श्रीकृष्ण रास मंडल बरास्ता वक्त पाजेब-सा मेरे पैरों में
बँध.....
किड़...र्र..र्र...र्र...किड़-किड़.. धम्म...
हे प्रभु गिरिधर.. गोवर्धनधारी... अब राखो पत हमारी...हम आए सरन तिहारी... किड़-धम्म-धम्म... और वक्त पाजेब-सा मेरे पैरों
में बँध, धड़कनों के संग सुर मिलाया करे..साज़ बजते ही साथी देखो यहाँ, रौनकें दिल
में सबके बढ़ाया करे... के साथ ही हे मात तेरे चरणों में..आकाश झुका
देंगे...आँसू न बहा माता, मोती न लुटा माता.. जैसे बोल बाँदा के उन तमाम
बाशिंदों के लिए स्मृतियों की मधुर पूँजी बनकर आज भी संचित होंगे, जिन्होंने
बीसवीं और इक्कीसवीं सदी के संधिकाल में अपनी तरुणाई को देखा होगा। आज के तमाम
युवाओं के लिए भी यादों में ये पंक्तियाँ होंगी, किंतु यहाँ सीमा-रेखा खींचकर
बताना इसलिए आवश्यक हो गया, क्योंकि इक्कीसवीं सदी के शुरुआती दशक में आई ‘इंटरनेट
क्रांति’ ने अचानक ही बहुत बड़ा बदलाव ला दिया था। और इस बड़े बदलाव ने सामूहिक
मनोरंजन के केंद्रों को तेजी के साथ सिकोड़ दिया, चाहे बात सिनेमाघरों की हो, या
फिर रंगमंचीय परंपराओं की हो..।
नगाड़े की धमक और ढोलक की थापों के बीच गूँजते
ऐसे चौबोलों, कड़ों, दोहों, दौड़, लँगड़ी दौड़, लावनी और लँगड़ी लावनी जैसे
छंद-विधानों और सुर-लय-तालों के साथ जुड़ी हुई हैं, बाँदा के ठठराही मोहल्ले के
श्रीकृष्ण रास मंडल की स्मृतियाँ...। बाँदा नगर की धुर पुरानी आबादी के बीच स्थित
वह ठठराही मोहल्ला, जिसके साथ छोटी बाजार की पहचान भी शामिल है..., चौक-बाजार या
बड़ी बाजार के अस्तित्व में आने के बाद से ही..। वैसे तो ठठराही को ताँबे, पीतल,
काँसे के पुराने बर्तनों का अस्पताल भी कहा जा सकता है, क्योंकि यहाँ साल-भर
बर्तनों की ठक-ठक गूँजती ही रहती है, मगर वसंत पंचमी के आने के साथ ही इस मोहल्ले
में कुछ ऐसी सांस्कृतिक हलचलें भी बढ़ने लगती हैं, जिनका संबंध श्रीकृष्ण रास मंडल
से जुड़ता है। होलिकादहन के बाद आने वाली पंचमी से शुरू होने वाली रासलीला के लिए
तैयारियाँ वसंत पंचमी से ही शुरू हो जाती हैं। इसमें एक तरफ कलाकार अपने अभिनय की
तैयारी करते हैं, तो दूसरी तरफ रंग-रोगन करके रंगमंच को व्यवस्थित करने का क्रम चल
निकलता है। वैसे तो रंगशाला ज्यादा पुरानी नहीं है। पुराने जमाने में मंचन के लिए
सड़क में ही तखत बिछाकर और उनके ऊपर चाँदनी लगाकर मंच तैयार कर लिया जाता था। समय
और स्थितियों के बदलाव के साथ, और लोगों के आकर्षण व लगाव के कारण ऊँचा और पक्का
मंच अस्तित्व में आया, जिसे आज भी देखा जा सकता है। रंगशाला के दोनों तरफ से
गुजरने वाले रास्तों के कारण यह अपनी स्वाभाविक भौगौलिक स्थिति के कारण ही थियेटर
के बड़े परदे जैसा बन गया है। बाकी की कमी दूर तक चली जानी वाली चौड़ी सड़क के
दोनों किनारों पर बने मकानों के चबूतरों ने पूरी कर दी है, जो दर्शकों के बैठने के
लिए अच्छा और ऊँचा स्थान उपलब्ध करा देते हैं।
अगर अतीत में उतरकर देखें, तो साफ नज़र आता है
कि होली की पंचमी के आने के साथ ही श्रीकृष्ण रास मंडल के ऊँचे मंच के निकट के मकानों
के चबूतरों पर अस्थाई कब्जा कर लेने की होड़ चल पड़ती थी। घरों के मालिकान
अपने-अपने घरों के छज्जों में बैठकर, तो दूर-दराज से आने वाले दर्शकगण मकानों के
चबूतरों में बैठकर रासलीला का आनंद लिया करते थे। नजदीक की, और अच्छी वाली जगह की
तलाश के लिए शायद पंचमी की सुबह का इंतजार भी नहीं किया जाता होगा, ऐसा भी कहा जा
सकता है, क्योंकि अच्छी जगह के लिए बड़ी मारामारी होती थी, यहाँ तक कि कई बार
झगड़े भी हो जाया करते थे। होली की पंचमी से दस दिनों तक चलने वाली रासलीला के लिए
दर्शकों द्वारा तय की गई जगह, जिसे धुर बुंदेलखंडी में छेकी गई जगह कहा जा सकता
है, पूरे के पूरे दस दिनों के लिए आरक्षित हो जाती थी। पूरे दिन चबूतरों पर बिछी
रहने वाली फट्टियाँ और बोरे इस बात को बखूबी बता दिया करते थे, कि लोगों में
रासलीला और स्वाँग देखने के लिए कितना आकर्षण होता था।
कमोबेश ऐसा ही आकर्षण स्थानीय कलाकारों के लिए
भी होता था, जिन्हें रासमंडली में बतौर कलाकार काम करने का मौका मिल जाता था।
लोकनाट्य विधाओं के प्रति आकर्षण रखने वालों के लिए श्रीकृष्ण रास मंडल का दस
दिवसीय आयोजन किसी बड़े ‘इवेंट’ से कम नहीं होता था, और श्रीकृष्ण रास मंडल
गीत-संगीत-अभिनय आदि में रुचि रखने वाले स्थानीय लोगों को एक अवसर उपलब्ध कराने का
माध्यम बन जाता था। इसी कारण जिस कलाकार को रास मंडली में अभिनय का मौका मिलता, वह
गर्व से फूला नहीं समाता था। पुराने समय में महिला कलाकारों के लिए ऐसे मंच वर्जित
होते थे, इस कारण महिला पात्रों का अभिनय भी पुरुष ही करते थे, और वह भी ऐसा
जबरदस्त, कि सचमुच की महिलाएँ भी हार मान बैठें। इन कलाकारों की छाप लोगों के मन
में ऐसी बैठती थी, कि मंच के बाहर भी उनकी अपनी एक पहचान बन जाती थी। दिमान हरदौल
का अभिनय करने वाले रिछारिया जी, सरदार भगत सिंह और भक्त मोरध्वज का अभिनय करने
वाले पन्नालाल स्वर्णकार, शालिग्राम गुप्त, फुल्ले महाराज और ग्याल महाराज जैसे
नामचीन कलाकार भले ही आज इस दुनिया में न हों, लेकिन उनके अभिनय-कौशल को आज भी लोग
याद करते हैं।
चैत्र मास की कृष्ण प्रतिपदा से लेकर पंचमी तक
चलने वाले होलिकोत्सव का रंग उतरते-उतरते कृष्ण पंचमी, यानि रंगपंचमी के आगमन के
साथ ही बाँदा और इसके आसपास के गाँवों का उत्सवधर्मी समाज श्रीकृष्ण रास मंडल की
लीलाओं को देखने के लिए तैयार हो जाता, साल-भर की लंबी प्रतीक्षा के बाद....। मगर
बुंदेलखंड में रासलीला?.... श्रीकृष्ण की लीलाओं का मंचन....? यह तो रामलीलाओं की
भूमि है.... चित्रकूट में कोल-भीलों के बीच दोना-पत्तलों में कंद-मूल-फल खाने वाले
वनवासी श्रीराम की भूमि है... राजा के रूप में विराजमान ओरछा के अधिष्ठाता श्रीराम
की भूमि है, गोस्वामी तुलसीदास के श्रीरामचरितमानस की पंक्तियों को रात-दिन
गुनगुनाने वाली.. रग-रग में जोश भर देने वाले आल्हा के गवैयों की भूमि है... तब
यहाँ कन्हैया जी अपनी लीलाओं के साथ कैसे आ गए? यह बड़ा प्रश्न श्रीकृष्ण रास मंडल
का जिक्र होते ही अनेक लोगों के मन में उठ खड़ा होता होगा। प्रश्न भी स्वाभाविक ही
है.. और उत्तर बुंदेलखंड की अपनी अनूठी पहचान में निहित है। समन्वय का भाव
बुंदेलखंड के कण-कण में बसा है। अगर प्रभु श्रीराम चित्रकूट में, रामराजा ओरछा में
विराजते हैं, तो ओरछा में ही दिमान हरदौल भी पूजे जाते हैं, लोकदेवता के रूप
में..। गोंडों के आदिपुरुष ग्योंड़ी बाबा के प्रति जनआस्थाएँ भी देखी जाती हैं। चंदेलों-बुंदेलों
के आराध्य शिव और शक्ति के प्रतीकों को, परमालों-प्रतिहारों की देवियों को लोग
बड़ी आस्था के साथ पूजते हैं। बुंदेलखंड की सतत् संघर्षशील प्रवृत्ति के बीच
लोकरक्षकों का वजन लोकरंजक से कुछ ज्यादा रहा, संभवतः इसी कारण प्रलयंकर शिव,
शक्तिस्वरूपा चंद्रिका और महेश्वरीमाता, और दुष्टों के संहारक श्रीराम अपेक्षाकृत
अधिक स्थान जनआस्थाओं में पा सके, बजाय लीलाधारी नटवरनागर कन्हैया जी के...। बुंदेलखंड
की रामलीला बहुत प्रसिद्ध है, और उसमें भी राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद का प्रसंग तो
दूर-दूर तक अपनी ख्याति रखता है, किंतु कृष्ण की लीलाएँ इस क्षेत्र की पहचान से
नहीं जुड़ी हैं। इस कारण से भी श्रीकृष्ण रास मंडल का वैशिष्ट्य बढ़ जाता है,
क्योंकि इस रंगमंच ने बुंदेलखंड की अनूठी समन्वय की प्रवृत्ति को पिछले दो-ढाई सौ वर्षों
से जीवंत करके रखा है। इसी विशेषता के आधार पर यह भी कहा जा सकता है, कि समूचे
बुंदेलखंड में श्रीकृष्ण की रासलीलाओं के मंचन का यह सबसे पहला, इकलौता और पुराना
केंद्र होगा।
अगर मथुरा की रासलीला का बुंदेलखंडी संस्करण
श्रीकृष्ण रास मंडल में होने वाली माखनचोरी, चंद्रखिलौना, कंसवध और नाग-नथैया जैसी
लीलाओं में देखा जा सकता है, तो अलग-अलग कथानकों पर आधारित स्वाँग की परंपरा का
विस्तार भी यहाँ देखने को मिलता है। कलगी और तुर्रा नाम के ख्यालबाजी के अखाड़ों
से निकली स्वाँग की परंपरा हाथरस, वृंदावन और मथुरा में विशेष रूप से देखी जा सकती
है। इसको विस्तार देने का काम हाथरस वाले पंडित नथाराम शर्मा गौड़ ने किया।
वस्तुतः उनके आगमन के साथ ही नौटंकी के स्वाँगों का लिखित रूप तैयार होने लगा था,
जिसने रंगमंचों को व्यवस्थित करने का बड़ा काम किया। गुरु-शिष्य के रूप में चलने
वाली परंपरा में स्वाँग की पुस्तकों के आगमन के साथ ही संवादों को, संगीत की धुनों
को तैयार करना सरल हो गया। हाथरस की स्वाँग की यह परंपरा श्रीकृष्ण रास मंडल में
भी दिखाई देने लगी। इसमें बड़ी भूमिका गुरु-शिष्य परंपरा की भी रही है, जो आज भी
कायम है। पंडित नथाराम शर्मा गौड़ द्वारा रचित स्वाँगों की तर्ज पर श्रीकृष्ण रास
मंडल में भी स्वाँग लिखने और मंचन करने की शुरुआत हुई। इसमें सबसे बड़ा नाम
फूलचंद्र गुप्त बताशेवाले का आता है। उन्होंने वभ्रुवाहन नामक स्वाँग लिखा था।
फूलचंद्र गुप्त रास मंडली से भी जुड़े हुए थे, इस कारण उन्होंने स्थानीय दर्शकों
की रुचि के अनुसार संवादों और भाषा को रखा, शायद इसी कारण वभ्रुवाहन स्वाँग को
जनता के द्वारा बहुत पसंद किया जाता था। वभ्रुवाहन स्वाँग के साथ ही वीर अभिमन्यु,
भक्त मोरध्वज और राजा हरदौल के स्वाँग भी बहुत प्रसिद्ध रहे हैं, जिनका मंचन हर
साल किया जाता रहा है। इन स्वाँगों को देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ती थी। बुंदेलखंड
की अपनी पहचान, बुंदेलखंडी लोकगायकी, जैसे- लमटेरा, फाग, दादरा, रसिया, कजरी,
उमाह, कछियाई, राई आदि को दस दिवसीय रासलीला का प्रमुख आकर्षण कहा जा सकता है।
बुंदेलखंड के लोकगायकों के लिए यह मंच बड़ा अवसर उपलब्ध कराता था। इस मंच के
गायकों को दूसरे स्थानों में भी विशेष मान-प्रतिष्ठा मिलती थी।
वक्त पाजेब-सा मेरे पैरों में बँध, धड़कनों के
संग सुर मिलाया करे.. लावनी की ये पंक्तियाँ श्रीकृष्ण रास मंडल के संदर्भ में एकदम खरी
उतरती हैं, क्योंकि ठठराही मोहल्ले का यह साधारण-सा आयोजन समय और समाज के प्रति
अपनी जिम्मेदारी को निभाने में पीछे नहीं रहा है। समय के साथ आते बदलावों की हर
हरारत को इसने अपने में उतारा है। श्रीकृष्ण की भक्ति-विषयक लीलाओं और दशावतार के
मंचन के बाद मनोरंजन के लिए इसमें स्वाँगों के माध्यम से सामाजिक समस्याओं,
कुरीतियों-बुराइयों के प्रति लोगों को सचेत करने का काम बखूबी होता रहा। इतना ही
नहीं, देश की आजादी के आंदोलन के दौरान, और उसके बाद भी श्रीकृष्ण रास मंडल अपनी
रंगमंचीय प्रस्तुतियों के माध्यम से समय और समाज के साथ निरंतर जुड़ा रहा है।
आजादी के आंदोलन में पारसी रंगमंचों की बड़ी भूमिका रही है। अंग्रेजों के कोप से
बचने के लिए रंगमंच में इस तरह से प्रस्तुतियाँ दी जाती थीं, कि क्रांतिकारियों का
संदेश लोगों तक पहुँच भी जाए, और अंग्रेजों की पकड़ में भी न आए। कमोबेश ऐसा ही
दायित्व उस कालखंड में श्रीकृष्ण रास मंडल ने भी निभाया। पौराणिक पात्रों के साथ
ही राजा हरदौल और भक्त मोरध्वज जैसे स्वाँगों के मंचन में देश की आजादी के आंदोलन
के साथ जुड़ने के संदेश निहित होते थे। देश की आजादी के लिए शहीद होने वाले
क्रांतिकारियों के जीवन का मंचन करके लोगों के मन में पहले आजादी की अलख जगाने, और
आजादी के बाद इन क्रांतिवीरों की स्मृतियों को जीवंत रखने में भी रास मंडल की बड़ी
भूमिका रही है। रासलीलाओं के क्रम में आने वाले शहीद भगत सिंह नाटक में सुखदेव,
राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त आदि क्रांतिकारियों के जीवन को उतारा
जाता था। इतना ही नहीं, दुर्गा भाभी जैसी वीरांगनाओं को भी इन नाटकों में दिखाया
जाता था। सरदार भगत सिंह का स्वाँग भी बहुत प्रसिद्ध रहा है, और इसे देखने के लिए
भी भारी भीड़ इकट्ठी हुआ करती थी। अगर रंगपंचमी से दस दिनों के भीतर 23 मार्च आ
जाता था, तो सरदार भगत सिंह का मंचन 23 मार्च, अर्थात् सरदार भगत सिंह के बलिदान
दिवस पर ही होता था। यह क्रम आज भी अनवरत जारी है।
बाँदा के इस अनूठे रंगमंच के नामचीन कलाकार
कस्सी गुरु की मृत्यु नब्बे वर्ष की आयु में हुई थी, उनकी मृत्यु को लगभग तीस वर्ष
हो चुके हैं। कस्सी गुरु बताया करते थे, कि उनके बाबाजी ने रहस के मंचन को देखा
था। अपने बाबा से प्रेरित होकर ही कस्सी गुरु रास मंडल से जुड़े थे। कस्सी गुरु के
बताने के अनुसार पंचलैट के उजाले में बिना ध्वनि-विस्तारक यंत्रों की मदद के,
अस्थायी मंच बनाकर जितने उत्साह के साथ दस दिनों तक रासलीलाओं का आयोजन होता था,
वह निश्चित तौर पर आज के समय में कल्पनातीत है। नक्कारे की धमक भी ऐसी होती थी, कि
बाँदा के आसपास के लगभग बीस-पचीस किलोमीटर के दायरे में आने वाले गाँवों के लोग
इकट्ठे हो जाते थे। कभी-कभी सिर पर आ गए सूर्यदेव की परवाह किए बिना लोग डटे ही
रहते थे, मानों पूरे स्वाँग को देखकर ही उठने का प्रण लेकर आए हों....कब रात गुजर
गई, कब दिन चढ़ आया, इससे बेखबर...। कस्सी गुरु की बातों का सहारा लेकर अगर
श्रीकृष्ण रास मंडल का काल-निर्धारण किया जाए, तो यह परंपरा सीधे तौर पर दौ सौ
वर्षों से अधिक पुरानी नजर आती है।
वैसे ठठराही के ही प्रेम चच्चा, उर्फ बैरागी
डॉक्टर उर्फ प्रेम श्रीवास्तव जी के पास भी इस रंगशाला से जुड़ी ढेरों स्मृतियाँ
थीं। आज उनको दिवंगत हुए कई वर्ष गुजर गए हैं, किंतु उनकी मोहक वंशी की धुन को कभी
भुलाया नहीं जा सकता। अपने नाम के अनुरूप ही वे बैरागियों जैसा तंबा और बंडी पहनते
थे। होम्योपैथी के अच्छे जानकार थे, साथ ही गीत-संगीत से विशेष लगाव रखते थे। यही
एक कारण था, जो उनको श्रीकृष्ण रास मंडल से जोड़े हुए था। उनकी परंपरा को उनके
बेटे प्रशांत ने आगे बढ़ाया है। वंशी, ढोलक, हारमोनियम आदि विभिन्न वाद्य-यंत्रों
में पारंगत प्रशांत जी की श्रीकृष्ण रास मंडल में सक्रियता सुखद है, सुंदर है। आज
पुरानी पीढ़ी के तमाम कलाकार या तो दिवंगत हो चुके हैं, या फिर शारीरिक रूप से
अक्षम हो चले हैं। ऐसी स्थिति में उनके वंशजों ने दो सौ साल पुरानी इस परंपरा को
जिलाए रखने का यत्न किया है, जो कई अर्थों में महत्त्वपूर्ण है, सराहनीय है।
श्रीकृष्ण रास मंडल के प्रमुख कर्ता-धर्ता
श्री बसंतलाल जी सर्राफ एक ऐसे व्यक्तित्व का नाम है, जिन्होंने लंबे समय तक सभी
को जोड़कर रखा है, और इसके लिए वे आज भी सक्रिय हैं, अपनी बढ़ती उम्र की विवशता के
बाद भी...। किंतु उनकी वेदना आज के बदलते समय को लेकर है। सूचना और संचार क्रांति
ने बहुत कुछ बदल दिया है। लोगों के पास उपलब्ध दूसरे तमाम मनोरंजन के साधनों ने,
दौड़ती-भागती जिंदगी ने श्रीकृष्ण रास मंडल की उस पुरानी हनक को ठेस पहुँचाई है,
जिसके बूते इस रंगमंच ने समाज का मनोरंजन भी किया, समाज को नसीहतें भी बाँटीं और
बुंदेली माटी की पहचान को जिलाए रखा। बसंतलाल जी के सुपुत्र विजय जी की पीढ़ी भी
उसी सक्रियता के साथ परंपरा को निभाती जा रही है, किंतु तेजी से बदलते समाज और
दौड़ती-भागती जिंदगी के बीच सामूहिक रूप से बैठकर कुछ मनोरजंन कर लेने, अपनी
सांस्कृतिक पहचान को दुहरा लेने और लोकजीवन का सहकार-सानिध्य पा लेने के अवसर घटते
जा रहे हैं; या यूँ कहें, कि हम अपनी जिंदगी के जरूरी कामों की सूची से इन्हें
हटाते जा रहे हैं। संभवतः इसी कारण बुंदेलखंड का यह अनूठा रंगमंच अपने लगभग दौ सौ
वर्षों के गौरवपूर्ण अतीत को समेटकर अस्तित्व के लिए संघर्ष करने को विवश हो गया
है।
राहुल मिश्र
(दमोह की हटा नगरपालिका द्वारा प्रकाशित वार्षिक पत्रिका- बुंदेली दरसन- 2018 में प्रकाशित)