूप से डिंगल की अपनी पहचान है। भाषा के स्तर पर बनावट और रचनाकाल के स्तर पर प्रामाणिकता के विषयों पर बल देते हुए इनमें निहित ओज के गुण को विस्मृत करते हुए शिष्ट साहित्य के इतिहास में इनका मूल्यांकन किया जाना इनके लिए न्यायसंगत कतई नहीं बन सकता।
सूफ़ी काव्य-परंपरा में लोक-प्रचलित गाथाओं-किस्सों को लेकर मसनवी शैली में रचनाएँ की गईं। इनमें आने वाली कई रचनाएँ ऐसी भी हैं, जो डिंगल-पिंगल की अपनी रचनाओं के रूप में लोक-प्रचलित थीं। इनका स्वरूप लोक में होने के कारण अलिखित था, जबकि सूफ़ी परंपरा में ये लिखित रूप में आ गईं। इन प्रकार मसनवी शैली में लिखे गए सूफ़ी प्रेमाख्यानक काव्यों में आने वाली लोक-प्रचलित कथाओं-आख्यायिकाओं में शौर्य और ओज के गुण दोयम दर्जे में सिमटे हुए, और प्रेम-शृंगार के भाव अपेक्षाकृत मुखर होते हुए दिखाई पड़ने लगे। इसके भावपक्ष को आध्यात्मिक पुट देने के आशय से जुड़े आत्मा और परमात्मा के संबंधों के वर्णन ने उस स्थिति का सृजन कर दिया था, जिसके फलस्वरूप गौरवपूर्ण अतीत को जानने-समझने के लिए एकदम अलग और नई दृष्टि ही विकसित होने लगी। जिस राजपूताने पर कभी दासता की बेड़ियाँ नहीं पड़ी थीं, उसे इस तरह वैचारिक गुलामी में बाँधकर दिखाए जाने के कारण कालांतर में डिंगल-पिंगल की अपनी धरोहर के रूप में प्रतिष्ठा-प्राप्त शौर्यगाथाएँ अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णनों की काल्पनिक और साहित्येतर रचनाएँ बनकर प्रस्तुत होने लगीं।
हिंदी साहित्य के इतिहास के अनुशीलन में इसी कारण डिंगल-पिंगल की रचनाओं को लेकर कभी भाषा या शैली के विवाद में, तो कभी रचनाकाल की प्रामाणिकता के विवाद में उलझाए रखने की चेष्टाएँ प्रबल होती रहीं। इस अवधि में बहुत कम साहित्येतिहासकारों ने डिंगल-पिंगल की प्रामाणिकता को भक्तिकाल और रीतिकाल के कवियों की रचनाओं के बीच परखने का प्रयास किया। इधर सबसे पहली दृष्टि मसनवी शैली की रचनाओं में जाकर अटकती रही, और दूसरी तरफ बाबा तुलसी के रामचरितमानस के लंकाकांड में डिंगल की शैली में युद्ध का वर्णन विश्लेषण की परिधि से बाहर होता रहा। बाबा तुलसी रामचरितमानस के लंकाकांड में लिखते हैं-
बोल्लहिं  जो जय जय  मुंड रुंड  प्रचंड  सिर बिनु धावहीं ।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं ।।
बानर   निसाचर   निकर   मर्दहिं   राम  बल   दर्पित  भए ।
संग्राम   अंगन  सुभट   सोवहिं  राम  सर  निकरन्हि  हए ।।
भक्तिकाल में बाबा तुलसी की ‘मानस’ के लंकाकांड में युद्ध का वर्णन छंद की अपनी विशिष्ट शैली में होता है। यह वर्णन राजस्थानी गायकी की परंपरा को निभाता हुआ प्रतीत होता है। कहा जा सकता है, कि युद्धों के वर्णन के लिए डिंगल की परंपरा व्यापक और सर्वस्वीकृत रही है। इसी कारण तुलसी के ‘नाना पुराण निगमागम’ के साथ ही आने वाले ‘क्वचिदन्यतोऽपि’ में जिन ‘अन्य’ का उल्लेख हुआ है, उसमें डिंगल की परंपरा का विशेष योग प्रतीत होता है। लंकाकांड की भयंकरता और युद्ध का सटीक-प्रभावपूर्ण वर्णन इस परंपरा के अनुशीलन के बिना बाबा तुलसी के लिए भी कठिन रहा होगा, ऐसा कहा जा सकता है।
युद्धों के वर्णन में प्रयुक्त होने वाली डिंगल की परंपरा रीतिकाल में चुक गई हो, ऐसा दिखाई नहीं पड़ता। अगर रीतिकाल के प्रमुख कवि भूषण की कृति शिवराज भूषण, शिवा बावनी आदि को, और पद्माकर की कृति हिम्मतबहादुर विरुदावली जैसी रचनाओं को देखें; तो इनमें भी वीररस को व्यंजित करने वाली गौड़ीय रीति से संयुक्त डिंगल की परंपरा के स्पष्ट दर्शन होते हैं। इस तरह संस्कृत काव्य-परंपरा की विशिष्टताओं को लोक-साहित्य, और साथ ही शिष्ट-साहित्य में संरक्षित रखने वाली डिंगल-पिंगल की परंपरा भक्तिकाल, और फिर रीतिकाल में अपने प्रभाव को परिलक्षित करती है।
मध्यकालीन विभीषिकाओं के बीच जो परंपरा अपने दायित्वों का निर्वहन पूरी निष्ठा के साथ कर रही, मूल्यांकन की आधुनिक दृष्टि उसे कालांतर में उचित सम्मान नहीं दिला पाई। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस परंपरा के अंतर्गत आने वाली रचनाओं की प्रवृत्ति और तत्कालीन समय-समाज की स्थिति का आकलन करते हुए इन रचनाओं के कालखंड को वीरगाथाकाल नाम दिया था। बाद में चारणकाल, सिद्ध-सामंतकाल, आदिकाल आदि नाम देकर उन प्रवृत्तियों पर दृष्टिपात करने से बचने का प्रयास किया गया, जिनमें राजस्थान के गौरवपूर्ण अतीत की झलक मिलती है।
इस तरह शिष्ट साहित्य में, विशेषकर हिंदी साहित्येतिहास में वीरगाथाओं की लोक-प्रचलित परंपरा को देश, काल के आधार पर अप्रासंगिक सिद्ध करते हुए भले ही गौरवपूर्ण अतीत के अध्यायों को विस्मृत करने और दीनता-हीनता के बोध को प्रसारित करने का कार्य कतिपय साहित्येतिहासकारों द्वारा किया गया हो, मगर लोक-परंपरा में प्रचलित डिंगल-पिंगल गायकी के स्वर मद्धिम नहीं हुए। इसी कारण लोक-परंपरा में वीरांगनाओं को गौरवपूर्ण स्थान मिला। राजस्थान की धरती पर अपने वीरोचित कर्मों से अमिट छाप छोड़ने वाले वीरों व वीरांगनाओं को मसनवी परंपरा में प्रेम के भाव से रंगकर दिखाने का यत्न करने वाली रीतियों-नीतियों से अलग आज भी सम्मान और आस्था-विश्वास का चटक रंग राजस्थान की धरती के कण-कण में दिखाई देता है। इसी कारण लोक-परंपरा और लोक-आस्था को ठेस पहुँचाने वाली किसी भी गतिविधि के विरोध में लोक-मानस अपनी पूरी शक्ति के साथ खड़ा हो जाता है। राजस्थान की पुण्यश्लोका-वीरप्रसूता धरा की अपनी अनूठी-अनुपम पहचान जिस डिंगल-पिंगल गायकी में समाई हुई है, उसके स्वर आज भी राजस्थान के अलग-अलग अंचलों में सुनाई देते हैं।
भाभी हूँ डोढ़ी खड़ी, लीधां खेटक रूक ।
थे  मनुहारौ  पावणाँ,  मेड़ी झाल बंदूक ।।
-राहुल मिश्र
(साहित्य परिक्रमा, अक्टूबर, 2018, सं. श्रीमती क्रांति कनाटे, प्रका. अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, ग्वालियर (मध्यप्रदेश) के ‘राजस्थान विशेषांक- 2018’, भाग- एक, में प्रकाशित)