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Saturday 19 March 2022

पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

 


पूर्वोत्तर भारत का भक्ति-साहित्य : आधार और विस्तार

पूर्वोत्तर भारत, भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश। किसी समय इस समग्र प्रदेश को ‘नेफा’, यानि ‘नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर एजेंसी’ के नाम से जाना जाता था। ईशान्य ही ‘नार्थ-ईस्ट’ है। भारतीय वाङ्मय के अंतर्गत आने वाले शिल्पशास्त्र में वास्तुशिल्प का अपना विशिष्ट स्थान है और इसे विधिवत् शास्त्र की संज्ञा दी जाती है। वास्तुशिल्पशास्त्र में ईशान्य का विशेष महत्त्व बताया गया है। ईशान, अर्थात् हरमहेश्वर रुद्र और प्रकृति के आदिपुरुष शिव से भी इस दिशा को पहचान सकते हैं। वास्तुपुरुष मंडल में उत्तर-पूर्व की दिशा मस्तक की होती है। यह ग्रहाधिपति सूर्य की दिशा होने के कारण सर्वाधिक ऊर्जावान होती है। इस कारण प्रवेश-द्वार, द्वारमंडप और ध्यान-पूजा इत्यादि के लिए इस दिशा को सर्वथा उपयुक्त बताया गया है। भारतवर्ष का ईशान्य प्रदेश, या पूर्वोत्तर प्रदेश इसी दृष्टि से अत्यंत समृद्ध, प्राचीन और विशिष्ट है। इसी कारण भक्ति के भावों की व्याप्ति पूर्वोत्तर के कण-कण में है। इसी कारण पूर्वोत्तर के जीवन में भक्ति के भाव रचे-बसे हुए हैं।

भक्ति-साहित्य, स्वंय में एक रूढ़ शब्द है, जो काल-विशेष में रची गई भक्तिपरक रचनाओं का द्योतक है। मध्यकाल के पूर्वार्ध में, सन् 1350 से 1650 ई. के आसपास दक्षिण भारत के भक्तकवियों की रचनाओं के उत्तर भारत में आते प्रभावों के फलस्वरूप उत्तरभारत के भक्तकवियों द्वारा रची गई भक्तिपरक रचनाएँ ही सामान्यतः भक्ति-साहित्य की श्रेणी में रखी जाती हैं। इसी कारण भक्तिकाल और भक्ति-साहित्य एक विशेष कालखंड और उस कालखंड में रची गई रचनाओं के लिए रूढ़ हैं। इस दृष्टि से अगर देखें, तो पूर्वोत्तर भारत के भक्ति-साहित्य के अनुशीलन हेतु एक सीमारेखा बनी हुई प्रतीत होने लगती है, जो स्वयं में संकुचित और अनेक महत्त्वपूर्ण पक्षों-विषयों को अपनी परिधि से बाहर छोड़ देती हुई दिखाई पड़ती है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य को इस सीमारेखा में बाँधकर जानना-परखना इसी कारण उचित नहीं होगा।

इस निश्चित सीमा से अलग हटकर यदि भक्ति के भाव से ओतप्रोत साहित्य को देखें, तो सृष्टि के आदिम काल से ही भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य दिखाई पड़ने लगता है, जिसमें श्रद्धा और प्रेम का सम्मिश्रण मानवीय अभिव्यक्तियों में मुखर होता है। पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को इसी दृष्टि से यहाँ बताने का प्रयास किया गया है। पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृति अपने स्वरूप और अपने परिचालन में इतनी प्राचीन है, कि उसमें श्रद्धा और प्रेम के भाव, जिन्हें सम्मिलित रूप में भक्ति कह सकते हैं, सृष्टि की दृश्य-अदृश्य शक्तियों के प्रति प्रकट होते रहे हैं। इसका प्रथम दर्शन पूर्वोत्तर के शिष्ट या लिखित साहित्य से कहीं आगे प्रकीर्ण साहित्य में होता है; लोकगीतों, किस्सों-कथाओं, लोकनृत्यों आदि में होता है।

अविभाजित पूर्वोत्तर, अर्थात् भाषायी-जातीय-क्षेत्रीय पहचान के आधार पर आठ अलग राज्यों में बँटे पूर्वोत्तर का प्राचीन स्वरूप ऐसा रहा है, जहाँ जनजातीय समूहों के बीच प्रकृति की पूजा का क्रम अलग-अलग विधि-विधानों के साथ एकसमान रूप से चलता रहा है। यही एक तत्त्व विभिन्न भाषायी-जनजातीय विभेदों को किनारे रखकर समूचे पूर्वोत्तर को एक सूत्र में बाँधे रहा है। प्रकृति की पूजा में भी प्रकृति के आदि पुरुष और प्रकृति की आदिशक्ति, अर्थात् शिव और शक्ति की पूजा होती रही है। असम के बोडो जनजातीय समूह में दिवा और दिवि को आद्य देवी-देवता की मान्यता प्राप्त है। ये शिव और पार्वती के प्रतीक हैं। इसी प्रकार देउरी जनजातीय समूह में गिरा और गिराची की पूजा होती है। लालुंग समूह फा महादेव को अपना आदिदेव मानते हैं और स्वयं को उनका ही वंशज मानते हैं। तिवा (लालुंग) आदिवासियों द्वारा पूजा हेतु स्थापित किया जाने वाला त्रिपद, त्रिनेत्रधारी शिव का ही प्रतीक होता है। पूर्वोत्तर भारत के लगभग सभी जनजातीय समूहों में शिव के अनेक रूप प्रचलित हैं। शिव को शक्ति के साथ ही पूर्णता मिलती है। ये शिव किसी मंदिर में विराजने वाले नहीं हैं, अलौकिक सिंगार करने वाले भी नहीं हैं। आदिम-आदिवासी जीवन में रचे-बसे हुए हैं। इसी कारण पूर्वोत्तर के अनेक लोकगीतों- लोककथाओं में वे पूरी तरह से देशी रूप में, भंग-धतूरे के सेवनकर्ता और फक्कड़ दिखाई देते हैं। शिव का यह स्वरूप आदिवासी जीवन के अत्यंत निकट होने के कारण ही सहजता के साथ जन-स्वीकार्य हो जाता है। शिव का पशुपति रूप भी यहाँ बहुत प्रचलित है। नंदी की उपस्थिति गौवंश के प्रति जनजातीय आस्था को पुष्ट करती है। अनेक रीति-रिवाजों में गौपूजन अनिवार्य होता है।

असम का बिहू पूर्वोत्तर भारत की पहचान से जुड़ा हुआ पर्व है। यह भी गौपूजन के बिना संपन्न नहीं होता है। वस्तुतः यह पर्व प्रकृति के विभिन्न उपादानों के प्रति आस्था और श्रद्धा का पर्व है। बहाग (वैशाख), काति (कार्तिक) और माघ बिहू के तीन बड़े आयोजनों के साथ ही पूर्वोत्तर के अलग-अलग क्षेत्रों में बिहू के कुछ अन्य स्थनीय संस्करण भी होते हैं। बिहू पर्व की इतनी विविधता और पर्व में कृषि के साथ जुड़े उत्सवों की प्रधानता बिहू के प्रकृतिपूजक स्वभाव को व्याख्यायित करती है। जब प्रकृति वसंत के विभिन्न रंगों से रंग जाती है, तब बहाग बिहू अपने स्थानीय नाम, अर्थात् रंगाली बिहू के रूप में मनाया जाता है। काति बिहू का दूसरा नाम कंगाली बिहू भी है, जो कि कार्तिक के समय किसानों के खाली अन्न-भांडारों या कंगाली को प्रकट करता है। रिक्तता का अपना उत्सव है। तुलसी चौरे की पूजा के साथ ही खेतों में दीपक जलाकर अच्छी फसल की कामना करते हुए कंगाली बिहू अनाज के कोठारों को खूब भर देने की कामना के साथ मनाया जाता है। माघ बिहू को भोगाली बिहू भी कहते हैं, जिसमें धन-धान्य से परिपूर्ण भोग-आनंद का उत्सव होता है। फसल की कटाई के साथ कृषि-प्रधान जीवन में उमंग और उल्लास भर जाता है, जो इस पर्व में प्रकट होता है। सोलुंग, सोरी, दारांग, माहोहो, आओलिं मोन्यु, चांग नागा समुदाय का ‘नाक्नयुलेम’ पर्व, लेपचा समुदाय का ‘तेंदोंग-ल्हो-रम-फत’ और मिजो समुदाय का ‘न्हुआई-पुई’ आदि पर्व-अनुष्ठान अलग-अलग तरीकों से प्रकृति पूजा के साथ जुड़े हुए हैं। इन पर्वों-अनुष्ठानों में लोकगीतों, लोककथाओं और लोकनृत्यों का विशेष स्थान होता है। इनके माध्यम से आदिवासी समूह प्रकृति के प्रति अपनी श्रद्धा और अपने प्रेम को प्रकट करते आए हैं। प्रकृति-पूजा के साथ ही इन पर्वों-अनुष्ठानों में आदिवासी समुदायों के आदिपुरुषों, वीर योद्धाओं के जीवन-चरित और उनकी कथाएँ भी जुड़ती चली गईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश में ‘आबो-तानी’ के नाम से ऐसे शक्तिशाली पुरुष को पूजा जाता है, जो लोगों को प्राकृतिक आपदाओं और संकटों से बचाने वाला है। इसी कारण वे ‘आबो-तानी’ को अपना जन्मदाता मानते हैं। ‘आबो-तानी’ की छः संताने हैं, जो अलग-अलग जनजातीय पहचान बना चुकी हैं। इनको तानी वर्ग का जनजातीय समूह कहा जाता है। यह समूह मानता है, कि दोइनि-पोल्लो (सूर्य-चंद्र) आकाश में विराजते हैं और दुनिया के सारे कर्मों-कुकर्मों का लेखा-जोखा रखते हैं। ये अच्छे लोगों का मार्गदर्शन भी करते हैं और बुरे लोगों को दंड भी देते हैं। सूर्य और चंद्रमा की पूजा प्रकृति से जुड़ी हुई है। नदी, तारे, झरने, वन आदि की पूजा पूर्वोत्तर के प्रकृतिपूजक समाज की आस्थाओं को व्याख्यायित करती है।

मणिपुर का मैतेयी जनजातीय समूह ‘सने-मही’ की पूजा करता है। ‘सने-मही’ मुख्य रूप से प्रकृति के देवता हैं। इनके प्रति समूचे पूर्वोत्तर में आस्था देखी जा सकती है। ‘सने-मही’ मत का मैतेयी में लिखा आदिग्रंथ है- पूया। यह वस्तुतः ‘पू’ और ‘याथङ्’ से बना है, जिसका अर्थ है- पूर्वजों द्वारा दिये गए निर्देश। इस ग्रंथ में ‘लाइ-हाइ-लाओबा’, अर्थात् भगवान् के आनंद, के साथ ‘लाइ-हराओबा’ नामक पर्व को जोड़ा गया है। भगवान को आनंद प्रकृति के निर्माण और संचालन में आता है, अपनी सृष्टि को प्रसन्न देखने में आता है। इस कारण ‘लाइ-हराओबा’ सीधे-सीधे सृष्टि की उत्पत्ति की अवधारणा और प्रकृति की पूजा से जुड़ जाता है। यह पर्व अनेक नृत्यों, लोकगीतों और पर्वानुष्ठानों का समन्वित रूप है। इसमें उमंगलाई, अर्थात् वन के देवी-देवताओं की पूजा होती है। पोखरों-तालाबों की पूजा होती है। इसमें तीन सौ से अधिक ग्रामदेवी-देवताओं की पूजा होती है, पूर्वजों की पूजा होती है।

‘लाइ-हराओबा’ के इस दीर्घ नृत्य-नाट्यानुष्ठान में पूर्वोत्तर की उस वैचारिकता की झलक भी मिलती है, जो सृष्टि की उत्पत्ति और मानव के सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों के प्रति सजग रही है। यह धार्मिक नृत्य-नाट्यानुष्ठान इसी कारण प्रेमकथाओं की उपस्थिति के बाद भी विशुद्ध रूप से धार्मिक और आध्यात्मिक पक्ष को स्वयं में जीवंत रखता है। सृष्टि के निर्माण और संचालन में नर-नारी की उपस्थित, उनकी लौकिक-ऐहिक भाव-भंगिमाएँ असंयमित नहीं करती हैं; मन में विकृत भावों को, कामोत्तेजना को उत्पन्न नहीं करती हैं। यह समग्र अनुष्ठान पुस्तकीय ज्ञान से इतर सामाजिक-सांस्कृतिक शिक्षा का अद्भुत माध्यम बन जाता है।

‘लाइ-हराओबा’ के नृत्य-नाट्यानुष्ठान का एक महत्त्वपूर्ण अंश होता है- ‘खंबा-थोइबी’ नृत्य। यह भी नाट्य-नृत्य है। इसमें लोककथा भी समाहित है। ‘खंबा’ एक साधारण युवक है, और ‘थोइबी’ राजकुमारी है। मणिपुर का पुरातन नगर है- मोइरङ। यह मोइरङ वंश के 52 प्रतापी शासकों की राजधानी रहा है। ‘खंबा-थोइबी’ की उत्पत्ति भी इसी प्राचीनतम नगर में हुई है, ऐसी मान्यता ‘मोइरङ परब’ नामक मणिपुरी महाकाव्य में व्यक्त हुई है। खंबा-थोइबी 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के ऐसे नायक-नायिका हैं, जिन्होंने प्रेम की अनूठी परिभाषा को समाज के सामने रखा था। अनाथ खंबा की बहन खाममू ने मेहनत-मजदूरी करके, और भीख माँग-माँगकर खंबा को पाला था। थोइबी मोइरङ राजपरिवार की राजकुमारी थी। मोइरङ राजा और उनके भाई के बीच वह इकलौती संतान थी। खंबा और थोइबी के पवित्र प्रेम के बीच कोङ्ग्याङ्बा आ जाता है। वह मोइरङ राजपरिवार के विश्वस्त अधिकारी का बेटा है। तमाम कथा-प्रसंगों के बीच खंबा और थोइबी का प्रेम सफल हो जाता है, किंतु जरा-सी एक भूल होती है, और थोइबी के हाथों खंबा की हत्या हो जाती है। अंत में थोइबी भी आत्महत्या कर लेती है।

इस लोकनाट्य-नृत्य में नटराज की अनेक नृत्यमुद्राएँ आती हैं। इस कारण यह नृत्य-नाट्य शिव के तांडव और नटराज रूप से भी जुड़ जाता है। धूनी रमाने वाले, वन-प्रांतरों में निवास करने वाले शिव को ‘खंबा’ में, और राजा हिमांचल की पुत्री राजकुमारी पार्वती को ‘थोइबी’ में देखते हुए ‘खंबा-थोइबी’ नामक यह लोकनृत्य-नाट्य शिव-पार्वती की कथा से जुड़ जाता है। भले ही शिव और पार्वती के जीवन की कथा पूरी तरह से खंबा-थोइबी की कथा से मेल न खाती हो, फिर भी इस प्रेमकथा में शिव और पार्वती के आगमन से यह ऐसे प्रेमाख्यानक काव्य के रूप में प्रस्तुत होता है, जिसे भक्तिकाल की प्रेममार्गी काव्यधारा के पूर्वोत्तरीय संस्करण के रूप में देख सकते हैं। शिव के साथ शक्ति के रौद्र और सौम्य रूप, यथा- कामाख्या और त्रिपुरसुंदरी पूर्वोत्तर में शाक्त-साधना के प्रतीक हैं।

पूर्वोत्तर की एक अन्य प्रमुख जनजाति है- मिकिर। यह स्वयं को ‘करबी’ भी कहती है। ‘करबी’ का स्थानीय बोली में अर्थ होता है- मनुष्य। ये स्वयं को ब्रह्मा से उत्पन्न मानते हैं। इस प्रकार ये देव से उत्पन्न मनुष्य हैं। इस समुदाय के द्वारा पूर्वजों के श्राद्धकर्म के समय लोकगीत गाया जाता है, जिसमें किसी महान पक्षी द्वारा अनेक अंडे दिये जाने का वर्णन मिलता है। मिकिरों या करबियों के अनुसार ये अंडे ब्रह्मा के दिये हुए थे, और इन अंडों में से ही मनुष्यों की अलग-अलग प्रजातियाँ उत्पन्न हुईं।

आज के अरुणाचल प्रदेश के लोहित जनपद में परशुराम कुंड है। यह कुंड मिशिम प्रदेश के हृदय में स्थित है। अरुणाचल प्रदेश की जनजातीय व्यवस्था में मिश्मी जनजाति की बड़ी संख्या है। पुराने समय में ये परशुराम कुंड की व्यवस्था करने और यात्रियों से कर वसूलने का काम करते थे। मिश्मी लोग स्वयं को कुंडिनपुर के राजा भीष्मक के पुत्र रुक्मि का वंशज मानते हैं। रुक्मिणी के अनुरोध पर श्रीकृष्ण ने शिशुपाल से रुक्मिणी के विवाह को रुकवाया था, और स्वयं विवाह किया था। इस पर रुक्मि और श्रीकृष्ण के मध्य भयंकर संघर्ष भी हुआ। कहा जाता है, कि रुक्मिणी के कहने पर श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का ऐसा प्रहार किया, कि रुक्मिणी के भाई रुक्मि का अजीब तरीके से केश-कर्तन हो गया। इस कारण आज भी मिश्मी समुदाय के लोग बहुत छोटे केश रखते हैं। इसी तरह हार से दुःखी मिश्मी समुदाय के लोग अपने कपाल पर ‘कॉपलि’ नामक चाँदी का पट्टा धारण करते हैं।

आज के नागालैंड का दीमापुर हिडिंबापुर से विकृत होकर बना है, ऐसा माना जाता है। नागालैंड का एक जनजातीय समूह स्वयं को अज्ञातवासी भीम की पत्नी हिडिम्बा का वंशज मानता है। दीमापुर में  स्थित हिडिम्बा के बाड़ा में चौसर खेल की बड़ी-बड़ी गोटियाँ जैसी प्रस्तर आकृतियाँ रखी हैं, जिनसे किसी जमाने में भीम और उनका पुत्र घटोत्कच चौसर खेला करते थे, ऐसी भी मान्यता है।

बृहत् असम, अर्थात् कामरूप अर्थात् प्राग्ज्योतिष का राजा शैलाधिपति भगदत्त अपने किरात सैनिकों, अर्थात् वर्तमान नागालैंड के मूल निवासियों को साथ लेकर कौरवों की तरफ से महाभारत के युद्ध में लड़ने के लिए गया था। कुरुवंशीय राजा ययाति के पुत्र द्रहु की 38वीं पीढ़ी के राजा त्रिपुर से त्रिपुरा को अपना यह नाम मिला था। महाभारत का गंधर्वलोक, अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा का नैहर और अर्जुन के पुत्र बभ्रुवाहन द्वारा संचालित राजवंश का जीवंत साक्ष्य आज का मणिपुर है।

पूर्वोत्तर की तीवा (लालुंग) जनजाति अपने को माता सीता का वंशज मानती है। इसी प्रकार करवी जनजाति स्वयं को बालि और सुग्रीव का वंशज मानती है। पूर्वोत्तर में रामकथा का आगमन वाल्मीकि की रामायण के साथ होता है। इसके अतिरिक्त बंगाल की कृत्तिवासी रामायण का प्रभाव पूर्वोत्तर में पड़ा। 14वीं-15वीं शताब्दी में माधव कंदली द्वारा रचित सप्तकांड रामायण पूर्वोत्तर के लिखित भक्तिसाहित्य का पहला ग्रंथ कहा जा सकता है। यह देववाणी के रूप में नहीं, बल्कि लौकिक कथा के रूप में है, इस कारण बृहत् असम के लोकजीवन और प्रकृति के अनेक चित्र इसमें दिखाई पड़ते हैं। असमीया रामायण में सीता की अग्निपरीक्षा के प्रसंग में राम और सीता का संवाद भी है। इसमें अग्निपरीक्षा के लिए कहने पर सीता बहुत क्रोधित होती हैं। अन्य रामकथाओं की तरह असमीया रामकथा की सीता अबला नहीं दिखती हैं। यह प्रसंग पर्वतीय महिलाओं की संघर्षशीलता और उनके साहस को प्रकट करता है।

तिवा जनजाति में ‘रामायने खरङ्’ नाम से रामकथा का मौखिक रूप प्रचलित रहा है। इसमें वाल्मीकि रामयण के विभिन्न कथा-प्रसंग अलग-अलग लोकगीतों के रूप में आते हैं। ‘लिकछा लामाङ्’ खामति जनजाति की रामकथा है। इसमें बौद्ध प्रभाव है, और जातक कथाओं के प्रसंग भी इसमें आते हैं। करवी समुदाय में ‘छाबिन-आलुन्’ नामक लोकगीत गाए जाते हैं। ये लोकगीत रामकथा के विभिन्न प्रसंगों पर आधारित होते हैं। चूँकि ये लिखित रूप में नहीं थे, इस कारण अलग-अलग गीत-खंडों में अलग-अलग कथाएँ होती हैं। ‘छाबिन-आलुन्’ का संकलित रूप ही करवी रामायण कहलाता है। इसमें करवी समुदाय का जीवन, उनका रहन-सहन और उनकी सांस्कृतिक विशिष्टताएँ समग्र रूप में समाहित हो गईं हैं। उदाहरण के रूप में, करवी रामायण के राम और लक्ष्मण परंपरागत झूम खेती करते हैं। राजा जनक भी झूम खेती करते हैं। सीता अपने पिता के लिए कलेवा लेकर, साथ ही धान से बनी देशी मदिरा लेकर खेत में जाती है। एक बार सीता अपने घर में साफ-सफाई करते समय भारी-से लोहे के धनुष को उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख देती हैं, और तब जनक यह तय करते हैं कि वे अपनी बेटी का विवाह ऐसे वीर युवक से करेंगे, जो इस धनुष को तोड़ देगा। तिवा, खामति और करवी रामकथाओं के लोक-संस्करणों की तरह अन्य जनजातीय समूहों में रामकथाएँ प्रचलित हैं। इन सभी में एक समानता है, कि इनमें जनजातीय-पर्वतीय जीवन इस तरह से घुला-मिला है, कि रामकथा और राम इन्हीं जनजातीय समूहों के अपने होकर रह गए हैं।

ये पूर्वोत्तर के जनजातीय समाजों के श्रद्धा और प्रेम के भाव ही कहे जाएँगे; जिन्होंने राम, कृष्ण, ब्रह्मा, शिव और शक्ति को अपने में ढाल लिया और उन्हें पूरी तरह से अपना बना लिया। भक्ति का यह ऐसा उदात्त और विलक्षण स्वरूप है, जिसे अन्यत्र खोज पाना जटिल और दुर्लभ है। श्रद्धा और प्रेम के भावों से भक्ति की निर्मिति को शाण्डिल्य और नारद ऋषियों ने बताया है। इसी प्रकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी व्याख्यायित किया है। श्रद्धा और प्रेम के समन्वित भावों से निर्मित भक्ति और इस भक्ति का प्रकीर्ण साहित्य पूर्वोत्तर की अपनी विशेष पहचान गढ़ता है। अतीत से वर्तमान तक समग्र पूर्वोत्तरीय भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार इसी भावभूमि पर हुआ है।

बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक जनजातीय समुदायों का यह विशाल लोकसाहित्य, या कहें भक्तिसाहित्य लोककंठों में ही जीवित रहा। बाद में इसके लिखित संस्करण भी जागरूक साहित्यसेवियों द्वारा तैयार किये गए। सन् 1993 में रूपसिंह देउरी ने ‘रामायने खराङ्’ का असमीया लिपि में मुद्रित संस्करण तैयार किया। इसी प्रकार डॉ. देवेनचंद्र दास ने ‘छाबिन आलुन्’ को देवनागरी में लिपिबद्ध करके सन् 2000 ई. में प्रकाशित कराया। ऐसे अनेक प्रयास पूर्वोत्तर में हुए हैं, और इस दिशा में बहुत कुछ किया जाना अभी शेष है।

समग्रतः; प्रकृति-पूजा, प्रकृति पुरुष शिव और शक्ति से क्रमशः महाभारत-रामकथा के कथा-प्रसंगों ने पूर्वोत्तर के भक्ति-साहित्य के आधार को निर्मित किया। यह आधार मुख्यतः लोकजीवन, लोकसंस्कृति और लोकपरंपराओं-लोककलाओं का है। इसी कारण पौराणिक कथा-प्रसंग लोकसंस्करण में विकसित हुए, विस्तृत हुए। पूर्वोत्तर की यह ऐसी विशिष्टता है, जिसने युगों-युगों तक यहाँ के आस्थावान जनजातीय समूहों को एक सूत्र में बाँधे रखा। भले ही वैचारिक संक्रमणों, उन्माद और बर्बरता की स्थितियों ने, जातीय-क्षेत्रीय-भाषायी अस्मिता के संघर्षों और धार्मिक असंतुलनों ने पूर्वोत्तर की अपनी पुरानी पहचान को, जड़ों को गहराई में दबा दिया हो, मगर इस एक्य के सूत्र को, समन्वय को भक्ति साहित्य के लोकसंस्करणों के माध्यम से पुनर्जीवन दिया जा सकता है।

भक्ति-साहित्य का यह लोक-संस्करण भले ही शिष्ट साहित्य की परिधि से बाहर हो, किंतु इसी के रस-संचय से कालांतर में वैष्णव भक्ति (जात्रा, नामघर आदि) तक भक्ति-साहित्य का विकास और विस्तार पूर्वोत्तर में हुआ है। भक्ति-साहित्य के समग्र स्वरूप को पूर्वोत्तर के संदर्भ में माधवदेव द्वारा रचित निम्न पंक्तियों के आलोक में देखा जा सकता है-

धन्य-धन्य कलिकाल / धन्य नरतनु भाल / धन्य-धन्य भारतबरिषे (बरगीत / माधवदेव)

संदर्भ ग्रंथ-

1. भारत की लोकसंस्कृति, सं. हेमंत कुकरेती, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018,

2. भारतीय साहित्य की पहचान, सं. डॉ. सियाराम तिवारी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2015,

3. पूर्वोत्तर भारत का जनजातीय साहित्य, सं. डॉ. अनुशब्द, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. प्रथम 2017,

4. कृतिरूप संघ दर्शन, संकलन व संपादन- हो. वे. शेषाद्रि, सुरुचि प्रकाशन, नयी दिल्ली, अष्टम सं. 2015,

5. असम : लोक-संस्कृति और साहित्य, जोगेश दास, हिंदी अनुवाद कृष्ण गोपाल अग्रवाल, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली, सं. 1976

6. मणिपुरी कविता : मेरी दृष्टि में, डॉ. देवराज, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2006 ।

{पूर्वोत्तर भारत का भक्ति साहित्य (पुस्तक), संपादक डॉ. मंदाकिनी शर्मा, प्रकाशक- अखिल भारतीय साहित्य परिषद् न्यास, नई दिल्ली में प्रकाशित}

-डॉ. राहुल मिश्र


Sunday 22 August 2021

भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

 



भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय

यह केवल कहने की बात नहीं है, बल्कि इसे देखा भी जा सकता है, और सुना भी...। इसीलिए बात बहुत मार्के की है। नागिन, सपेरा और बीन...इन तीनों का गठजोड़ बहुत पुराना भी है, और स्थापित भी है। इन तीनों को अन्योन्याश्रय-संबंध के साथ हिंदी के सिनेमा ने भी बढ़-चढ़कर दिखाया है। जरा याद कीजिए उन फिल्मों को; जो नागिन, सपेरा और बीन की तिकड़ी को लेकर बनी हैं, या जिनमें इन तीनों का बहुत बड़ा ‘रोल’ दिखाई देता है। ‘नागिन’ छाप फिल्मों में ‘तेरी मेहरबानियाँ’ जैसा झोल नहीं दिखता, कि पोस्टर किसकी मेहरबानियों की बात कह रहा है? पूरी फिल्म में जब कुत्ता साये की तरह साथ नजर आता है, तब कुत्ते का नाम लिखना आखिर क्यों उचित नहीं...। अपन तो सोचा करते थे, कि फिल्म को अगर ‘कुत्ते की मेहरबानियाँ’ नाम दिया होता, तो शायद फिल्म की पटकथा और फिल्म के पोस्टर के बीच तादात्म्य दिखाई दे जाता।

खैर... बात नागिन की हो रही है, तो यहाँ बेझिझक बताना होगा, कि ‘नागिन’ टाइप फिल्में अपने नाम से भटकती नहीं हैं। इसी कारण ये फिल्में अपना तीखा और तेज असर डालती हैं। एक जमाना ऐसा भी था, जब नागिन का जादू ‘आधी दुनिया’ पर सिर चढ़कर बोला करता था। मोहतरमाएँ नागिन की तरह बल खाती थीं, और सपेरे को डस ही लेंगी जैसी अदा में हर समय दिखती थीं। अनेक शायरों के लिए ‘नागिन-सी चाल’ शेर-बहर की पैदाइश के लिए मुकम्मल माहौल बनाती थी। इस सबके बीच बीन भी कम महत्त्व की नहीं होती थी। बीन की धुन के साथ नागिन और सपेरे का नाच फिल्म से निकलकर सड़क तक कब और कैसे आया, इस पर ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। बात आगे बढ़ाने से पहले यह भी बताना कम रोचक नहीं लगता, कि आज भी हारमोनियम के सीखने वाले नए-नवोढ़े संगीतकारों के लिए नागिन की बीन वाली धुन बजाना खासा चैलेंज होता है, और उससे ही सीखने का क्रम आगे बढ़ता है।

नागिन वाला नाच ऐसा सदाबहार नाच है, जिसके बिना कह सकते हैं कि जयमालाएँ नहीं पड़तीं। दुनिया चाहे कितनी भी मॉडर्न क्यों न हो जाए। बारात भले ही शहर में जा रही हो, या गाँव की कच्ची और ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर...नागिन वाले नाच के बिना उसका सौंदर्य निखरता ही नहीं है। पूरे रंग में बारात चली जा रही है और दूल्हे के सगे सब अलग-अलग अदा में नाच रहे हैं। तभी बीच में से एक नागिन निकलकर जाती है, और ब्रास बैंड पार्टी के मुखिया को, यानि म्यूजिक डाइरेक्टर को हिदायत देती है- ए... नागिन.... बजाओ...। तुरंत ही कैसियो पर उंगलियाँ थिरककर ‘ऊँ..हूँ...हूँ...ऊँ.. हूँ... हूँ... हूँ...’ की धुन निकालने लगती हैं। दूसरी तरफ अलग-अलग नृत्य पद्धतियों में नाच रहे बरियाती सब चौंकन्ने हो जाते हैं। ताल बदलकर मुस्तैद हो जाते हैं और कितनी नागिनें और सपेरे एकदम प्रकट हो गए, गिनना कठिन हो जाता है। कभी-कभी नागिन एक ही होती है, और सपेरे कई। सपेरा बनना भी आसान... पतलून से रूमाल निकाला, और एक कोना मुँह में दबाकर दूसरे कोने को दोनों हाथों से पकड़ा, और बस... सपेरे की बीन भी तैयार....। नागिन को इतना कुछ नहीं करना पड़ता। वह अपनी दोनों हथेलियों को फन की तरह बनाकर सपेरों से मुकाबले के लिए उतर पड़ती है। उसके सामने चैलेंज बड़ा होता है... कई-कई सपेरों से बचने का। इसके लिए उसे बार-बार लोटना पड़ता है, उठना पड़ता है, गिरना पड़ता है। सपेरे भी उसे काबू करने के लिए कम जोर आजमाइश नहीं करते। कैसियो की धुन की तेजी के साथ नागिन और सपेरे इस कदर लहालोट होते हैं, कि अपने तन-वसन की सुध भी भूल जाते हैं। गाँवों की कच्ची सड़कों या पगडंडियों पर नागिन-सपेरा का यह मुकाबला दूर से ही आभास करा देता है, धूल के उठते गुबार के जरिये...। अब देखिये... जनवासे से बढ़िया लकालक क्रीज बने हुए कपड़े पहनकर चली नागिनें और सपेरे दुलहिन के दुआर तक पहुँचते-पहुँचते ऐसे लगने लगते हैं, मानों घूर समेटकर आ रहे हों। यकीन मानिए, कि यह चमत्कार बीन की धुन में ही होता है, जो अपने कपड़ों की क्रीज को कम से कम जयमाल के फंक्शन तक न टूटने देने की बारातियों की प्रतिबद्धता को भंग करा देती है।

इतनी बड़ी अहमियत रखने वाली बीन की तौहीन तब होती है, जब वह भैंस के सामने पहुँचती है- भैंस के आगे बीन बजे, भैंस खड़ी पगुराय..। वैसे भैंस को लेकर और भी कई बातें हैं, जैसे- काला अक्षर भैंस बराबर और अकल बड़ी या भैंस.. आदि। भैंस के साथ इन लोक-कथनों को सुनकर अकसर यही आभास होता है, कि भैंस का पढ़ने-पढ़ाने या दिमागी कार्य-व्यवहारों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता। बीन का अपना शास्त्रीय महत्त्व होता है। संगीत की पुरातन व्यवस्था में बीन नामक संगीत का उपकरण अपना स्थान रखता है। बीन का संबंध मन के आह्लाद से भी होता है, उमंग से भी होता है। इसी कारण बीन की धुन पर वह नागिन भी थिरकने लगती है, जिसके कान तक नहीं होते। सर्प प्रजाति के जीवों के कान नहीं होते। बीन की हरकतों को देखकर नागिन थिरकती है। फिर भी हम संगीत के प्रभाव को नकार नहीं सकते। हम संगीत के सुख में डूबने की स्थितियों को नकार नहीं सकते। संगीत जीवन में उमंग और उल्लास भरता है।

भैंस को संगीत से कोई मतलब नहीं होता। उसके दो कान भी होते हैं, देख भी सकती है, लेकिन न तो बीन की धुन ही उसे उद्वेलित करती है, और न ही बीन की कलात्मक थिरकन....। आँख और कान होते हुए भी उसके लिए उल्लास और उमंग कोई मायने नहीं रखते। जीवन का आह्लाद, जीवन की उमंग से वह कोसों दूर रहती है। एकदम वीतरागी होकर वह बीन के सामने खड़ी रहती है, पगुराती रहती है। संगीत उसके लिए नीरस है, उसके पास अपनी खुशी है, केवल पगुराने में...। उसके पास खुशी का कोई कारण बीन की धुन से खुश होने का नहीं है। ठीक उसी तरह, जिस तरह उसके लिए काला अक्षर होता है। जिस तरह वह अपने आकार-प्रकार से अकल को ‘चैलेंज’ करती है।

भैंस के प्रति ये नकारात्मक विचार कहे जा सकते हैं। भैंस की अपनी संस्कृति, अपनी पहचान की चिंता के पीछे उसके वीतरागी हो जाने की स्थितियों को छिपाया जा सकता है। बेशक भैंस बड़ी होती है। अकल छोटी होती है, क्योंकि अकल तो दिखाई भी नहीं पड़ती। इसी अकल के भरोसे अगर भैंस के चिंतन की गंभीरता का आकलन करें, तो कह सकते हैं, कि उसे बीन के संगीत के सामने अपनी चिंतन की गंभीरता को कुरबान कर देना उचित नहीं लगता। इसी कारण वह चिंतन की अतल गहराइयों में डूबे हुए बीन की धुन को ‘इग्नोर’ करती है। ऐसा करके वह अपनी महानता की, अपनी गंभीरता की, अपने गंभीर चिंतन की लाज रखती है।

अब आप कह सकते हैं, कि फिर उसे पगुराना क्यों होता है, और वह भी खड़े रहकर? दरअसल भैंस का खड़े रहना और पगुराना, दोनों ही उसके व्यक्तित्व से जुड़े हुए पहलू हैं। खड़े रहकर वह अपनी सक्रियता का बोध कराती है। वह यह बताती है, कि उसकी सक्रियता नायाब है। अगर वह बैठ जाएगी, तो उसके साथ सबकुछ बैठ ही जाएगा। एक जागरूक और चिंतनशील ‘परसन’ के लिए खड़े रहना कई कारणों से जरूरी होता है। और पगुराना भैंस का गुणधर्म है। अपनी चिंतनशीलता और अपने विकराल भौतिक व्यक्तित्व के आवरण के पीछे उसे पगुराना होता है, हजम करना होता है, बहुत सारी योजनाओं को, व्यवस्थाओं को, लोगों के सपनों को, विचारों को, कभी-कभी जीवन को...। वह जुगाली नहीं करती, पगुराती है। पगुराना एक क्रिया है, कई पुश्तों के लिए। मौका मिलते ही जल्दी-जल्दी अपने उदर में भर लो, और फिर लंबे समय तक उसे पगुराते रहो। ‘ऊपर की कमाई’ जल्दी-जल्दी खाकर तीन पुश्तों के लिए पगुराने का इंतजाम...। भैंस इसी कारण एक अलग चरित्र गढ़ती है। वह बीन पर ध्यान नहीं देती। उसका ध्यान पगुराने पर होता है। आखिर बीन से उसे क्या हासिल होने वाला है?

राहुल मिश्र


अमृत विचार, बरेली में 13 दिसंबर, 2020 को प्रकाशित


Wednesday 12 May 2021

छायावाद : अस्पष्टता के काव्य से विचारों की गहनता तक...

 

छायावाद : अस्पष्टता के काव्य से विचारों की गहनता तक...

छायावाद के बारे में यह प्रचलित मजाक था कि जो समझ में न  आवे, अस्पष्ट हो, वह छायावाद है। पुराने अध्यापकों को छायावादी कविताएँ पढ़ाना अब भी अटपटा लगता है और फिर अपनी या अपने छोटे भाई या अपने छात्रों की गवाही दूँ तो सूर, तुलसी, बिहारी और रत्नाकर जैसी स्पष्टता या रस इन कविताओं में प्रारंभ में उपलब्ध नहीं होता। प्रसाद के बारे में तो यह प्रसिद्ध है कि बाद को अपनी किसी कविता का अर्थ वह स्वयं नहीं बता पाए थे। इस तरह आधुनिक हिंदी काव्य के प्रसंग में बोधगम्यता का सवाल छायावादकाल से माना जा सकता है। यह बात एक सहज साहित्यिक स्तर पर उठने वाले सामान्य प्रश्न के लिए कही जा रही है।1

हिंदी के प्रख्यात आलोचक-समीक्षक देवीशंकर अवस्थी की लेखनी से उद्धृत ये विचार हिंदी के छायावाद के संदर्भ में की गईं प्रारंभिक टिप्पणियों से संबद्ध हैं। वे नई कविता और बोधगम्यता के प्रश्न की पड़ताल करते-करते मूल उत्स तक जाने का यत्न करते हैं। अध्यापकों और छात्रों के अलावा रचनाकार, आलोचक और सामान्य पाठकों द्वारा नई कविता के प्रसंग में बोधगम्यता पर उठाए जाने वाले प्रश्नों के संदर्भ में वे अपना मत रखते हैं, कि क्यों न इस प्रश्न को काल की दृष्टि से भी देख लिया जाए। उनकी आलोचनात्मक दृष्टि इस प्रश्न का उत्तर खोजते हुए छायावाद काल में जाकर टिकती है।

आचार्य देवीशंकर अवस्थी छायावाद काल की रचनाओं को अस्पष्ट और बोधगम्यता के स्तर पर जटिल मानने वालों के समर्थन में खड़े नहीं दिखते, वरन् वे इसके पीछे के कारणों को तलाशते हुए स्पष्ट करते हैं, कि- “पहले सहृदय, प्रमाता या रसज्ञ की शिक्षा और संस्कारों पर बल दिया जाता था—रचना दुरूह है यह कोई नहीं कहता था, रसज्ञ असंस्कारी है, यह कहा जाता था। संस्कृत के आचार्य ने बता दिया था, ‘येषां काव्यानुशीलनाभ्यासवशाद् विशदीभूते मनोमुकुरे वर्णनीयतन्मयी भवन योग्यता से स्वहृदयसंवादभाजः सहृदयाः।’ पर आज का पंडित इस संस्कारशीलता पर जोर नहीं देता। वह तो सीधे-सीधे रचना को ही पाठ के स्तर पर ले आना बोधगम्यता मानता है। इस प्रकार बोधगम्यता की बात पाठक से रचना पर आधुनिक काल में आरोपित कर दी गई है।”2

इस प्रकार बोधगम्यता के जिस प्रश्न को नई कविता का पूर्ववर्ती कालखंड, अर्थात् छायावाद का काल देखता है, उसकी बोधगम्यता के प्रश्न और उसकी अस्पष्टता का बहुत तार्किक विश्लेषण आचार्य देवीशंकर अवस्थी द्वारा किया जाता है। उनकी कही बातों के क्रम के साथ ही हिंदी के छायावाद काल के विविध संदर्भों को देखें, तो कमोबेश इन्हीं प्रश्नों के आसपास छायावाद का आरंभिक मूल्यांकन और स्थिति हमें दिखाई देती है। छायावाद का कालखंड अनेक ऐतिहासिक और सम-सामयिक स्थितियों से प्रभावित रहा है, और पहचाना गया है। इसके साथ ही साहित्येतिहास की निर्धारित की गई कालावधियों के मध्य छायावाद की स्थिति भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अस्पष्टता और बोधगम्यता के प्रश्न इन स्थितियों से न जुड़े हों, ऐसा नहीं माना जा सकता। भारतेंदु हरिश्चंद के साथ प्रारंभ हुए हिंदी के भारतेंदु युग में खड़ी बोली हिंदी का आगमन होता है, सारे देश की एक भाषा के रूप में इसकी उपस्थिति होती है, किंतु साहित्य के क्षेत्र में खड़ी बोली हिंदी के लिए स्थान बनाना इसलिए कठिन हो जाता है, क्योंकि उसमें ‘ठेठपन’ या ‘खरापन’ है। उस समय सामान्य रूप से यह मान्यता थी, कि- ‘खड़ीबोली की कविता ब्रजभाषा के देखे रूखी होती है।’ यह रूखापन सरसता के साथ ही समझ या बोधगम्यता के लिए भी जटिल होता था।

भारतेंदु युग को नवजागरण काल के रूप में भी जानते हैं। यह नवजागरण अपने अतीत के गौरव के प्रति, भाषा के संस्कारों के प्रति, और साथ ही सुषुप्त-अवस्था में छूट गई संस्कृत-संस्कृति को पुनः गौरव प्रदान करने में भी संलग्न हुआ। परिणामस्वरूप नवजागरण काल में विशुद्धतावाद का आगमन हुआ। “इसमें संदेह नहीं कि आधुनिक हिंदी साहित्य को सर्वप्रथम मार्ग भारतेंदु जी ने ही दिखाया। यदि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को नव-जागरण का प्रधान पोषक मान लें, तो भारतेंदु जी अवश्य ही उसके जन्मदाता थे। काव्य क्षेत्र में द्विवेदी जी ने ही आधुनिक कविता के स्वरूप को प्रतिष्ठित किया। इन्होंने जिस साहित्य की प्रेरणा प्रदान की है वह उपदेश गर्भित तथा सुधारवादी था।”3 द्विवेदी युग में इन विशिष्टताओं को स्थापित करने में हिंदी के मानकीकरण ने भी बहुत बड़ा योगदान दिया। यह अधिक प्रबल तब हुआ, जब साहित्य के लिए प्रयुक्त होने वाली खड़ी बोली हिंदी का मानकीकरण होने लगा, शुद्धीकरण होने लगा। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी के विराट व्यक्तित्व और संपादन-कौशल ने खड़ी बोली हिंदी को संस्कृतनिष्ठ, तत्समप्रधान बनाने की शुरुआत की। यह नवजागरण काल से आगे जागरण-सुधार काल के रूप में जाना जाता है। इस कालखंड में नवजागरण की प्रवृत्तियों की सघनता को उसके विशुद्ध रूप के साथ देखा जाने लगा।

इस तरह नवजागरण और स्वाधीनता संग्राम की अभिव्यक्ति की भाषा के रूप में एक ओर खड़ी बोली हिंदी अपना आकार ग्रहण कर रही थी, दूसरी ओर काव्य-सृजन की पुरानी परिपाटी काव्य की सर्वप्रिय ब्रजभाषा में ही चल रही थी। भारतेंदु और द्विवेदी युग में गद्य भले ही खड़ी बोली हिंदी में रचा जा रहा था, किंतु काव्य ब्रजभाषा के मोह से मुक्त नहीं हो पा रहा था। “एक समय ब्रजभाषा के पुराने गौरवशाली काव्य का ऐसा नशा था कि कविता को खड़ी बोली की तरफ खिसकाना कठिन कार्य था। यह अतीत का मोह-बंधन ही न था। आधुनिक युग में किसी समय ब्रजभाषा में ही काव्य-लेखन पर इतना जोर वस्तुतः हिंदी को लेकर तंग नजरिये का सूचक था। इसलिए कविता को ब्रजभाषा से खड़ी बोली की जमीन पर लाने की कोशिशें महज शैली परिवर्तन की नहीं थीं। ये सौंदर्य और मूल्य के एक पूरे संसार को बदलने की लड़ाइयाँ थीं। इनकी वजह से धर्म, शिक्षा, राजनीति और मानवीय संवेदना के एक साथ बहुत सारे मामलों में काफी उथल-पुथल आई।”4

भारतेंदु युग के परवर्ती द्विवेदी युग में गद्य भले ही खड़ी बोली हिंदी में रचा जाने लगा हो, लेकिन प्रतापनारायण मिश्र के द्वारा कही गई उक्ति- ‘खड़ीबोली ब्रजभाषा के देखे रूखी होती है।’, के बंधन से मुक्त नहीं हो पाई थी। इस बंधन को टूटता हुआ देखते हैं- छायावाद के कालखंड में...। कवित्त, सवैया आदि छंदों के लिए खड़ीबोली हिंदी उपयुक्त नहीं रही। ऐसा माना जाता रहा, कि इनकी मृदुल-मंजुल-कोमलकांति खड़ी बोली में नहीं उतर पाई है। छायावाद की भाषा विशुद्ध खड़ीबोली हिंदी थी, लिहाजा हिंदी की कविता में रस के आग्रही और परंपरा का पोषण करने वाले अनेक साहित्यसेवियों के लिए, पाठकों के लिए, अध्येताओं और शिक्षकों-छात्रों के लिए छायावाद की कविता एकदम अलग-अनूठे तरीके से आई, और अस्पष्ट हो गई। देवीशंकर अवस्थी के लिए भी यही स्थिति थी, जिसका उल्लेख उन्होंने अपने आलोचना-आधारित निबंधों में किया।

छायावाद के रूप में आई कविता-क्रांति ने तत्कालीन आलोचकों-समीक्षकों को ऐसा विस्मित किया, कि छायावाद की अनेक रोचक परिभाषाएँ लिखी जाने लगीं। यहाँ गणपतिचंद्र गुप्त के कथन का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा। वे लिखते हैं- “हिंदी की कुछ पत्र-पत्रिकाओं— ‘श्री शारदा’ और ‘सरस्वती’—में क्रमशः सन् 1920  और 1921 में मुकुटधर पांडेय और श्री सुशीलकुमार द्वारा दो लेख ‘हिंदी में छायावाद’ शीर्षक से प्रकाशित हुए थे, अतः कहा जा सकता है कि इस नाम का प्रयोग सन् 1920 या उससे पूर्व से होने लग गया था। संभव है कि श्री मुकुटधर पांडेय ने ही इसका सर्व-प्रथम आविष्कार किया हो। यह भी ध्यान रहे, पांडेय जी ने इसका प्रयोग व्यंग्यात्मक रूप में– छायावादी काव्य की अस्पष्टता (छाया) के लिए किया था, किंतु आगे चलकर यही नाम स्वीकृत हो गया। स्वयं छायावादी कवियों ने इस विशेषण को बड़े प्रेम से स्वीकार किया है...।”5 बाद के आलोचकों और हिंदी साहित्येतिहास के अध्येताओं ने छायावाद को अपने-अपने तरीके से परिभाषित करने के प्रयास किए। किसी ने ‘सूक्ष्म के प्रति स्थूल का विद्रोह’, किसी ने ‘वस्तुवाद और रहस्यवाद के मध्य स्थित वाद’ बताया है। आचार्य रामचंद्र  शुक्ल ने छायावाद को दो अलग-अलग स्तरों पर स्थित बताया है- काव्य-वस्तु के रूप में चित्रमयी भाषा के साथ व्यक्त अज्ञात-अनंत प्रियतम के प्रति अनन्य प्रेम और समर्पण; और काव्य-शैली के रूप में ब्रजभाषा और परंपरागत रचना-विधानों से मुक्त एक नए प्रयोग के रूप में....।

गणपतिचंद्र गुप्त छायावाद के लिए सर्वसम्मत परिभाषा की अनुपलब्धता के लिए छायावाद के ऊपरी लक्षणों या उसके कुछ बाह्य पक्षों को ही देखने की बात कहते हुए सम्यक् मूल्यांकन की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं, और अपना पक्ष भी रखते हैं। वे छायावाद की मूल चेतना को विश्लेषित करते हुए  इसे पाश्चात्य साहित्य के ‘रोमैंटिसिज्म’ या स्वच्छंदता का काव्य बताते हैं। छायावाद को स्वच्छंदतावाद के रूप में अभिहित करने के लिए वे तर्क भी देते हैं- “जिस काव्य में इस प्रकार (बाह्य जगत् की अपेक्षा अंतर्जगत को, बौद्धिकता की अपेक्षा भावात्मकता को, यथार्थ की अपेक्षा कल्पना को, सत्य की अपेक्षा सौंदर्य को, परंपरा की अपेक्षा नूतनता को एवं संघर्ष की अपेक्षा प्रेम को अधिक महत्त्व देने) की अंतर्मुखी चेतना की अभिव्यक्ति होती है, उसे सामान्यतः स्वच्छंदतावाद का नाम दिया जाता है। हिंदी के छायावाद पर भी उपर्युक्त सारी बातें लागू होती हैं।”6 इस तरह छायावाद के संबंध में अस्पष्टता के साथ एक अलग पहचान स्वच्छंदतावाद के रूप में परिलक्षित होती है।

प्रथम विश्वयुद्ध से द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य के कालखंड में राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक उथल-पुथल के बीच बांग्ला साहित्य से होकर हिंदी में आ रही साहित्य की नवीन चेतना परिवर्तित अवश्य हुई, और अंग्रेजी या यूरोपीय प्रभाव सीधे हिंदी में आया, किंतु छायावाद पूरी तरह से यूरोपीय साहित्य के प्रभाव से निकला है, या अंग्रेजी साहित्य के ‘रोमैंटिसिज्म’ का असर हिंदी में छायावाद बनकर उभरा है, इसे भी स्वीकार करना तर्कसंगत नहीं लगता है। कुछ विद्वान छायावाद को अंग्रेजी के ‘रोमैंटिसिज्म’ का भारतीय संस्करण कहकर परिभाषित करते हैं, किंतु वस्तुस्थिति इससे विपरीत समझ आती है। जब गणपतिचंद्र गुप्त छायावाद को ‘स्वच्छंदतावाद’ के रूप में व्याख्यायित करते हैं, तब उनका आशय इसे यूरोपीय साहित्य या अंग्रेजी के ‘रोमैंटिसिज्म’ के अनुसरणकर्ता के रूप में बताना नहीं होता। इन बातों के मध्य बारीक विभेद है, जो भ्रम की स्थिति पैदा करता है। डॉ. नगेंद्र स्वयं इस तथ्य को मानते थे, किंतु बाद में उन्होंने अपना मत परिवर्तित किया।7

छायावाद की अस्पष्टता को रहस्य के रूप में देखने के प्रयास भी कम नहीं हुए। यह रहस्य उस बिना रूप-रंग वाले, नाक-नख्श वाले, निराकार प्रेमी के प्रति समर्मण के भाव के रूप में देखा जाता है। प्रेमी अज्ञात है, उसके आदि-अंत का भी कुछ पता नहीं है....। ऐसे प्रेमी के प्रति उपजते भावों को रहस्य के रूप में देखते हुए छायावाद के लिए यह नाम मिलता है। “यह भाव-धारा कवि की समवय तथा रुचियों के अनुसार रंग बदलकर आगे बढ़ती रही, जिसे कहीं रहस्यवाद और कहीं छायावाद के नाम से पुकारा गया, किंतु सबके मूल में प्राचीनता के ऊपर नवीनता का आरोप तथा वर्तमान के हीनतर बंधनों से मुक्त होकर श्रेष्ठतर स्वच्छंदता में विचरण करने के भाव विद्यमान हैं।”8

इस तरह छायावाद के लिए रहस्य, अस्पष्टता और यूरोपीय रोमैंटिसिज्म के प्रभाव से उपजे स्वच्छंदतावाद की गढ़ी गई प्राचीरों के दायरे से बाहर निकलने पर छायावाद के काव्य की भाषा, शिल्प, शब्द-संघटना, छंद-योजना, संरचना, वैचारिकता, भावाभिव्यक्ति की तीव्रता-तरलता, कल्पना की व्यापकता आदि अनेक पक्ष देखने को मिलते हैं। “निराला के मुक्त छंदों का उदाहरण लें, तो कवित्त जैसे छंद में नयी जान फूँक गयी। पंत ने ललित पदावलियों की झड़ी लगा दी। पंत, प्रसाद, निराला और बाद में आईं महादेवी, सबने— किसी ने अधिक तो किसी ने थोड़ा कम- मृदुल मंजुल पदावलियों से कविता खजाना भर दिया। निराला ने पौरुषमय भाषा की रचना में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। संस्कृत कविता में क्या होता था- यानी कालिदास, भवभूति आदि के यहाँ वह अपनी जगह है, लेकिन आधुनिक युग में संस्कृत पदावलियों की असली शक्ति का पता छायावाद में ही चला।”9

छायावाद के साथ स्वच्छंदतावाद और अंग्रेजी साहित्य के रोमैंटिसिज्म के संबंधों पर डॉ. शिवदान सिंह चौहान की टिप्पणी का उल्लेख यहाँ आवश्यक हो जाता है। वे लिखते हैं- “अतः यह कहना जैसे गलत होगा कि फ्रांसीसी धारा, जर्मन धारा के अनुकरण पर चली या अंग्रेजी धारा, फ्रांसीसी धारा की अनुवर्तिनी थी,  उसी तरह यह कहना भी गलत होगा कि हिंदी की छायावादी कविता पाश्चात्य धारा की नकल है और यदि फैशन की नकल की जाती है तो तत्कालीन समसामयिक फैशन की... सौ वर्ष पुराने फैशन की नहीं...। किंतु उस स्वच्छंदतावादी धारा का, जिससे छायावाद की कविता प्रभावित है, सत्तर वर्ष पहले अवसान हो चुका था, और प्रथम महायुद्ध के बाद की पाश्चात्य कविता स्वच्छंदतावाद के अवशिष्ट ह्रासोन्मुख, घोर व्यक्तिवादी, अनास्थावादी और असामाजिक तत्त्वों को ही एकांगी अभिव्यक्ति दे रही थी। छायावादी यदि सहसा उनकी परिपाटी पर चल पड़ते, तो उन पर अनुकरण वृत्ति का आरोप सही उतरता।”10 डॉ. शिवदान सिंह चौहान की यह टिप्पणी छायावाद पर लगे अनुकरण के आरोप का तार्किक खंडन-मात्र नहीं करती, प्रत्युत् छायावाद के सम्यक्-सर्वाङ्गपूर्ण मूल्यांकन की अनिवार्यता को भी प्रकट करती है।

अपनी लगभग बीस वर्षों की अल्प काल-अवधि में ही हिंदी के छायावाद ने आधुनिक हिंदी कविता को जितनी विपुल साहित्य-राशि दी है, जितनी विविधता और व्यापकता से साक्षात् कराया है, उसे अन्यत्र खोजना कठिन है। इस वैविध्य और व्यापकता के साथ ही भावों की सघनता और विचारों की गंभीरता के बल पर छायावाद का काव्य अपनी पूर्ववर्ती काव्य-प्रवृत्तियों के सामने खड़े होने का सामर्थ्य जुटाता है; और आलोचनाओं-प्रतिक्रियाओं के  बाद भी सिद्ध करता है, कि छायावाद अस्पष्ट छाया का सृजन नहीं, बल्कि विचारों की गंभीरता और भावों की सघनता का काव्य है। इसमें प्राचीन भारतीय दर्शन के तत्त्व भी हैं, और आधुनिकता का बोध भी है। परंपरा के प्रति लगाव भी है, और बंधनों से मुक्त होने की छटपटाहट भी है। इसमें विविधता के इतने सारे रंग हैं, कि यह काव्य के आकाश में इंद्रधनुष-सम प्रतीत होता है।

छायावाद की प्रारंभिक अवस्था में, छायावाद के विस्तार में, और उसकी परवर्ती काल-अवधि में छायावाद को अस्पष्टता के काव्य और बोधगम्यता के स्तर पर दुरूह-जटिल काव्य के रूप में प्रस्तुत और प्रकट किए जाने के पीछे परंपरा से चली आ रही व्यवस्था के बंध टूटने और यूरोपीय प्रभावों के प्रति भारतीय जनमानस की विद्रोही वृत्तियों के कारक परिलक्षित होते हैं। जबकि बाद के वर्षों में यह स्थिति इस प्रकार बदली है, कि छायावाद का काव्य-संसार हिंदी के लिए अमूल्य निधि के रूप में अपनी पहचान बना सका है। इतना अवश्य है, कि आलोचना-समीक्षा के क्षेत्र में पुराने गढ़े गए प्रतिमानों से निकलकर छायावाद को नवीन दृष्टि से देखने-लिखे जाने की आवश्यकता अब भी शेष है।

संदर्भ-

1.      देवीशंकर अवस्थी, नई कविता और बोधगम्यता का प्रश्न, रचना और आलोचना, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 1995, पृ. 47,

2.      वही, पृ. 48,

3.      डॉ. त्रिभुवन सिंह, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : एक परिचय, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1968, पृ. 224,

4.      शंभुनाथ, हिंदी की धर्मनिरपेक्षता का बिगुल, स्मृति-ग्रंथ : बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री, संपा. सिद्धिनाथ मिश्र, प्रका. अयोध्याप्रसाद खत्री जयंती समारोह समिति, मुजफ्फरपुर, सं. 2007, पृ. 69,

5.      गणपतिचंद्र गुप्त, स्वच्छंदतावादी (छायावादी) काव्य-परंपरा, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास, द्वितीय खंड, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, बारहवाँ सं. 2010, पृ. 72,

6.      वही, पृ. 73,

7.      वही, पृ. 76,

8.      डॉ. त्रिभुवन सिंह, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : एक परिचय, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, सं. 1968, पृ. 228,

9.      सुधीर रंजन सिंह, छायावादी काव्य-रूप और परवर्ती कविता, कविता की समझ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, सं. 2018, पृ. 68,

10.     डॉ. शिवकुमार शर्मा, आधुनिक काल, हिंदी साहित्य : युग और प्रवृत्तियाँ, अशोक प्रकाशन, दिल्ली, सप्तम सं. 1977, पृ. 494 ।


डॉ. राहुल मिश्र

(अनुसंधान, हिंदी एवं आधुनिक भाषा विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज उत्तरप्रदेश, संपादक- डॉ. राजेश कुमार गर्ग, वर्ष- 16, अंक- 15-16, जुलाई-दिसंबर 2020 में प्रकाशित)


Thursday 26 October 2017

वारकरी संप्रदाय की उत्पत्ति के आधार और इनका वैशिष्ट्य


वारकरी संप्रदाय की उत्पत्ति के आधार और इनका वैशिष्ट्य

भारतवर्ष की सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था धर्मप्रधान रही है और प्रमुख तत्त्व के रूप में भक्ति की व्याप्ति को भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में देखा जा सकता है। भारतीय विद्वानों के साथ ही अनेक विदेशी विद्वानों ने इस तथ्य पर अपनी सहमति दी है। भक्ति के विविध स्वरूपों का, विभिन्न मतों-संप्रदायों का विकास और विस्तार इस धारणा को निरंतर पुष्ट करता रहा है। इसके साथ युगानुरूप चेतना और उपासकों-भक्तों के वैचारिक संघर्षों के साथ मतों-संप्रदायों का उत्थान-पतन भी होता रहा है। ब्रह्मपुराण में एक श्लोक आता है-
ब्रह्मा कृत युगे पूज्यः स्त्रेतायां यज्ञउच्चते।
द्वापरे पूज्यते विष्णुरहं पूज्यश्चतुर्ष्वापि।। (33.20)
इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मा का संप्रदाय कृतयुग (सतयुग) में प्रचलित था। त्रेतायुग में वैदिक संप्रदाय अपनी यज्ञप्रधान व्यवस्था के साथ प्रचलित हुआ। द्वापर युग में वैष्णव भक्ति प्रचलित हुई और शिव की पूजा-उपासना प्रत्येक युग में प्रचलित रही है। यह श्लोक भारतीय उपासना-पद्धतियों और मतों-संप्रदायों के विकास-क्रम को भी स्पष्ट करता है। इस श्लोक से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मा की उपासना सबसे पुरानी थी। आज सगुण एवं निर्गुण उपासना जगत् में ब्रह्मा के नाम कोई संप्रदाय नहीं चलता। शताब्दियों के पहले ही अन्य संप्रदायों ने उसे दबा दिया और ब्रह्मा को अपने संप्रदायों के प्रतिष्ठाताओं की अपेक्षा गौण स्थान प्रदान किया। यह प्राचीन जातियों पर नवागत जातियों के विजय का परिचायक है। ब्रह्मा संप्रदाय भारत का प्राचीनतम संप्रदाय था। वेदपूर्व युग के अवैदिक ब्राह्मण जाति के बीच में यह लोकप्रिय रहता था। अनेक देवताओं तथा संप्रदायों का जन्म इसी से हुआ। अतएव ब्रह्मा के संप्रदाय को संप्रदायों का पिता मानना गलत नहीं होगा। वैदिक धर्म से संघर्ष करके वह परिक्षीण हो गया। शिव के शापवश ब्राह्म के संप्रदाय के लुप्त होने की कथा शैव धर्मावलंबियों के नाशकारी आक्रमण की परिचायक है। जैन, बौद्ध, शैव एवं वैष्णव धर्मों ने उसको आत्मसात् करने में पर्याप्त विजय पाई।1  वैदिक संप्रदाय कर्मकांडों पर आधारित था और वैदिक साहित्य भी ज्ञान-तत्त्व को प्रधानता देता था। इस कारण वैदिक साहित्य यज्ञ और नियम के विधानों में इस तरह उलज्ञा कि उसमें पौरोहित्य की प्रधानता हो गई, जिसने कालांतर में ऐसे विरोध को जन्म दिया, जिसकी परिणति वैष्णव भक्ति के रूप में प्रकट हुई। वैदिक धर्म में वर्णित देव-मंडल में विष्णु को प्रधान स्थान प्राप्त नहीं था, किंतु कालांतर में उपासना-शास्त्र के प्रधान देवता के रूप में विष्णु को प्रमुख स्थान प्राप्त हुआ। विष्णु को उपास्य मानकर प्रचलित होने वाले वैष्णव धर्म की व्यापकता के पीछे उसकी धार्मिक, दार्शनिक स्थापनाओं की विशेषता थी और साथ ही समन्वय की अपूर्व भावना भी थी-
किरात  हूणांध्र-पुलिंद  पुल्कसा  आभीर-लङ्का  यवनाश्वशादयः ।
यो न्यै च या या यदुपाश्रया श्रयाः शुद्धन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नमः ।।
भारतवर्ष की अपनी सांस्कृतिक विशिष्टता के नितांत विलक्षण स्वरूप को प्रकाशित करता श्रीमद्भागवत् का यह श्लोक एक ओर भारतवर्ष के गौरवपूर्ण इतिहास का साक्ष्य प्रस्तुत करता है, तो दूसरी ओर इसमें विष्णु का आश्रय लेकर ब्राह्मण पौरोहित्यवाद के खिलाफ जन-संघर्ष मुखर होता है। भारत में बाहर से आने वाली अनेक जातियों और धर्मों के आक्रांता स्परूप को परिवर्तित और परिशुद्ध करके आत्मसात् कर लेने की यह प्रवृत्ति ऐतिहासिक और भौगोलिक सीमाओं में अद्भुत है। हूण, यवन, ग्रीक, आंध्र और पुलिंद आदि बाह्य आक्रमणकारी जातियों ने विष्णु की उपासना का आश्रय लिया और विष्णु के नाम से प्रवर्तित वैष्णव धर्म को समृद्ध किया। वैष्णव धर्म के प्रमुख ग्रंथ भागवत में इसी कारण उनका उल्लेख आदरपूर्वक किया गया है। ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में वैष्णव भक्ति-धारा के आंदोलन के रूप में विकसित होने का प्रमुख कारण जैन और बौद्ध धर्मों का विकास भी माना जा सकता है। इस संदर्भ में भगवतशरण उपाध्याय लिखते हैं- भागवतधर्म को पुष्टि अधिकतर निम्नश्रेणी के लोगों से मिली। इसके पश्चातकाल में तो इसके गुरुओं तक में अधिकतर निम्नवर्गीय अछूत तक हुए। और एक समय तो बौद्ध-धर्म और भागवत-धर्म की सीमायें एक हो गईं, जब बुद्ध, वैष्णवों के अवतार मान लिये गये और उनकी मूर्ति पुरी के विष्णु मंदिर में जगन्नाथ के रूप में स्थापित की गई। आज भी इस मंदिर के प्राचीरों के भीतर वर्णविधान नहीं है और आर्य जाति, निम्नवर्ण, सवर्ण और अछूत तक एक साथ प्रसाद पाते हैं। इन बौद्ध-धर्म और भागवत-धर्म के सम्मिलित प्रहार ने कम से कम परिणाम रूप में ब्राह्मण वर्णव्यवस्था को चूर-चूर कर दिया। भागवत धर्म में काफी संख्या में विदेशीय विजातीय भी सम्मिलित हुए थे उन्होंने उस धर्म को अपने कंधे दिये। द्वितीय सदी ईस्वी पूर्व के अंत में तक्षशिला के यवन (ग्रीक) राजा अन्तलिखिद ने शुंग वंशीय काशिपुत्र भागभद्र के पास विदिशा के दरबार में हेलियोपोर नाम का अपना ग्रीक राजदूत भेजा था। वह हेलियोपोर वैष्णव हो गया और बेस नगर में विष्णु के नाम पर उसने एक स्तम्भ खड़ा करवाया।2 विष्णु का वामन अवतार भी वैष्णव धर्म के विकास की तीव्र प्रक्रिया और इसके असीमित भौगोलिक विस्तार की विशिष्टता को व्याख्यायित करता है, जिसमें वामन के रूप में तीन पगों में ही सारी धरती को नाप लेने का प्रसंग आता है। ऋग्वेद में वर्णित है-
इदं विष्णुविर्चक्रमे त्रेधानिदधे पदम्। समूलमस्य पांसुरे।। (122-7)
भागवतधर्म के आधार ग्रंथ श्रीमद्भागवत में विष्णु के चौबीस अवतारों का वर्णन है। श्रीमद्भागवत के नवम स्कंध में राम के और दशम स्कंध में कृष्ण के अवतार का वर्णन है। ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व जिस तरह राम को विष्णु का अवतार मान लिया गया था, उसी तरह कृष्ण को भी विष्णु का अवतार मान लिया गया था। इस तरह राम और कृष्ण, दोनों ही भागवत धर्म के प्रमुख आराध्य के रूप में प्रचलित हुए। इतना अवश्य है कि भागवत धर्म में कृष्ण की महत्ता अपेक्षाकृत अधिक प्रतीत होती है। राम का स्वरूप लोकरक्षक के रूप में विकसित हुआ और इस कारण रामकथा ने, रामभक्ति ने वैचारिक गंभीरता और सामाजिक मर्यादा को केंद्र में रखकर विकास किया। वैष्णव धर्म का अंग होने के बावजूद रामभक्ति की धारा अलग तरीके से विकसित हुई और भागवत धर्म या वैष्णव धर्म का प्रसंग उठने पर प्रायः कृष्ण की लीलाओं का वर्णन ही रूढ़ होने लगा।
कृष्ण का लोकरंजक स्वरूप समाज के विभिन्न वर्गों के लिए अपेक्षाकृत सुगम और सुग्राह्य हुआ। डॉ. भण्डारकर के अनुसार प्राचीनकाल में वैष्णव धर्म, मुख्यतः तीन तत्त्वों के योग से उत्पन्न हुआ था। पहला तत्त्व तो यह विष्णु नाम ही है, जिसका वेद में उल्लेख सूर्य के अर्थ में मिलता है। दूसरा तत्त्व नारायण धर्म का है, जिसका विवरण महाभारत के शान्तिपर्व के नारायणीय उपाख्यान में है। और तीसरा तत्त्व वासुदेव मत का है। यह वासुदेव मत वसुदेव नामक एक ऐतिहासिक पुरुष (समय 600 ई.) के इर्द-गिर्द विकसित हुआ था। इन्हीं तीनों तत्त्वों ने एक होकर वैष्णव धर्म को उत्पन्न किया। लेकिन, उसमें कृष्ण के ग्वाल रूप की कल्पना और राधा के साथ उनके प्रेम की कथा बाद में आयी और ये कथाएँ, शायद, आर्येतर जातियों में प्रचलित थीं।3 इस तरह वैष्णव धर्म वैदिक और अवैदिक विचारधाराओं के संघर्ष के फलस्वरूप विकसित हुआ और इसमें कृष्ण के ग्वाल रूप, कृष्ण का श्याम वर्ण, उनके नृत्य-गायन और उनकी रासलीलाएँ उत्तर और दक्षिण के समन्वय के रूप में देखी जा सकतीं हैं। दक्षिण के तिरुमाल या मायोन या कन्नन, उनकी प्रिया नाम्पिन्ने को राधा और कृष्ण के रूप में देखा जा सकता है। दक्षिण भारत में दूसरी-तीसरी शताब्दी से प्रचलित भक्ति-विषयक कविताएँ पाण्डित्य के स्तर पर प्रभावशाली न होते हुए भी आम जनता में भक्ति की धारणा को पुष्ट करने में समर्थ थीं। इन कविताओं का संपादन सर्वप्रथम आलवार कवि नाथमुनि ने किया और यह संग्रह प्रबंधम् के नाम से प्रसिद्ध हुआ। विष्णु के लोकप्रचलित अवतारों के प्रति आस्था, कर्म के प्रति निष्ठा, सादगी, सहजता, सरलता, समन्वय, समर्पण और निष्काम भक्ति के सुगम संस्करण को पूर्णता के साथ पाने हेतु प्रबंधम् अपेक्षाकृत सफल सिद्ध हुआ होगा, जिसके कारण भक्ति की अविरल धारा का प्रवाह दक्षिण में बहा, जिसमें आलवार संतों-भक्तों का योगदान अविस्मरणीय है। प्रत्येक आलवार का समय निश्चित करने में मतभेद अवश्य है। परन्तु, इस बात पर प्रायः सभी लोग सहमत हैं कि ये बारह विशिष्ट आलवार ईसा की तीसरी सदी से लेकर नवीं सदी तक के बीच हुए हैं। अतएव, यह बात पूर्ण रूप से निश्चित है कि प्रपत्ति, शरणागति, आत्म-समर्पण और एकान्तनिष्ठा से विभूषित भक्ति का सम्यक् विकास और प्रचार आलवारों के साहित्य द्वारा नवीं सदी के पूर्व ही संपन्न हो चुका था तथा उस समय तक दक्षिण की जनता भक्ति से, पूर्णतः, विभोर भी होने लगी थी।4 उत्तर में फैले हुए वेद-विरोधी आंदोलनों के कारण हिंदुत्व का शुद्ध रूप खिसककर दक्षिण चला गया था। यही कारण है कि जिन दिनों उत्तर भारत के बौद्ध-सिद्ध धर्म के बाह्योपचारों की खिल्ली उड़ा रहे थे, उन्हीं दिनों दक्षिण के आलवार और नायनार संत शिव और विष्णु के प्रेम में पागल हो रहे थे।5
बौद्ध-सिद्ध-नाथ परंपराओं के साथ संघर्ष की प्रवृत्ति कालांतर में स्थानांतरित होकर विदेशों से आगत धर्म के साथ स्थापित हुई, फलस्वरूप एक नए आंदोलन का सूत्रपात हुआ। भारत की पुरातन भक्ति-परंपरा के संघर्ष के कालखंड से लेकर नवागत इस्लाम के साथ संघर्ष के कालखंड में दक्षिण भारत का अपना योगदान रहा। आठवीं शती से लेकर सोलहवीं शती तक भारतीय धर्म और दर्शन के क्षेत्र में जिन महानुभावों ने कार्य किया, उनमें बहुसंख्यक का आविर्भाव दक्षिण में ही हुआ था; यथा- शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, निम्बार्क, माध्व, सायण, बल्लभ आदि। इन मनीषियों ने परंपरागत धर्म एवं दर्शन की नयी-नयी व्याख्याएँ प्रस्तुत करके समस्त भारत की हिंदू जनता को धार्मिक नेतृत्व प्रदान किया।6 समस्त भारतवर्ष में भक्ति-आंदोलन के प्रणेता के रूप में दक्षिण के आलवार और नायन्मार कवियों-संतों के पूर्ववर्ती और परवर्ती अनेक भक्त आचार्यों, संतों, कवियों ने अनेक मतों- पंथों-संप्रदायों को वैचारिक आधार देकर स्थापित किया। दक्षिण भारत में प्रायः 600 ई. के आसपास विकसित हुए आंदोलन के उत्तर भारतीय संस्करण और उसके पूर्वापर संबंधों में विभिन्न मतों-पंथों-संप्रदायों को देखा जा सकता है। इनमें से प्रत्येक नवीन विचारधारा या संप्रदाय की उत्पत्ति पूर्ववर्ती या समकालीन संप्रदाय के विरोध और संप्रदाय-विशेष के अनुयायियों की सामाजिक प्रतिष्ठा पर आधारित होती थी। सुधारवादी संतों के देहावसान के बाद उनके शिष्य अपने गुरू की पूजा शुरू करते थे और उनके नाम से नया पंथ चला देते थे।7 इस प्रकार अनेक विद्वान आचार्यों और संप्रदायों की विस्तृत परंपरा को देखा जा सकता है। उनकी उत्पत्ति और विकास के क्रम का प्रवाह तमिल-तेलगू-कन्नड़-मलयालम और फिर मराठी भाषाओं के क्षेत्रों से होता हुआ हिंदीभाषी क्षेत्रों तक पहुँचा। इनके विकास-क्रम में आने वाला वारकरी संप्रदाय अपनी विशिष्टता के कारण न केवल महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, वरन् इस संप्रदाय में भक्ति आंदोलन के दोनों सोपानों के वैशिष्ट्य-विकास के व्यवस्थित क्रम को भी देखा जा सकता है।
वारकरी संप्रदाय के आराध्य देव विट्ठल या विठोबा और रुक्मिणी या रखुमाई की आराधना महाराष्ट्र में अत्यंत प्राचीन है। दक्षिण में जब आर्यों का प्रवेश हुआ, तब यहाँ के मूल आदिवासियों के प्रमुख उपास्य का भी आर्यीकरण अवश्य हुआ होगा। इसी समन्वयीकरण के ही कार्यस्वरूप पंढरपुर के विठोबा-विट्टल-विष्णु के बालरूप माने गये और अवतार भी समझे गये।8 पंढरपुर के विट्ठल के साथ भक्त पुंडलीक की कथा भी प्रचलित है। भक्त पुंडलीक को ऐतिहासिक माना जाए, या काल्पनिक माना जाए, इसे लेकर विद्वानों के बीच मतभेद भले ही हो, मगर लोक-धारा में भक्त पुंडलीक की मातृ-पितृभक्ति प्रसिद्ध है। वे विठोबा का वरदान पाने से ज्यादा जरूरी अपने माता-पिता की सेवा मानते हैं।9 पुंडलीक की कर्मठता और माता-पिता के प्रति उनकी भक्ति-भावना को देखकर वरदान देने आए विठोबा को पुंडलीक ने रुकने के लिए कहा, तो विठोबा ने पूछा कि मैं कहाँ पर आसन ग्रहण करूँ? इस पर पुंडलीक ने एक ईंट उनकी ओर फेंककर उसपर बैठने को कहा। जब पुंडलीक विठोबा के पास आए, तब पुंडलीक ने वरदान माँगा कि इसी रूप में वे अपने भक्तों को दर्शन देते रहें, तब से पुंडलीक की फेंकी ईंट पर विठोबा अपने दोनों हाथ कमर में रखे हुए खड़े हैं। देवशयनी एकादशी में विठोबा (विट्ठल) अपने शयन के लिए नहीं जाते और अपने भक्तों के लिए अनेकानेक वर्षों से इसी प्रकार खड़े हुए हैं। विठोबा का यह स्वरूप लोकदेवता का है, जिसने भाषा-भूषा-जाति-पंथ के भेद को मिटा दिया। विठोबा को पंडरगे, पंढरीनाथ, पांडुरंग और विठाई माउली आदि नामों से भी जाना जाता है।10 इसी विट्ठल देवता को अपनी भक्ति में रँगकर प्रस्तुत करते हुए अनेक भक्त कवियों ने अपनी-अपनी मानसिकता के अनुसार अलग-अलग रूप दिया। अनेक कहानियों, प्रसंगों, घटनाओं का काव्यात्मक सृजन किया। महिलाओं ने विट्ठल को अपनी भावना में रँगकर अपने निकट देखा, मानवीय रूप दिया। विट्ठल और रखुमाई के प्रेम-प्रसंगों को लेकर अपने मन की अनेक मधुर कल्पनाओं को चित्रमय अभिव्यक्ति दी। कुछ ऐसी रचना भी मिलती हैं, जहाँ विट्ठल-रखुमाई के साथ जनाबाई को जोड़कर प्रेम-त्रिकोण की परिकल्पनाएँ की गयी हैं। सारांश विट्ठल सामान्य जनता का भावनात्मक आलंबन दैवत था। इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है, भारत में जनता विशिष्ट देवता का एकांतिक समर्थन या विरोध नहीं करती। अपनी रुचियों, प्रवृत्तियों, स्वप्नों, विचारों, उद्देश्यों के अनुसार देवता की मूर्ति और जीवन को ढालती है, अपने मिथकों की सर्जना करती है। ‘विट्ठल’ यही वह मूर्ति है। परिणामतः सभी प्रकार की समभावना को यहाँ स्थान है। दुर्गा भागवत जी ने तो विट्ठल को महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक की एकात्म संस्कृति का प्रतीक माना है।11 इस परंपरा की प्राचीनता को खोजना असंभव की हद तक कठिन कार्य है। भक्त पुंडलीक के सदृश्य भक्ति को धारण करते हुए अपने आराध्य के प्रति अपने समर्पण को प्रकट करने के लिए गले में तुलसी की माला धारण करने वाले भक्त-समाज को मालकरी संप्रदाय का नाम कब मिला और कालांतर में विट्ठल के दर्शन के लिए भक्त समूहों की वारी (यात्रा) की परंपरा को वारकरी संप्रदाय कब कहा जाने लगा, इसके विषय में विद्वानों ने अपने अनुमान के आधार पर भले ही काल-निर्धारण करने की कोशिश की हो, मगर वारकरी संप्रदाय के नाम से प्रसिद्धि पाने वाली यह भक्ति-धारा, जिसका संबंध पंढरपुर के विठोबा से जुड़ता है, उसने भक्ति आंदोलन में अपने अनूठे स्वरूप का सर्जन किया है।
डॉ. नरहरि चिन्तामणि जोगलेकर अपने शोध-ग्रंथ में उद्धृत करते हैं कि- वारकरी संप्रदाय अपने उत्पादकों के नाम से नहीं चला है। वैदिक धर्म के विरुद्ध आवाज इस संप्रदाय ने नहीं उठाई, वरन् उसके तत्त्वों से ही मानवी समता भूमि पर समन्वय करते हुए इस संप्रदाय ने अपना विकास किया है।12 ये तथ्य प्रमाणित करते हैं कि वारकरी संप्रदाय वैदिक धर्म के विरोध के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाले भक्ति आंदोलन के प्रभाव से उत्पन्न नहीं हुआ, वरन् अपने प्राचीनतम स्वरूप को समयानुकूल परिवर्तित करते हुए विकसित हुआ है। यह तथ्य ब्रह्म संप्रदाय के साथ इस संप्रदाय के केंद्र पंढरपुर की समकालीनता को भी सिद्ध करता है।
संत ज्ञानेश्वर या ज्ञानदेव ने वारकरी संप्रदाय के तात्विक और दार्शनिक आधार को तैयार करने का काम किया। उन्होंने लोक-प्रचलित भाषा में ज्ञानेश्वरी गीता और अमृतानुभव आदि ग्रंथों का सृजन किया। नामदेव ने अपने अभंग पदो के माध्यम से वारकरी संप्रदाय की लोकप्रियता का विस्तार पंजाब तक किया। नामदेव के साथ ही सांवता माली, जनाबाई, रोहीदास चर्मकार, चोखा महार और नरहरि सोनार आदि भी इस संप्रदाय के विकास में सहायक हुए। ज्ञानदेव के भाई निवृत्तिनाथ, सोपाननाथ और बहन मुक्ताबाई ने वारकरी संप्रदाय के विकास में योगदान दिया। संत भानुदास ने विजयनगर से विट्ठल की मूर्ति वापस लाकर पंढरपुर में मंदिर का भव्य निर्माण करवाया। एकनाथ ने वाराणसी में एकनाथी भागवत का सृजन करके ज्ञान के साथ ही कीर्तन-भजन के माध्यम से भक्ति के सहज स्वरूप को विकसित किया। संत तुकाराम ने अभंग पदों की रचना और उनके संकीर्तन के प्रसार के साथ वारकरी संप्रदाय को समृद्ध किया। इसी तरह निळोबा ने भी विठोबा की भक्ति का प्रसार किया। इनके साथ ही वारकरी संप्रदाय की समन्वय भावना से प्रभावित होकर कीर्तन करनेवाले मुस्लिम कीर्तनिए भी इस संप्रदाय के साथ में आए और यह परंपरा आज भी देखी जा सकती है।13 इस वारकरी पंथ में निम्न जातियों के संतों को भी उनकी साधना के आधार पर सम्मान का स्थान मिला है। इसीलिए नामदेव को खेचर को गुरु मानने में संकोच नहीं हुआ। ज्ञानेश्वर के सखा, सहचर, मित्र, बंधु नामदेव के आत्मीय जनों का परिदृश्य देखने पर पता चलता है कि मध्ययुग में एक महान ‘संत जाति’ निर्मित हो रही थी, जो शूद्र जातिभेदों से ऊपर उठकर श्रद्धेय गं.भा. सरदार के शब्दों से ‘अध्यात्मनिष्ठ मानवतावाद’ का प्रभावपूर्ण आलोक वितरित कर रही थी।14  
उत्तर भारत में भक्ति-आंदोलन का स्वरूप प्रायः दार्शनिक विवेचनों और सांप्रदायिक कट्टरता पर आधारित रहा, साथ ही संतों की अलग-अलग गद्दियों, आचार्यों की विविध मान्यताओं के निर्माण ने ऐसी व्यापकता का सृजन किया, जिसे सरलता के साथ वर्गीकृत कर देना हिंदी साहित्येतिहास के आचार्यों के लिए सुलभ हुआ। जिस समय उत्तर भारत में महिलाओं को साधना में बाधक समझा जा रहा था, मीरां को विष दिया जा रहा था, उस समय मुक्ताबाई और जनाबाई आदि की प्रेरणा से महिलाएँ भी वारकरी की वारी में खुलकर भागीदारी कर रही थीं। जिस समय उत्तर भारत में सगुण-निर्गुण और रामभक्ति-कृष्णभक्ति के दायरे बँध रहे थे, उस समय भी वारकरी संप्रदाय के संत इन सबके समन्वय के लिए समग्र निष्ठा के साथ लगे हुए थे। सगुण और निर्गुण की कट्टरता उत्तर भारत में इतनी ज्यादा थी कि गोस्वामी तुलसीदास को ‘सगुनहिं अगुनहिं नहिं कछु भेदा’ कहकर स्थिति को संभालने का प्रयास करना पड़ा। वारकरी पंथ समन्वय का अद्भुत रूप है। विविध हिंदू जातियों, लोक समुदायों के आराध्य दैवतों का समन्वित रूप वारकरी पंथ का आराध्य दैवत है- विट्ठल। गोप, मछुवारे, धनगर इत्यादि निम्न जात के लोगों ने भी विट्ठल में अपने दैवत को देखा और शिवभक्तों ने शिव का रूप भी। नामसंकीर्तन की महत्ता को व्यक्त करते समय ज्ञानेश्वर ने लिखा है- ‘कृष्ण-विष्णु-हरि-गोविंद । एयां नामांचे निखिल प्रबंध.’ अर्थात् कृष्ण, विष्णु, हरि या गोविंद किसी भी नाम से देवता का संकीर्तन किया जा सकता है।15 पंढरपुर को दक्षिण काशी के नाम से भी जाना जाता है, जिससे यहाँ पर शैव संप्रदाय के साथ संबंधों को समझा जा सकता है।
उपासनाभेद का आश्रय लेकर उत्तर भारत में विकसित हुई भक्ति-धारा में ‘संत’ की उपाधि निर्गुण धारा के लिए रूढ़ हो गई, जबकि महाराष्ट्र में ‘संत’ की उपाधि सज्जन और निष्काम-समर्पित भक्ति की धारा में डूब जाने वालों के लिए थी। इसी आधार पर ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम, एकनाथ आदि को जनसामान्य ने ‘संत’ की उपाधि से विभूषित किया। ‘संत’ की उपाधि के कारण उत्तर भारतीय भक्ति परंपरा में इनका वर्गीकरण भी कर दिया गया, जिसे वारकरी संप्रदाय की परंपरा और उसकी जीवंत-जागृत चेतना के आधार पर तर्कसंगत नहीं माना जा सकता है। वैष्णव धारा के प्रमुख ग्रंथ के रूप में मान्य गीता को वैदिक आडंबरों और पौरोहित्य के विरुद्ध संघर्ष का, विरोध का काव्य भी माना जाता है।15 गीता की टीका के रूप में ज्ञानेश्वर द्वारा लिखी गई ज्ञानेश्वरी गीता में किसी का विरोध नहीं, बल्कि लोकभाषा में रचित यह काव्य-ग्रंथ समाज को एकजुट करने और नीति का मार्ग दिखाने में अप्रतिम सिद्ध हुआ है। इस ग्रंथ के प्रणयन के माध्यम से संत ज्ञानेश्वर ने जीवन की ओर देखने, जीवन को सफल-सार्थक बनाने की सीख दी है। संत ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी, संत एकनाथ की एकनाथी भागवत और संत तुकाराम की गाथा को वारकरी संप्रदाय की प्रस्थानत्रयी के रूप में देखा जा सकता है, जिनमें किसी के विरोध के स्थान पर सकारात्मक भाव की प्रधानता है, इसी कारण वारकरी संप्रदाय में किसी भी मत-संप्रदाय-विचारधारा और यहाँ तक कि धर्मों के समन्वय को देखा जा सकता है। सभी धर्मों-मतों-पंथों की मूल भावना के समग्र रूप को, विराट के साथ एकाकार होने के भाव को इसी कारण वारकरी संप्रदाय में देखा जा सकता है। वारकरी संप्रदाय की यह विशिष्टता अद्भुत है। इसके साथ ही वारकरी संप्रदाय की एक अन्य विशिष्टता को रेखांकित करना अनिवार्य हो जाता है। मालकरी भक्त गले में तुलसी की माला धारण करते थे और अपने-अपने स्तर पर पूजा-उपासना करते थे। परवर्ती वारकरी भक्तों ने भक्ति के सामाजिक संस्करण को तैयार किया और इस तरह दूर-दराज से चलने वाली कीर्तन मंडलियों के माध्यम से आत्मानंद के सागर में डूबते-तिरते भक्तों ने सामाजिक जीवन, सहकार, संगठन और सामाजिक एकीकरण की ऐसी भावना का विकास किया, जिसे अन्यत्र खोजना संभव नहीं है।
समग्रतः, महाराष्ट्र के वारकरी संप्रदाय को विशिष्टताओं के उस पुंज के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें पुरातन भक्ति और उपासना के समस्त संप्रदायों, पद्धतियों, विशेषताओं की ज्योति प्रज्ज्वलित होती है। वारकरी संप्रदाय को परंपरा के क्रम में सीधे उस विधान से जोड़ा जा सकता है, जिसमें मानव-सभ्यता के विकास के साथ आराध्य और आराधक के, उपास्य और उपासक के संबंधों की उत्पत्ति हुई, विकास हुआ। सगुण और निर्गुण के समन्वय के साथ ही जैन-बौद्ध मतों का समन्वय भी पंढरपुर में देखा जा सकता है, कुछ विद्वानों ने अपने शोधों में ऐसा सिद्ध किया है। वारकरी संप्रदाय की इस विशेषता के पीछे भी लोकदेवता विट्ठल की भूमिका को देखा जा सकता है। मतों और संप्रदायों के आपसी विभेदों और स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने के प्रयासों में भक्ति के वास्तविक स्वरूप को भुला देने वाली मान्यताओं के लिए, विद्वान आचार्यों के लिए वारकरी संप्रदाय ने एक दिशा देने का काम किया, संभवतः इसी कारण विठोबा और उनके भक्तों के बीच का संबंध युगों-युगों की यात्रा करके आज भी समन्वय, सौहार्द और अद्धितीय भक्ति-भावना को जीवंत किए हुए है। समूचा पंढरपुर आज भी विट्ठल-विट्ठल के गजर से भरा है। आज भी पताकाओं को लिए हुए भक्तों की टोलियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। हरिकीर्तनों की धूम वहाँ पर मची रहती है और वहाँ चोखा (महार होकर भी) गले लग जाता है।                                    
विट्ठल विट्ठल गजरी । अवधी दुमदुमली पंढरी
होतो नामाचा गजर । दिंहयापताकांचे भार
निवृत्ति ज्ञानदेव सोपान । अपार वैष्णव ते जन
हरिकीर्तनाथो दाटी । तेथे चोखा घानली मिठो ।
संदर्भ-
1. उपासना प्रणालियों तथा भक्ति संप्रदायों का विकास, भक्ति-आंदोलन और साहित्य, डॉ. एम जॉर्ज, प्रगति प्रकाशन, आगरा, प्रथम सं. 1978, पृ. 139,
2. भारतीय चिन्तन की द्वन्द्वात्मक प्रगति, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, भगवतशरण उपाध्याय, जनवाणी प्रेस एण्ड पब्लिकेशनस् लि., बनारस, प्रथम सं. 1950, पृ. 54-55,
3. आर्य और आर्येतर संस्कृतियों का मिलन, संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, उदयाचल, राजेंद्रनगर, पटना, प्रथम सं. 1956, पृ. 98,
4. भक्ति आन्दोलन और इस्लाम, संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, उदयाचल, राजेंद्रनगर, पटना, प्रथम सं. 1956, पृ. 377,
5. इस्लाम का हिंदुत्व पर प्रभाव, संस्कृति के चार अध्याय, रामधारी सिंह दिनकर, उदयाचल, राजेंद्रनगर, पटना, प्रथम सं. 1956, पृ. 366,
6. पौराणिक भक्ति आंदोलन : सामान्य पृष्ठभूमि, हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास- प्रथम खंड, डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, पृ. 179,
7. उपासना प्रणालियों तथा भक्ति संप्रदायों का विकास, भक्ति-आंदोलन और साहित्य, डॉ. एम जॉर्ज, प्रगति प्रकाशन, आगरा, प्रथम सं. 1978, पृ. 137-138,
8. वैष्णव धर्म और दर्शन का क्रमिक विकास, हिंदी एवं मराठी के वैष्णव संत साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. नरहरि चिन्तामणि जोगलेकर, जवाहर पुस्तकालय, मथुरा,1968, पृ. 67,
11. मराठी कविता में सर्वधर्म समभाव, मराठी साहित्य : परिदृश्य, चंद्रकांत म. बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1997, पृ. 27,
12. वैष्णव मतों की विभिन्न शाखाएँ संप्रदाय और उनका हिंदी मराठी क्षेत्र में क्रमिक विकास, हिंदी एवं मराठी के वैष्णव संत साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. नरहरि चिन्तामणि जोगलेकर, जवाहर पुस्तकालय, मथुरा,1968, पृ. 133,
13. मध्यकालीन हिंदी मराठी के संत कवि, मराठी साहित्य : परिदृश्य, चंद्रकांत म. बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1997, पृ. 12,
14. वही, पृ. 12,
15. मराठी कविता में सर्वधर्म समभाव, मराठी साहित्य : परिदृश्य, चंद्रकांत म. बांदिवडेकर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम सं. 1997, पृ. 27,
16. गीता-दर्शन अथवा संघर्ष, भारतीय समाज का ऐतिहासिक विश्लेषण, भगवतशरण उपाध्याय, जनवाणी प्रेस एण्ड पब्लिकेशंस लि., बनारस, प्रथम सं. 1950, पृ. 27-40 ।

{लालबहादुर शास्त्री कॉलेज आफ आर्ट्स, सायंस एंड कॉमर्स, सतारा (महाराष्ट्र) में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत शोध-पत्र एवं तन्वी प्रकाशन, 857,ब, शनिवार पेठ, सातारा (महाराष्ट्र) द्वारा प्रकाशित (ISBN 978-81-934308-5-9), संपादक- डॉ. भरत सगरे, सहसंपादक- डॉ. विट्ठल नाईक}